वैय्यावृत्ति विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- दीक्षाभिमुख को दीक्षा के लिए प्रेरित करना भी वैय्यावृत्ति मानी जाती है।
- वैय्यावृति अंतरंग तप में आती है, इसलिए वैय्यावृत्ति करने वाला तपस्या में लगा हुआ है, ऐसा समझना चाहिए।
- अलग-अलग भावों के माध्यम से दिये गये दान और की गई वैय्यावृत्ति का फल तारतम्य को लेकर हुआ करता है।
- शरीर में कौन रहना चाहता है, लेकिन इससे उपकार होता है। इसके माध्यम से संवर, निर्जरा चलती रहती है, इसलिए वैरागी इसमें रहता है।
- संसार, शरीर और भोगों का आकर्षण कम हो जाना, इनसे वैराग्य आ जाना एक बड़ी अदभुत घटना है।
- वैराग्य आते ही संसार असार लगने लगता है, राग में, असार में (छिलका में) भी सार (तेल) निकाल लेता है।
- धर्म में, धर्म के फल में और दर्शन (मोक्षमार्ग) में जो हर्ष होता है और पापों से भय होता है, उसे संवेग कहते हैं और संसार, देह तथा भोगों में विरक्तभाव रूप वैराग्य है।
- बारह भावनाओं का चिन्तन करने से वैराग्य की उत्पत्ति होती है।
- सम्यक दर्शन जितना प्रौढ़ होगा उतना ही अधिक वैराग्य बढ़ेगा।
- वैराग्य रूपी अंकुश से इन्द्रिय रूपी हाथियों को वश में कर लेना चाहिए।
- संसार, शरीर और भोग के त्याग रूप वैराग्य तीन प्रकार का होता है।
- वैराग्य में भय नहीं, अभय होता है।
- जिन्हें गुणों के प्रति आदर होता है, वही वैय्यावृत्ति कर सकता है।
- जिस समय जो आवश्यक हो, संयमी के लिए उसकी पूर्ति करना वैय्यावृत्ति है।
- वैय्यावृत्ति में प्रदर्शन नहीं होता बल्कि समर्पण होता है।
- वात्सल्य अंग को सुरक्षित रखना चाहते हो तो वैय्यावृत्ति को कभी भूलना नहीं चाहिए।
- जो वैय्यावृत्ति नहीं करता उसके व्रत टूंठ वृक्ष से पक्षियों की भाँति उड़ जाते हैं।
- आवश्यक और सीमा के अनुरूप ही वैय्यावृत्ति होनी चाहिए।
- जो वैय्यावृत्ति नहीं करता तो समझना वह संघ को तोड़ने का काम कर रहा है।
- लोक संग्रह वैय्यावृत्ति के माध्यम से ही होता है।
- दान और वैय्यावृत्ति को आचार्यों ने अतिथि-संविभागव्रत के रूप में स्वीकारा है।
- मानसिक वैय्यावृत्ति करना बहुत कठिन है।
- जो गुणों के प्रति अनुराग नहीं रख सकता वह कभी भी वैय्यावृत्ति नहीं कर सकता।
- गुरुओं के गुणों के प्रति आदर भाव रखते हुये जो वैय्यावृत्ति करता है वह आगे चलकर उन्हीं गुणों को प्राप्त करता है।
- वैय्यावृत्ति करने वाला नियम से विनयशील होता है, इसलिए वैय्यावृत्ति करने वाले के दो तप सहज ही हो जाते हैं।
- अपनी शक्ति के अनुसार तपस्वियों की वैय्यावृत्ति करने से तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है।
- कुछ न करने का नाम ही निश्चय है, इसलिए निश्चय सरल है। व्यवहार में कुछ करना होता है, इसलिए व्यवहार धर्म कठिन है।
- जहाँ सत्य होता है वहाँ विसंवाद होता है और विसंवाद से राग-द्वेष होता है, जिससे संसार बढ़ता है।
- कर्म बंधन शुभाशुभ क्रियाओं के आस्रव से होता है और आस्रव क्रोधादि कषायों से होता है, क्रोधादि प्रमादों से उत्पन्न होते हैं और प्रमाद मिथ्यात्व से पुष्ट होता है।
- अपने आप में स्वाश्रित होना एक बड़ी तपस्या है।
- यदि कार्यक्रम में प्रत्येक व्यक्ति व्यवस्थित हो जावे तो व्यवस्थापकों की जरूरत ही नहीं पड़ेगी, कभी-कभी व्यवस्थापकों से ज्यादा अव्यवस्था हो जाती है।
- जो संसार से डरता नहीं, जो पापों से भयभीत नहीं है, वह वीर नहीं कहला सकता।
- जो विकसित हो रहे हैं, उन्हें सहयोग देने वाला बंधु माना जाता है, इसलिए कमल को विकसित करने में सहयोग करने वाले सूर्य को कमल बंधु कहा जाता है।
- घर में बंधुजन ही चारुदत्त जैसों को दारुदत्त बनाते हैं (शराब पीने में प्रवृत्त करते हैं) मोह जाल में फंसाते हैं।
- जिनसे हमारे दोष फलें-फूलें, वे बंधु कैसे ?
- बाह्य वस्तु का विकल्प छूटे बिना अध्यात्म का रस नहीं आ सकता, इसलिए कहा है-शम ही जिनका धन है, वे साधु हैं।
- सत्य वही है जो बोलता नहीं, अपनी बात सिद्ध करने छटपटाता नहीं है।