जिन्होंने इस विश्व का समस्त ज्ञान प्राप्त कर लिया ऐसे सर्वज्ञ वीतराग और हितोपदेशी भगवान ने हमारे आत्म कल्याण के लिए एक सूत्र दिया है वह है अस्तेय या अचौर्य व्रत। ‘स्तेय' कहते हैं अन्य पदार्थों के ऊपर अधिकार जमाने की आकांक्षा अथवा 'पर" पदार्थों पर आधिपत्य रखने का वैचारिक प्रयास जो कभी संभव नहीं है फिर भी उसे संभव बनाने का मिथ्या-भाव। चोरी का सीधा सा अर्थ है 'पर' का ग्रहण करना। इस बात को हमें स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि ‘स्व” के अलावा 'पर' के ऊपर हमारा अधिकार नहीं हो सकता। ‘स्व” क्या है 'पर' क्या है जब तक यह ध्यान नहीं होगा और 'पर' को हम जब तक 'स्व' बनाने का प्रयास करते रहेंगे तब तक इस संसार से निस्तार संभव नहीं है।
हम 'स्व' को पहचान नहीं पा रहे हैं। विस्मृति प्रत्येक संसारी जीव को 'स्व' की ही हुई है। ‘पर' की विस्मृति आज तक नहीं हुई। 'पर' को हमने कभी ‘पर' नहीं माना, ‘पर' को ‘पर' समझना अत्यन्त आवश्यक है। ‘पर' को ‘स्व' मान लेना या 'पर' जानते हुए भी उसे अपना लेने का भाव ही चोरी है। आप अपने को साहूकार मानते हैं तो सच्चा साहूकार तो वही है जो ऐसे भाव नहीं लाता जो पर की चीजों पर दृष्टिपात भी नहीं करता, अपना आधिपत्य जमाने का रंचमात्र भी प्रयास नहीं करता। आत्मा के पास ज्ञान-दर्शन रूप उपयोग है। जानने देखने की शक्ति है, भगवान् तीन लोक को स्पष्ट जानते-देखते हैं। लेकिन हमारे जानने-देखने और उनके जानने-देखने में बहुत अंतर है। हमारी दृष्टि में मात्र देखना नहीं है, हमारी दृष्टि में पदार्थ को लेने के भाव हैं, प्राप्ति के भाव हैं और उनकी दृष्टि में मात्र दर्शन है।
एक दार्शनिक ने जगत् के बारे में लिखा है कि दूसरा जो भी है वही दुख है वही नरक है। भगवान् महावीर स्वामी ने पहले कह दिया था कि दूसरा नरक नहीं है बल्कि दूसरे को पकड़ने की जो भाव दशा है वह हमारे लिए दुख और नरक का कारण बनती है। पकड़ना चोरी, ग्रहण का भाव करना चोरी है। किसी का होना या किसी को जानना चोरी नहीं है। जब तक हमारी दृष्टि लेने के भाव से भरी हुई है वह निर्मल दृष्टि नहीं है।
लौकिक क्षेत्र में चोरी करना एक बहुत बड़ा पाप माना गया है और चोरी करने वाला सज्जन या नागरिक नहीं कहलाता, उसे सभी चोर कहते हैं। इस राजकीय कानून से डरकर आप राजकीय सत्ता के अनुरूप चल देते हैं किन्तु चोरी से बचते नहीं हैं, कोई न कोई पगडंडी निकाल लेते हैं। तब भले ही कानून आपको दंडित नहीं कर पाता किन्तु सैद्धांतिक रूप से आप दण्डित हैं। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने अभिनंदननाथ भगवान् की स्तुति करते हुए लिखा है कि हे भगवान्! यह संसारी प्राणी राजा के भय से, माता-पिता या अपने से बड़ों के भय से, बलवानों के भय से अन्याय, अत्याचार और पाप तो नहीं करता किन्तु करने का भाव भी नहीं छोड़ता। ऊपर से भले ही बच जाता है पर अंदर से भावों में नहीं बच पाता।
राजकीय सत्ता का अधिकार मात्र अपराध के ऊपर है और वह अपराधी को दंडित भी करती है लेकिन अपराधी के भावों के ऊपर उसका भी अधिकार नहीं चलता। भावों पर अधिकार चलाने वाला तो स्वयं हमारा कर्म है। कर्म की शक्ति आणविक शक्ति से भी अधिक है। वह कर्म आपके चारों ओर है गुप्तचरों की तरह, जहाँ कहीं भी आपका स्खलन देखने में आया, वहीं आपको बंधन में डाल देता है। राजकीय सत्ता तो मात्र हाथ पैर में बेडी डालती है, तालों में बंद कर सकती है किन्तु कर्म आपकी आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर अपना अधिकार जमा लेते हैं। आप बचकर नहीं जा सकते। यह भाव-दंड निरंतर मिलता रहता है। आप वर्तमान में मात्र सांसारिक जेल में न जाना पड़े, उससे बचने का उपाय करते हैं किन्तु वास्तविक रूप में जब तक भावों द्वारा बुरे कार्य से नहीं बचेंगे तब तक साहूकार नहीं कहलाएँगे। भावों के द्वारा चौर्य कार्य से बचें तभी साहूकार कहलायेंगे और साहूकारी का मजा भी आपको तभी मिल पाएगा।
आप अभी मात्र बाहर से बच रहे हैं। राज्य सत्ता भी बचने के लिए बाध्य कर रही है लेकिन आप कहीं न कहीं से पगडंडी निकालकर भावों के द्वारा चोरी कर रहे हैं। महाराज! बिना चोरी के तो आज कार्य चल ही नहीं सकता, कई लोगों से ऐसा सुना मैंने, सुनकर दंग रह गया मैं। आपने इस चौर्य कर्म को इतना फैला लिया कि इसके बिना अब काम ही नहीं चलता एक प्रकार से यह राजमार्ग ही बन गया। ऊपर से आप कह रहे हैं कि चोरी करना पाप है और अंदर क्या भावों में घटाटोप छाया है यह तो आप ही जानते हैं। यह ठीक नहीं है।
एक समय की बात है। एक ब्राह्मण प्रतिदिन नदी पर स्नान करने जाया करता था। एक दिन उसकी पत्नी भी उसके साथ गई। ब्राह्मण स्नान करने के बाद सूर्य के सामने खडे होकर रोज की भांति जल समर्पण करने लगा। मुख से उच्चारण करने लगा कि 'जय हर हर महादेव, जय हर हर महादेव और मन में जो है सो है ही'। पास ही स्नान करते हुए एक मित्र ने पूछा कि भैया आज क्या बात है ? यह जय हर हर महादेव के साथ आप क्या कह रहे हैं ? वह ब्राह्मण हँसने लगा, बोला, कुछ खास नहीं भइया। मैं प्रतिदिन जय हर हर गंगे, हर हर गंगे कहता था पर आज मेरी पत्नी भी साथ में आयी है और उसका नाम गंगा है इसलिए आज कैसे कहूँ ? इसलिए कहता हूँ कि जय हर हर महादेव मन में जो है सो है ही।
आप भी यही कह रहे हैं ऊपर से कह रहे हैं कि हम चोरी नहीं करेंगे पर भीतर करे बिना नहीं रहेंगे क्योंकि मन में जो है सो है ही। मात्र बाहर से छोड़ना, छोड़ना नहीं है अंदर से छूटना चाहिए। हम दूसरे पदार्थ का ग्रहण नहीं कर सकते इसलिए उसका विमोचन भी नहीं कर सकतेयह कहने में आता है किन्तु वस्तु व्यवस्था इतनी आसान नहीं है, वस्तुत: हम किसी पर पदार्थ का ग्रहण नहीं कर सकते किन्तु वैभाविक दशा में भावों के माध्यम से ग्रहण किया जाता है। जिस समय ग्रहण का भाव आता है उसी समय कर्म का बंधन हो जाता है। इस बंधन को समझना चाहिए। राज्य-सत्ता आपके शरीर और वाणी पर नियंत्रण रखती है लेकिन कर्म की सत्ता आपके भावों का भी ध्यान रखती है। जो इन दोनों के बीच अपने को साहूकार बनाने में लगा है वह जिनेन्द्र भगवान् के मार्ग का प्रभावक है और अपनी आत्मा का भी उत्थान कर रहा है।
बाह्य और अभ्यंतर ये दोनों कार्य अनिवार्य हैं। बाहर से तो जेल से बचना ही है पर अंदर से भी जब तक नहीं बचेंगे तब तक हमारी निधि क्या है? यह आप लोगों को विदित नहीं हो पायेगा। कर्म सिद्धांत को जानकर अपना आचरण करना चाहिए। कारागृह मात्र बाहर नहीं है, जहाँ कहीं मलिन भाव है वहीं पर कारागृह है। और कारागृह में रहने वाला तो अपराधी है। हम जब यहाँ आये तो एक व्यक्ति ने कहा कि महाराज! आप जयपुर आये हैं तो एक प्रवचन यहाँ कारागृह में भी दें तो अच्छा रहेगा। मैं सोच में पड़ गया कि क्या यह कारागृह नहीं है? संसार भी तो कारागृह है, यह देह भी तो कारागृह है। जो इसे कारागृह नहीं समझता वह भूल में है। आप मात्र बाहर राज्य के द्वारा निर्मित जेल को जेल मानते हैं किन्तु वास्तव में आत्मा के विपरीत परिणमन ही जेल है। जब तक यह बात समझ में नहीं आयेगी तब तक आत्मा लुटती जायेगी हम अपराधी बने रहेंगे, दरिद्र और दीन होकर भटकते रहेंगे। आप आत्मा को इस कारागृह से निवृत्त करने का प्रयास करें।
‘छूटे भव-भव जेल' भव-भव में जो परिभ्रमण करना पड़ रहा है वह जेल है। चारों गतियाँ क्या जेल नहीं हैं? दूसरे को जो, बाहरी जेल में कैद है उसे कैदी कहने से पहले सोचना चाहिए कि मैं स्वयं कैदी हूँ। यह देह रूपी कैद ही हमारे कैदी और अपराधी होने की प्रतीक है। अनादिकाल से हम अपराध करते आ रहे हैं, आज तक इस संसार रूपी विस्तृत जेल से छूटने का भाव नहीं किया। प्रत्येक समय गल्ती करते जा रहे हैं। यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि 'हम अपराधी हैं' या नहीं। जब तक कहीं कोई एक अपराधी रहता है तब तक वह अनुभव करता है कि हाँ मैं अपराधी हूँ, मैंने अपराध किया है, मैं अपराध का यह दंड भोग रहा हूँ। लेकिन जब अपराधियों की संख्या बढ़ जाती है तो उनमें भी मजा आना प्रारम्भ हो जाता है। भूल जाते हैं कि मैं अपराधी हूँ।
भाई! शरीर को कारागृह समझो। बहुमत हो जाने से सत्य को मत भूलो। सत्य की पहचान बहुमत के माध्यम से नहीं होती, सत्य की पहचान भावों के ऊपर आधारित है। इसलिए सत्य को पाने के लिए अहर्निश अपने परिणामों को सुधारने का प्रयास करना चाहिए। बाहरी स्थिति में साहूकार होना, अपनी स्थिति सुधारना ठीक है किन्तु इतना सा ही हम लोगों का धर्म नहीं है। इस बाहरी साहूकारी से हम लोग एक भव में कुछ इन्द्रिय सुख भले पा लेंगे, यश ख्याति मिल जायेगी किन्तु जो विकारी परिणति है उसे हटाये बिना हम अनंत आनंद की अनुभूति नहीं कर सकेंगे। यह भव-भ्रमण मिटने पर ही आनंद की अनुभूति होना प्रारम्भ होगी।
अध्यात्म में 'पर' वस्तु के ग्रहण का भाव ही चोरी माना गया है। ग्रहण का संकल्प पूर्ण हो या न हो, उसके विचार साकार हों या न हों पर मैं ग्रहण करूं इस प्रकार का भाव ही चोरी है। प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व भिन्न है उस अस्तित्व पर हमारा अधिकार संभव नहीं है यह समझना प्रत्येक संसारी प्राणी के लिए अनिवार्य है। भावों में प्रत्येक स्वतंत्र है। लौकिक जेल में रहने वाला भी भाव के माध्यम से निरंतर चोरी कर सकता है। पराई वस्तु पर दृष्टि भले ही जाये पर उसे ग्रहण करने का भाव न हो तो अचौर्य वहाँ पर है। भगवान् की स्तुति करते हुए लिखा है कि
सकल जेय ज्ञायक तदपि निजानंद रसलीन।
सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरि रज रहसविहीन॥
भगवान् ने विश्व को जाना, विश्व के समस्त ज्ञेय रूप पदार्थों को जाना किन्तु आनंद की अनुभूति विश्व में नहीं की, निज में की। आप दूसरे पदार्थों में लीन हैं और समझ रहे हैं कि बहुत सुखी हो गये हैं। हमारा ज्ञान भी सकल न होकर ‘शकल' को जानने वाला है। ‘शकल' का अर्थ है टुकड़ा अर्थात् थोड़ा सा शकल अर्थात् ऊपर का आकार इतना ही हम जानते हैं। यह अपूर्ण ज्ञान भी हमारे लिये भले ही बाहर से संतुष्टि दे लेकिन भीतर संतुष्ट नहीं कर पाता। हमारा ज्ञान और आनंद ऐसा है कि ‘शकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि निजानंद रसलीन'। यही कारण है कि हमारी आत्मा लुटती जा रही है। सत्य जीवन से खोता जा रहा है। सत् का कभी विनाश नहीं होता लेकिन सत् का विभाव रूप परिणमन होना ही सत् का खोना है। जो सत्य का अनुपालन करेगा वह स्तेय-कर्म को नहीं अपनायेगा। जो अपने सत् को पा लेगा वह परायी सत्ता पर अधिकार का भाव क्यों करेगा ?
एक-उदाहरण सुना था, यद्यपि वृतांत लौकिक है किन्तु उस लौकिकता के माध्यम से भी पारलौकिक सिद्धांत की ओर दृष्टि जा सकती है। एक व्यक्ति रोगी था। मस्तिष्क का कोई रोग था। बहुत दिन से पीड़ा थी। इलाज के लिए उसने बहुत सा पैसा चोरी, झूठ आदि करके, अन्याय करके एकत्रित किया और अस्पताल में भर्ती हो गया। मस्तिष्क का Operation हुआ। शल्य चिकित्सा अच्छी हुई। मित्रों ने पूछा कि क्यों भाई ठीक हो ? उसने कहा कि पहले से बहुत अच्छा हूँ, बहुत आराम है। अचानक डॉक्टर ने कहा, क्षमा करिये हमने Operation तो ठीक कर दिया पर मस्तिष्क तो बाहर ही रह गया। हालांकि ऐसा संभव नहीं है पर व्यंग जैसा है। तब रोगी कहता है कि कोई बात नहीं उसके बिना भी काम चल जायेगा। क्योंकि मैं सरकारी नौकरी करता हूँ।
यह सुनकर-पढ़कर मुझे लगा कि देखो किस तरह हम अपने कर्तव्य से च्युत हो रहे हैं। डॉक्टर और मरीज दोनों सरकारी सेवा में हैं लेकिन कोई अपना कार्य सुचारू रूप से नहीं करता। यह काम चोरी है। इस तरह करने वाला कभी सत्य और अस्तेय दोनों को नहीं पा सकता। ऐसी स्थिति में साहूकार नहीं हुआ जा सकता। आज तो लोग चोरी करते हुए भी स्वयं को साहूकार मान रहे हैं, ज्ञायक और शुद्ध चैतन्यपिण्ड मान रहे हैं जिसमें ‘पर' का किसी प्रकार से भी सद्भाव नहीं है। अंधाधुंध चोरी चल रही है और कह रहे हैं जो कुछ होता है कर्म की देन है, आत्मा बिल्कुल अबद्ध, असंपृक्त और अस्पृष्ट है। आत्मा अपने में है, 'पर' में है, प्रत्येक का द्रव्य भिन्न, स्वभाव भिन्न है। इस प्रकार एकांत से मानना, निर्णय ले लेना क्या ठीक है? क्या यह सच्चाई है? यह तो एक प्रकार की कायरता है। एक प्रकार से पुरुषार्थ विमुख होना है।
मानव होकर भी हमारा जीवन 'पर' में चल रहा है। इस प्रकार का जीवन तो तिर्यञ्च भी व्यतीत करते रहते हैं। मात्र जीवन को चलाना नहीं है जीवन अपने आप अनाहत चल रहा है। जीवन को उन्नति की ओर बढ़ाने में ही मानव जीवन की सफलता है। यह सत्य और अचौर्य उन्नति की खुराक है। जीवन तो असत्य से भी चल सकता है, चोरी के साथ भी चल सकता है किन्तु वह जीवन नहीं भटकन है। यदि उन्नति चाहिए, विकास चाहिए, उत्थान चाहिए तो अपनी आत्मा को अपराध से मुक्त करने का प्रयास करना होगा। चाहे कल करो या आज-विकारों से रहित वीतरागता की अनुभूति के बिना सर्वज्ञत्व की प्राप्ति संभव नहीं है।
अनादिकाल की पीड़ा तभी मिटेगी। जब हम पाप भाव से मुक्त होकर आत्म-स्वभाव की ओर बढ़ेंगे। पीड़ा सिर्फ इतनी नहीं है कि भूख लग आई या धन नहीं है, मकान दुकान नहीं है। वस्तुत:, पीड़ा यह है कि हमारा ज्ञान अधूरा है और हम समझ रहे हैं कि हम पूर्ण हैं। प्रत्येक व्यक्ति समझता है कि मैं साहूकार हूँ। ठीक है। क्या चोरी के त्याग का संकल्प लिया है? यदि त्याग का संकल्प नहीं है तो ‘पर' के ग्रहण का भाव अवश्य होगा। ‘पर' के ग्रहण का भाव छोड़े बिना कोई साहूकार नहीं हो सकता। प्रत्येक व्यक्ति दूसरे को चोर मान रहा है और स्वयं को साहूकार सिद्ध करता है। यह तो चोर के द्वारा चोर को डांटने जैसा हुआ। अपनी चोरी की गल्ती को पहचान करके उसे छोड़ने का प्रयास करना चाहिए। जिस जीव के चोरी के भाव रहते हैं उसी जीव को चोर कहा जाता है। जिस क्षण छोड़ने के भाव हैं उस क्षण वह साहूकार है।
आप चोर से नहीं बल्कि चौर्य भाव से बचिये। पापी से नहीं पाप से घृणा करिये। अनादिकाल से चोरी का कार्य जिसने किया है तो भी यदि आँख खुल गई, अब यदि दृष्टि मिल गयी, ज्ञात हो गया कि अभी तक अनर्थ किया है अब उसे छोड़ता हूँ, अब चोरी से निवृत्ति लेता हूँ तो वह अब चोर नहीं है। आप संसारी कब तक कहलायेंगे? जब तक संसार के कार्य करते रहेंगे। जब उनको छोड़ देंगे, वीतराग बनकर विचरण करेंगे तो मुक्त कहलायेंगे। इसलिए यदि चोर की चोरी छुडानी है तो उसे चोर मत कहो बल्कि उसे समझाओ कि तुम्हारा यह कार्य ठीक नहीं है। तुम्हारा कर्तव्य है कि चोरी से मुक्त होओ। यदि हम उसे डाटेंगे तो सुधारने की संभावना कम है। प्रत्येक समय भावों का परिणमन हो रहा है। संभव है उस समय भय वश वह चोरी के भाव छोड़ दे, बाद में पुन: बड़ा चोर बन जाये। उसे इस तरह कुछ कहा जाये कि वह स्वयं ही चौर्य भाव को बुरा मानकर छोड़ दे।
भगवान् महावीर ने हमें यही कहा कि प्रत्येक व्यक्ति में प्रभुत्व छिपा है। जैसा मैं निर्मल हूँ वैसे ही आप भी उज्वल बन सकते हैं, राग का आवरण हटाना होगा। जैसे स्फटिक मणि धूल में गिर जाये और पुन: उसे उठाकर धूल साफ कर दें तो चमकती हुई नजर आयेगी। ऐसी ही हमारी आत्मा है। धूल में पड़ी है, उसे उठाकर चमकाना है। एक बात और ध्यान रखना कि दूसरे को चोर कहने का तब तक हमारा अधिकार नहीं है जब तक हम साहूकार न हो जायें। इस तरह लगेगा कि सारी लौकिक व्यवस्था ही बिगड जायेगी। मैं बाह्य व्यवस्था फेल करने के लिए नहीं कह रहा हूँ बल्कि अपने आप को चोरी से मुक्त करके पूर्ण साहूकार बनने के लिए कह रहा हूँ। मात्र बाहर से नहीं, अंदर आत्मा में साहूकार बनो।
जब यह रहस्य एक राजा को विदित हुआ तो वह राजा अपनी सारी सम्पदा व परिवार को छोड़कर जंगल को चले गये। किसी से कुछ नहीं बोले और घने जंगल में जाकर आत्मलीन हो गये। जो ग्रहण का भाव था मन में, वह भी सब राजकीय सत्ता को छोड़ते ही छूट गया। वे सभी से असंपृक्त हो गये। बहुत दिन व्यतीत हो गये। एक दिन परिवार के लोगों को उनके दर्शन के भाव जाग्रत हुए और दर्शन करने चल पड़े। संकल्प कर लिया था इसलिए रास्ता कठिन होने पर भी पहुँच गये। चलते-चलते मिल गये मुनि महाराज। देखते ही उल्लास हुआ। बीते दिन की स्मृति हो आयी। पत्नी सोचती है कि देखो वे ही राजा, वही पतिदेव, वही तो हैं 'सब कुछ छोड़ दिया, कोई बात नहीं' जीवित तो हैं। माँ सोचती है मेरा लड़का है अच्छा कार्य कर रहा है।
सभी प्रणिपात करते हैं चरणों में। मुनि महाराज सभी को समान दृष्टि से आशीष देते हैं। सभी को इच्छा थी कि कुछ बोलेंगे। पर वे नहीं बोले। सभी ने सोचा कोई बात नहीं मौन होगा। सभी नमोऽस्तु कहकर वापिस चलने को हुए पर आगे रास्ता विकट था इसलिए माँ ने कहा कि महाराज! आप तो मोक्षमार्ग के नेता हैं, मोक्षमार्ग बताने वाले हैं। लेकिन अभी मात्र इस जंगल से सुरक्षित लौटने का मार्ग बता दें। मुनिराज निर्विकल्प रहे और मौन नहीं तोड़ा। मौन मुद्रा देखकर माँ ने सोचा कोई बात नहीं, यही मार्ग ठीक दीखता है और सामने के मार्ग पर चले गये। कुछ दूर बढ़ने के उपरांत एक चुंगी चौकी थी, जो अब डाकुओं के रहने का स्थान बन गया था। राजघराने को देखकर डाकुओं ने रोक लिया और कहा कि जो कुछ भी तुम्हारे पास है वह रखते जाओ। वह माँ, पत्नी, लड़का सभी दंग रह गये, घबरा गये।
माँ बोली- अरे! यह तो अन्याय हो गया। अब कहीं भी धर्म नहीं टिकेगा। अब कहीं भी शरण नहीं है। हमने तो सोचा था, हमारा लडका तीन लोक का नाथ बनने जा रहा है वह मार्ग प्रशस्त करेगा, आदर्श मार्ग प्रस्तुत करेगा, दयाभाव दिखायेगा और वही इतना निर्दयी है कि यह भी नहीं कहा कि इस रास्ते से मत जाओ, आगे डाकुओं का दल है। ओहो! काहे का धर्म, काहे का कर्म। धिक्कार है ऐसे पुत्र को। जिसने अपनी माँ के ऊपर थोड़ी भी करुणा बुद्धि नहीं रखी, वह क्या तीन लोक के ऊपर करुणा कर सकेगा। ठीक ही कहा है कि संसार में कोई किसी का नहीं है। डाकुओं का सरदार सारी बात सुनता रहा और अपने साथियों से कहा कि इन लोगों को मत छेड़ो। फिर उस माँ से पूछा कि माँ तू क्या कह रही है ? यह अभिशाप किसे दे रही है। माँ कहती है कि मैं आपके लिए नहीं कह रही हूँ। मैं तो उसके लिए कह रही हूँ जिसे मैंने जन्म दिया, जो यहाँ से कुछ दूरी पर बैठा है वह नग्न साधु। वही था मेरा लड़का। घर छोड़कर आ गया। जब तक घर पर था प्रजा की रक्षा करता था, यहाँ पर आ गया तो माँ को भी भूल गया। थोड़ा भी उपकार नहीं किया। रास्ता तक नहीं बताया कि कौन-सा ठीक है।
सरदार सारी बात समझ गया। उसने कहा ‘माँ! हम सभी डाकू अभी इसी रास्ते से आये थे, रास्ते में नग्न साधु मिला था, उसे पत्थर मारकर नंगा कहकर चले आये थे, उस समय भी उसके मुख से वचन नहीं निकले थे। शांत बैठा था। सचमुच वह बड़ा श्रेष्ठ साधु है। हमने गाली दी थी और आप उसकी माँ थी, आपने प्रणिपात किया था चरणों में। उसने हमारे लिए अभिशाप नहीं दिया और आपके लिए वरदान नहीं दिया'। इतना कहकर उस डाकुओं के सरदार ने पहले माँ के चरण छू लिये और बोला कि 'धन्य हो माँ! जो आपकी कोख से इस प्रकार का पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ जिसकी दृष्टि में संसार में सभी के प्रति समान भाव हैं, ऐसे व्यक्ति का मैं अवश्य दुबारा दर्शन करूंगा। जिस व्यक्ति की दृष्टि में समानता आ जाती है वह व्यक्ति सामने वाले वैषम्य भाव को भी श्रद्धा के रूप में परिणत कर देता है। वे सभी डाकू लोग मुनिराज के पास चले गये और नतमस्तक होकर कहा कि हमें भी अपना शिष्य बना लीजिये और समर्पित हो गये।
डाकू भी जब रहस्य को समझ लेते हैं तो डाकूपन को छोड़ देते हैं। माँ सोचती है ‘यदि मुनिराज उस समय मुझे रास्ता दिखाते तो ये डाकुओं का दल दिगंबरी दीक्षा नहीं ले पाता। उनका वह मौन, उनकी वह समता दया-शून्य नहीं थी। वह तो समता मुद्रा थी जिसमें प्राणी मात्र के लिए अभय था। 'पूज्यपाद स्वामी कहते हैं कि' अवाक विसर्ग वपुषा निरूपयन्तं मोक्षमार्ग- वह नग्न दिगंबर मुद्रा ऐसी है जो मौन रहकर भी सारे विश्व को मोक्षमार्ग का उपदेश देती है, सही मार्ग दिखाती है। चोर और साहूकार सभी के प्रति समता भाव जाग्रत होना चाहिए। क्योंकि चोर और साहूकार यह तो लौकिक दृष्टि से हैं। अंदर सभी के वही आत्मा है, वही चेतन है, वही सत्ता है जिसमें भगवान् बनने की क्षमता है। ऊपर का आवरण हट जाये तो अंदर तो वही है। राख में छिपी अग्नि है। राख हटते ही वही उजाला, वही उष्णता है जो विकारों को जला देती है। इस घटना में समझने योग्य है उन मुनिराज की समता, उस माँ की ममता और उन डाकुओं की क्षमता जो जीवन भर के लिए डाकूपने का त्याग कर साधुता के प्रति समर्पित हो गये।
डाकू मात्र जंगल में ही नहीं हैं, डाकू यहाँ भी हो सकते हैं। जिसके भीतर दूसरे को लूटने, दूसरे की सामग्री हड़पने या 'पर' को ग्रहण करने का भाव है उसे क्या कहा जायेगा? आप स्वयं समझदार हैं। बंधुओ! समता भाव आये बिना हम महावीर भगवान् को पहचान नहीं पायेंगे। राग की दृष्टि, व्यसन की दृष्टि कभी वीतरागता को ग्रहण नहीं कर सकती। उसे वीतरागता में भी राग दिखाई पड़ेगा लेकिन जिस व्यक्ति की दृष्टि वीतराग बन गयी उसकी दृष्टि में राग भी वीतरागता में ढल जाता है।
संसारी जीव यद्यपि पतित है लेकिन पावन बनने की क्षमता रखता है। स्वयं पावन बनकर दूसरों को भी पावन बनने का मार्ग दिखा सकता है। हमारी दृष्टि में समता आ जाये, हमारी परिणति उज्वल हो और इतनी सुंदर हो कि जगत् को भी सुंदर बना सकें। सही दिग्दर्शन करके प्राणी मात्र के लिए आदर्श बना दें। इसके लिए पुरुषार्थ अपेक्षित है, त्याग अपेक्षित है, इसके लिए सहिष्णुता, समता, संयम और तप आवश्यक हैं, अस्तेय महाव्रत समता का उपदेश देता है। चोर को चोर न कहकर उसे साहूकार बनना सिखाता है। यही इसकी उपयोगिता है। इसे अपने जीवन में अंगीकार करके आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।