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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. उपगूहन अंग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जो धर्म पालन में असमर्थ हैं और जिनके निमित्त से धर्म की अप्रभावना हो रही है, उनके दोषों को ढ़कना या उनका निराकरण करना उपगूहन अंग है। उपगूहन अंग वाला इस बात को अच्छी तरह से जानता है कि धर्मात्मा की निंदा सो धर्म की ही निंदा है। उपगूहन का अर्थ दूसरों के दोषों का समर्थन करना नहीं है, बल्कि धर्म की अप्रभावना से बचाकर दूसरे के दोषों का निराकरण करना है। दूसरों के दोषों को ढ़कने से अपना सम्यक दर्शन शुद्ध (दृढ़) होता है। दूसरे के दोष ढ़कने से दूसरे को क्या मिलेगा, उसे कुछ मिले या न मिले लेकिन अपने गुणों का तो विकास होता ही है। दूसरे के दोषों को ढ़कना यानि अपने गुणों को विकसित करना है। यदि उपगूहन अंग का पालन करने से हमारे गुणों में वृद्धि होती है तो आत्म-हितैषी को इसका पालन अच्छी तरह से करना चाहिए। जो निरंजन आत्मा को ढ़कने वाले राग-द्वेष मिथ्यात्व रूप परिणाम है उनको नष्ट करना निश्चिय उपगूहन अंग है। अपनी आत्मा में जो दुर्भाव उत्पन्न हो रहे हैं, उन्हें उत्पन्न न होने देने करने का प्रयास करना स्वयं का उपगूहन करना है। व्यवहार उपगूहन अंग श्रावकों की अपेक्षा से है और निश्चय उपगूहन अंग मुनियों के लिए है। उपगूहन अंग में जिनेन्द्र भक्त सेठ प्रसिद्ध हुए।
  2. चरित्र सौरभ के प्रवाही गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज! मेरे कोटि-कोटि नमन स्वीकारें... हे गुरुवर!आज मैं आपको वह दिन याद करा रहा हूं जब भोले- भाले ब्रह्मचारी विद्याधर जी की बात सुनकर श्रावक समूह के साथ आप भी अत्याधिक मुस्कुरा उठे थे। इस संबंध में मुनि निर्वेगसागर जी महाराज ने सन 1997 नेमावर चातुर्मास की स्वाध्याय कक्षा में आचार्य श्री के मुख से सुना संस्मरण लिख भेजा, वह मैं आप तक प्रेषित कर रहा हूं- जब विद्याधर किशनगढ़ में गुरु महाराज ज्ञानसागर जी के पास आया और सवारी का त्याग कर दिया। एक दिन एक श्रावक ने विद्याधर से कहा- त्यागी जी हमारे यहां भोजन को चलो, तो विद्याधर उनके साथ तांगे पर बैठकर चला गया। 4-5 किलोमीटर दूर घर था। वापस आया तो गुरु महाराज के पास कुछ श्रावक बैठे हुए थे, उन्होंने देखा कि विद्याधर जी किसके साथ आए और तब उन श्रावकों ने गुरु महाराज ज्ञानसागर जी से पूछा- यह कैसा सवारी का त्याग ये तो तांगे पर बैठकर आहार लेने गए और वापस आए। तो बीच में विद्याधर बोल पड़े- क्या तांगा भी सवारी में आता है, यह तो मुझे ज्ञात नहीं था, मेरा भाव सवारी त्याग करने का यह था कि - आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा। विद्याधर कि इस सहजता, सरलता को देखकर ज्ञानसागर जी महाराज और श्रावक लोग मुस्कुराने लगे। इस तरह विद्याधर की सहजता, सरलता और भोलापन आप को भा गया था। उस सहज, सरल भावों को प्रणाम करता....... अन्तर्यात्री महापुरुष पुस्तक से साभार
  3. जैसे गुरु ज्ञानसागर जी महाराज अपने नियम के पक्केऔर अनुशासन के पक्के थे। ऐसे ही उनके शिष्य मुनि विद्यासागर जी भी बन गए थे। हमने कई बार मुनि विद्यासागर जी को आतेड़ की छतरियों में घंटो घंटो सामायिक करते सुना और देखा है।आतेड़ की छतरियां उस समय शहर से चार पांच किलो मीटर दूर जंगल में पहाड़ियों से घिरी हुई थी। एक दो बार गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने मेरे पतिदेव (पदमचंद जी पाटनी) को कहा-विद्यासागर को शीघ्र बुलाकर लाओ। तो विद्यासागर जी छतरियों की ओर से आते हुए मिलते थे उनको बोला- गुरु महाराज ने आपको बुलाने के लिए कहा था। तो मुनि विद्यासागर जी बोले- मैं तो समय पर पहुंच जाता हूं, आप लोग ढूंढा मत करो, मैं गुरु जी से अनुमति लेकर ही तो जाता हूं।आने के बाद मेरे पति देव ने गुरु महाराज को निवेदन किया कि विद्यासागर जी महाराज का कहना था-कि मैं तो समय पर पहुंच जाता हूं आप लोग ढूंढा मत करो। मैं गुरु जी से अनुमति लेकर ही तो जाता हूं। तब गुरु ज्ञानसागर जी महाराज बोले- आप लोगों को कैसे पता चलेगा, विद्यासागर कैसी साधना कर रहे हैं उनको देखोगे तभी तो पता चलेगा इसलिए मैं बोल देता हूं। इस तरह मुनि विद्यासागर जी की दीक्षा के बाद गुरु ज्ञान सागर जी महाराज के द्वारा नित्य प्रति समयसार ग्रंथ का स्वाध्याय करने से भाव विशुद्धि बढ़ गई। तथा भाव लिंगी साधु की सच्ची साधना में लीन हो गए और उनकी एकांत साधना की रुचि बता रही थी कि- "वो जैसे परम पूज्य आचार्य कुंदकुंद स्वामी के द्वारा बताई गई शुद्धोपयोग दशा को अनुभूत करना चाह रहे हो।" उस उत्कृष्ट भावदशा को नमन करता हुआ...... अन्तर्यात्री महापुरुष पुस्तक से साभार
  4. अमूढ़दृष्टि अंग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार मिथ्यादृष्टि को भी रोहिणी आदि बारह सौ विद्यायें प्राप्त हो जातीं हैं, ऐसे चमत्कारी को धर्म मानकर नहीं स्वीकारना अमूढ़दृष्टि अंग है। कर्म के उदय में भाव उत्पन्न होते हैं, इनमें गहल भाव नहीं रखना, इनसे प्रभावित नहीं होना अमूढ़दृष्टि अंग है। विपरीत मार्ग को न मानते हुए उन्हें (कुमार्गियों को) मन, वचन एवं काय से अग्रेसर न करना अमूढ़दृष्टि अंग है। अमूढ़दृष्टि अंग में रेवती रानी प्रसिद्ध है। छह खण्ड का अधिपति होकर भी सुभौम चक्रवर्ती एक आम फल के पीछे पड़ गया और णमोकारमंत्र पर पैर रखने के भाव भी कर दिए यही तो मूढ़दृष्टि है। जो कर्म निर्जरा में सहायक नहीं है, ऐसी लौकिक मान्यताओं को धर्म नहीं मानना अमूढ़ दृष्टित्व है।
  5. निर्विचिकित्सा अंग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार प्रतिकार करना अपने आप में हिंसा है, चिकित्सा का अर्थ प्रतिकार होता है, स्वयं के रोग के प्रति चिकित्सा ग्लानि के रूप में आती है। सम्यक दृष्टि में निर्विचिकित्सा अंग होता है। सम्यक दर्शन निर्विचिकित्सा अंग के अभाव में नाक रहित मुख के समान है। जो रत्नत्रय से पवित्र हैं, उनके मलिन शरीर को देखकर ग्लानि न करते हुए यथायोग्य सेवा, वैय्यावृत्ति करना निर्विचिकित्सा नाम का गुण कहलाता है। निर्विचिकित्सा का अर्थ है-गुणों के प्रति प्रीति होना या ग्लानि रहित होना। शरीर गौण होगा और गुण दृष्टि में प्रधान होंगे तभी निर्विचिकित्सा अंग का प्रादुर्भाव होगा। सम्यक दृष्टि की दृष्टि में शरीर की मलिनता नहीं बल्कि रत्नत्रय की पवित्रता आती है। निर्विचिकित्सा अंग वाले का श्रद्धान रहता है कि सुगंध-दुर्गंध तो पुदगल की पर्यायें हैं, इससे आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है। बाहुबली व भीमसेन ने पूर्वभव में निर्विचिकित्सा अंग का पालन करते हुए मुनिराजों की वैय्यावृत्ति की थी उसके फलस्वरूप ऐसा शरीर पाया था कि अस्त्र-शस्त्र और विष भी प्रभावहीन हो गये। रत्नत्रय की आराधना करने वाले जो भव्य जीव हैं, उनके शरीर की आकृति व शरीर से आने वाली दुर्गध को न देखते हुए धर्म बुद्धि से उनकी यथायोग्य चिकित्सा करना निर्विचिकित्सा गुण कहलाता है। शरीर के (पदार्थ) अनेक गुण धर्म हुआ करते हैं, उन सभी धर्मों के प्रति ग्लानि का न होना निश्चय निर्विचिकित्सा अंग है। जैनधर्म में सब बातें अच्छी हैं, लेकिन नग्नपना ठीक नहीं है, ऐसा किसी के मन में भाव आने पर ज्ञान के बल से दूर करना निर्विचिकित्सा कहलाती है। मोक्षमार्ग पर आने के बाद केशलौंच न करना पड़ें, दूसरे के यहाँ भोजन करना न जाना पड़े,ऐसे भावों का न होना निर्विचिकित्सा अंग है। ग्लानि करने वाला कभी रोगी का इलाज नहीं कर सकता। ग्लानि जीते बिना वैय्यावृत्ति नहीं की जा सकती। समस्त राग-द्वेष आदि विकल्प रूप तरंग समूह का त्याग करके निर्मल आत्मानुभव लक्षण निज शुद्ध स्वरूप आत्मा में स्थिति करना निश्चयनय से निर्विचिकित्सा गुण कहा है। निर्विचिकित्सा अंग में उद्यायन राजा व रुक्मणी रानी प्रसिद्ध है।
  6. इसी संहनन के माध्यम से आर्तध्यान और रौद्रध्यान किया जाता है, तो आत्मा का अहित हो जाता है। और धर्मध्यान व शुक्लध्यान किया जाता है, तो आत्मा अन्तर्मुहूर्त में ऊपर उठ जाता है। मोह के कारण वह शक्ति उत्पन्न नहीं हो पा रही है। और मोह जहाँ समाप्त कर दिया, बस फिर रास्ता चालू हो गया। ऐसा तप होता है। जिस किसी को मोक्ष का लाभ हुआ, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रचारित्र के द्वारा नहीं। यह बात सुनकर आप लोगों को आश्चर्य अथवा अटपटा-सा भी लग सकता है। इस बात का प्रवचनसार में भलीभांति अर्थात् बहुत अच्छे ढंग से स्पष्टीकरण दिया गया है। जीवन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रचारित्र जब तक रहेंगे, तब तक ना ही केवलज्ञान होने वाला है, और ना मुक्ति मिलने वाली है। कुछ समझ में नहीं आता, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: कहा और मार्ग मंजिल तक पहुँचा देता है, ऐसा भी कहा गया है। सूर्यप्रकाश के माध्यम से ही फसल खड़ी होती है। लेकिन ध्यान रहे, यदि सूर्य बालभानु के रूप में ही रहे, तो फसल कभी भी पकेगी नहीं। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की फसल को पकाना अनिवार्य है। तभी वह मुक्ति प्रदान कर सकती है। और उसे पकाने का साधन यदि कोई है, तो वह है सम्यक् तप। इसलिए उसका रत्नत्रय से अलग कथन किया जाता है। और तप को मिलाने से सम्यग्दर्शन आराध्य बन जाता है, ज्ञान आराध्य बन जाता है, सम्यक्रचारित्र आराध्य बन जाता है। यह तप की ही महिमा है। तीन के साथ सम्यग्दर्शन की आराधना नहीं कहलाती। सम्यग्ज्ञान की आराधना नहीं कहलाती। सम्यकचारित्र की आराधना तब कहलाती है, जब उसके साथ तप जुड़ जाता है। तप मूलगुण नहीं है। तप उत्तर गुण है। व्रत, संयम आदि ये सारे के सारे मूल गुण में आ जाते हैं। किन्तुतप जो है, वह उत्तरगुण के रूप में ही प्राप्त होता है। इसलिए सर्वप्रथम जब वैरागी को दीक्षित किया जाता है, उस समय तप नहीं दिये जाते, आचार दिया जाता है। दर्शनाचार, ज्ञानाचार, तपाचार। तप तो आ गया महाराज ? यह जो दिया गया है वह तप एक प्रकार से ठण्डा रहता है। जैसे सूर्य उदित हुआ तब तक बालभानु कहलाता है। कोई भी व्यक्ति आज तक ऐसा नहीं मिला अपने को, जो मध्याह्न काल के सूर्य को देखने के लिए दूर से आया हो। सनराइज और सनसेट अर्थात् सूर्योदय और सूर्यास्त को होते हुए तो बहुत लोग देखते हैं। कारण, दोनों वक्त वह बालभानु रहता है। जिस प्रकार बालक से आप नैसर्गिक रूप से प्यार करते हैं, वैसा ही प्रौढ़ होने पर कर सकते हैं क्या? क्यों ? तो वह है ही नहीं प्यार करने योग्य। वह तो दुकान में बैठने योग्य है। इसी प्रकार जब दीक्षित हो जाता है, तो बालभानु की भांति दिखता है। इसलिए उस बालभानु के प्रकाश या आतप से कोई फसल तपती नहीं। जब तक प्रखर किरणों को बिखेरते हुए मध्याह्न नहीं होता, तब तक किसी प्रकार से भेद-विज्ञान की बात नहीं आती। ज्ञान में जो प्रखरता आती है, वह तप के बिना नहीं आती। बहुत अन्तर होता है। भेद का ज्ञान करना भी भेद-विज्ञान है। भेद करके जो ज्ञान होता है, वह भेदविज्ञान अलग क्वालिटी का होता है। जिस प्रकार यह लोक तीन वलयों पर आधारित है। इसके भार का वहन वे वलय ही ढोते हैं। उनके माध्यम से इसकी सुरक्षा है। उसी प्रकार इस शरीर का कोई संरक्षण हो रहा है, तो वह भी तीन बातों के ऊपर आधारित है-वात, पित्त और कफ। किन्तु यह ध्यान रखना, वात,पित्त और कफ को सामंजस्य में, अनुपात से बनाये रखने का श्रेय यदि किसी को जाता है, तो उसको टेम्प्रेचर कहते हैं। वात, पित्त और कफ के माध्यम से चलते तो हैं। लेकिन यदि उसमें टेम्प्रेचर उष्मा नहीं रहेगी, तो आपका शरीर समाप्त हो जायेगा। जैसे-जैसे टेम्प्रेचर बढ़ने लग जाता है, वैसे-वैसे यह शरीर भी हिलने लग जाता है। जैसे-जैसे घटने लग जाता है वैसे-वैसे ठण्डा होता चला जाता है। बोलना समाप्त हो जाता है, जब टेम्प्रेचर डाउन होने लग जाता है। और ज्यादा बढ़ जाता है तो ज्यादा बोलने लग जाता है। एक ही बात है, वह समन्वय किसके माध्यम से बनेगा तो उष्मा के माध्यम से बनेगा। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रचारित्र लेकर बैठे रहो, तप के बिना कोई कार्य नहीं होता। तपसा निर्जरा च॥ तत्त्वार्थसूत्र - ९/३ तप के द्वारा निर्जरा का विकास होता है और जब तक निर्जरा तीव्रगति के साथ नहीं होती तब तक कार्य नहीं होता। मोक्ष प्राप्त करने से पूर्व जब केवलज्ञान को प्राप्त किया भगवान् ने, उस समय भी उन्होंने दो तप बहुत अच्छे ढंग से किये। पृथक्त्ववितर्कवीचार व एकत्ववितर्कअवीचार नामा, ये ध्यान तप के अन्तर्गत आ जाते हैं। तप का उपसंहार ध्यान में हुआ करता है। जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रचारित्र की बात तो करते हैं, लेकिन तप से दूर रहना चाहते हैं। उसके लिए कहा जाता है-तुम्हारा काम पूर्ण नहीं हो सकेगा। मनोरंजन नहीं है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रचारित्र, इन तीनों के माध्यम से आगे बढ़ना है। युवराज को रणांगन में ले जाने का प्रयास किया जाता है। और युवराज, तो युवराज होता है। लेकिन फिर भी एकदम रणांगन में नहीं ले जाते। पहले अभ्यास कराते हैं। बाद में रणांगन में ले जाते हैं। आगे-पीछे अंगरक्षक भी साथ होते हैं, उनको बचाने की अपेक्षा से, सुरक्षा की दृष्टि से, बीच में रखते हैं। लेकिन जब तक वह बीच में रहेगा युवराज कहलायेगा, राजा नहीं कहलायेगा। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को तुम रखते तो हो, लेकिन दहाड़ करके सामने नहीं आते, उससे कोई काम नहीं निकलने वाला। असंख्यातगुणी निर्जरा नहीं होने वाली। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रचारित्र को तुम रखते हो जो तीन रूप में हैं, उनको एकमेक बनाने का श्रेय यदि किसी को जाता है, तो वह तप आराधना को ही प्राप्त होता है। ये तब तक बने रहेंगे, जब तक तप उद्दीप्त नहीं होता। मानली, आप लोगों के यहाँ कोई खाद्य पदार्थ, मीठा पदार्थ बन रहा है। हलुआ कहो या सीरा। उसमें क्या-क्या डाला जाता है ? आटा रहता है, घी रहता है। और क्या रहता है ? बूरा रहता है। अब इन तीनों को रख दो। साथ में पानी भी चाहिए, पानी भी रख दो। आटा, बूरा, घी और पानी रख दो तो हलुआ बन जायेगा ? नहीं, जब तक अग्नि देवता की आराधना नहीं होगी, तब तक ये तीनों अभेद रूप चरितार्थ नहीं हो सकते। जिस समय तप की अग्नि उसमें लग जाती है तब कहीं से भी, किसी भी पार्ट से निकाल कर देख लो न आटा आयेगा, न घी आयेगा, न बूरा आयेगा। सभी रग-रग में एक ही रूप हो गये हैं। तप एक प्रकार से रत्नत्रय को अभेद रूप प्रदान कर देता है। और अभेद रूप प्रदान करने से ही उस ज्ञान को विश्राम मिलता है। नहीं तो कभी श्रद्धान की ओर लुढ़क जाता है, कभी अधिगम की ओर लुढ़क जाता है। कभी रागद्वेष छोड़ने की ओर लुढ़क जाता है। छोड़ना तो है, महाराज छोड़ना जब तक है, तब तक तप काम नहीं करता। सब कुछ छोड़ने के उपरान्त शान्ति से बैठे रहें। तप रूपी अग्नि में जब उसको तपाया जाता है, तब कहीं जाकर वह इस रूप में आता है। अध्यात्मनिष्ठ योगियों के द्वारा यह जीव धनिक हो जाता है, यानि उसको तपाया जाता है। तप रूपी धौंकनी से ध्यानरूपी अग्नि में जीव रूपी लोह को रखकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रचारित्ररूपी औषध जब लगाते हैं, उस समय वह कंचनवत् बन जाता है। खान में स्वर्णपाषाण है। लेकिन वह कंचन का रूप क्यों नहीं प्राप्त कर पा रहा है? जब तक अग्नि का योग नहीं पाता है। इष्टोपदेश है ना, उसके दूसरे श्लोक में मंगलाचरण के उपरान्त योग्योपादान अर्थात् रत्नत्रय रूप स्वकाल माना है। अध्यात्म ग्रन्थों में भी द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव का कथन है। काल क्या है? आचार्य कहते हैं-स्वकाल तो इसी का नाम है। काल कहने से घड़ी की ओर मत देखो। काल कहने से स्वकाल अर्थात् रत्नत्रय आदिक की योग्यता, यही स्वकाल है। इसके माध्यम से ही वह स्वर्ण बनने वाला है, ऐसा सुनार जान लेता है। पाषाण का टुकड़ा, जो कि स्वर्णमय है। उसको दिया गया। तो यूँ करता है पहले, देख लेता है। इसमें पाँच तोला सोना है और जबकि वह आधा किलो का पाषाण है। आधा किलो स्वर्णपाषाण है, और इसमें इतना ही स्वर्ण है, यह भेद कैसे हो गया? यह ज्ञान कैसे हो गया ? तत्व का अभ्यास करने से। इसी प्रकार आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है, यह ज्ञान हो जाता है। लेकिन महसूस नहीं होता। इसको पृथक् करने की बात अलग है। वह सुनार के पास नहीं है। अनुपात में जब अग्नि का ताप दिया जाता है, तब वह स्वर्ण निकल आता है। उसमें से जो निकलता है वह सोलहवानी का स्वर्ण माना जाता है। सोलह बार उस धौंकनी के द्वारा विधिवत्तपाया जाता है, तब वह सौ टंच सोना हो जाता है। उसमें एक भी बट्टा अब नहीं रहा। जिस प्रकार स्वर्ण सारी की सारी किट्टिमा-कालिमा से दूर होकर शुद्ध हो जाता है। इसी प्रकार पाषाणेषु यथा हेमं दुग्धमध्ये यथा घृतम्। तिलमध्ये यथा तैलं देहमध्ये तथा शिवम्॥ क्या-क्या बातें कही गयीं हैं ? चार बातें कही हैं। जिस प्रकार पाषाण में हेम है। दूध में घी है। तिल में तैल है। उसी प्रकार इस देह में शिव यानि परमात्मतत्व है। लेकिन यह कहने मात्र से महसूस नहीं होता। दूध को चख लो, तो घी का स्वाद नहीं आता। दूध को सूघ लो, तो घी की गन्ध नहीं आती। दूध को छू लो, तो घी का स्पर्श नहीं होता। दूध को देख लो, तो घी नहीं दिखता। अब क्या करें ? दूध को फेंक दें ? फेंको नहीं। इस प्रकार उसमें रहकर भी घी नहीं दिखता। मात्र आस्था की आँखों से देखने में आता है। और बच्चों को नहीं दिखता। कम से कम आठ वर्ष की उम्र हो जाय, तब जैसा माँ कहती है, वैसा श्रद्धान कर लेता है। हमें दूध नहीं चाहिए, ऐसा कहता है। इसी प्रकार इस देह में आत्मतत्व-शिवतत्व है। उसका श्रद्धान किया जाता है। जिस प्रकार पाषाण में स्वर्ण का श्रद्धान किया जाता है। जैसे दूध में घी का श्रद्धान किया जाता है। इसी प्रकार दूध में घृत शक्ति रूप से विद्यमान है। क्योंकि उसके कुछ अलग लक्षण हैं। हम उसको एकदम हाथ डालकर निकालना चाहे, तो संभव नहीं हो सकता। कुछ लोग आठ-दस दिन प्रयास करते हैं, शिविर लगाते हैं, दशलक्षण पर्व का शिविर लग रहा है, चलो कुछ मिल जायेगा। उसके कुछ लक्षण तो आपको मिल सकते हैं। लेकिन प्रक्रिया की पूर्णता दस दिन में नहीं हो सकती। वैसे वह दस मुहूर्त में भी हो सकती है या अन्तर्मुहूर्त में भी हो सकती है और युगों-युगों तक बैठे रहो तो भी कुछ होने वाला नहीं है। कुछ लोग प्रतीक्षा में बैठे हैं, कि सम्यक्र आराधना का उद्भव होने वाला है। कुछ लोग जीवन के अन्त में तप की आराधना करना चाहते हैं। अरे, यदि जीवन के अन्त में तप की आराधना करना चाहोगे, तो प्रखर सूर्य तो रहेगा नहीं। वही सनसेट वाली बात है। सनराइज वाली बात है। बीच में सन आता है, वह छोटा नहीं रहता। सन माने लड़का भी होता है। इसीलिये तो हमने कहा-जिस समय राइज होता है, उस समय लड़का ही रहता है। और इधर भी देखो क्षितिज पर, तो वही लड़का बालभानु है। उसकी सभी लोग प्रशंसा करते हैं। आरती जब कभी भी करेंगे, तो उसी की करेंगे। हमने अभी तक मध्याह्न सूर्य को जलांजलि देने वाला कोई नहीं देखा। क्यों ? सही आराधना तो उनकी वही है, सुबह और शाम को देखो। सूर्य के पास क्या इतनी प्रखरता है ? क्या इतनी शक्ति है ? क्या इतना तेज है ? अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। गर्मी के दिनों की बात अलग है। छोटा-सा लगता है, लेकिन जैसे-जैसे सूर्य ऊपर चढ़ता जाता है, वैसे-वैसे कितना प्रखर होता जाता है। आचार्यों ने कहा-अपने तप को प्रखर बनाने के लिए क्या करना चाहिए ? इन्द्रियविषयों की ओर दृष्टि चली गई, ध्यान चला गया, तो उसको कैसे मोड़ दें? जैसे प्रखर सूर्य की ओर भूल से मानो दृष्टि चली गई, तो यूँ कर देते हैं। उसी प्रकार बना जाये, तो समझ लेना कि तप अब प्रखरता की ओर है। यदि बालभानु को जैसे देखते हैं, उस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को लेकर पंचेन्द्रिय विषयों की ओर देखेंगे, तो वह प्रखर नहीं माना जायेगा। बालभानु और प्रौढ़भानु, दोनों एक होते हुए भी कार्य की विवक्षा से देखने पर बहुत अन्तर है। छह घंटे के उपरान्त वही बालभानु महान् ताप को उत्पन्न करने वाला बन जाता है। जब उसका तापमान ज्यादा बढ़ जाता है, तो उस समय पानी छूटने लग जाता है। देखो, बारह बजे शरीर में जो जल तत्व रहता है, बाहर की ओर आने लग जाता है। कितना ताप हो जाता है, कि भीतर का जल बाहर आ जाता है। इसी प्रकार आत्मा के प्रदेशों के साथ जो एक क्षेत्रावगाह को लेकर बंधे हुए कर्म हैं अर्थात् आत्मा के प्रदेशों में कर्म के प्रदेश, कर्म के प्रदेशों में आत्मा के प्रदेश एक दूसरे में घुल-मिल रहे हैं और स्थिति कषाय के द्वारा बंध जाती है, तब वे किसी भी प्रकार से बाहर आना नहीं चाहते। मत जाओ। लेकिन ताप के द्वारा अपने आप ही बाहर आ जाते हैं। जब किसी को बुखार चढ़ जाता है, मलेरिया का बुखार होता है, तो उसको तब तक आराम नहीं हेाता, जब तक कि पसीना नहीं आता। पसीना आते ही ऐसा आराम हो जाता है, कि जैसे कोई बुखार आया ही नहीं हो। उसी प्रकार तप के माध्यम से जब आत्मतत्व को तपाया जाता है, तो भीतर बैठे हुए जो कर्म हैं, वे सब भावों के द्वारा बाहर आ जाते हैं। तपसा निर्जरा च॥ तप से वे पानी-पानी हो जाते हैं। लेकिन यह ध्यान रखना, स्वास्थ्य में किसी प्रकार की कमी नहीं आती। वैज्ञानिकों का कहना है-परिश्रम का जल बहुत ही शुद्ध होता है। पीने के लिए नहीं कहा। लेकिन वह परिश्रम का जल, श्रम करने से निरोगधाम बन जाता है। इस शरीर के भीतर जो कूड़ाकचरा गया है वह तप के माध्यम से सारा का सारा बाहर आ जाता है। ज्यों ही तप को अंगीकार कर लेते हैं, त्यों ही कर्म हाथ जोड़कर सामने आ जाते हैं। स्वामी समन्तभद्राचार्य ने कहा-शान्तिनाथ भगवान् शान्त बैठे रहते हैं। ऐसा नहीं, उनकी भीतरी प्रक्रिया अलग है। जब दीक्षित हो, समाधि में लीन हो जाते हैं या समवसरण में विराजमान हो जाते हैं या धर्मचक्र, कर्मचक्र और देवताचक्र सभी पिघल जाते हैं, जब ध्यानचक्र में ज्यों ही चलाते हैं, वे सारे के सारे चक्र समाप्त हो जाते हैं। यह विशेषता है। पसीना लाने का प्रयास किया जाता है। लेकिन, नहीं आता। कब तक नहीं आता ? जब तक भीतर तपन व घुटन नहीं होती। सूर्य बारह घंटे तक दिन में तो रहता है। लेकिन यदि गर्मी रात के बारह घंटे भी रह जाती है, तो देख ली सुबह-सुबह भी पसीना आना प्रारम्भ हो जाता है। यह दशा होती है। लेकिन बारह घंटे तक लगातार उस तपन को सहन करने की क्षमता धीरे-धीरे डाउन हो जाती है। उठाये तो उठ नहीं सकता। बैठाये तो बैठ नहीं सकता। बुलवाये तो बोल नहीं सकता। खिलाये तो खा नहीं सकता। कुछ अच्छा नहीं लग रहा। कैसे नहीं अच्छा लग रहा ? अच्छा इसलिए नहीं लग रहा, क्योंकि भीतर कोई गया है, उसे निकल जाने दो, तो सब अच्छा लगने लग जायेगा। स्वभाव का अनुभव इसीलिये नहीं हो रहा है। स्वभाव में वैभाविक भावों का मिश्रण हो चुका है। उस मिश्रण को हम किसी चालनी के द्वारा, छत्री के द्वारा रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा निकाल नहीं सकते। विज्ञान ने आज तक ऐसा कोई अविष्कार नहीं किया कि कर्म, जो आत्मा के साथ बंधे हुए हैं, उन्हें किसी रसायन के माध्यम से निकाल दें। आणविक शक्ति के प्रयोग भी कर ले एक साथ, जैसे जापान के ऊपर हुआ था। तो आज भी वहाँ पर अंकुर उत्पन्न नहीं हो रहे। जहाँ पर आणविक शक्ति का प्रयोग किया गया था, वहाँ राख जैसी जमीन हो गयी। वे सारे के सारे किसी एक व्यक्ति के ऊपर भी डाल दो, तो भी कार्मणशरीर का कुछ भी होने वाला नहीं। कौन-सी शक्ति होगी, आप सोच ली। शुक्लध्यान में ऐसी कौन-सी रसायन शक्ति है, जो अन्तर्मुहूर्त के प्रयोग से अनन्तकाल के घातिया कर्मों की धारा भी शान्त हेा जाती है। अनन्त काल में भी वह पुन: उग नहीं सकती। कितनी बड़ी शक्ति होगी ? उसको कैसे सहन करते होंगे ? देखो, जो बहुत शक्ति सम्पन्न या पावरफुल हो जाता है, वह बहुत सूक्ष्म हो जाता है। तपाने से कुछ थोड़ा-सा प्रभाव पड़ जाता है, कालिमा या धुंआधार जैसा रंग हो सकता है। इसी प्रकार की प्रक्रिया है, कि वह शरीर को ज्यों का त्यों रखते हुए भीतरी भाव को भी जलाता नहीं, बल्कि परम औदारिक शरीर बना देता है। और कार्मण शरीर को वह जला देता है। घातिया कर्म के रूप में जो कर्म थे, उनको तो उसने नष्ट कर दिया। अन्य शरीर को किसी प्रकार से क्षति नहीं पहुँचाई। ध्यान भी ऐसा ही होता है। जैसे जल को सुखाकर दूध को सुरक्षित रखा जाता है। तभी तो खोवा बनता है, पेड़ा बनता है। यदि आप दूध को तपाते-तपाते बाहर चला जाने दें, तो क्या होगा? तो आपका वह दूध ही जल जायगा। मात्र पानी जलना चाहिए। पहले तो वह लाल हो जायेगा, लाल क्यों हो गया ? तुम्हारे ऊपर लाल हो गया। हमें क्यों जला रहे हो ? और आप चले जायेंगे बाहर और वह जल जायेगा। बैठे रहियेगा। इसलिए केवलज्ञान खड़े होने या बैठने से होता है, घूमते-घूमते नहीं। जैसे आप इधर-उधर चले जाओ और चाहो दूध का खोवा बन जाय तो ऐसा संभव नहीं। सामने बैठिये और वहाँ पर ताप अनुपात से दीजिये। नीचे की अग्नि कम भी नहीं होना चाहिए। और ज्यादा भी नहीं होनी चाहिए। इसी प्रकार न तो आज तक केवलज्ञान स्वाध्याय करने से हुआ न ही विहार करने से हुआ और न ही उपदेश देते हुए और न ही अन्य कोई कार्य करते हुए आया। जब खड्गासन या पद्मासन से निश्चल होते हैं, उस समय यदि आप दूसरी प्रक्रिया को भी अपनाना चाहते हैं, शुक्लध्यान करके समुद्घात करना हो, तो वहाँ भी अन्तर्मुहूर्त में सीधा पहुँचा देता है, माल सहित। यह कौन सी प्रक्रिया है जिसको विश्व के किसी भी रसायन के माध्यम से हम नहीं कर सकते। अन्तर्मुहूर्त में शरीर भिन्न व आत्मा भिन्न। अनन्तगुणों के नाम को देख लो, जिस प्रकार आटोमेटिक मशीन के द्वारा कुछ वस्तुयें स्वत: निर्मित होती हैं, पेकिंग होती हैं, और निर्यात कर दी जाती हैं। उसी प्रकार अन्तर्मुहूर्त के अन्दर आपके व्यक्तित्व को बिल्कुल पृथक् करके बाहर जो कुछ भी था, सबको एकदम ठीक कर देती है। यह कौन सी प्रक्रिया है ? रागद्वेष भीतर रहते हैं। बीच में एक छोटी-सी बात कहता हूँ, जिस व्यक्ति को ज्ञान नहीं होता वह व्यक्ति क्या-क्या सोच सकता है ? एक व्यक्ति हलवाई की दुकान पर आया। यह क्या है ? यह क्या है ? यह जलेबी है। अच्छा यह मुझे एक किलो दे दी। लेकिन यह बताओ यह कैसे बनायी गयी है ? इसमें रस कैसे भरा गया है ? दुकानदार बोला-इंजेक्शन के माध्यम से इसमें रस भरा गया है। अच्छा ऐसी प्रक्रिया है क्या? जिस व्यक्ति को निर्माण की प्रक्रिया ज्ञात नहीं होती, उस व्यक्ति के लिए कुछ भी कहा जा सकता है। आत्मा के साथ कर्म कैसे बंधते हैं ? यह जिसको ज्ञात हो जाय, तो वह इधर-उधर की बातों में नहीं आ सकता। और उनको निकालने की प्रक्रिया कैसी है ? इंजेक्शन देने से वह होने वाली नहीं। कोई भी इंजेक्शन का निर्माण कर दो उसके माध्यम से चार प्रकार के या आठ प्रकार के कमाँ का विनाश/निधन होने वाला नहीं है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से सब कुछ ठीकठाक होने वाला है। कैसा यह रसायन हो गया, शरीर कैसा चिपक गया औदारिकशरीर तो नष्ट हो सकता है, वैक्रियिकशरीर कथचित् नष्ट हो सकता है। कथचित् का मतलब अपने समय पर बिखर जाता है। लेकिन भीतर के कार्मण व तैजस जो अनादिसम्बन्धे च। अप्रतिघाते। हैं, कोई भी घात या प्रहार इनके ऊपर करो तो भी नहीं हो सकता। वज्र से भी कठिन और कठिनतम हैं। उनका भी अन्तर्मुहूर्त में ही क्या परिणाम होता है ? अन्तर्मुहूर्त में सारा का सारा बिखर जाता है। वह कौन-सा ध्यान है ? उन परमात्माओं को हम बार-बार नमस्कार करते हैं, जिन्होंने ध्यान रूप अग्नि के द्वारा अपने आत्मतत्व को तपा दिया। ऐसा तपा दिया, कि एक तरफ वह मटेरियल हो गया और एक तरफ वह आत्मतत्व हो गया, अन्तर्मुहूर्त में। अनन्तकाल तक कोशिश करने पर अभी तक नहीं हुआ था, वही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र व सम्यक्र तप की यह ऐसी प्रक्रिया है, आस्था के बिना ज्ञान समीचीन नहीं। ज्ञान के बिना चारित्र समीचीन नहीं। इन तीनों के समीचीन होने के बाद भी इनमें प्रबलता/प्रौढ़ता नहीं आती। सम्यग्दर्शन के द्वारा निर्जरा हो सकती है। सम्यग्दर्शन के द्वारा ही असंख्यातगुणी निर्जरा हो जाती है। सम्यग्दर्शन के द्वारा ही सभी भंग घटित हो जायें, तो संयमासंयम के द्वारा क्या होता है ? कई लोगों की धारणा, कई लोगों की भावना समझ में नहीं आती। केवल अकेले सम्यग्दर्शन के द्वारा यदि निर्जरा होती है, तो मानना पड़ेगा कि छोटा सम्यग्दर्शन भी होता है और बड़ा सम्यग्दर्शन भी होता है। संभव है, चतुर्थ गुणस्थान में बालकवत् सम्यग्दर्शन रहता है, वही पंचमगुणस्थान आने पर नौ बजे का हो जाता है, फिर सकल संयम ले लेता है तो बारह बजे का होता होगा। अन्यथा असंख्यातगुणी निर्जरा कैसे बनी ? चारित्र के द्वारा आपके यहाँ निर्जरा तो है ही नहीं। सम्यग्दर्शन एक बार हो गया सो हो गया। उसमें विकास नहीं होना चाहिए। थोड़ा-सा विचार करने से, थोड़ा-सा चिन्तन करने से भी ज्ञात हो सकता है, कि सम्यग्दर्शन की प्रौढ़ता यदि बढ़ रही है, तो वह किसके माध्यम से ? यदि नहीं बढ़ रही है, तो निर्जरा क्यों बढ़ रही है ? ये दो बातें पूछ लो, तो अपने आप ज्ञात हो जायेगा। लेकिन पक्षपात ही ऐसा है कि सम्यग्दर्शन से राग व सम्यक्चारित्र से द्वेष हो गया, ऐसा लगता है। बहुत समय से स्वाध्याय करने से ही ऐसा लगता है। लेकिन यह ध्यान रखना, एक के प्रति राग व एक के प्रति द्वेष होने से ही पक्षपात होता है। और यदि पक्षपात हो जायेगा, तो वह कभी भी संसार से मुक्त नहीं हो सकता। निष्पक्ष व्यक्ति ही मुक्त हो सकता है। अन्यथा संभव नहीं। सम्यग्दर्शन के प्रति तो आस्था बननी ही चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन उसी को सर्वे-सर्वा मान बैठना, एक प्रकार से सम्यग्दर्शन के यथार्थ सिद्धान्त से दूर होना है। क्योंकि स्वरूपविपर्यास इसी को कहते हैं। निर्जरा तत्व का यदि कोई आधार है, तो केवल सम्यग्दर्शन है, ऐसा कहेंगे, तो उमास्वामी महाराज, अमृतचन्द्र महाराज, जयसेन महाराज और भी जितने महाराज हैं, वे सारे के सारे उस व्यक्ति को स्वरूपविपर्यासी कहेंगे। अब सोच लो, अपने आप स्वाध्याय करने से यह परिणाम निकला। कुछ बड़ों से पूछा करो। उसी से तो हम पढ़ते हैं। पढ़ते तो हैं, लेकिन अर्थ तो अपने दिमाग से निकाल लेते हैं। अपने आप अर्थ मत निकाला करो। चार-चार, आठ होते हैं, कभी बारह बना दो, तो नहीं। प्रक्रिया समझो। इसलिए समझना चाहिए, कि किसी एक के रहने से स्वरूपविपर्यास होने में देर नहीं लगेगा। स्वरूपविपर्यास इसी को बोलते हैं। जो असंख्यातगुणी निर्जरा हो रही है, वह सब सम्यग्दर्शन की देन है। तो सम्यक्चारित्र ने यहाँ पर क्या काम किया बताओ ? उसके साथ स्वयं ही वह हो जाता है। हो जाता है, सही है। लेकिन असंख्यातगुणी निर्जरा कम क्यों थी ? या तो चारित्र के द्वारा बढ़ गई अथवा सम्यग्दर्शन प्रौढ़ हो गया, यह मानना ही पड़ेगा। या तो सम्यग्दर्शन के भेद-प्रभेद मानो अथवा सम्यक्चारित्र के लिए श्रेय दो। अथवा सम्यग्दर्शन में प्रौढ़ता कैसे आई ? चारित्र के द्वारा आई, यह मानो। तीन बातें हैं, तीन सौ बातें तो हैं ही नहीं। केवलज्ञानी कहते हैं-प्रत्येक बात को खुलासा करने के लिए प्रश्न उठाना चाहिए। ऐसा तार्किक प्रश्न उठाना चाहिए, कि सामने वाले व्यक्ति को हूँ कहना ही पड़े। तीन में से क्या मानना चाहोगे ? कहो, सम्यग्दर्शन को छोटा-बड़ा मानना चाहते हो, तो आगम से ही विरोध आ जायेगा। यदि फिर भी मानते हो, तो कोई बात नहीं। वह बड़ा क्यों हुआ ? अपने आप क्यों नहीं हुआ ? पूर्वकोटि वर्ष तक सम्यग्दर्शन के साथ रहा, उसमें असंख्यात-गुणी निर्जरा बड़ी क्येां नहीं ? और अन्तर्मुहूर्त में संयमासंयम के द्वारा बढ़ी क्येां ? इसलिए स्पष्ट हो जाता है, कि कोई अद्वितीय शक्ति है, जो रत्नत्रय को प्रौढ़ता की ओर ले जाने की क्षमता रखती है। और वह तप के पास विद्यमान है। कोई संदेह नहीं। कार्य को देखकर कारण का अनुमान और कारण को देखकर कार्य का अनुमान किया जाता है। यदि यह प्रक्रिया अपने जीवन में आती है, तो स्वरूप–विपर्यास कोई वस्तु नहीं। जिसका जो रूप है, उसको उसी रूप में मानना चाहिए। ऐसे ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा ध्यान करके वे ध्याता लोग परमात्मपद को प्राप्त हो जाते हैं। कर्मकलक सबै दहे कर्म रूपी कलक को दग्ध कर देते हैं। स्वर्ण पाषाण को दग्ध करो, तो पाषाण जल जायेगा। स्वर्ण व ज्ञानी की पहचान के लिए एक उदाहरण देकर कुन्दकुन्दाचार्य ने संवराधिकार में दो गाथायें कही हैं। ज्ञानी ज्ञानपने को कभी भी नहीं छोड़ता, चाहे कर्म रूपी अग्नि के द्वारा तपता चला जाये। कमों के उदय आते हैं, तब ऐसा लगने लग जाता है, कि कैसे बचेगा यह जीवन ? लेकिन अजरअमर आत्मतत्व के ऊपर श्रद्धान रखने वाला व्यक्तित्व कमाँदय को गौणकर जाता है। और मौन ले लेता है। स्थिति ऐसी आ जाती है, कि कर्म तो दग्ध हो जाते हैं और आत्मा कंचन के समान रह जाता है। जितना भी आप तपाओ कंचन को, वह और निखरेगा, खरा उतरेगा। स्वर्ण को कैसे कसते हैं ? पाषाण की कसौटी होती है। उसके ऊपर कसते हैं। उसको तोड़ते हैं। उससे भी ज्ञान कर लेते हैं। उसको यूँ-यूँ करते हैं, तोलते हैं, तो उससे भी ज्ञान कर लेते हैं। और सही सौ टंच सोने की जांच करना चाहो, तो उसको तपा देते हैं। इससे सारा का सारा मल निकल जाता है। और स्वर्ण शुद्ध हो जाता है। इससे भिन्न अज्ञानी राग को ही अपने आत्म रूप में मानता चला जाता है। वह राग, द्वेष व मोह से प्रभावित होता है। इसलिए वह कभी भी स्वर्ण के समान नहीं बन पाता। वह कर्म बंध को ही निरन्तर प्राप्त करता चला जाता है। तप की महिमा तीन लोक में अनूठी मानी जाती है। जिस रसायनशास्त्र के द्वारा इस आत्मतत्व व जड़ तत्व को पृथक् नहीं किया जा सकता, तो फिर उस रसायनशास्त्र से क्या मतलब? पाषाण से तो स्वर्ण को पृथक् कर लिया गया, अग्नि के द्वारा। लेकिन इस सामान्य अग्नि के द्वारा कर्म व आत्मा को कभी पृथक् नहीं किया जा सकता। दूसरी बात एक और है, जब परिणामों की बात आती है। प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन के काल में जीव का कभी भी अकालमरण नहीं हेाता। कभी का मतलब उस समय में मरण नहीं बताया। उस गुणस्थान से या तो वह ऊपर जाय या नीचे जाय, तब मर सकता है। अन्यथा उस चतुर्थ गुणस्थान में, जब उपशम सम्यग्दर्शन के काल में रहता है, उस समय उसका मरण नहीं हो सकता। इसका अर्थ यह हो गया, कि कदलीघात के योग्य उस समय उसका शरीर नहीं रहता, यह मानना पड़ेगा। इतने अल्पकाल में वह मरण को प्राप्त नहीं हो सकता। कैसे कितने भी बड़े लोहधन को ले आओ। लोहे का एक पाटा रखो और उसके ऊपर हीरे की कणिका को रखो और हीरे के ऊपर घन पटक दिया, अब तो हीरा चूर-चूर होना चाहिए। लेकिन वह चट से बाहर चला जाता है। और हँसता रहता है। तुम पचासों बार प्रहार करो, तो भी मेरे ऊपर कोई चोट नहीं पड़ने वाली है। वह कैसा रसायन है ? हीरे की कणिका में ऐसा कौन-सा बंध हुआ ? परंपरं सूक्ष्मम् पढ़ा था आपने। कब पढ़ा था ? पर्व के दिनों में पढ़ा था। दूसरे ही दिन परंपरं सूक्ष्मम् कहा। लेकिन प्रदेश तो वह मिट्टी की ढेली नहीं है। वह रसायन की गुठली नहीं है। वह लोहे का टुकड़ा नहीं है। वह कोई रसायन की प्रक्रिया नहीं है। वह हीरे की कणिका है। क्या कहते हैं ? पर्वतों के ऊपर भी ऐसा वज्रपात हो जाता है,तो वे टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। लेकिन वह उस समय शरीर पर कथचित् प्रहार हो सकता है। असातावेदनीय की छठवें गुणस्थान तक ही उदीरणा मानी गई है। अप्रमत्त अवस्था ज्यों ही हो जाती है, उस सर्कल में कोई भी नहीं आ सकता। उस रेंज में कोई भी प्रवेश नहीं कर सकता। आप लोगों ने सुना होगा, एक दरवाजा होता है। लेकिन हवा के भी दरवाजे होते हैं। वहाँ ताले की कोई आवश्यकता नहीं होती। खुला रखिये आप। चारों ओर अपनी बहुमूल्य वस्तुयें रखिये और बटन दबाकर हवा के डोर को तैयार कर दीजिए। कुछ नहीं होगा। ऐंगल से ऐसी जोर की हवा चलना प्रारम्भ हो जाती है, कि उस स्थान पर कोई भी नहीं जा सकता। संभवत: गोली भी बाहर आ जाये। कोई वहाँ पर घुस नहीं सकता। हाथ जा नहीं सकता। कोई प्रयास करे, तो उसे बाहर ढकेल दे। वह कह दे-भैया, यहाँ पर भूत बैठा है। जबकि भूत वगैरह कुछ नहीं है। क्योंकि उसमें हवा ही वैसी दी जाती है। उसी प्रकार सप्तम गुणस्थान में एक डोर (गुप्तियां) आ जाती हैं। उससे वह पैक हो जाता है। महाराज आगे कुछ भी हो, उस स्थान में जब तक रहेगा, तब तक कुछ भी नहीं होता। साता का ही आस्रव होता है। और साता का अर्थ होता है रक्षा । छठवें गुणस्थान में साता भी रह सकता है और असाता भी रह सकता है। किन्तु असाता सप्तम गुणस्थान में नहीं पहुँच सकता। सप्तम गुणस्थान में असाता का उदय रह सकता है। लेकिन बंध साता का ही होगा। देखो, भगवान् ने हम लोगों के लिए कैसा पथ दिया है, कि आयुकर्म की उदीरणा छठवें गुणस्थान तक ही होती है। असाता की उदीरणा भी छठवें गुणस्थान तक ही होती है। भूलकर के नीचे आओगे तो संभव है, कि आपत्ति आये। और ऊपर ही बैठे रहोगे, तो चैलेंज है वहाँ कोई नहीं आ सकेगा। अब नमोऽस्तु करके दूर-दूर से चले जायेंगे। कोई छू नहीं सकता। यह स्थिति है। कोई बाधा आ नहीं सकती। जैसे-जैसे ऊपर बढ़ते चले जाते हैं, तप की ऐसी अग्नि धधकने लग जाती है, कि वहाँ पर कोई भी सामने नहीं आ सकता। सूर्य को दूर से देखो आँख बंद कर लेंगे। क्योंकि वह सर्चलाइट है। उसे कोई नहीं देख सकता। वज्र के प्रहार के माध्यम से बहुत-सी चीजें छिन्न-भिन्न हो जाती हैं। लेकिन वज्र छिन्न-भिन्न नहीं होता। काँच में जहाँ चाहे वहाँ वज्र की लकीर थोड़ी-सी खींच लो, वह टूट जायेगा। जितना चाहें, उतना टूट जायेगा। जिस नाप से तोड़ना चाहे, उस नाप से टूट जायेगा। मात्र एक लाइन खींचने की आवश्यकता है। ज्यादा आवश्यकता नहीं। जैसे आप बरफी के ऊपर खींचते हैं ना, चम्मच से। उसी प्रकार ध्यान में भी ऐसी शक्ति है। उस शक्ति के माध्यम से बड़े-बड़े कर्मों का क्षय हो जाता है। तप के लिए बहुत हिम्मत और ताकत लगानी पड़ती है। जितनी बड़ी-बड़ी चीजें होती हैं, उनके लिए उतनी ही बड़ी राशि की आवश्यकता होती है। कोई मुनिधर्म धारण करना चाहे, शुक्लध्यान करना चाहे, तो उसे बड़ी राशि लगाना पड़ेगी। पूरी राशि लगाये, तो वह मिल सकता है। पूरी राशि लगाये और यह संकल्प ले ले, कि हमें इस राशि की कोई आवश्यकता नहीं है। मोह के कारण वह शक्ति उत्पन्न नहीं हो पा रही है। मोह जहाँ समाप्त कर दिया, बस फिर रास्ता चालू हो गया। ऐसा तप होता है। भगवान् महावीर ने ऐसा ही तप किया। हमारे लिए भी कुछ दे दें,ऐसा कह सकते हैं आप। हाँ, उपदेश तो दे सकते हैं। लेकिन तप देने की चीज है ही नहीं, लेने की चीज है ही नहीं। वह तो भीतर से प्राप्त करने की चीज है। जितनी हार्स पावर की मशीन आपके पास होगी, उतना ही विद्युत उत्पादन उससे होगी। यही है ना ? हाँ, जितनी हार्सपावर की मशीन होगी, उतनी ही विद्युत जनरेट कर देगी। उसी प्रकार आप लोगों को चाहिए, आज सम्यक्र तप है। उत्तम तप है। आप को भी ऐसी जनरेटर खरीद लेना चाहिए। ऐसा नहीं, कि बिल्कुल जीरो वाट पर जलाओ। सर्चलाइट लग जाय और सारे के सारे लोग उसमें प्रकाशित हो जाये। महाराज बहुत खर्चा लगता है। आप उत्पादन करने वाले हैं, खर्चे से क्यों डरते हो ? जितना खर्च करोगे, उससे कई गुणा उत्पादन और होगा। महाराज! हम लाइट जलाये और उससे दूसरे लोग लाभ लेने लगें तो ? ऐसी कृपणबुद्धि वालों को लाइट का प्रकाश नहीं मिलता। अरे, वह लाइट प्रकाशित करने के लिए है। स्व और पर के प्रकाश के लिए ही है। उन लोगों को भी इस प्रकाश को देखने से भाव उत्पन्न हो सकता है, कि मेरे भीतर भी ऐसा ही प्रकाश हो। एक बात और मैं कहना चहता हूँ- कृष्ण जी जब रुक्मणी को लेकर जा रहे थे, साथ में समुद्रविजय, जो रुक्मणी के भाई थे, थे। रिश्ता-फिस्ता हमें याद नहीं रहता, भैया! तो रुकमणि सोचती है, कि भैया आ गये अब तो कृष्ण जी का कुछ बचने वाला नहीं। अब क्या करूं ? हे भगवन्! रुक्मणी को ऊपर-नीचे होते देखकर उस समय विश्वास दिलाने के लिए कृष्ण जी क्या करते हैं ? अपनी अंगूठी में जो हीरे का नग था, उसको अंगूठे व तर्जनी के मध्य से यूँ निकाल दिया। और उसे यूँ-यूँ मसल दिया, तो वह बिल्कुल आटा बन गया। जो एक घन के द्वारा चूर नहीं हुआ, वही अंगूठे व तर्जनी के द्वारा यूँ-यूँ करते ही चूर-चूर होकर नीचे गिर गया। नकली हीरा हेागा। नकली नहीं, असली नग और संहनन था। इससे नारायण के बल की पहचान हो जाती है। कि हाँ, अब कोई चिन्ता नहीं, विश्वस्त हो गई रुक्मणी। महिलायें जल्दी विश्वास नहीं करती। सम्यग्दर्शन के बारे में उनको क्षायिक सम्यग्दर्शन इसीलिये नहीं बताया, लगता यही है। परन्तु पुरुषों के लिये सम्यग्दर्शन बहुत जल्दी होता है। नहीं समझे। सौधर्म इन्द्र तो वहीं बना रहता है, और चालीस नील की संख्या में शचियाँ पार हो जाती हैं। क्या अर्थ निकला ? अर्थ यह निकला, कि आत्मा की शक्ति का उद्घघाटन किस पर्याय में, किस ढंग से होता है, कोई कुछ नहीं कह सकता ? इन उदाहरणों से यह ज्ञात होता है कि आत्मा के पास अनन्तशति है। मोह के कारण अनेक पर्यायें बदलती रहती हैं। अभिमान के कारण जो पर्याय अच्छी मिली, वह भी धूमिल हो जाती है, नष्ट हो जाती है। पुरुष पर्याय हो या स्त्री पर्याय हो, कोई भी हो। मोह से जो आहत हैं, वे निश्चित रूप से ऐसे ही कर्मों का संपादन करते रहेंगे। पर्याय नहीं, आत्मतत्व, ध्रुवतत्व को देखने की आवश्यकता है। इसी में से ऐसी पर्यायें उत्पन्न होती हैं, यह ध्रुवतत्व का अवलोकन करने से ज्ञात हो जाता है, विश्वास हो जाता है। इधर आण्विक शक्ति के द्वारा भी कोई विस्फोट नहीं हो सकता। घन के द्वारा हीरा कणिका नहीं टूटी। लेकिन तर्जनी और अंगूठे से चूर-चूर हो गई। कर्मों की भी यही प्रवृत्ति होती है। वज्रवृषभनाराच संहनन से कर्म खिसकते चल जाते हैं और इसी संहनन के माध्यम से आर्तध्यान और रौद्रध्यान किया जाता है, तो आत्मा का अहित हो जाता है। और धर्मध्यान व शुक्लध्यान किया जाता है, तो आत्मा अन्तर्मुहूर्त में ऊपर उठ जाता है। अनन्तकालीन बंध भी समाप्त हो जाता है। अनादिसम्बन्धे च॥ अप्रतिघाते॥ तत्त्वार्थसूत्र – २/४१, ४० दूसरा कोई पदार्थ नहीं, जो कर्म का प्रतिघात कर सके। लेकिन आत्मा जो अन्तर्मुहूर्त में निर्माण करता है, वही उसे खाक भी कर सकता है। अन्तर्मुहूर्त की देरी है। सत्तरकोड़ाकोड़ी स्थिति को बांधने वाला कोई व्यक्ति है, उसके साथ तो सारे के सारे अशुभ कर्म बंध रहे हैं। प्रथम गुणस्थान और कृष्ण-नील लेश्या के साथ तीव्र परिणामों की बात है। किन्तु उसे अन्तर्मुहूर्त नहीं लगा, कि अन्त:कोड़ाकोडी में आ जाता है। थोड़ी-सी आँख खोल देता है और सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है। कुछ प्रकृतियाँ तो आँख खोलने के पहले ही कहने लग जाती है-भाई साहब, हम जाने के लिए तैयार हैं। हमारे भैया को तो आपने भेज दिया। बड़ा भैया तो चला गया, अब हम कहाँ चले जायें? दर्शनमोहनीय बड़ा है, चारित्रमोहनीय छोटा। छोटा पीछे से जाता है, यह सिद्धान्त है। छोटे भैया को अगुवा बनाना चाहते हैं आप। किन्तु वह बाद में जाता है। कई लोग कहते हैं-सम्यग्दर्शन की पहले बात करो। लेकिन दर्शन मोहनीय को भी समाप्त करने की बात करो। बड़े भैया को पीछे रखकर अनन्तानुबन्धी पहले चली जाती है। बाद में जो शेष रह गयी, वे भी जाती हैं। उत्पाद, व्यय और धौव्य रूप द्रव्य का परिणमन लगा ही रहता है। लेकिन धन्य हैं वे योगी लोग जिन्होंने वस्तु के परिणमन को जाना, और तप को अंगीकार कर उत्तम तपधर्म को धारण किया। उसके माध्यम से अपने आपके स्वरूप को पा लिया। आज धूप दशमी है, आप लोग धूप खेते हैं। आप लोग धूप खेकर सुगन्धि बिखेरते हैं, लेकिन उत्तम तपधर्म को स्वीकार करने वाले महामुनि प्रतिदिन तपाग्रि में कर्म रूपी धूप को जलाते हैं और अपनी आत्मा को सुगन्धित करते जाते हैं। मैं भी आत्मतत्व को सुगन्धित करना चाहता हूँ। आत्मतत्व को पाना चाहता हूँ। धन्य हैं ऐसे मुनिराज, जिन्होंने उत्तम तपधर्म के माध्यम से अपने आपको जाना। ऐसे मुनिराजों को बारम्बार नमोऽस्तु करता हूँ। अहिंसा परमो धर्म की जय...
  7. नि:कांक्षित अंग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार पूजा, ज्ञान, तपश्चरण आदि अनुष्ठान मोक्ष प्राप्ति के लिए निर्जरा के लिए होना चाहिए, इस लोक-परलोक सम्बन्धी भोगाकांक्षा रूप निदान से रहित होना निकांक्षित अंग है। धार्मिक कार्यों में आत्म संतुष्टि का होना ही नि:कांक्षित अंग है। धर्म करते हुए पंचेन्द्रिय विषयक सुख में आस्था नहीं रखना नि:कांक्षित अंग है, क्योंकि यह सुख-दु:ख से मिश्रित है और कर्माश्रित है। संसार सुख,दुख का बीज है एवं पराधीन है व अंत सहित है, इसकी (संसार सुख की) कांक्षा न करना नि:कांक्षित अंग है। बाहुबली और भीमसेन ने पूर्व भव में बिना आकांक्षा के देव, शास्त्र व गुरु की आराधना की थी उसी के परिणाम स्वरूप उन्हें संसार में सुख एवं प्रसिद्धि प्राप्त हुई। जिसे आत्मसंतुष्टि प्राप्त नहीं है, वही तुष्टिकरण की नीति को अपनाता है। नि:कांक्षित अंग में अनंतमति एवं सीतासती प्रसिद्ध हैं।
  8. सम्यक दर्शन में आठ अंग - निशंकित अंग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जैसा देव, शास्त्र, गुरु का स्वरूप आगम में कहा गया है वैसा ही है, अन्य भी नहीं है और अन्य प्रकार भी नहीं है, ऐसा श्रद्धान रखना निशंकित अंग है। जिनेन्द्र भगवान के वचनों पर शंका न रखना (करना) निशंकित अंग है। तलवार की धार पर लोहे में पानी की बूंद अकम्प रहती है, इसी प्रकार नि:शंकित अंग वाले का सम्यक दर्शन संशय रहित अकंप होता है। निशंकित अंग वाले की पहले की अपेक्षा दृष्टि बलवती बनी रहती है। बार-बार उपयोग करने से तलवार की धार में कमी आ जाती है, लेकिन सम्यक दर्शन रूपी दृष्टि बार-बार श्रद्धान से बलवती होनी चाहिए। जिसका जो स्वरूप आगम में कहा है-उसी रूप में स्वीकार करना चाहिए वरन् बड़ों की आसादना हो जावेगी और ऐसा होना व्यवहार-कुशलता नहीं मानी जाती। मिथ्यात्व के ऊपर भी हेय रूप श्रद्धान रखो कि ये संसार का कारण है ऐसा नि:शंक होकर श्रद्धान रखो। नि:शंकित अंग में अंजनचोर प्रसिद्ध है जिसने जिनदत सेठ पर श्रद्धा रखकर णमोकार मंत्र का उच्चारण करते हुए सींके को काट दिया और आकाशगामिनी विद्या सिद्ध कर ली।
  9. क्षमावाणी विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार श्रमण की दैनिक चर्या में प्रतिक्रमण आता है, प्रतिक्रमण का अर्थ ही है, प्रत्यक्ष कोई सामने हो या न हो तीन लोक में किसी भी जीव के प्रति अपराध हो गया हो तो क्षमा मांगना। वस्तुत:हमें क्षमा मांगना है और हमें क्षमा करना है।दूसरे क्षमा मांगे, या न मांगे क्षमा करें या न करें इससे कोई मतलब नहीं, क्योंकि क्षमा तो हमारा स्वभाव है। क्षमा धारण किये बिना मोक्षमार्ग ही नहीं बनता। क्षमा मांगने जैसा पवित्र भाव और दुनियाँ में कोई भाव नहीं हो सकता। साधु हर क्षण क्षमा मांगता है प्रत्येक क्रिया में कायोत्सर्ग करता है। जिनके जीवन में क्षमा अवतरित हो जाती है, वह पूज्य बन जाता है।जरा सोचो तो जो वस्तु तीन लोक में पूज्यता प्रदान करा दे, वह कितनी मौलिक वस्तु होगी। कषाय सहित होने से लोग देखना भी पसंद नहीं करते और यदि कषाय रहित हो गया तो उसे देखने के लिए, दर्शन करने के लिए दूर-दूर से लोग आ जाते हैं। क्षमा हमारी ही वस्तु है, जब क्षमा की अभिव्यक्ति हो जाती है तो उस क्षमा की मूर्ति के सामने हत्यारा भी हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता है। उसके नाम की जाप देता है, णमो लोएसव्वसाहूणं कहता है। अष्टपाहुड ग्रन्थ में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने क्षमाधारी मुनिराज को, जिनायतन, जिनबिम्ब, तीर्थ आदि कहा है जिनलिंग कहा है, उन्हें जिन प्रतिमा में दर्शन की आवश्यकता नहीं, वे स्वयं जिनेन्द्र भगवान के प्रतिबिम्ब हैं। क्षमाधारण करने के बाद जीव का महत्व कितना बढ़ जाता है इसे हम मुख से वर्णन नहीं कर सकते हैं। साधु का जीवन उज्वल होता है। दीपक है उसकी लौ है तो धुआँ भी जुड़ा रहता है, वैसे ही संसारी प्राणी के साथ अज्ञान जुड़ा होता है। स्वभाव की प्राप्ति होते ही यह जीव निर्विकार हो जाता है। जो क्षमा के अवतार होते हैं, उससे क्षमा मांगने और क्षमा करने की बात ही नहीं क्योंकि उनके पास क्षमा हमेशा रहती है। क्षमा और प्रतिक्रमण के आँसू से साधु अपना सारा अपराध बहा देता है, धो लेता है, फिर स्वयं क्षमा की मूर्ति बन जाता है। (क्षमा मांगना नहीं क्षमामय बनना चाहिए)। पश्चाताप की घड़ियाँ जीवन में हमेशा नहीं आया करतीं, ये अपने स्वरूप तक ले जाने वाली घड़ियाँ हैं, स्वरूप प्राप्ति का प्रवेश द्वार है। जब तक प्रतिक्रमण नहीं करता तब तक निश्चय में नहीं डूब सकता। क्योंकि बाहरी लीनता के हटाने का नाम ही आत्मा में लीन होना है। ग्रामीण लोग कजलियाँ भेंट करते हैं, यह कटुता समाप्त करने का त्यौहार है। कषायों के वातावरण के साथ तो अनंत समय बिताया है, अब आत्मीयता के (वातावरण के) साथ जियो। मतभेद और मन भेद को समाप्त करके एक हो जाओ, भगवान के मत की ओर आ जाओ फिर सारे संघर्ष समाप्त हो जायेंगे। कषायभाव हमारे जीवन से समाप्त हो जावें, इसलिए यह क्षमावाणी का त्यौहार मनाया जा रहा है। क्षमाभाव को आत्मसात् करने का आनंद अद्भुत ही हुआ करता है।आप लोग क्षमाधर्म का अभ्यास करो। हमारा ही उपयोग बड़ी महत्वपूर्ण वस्तु है, यह हमें अविनश्वर फल देने वाली योग्यता रखता है। इसमें उत्पाद विष्णु, व्यय शंकर, ध्रुव ब्रह्मा सब कुछ मौजूद है। रक्षक, भक्षक, अविनश्वर इसी जीव में सब कुछ विद्यमान है। क्षमा ऐसी वस्तु है जिससे सारी ज्वलनशीलता समाप्त हो जाती है एवं चारों ओर हरियाली का वातावरण दिखाई देने लगता है। क्रोध में उपयोग नहीं रहता और उपयोग क्रोध में नहीं रहता। इसका तात्पर्य यह है कि क्रोध के समय उपयोग क्रोध रूप परिणत हो जाता है। साधु क्रोध रूपी शत्रु को क्षमा रूपी तलवार से नष्ट कर देते हैं। क्षमा कल्पवृक्ष के समान है, क्षमा के समान कोई धर्म नहीं है।
  10. ब्रह्मचर्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार धर्म की आराधना करते जाओ, उसकी सिद्धि करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह किसी के देखने में नहीं आता। प्रभु ने सुना कि प्रभु की भक्ति ने सुना, भक्ति के माध्यम से प्रभु तक पहुँच जाते हैं। वह वस्त्र शील रक्षा के लिए शस्त्र का काम कर गये द्रौपदी के लिए। भक्ति में इतनी शक्ति थी कि उनको, साड़ी भेजना पड़ी।यहाँ शील है तो वहाँ साड़ी है। विज्ञान इस दिशा में नहीं पहुँच पावेगा। आज अनर्थ की जड़ टी.वी. है, जिसके माध्यम से संतान पतन की ओर बढ़ जावे उसे छोड़ने में क्या बाधा? टी.वी. से बुद्धि का नहीं वासना का विकास हो रहा है। जिसके माध्यम से शीलव्रत में कलंक लग रहा हो उसे घर में रखते ही क्यों हो ? शील व्रत की कथा पढ़ने की प्रथा रखनी चाहिए। शील की उपासना करने वालों को शील भंग के कारणों (टी.वी. आदि) का त्याग कर देना चाहिए।शील की रक्षा इसके बिना सम्भव नहीं है। टी.वी. के डिब्बे को अलग कर दो, वह शैतान का डिब्बा है, उसे देखने वाले भी शैतान हो जाते हैं। घर में जिससे अनेक प्रकार के तूफान उठते हैं, उन्हें बाहर निकालिये और मन की शुद्धि के लिए प्रथमानुयोग का स्वाध्याय करिये, माला फेरिये। वासना हमारे और भगवान के बीच में अभिशाप सिद्ध हो जाती है। जो पर में तत्पर रहता है वह परास्त हो जाता है। मैं अंदर से इतना स्वच्छ रहूँ ताकि कोई बाह्य का असर न पड़े, यह प्राकृतिक चिकित्सा है।शादी के बाद अन्य के प्रति माँ, बहिन का भाव आना भारतीय संस्कृति है। रावण ने भी व्रत लिया था हठात् किसी स्त्री को ग्रहण नहीं करूंगा। योग और उपयोग में इतनी शक्ति है कि अन्य की आवश्यकता ही नहीं मात्र दृढ़ विश्वास चाहिए। माँ को माँ बहिन को बहिन समझना यह उपयोग का ही वरदान है। कई व्यक्ति परिवार के बंधन में बंधे रहते हैं, यह योग/उपयोग की साधना है यह अन्यत्र भी करें, फिर सारा संसार परिवार नजर आने लगेगा। इमली का पेड़ बूढ़ा हो जाता है, पर उसकी खटाई बूढ़ी नहीं होती, यही दशा वासना की है। वस्तु स्वरूप समझ में आ जाता है तो फिर शरीर पर आवरण की बात ही नहीं रह जाती, दिगम्बरत्व प्राप्त हो जाता है | आत्मा का स्वरूप समझ में आ जाता है तो वस्त्र को स्वीकारना लज्जा जैसी लगती है। पर की अपेक्षा मोक्षमार्ग में नहीं होती, पर को स्वीकारना मोक्षमार्ग को सहनीय नहीं इसलिए मोक्षमार्गी को भी वस्त्र पहनना सहनीय नहीं है। मोक्षमार्गी पेट के लिए कुछ आहार लेता है, तब उसे लजा आती है, जल्दी-जल्दी चौके से बाहर निकलने के भाव रहते हैं, यह भी ग्रहण करना उसे सह्य नहीं होता। वस्त्र ग्रहण करना तो इष्ट है ही नहीं। अन्न के बिना जीवन चल नहीं सकता इसलिए अन्न को ग्रहण करना पड़ता है। वीतरागी को विष भी अमृतमय हो जाता है, वीतरागता के सामने राग नीचे बैठ जाता है। तात्विक दृष्टि आने के बाद भी यदि विषयों का जहर नहीं निकला तो समझना अभी तत्वज्ञान हृदयग्राही नहीं हुआ है। स्वभाव तो त्रैकालिक है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता मात्र उसका अनुभव किया जा सकता है। तृष्णावान हमेशा भविष्य जानना चाहता है लेकिन भविष्य की बात करने वाला अंधकार में है, यह नहीं जानता। साधु की सेवा करने वाला श्रावक भी साधु का अनुचर (अणुव्रती) होता है, उसके पास भी वासना सीमा होती है (स्वदारसंतोष व्रत होता है) उसका वह उल्लंघन नहीं करता। भारतीय आचार-संहिता पढ़ने से ज्ञात होता है, श्रावक धर्म रागमय है पर उसकी दृष्टि हमेशा वीतरागता की ओर रही है। श्रावक तीनों संध्याओं में शुद्धोपयोगी मुनिराज के जीवनचर्या के बारे में चिन्तन करता रहता है। श्रमण साधु जन स्वयं शोध करते हैं लेकिन श्रावक सहयोगी पति-पत्नि के साथ एक दूसरे की कमजोरी को दूर करते रहते हैं, एक दूसरे का निर्देशन तब तक नहीं छोड़ते जब तक थीसिस पूर्ण न हो जाये। जब तक घर में है, तब तक साथ है, वैराग्य हो गया (थीसिस पूर्ण) बस चल दिये संन्यास की ओर। धर्म परम्परा को संचालित करने के लिए स्वदारसंतोष व्रत लिया जाता है। एक के अलावा अनंत का विकल्प हट जाता है, अनंत वासना चुल्लु भर रह जाती है। वासना के लिए विवाह नहीं होता बल्कि संस्कारित संतान के लिए, धर्म परम्परा चलाने के लिए विवाह होता है। मुनिराज या भगवान ऊपर से नहीं आते बल्कि उन्हीं आदर्श गृहस्थ के यहाँ उत्पन्न संस्कारित शिशु हुआ करते हैं, वे ही महाराज व भगवान बनते हैं। भारतीय संस्कृति में चार आश्रम होते हैं-श्रावक गृहस्थाश्रम वासी है। आप लोग भी पूर्वजों के पद चिह्नों पर ही चलिए अपना नया रास्ता मत बनाइए। श्रावक धर्म में कमी आ गयी तो, श्रमण धर्म नहीं रह सकता | रेल में श्रावक पीछे गार्ड बाबू जैसा है ड्रायवर (साधु) इसके बिना गाड़ी आगे नहीं बढ़ा सकता। स्वदारसंतोष व्रत को कुशील नहीं कहा सुशील कहा है। ब्रह्मचर्य व्रत कहा है। (स्वदार संतोष व्रत का अर्थ है-अपनी स्त्री में ही संतुष्ट रहना)। आप लोग नाप-तौल छोड़कर अपना कर्तव्य पूरा करें, दहेज से संघर्ष शुरू हो जाते हैं और धार्मिक संस्कार समाप्त हो जाते हैं। गर्भपात अधर्म कर्म है, निकृष्ट कर्म है, अन्याय है। काम पुरुषार्थ के द्वारा प्राप्त फल को नष्ट करना ठीक नहीं। दीनहीन व्यक्तियों के माध्यम से धर्म नहीं चलता क्योंकि यह क्षत्रियों का धर्म है। पुरुषार्थ के माध्यम से धन कमाओ। पैसों से घर नहीं चलने वाला बल्कि संस्कारों से घर चलेगा। दान, पूजा, शील एवं उपवास ये चार धर्म श्रावक के लिए बताये हैं। शील का अर्थ स्वभाव होता है, ब्रह्मचर्य होता है। जब तक श्रावक ब्रह्मचर्य के साथ रहता है, तब तक उसे घर गृहस्थी का दोष (पाप) नहीं लगता।
  11. आकिंचन्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जब हम अकेले हो जावेंगे तो दुनिया अपने आप अपनी हो जावेगी। मन जितना हल्का होगा तो परिग्रह छोड़ने से ही होगा। धन, लक्ष्मी आत्मा की आराधना में बाधक हैं, शरीर भी बिगड़ जाता है। जितने भी दुख, संक्लेश परिणाम होते हैं, उसका मूल कारण संयोग है। लक्ष्मी (धन परिग्रह) रखते हो तो रौद्रध्यान (संरक्षणानंद) से नहीं बच सकते हो। भय संज्ञा के योग्य जो पदार्थ अपने पास रखता है, उसका अकाल मरण हो सकता है। हृदयगति हमारे भावों पर चलती है, यह बीमारी नहीं है भय है, कषाय है। जो भय से मुक्त होना चाहता हो, निशंक ध्यान करना चाहता हो, उसे परिग्रह रहित होना अनिवार्य है। भार छोड़ने से मन लगेगा वरना नहीं। जिसके पास कषाय अधिक होती है, प्राय: उसी को असाध्य रोग होते हैं। प्रशस्त मन को दवाई की आवश्यकता नहीं। हम स्वयं स्वास्थ्य के निर्माता हैं यहाँ पर शारीरिक, मानसिक दोनों चिकित्सा होती है। जिससे विकल्प हो रहा हो, उसे छोड़ दो। तिलतुष्मात्र भी मेरा नहीं है यह दुकान, घर में बैठकर सोचो तब सब छूट जावेगा मात्र ग्रन्थ में पढ़ने से नहीं। ताला लगाना रौद्र-ध्यान का प्रतीक है। ताले से रौद्र-ध्यान का अनुपात ज्ञात होता है। रौद्रध्यान को कम करोगे तो ऊध्र्वगमन स्वभाव की ओर बढ़ते जाओगे। अध्यात्म में जिनका जितना अधिक परिग्रह कम होगा वे उतने ही बड़े माने जावेंगे। श्रमण शरीर की रक्षा करते हैं लेकिन वह परिग्रह के अंतर्गत नहीं आता। वे मठाधीश बने बिना चातुर्मास स्थापना करते हैं। मात्र आत्मतत्व ही हमारा है उसी की रक्षा, व्यवस्था में लगे रहो। स्थान के प्रति मोह भाव परिग्रह का रूप धारण कर लेता है। आप पद की नहीं रत्नत्रय से विभूषित पद के धनी बनें। परिग्रह से रहित आत्मा उर्ध्वगामी होती है। आकिञ्चन रूप घी को, छटॉक भर घी को, नीचे डाल दो और पचास किलो दूध डाल दो फिर भी वह ऊपर आ जावेगा। आकिञ्चन वही है जो किसी में नहीं मिलता। किसी से मिल तो सकता है, पर किसी में मिलता नहीं। क्योंकि स्वभाव का यह स्वभाव है कि स्वभाव किसी में मिलता नहीं। आकिञ्चन धर्म का जो मौलिक महत्व समझते हैं, वे ही इसे स्वीकारते हैं। वैष्णव धर्म में इसे दारिद्र व्रत कहा है। जोड़ने वाला नहीं खाली करने वाला बड़भागी/सौभाग्यशाली होता है। मोह गले तो आकिञ्चन प्राप्त हो । इस शरीर रूपी जेल से छूटने के लिए आकिञ्चन धर्म को स्वीकारा जाता है। इस मौलिक पदार्थ के सामने सारे पदार्थ कौड़ी के मोल दिखते हैं। यदि जीव बाह्य से भी आकिञ्चन धारण कर लेते हैं, भले अंदर के कर्म नहीं छूट पाते तो भी वे स्वर्ग में अंतिम ग्रैवेयक तक जा सकता है और कोई उपाय से नहीं जा सकते। पर को हाथ में मत रखो फेंक दो वरना ताली नहीं बजा पाओगे। पर द्रव्य का आश्रय जितना कम करोगे उतने स्वस्थ्य होते जाओगे। आवश्यकता से बाहर कोई भी कार्य करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। पानी का अंश होने से दूध की आरती नहीं बनती बल्कि अग्नि परीक्षा के बाद घी से आरती बनती है। घी में चेहरा दिखता है वैसे ही आकिञ्चन होने पर ही वस्तु स्वरूप झलकता है। तीन लोक में एकत्व ही मात्र दुर्लभ वस्तु है, इसे जो स्वीकार करता है उसे निर्वाण की प्राप्ति होती है। मुक्ति उन्हीं को मिलती है, जिसके पास कुछ नहीं होता। अकेले का महत्व अलग ही होता है, यह तृष्णा की रेखा तो विश्ववन की व्याली (सर्पिणी) है। जिस दिन आचरण में आकिञ्चन धर्म आ गया समझो वह अभूतपूर्व घटना होगी। अध्यात्म के शरीर में ममत्व को भी परिग्रह कहा है। प्रतिभासम्पन्न वही होता है जो दूसरे पर आधारित नहीं होता। आकिञ्चन ही प्रारम्भ दशा है और अंतिम दशा है, बीच में तो यह नाटक अज्ञान दशा का है। यह जीव वस्तु स्वरूप के अभाव में विश्व की मूर्च्छा के पीछे भागता रहता है। तीन लोक की सम्पदा आपदा है, विपति का घर है। बाहुबली अकेले ही जंगल में खड़े हो गये। उन्होंने सोचा जिस सम्पदा को लेकर भाईचारा समाप्त हो गया, प्रजा का मैत्रीभाव चला गया धिक्कार है इसे। मुझे राज्य मार्ग नहीं चाहिए और महाराज मार्ग की ओर बढ़ गये। संख्या में १ को राम कहते हैं, राम मतलब एक अकेला। अंत में तो राम नाम सत्य है। यह प्राणी परिग्रह (मूच्छा) के लिए सात-समुंदर पार कर जाता है। चक्रवर्ती एक आम के पीछे पागल हो जाता है, अपने पद को भूल जाता है। एक बार आकिञ्चन बनकर देख लो तीन लोक के नाथ बन जाओगे। त्याग के बाद आकिञ्चन क्यों ? क्योंकि योग्य का भी त्याग करना है।
  12. झूठ नहीं बोलने का नाम सत्य है, न कि सत्य बोलने का नाम सत्य है। इसलिए सत्यधर्म बहुत ही कठिन है। कर्मों के उदय का प्रतिकार न करने की जो इच्छा/साधना होती है, उसका नाम सत्य है। चार दिन तक उत्तम क्षमा आदि चार धमोर्गे का विश्लेषण हुआ। इन चार धमोर्गे के विश्लेषण के लिए प्रतिपक्ष का सहारा लिया गया, प्रथम दिन क्रोध का, दूसरे दिन मान का, तीसरे तीन माया का और चौथे दिन लोभ का। अब आज सत्य का प्रतिपक्षी कौन ? असत्य। क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों का ही आधार लेकर असत्य बोला जाता है। क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पंच॥ तत्त्वार्थसूत्र – ७/५ कभी क्रोध के आवेश में असत्य बोलते हैं, कभी लोभ के कारण असत्य बोलते हैं। और आप असत्य बोलें या न बोले जब तक सत्य का संकल्प नहीं लेते, तब तक वह असत्य की कोटि में ही आता है। सता युतं सत्यं जो सत के साथ जुड़ा रहता है वह सत्य माना जाता है। लोक व्यवहार में सत्य की परिभाषा असत्य नहीं बोलना मानी जाती है। बोलना और नहीं बोलना यह सत्य की कोटि में नहीं आता है। जो असत्य नहीं बोल रहा है, इसलिए वह सत्यवान् माना जाये, ऐसा नहीं है। और जो सत्य बोल रहा है, वह भी कथचित् सत्य में ही आता हो, ऐसा नहीं है। आचार्यों ने बोलने के लिए नहीं कहा। किन्तु असत्य नहीं बोलने के लिए कहा है। अर्थ यह निकाल लिया जाता है कि असत्य नहीं बोलना अर्थात् सत्य बोलना। नहीं, किन्तु सत्य की परिभाषा, सत्य की पहचान बहुत ही कठिन, बहुत दूर और बहुत गहराई में छिपी है। हम जैसा देखते हैं, वैसा वह पदार्थ नहीं रहता। हम जैसा सुन भी लें, वैसा भी पदार्थ नहीं रहता। नहीं रहता, यह एकान्त से नहीं, पर वैसा रहता ही हो ऐसा भी कोई आग्रह नहीं कर सकता। क्योंकि बाहर ही सुहावना लगता है। दूर के ढोल सुहावने समझ में आ गई। अपने यहाँ दूर का ढोल सुहावना। ढोल कभी सुहावना नहीं होता। दूर का पहाड़ भी सुहावना लगता है, किन्तु पास में जाकर के देखो, तो चलना मुश्किल होता है। यह कहावत है। देश-देश की बात है। पास जाकर चलना मुश्किल हो जाता है। तब यद्वा-तद्वा चलना तो सही हो ही नहीं सकता। इसलिए सत्य के बारे में बहुत सोचकर निर्णय लेना पड़ता है। और असत्य के बारे में भी बहुत सोचकर निर्णय लेना पड़ता है। असत्य वत्ता को असत्यवान् कहना, यह और गलत हो जाता है। सत्यमपि विपदे न बूयात्। जिसके बोलने से किसी के ऊपर विपत्ति आती हो, वह सत्य सत्य नहीं है। यह अणुव्रती के लिये कहा है। महाव्रती के लिये तो बहुत ही कठिन बात हो गई। किसी को एक ऑख से देखने में नहीं आता, तो उसको काना नहीं कहा जाता। काना कहने से उसको बहुत गुस्सा आता है, उसको पीड़ा होती है। इसलिए आप उसको घुमाकर के पूछ सकते हैं-भाई साहब आँखों को क्या हो गया ? बीमारी हुई या लकड़ी चुभ गई थी या और कुछ हुआ? ऐसा क्या कुछ हुआ, जो एक आँख में कमी आ गई ? ऐसा पूछोंगे तो बहुत अच्छे ढंग से उत्तर दे देगा। इसलिए कि जिसके माध्यम से हिंसा की बात सामने आ जाती है, वह बात भी हिंसा से बोली हुई मानी जाती है। यद्यपि सत्यं लोकविरुद्ध न करणीयं न चरणीयम्। यद्यपि सत्य है, लेकिन लोकविरुद्ध बात सत्य होते हुए भी असत्य मानी जाती है। सत्य क्या है ? इसको देखना चाहिए, पहचानना चाहिए, उसके उपरान्त भी एकदम निर्णय नहीं लेना चाहिए। इससे बहुत ही बड़ी-बड़ी हानियां हो सकती हैं। निर्णय लेना बहुत ही कठिन होता है। इसलिए जल्दबाजी का सत्य भी असत्य में आ जाता है। इसलिए सत्य महाव्रत के बारे में जब कभी भी उल्लेख मिलता है, तब असत्य से विरति लेना ही सत्य है। सत्य बोलने को उन्होंने सत्य कहा ही नहीं है। किन्तु हिंसा से, अनृत से, चोरी से, कुशील से और परिग्रह से विरति का नाम व्रत है। तो झूठ नहीं बोलने का नाम सत्य है, न कि सत्य बोलने का नाम सत्य है। इसलिए सत्यधर्म बहुत ही कठिन है। इसकी पहचान क्रोध से बचे तो, मान से बचे तो, माया से बचे तो, लोभ से बचे तो हो सकती है। एक भवन के चारों तरफ यदि दरवाजे हों, तो चोर कहीं से भी आ सकता है। इसलिए वास्तुशिल्प के अनुसार तीन तरफ तो दरवाजा हो और एक तरफ दरवाजा नहीं। सबसे अच्छा तो यही है कि सामने से दरवाजा हो और तीनों तरफ दरवाजा न हो। भगवान् का मन्दिर ही एक ऐसा है, जिसमें कथचित् चारों तरफ से दरवाजा होते हैं। समवसरण में दरवाजे नहीं होते हैं। अपितु चारों तरफ से रास्ते रहते हैं, प्रवेश करने के लिए। कहीं से भी आओ, कहीं से भी जाओ। इसीलिये भगवान् के चारों तरफ मुख भी रहते हैं। किसी भी तरफ से आकर बैठो और दर्शन करो। सत्य को प्राप्त करने के लिये चारों कषायों के ऊपर नियन्त्रण रखना आवश्यक है। नहीं बोलें, तो बहुत अच्छा। और बोलें तो हित-मित-मिष्ट वचन ही बोलें। नहीं तो सामने वाला कुछ भी अर्थ निकाल सकता है। उस वक्ता का भाव कुछ भी हो, लेकिन सामने व्यक्ति को उल्टा भी नजर आ सकता है। यदि वह नहीं भी निकाले तो भी मुख से गलत शब्द निकल सकता है। और व्यक्ति पूर्ण हो यह भी कोई नियम नहीं है। इसलिए नहीं बोलना ही ठीक है। भगवान् केवलज्ञान होने के बाद क्यों बोलते हैं ? केवलज्ञान होने के उपरान्त सत्य और अनुभयवचन योग ही रहते हैं। इसलिए उनके बोलने में कोई बाधा नहीं है। फिर भी इसके उपरान्त भगवान् की वाणी सुनकर ३६३ मतों का निष्पादन हो ही गया। उन्हीं वचनों का यह परिणाम है, जो ३६३ मत बन गए। लेकिन उनके मन ने कभी किसी प्रकार से यह भाव नहीं किया कि असत्य का प्रचार-प्रसार हो। अर्थ का अनर्थ निकालने से ३६३ मत बने। अर्थान्तर गति मानी व्यक्ति के माध्यम से हुआ करती है। अर्थ समझ में नहीं आता और वह उसे यद्वा-तद्वा लगा लेता है। उसी का परिणाम यह निकलता है। अनुभवयवचन संशय का भी कारण हो सकता है। सत्य के लिए साक्षात् पदार्थ का निर्णय हम नहीं कर सकते। इसलिए कन्निद नोडिदरु किविन्दि केडिदरु वायिन्द नुडिवारढु आँखों से देख लिया, कानों से सुन लिया, फिर भी मुख से उच्चारित न करें। क्योंकि उसमें It may be possible वहाँ पर भी असत्य होने की संभावना बनी रह सकती है, रहती है। इसलिए सत्य का आचरण किया जा सकता है। सत्य का प्रदर्शन एक प्रकार के शब्दों से संभव नहीं। नहीं बोलते हुए भी हम सत्य का दिग्दर्शन करा सकते हैं। अवाग्विसर्ग वपुषा मोक्षमार्ग निरूपयन्तम्। आचार्यों ने कहा है कि बिना बोले भी वह अपनी मुद्रा के माध्यम से मोक्षमार्ग का निरूपण कर रहे हैं। सामने वाला व्यक्ति यदि अर्थ निकालता है तो मानो, नहीं तो मत मानी। इसका यह अर्थ है। ऐसे सत्य का पालन हमें करना है, जिसके द्वारा किसी भी प्रकार से स्व और पर को बाधा उत्पन्न न हो। स्व और पर में स्व पहले और मुख्य है। पर गौण है। कहीं-कहीं पर पर मुख्य हो जाता है और स्व गौण। सत्य धर्म में यही एक बात कही गई है। शब्दों के माध्यम से सत्य का उद्घाटन करने के लिये साधुओं में ही उसका बार-बार प्रयोग करें। समिति का प्रयोग एक बार करो। हित-मित मिष्ठ वचनों से करो। व समिति का प्रयोग साधु व असाधु दोनों से किया जाता है। इसलिए प्रवचन में कभी प्रश्न नहीं पूछा करते। सुना है, जब तत्वचर्चा, संगोष्ठियां वगैरह होती हैं, उस समय बार-बार पूछा जाता है। और बार-बार उसे समझाया भी जाता है। जब एक बार सुन लिया, दो बार सुन लिया और तीसरी बार वह पुनः पूछता है तो उससे प्रतिप्रश्न भी पूछा जा सकता है। तुम्हें समझाने के उपरान्त भी समझ में नहीं आया है, तो बात कहाँ पर अटकी है मुझे बताओ ? ऐसा कहा जाता है। इसकी ध्वनि में कुछ अन्तर आ गया है। क्या बात है ? कल रात में ऐसी ही बात सुनने में मिली। तो हमने कहा-किसी ने बार-बार पूछ लिया होगा। इसलिए स्वर में थोड़ा-सा अन्तर आ गया। समझ में यह भी आ सकता है, कि मेरे ही सुनने में थोड़ी-सी गड़बड़ हो गई हो, संभव है। प्राय: प्रश्नसह: इसलिए कहा है। सामने वाला यदि प्रश्नोत्तर करता है तो प्रश्न सहन करने की क्षमता भी रहना चाहिए। लेकिन यदि कोई आकर यद्वा-तद्वा बोलने लग जाय, तो वह प्रश्न नहीं माना जाता और उसका कोई उत्तर भी नहीं होता। क्योंकि वहाँ पढ़ाई नहीं हो रही है। आचार्यों ने साधुओं के लिए सत्यधर्म कहने के लिए भी कहा है। जिस व्यक्ति का क्षयोपशम कमजोर है, विस्मरणशील है, अधूरा समझ में आ जाता है अथवा आधा छोड़ देता है, उसके लिए दोबारा इसी ढंग से कहना आवश्यक हो जाता है, तब सत्य के उद्घाटन के लिये बहुत सारे द्वार हैं। व्रत जो लिया जाता है, वह स्व के लिये लिया जाता है। सत्य धर्म कथचित् पर के लिये है। पर के साथ ही उसका प्रयोग किया जाता है। और भाषासमिति भी पर के सामने ही है। स्व का भी उसमें हित है। लेकिन स्व का हित बहुत कम रहता है, पर का हित विशेष रूप से या ज्यादा रहता है। सत्यधर्म, भाषासमिति, वाक् गुप्ती और सत्य महाव्रत इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के प्रसंग के अनुसार इनके प्रयोग किये जाते हैं। वचन का एक बल हुआ करता है। वचन का बल क्या काम करता है ? दोनों तरफ से काम करता है। हित के बारे में भी और अहित के बारे में भी। वचन बोलने में स्व का हित कम रहता है, पर का हित ज्यादा। क्योंकि वचन बोलने में एक प्रकार से व्यवहार होता है। वचन का प्रयोग करने में यदि प्रमाद नहीं है, तो हिंसा गौण है और यदि प्रमाद है, तो हिंसा को हम गौण नहीं कर सकते। बोलते हुए आप अहिंसक रह ही नहीं सकते। इन सब बातों को देखकर ही तीर्थकरों ने दीक्षित होते ही मौन व्रत को अंगीकार कर लिया था। और मौन व्रत का अर्थ आचार्यों ने यह कहा है कि वहाँ पर उत्तम अथवा सम्यक्र शब्द भी लगा हो। सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः॥ तत्त्वार्थसूत्र – ९/४ गुप्ति और उत्तम सत्य इस प्रकार प्रयोग किया। इसका अर्थ ख्याति, पूजा, लाभ इत्यादि से रहित होकर संवर और कर्म की निर्जरा की विवक्षा में लेना, ये महानतम साधन हेाते हैं। इसी प्रकार सत्य धर्म को भी हमें अपनाना पड़ता है। क्योंकि जिस समय सत्य धर्म का अवलम्बन लिया जाता है, वह परीषहविजय के साथ है। उसके बिना नहीं किया जा सकता। और परीषहविजय चारित्र के साथ ही किया जा सकता है। जब तक सप्तम गुणस्थान या छठवां गुणस्थान प्राप्त नहीं होता, तब तक परीषह के माध्यम से संवर और निर्जरा का कोई प्रावधान नहीं रखा। एकान्त से नहीं कहें, फिर भी महाव्रतों के साथ परीषहजय होता है। अणुव्रत के साथ परीषहजय का कोई प्रकरण नहीं। नवम अध्याय में आपके लिए उपलब्ध होता है मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्या परीषहा:॥ तत्त्वार्थसूत्र – ९/८ इस सूत्र की व्याख्या करते हुए आगे कहा गया है-मुनियों को परीषह सहन कर लेना चाहिए। अन्यथा वह निर्जरा के लिए कारण नहीं होता, संवर के लिए भी कारण नहीं होता। और परीषहविजय के साथ ही सत्य धर्म का आलम्बन लिया जाता है। अनुप्रेक्षा के साथ ही ये सब कार्यक्रम होते हैं। इस प्रकार कार्यकारण की व्यवस्था के साथ ही यह सूत्र निष्पादित होता है। पहले एक बात कही थी-बोलना कब होता है ? और उसका कारण क्या है ? आकुलता के बिना बोलना नहीं होता। भीतर के भावों की अभिव्यक्ति के लिए बोलना होता है। कई लोग मन को मुदित करने के लिए खूब बोल लेते हैं। ताकि मन हल्का हो जाय। किसी को दुख की घुटन हो रही हो तो रो लेता है। बड़ी शान्ति मिलती है महाराज। रोने दो न, आपको क्या हो रहा है ? लेकिन सोची, विचार करो, रोयेंगे तो संभव है हमें भी असाता का बंध हो और तुमको भी। संभव क्या ? तत्वार्थसूत्र तो चल ही रहा है। भगवान् के सामने भी रोते हैं, महाराज। वाणीं गद्गद्यन्वपुः पुलकयन् नेत्रद्वयं स्त्रावयन्... ईयपिथ भक्ति – १५ आज तक हमने किसी भी व्यक्ति को नहीं देखा कि भगवान् के सामने रो रहा हो। और स्वयं पश्चाताप करने से भगवान् को असाता का बंध हो। महाराज, उनको असाता का बंध कभी भी नहीं हो सकता। क्योंकि असाता व साता की उदीरणा के साथ ही यह कार्यक्रम हो सकता है। साता की उदीरणा हो, फिर भी साता का बंध हो सकता है। अप्रमत्त अवस्था में साता का ही बंध होता है। और साता की उदीरणा पीछे रह गई। भगवान् के सामने स्तुति करते समय, आलोचना करते समय खूब रो लेना चाहिए। लेकिन दूसरों को डिस्टर्ब नहीं होना चाहिए। कोई पूजा कर रहा हो और आप अच्छे ढंग से रोने लग जायें, तो वह ठीक नहीं माना जायेगा। जब कोई नहीं है, भगवान् अकेले मिल जायें, तो अच्छे ढंग से रो लें। असाता का बंध हो चुका और होता है। इसलिए असाता के बंध से बचने के लिए अपने को हमेशा-हमेशा असत्य से भी बचना चाहिए। क्या भगवान् को भी जो छद्मस्थ अवस्था में हैं, छटवाँ गुणस्थान होता है ? असाता का बंध हो सकता है ? हाँ हो सकता है। वह बहुत गूढ़ बात जैसी लगती है। लेकिन अस्थिर, अशुभ, असातवेदनीय, अरति और शोक ये प्रकृतियाँ छठवें गुणस्थान तक बंध के योग्य मानी गई हैं। बंध हो यह नियम नहीं। लेकिन बंध होगा तो छठवें गुणस्थान तक ही होगा। जब हमने सोचा कि असत्य बोलते नहीं किन्तु प्रमाद में तो आ रहे हैं। विपदा में इनको असाता का बंध क्यों संभव है ? भोजन के समय प्रमाद की एक विशेष भूमिका बनती है। उससे असाता का बंध हो सकता है। इसलिए असत्य से बचने के लिए प्रमाद से भी बचना चाहिए। और बोलना जहाँ से प्रारम्भ होता है वहाँ पर निश्चित रूप से प्रमाद है। यह समझ कर चलना चाहिए। क्योंकि बोलने की आकुलता के बिना हम वचन बल का प्रयोग कर ही नहीं सकते। और प्रमाद एक ऐसा रास्ता है, ऐसा गुणस्थान है, उस गुणस्थान से चढ़ने पर एक ही सातवां गुणस्थान है और उतरने को कितने ही गुणस्थान हैं। इसका ज्ञान यदि कर लें तो भयभीत होने लगते हैं। छठे से पंचम में आ सकता है, छठे से चतुर्थ में आ सकता है, छठे से तृतीय और द्वितीय में आ सकता है। यदि उसको औपशमिक सम्यग्दर्शन है, तो छठे से सारे गुणस्थान नीचे की ओर खुल गये। सप्तम गुणस्थान तक पहुँचना बन्धुओं। बहुत कठिन होता है। सत्य बात यह है कि कषायों से बचना बहुत कठिन होता है। कषायों को जानना यह और कठिन है। और कषायों से बचना इसलिए सरल हो सकता है, क्योंकि कषायों से बचने का एकमात्र रास्ता है कषायों को जानना। चाहे सप्तम में जाओ, चाहे छठवें में जाओ। कषाय तो रहेगी ही, वह कहीं नहीं जा सकती। कषायमय ही गुणस्थान हैं, उसका उपशमन तो ऊपर के गुणस्थान में होता है। अत: बच नहीं सकते। स्वमुख से कोई भी कषाय नहीं आ रही है। एकमात्र संज्वलन रह सकती है, इस अपेक्षा से छठवें-सातवें में बहुत सावधानी के साथ रहना पड़ता है, यह सत्य बात है। इसमें थोड़ा-सा स्खलन हुआ कि छठवें में आ गये, फिसल गये। सप्तम से छठवें में आ गये। सीढ़ी से कोई भी फिसल जाता है, गिर जाता है, तो एक सीढ़ी नीचे आएगा ही, यह निश्चित बात है। उस सीढ़ी पर कोई नहीं गिर सकता। हाँ, ऊपर नहीं चढ़ेगा, उछलेगा नहीं। गेंद के समान। अब लुढ़क गये, एक सीढ़ी लुढ़क गया, दूसरी लुढ़क गया, तीसरी और चौथी लुढ़क गया। इस प्रकार लुढ़कता-लुढ़कता अन्तिम सीढ़ी यानि जमीन के पास आ गया। छठे गुणस्थान से कहाँ जा रहा है ? जमीन में। और दूसरे में भी जायेगा तो निश्चित रूप से मिथ्यात्व में ही जायेगा। यह भी सिद्धान्त है। धर्मात्मा जब भीतर के परम आनन्द को जानता है, उस समय वह सत्य का सही-सही पालन करता है। सत्य का पालन बाहर देखते हुए नहीं हेाता। ध्यान रखो, दुनियाँ को देखने से यह सत्य सिद्ध नहीं होंगे। सत्य का रक्षण नहीं कर सकेंगे। किन्तु परिणामों को देखने से ही सत्य का संरक्षण हो सकता है। अन्यथा नहीं। यदि तीर्थकर छद्मस्थावस्था में बोलने लग जायें तो, उनके हजारों-लाखों शिष्य और बन/बढ़ सकते हैं। लेकिन नहीं। क्योंकि यदि बोलेंगे तो उसमें निश्चित रूप से राग होगा। इसलिए वे प्रणय या स्नेह रूप प्रमाद से भी बचना चाहते हैं। प्रमाद से बचने के बहुत तरीके ढूँढ़े हुए हैं। लेकिन उनका प्रमाद कभी भी २८ मूलगुणों में दोष नहीं लगाता। उनका प्रमाद उत्तरगुणों में कभी भी दोष नहीं लगाता। उनका हमेशा वर्धमानचारित्र रहता है। सत्य की रक्षा के लिए उन्होंने हजारो वर्षों तक संकल्प पूर्वक मौन धारण कर लिया। सत्य बोलने से असत्य का निषेध नहीं होता। उनके सत्य महाव्रत का पालन सत्यधर्म के माध्यम से ही है। वे सत्य धर्म के रक्षक हैं। सत्यधर्म, सत्य महाव्रत का रक्षक है। इसके माध्यम से दूसरा भी सत्य महाव्रत का संरक्षण कर सकता है। और अपने सत्य महाव्रत का तो संरक्षण होता ही है। भूमिका के अनुसार यह सब काम चल सकता है। बोलने रूप समिति को सत्य महाव्रत नहीं माना गया है। शुद्धोपयोग की भूमिका के लिए समिति डायरेक्ट कारण नहीं है। किन्तु सत्य महाव्रत डायरेक्ट पथ माना गया है। सत्य महाव्रती ज्येां ही यह प्रवृत्ति छोड़ देता है, तो शुद्धोपयोग की ओर चला जाएगा। और धर्म की व्याख्या करते-करते एक घंटा भी निकाल दे, तो शुद्धोपयोग का लाभ नहीं होगा। प्रवृत्ति मात्र बंधक है। धर्म और समिति में बोलना क्यों होता है? यह पूछा था। आकुलता को हम सहन नहीं कर पाते इसलिए बोल जाते हैं। दो प्रकार की आकुलताएँ होती हैं। मानलो-कोई किसी को अनोखी बात, अच्छी बात मिल गई तो वह घूमने लग जाता है कि कब जाकर इसको सबके सामने रख दूं। और कोई नहीं आता तो आकुलता होने लग जाती है। ठीक है कि नहीं ? बिल्कुल ठीक है। इस आकुलता को सहन करने की क्षमता रखने वाले मौन धारण कर लेते हैं। रागद्वेष के कारण नहीं। पहले ही उत्तम शब्द लगाया था। सम्यक् शब्द लगाया था। जो राग-द्वेष के कारण मौन धारण कर लेते हैं, वह मौन नहीं माना जायेगा। हाँ, यदि प्रायश्चित के रूप में मौन धारण कर लेते हैं तो वह मौन माना जाता है। सत्य के उद्घघाटन के लिए जो आकुलता होती है वह भी असत्य की ओर ले जाती है। भीतर की अभिव्यक्ति को रोकने के लिए, मौन धारण करने के लिए बहुत सशक्त व्यक्ति की आवश्यकता होती है। मन से भी मौन न तोड़ें, मुख से तो तोड़े ही नहीं। अब देखो, यह समझ में नहीं आता अपने को, कि कोई एक शब्द बोले तो फिर भी ठीक है। उसके द्वारा वह उल्टा अर्थ ले लेगा। तो क्या करें? हमारा भाव तो था नहीं, आपके भाव कुछ भी हों। लेकिन सामने वाला व्यक्ति उसको कुछ भी ले सकता है। इसलिए जहाँ पर मन से, वचन से और काय से कुछ भी प्रवृत्ति न हो और बोलने के भाव हो जायें तो भी मौन में दूषण आ गया। कठिन तो है, वचन को किस ढंग से ढाला जाय ? सत्य कैसे पलता है ? इसके बारे में सोचना चाहिए। कोई क्या कहेगा ? इसके बारे में नहीं सोचना चाहिए। यदि सोच लें तो सत्य का पालन नहीं हो सकता। महाराज, आपको सत्य के बारे में बताना है। कब तक बताते चले जायें ? और बताने के उपरांत भी यदि असत्य सिद्ध हो गया तो वचनों को पकड़ कर सत्य को असत्य और असत्य को सत्य भी किया जा सकता है। इस जंजाल से ऊपर उठने का एक ही तरीका है, सत्य का पालन। अपने आप में एक अनूठा साधन है। कर्मों के उदय का प्रतिकार न करने की जो इच्छा/साधना होती है, उसका नाम सत्य है। क्योंकि बोलने की तो इच्छा होती है। या कोई भी घटना घट जाती है तो उसको सिद्ध करने के लिये या सोचने के लिए बैठ जाते हैं। यह सोचने के लिए बाध्य कब किया जा रहा है ? किसको बाध्य किया जा रहा है ? कौन बाध्य कर रहा है ? कर्म का उदय बाध्य करता है, लेकिन धन्य हैं तीर्थकर जो हजारों वर्षों मौन धारण कर सत्य का पालन करते हुए अपने जीवन को व्यतीत करते हैं। और कोई ऐसे भी मुनि महाराज रहते हैं जो सत्य का पालन करने के लिए, महाव्रत का पालन करने के लिए आठ वर्ष कम पूर्वकोटी तक मौन धारण कर सकते हैं। इसमें कोई बाधा नहीं। उपवास के लिए भले ही ६ महीने का नियम बनाया हो, पर मौन के लिए कोई ६ महीने का नियम नहीं बनाया। तो उतनी ही सुनेंगे, जितनी भीतर से आकुलता है। तरंग तो उत्पन्न होते होंगे, लेकिन सत्य यही देखा जा रहा है। कर्म के उदय आ रहे हैं, बोलने की इच्छा होती होगी, लेकिन इच्छा के अनुसार काम करना नहीं है। इच्छा के निरोध करने का नाम तप बतलाया गया है। इच्छानिरोधस्तप:। बोलने की इच्छा हुई तो बोल लिया। नहीं, संयम रखो। महाराज, कल के लिए संयम है, आज क्यों रखें ? तो बोलो। यदि आकुलता सहन नहीं होती है, तो अपने आप ही बोलते-बेालते रोने भी लग जाओगे। जहाँ पर रोने के लिए कहा गया है, वहाँ पर संसारी प्राणी रोता नहीं। जहाँ पर बोलने के लिए कहा गया, वहाँ पर बोलता नहीं। जहाँ पर जैसा कहा गया है उसके अनुसार वह नहीं करता। कर्म के उदय में वह अपनी इच्छा के अनुरूप करना चाहता है। इच्छा के अनुरूप संयम नहीं पलता। मोक्षमार्ग आगम के अनुरूप ही संयम के साथ चलता है। कई बार कई लोग कहते हैं- महाराज! जब सामने ही किसी के दोष हम देख रहे हैं, और उनको कुछ संकेत न दें, यह कैसी बात है? हाँ, बिल्कुल सामने-सामने देखना चाहिए। लेकिन अपने ही औदयिक भाव हैं, जो सामने ही हैं उनको देखना चाहिए। है तो बात यही, फिर तो क्यों लगा रहे हो ? यह आक्षेप पर के ऊपर करना चाहता है और यहीं असत्य का समर्थन हो गया। असत्य का समर्थन बहुत जल्दी हो जाता है। निमित्त के ऊपर टूटने वाला सत्य का पालन नहीं कर सकता। निमित्त की ओर दृष्टि रखी नहीं कि सत्य कथचित् गायब हो गया। निमित्त ज्ञेय भी बन सकता है। लेकिन ज्ञेय की परिधि में निमित्त बहुत कम समय के लिए रुकता है। बाद में वह हेय या उपादेय, साधन या उपाय के रूप में सामने आ जाता है। परन्तु सब अपने आप को भूल जाते हैं। सत्य के लिए बहुत कठिनाई के साथ साधना करनी पड़ती है। सत्य के लिए सब कुछ न्यौछावर करना पड़ता है। सत्य की रक्षा के लिए कषायों के गुण-धर्मों को भी सही-सही समझ लेना चाहिए? क्या आप असत्य बोलकर सिद्ध कर सकते हैं। क्या आप सत्य बोलकर सत्य सिद्ध कर सकते हैं। आज न्यायालय में देख रहे हैं। कोई एक घटना हुई। उसका केस चला। केस की स्वर्ण जयन्ती नहीं, हीरक जयन्ती होती हैं। उसका भी उल्लंघन करके शताब्दी भी पूर्ण होने को होती है। फिर भी केस अभी तक चल रहा है। सत्य और असत्य का निर्णय नहीं हुआ। निर्णय नहीं हुआ, ऐसा नहीं। वह तो निर्णीत है। लेकिन घोषणा नहीं हुई। यह कौन से सत्य में गिना जायेगा ? इसलिए सबसे अच्छा तो यह है कि आये हुए कर्मों की चिकित्सा न करें। निर्विचिकित्सा किसी को हुई है। निश्चयमोक्षमार्ग/निश्चय सम्यग्दर्शन के अंगों के बारे में कुन्दकुन्द स्वामी ने निर्जरा अधिकार के उपसंहार में कुछ ऐसी गाथाएँ रखी हैं, जिन गाथाओं के अर्थ की ओर देखने में समन्तभद्र जी के रत्नकरण्डकश्रावकाचारगत आठ अंग का प्रकरण बहुत ही नीचे की ओर चला जाता है। गृहस्थों का सद्धर्म, गृहस्थों का सम्यग्दर्शन, गृहस्थों के आठ अंग से, मोक्षमार्ग या रत्नत्रयलीन मुनि के सम्यग्दर्शन के आठ अंग बहुत ही सरल है। उसमें कुछ करना नहीं है। सबमें निश्चय लगा दिया गया है। और भले ही नामोल्लेख किया है। लेकिन नामोल्लेख में कषाय के बिना जो कुछ भी परिणाम बनते हैं, वे सारे के सारे निश्चय सम्यग्दर्शन के आठ अंगों के साथ घटित होते चले जाते हैं। निर्विचिकित्सा अंग के विषय में क्या बोलते हैं (समयसार-२४६) निश्चय सम्यग्दर्शन का सत्य अंग क्या है ? इसे कुन्दकुन्द भगवान् ने अपने अध्यात्म में लिख दिया। किसी प्रकार की आकांक्षा नहीं करता, ग्लानि नहीं करता। कहाँ नहीं करता ग्लानि ? सभी धर्मों के ऊपर ग्लानि नहीं करता। चाहे वह पदार्थ अच्छा हो, या बुरा, खट्टा हो या मीठा, या चरपरा हो, चाहे दुर्गन्ध या सुगन्ध हो। ऐसा तो वहाँ पर नहीं लिखा ? रत्नत्रय के बारे में कहा है। सभी धर्मों के ऊपर कहा है। सभी धर्मों के ऊपर कहने से चाहे वह सराग धर्म हो, चाहे वह वीतराग धर्म हो। किसी को अच्छा-बुरा नहीं कहेगा। वह जो समझेगा वह ज्ञान की परिणति समझी जाएगी। किन्तु रत्नत्रय के प्रति भी आकांक्षा नहीं करता और सराग धर्म के प्रति भी चिकित्सा भाव नहीं करना । वह सभी के प्रति निर्विचिकित्सक होता है। चाहे वह अपना हो या पराया। ये तो प्रवृत्ति की भूमिका में है। ऊपर की भूमिका में अपना और पराया, इन सबका सफाया हो जाता है। कोई मतलब नहीं, कोई विकल्प नहीं, न अच्छा कर रहा है, न बुरा कह रहा है, न स्वीकार कर रहा है, न त्याग। न त्याग, न आदान, कुछ भी नहीं है। ऐसी दृष्टि में ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध होना बड़ा सहज हो जाता है। धर्मोपदेश करने वाले भी सबके प्रति एक-सा भाव रखते हैं। एक के प्रति अलग परिणाम रखना और दूसरे के प्रति अलग यह प्रवृत्ति के काल में तो ठीक है। लेकिन निवृत्ति के काल में सत्य आ सकता है, जिसे सार्वभौम सत्य या वैकालिक सत्य बोलना चाहिए। उसका अनुपालन करते समय आनन्द आता है, साक्षात् मोक्षमार्ग का। यह अन्य दूसरे मार्ग में नहीं मिल सकता। ऐसा सत्य है। सत्य क्या है ? सता युतं सत्यम्। अर्थात् उत्पाद, व्यय और धौव्य से युक्त सत् है और सत्य से जो प्रभावित होता है, उसका भाव सत्य होता है। जिसको महासत्ता भी बोलते हैं। उस सत्य के विषय में क्या कहें हम ? वही साक्षात् मोक्षमार्ग माना जाता है। ज्ञान सत्य नहीं है। ज्ञान का फल उपेक्षा जो है, वह सत्य है। जिस ज्ञान के साथ चयन है, जिस ज्ञान के साथ छोड़ना और ग्रहण करना है, सही पूछा जाय तो वह सत्य नहीं माना जाता। वह उपेक्षा है। उपेक्षा का अर्थ द्वेष नहीं। उपेक्षा का अर्थ दोनों के ऊपर उठ जाना है। सही पूछा जाय, तो ज्ञान का मुख्य लक्षण क्या है ? यान। एक जलयान और एक वायुयान होता है। याति इति यानम्। जो जाता है, चलता है, उसका नाम यान है। यान जल में चलता नहीं, तैरता है। किन्तु रास्ते के ऊपर, धरती के ऊपर तो वह भागता है। और जब वह यान इन दोनों की उपेक्षा कर जाता है, तो ऊपर उठता है, तो तीनों दृश्य देख सकते हैं हम यान के, एक ही यान तीन काम करता है। जल के ऊपर चला जाता है, तो वह स्टीमर का काम करता है। और यदि उसे पट्टी के ऊपर चलना होता है, तो उसमें चाक लग जाते हैं और वह भागने लग जाता है। और जब इन दोनों से वह ऊपर उठ जाता है, तब वह सही यान कहलाता है। वायुयान कहलाता है। जल में तैरने की अपेक्षा से उसे स्टीमर की संज्ञा देते हैं या जलयान कहा गया है। धरती पर भाग रहा है, इसलिए उसको गाड़ी कह सकते हैं। भले ही विमान है, पर भागते समय तो उसको गाड़ी ही कहेंगे। जब वह ऊपर उठ जाता है तो किसकी उपेक्षा हो गई ? धरती की भी उपेक्षा हो गई और जल की भी। ज्यों ही दोनों की उपेक्षा हो गई, त्यों ही उसके चाक अपने आप छुप जाते हैं। भीतर की ओर हो जाते हैं। नीचे की ओर बाद में आते हैं, जब वह उतरना प्रारम्भ कर देता है। उतरना प्रारम्भ करते ही, नहीं आते हैं, अपितु धरती पर आने के समय वे चाक उसमें आ जाते हैं। आपके पास पैर हैं कि नहीं ? देख लेते हैं, महाराज! हैं, कि नहीं। क्योंकि चलने की प्रक्रिया अभी गौण हो गयी है। एक घंटे अपने को चलना नहीं है। इसलिए एक घंटे तक अपने पास पैर नहीं हैं। फिर बैठे कैसे हैं ? पालथी मारकर बैठे हैं। फिर भी पैर महसूस नहीं होते हैं। इस प्रकार पैर की उपेक्षा आपने की। हमेशा-हमेशा उपेक्षा करें, तो भागा दौड़ी नहीं होगी। इसी प्रकार ज्ञान का प्रयोग करते समय सत्य नहीं होता। लेकिन ज्ञान का जो विषय है, उसकी उपेक्षा करने से सत्य उद्घाटित होता है। इसलिए ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध के साथ, उपेक्षा संयम की बात नहीं कही है। किन्तु उपेक्षा संयम तो यह है कि णाणस्स फलमुवेक्खा.। जब फल की ओर, कार्य की ओर देखते हैं, तो ज्ञान की डेफिनेशन सामने आ जाती है। प्रयोजन, संज्ञा, लक्षण या संख्या की ओर जाते हैं, तो ज्ञान की सारी की सारी प्रवृत्ति चलने लग जाती है। और जब ज्ञान के फल की ओर देखते हैं, तो ये चारों गौण हो जाते हैं। न्याय के ग्रन्थों में इस ज्ञान के चार लक्षण बना लेते हैं, जो चार प्रयोजन सिद्ध करते हैं। लेकिन सत्य बात तो यह है, जो कुन्दकुन्द महाराज कहते हैं-ज्ञान का सही लक्षण तो वही है, जब वह उपेक्षा में ढल जाता है। फल की ओर जब तक नहीं देखते तब तक उसका कोई प्रयोजन नहीं होता। फल ही प्रयोजन है, और ज्ञान का सही फल उपेक्षा माना गया है। ज्ञान के माध्यम से ही छोड़ा जाता है और ज्ञान के माध्यम से ग्रहण होता है। यह भी ज्ञान के लिये ग्रहण है। ग्रहण का अर्थ क्या होता है ? ग्रहण का अर्थ एक से अभिप्राय है। यह वरदान नहीं, घाटा है। क्योंकि इसमें परिश्रम है और ज्ञान का फल परिश्रम रूप नहीं होता है। संसारी प्राणी कभी भी फल का सेवन नहीं करते। क्योंकि सत्य क्या है ? यह उद्घाटित ही नहीं हो पाता, उन्हें। धन्य हैं, उस सत्य में जो तैर रहे हैं। धन्य हैं, जो उस सत्य में डुबकी लगा रहे हैं। धन्य हैं, उस सत्य में जो अनुभूत कर रहे हैं। तरंग दो प्रकार के होते हैं। तरंग जब आती है, जबकि पानी में स्पन्दन हो। स्पन्दन यद्यपि समग्र जल में है, फिर भी तरंग ऊपर उठती है। पानी नीचे रहते हुए भी लहर देखने के लिये ऊपर ही मिलती है। जितने डीप (Deep) में आप पहुँचेंगे तो वहाँ जल तरंगरहित ही मिलेगा और शीतल भी। बहुत ठण्डा लगेगा। वहाँ पर दूसरे पदार्थों का कोई प्रभाव देखने को नहीं मिलेगा। वस्तुत: छठवां गुणस्थान कोई विकासोन्मुखी मार्ग रूप नहीं है। बोलना प्रमादमूलक ही होता है, इसलिए वह कभी भी धर्म की ओर नहीं ले जाता। और जो असत्य है, पाप है, उन्मार्ग है, उससे बचने के लिए एक ही रास्ता है। इसलिए गिरते समय ही इसका दर्शन होता है। चढ़ने समय कभी भी छठवें गुणस्थान का दर्शन नहीं होता। जब हीयमान लेश्या होती है, तभी छठवां गुणस्थान देखने को मिलता है, वर्धमान लेश्या के साथ नहीं। क्योंकि वह गिरते समय ही होता है, गिरते समय ही आता है। जैसे आप सर्वप्रथम टिकट लेकर के ही चित्रगृह इत्यादि में चले जाते हैं। कोई काम करने के लिए यदि बाहर आना पड़ता है, तो टिकट नहीं मिलता। क्या मिलता है ? पास मिलता है। पास लेकर पास हो जाओ। अब टिकट नहीं मिलेगा। भीतर पहुँचने के लिए ही टिकट माध्यम है। इसी तरह पहले सप्तम गुणस्थान में ही प्रवेश होता है, बाद में नीचे आना पड़ता है। भगवान् कुन्दकुन्द कहते हैं-उपेक्षा संयम, जो सत्यमय है, उसको अनुभव करने का सौभाग्य मुनि महाराजों को ही होता है। जो दु ण करेदि कंखं कम्मफलेसु तह य सव्वधम्मेसु। सो णिक्कं खो चेदा, सम्मादिट्टी मुणेयव्वो॥ जो किसी धर्म में आकांक्षा नहीं करता है। यही सत्य, निश्चय सम्यग्दर्शन का अंग है। उसका पान करना सौभाग्य का विषय है और उसी को प्राप्त करने के लिये सत्य का आलम्बन लिया जाता है। व्यवहार से सत्य का आलम्बन लिया जाता है। सर्वप्रथम सत्यधर्म नहीं होता, सत्य महाव्रत आता है। बाद में सत्यधर्म आता है। अथवा भाषा समिति आती है, अथवा सत्य मनोयोग आ जाता है। सत्य मनोयोग के माध्यम से भक्ति के माध्यम से, वह भीतर पहुँच जाता है। अनुभयवचन और सत्यवचन बोलने के लिए छुट्टी दी गई है। बोलने की आवश्यकता पड़ जाये, तो सत्य बोलो और अनुभयवचन बोलो। लेकिन यह मार्ग नहीं है। आकुलता को कम करना चाहो, तो करो। कई व्यक्ति इस आकुलता से बचने के लिए बोलना प्रारम्भ करते हैं। किन्तु इस आकुलता से जो ऊपर उठना चाहता है, वह अपने आपको यान के समान रत्नत्रय को भी आत्ममुखी बना लेता है। स्नय के माध्यम से ही चलना होता है। यान जब चलता है, सो ऐसा चलता है कि उस यान को देखना पसन्द करेंगे। हम उस यान को देखना चाहते हैं, जो चलता नहीं, अपितु जो चढ़ता है। जो चढ़ता है, उस समय भेद रत्नत्रय नहीं रहता। कहाँ पर चले गये तीनों पहिया ? गायब। अब गिर जाय तो क्या हो ? पैर तो समाप्त हो गये, पैरों से चलते समय ही गिर सकते हैं। चढ़ते समय गिर नहीं सकते। आचार्यों के द्वारा एक प्रसंग बहुत अच्छा कहा गया है-जिस समय श्रेणी चढ़ता है, तो उस समय प्रथम भाग में मरण नहीं होता। चढ़ता है, चढ़ता चला जाता है, वेग बढ़ जाता है। और वेग बढ़ने के कारण अपने आप बैलेंस हो जाता है। वेग बढ़ाओ, आवेग नहीं। वेग बढ़ाओ, उद्वेग नहीं। वेग बढ़ाओ, निर्वेग बढ़ाओ। वेग बढ़ाओ और संवेग बढ़ाओ। संवेग और निर्वेग का विकास यदि होता है, तो अपने आप ही वह अपने आप में लीन हो जाता है। उस समय कितनी रफ्तार से वह जा रहा है, इसका भी अनुभव नहीं होता। यहाँ तक कि बाहर जो आवाज उमड़-घुमड़ करके बादलों के समान होती रहती है, वह भीतर बैठे हुए विमानयात्रियों को नहीं आती। ऐसी यात्रा होती रहती है, महाराज। आपने देखी है क्या ? आप बैठे हैं क्या ? बैठे नहीं हैं, तो क्या हुआ, जो बैठे हैं, उनसे सुन नहीं सकते क्या ? दूसरी बात यह है, कि हम बैठते और चलते हैं, प्रवृत्ति के समय। समाधि के समय पर चढ़ते हैं। बस, वहाँ ऐसा हो जाता है, कि पता नहीं चलता, कि देह है कि नहीं? बैठे हैं कि खड़े हैं ? यह भी पता नहीं रहता। सत्य का आलम्बन लेने का एक मात्र फल है, उस ज्ञान का आलम्बन लेकर आपको, उस सत्य को महसूस करना चाहिए।शरीर के आश्रित सत्य होने पर प्रवृत्तिमूलक धर्मकाण्ड ही करायेगा। किन्तु जब उसके ऊपर उठ जाते हैं, तो आनन्द का कोई पार नहीं रहता। अभी आनन्द की शुरूआत देखी है। जब बिल्कुल ही सत्य हो जायेगा, तो इन्द्रियातीत, देहातीत भवातीत और सबसे अतीत होकर वह रहता है। दुनियाँ में रहते हुए भी, दुनियाँ का नहीं है। जल में होते हुए भी कभी कमल के समान वह सड़ता नहीं, गलता नहीं। यही एक मात्र सत्य होता है। किसी प्रकार से चिकित्सा करना, प्रतिकार करना सत्य नहीं है। इसलिए निश्चयसम्यग्दर्शन में जो अंगों की व्यवस्था की गई है, वह बहुत ही अनोखी व्यवस्था है और प्रवृतिमूलक भेदरत्नत्रय के साथ जो व्यवस्था की गई है, वह आठ अंग, जो रत्नकरण्डकश्रावकाचार में भी उपलब्ध होते हैं। भेदरत्नत्रय से अभेदरत्नत्रय को पाने वाले मुनिराज कभी बाहर आना ही नहीं चाहते हैं। जैसे आप लोग एयरकंडीशन में से बाहर नहीं आना चाहते। वैसे ही वे मुनि अपने अभेदरत्नत्रय रूपी एयरकंडीशन से बाहर नहीं आना चाहते। अपने स्वरूप के दर्शन, अपने शाश्वत सत्य को पाने में लीन होते हैं। वे सत्यधर्म के बारे में कहते नहीं, अनुभव करते हैं। इसी भावना के साथ उत्तम सत्यधर्म की जय... देवावि तस्स पणमंति... आज्ञा संयम के लिए परम अनिवार्य है। संयम का बंधन बिना आज्ञा के संभव नहीं हो सकता। जब तक आज्ञा-सम्यक्त्व नहीं होगा, हमारा चारित्र चारित्र की संज्ञा नहीं पा सकता। हमारे ये पर्व जीवरक्षा के पर्व होना चाहिए। मात्र गाने बजाने तक सीमित नहीं रहना चाहिए। पाँच पापों को रोकने का कार्य इन पर्व के माध्यम से होता है। अपना इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम रखते हुए जीवरक्षा की भी बात करना चाहिए। प्रयास करना चाहिए कि कोई भी जीव दुखी न रहे। पर्व प्रारम्भ हो चुका है। यहाँ के लिए नहीं कहा जा रहा है। पर्व प्रारम्भ हो चुका और पर्व आने से पूर्व में ही सबको निर्दिष्ट किया गया था। सबके लिए एक प्रकार से संयम से बांध दिया गया था। सबके मन-वचन-काय की प्रवृत्ति, जो उस पाप को करने की होती है, उसको बिल्कुल नियन्त्रण में लाकर रख दिया गया था। और यह कह दिया गया था कि यह इतने दिन के लिए जो नियम दिया जा रहा है, उसमें किसी प्रकार की कमी न हो जाए। क्योंकि राजा की आज्ञा होने के कारण इसमें यदि कमी आती है, तो ध्यान रहे, चाहे वह कोई भी हो, उसका मरण निश्चित है, ऐसी आज्ञा है। आज के विधान/संविधान ऐसे होते हैं, जिनमें संविधानसूत्र लिखने के पूर्व में ही उसके उल्लंघन के सूत्र प्राप्त हो जाते हैं। आज की राजनीति और उस समय की राजनीति, इन दोनों की तुलना करना अभी से प्रारम्भ कर देनी चाहिए। आज वैसे संयम का दिन है। आप लोगों को भी तो सबको इन दिनों की बड़ी प्रतीक्षा थी। यह जो राजा ने आज्ञा दी है, इससे कोई मतलब नहीं। क्योंकि यह तो हमारे लिए पहले से ही स्वीकृत हैं। इसके प्रति हमारा आदर है और इस पर्वराज के प्रति क्या कहें ? देव लोग भी इसके लिए तरसते रहते हैं। यह पर्व केवल मनुष्य और तिर्यच तक ही सीमित नहीं रहता है। विलासिता में हमेशा डूबा रहने वाला देवों का समूह भी इन घड़ियों की प्रतीक्षा में रहता है। यह ध्यान रखना, कि वहाँ पर न तिथि है, न मिति और न वार। सूर्य नहीं, चन्द्रमा नहीं, कुछ भी नहीं है। लेकिन वे हमेशा एस.टी.डी. से सम्पर्क बनाए रखते हैं, कि यहाँ कौन सी मिति चल रही है। हम हमेशा असंयम में व्यस्त रहने वाले हैं, हमारा जीवन असंयम से नियंत्रित रहता है। यानि नियंत्रण से बाहर नहीं होते हैं हम। असंयम ही हमारे लिए एकमात्र बंधन है। कई लोग संयम को बंधन मानते हैं और हम असंयम को एक बंधन मानते हैं। इस बंधन में अपने आप को गति नामकर्म व आयुकर्म के उदय से ऐसा बांध रखा है कि हम भीतर ही भीतर पिंजड़े के पंछी के समान छटपटाते रहते हैं। जैसे एक व्यक्ति को सीमा में बंद कर दिया जाता है। वह घटाकूप में रहता है लेकिन फिर भी कुछ ऐसे समय दिए जाते हैं वह अपने सम्बन्धियों से, अपने मित्रों से और कोई अन्य व्यक्तियों से मिलकर थोड़ी बहुत राहत का अनुभव करता है। आप लोग मेले-ठेले में जिस प्रकार उत्साह के साथ जाते हैं। कितने उत्साह के साथ जाते हैं? क्या बतायें, फूले नहीं समाते। और जब पैसा हजम तो मेला खतम। यही बात है। तो आठ दिन तक ऐसे रहते हैं। कैसे रहते हैं ? सबको भूल जाते हैं। और कुछ भी नहीं बीच में, अष्टाहिका पर्व का वह अवसर है। देवावि तस्स पणमति, जस्स धम्मे सया मणो। वीर भक्ति – ८ अहिंसा धर्म में जिसका चित्त लीन रहता है। इस धरती पर वह मानव देवों से भी पूज्य है। वे सपरिवार– दिव्वेण गंधेण, दिव्वेण पुप्फेण, दिव्वेण धूवेण दिव्वेण ण्हाणेण. इत्यादि। भवनवासी, ज्योतिष, व्यन्तर और वैमानिक सपरिवार आ रहे हैं। अपने परिवार के साथ दिव्य गन्ध, दिव्य पुष्प, दिव्य वस्त्र, दिव्य फलफूल आदि सभी दिव्य-दिव्य लेकर इस भव्य धरती पर उतर आते हैं। वे गये तो इधर भी प्रतीक्षा थी। आठ दिन तक वह पर्व है। आप लोगों का तो यह दस दिनों का है। आठ दिन का वहाँ के लिए कहा जा रहा है। वे सभी के सभी व्यस्त हो जाते हैं। कुछ लोगों को, जैसे यह चन्द्रमा खटकता है, चोर को चन्द्रमा की चांदनी परेशान कर देती है। उसी प्रकार ये आठ दिन आठ वर्ष से भी ज्यादा लग रहे थे। कई प्रकार के व्यक्ति हुआ करते हैं। सागरोपम आयु भी आठ दिन जैसे नहीं लगती। और आठ दिन भी इनको आठ वर्ष जैसे लग रहे हैं। बीच में रहा नहीं गया। एक व्यक्ति राजा की आज्ञा का उल्लंघन करता है। उसने सोचा होगा राजा तो दूसरों के लिए हुआ करते हैं, हमारे लिए थोड़े ही राजा हैं। यही सोचकर उसने आज्ञा का उल्लंघन किया। लेकिन कौन आज्ञा का उल्लंघन करता है ? यह केवल मन्दिरों में ही नहीं देखा जा रहा था। इस आज्ञा का अनुपालन करने वाले व्यक्ति कितने हैं और उसमें कमी रखने वाला कौन है ? कहाँ पर कमी रखता है? सारे के सारे सी.आई.डी. के माध्यम से देखते हैं। उस अपराधी को पकड़ लिया गया। अपराधी ने कहा-जाकर कह देना, हम तुम्हारे साथ नहीं आते। शायद डर गया हो, यह बात तो बिल्कुल ठीक है। जब पहचान में आ गया तो सही बात है। लेकिन पूछताछ की जाती है, कोई भी प्वाइंट गलत नहीं हो सकता, घुमाया नहीं जा सकता है, और सब लोग आस्था के धनी थे। महाराज! एक व्यक्ति ने आपकी आज्ञा का उल्लंघन किया है। कहने के लिए क्यों आये हो, जो कहा था वही करो। महाराज। आपकी आज्ञा के बिना कैसे किया जा सकता है कहिये ? आज्ञा दीजिए। इन दिनों इधर-उधर की बात नहीं करते। तुम्हारे लिये क्या इसलिए नियुक्त किया गया है ? तुम्हारा कर्तव्य क्या था ? फिर भी महाराज। कुछ विशेष केस है। विशेष केस, हमारी विशेष आज्ञा है। आज्ञा न सामान्य रहती है और न विशेष। आज्ञा तो आज्ञा है। धरती पर ही आज्ञा रहती है, ऐसा भी नहीं है। किन्तु देवगति में भी आज्ञायें रहा करती हैं। अभ्युदय के बारे में स्वामी समन्तभद्र महाराज ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में लिखा है-अभ्युदय की प्राप्ति किसे होती है ? पंचव्रतों या प्रतिमा इत्यादिक का जो निरतिचार-निरतिक्रमण, अतिक्रमण यानि दोषों से रहित होकर के पालन करता है। वह कहाँ पर जाता है ? स्वर्ग में। वहाँ जैसा अभ्युदय अन्यत्र नहीं मिलता। आज्ञाकारी देव मिल जाते हैं। जैसे कोई मन्त्री होता है, तो उसके लिए बॉडीगार्ड की व्यवस्था हो जाती है, एक, दो, तीन या चार इत्यादि रूप से। आजू-बाजू आगे-पीछे के लिये बॉडीगार्ड की व्यवस्था हो जाती है। उनको लेकर चलते हैं। जहाँ वे जावेंगे, उनके पीछेपीछे वह व्यवस्था लगी रहती है। इसमें एक सेकेंड के लिये भी कोई गड़बड़ी नहीं करता। मानली, यदि वे सो गये, तो ये भी सो जायें, ऐसा नहीं। ये सोयेंगे नहीं। बिल्कुल उनके चारों ओर रक्षक के रूप में रहते हैं। ऐसा अभ्युदय वहाँ भी है, आज्ञाकारी देव मिल जाते हैं। मनुष्य नहीं, देव मिल जाते हैं। क्योंकि आगम की आज्ञापालन करने के फलस्वरूप उनके पास ऐसी शक्ति आ गई है कि देव, दानव, असुर या सुर सभी उनकी आज्ञा में २४ घंटे रहते हैं। हम आज्ञा देना तो चाहते हैं, लेकिन आज्ञा का पालन नहीं करना चाहते। हम बड़े तो बनना चाहते हैं, किन्तु बड़ों का काम नहीं करना चाहते। हम नेतृत्व तो देना चाहते हैं, लेकिन नेतृत्व किसी का लेना नहीं चाहते। हम डायरेक्ट सीनियर होना चाहते हैं। तब जूनियर कौन बनेगा? किन्तु यह एक सिद्धान्त है कि किसी भी क्षेत्र में डायरेक्ट हम सीनियर नहीं हो सकते। योग्यता के अनुसार हो सकते हैं। वहाँ पर जन्म लिया अर्थात् उपपाद जन्म हुआ और एक दम आज्ञा कैसे देने लगे ? हम तो बहुत सागरोपम की आयु लेकर जी रहे हैं। मानली, कोई सौधर्मस्वर्ग में इन्द्र हो गया। उसे अभी अन्तर्मुहूर्त ही हुआ है। और दो सागरोपम से कुछ अधिक की आयु है वहाँ की, उतने पुराने देव वहाँ होंगे। वे हाथ जोड़कर वहाँ खड़े हो गये। आपकी प्रतीक्षा थी और आप आ गये। आने वाला अभी किशोर जैसा ही है अर्थात् २० साल के भीतर और १५ साल से ऊपर। इस ढंग से वे खड़े कैसे हो जाते हैं ? क्योंकि सौधर्म इन्द्र वही बनता है, जो विशेष रूप से जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा का पालन करता है। केवल १२ ही सीट हैं। सोलह स्वर्ग है और सीट १२ हैं। एक-एक स्वर्ग में देव असंख्यात-असंख्यात होते हैं। नव-ग्रेवेयकों में असंख्यात हैं। अपराजित इत्यादि जो चार हैं उनमें भी असंख्यात हैं। सर्वार्थसिद्धि में संख्यात हैं। सारे के सारे स्वगों में असंख्यात कह ली। उन असंख्यात सीटों में, मात्र बारह सीट्स ऐसी हैं, जो इन्द्रों के लिये मिल जाती हैं। लेकिन बारह सीटों में से सौधर्म इन्द्र की सीट अपने आप में अलग है। जब पंचकल्याणक होते हैं, तो उस समय इसका महत्व क्या है ? यह आपको ज्ञात हो जाता है। बाकी जितने भी देव हैं, वे उसके पूरक ही हैं। सौधर्म इन्द्र का सारा का सारा आधिपत्य अलग रहता है। उसके कहने से पूर्व ही उनके सहयोग के लिये चारों प्रकार के देव आकर खड़े हो जाते हैं। अभिषेक होना है, पाण्डुकशिला पर। सब लोग आकर खड़े हो जाते हैं, वहाँ पर। देवगण क्षीरसागर से घड़े भरकर लायेंगे और यहाँ पर सौधर्म इन्द्र खड़ा है, वही सबसे पहले अभिषेक करेगा। सारे के सारे प्रबन्ध को देखकर ऐसा लगता है कि उनकी आज्ञा देने की कोई आवश्यकता नहीं, लीजिये.लीजिये। एक आध चित्र देखा तो ऐसा लगा। जब नन्दीश्वरभक्ति पढ़ते हैं तो ऐसा ही लगता है। सब अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हैं। क्षीरसमुद्र के जल से भरे घड़े आ रहे हैं। पंक्तिबद्ध रूप से आ रहे हैं। और उनके हाथों में चले जा रहे हैं। इधर से खाली, और उधर से भरे। समझ में नहीं आता, इन्द्र की आज्ञा को उल्लंघन करने वाला कोई देव नहीं ? सभी आज्ञाकारी हैं। इसका इतिहास कुछ समझना चाहिए। पहले उन्होंने अपने जीवन को असंयम में व्यतीत न करके, संयम से व्यतीत किया और आज्ञा का ऐसा पालन किया, जिसे आज्ञासम्यक्त्व कहते हैं। जो कि सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं हेतुभिनैव हन्यते । आज्ञामात्रं तु तद्ग्राहयं नान्यथा वादिनो जिनः॥ आज तर्कणा करना बुद्धिमत्ता का प्रतीक माना जा रहा है। लेकिन आज्ञा सम्यक्त्व अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। तर्कणा करने की हमारे पास क्या शक्ति है ? दिव्यज्ञान के माध्यम से जिस जिनवाणी का सृजन हुआ हो, उसमें हमारी क्या तर्कणा है ? हम अपनी बुद्धि को बढ़ाने की अपेक्षा से तर्क कर सकते हैं। जैसे तोतले बच्चे बोलते हैं। उसी प्रकार से हम भी अपने ढंग से करते हैं। यह भी ज्ञान के विकास में एक साधन है, यह मान कर चलते हैं। वस्तुत: हम बहुत बड़े ज्ञानी हैं, ऐसा नहीं है। वह इन्द्र भी आज्ञा से बना है। और जब कभी भी सौधर्म इन्द्र बालक महावीर के सामने आता है तो हाथ जोड़े ही आना होता है। विकल्प भीतर हो सकता है, कि यह आज का बालक और ५०० धनुष की काया वाले तीर्थकर। इनकी ५०० धनुष की काया तो है नहीं। जब महावीर की आयु ७२ वर्ष की हुई, तब ऊँचाई सात हाथ की थी। छोटा लड़का या छोटा बालक छोटा ही है, और बड़े-बड़े मुख के घड़े और यह ठण्डा पानी, और उसकी यह धारा। इसको झेलना मुश्किल है। हे भगवन्! अब क्या करूं ? लेट करूं ? तो गड़बड़। तभी भगवान् ने एकदम अंगूठा दबाकर पाण्डुकशिला को हिला दिया। अरे! यह क्या हो गया ? यह सब करामात तो होनहार भगवान् की है। सौधर्म इन्द्र भूल गया, तीर्थकरों की शक्ति इतनी होती है चाहे वह शारीरिक हो या वाचनिक या मानसिक। आत्मिक बल भी उनके पास अनुपम होता है। सौधर्म इन्द्र कहता है-भगवन्। चूक हो गई। बालक आज का ही जन्म लिया है। हाँ! हमारी गोद में पला है और मुझे ही आज्ञा दे, ऐसा नहीं। इस जगह विस्मय होता है कि उधर सागरों आयु वाले और इधर एक नवजात शिशु। शिशु की काया छोटी लग रही है। लेकिन काया में जो आत्मा है, वह तीन लोक को हिलाने की क्षमता रखती है। तीर्थकर होनहार हैं। ऐसी जो आगम की आज्ञा सुन रखी है, और कई बार देख रखा है, उसमें बिना कान फड़फड़ाये, ननु न च किये, हे भगवन्! गन्धोदक लेता हूँ, सिर पर चढ़ाता हूँ। साफ-सुथरे मुकुट में धूल लगाकर अलंकृत करता है। धूल लगने से तो मुकुट गंदा हो गया होगा? आप लोग टोपी पहनते हैं। और जब धूल आती है, तो उतार लेते हैं। जबकि यहाँ पर धूल लगाई जा रही है। ऐसा क्यों ? क्या मुकुट को खराब करना है ? खराब नहीं, पवित्र बनाया जा रहा है। अपने आप को उपकृत किया जा रहा है। तीन लोक के नाथ हैं ये। वह अपने परिवार को साथ लेकर आज्ञा देता है। यहाँ पर कुछ नहीं बोलें, जैसा संकेत देते हैं, उसके अनुसार करते चले जाना है। हाँ! भगवान् यद्यपि नाराज नहीं होने वाले, यह ध्यान रखना, लेकिन यह कर्तव्य है कि अपने आपके सम्यग्दर्शन को मलीन न बनायें। तीन लोक के नाथ, कैसी आज्ञा और कैसा मार्ग ? यह समझ में नहीं आता। आज नवजात शिशु और उसके गन्धोदक को ऐसे पकड़ते हैं, जैसे बहुमूल्य वस्तु हो। यदि आपके हाथ में वह है तो यूँ-यूँ करके लगा लिया। धो नहीं लिया, अपितु बड़े आदर से लगाना चाहिए। उन्होंने रत्न के पिटारे में उस गन्धोदक को रखा। महापुराण में बहुत बढ़िया वर्णन किया है। यह अभी शिशु है, और इस गन्धोदक को स्वर्ग ले गये स्वयं पवित्र है और दूसरों को पवित्र बना देता है। निर्मल है, निर्मल बना देता है। पापकर्म विनाशक है। महाराज, कहाँ से कहाँ आ रहे हैं आप। इसके पीछे आज्ञा चल रही है, यह कह रहा हूँ। आज्ञा संयम के लिए परम अनिवार्य है। संयम का बंधन बिना आज्ञा के संभव नहीं हो सकता। जब तक आज्ञा-सम्यक्त्व नहीं होगा, हमारा चारित्र चारित्र की संज्ञा नहीं पा सकता। अज्ञानपूर्वक आचरण का निषेध करने के लिये चारित्र के पीछे सम्यक्त्व यह विशेषण लगाया गया है। और सम्यग्ज्ञान के बाद चारित्र का नम्बर है। यह पूज्यपाद स्वामी ने कहा है। मैंने अपनी तरफ से यह नहीं रखा। भगवान् की आज्ञा है, चारित्र बाद में है। वह भले ही साक्षात् मुक्ति का कारण है। लेकिन सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान का पूर्व में सपोटर होना अनिवार्य है। और इसके बिना वह चारित्र चारित्र नहीं माना जा सकता, यह भगवान् की आज्ञा है। दो सागर की आयु को प्राप्त करने वाला वह सौधर्म इन्द्र कहता है, नहीं। यह शिशु नहीं। यह हमारे लिए गुरु है। और हम इसके शिष्य हैं। भगवान् की आज्ञा है। राजकुमार को मन्त्री वगैरह विशेष रूप से अभिवादन करते हैं। क्योंकि राजकुमार ही हमारे लिए भावी राजा हैं। यह क्यों ? राजा के प्रति बहुमान है तो राजकुमार के प्रति भी बहुमान है। आज्ञा के माध्यम से ही संयम असंख्यात गुणी निर्जरा के लिए कारण हो सकता है। तो वहाँ पूछने की कोई आवश्यकता नहीं, सारे के सारे लोग ऐसे व्यस्त हो गये हैं, ऐसे व्यस्त हो गये हैं, कि आठ दिन कैसे निकले, पता नहीं। और वह भी २४ घंटा जागरण के साथ। कोई भजन में, कोई कीर्तन में, कोई स्तुति में, कोई जाप में, कोई नृत्य में एक के बाद एक समय का उपयोग किया जा रहा है। प्रश्नमंच है, इटोपदेश है, फिर तत्वार्थसूत्र है, फिर बाद में और। भत्तामर बीच में है और तत्वार्थसूत्र है। शंका-समाधान है। सबका समय निकल रहा है। लेकिन जैसे चोर का समय रात में नहीं निकलता, चाँदनी के समय पर। उसी प्रकार वह असंयमी, वह पाप का समर्थक, असंयम का समर्थक असंयम में ऐसा डूबा हुआ है जबकि देव भी जहाँ पर संयम, व्रत का अनुभव करते हैं, इन दिनों में। किन्तु इसका क्या ठिकाना ? कुछ भी नहीं। चोरी-छिपे वह काम कर गया और राजा के सामने जो व्यक्ति नियुक्त किया गया था, बोला-महाराज! विशेष केस है। अत: विशेष आज्ञा की आवश्यकता है। लेकिन महाराज! Extra Ordinary का मतलब क्या होता है बताओ, घबरा रहे हो क्या ? नहीं, महाराज! लेकिन Exception अपवाद भी आवश्यक होता है। उसकी व्यवस्था अलग से होना चाहिए। यह कॉमन नहीं है, महाराज। कॉमन नहीं है, तो फिर क्या है ? कौन सा मेन है और कौन सा मेन कॉमन नहीं है ? महाराज, कैसे कहैं ? कहो.कहो, डरो नहीं ? इतना समय खर्च नहीं करते। जब गरम होकर कह दिया। महाराज, अब क्या कह दें ? हम अपनी तरफ से कुछ नहीं कह रहे हैं, किन्तु उनकी तरफ से ही कहा जा रहा है, महाराज। बोला क्या है ? कौन है वह? महाराज.। क्या कण्ठ में गड़बड़ हो रहा है ? गड़बड़ तो कुछ नहीं महाराज, किन्तु राजकुमार.। राजकुमार कहाँ है ? उसको यहाँ पाँच मिनट में लाकर समाप्त कर दी। उसने ऐसा अपराध किया। जाओ. बस यमपाल चाण्डाल के पास जाओ। राजा की आज्ञा है, वह चला गया। यमपाल से जाकर कहा। यमपाल स्वयं उपस्थित होकर हाथ जोड़कर खड़ा होता है-मैंने संकल्प लिया है महाराज! जो आपका अनन्य भत है, अनन्य शिष्य, अनन्य सेवक है, वह आपकी आज्ञा मानने के लिये तैयार नहीं है। यह कहने वाला कौन होता है यमपाल ? ध्यान रखना, हम यहाँ पालन भी करते हैं और यमलोक भी पहुँचा सकते हैं। उसको और राजकुमार, दोनों को बोरी में बन्द कर, भिन्न-भिन्न बोरी में अच्छे ढंग से बांधकर मन्दिर के सामने वाले तालाब में, जिसमें असंख्य मगर-मच्छ हैं, सर्प हैं, पटक देना। यह ध्यान रखना, कोई किसी से कुछ भी बात नहीं करेगा। यह कार्य करके आना। जैसी आपकी आज्ञा। राजा के नियम का उल्लंघन करना भी प्रजा के लिए अभिशाप सिद्ध होता है। क्योंकि विधि-विधान/संविधान का उल्लंघन एक प्रकार से महान् आपत्तिजनक हुआ करता है। आज्ञा के माध्यम से ही शासन सुचारु रूप से चलता है। जिसके माध्यम से स्व और पर का जीवन संरक्षित होता है, हजारों, लाखों, करोड़ों जनता का उसी में हित निहित रहता है। अनुशासनबद्ध नहीं रहेगा, तो काम नहीं चलेगा। इसलिए राजा-महाराजा जो क्षत्रिय होते हैं, उनको इतनी जल्दी मुक्ति मिल जाती है कि बैठने की ही देरी होती है, और बनिया के लिये कुछ देर लग जाती है। ऐसा क्यों ? वह तराजू इधर-उधर देखता रहता है, इसलिए ऐसा होता है। दुकानदार एक तरफ ऊपर देख रहा है। वह क्या देखता है, मालूम है आपको ? ग्राहक कैसा क्या कर रहा है? इसको देखता रहता है। इसलिए इनको क्षपकश्रेणी आरूढ़ होने में कुछ देर लगती है। और क्षत्रियों के लिये, उनका तो कोई तराजू रहता ही नहीं, उन्होंने शस्त्र हाथ से रखा ही नहीं, बस बैठ गये। इनके लिये बहुत सारे सामान हैं ना, लेन-देन बहुत रहता है। उनके यहाँ कोई लेन-देन नहीं है। न दुकान है, न मकान। लेकिन यह ध्यान रखना, दुकान में कैसा कार्य होता है ? सारा का सारा ज्ञात होता रहता है। एवन् वस्तु पहले यहाँ पर भंडार में लाईये। ध्यान रखना, कोई गड़बड़ हो जाय, तो। महाराज! हम थोड़ा-बहुत रख लेते हैं, बाकी सब आपका ही है। हाँ, ठीक है। ऐसा चलता है। महाराज! ये सब आपका ही है। हम भी आपके, ये सब भी आपका है। बस मेहरबानी बनी रहे, कृपादृष्टि बनी रहे और कुछ नहीं। महाराज, यदि ऐसा राजा नहीं होगा, तो प्रजा का जीवन खतरे में आ गया। धर्मध्यान कर रहे हैं, यहाँ बैठे-बैठे। यह ध्यान रखना, यदि वहाँ पर शासन ढीला हो जायेगा, तो यहाँ आप पालथी मारकर धर्म की बात भी नहीं कर सकते। बिल्कुल चुप बैठ जाना होगा। कहाँ पर बैठ जायेंगे? पता नहीं चलेगा। जिस समय ऐसा शासन चलता था, उस समय बाहर निकलना मुश्किल होता था। इसलिए चैत्यालय आदि की व्यवस्था भी होती चली गई। घर-घर में मन्दिर होते चले गये। महाराष्ट्र में कुछ दिनों पहले देखा था, प्रत्येक घर में मूर्तियाँ हैं। क्यों ? बाहर नहीं निकल सकते। बाहर निकल गये, मन्दिर के लिये भी चले जायें, तो मुश्किल हो जाता था। तोड़फोड़, भगवान् का भी खंडन-मंडन हो जाता। ऐसा क्यों होता ? जैसा राज्य, उसी के अनुसार वातावरण बन जाता है। कोई पूछताछ नहीं कर सकता। और कोई पूछताछ कर ले तो उसका सम्यग्दर्शन और व्रतों का पालन भी समाप्त हो जाता है, ऐसी दशा रहती है। तो ऐसा ही किया गया। दोनों को बोरी में बांध दिया गया। कई लोग कहने लगे कि, राजकुमार को भी, हाँ। नहीं.नहीं तो आपको भी। राजकुमार को भी एक बोरी में अच्छा पैक कर दिया गया। एक बोरी में यमपाल चाण्डाल को बंद कर दिया गया और जाकर बीचों-बीच में उसको पटक दिया गया। अब क्या होगा. अब क्या होगा ? निकालने का कोई सवाल ही नहीं उठता। निकालने की चर्चा भी कर लें, तो फिर देख लो। यह कैसा राजा होगा ? राजकुमार का पालन किया जा रहा है और उत्तरदायित्व भी उसी के कंधों पर रखना है। तिलक लगाना ही शेष था। किन्तु दिन पूरे हो चुके हैं। दूसरा कोई राजकुमार नहीं है। यहाँ पर तख्त, अरे तख्त पर बैठने के लिए ताकत की भी आवश्यकता है और उस ताकत को अर्जन करने के लिये समय भी आपेक्षित है। वस्तु चीजों की आवश्यकता होती है। तख्त खाली पड़ जाय, इसकी कोई चिन्ता नहीं। लेकिन तख्त पर कोई गलत व्यक्तित्व न चला जाय, इसकी चिन्ता रखनी चाहिए, राजा-महाराज को। तभी जनता का संरक्षण संभव है। हमारे कुल में और उनके कुल में, यह हमारा-तुम्हारा सब गड़बड़ है। तव-मम, तवमम, यह परिग्रह बुद्धि मानी जाती है। आश्चर्य की बात तो यह है कि एक बोरी तो कहाँ चली गई। पता नहीं। और एक बोरी खाली होकर, अपने आप ही सब टूट-टाट कर वह ऊपर आ गई। और एक कमल, स्वर्णिम कमल, जो कि सहस्त्रदल पांखुडियों से युक्त है, उसकी कर्णिका अलग, उसकी नाल-मृणाल अलग है, पांखुड़ियां पूरी-पूरी खिली हुई हैं, उसके ऊपर एक चांदी का बढ़िया सिंहासन। क्योंकि स्वर्णिम कमल पर चांदी का सिंहासन बहुत अच्छा लगता है। चांदी के सिंहासन के ऊपर एक और आसन है और उसके ऊपर वह। वह कौन मूछों वाला ? उसमें कोई परिवर्तन तो आयेगा नहीं। वह वही व्यक्तित्व, अच्छा जो है। पृथ्वीराज चौहान से भी बढ़कर बढ़िया मूंछे हैं, गलमूछ जिसको बोलना चाहिए, कान तक पहुँच गये हैं। जब हम गणित पढ़ते थे, उस समय ब्रेकिट ३-४ प्रकार के थे। उसमें एक मूछों वाला ब्रेकिट होता था। उसी प्रकार की मूछों वाला यमपाल चाण्डाल उनके सामने कमल के ऊपर आसीन हो गया और देवगण आकर उसकी परिक्रमा लगाना प्रारम्भ कर देते हैं। आरती उतारना प्रारम्भ हो जाता है। कौन सौभाग्यशाली आरती उतारे ? उस यमपाल चाण्डाल की आरती उतारने, बोलने वाला भी सौभाग्यशाली है। आरती बोलने वाला भी धन्य है। क्योंकि देव साक्षी हैं, वहाँ पर। देखकर के लगता है, यह क्या होने लगा ? जिन्होंने पटकने की आज्ञा दी थी, वह सब डर गये। अब यमपाल चाण्डाल हमारी ओर देखेगा, तो हमारा क्या होगा ? क्या पता। यदि इनको भी बोरे में बंद करके इसी तालाब में पटक दो, ऐसा कह देगा तो। कुछ तो एकदम चले गये। महाराज, आपकी आज्ञा का उल्लंघन। उल्लंघन तो कइयों ने किया, महाराज पता नहीं लग रहा है। क्योंकि भीड़ आ गई। पता नहीं ऐसी भीड़ है कि यमपाल चाण्डाल को सिंहासन पर बैठाया। महाराज, जिसको आपने मारने की आज्ञा दी थी, डुबाने के लिए आज्ञा दी थी। राजा की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला महाअपराधी पापी है। महाराज, बड़ा विचित्र लग रहा है। हम लोगों का भविष्य अब आपकी छत्र-छाया में है। हमारा संरक्षण, संरक्षण था, लेकिन अब गड़बड़ा गया है। आज कौन सी तिथि है ? महाराज, पता नहीं। सुबह से ही आज्ञा का उल्लंघन प्रारम्भ हो गया। राजकुमार ने आज्ञा का उल्लंघन किया। यमपाल चाण्डाल ने आज्ञा का उल्लंघन किया। लेकिन यह महान् व्यक्ति आज वहाँ बहुत सारी भीड़ में है। महाराज, वह हमारी ओर देख तक नहीं रहा। उसकी तो लोग स्तुति कर रहे हैं। ऐसे-ऐसे पुष्प हैं महाराज, ऐसे पुष्प हैं, जो आपको भी नहीं मिलते। महाराज कौन से बगीचे से लिये गये होंगे ? महाराज, वह आरती भी कुछ अलग ढंग की है। दिव्य नृत्य है महाराज। ऐसा नृत्य हमने अन्यत्र कहीं नहीं देखा। लेकिन आपको बताने के लिये आये हैं। हमने आपकी आज्ञा का पालन तो कर दिया, लेकिन..। क्या हुआ, क्या बताएं? महाराज, आप स्वयं वहाँ आ सकते हैं और देख सकते हैं, जो कुछ वहाँ हो रहा है। पर्व के दिन हैं। मन्दिर खाली हो गये। सब के सब देखने के लिए मन्दिर को छोड़ सकते हैं। राजा की आज्ञा का उल्लंघन कर दिया, चलो. सारी की सारी भीड़, केवल वेदी में भगवान् मात्र बैठे हैं, सब वहाँ पर चले गये। वहाँ पर देवों की संख्या इतनी है कि सब वह तालाब जैसा भी नहीं लग रहा है। ऐसा लग रहा है कि हम भी जाकर उसी में मिल जायें। लेकिन राजा की आज्ञा के बिना हम कैसे मिल सकते हैं। राजा ने कहा-यह क्या हुआ ? मंत्री ने कहा-महाराज, स्थिति यह है कि राजकुमार का कोई पता नहीं और वह यमपाल चाण्डाल वहाँ बैठा है। हम बोल नहीं सकते, इनके सामने। यमपाल चाण्डाल को एकाएक इतना वैभव कहाँ से आ गया महाराज, पता नहीं? राजा धर्मनिष्ठ था। राजा अहिंसा का पालन करने वाला था। राजा रत्नत्रय की आराधना का लक्ष्य बनाये था। प्रजा का पालन करने के लिये ही राज दरबार में सिंहासन पर बैठता था। उसकी हुकूमत देने में आनन्द का अनुभव होता हो, ऐसा नहीं। वह मात्र कर्तव्य का पालन करने वाला था। उसने देखा-यह यमपाल चाण्डाल, और इसकी आरती उतारी जा रही है, इसलिए कि इसने अहिंसा का पालन किया है। क्योंकि यह आठ दिन तक किसी की हत्या नहीं कर रहा था। पाप नहीं करूंगा, कोई आ जाय और वैसे ही एक प्रकार से चौदस इत्यादि के दिन उसका जीवन पर्यन्त के लिए त्याग है। इसलिए यह किसी की बात को सुनेगा नहीं। राजा की आज्ञा मिलने के उपरांत, जो उसका अनुपालन करता है, उसके लिये मालामाल कर दिया जाता है। पैसा मिलता है। कितना ? जिसका कोई ठिकाना नहीं रहता। केवल राजप्रिय बनना अनिवार्य होता है, आज्ञा का अनुकरण करना अनिवार्य होता है। लेकिन यह अहिंसा का महान् रूप से पालन करने वाला है। इसलिए इसकी देवों के द्वारा पूजा हो रही है। जब तक अहिंसा महाव्रत का संकल्प लेने के लिए तैयार नहीं होता, तब तक मुनि बनाना कोई भी स्वीकार नहीं करता। तीर्थकर भी जब तक महाव्रती नहीं होते, तब तक मन:पर्ययज्ञान प्राप्त नहीं होता। अवधिज्ञान तो घर में भी था। अनुगामी होकर आ गया था, छाया की भांति। सर्वार्थसिद्धि से आये थे आदिनाथ भगवान्। अनुगामी अवधिज्ञान वहीं से लेकर के आये थे। लेकिन जब तक ८४ लाख पूर्व में से ८३ लाख पूर्व पूरे नहीं हुए, तब तक मन:पर्ययज्ञान नहीं हुआ। मन था कि नहीं ? उनके पास मन तो था । तो मन:पर्ययज्ञान हो जाय ? मन नहीं था तो बात अलग थी। क्या उन्हें तीर्थकर प्रकृति का बंध नहीं हो रहा था ? हो तो रहा था। अवधिज्ञान भी था, पर मन:पर्ययज्ञान नहीं हुआ। परमावधि क्यों नहीं हो गया ? सर्वावधि क्यों नहीं हो गया ? मन:पर्ययज्ञान क्यों नहीं हो गया? उत्कृष्ट होना चाहिए था ? नहीं हो सकता। क्यों ? छठवें-सातवें गुणस्थान रूप संयम की भूमिका के बिना अवधिज्ञान, परमावधिज्ञान और सर्वावधिज्ञान के रूप में परिवर्तित नहीं हो सकता और मन:पर्ययज्ञान प्राप्त ही नहीं हो सकता। क्योंकि असंयममार्गणा में यह संभव नहीं है। तीर्थकर भी क्यों न हों, घर में रहने वाली धोती-कुर्त में रहने वाले तीर्थकर भी क्यों न हों, लेकिन जो आगम को रखने वाले हैं, आगम किसी के घर की बात नहीं रखना चाहता, आगम के अनुसार चलना पड़ेगा। तीर्थकर हो और तीर्थकरों के भाई भी क्यों न हों, और पिता जी भी क्यों न हों, यह निश्चित बात है, कि आगम के सामने किसी का कुछ नहीं चलेगा। राजा हो या महाराजा हो, न्याय के सामने वह भी एक मेम्बर के अनुरूप है। उसको यदि वह अपने घर का बना लेगा, तो वहाँ से वह निकाल दिया जावेगा। राजा ने कहा- इन्हें प्रताप प्राप्त क्यों हुआ ? इन्होंने अहिंसा संयम का पालन किया। वह एक दिन हो या एक घंटा हो। एक घड़ी हो या एक मिनट भी क्यों न हो । वह संयम तो संयम माना जाता है। मन से, वचन से और काय से क्षमा करना हमने आपके लिए आज्ञा दी। वह कहता है-आपका कर्तव्य था। आप यदि आज्ञा नहीं देते तो वे देव लोग नहीं आते। ये देव तब आते हैं, जब हम संयम पालन करते हैं। धर्म का पालन तो सब लोग करते हैं। लेकिन वह आस्था के साथ होना चाहिए। सम्यग्दर्शन कितना अटूट है। यदि सम्यग्दर्शन के बिना संकल्प लिया होता, तो देव तीन काल में नहीं आ सकते। क्योंकि वे जानते हैं, कि इसकी आस्था कैसी है? यह संयम आस्था या सम्यग्दर्शन के साथ चल रहा है। इसलिए इसको दिव्यपूजा उपलब्ध हो गई। और पंचाश्चर्य हो गये। उसके सामने सब लोग देखते रह गये। राजा ने भी हाथ जोड़ लिये। जैसा यमपाल चाण्डाल आकर हमेशा राजा के सामने हाथ जोड़ता था। अब वह उसके सामने हाथ जोड़ रहे हैं। धन्य है, हमारा राज्य। धन्य है हमारा राष्ट्र। धन्य है यह धरती और धन्य है यह सब कुछ, जो स्वर्ग से देव आकर अहिंसा की महिमा गा रहे हैं। और गाकर आप लोगों को दिखा रहे हैं। सुना रहे हैं। जब देव साक्षी हो जाते हैं तो फिर किसी अन्य की साक्षी देने की आवश्यकता नहीं रहती। राजा सोचने लगा, यमपाल चाण्डाल कहीं ऐसा न हो, हमने आज्ञा का उल्लंघन करने पर इसको मरवाने के लिए आज्ञा दी थी, अत: यह कहे कि यह राजा निकृष्ट परिणाम वाला है। मैं धर्म का पालन करना चाहता था और उसने मेरे लिए मौत के घाट उतारने के लिए आज्ञा दी। इनको छोड़ो नहीं, ऐसा कह देगा, तो क्या होगा ? यमपाल चाण्डाल कहता है-मैं ऐसा कैसे कह सकता हूँ? मैं कहूँगा नहीं। आपने गलती की ही नहीं, तो क्यों कहूँगा ? और जिसने गलती की थी, उसको तो दण्ड देने की कोई आवश्यकता नहीं। इसलिए नहीं, कि इतने सारे देवों ने राजकुमार को क्यों नहीं बचाया ? जबकि वह राजा का लड़का था। राजकुमार था। और राजा ही बनने वाला था। उसकी रक्षा देवों ने क्यों नहीं की ? उसकी आरती क्यों नहीं की ? यमपाल चाण्डाल की तो हम कर सकते हैं। लेकिन राजकुमार की हम आरती नहीं उतार सकते। दक्षिण में या महाराष्ट्र में कहावत है-रूप राजा था। नहीं समझे, रूप तो राजा का है, लेकिन गुण जो हैं ना, वह महानिकृष्ट। उनके पास गुण ही नहीं। ऐसा रूप लेकर के क्या करना ? और मूछों वाले यमपाल का रूप यद्यपि काला है। लेकिन काला होकर भी वह पूज्य बना। फिर काले से क्या होता है ? वह शरीरनामकर्म का उदय है। वर्ण का एक भेद काला भी आता है। धवल भी आता है। पीला भी आता है। भगवान् नेमिनाथ भी काले थे। पाश्र्वनाथ भगवान् भी काले थे। नारायण जितने होते हैं, वे प्राय: करके इसी रंग के होते हैं। वह भी एक बढ़िया चमक को लिए हुए शरीर वाले होते हैं। यह रंग तो रंग है। पुदूल की परिणतियाँ हैं। उससे क्या होता है ? लेकिन हृदय में धर्म के प्रति आस्था के भाव हमेशा शुक्ल होना चाहिए। भावों की परिणति की ओर देखो। राजा ने उनको नमस्कार किया और चाण्डाल ने उनको गले लगाकर कहा-इसमें आपका कोई दोष नहीं। अब वह चाण्डाल यमपाल नहीं रहा। उसके लिए विशेष प्रमोशन हो गया। अरे, राजकुमार के स्थान पर यही तो राजा बनेगा। इसमें संदेह नहीं है। इस प्रकार हमारे राजकुल में कोई व्यक्ति रहेगा, तो निश्चित रूप से प्रजा का कल्याण होगा। जो व्यक्ति अहिंसा के लिए तैयार हो गया। जैसी आपकी आज्ञा, मैं मरने के लिए तैयार हूँ। लेकिन मैं मारने के लिए तैयार नहीं हूँ। आज संयम का दिन है। प्रसंग बहुत अच्छा जुट गया है। आज ऐसे-ऐसे निरपराध पशुओं के ऊपर, जिनमें धर्म के प्रति आस्था भी संभव है, आप लोगों ने कोई उपकार नहीं किया। उनको मौत के घाट उतारते हुए आप लोग देख रहे हैं, परन्तु कोई व्यक्ति भी आगे-पीछे नहीं दिख रहा है, इनको बचाने के लिए। जवान पाडों को, जवान बैलों को, जवान गायों को और जवान प्राणियों को लेकर के एक साथ कत्लखाने के सामने खड़ाकर दिया जाता है। जिस प्रकार एक पिस्तौल के माध्यम से अनेकों को उड़ाया जाता है, उसी प्रकार पाँच मिनट की देरी भी नहीं लगती और एक साथ हजारों पशु समाप्त हो जाते हैं। आप लोग बहुत महान् माने जा रहे हैं। क्या आपको पता है, एक दिन आप लोगों के पाप की उदीरणा होगी। क्योंकि सामूहिक हत्या का एक न एक दिन समय आता है। और उस समय इसका कोप, इसका फल भोगना पड़ सकता है। डायरेक्ट या इनडायरेक्ट, सब लोग उसके समर्थक सिद्ध हो रहे हैं। निरपराधी को इस प्रकार का दण्ड देना, यह कौन सा लोकतंत्र है, हमें समझ में नहीं आता ? दण्डसंहिता तो होनी चाहिए। लेकिन अपराध के लिए दण्डसंहिता होनी चाहिए। इन्होंने कुछ भी नहीं किया। यह शरीर पृथ्वी के लिए भारमय है, ऐसी कई लोगों की धारणा है। प्रचार-प्रसार भी किया जा रहा है। ये धरती पर भारमय हैं। ये खर्चा के घर हैं। कितनी गलत बात है। पशु कभी भी धरती के लिए भारमय नहीं हुए। आप लोगों के लिए भारमय नहीं। हाँ, आप लोगों को लगता है। उनका तो कभी भी, किसी भी प्रकार से उपयोग किया जा सकता है। जब तक वे जीवित हैं, तब तक वह निश्चित रूप से जितना खाते हैं, उससे भी बढ़कर वे खाद देते हैं, आप लोगों की। आज वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि जिस खाद के माध्यम से आज फसल लेते हैं, उसके सामने गाय-भैंस या बैलों की खाद के माध्यम से आने वाली फसल अच्छी आती है। धान्य की पोटेंसी-शक्त्यंश और इस धान्य की पोटेंसी, दोनों की तुलना करने से, बताया जा रहा है, ये बहुत गुणकारी है। इसके अलावा वर्तमान में जो रासायनिक खाद है, वह पृथ्वी को, जमीन को जलाने लगी है। जैसे एटमबम के माध्यम से मिट्टी जल जाती है, तो वहाँ पर अंकुर उत्पन्न नहीं होता। उसी प्रकार आठ-दस साल इस खाद का प्रयोग कर दिया जाता है तो . इसको बताने की कोई आवश्यकता नहीं। आज सांगली जिला, कोल्हापुर जिला और जो बड़े-बड़े जिला हैं, उनमें हजारों एकड़ों की काली मिट्टी, जो भारत वर्ष में बहुत प्रसिद्ध मिट्टी मानी जाती है, वहाँ का गन्ना प्रसिद्ध क्वालिटी का गन्ना होता है। एक-एक एकड़ में भी अस्सी हजार से भी बढ़कर गने का उत्पादन करने वाला यह क्षेत्र माना जाता है। अब तो और भी बढ़ गया होगा। लेकिन वहाँ पर आज एक अंकुर नहीं आ रहा है। हाँ, ये (अन्य महाराज की ओर इशारा) कह रहे हैं। अभी जाकर आये हैं। बाहुबली भगवान् की यात्रा और मस्तकाभिषेक देखकर आये हैं। बीच-बीच में सब क्षेत्रों को देखते आये हैं। उस एरिया में एक एकड़ में १३५ टन उत्पादन होता था। १३५ टन का अर्थ होता है एक प्रकार से, एक लाख पैंतीस हजार किलो नेट। मारुति में घूमता है वहाँ का किसान। काम तो खेती का करेगा, लेकिन मारुति लेकर जाता है, जिस किसान के पास चार-पाँच एकड़ है। दसबीस एकड़ हो, तो फिर कहना ही क्या ? सौधर्म इन्द्र जैसा घूमने लग जाता है। क्या कह रहा था मैं। यह कह रहा था, कि आज यह विज्ञान का युग कहाँ से आ गया ? कुछ समझ में नहीं आता। धरती को भी वह समाप्त किये दे रहा है। हजारों एकड़ की जमीन, सब नष्ट-भ्रष्ट हो गई। खूबी यह है, कि वह जमीन मेनरोड पर हो, तो भवन के निर्माण योग्य भी नहीं रहती। क्षार-क्षारमय हो गयी है। वहाँ पर फाउण्डेशन भी ठीक नहीं बैठता। संभव है लोहे का फाउण्डेशन भी रखेंगे, तो वह गल जावेगा। इतना क्षार का निर्माण हो चुका है। यह सब इस खाद का परिणाम है। जबकि गाय-भैंस की खाद का प्रयोग से धरती कोमल और एक प्रकार से कुमकुमवत् बन जाती है। उसमें जितनी चाहो उतनी फसल ले सकते हैं। उसकी उम्र भी दस-बीस वर्ष बढ़ जाती है। यह सब आज के विज्ञान के युग में अन्याय होता चला जा रहा है। उस फसल के रंग और इस फसल के रंग के बारे में भी पूछा गया, तो काफी अन्तर पाया गया। एक आम का वृक्ष है, आधुनिक रासायनिक खाद के माध्यम से खड़ा है, और एक आम का वृक्ष है जो इधर खड़ा है। दोनों को देखा जाये, तो एक टी.बी. का मरीज है और एक हृष्ट-पुष्ट है। ऐसा क्यों ? फल तो यह भी देता है और यह भी देता है। यह बिल्कुल हरा-भरा, अलग ही रंग को लेकर रहता है। इस प्रकार पर्यावरण प्रदूषण के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक आज की खाद सिद्ध हो रही है। वह जितनी भी उपजाऊ जमीन है, सबको अपनी चपेट में ले रही है। सबसे ज्यादा पर्यावरण का दोष इन खादों के माध्यम से आ रहा है। इनमें जो पानी चला जाता है, वह क्षार हो जाता है। धरती बिल्कुल सूखकर लकड़ी के समान, पत्थर के समान हो जाती है। यह स्थिति देखकर कई लोग कह रहे हैं-उधर के लोग इस बात को जानकर इसका प्रयोग बिल्कुल बंद कर दिये हैं। लेकिन भारत नहीं मान रहा है। भारत फिर भी अनुबन्ध के साथ चल रहा है। रासायनिक प्रक्रिया से यह सब गड़बड़ झाला है। जिस देश की कृषि समाप्त हो जायेगी, उस देश की सबसे ज्यादा बुरी दशा होगी। वह एक-एक दाने के लिए मुँहताज हो जायेगा। पैसे और सोने के द्वारा कुछ नहीं होने वाला, यह ध्यान रखना। कोई इस ओर भी नहीं देख रहा है, जो ध प्राणी हैं, उनको काटकर, मारकर, उनके मांस को निर्यात किया जा रहा है। और बदले में मात्र कुछ राशि लेकर के आ रहे हैं। इसके साथ वहाँ से गोबर खरीद करके ला रहे हैं। अब सोचने की बात है, आज के राजा, महाराज व नेता, इन लोगों से कौन कहने वाला है ? क्या आप लोग कहते नहीं ? सोचना चाहिए। इससे बड़ी हानि हो रही है। दया तो चली गई। लेकिन जो दया का पालन करने वाले हैं, उनके लिए भी बड़ी समस्या आ सकती है। यहाँ का पर्यावरण बिल्कुल दूषित हो जायेगा। यह जो खाद डाली जा रही है, इससे पानी के सतह/स्तर में भी बहुत गड़बड़ी आ गयी है। पर संभव है, एक दिन जब फसल नहीं खड़ी होगी, उस समय भारत क्या करेगा ? विदेश से गोबर ले आयेंगे, विदेश से खाद ले आयेंगे, विदेश से ही बीज ले आयेंगे। जब छठवां काल का अन्त आयेगा उस समय ४१ दिन तक प्रलय होगा। सात-सात दिन तक अग्नि, पत्थर आदि की वर्षा होगी। लगता है उस प्रलय काल के पूर्व लक्षण दिखने लगे हैं। पर्यावरण जब दूषित हो जायेगा, उस समय आप क्या करेंगे आज आप जो खा रहे हैं, सब दूषित होता जा रहा है। रोगनिवारण की दवायें बनाते जा रहे हैं, लेकिन रोग उत्पन्न क्यों हो रहे हैं इस ओर किसी की भी दृष्टि नहीं है। मूल की ओर देखो, चूल की ओर दृष्टि क्यों रखते हैं मूल के आश्रय से ही चूल रहता है। आप लोग संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य है और आपके इस वतन में आपके समान संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणी का वध किया जा रहा है। उसको आप लोग नहीं देख रहे हैं। उसका आप समर्थन करते जा रहे हैं। क्योंकि आप अपना समर्थन रूपी वोट देखकर सपोट कर रहे हैं। वे समर्थन जुटाकर अपने स्वार्थ की सिद्धि करें, यह ठीक नहीं है। पहले उद्योगी हिंसा का निषेध किया जाता था। लेकिन आज तो हिंसा का ही उद्योग होने लगा है। इस हिंसा के उद्योग को रोकने के लिए आन्दोलन होना चाहिए। आन्दोलन हो, लेकिन वह भी शान्ति के साथ हो। हम अहिंसा की बात उन तक पहुँचाना चाहते हैं। भारतीय संस्कृति में गाय को गौमाता कहा जाता है। आज उसी गौमाता का वध भारत की धरती पर हो रहा है। उसके मांस को विदेशों में भेजा जा रहा है। जिस गाय के गोबर को अपने आंगन में लीपते हैं, उसे अच्छा मानते हैं। वह गाय का मल तो है, लेकिन वह अछूता मल नहीं है, जैसा कि आप लोगों का मल होता है। एक लेख पढ़ा था, कि जहाँ पर गाय आदि को बांधा जाता है, उस स्थान पर यदि कुछ दिन टी.बी. के रोगी को रखा जाता है तो उसका रोग ठीक हो सकता है। एक छोटी सी राशि के लिए अपने गौधन का वध करते जा रहे हैं। सही धन है तो वह गौधन ही है। यह चेतनधन है। अचेतन धन के लिये संहार करना ठीक नहीं है। हमें प्रयास करना चाहिए और गौ वध को अतिशीघ्र रुकवाना चाहिए। अभी सुनने में आया है कि गुजरात सरकार ने अहमदाबाद शहर के जितने भी कत्लखाने हैं, उनकी दशलक्षण पर्व के दिनों में बंद रखने का आदेश दिया है। आप लोगों को अपनी राज्य सरकार के सामने भी यह बात रखना चाहिए और निवेदन करना चाहिए कि दश दिनों के लिये यहाँ भी हिंसागृहों को बंद रखा जाये। हमारे ये पर्व जीव रक्षा के पर्व होना चाहिए। मात्र गाने बजाने तक सीमित नहीं रहना चाहिए। पाँच पापों को रोकने का कार्य इन पर्व के माध्यम से होता है। अपना इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम रखते हुए जीव रक्षा की भी बात करना चाहिए। प्रयास करना चाहिए कि कोई भी जीव दुखी न रहे। क्योंकि सभी जीव जीने का अधिकार लेकर इस भूतल पर आते हैं। सभी को अभय मिले इसी भावना के साथ उत्तम संयमधर्म की जय.
  13. यह किसका है ? यह क्या है ? यह क्यों है ? किससे है ? कहाँ है ? इस प्रकार बाहरी पदार्थों के बारे में प्रश्न मत करो। इस प्रकार जो विचार श्रेणी बहिर्मुखी है, उसे अन्तर्मुखी करो। भावना के माध्यम से अपना जो आत्मतत्व दूषित है, एक प्रकार से धूमिल है, हम उसे उज्ज्वलता/निर्मलता दे सकते हैं। कुछ दिन पहले एक शोधपरक लेख पढ़ रहा था। वहाँ पातंजलि भाष्य की प्रशंसा के रूप में एक श्लोक उपलब्ध हुआ। लगा इस श्लोक के तीन चरणों को, ज्यों का त्यों रखा जाए और अन्तिम चरण में पूज्यपाद स्वामी को याद कर लिया जाय। पातंजलि के नाम से वह श्लोक उपसंहार को प्राप्त हुआ है। वहाँ पर सुपूज्यपादं शिरसा नमोऽस्तु यह चरण जोड़कर के समस्या पूर्ति के भाव आ गये। क्योंकि पूज्यपाद स्वामी ने भी यही कार्य अपने जीवन में किया है। इस श्लोक में बहुत अच्छा भाव दिया गया है। आज प्रसंग शौच धर्म का है। मल कितने प्रकार के हैं ? किसकिस के माध्यम से वह मल दूर किया जा सकता है ? यह भाव ही तीन चरणों में है। उसमें प्रथम है- शरीरस्य मल वैद्यकेन अपाकरोत्। शरीर का मल रोग माना जाता है। वैसे आप नीर के माध्यम से स्नान कर लेते हैं। नीर के माध्यम से आप मुख शुद्धि कर लेते हैं। स्नान बाद में भी किया जा सकता है। किया क्या जा सकता है, आप करते ही हैं। मैंने आज तक कहीं देखा न पढ़ा, न ही सुना, संभव है आप पढ़े भी होंगे, सुने भी होंगे और देखे भी होंगे। पूछना चाहता हूँ आप लोगों से-सुबह उठते ही मुखशुद्धि के लिये पानी में मीठा मिला करके कुल्ला किया हो ? मीठा खाना चाहते हैं, तो मीठे के द्वारा ही मुखशुद्धि भी कर लें। लेकिन इसके विपरीत सुना, देखा, पढ़ा व आपने भी अनुभव किया होगा। और वह बहुत अच्छा लगा। नीम की जो दातौन होती है, उसे खूब चबा रहे हैं, खूब चबा रहे हैं। किन्तु एक बूंद भी भीतर नहीं जाती। फिर भी उसे खूब चबा रहे हैं। पूछा कि भैया मुखशुद्धि कर रहे हो या कड़वा कर रहे हो ? इसमें रहस्य छिपा हुआ है। भीतर की कड़वाहट को बाहर निकालने में वह सक्षम है। मीठे के पास तो वह गुण है जो मुख को कड़वा बना दे। और नीम के पास वह क्षमता है जो मुख को शुद्ध बना दे। आप लोगों के मुख मीठा खा-खाकर कड़वे हो गये हैं। इसलिए आप लोगों को मीठा नहीं खाना चाहिए। शरीरस्य मलं वैद्यकेन वैद्यक ग्रन्थों का निर्माण पूज्यपाद स्वामी ने किया। जिसके माध्यम से वे समस्त संसारी प्राणी जो आरोग्यमय बनाना चाहते हैं, जिसके अध्ययन करने से वैद्य लोगों का जीवन बना रहा और उनकी सेवा से यह निरोगता का अनुभव करता रहा। ऐसे पूज्यपाद को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। वाणी की भी अशुद्धि हुआ करती है। मुख की अशुद्धि अलग है एवं वाणी की अशुद्धि अलग है। वाणी की अशुद्धि दूर करने में भी सक्षम ऐसी पूज्यपाद की लेखनी व कृतियां हैं। व्याकरण की रचना करके उन्होंने बड़ा उपकार किया है। जैनेन्द्रव्याकरण इनकी मौलिक कृति मानी जाती है। इसकी विशेषतायें वैय्याकरण जानते हैं, शोध छात्र जानते हैं और उसको अवश्य ही कोड करने का प्रयास करते हैं। जैसे अभी पूर्व वत्ता, जो दक्षिण से पधारे हैं, ने कहा-कि यह दिगम्बर जैन समाज का दुर्भाग्य है कि दिगम्बर जैन समाज में ऐसे बड़े-बड़े आचार्य हुए हैं। किन्तु उनका प्रकाश आज के विज्ञान युग में नहीं आ पाया है। उन्होंने तो प्रकाशन करके रख दिया वर्षों पूर्व। जिन्होंने भवन का निर्माण कर दिया, महाप्रासाद खड़ा कर दिया है, यदि वर्षा के कारण ऊपर की कलई निकल जाती है, तब कर्तव्य होता है कि दीपावली या दशहरा या किसी अन्य त्यौहार के निमित्त से उसको पुनः ठीक किया जाये। यह हमारा दुर्भाग्य या प्रमाद समझो कि हम उसे इस रूप में लाकर समाज के सामने नहीं रख पाये। उन्होंने हजारों वर्ष पहले जगत् में जैनेन्द्र व्याकरण की रचना कर आदर्श प्रस्तुत किया। उनकी जितनी भी कृतियां हैं, सभी मौलिक हैं। उनकी सर्वार्थसिद्धि नामक तत्वार्थसूत्र की टीका वर्तमान में आर्ष कृति मानी जाती है। उसको पढ़ने-सुनने से यह मन कभी भी संतोष को प्राप्त नहीं होता। अर्थात् कभी तृप्त नहीं होता। बार-बार उसको पढ़ने और उसके बारे में चिन्तन करने का, सोचने का मन करता है। और ऐसा लगता है कि उसकी गहराई बहुत है। वहाँ तक शायद ही हम जा पायेंगे। लेकिन जाने की भावना तो अवश्य रखना चाहिए। वह वाणी के मल को दूर करने में सक्षम है, ऐसे व्याकरणकार पूज्यपाद को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। इतने ही मल नहीं हुआ करते। तन के मल को दूर किया जा सकता है। वाणी के मल को दूर किया जा सकता है। लेकिन मानसिक मल भी है, जो बहुत कठिन हुआ करता है। उसके लिए साबुन सोड़ा कहाँ से लायें ? यह भी एक समस्या है, पर इस समस्या का हल आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने किया है। योग के माध्यम से चित्त के मल को दूर करने में सक्षम ऐसे पूज्यपाद आचार्य को मैं बारबार नमस्कार करता हूँ। सुपूज्यपादं शिरसा नमोऽस्तु मैं उनके प्रति शिर झुकाकर यानि नतमस्तक हूँ। जिनकी कृतियों के अवलोकन करने से मालूम होता है कि इन कृतियों पर आचार्य कुन्दकुन्द का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है। पूज्यपाद स्वामी की परिभाषाओं की पूरी की पूरी छवियाँ सब आचार्यों ने अनुकरण के रूप में रख रखी हैं। चाहे अवग्रह हो या अवाय। चाहे ईहा हो या धारणा। चाहे पर्याप्ति की परिभाषा हो। न्याय के भी कुछ ऐसे ही प्रसंग हैं। धवला जैसा महान् ग्रन्थ यद्यपि टीका ग्रन्थ माना जाता है, किन्तु उसमें राजवार्तिक और सर्वार्थसिद्धि को एक मूल सूत्र का ही रूप धारण करके अपनी टीका में इस ढंग से समाविष्ट कर दिया है, जैसे ताने-बाने के द्वारा वस्त्र का निर्माण होता है। ढूंढने से भी नहीं मिल पाते। ऐसे पूज्यपाद स्वामी ने मात्र इतना ही नहीं लिखा, उन्होंने और क्या लिखा है योगेन चित्तस्य मलं अपाकरोत् ऐसे अध्यात्म की रचना उन्होंने की है जो प्राकृत में तो नहीं, लेकिन संस्कृत में यूँ मानना चाहिए कि कुन्दकुन्द के बाद ऐसी अध्यात्म की रचना विरल उपलब्ध होती है। ऐसा कहते हैं-चित्त का मल क्या है ? उसको समझने का प्रयास करो। एक मात्र अध्यात्म ऐसा साधन है जिसके द्वारा चित्तगत सारा का सारा मल दूर हो जाता है। आप सागर के जल से भी शुचि करना चाहो तो शुद्ध न हो। सागर के जल को सारा का सारा हम अपने शरीर पर ले लें तो शरीर भले ही शुद्ध हो जाय, किन्तु हमारा चित्त कभी भी शुद्ध नहीं हो सकता। अध्यात्मनिष्ठ पूज्यपाद स्वामी अपनी कृतियों में ऐसे (चुटकी बजाते हुए) योग के प्रत्यय, ध्यान के प्रत्यय, समाधि-साधना की पद्धति बताते चले जाते हैं। अनुष्टुप् श्लोक के रूप में बहुत सरलता के साथ गंभीर अर्थ को स्थापित करने का एक महान् प्रयास उनके द्वारा सम्पन्न हुआ है। चित्त मल क्या है ? यह पहचानना ही कठिन है। और वह कहते हैं कि उसमें क्या बाधा है? वर्तमान में हम यह जो देख रहे हैं वह सारी की सारी चित्तगत मलिनतायें, अशुचितायें ही हैं। स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते। रत्नकरण्डक श्रावकाचार -१३ यह सूत्र तो रत्नकरण्डश्रावकाचार में दिया गया है। आज का युग शरीर को शुद्ध बनाने में क्या काम नहीं करता ? सारे के सारे काम कर रहा है। इस शरीर की निरोगता के लिये इतने सारे के सारे काम कर डाले। लेकिन इसका मूल स्रोत क्या है ? चित्त है। उसकी ओर देखने का प्रयास नहीं किया। वैज्ञानिकों ने इस बात को स्वीकार कर लिया है, कि मन की चिकित्सा पहले अनिवार्य है, तन की चिकित्सा करें, न भी करें तो चल सकता है। मन की चिकित्सा करने में आचार्यों का जो योगदान मिला, उसका वर्णन शायद ही हम कर सकें। हमें वह कार्य नहीं करना चिकित्सा का। लेकिन उस चिकित्सा को मन में उतारने का काम करना है। हम वैद्यक कार्य करने में सक्षम तो नहीं, लेकिन हम उसका अनुसरण तो कर सकते हैं। यानि उनका प्रयोग हम अपने जीवन में कर सकते हैं। पूज्यपाद स्वामी अनेक स्थानों पर आत्मा की बात सहज रूप में लिख जाते हैं कि हम जिसको समझ भी नहीं पाते। किमिदं कीदृशं कस्य कस्मात्क्वे त्यविशेषयन्। स्वदेहमपि नावैति योगी योगपरायण:॥ (इष्टोपदेश-४२) जैसे वक्ता ने कहा- जैनदर्शन में मैं को भूलने के लिए कहा गया है। और जैनदर्शन में मैं को पहचानने के लिए भी कहा गया है। दोनों बातें हैं। ख्याति, पूजा का जहाँ पर प्रसंग आ जाता है, वहाँ तो मैं को भूलने के लिए कहा है। और एक बार जब मैं को भुला दिया तब बाद में यह पूछना आवश्यक हो जाता है कि- मैं कौन हूँ ? दूसरे के सामने जब मैं को भूलेंगे, तभी सेवा हो सकती है। तभी दूसरों के गुणों को हम पहचान सकते हैं। तभी दोष-गुण के बारे में छानबीन कर सकते हैं। यदि मैं रहेगा तो सारा का सारा कार्यक्रम ठप हो सकता है। उनकी यह दृष्टि बहुत अच्छी लगी। लेकिन अब उनको यह चाहिए कि मैं कौन हूँ ? यह पहचाना जाए। मैं को भुलाने से बहुत बड़ा काम हो सकता है। मैं कौन हूँ ? यह जानकर, जैनदर्शन क्या है ? इसको प्रस्तुत करना है। और पूर्वाचार्यों के द्वारा जो बड़े-बड़े उपकार हुए हैं, उनको हम इसी ढंग से, उस भार को थोड़ा-सा कम कर सकते हैं। यह हमारा दायित्व है। संसार में सबसे बड़ा कार्य है दायित्व को अपने हाथ में लेना। कोई व्यक्ति उपदेश देता है, उस उपदेश के अनुसार चलना, यह विशेष दायित्व नहीं माना जाता। यह कर्तव्य है। लेकिन दायित्व रूप कर्तव्य यह सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। जिसके पास तन की, मन की, वचन की, क्षमता होती है, स्व व पर का जिसे अर्थबोध हुआ है, उनका यह कर्तव्य व दायित्व होता है कि आगे बढ़कर/आकर जिनको इसका परिचय नहीं है, उनको परिचय करायें। गुफा में रहकर हमारे आचार्यों ने आत्मानुभूति करली। ध्यान लगाया और ध्यान के प्रत्ययों को कम्पोज्ड कर दिया। वह जीवन कैसा है ? क्या है ? किस प्रकार का है ? किसका है ? कहाँ से है ? क्यों है ? कहाँ पर है ? सांसारिक विषयों से यदि ऊपर उठना चाहते हो, तो इस प्रकार की जिज्ञासायें होनी चाहिए। एक तरफ वैज्ञानिक युग है जो जिज्ञासा को प्रमुख बनाकर चलता है। आज व्यक्ति जिस किसी भी पदार्थ के बारे में, जितने प्रश्न खड़ा कर देगा वह पदार्थ उतनी लाइट में आ जायेगा। इसलिए ध्यान रहे युगों-युगों बीत गये इसके द्वारा आज तक कुछ हासिल नहीं हुआ। और हो भी नहीं सकता। समुद्र मंथन हुआ, सागर मंथन के बाद भी नवनीत का वह लाभ नहीं हुआ। और हो भी नहीं सकता। जिसका मंथन करना आवश्यक है वह नहीं करते। क्या नीर के मंथन से नवनीत पाते। नवनीत के लाभ के लिये दही का मंथन आवश्यक है। दूध के मंथन से नवनीत की प्राप्ति नहीं होती। यह ध्यान रखिये, आज का युग नवनीत का लाभ नहीं लेता। लोनी रूप घी का लाभ लेता है। लेकिन लोनी आज प्राप्त नहीं होती। लोनी के लिये कुछ चक्कर है, और चक्कर के लिये फुरसत है ही नहीं, इस युग को। वह सीधा निकालना चाहता है। घी कच्चा होता है। इसलिए माइण्ड के ऊपर उसका प्रभाव नहीं पड़ रहा है। कच्चा घी पाचक नहीं हुआ करता। कच्चे घी से दीपक नहीं जलाये जा सकते। कच्चा घी नासिका को सुगन्ध नहीं पहुँचाता है। कच्चा घी माइण्ड को कच्चा ही रखता है। वह पक्का नहीं बना सकता। नवनीत की मालिश कर दें तो वह भीतर नहीं जाता। अग्निपरीक्षा के बिना घी भीतर प्रविष्ट नहीं होता। और सात चमड़ियों को पार करने की क्षमता, जैसे बड़े-बड़े बनियों के पास सात समुद्रों को पार करने की क्षमता रहती है, उसी प्रकार उस घी के पास रहती है। और किसी भी तेल के पास यह हिम्मत नहीं कि वह भीतर पहुँच जाये। घी पतला माना जाता है। वह अग्नि से साक्षात्कार करके आया है। अत: भीतर हड़ी तक पहुँच जाता है। वह मल का संशोधन कर लेता है। आचार्यों ने तपस्या के माध्यम से हमें ऐसे सूत्र दिये हैं जो घृतवान हैं। वे हमारे जीवन को पूरा का पूरा संशोधित कर देते हैं। भीतरी विकार को बाहर निकालकर फेंक देते हैं। और उसकी एक चम्मच भी दस रोटी के साथ तुल सकती हैं। दस रोटी के माध्यम से जो शक्ति आ सकती है वह एक छटाक भर से आ सकती है। वह कहता है बड़ी काया को लेकर क्यों बैठे हो, हमारे सामने ? छोटी काया वाला व्यक्ति भी बहुत बड़े-बड़े काम कर सकता है, यह ध्यान रखना चाहिए। यह एक ही पर्याप्त है। इतना ही आप लोगों को सोचना चाहिए कि ज्यादा मेहनत न करके ही बड़ा कार्य हो जाय, सफलता जल्दी मिले, इस ओर दृष्टि करना चाहिए। उसके लिये आचार्यों ने ऐसे-ऐसे सूत्र दिये हैं, जिन सूत्रों के माध्यम से एक घंटा चिन्तन करके ही वर्षों की पढ़ाई, अध्ययन, विशेष साहित्य के अवलोकन या सपरिग्रही होकर साहित्य का अम्बार पढ़ने से अधिक है। एक सूत्र को उठा लीजिये, पूरा का पूरा जीवन ही आह्वादित हो जाएगा। ध्यान अपने आप ही लग जाता है। ध्यान के सूत्र को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं। सूत्र बहुत ही अधिक अर्थ को लिए हुए रहते हैं। यह किसका है ? यह क्या है ? यह क्यों है ? किससे है ? कहाँ है ? इस प्रकार बाहरी पदार्थों के बारे में प्रश्न मत करो। इस प्रकार जो विचार श्रेणी बहिर्मुखी है, उसे अन्तर्मुखी करो। एकाग्र मन हो आप सुन रहे हैं। बाहर क्या हो रहा है ? आजू-बाजू में क्या हो रहा है ? पीछे क्या हो रहा है ? ज्ञान होते हुए भी उस ओर का सम्बन्ध टूट गया है। एक दायित्व ऐसा भी जरूरी है। पूर्वाचार्यों ने हम लोगों के लिये क्या दिया है ? व्यक्ति यह समझना नहीं चाहता। और दीर्घकाल का जीवन यों ही खो देता है। तो पूज्यपाद का नाम लेने से कोई भी प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं। उन्होंने यूँ कहा कि इसका प्रयोग करो अपने आप ही स्वदेहमपि न जानाति अपने शरीर को भी नहीं देखना, नहीं जानना और शरीर को जानने से, देखने से छानबीन करने से आत्मा भुलावे में आ गई। आज का विज्ञान पर को विषय बनाता है। उसमें ही शोध करता है और सम्यग्ज्ञान पर को विषय बनाना छुड़ा देता है। उसका शोध तो हो ही नहीं सकता। क्योंकि उसका शोध किसी भी प्रकार से हमारे जीवन की उन्नति का कारण नहीं है। और यदि स्व का शोध होता है तो वहाँ पर संस्कृत में मैं नहीं कहा जाता। अपितु अहम् कहा जाता है। संस्कृत में अहम् तो कहा जाता है, लेकिन पूज्यपाद कहते हैं- अहंकार से दूर रहना। विज्ञान इस अहम् का, जिसको शरीर भी बोलते हैं, तो ज्ञान करा देता है। लेकिन रोग की जड़ शरीर नहीं अहंकार है, को भुलावे में नहीं ला सकता । बड़े-बड़े चोटी के विद्वान्, विदेश में तो चोटी के विद्वान् नहीं होते, लेकिन फिर भी कहने में आता है, वह कभी स्व को विषय नहीं बनाते। अपने ऊपर प्रयोग करने की एकमात्र पद्धति है तो वह दिगम्बर आचार्यों की है। जब तक अपने ऊपर प्रयोग नहीं किया जा सकता, तब तक तनगत, मनगत और वचनगत मल को दूर नहीं किया जा सकता। जिसके मन, वचन, काय शुद्ध नहीं है, वह युग को कभी भी शुद्धि का बोध या उपदेश नहीं दे सकता। स्वयं तो मलीन है और दूसरे के लिये वह निर्मलता का बोध करा दे, यह बात कैसे हो सकती है ? आज का युग शोध का युग माना जाता है। सब व्यक्ति शोध-शोध करके रख रहे हैं। समझ में नहीं आता वस्तु क्या है ? वस्तु का धर्म क्या है ? मैं कौन हूँ? मेरा कर्तव्य क्या है ? इतना ही बोध नहीं हुआ और हमने वर्षों जीवन यापन किया। यह तैल, नोन, लकड़ी की बात युगों-युगों से आयी है। इसकी कोई आवश्यकता नहीं। अर्थ विकास के लिये कोई विशेष मेहनत, पुरुषार्थ और पसीना बहाने की कोई आवश्यकता नहीं। किन्तु निरोग बनने के लिए तन से, मन से और वचन से कुछ बातें सोचना अभी और आवश्यक है। जिस व्यक्ति का मन शुद्ध नहीं है, वह व्यक्ति वचन कितने भी शुद्ध बोले, वस्त्र कितने भी साफ रखे और वस्त्रों को और साफ भी कर ले, तो भी उसका मन साफ नहीं हो सकता। तृप्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। तृप्ति का शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता। जो स्नान नहीं भी करते, वे मन शुद्ध होने के कारण हमेशा-हमेशा शुद्ध तत्व का अनुभव होने के कारण, अपने आप में शुचिता का अनुभव करते हैं। तन को शुद्ध कर ही नहीं सकते। यहे भी एक सूत्र दिया गया है | यह रत्नकरण्डकश्रावकाचार की यह कारिका है। कैसा अंग है ? कई लोगों की यह धारणा है, वह स्त्रियों से बचने के लिए कहा गया है। नहीं, जिस-जिसने अनंग को धारण कर लिया है, उस उससे बचने के लिए कहा गया है। महिलाओं के लिए यह बात है तो पुरुषों के लिए भी है। मल योनि, मलबीजं यह अंग मल की योनि है। यह मल का बीज है। बीज बोने से मल ही पैदा होगा। क्योंकि यह शरीर मल का बीज है। मल को बहाता है। गल्न्मलं पूति यह घिनावना है। बीभत्सं यह देखने लायक नहीं है। अरे! उस व्यक्ति को देखने से ऐसा लगता है कि बहुत बीभत्स रूप देखकर आया हूँ। अरे! व्यक्ति को देखकर नहीं। यह पंचेन्द्रिय के विषय देखकर सोची। विरमति अंग से विराम लेता है। ऐसा कहा जा रहा है। कोई भी मानव है, ऐसा कहा जा रहा है। अंग को आप भोग बना रहे हैं, यह गलत है। हमने मूकमाटी में कुछ ऐसे शब्दों को लेकर के चिन्तन करने का प्रयास किया है। उसमें सामने एक अंगना को रखा है। अंगना अर्थात् स्त्री या महिला। अंगना यह शब्द स्वयं बता रहा है-अंग ना। मुझे तुम अंग के रूप में देख रहे हो। सोची, विचार करो। मैं अंग नहीं। अंग से हटकर अन्तरंग में भी जाने का प्रयास करो। मेरी आत्मा और तुम्हारी आत्मा में कोई अन्तर नहीं है। जो अनादि से आत्म तत्व चला आ रहा है, हमारा भी वही है और तुम्हारा भी वही। चाहे एकेन्द्रिय हो या पंचेन्द्रिय। चाहे नारकी हो चाहे देव। चाहे मनुष्य हो या तिर्यच। महिला हो या पुरुष। पुरुष कहने से आत्म तत्व का बोध होता है। जीव और पुद्गल यह जैनदर्शन के अन्तर्गत कहा जाता है। और सांख्यदर्शन में प्रकृति और पुरुष कहा जाता है। आज के युग में कुछ ऐसे-ऐसे शोध होते चले गये, जिसके परिणाम स्वरूप किसी ने व्यवहार को पकड़ा, किसी ने निश्चय को पकड़ा, किसी ने नीति को पकड़ा, किसी ने पुरुषार्थ को पकड़ा। महाराज, आपका इसके बारे में क्या आशय है, अभिप्राय है ? मैं सुनना चाहता हूँ। किसके बारे में? नीति के बारे में। अच्छी बात है, हम नीति को बता देते हैं आपके सामने। पसंद आ जाय तो रख लो, नहीं तो नहीं। नि अर्थात् निश्चय इति अर्थात् विश्राम या प्रयत्न इसी का नाम नीति है। महाराज! आपने सारा का सारा घुमा दिया हम लोगों को। आप घूमते क्यों हो ? सुनो, यही निश्चय बात है, अपने में ही पुरुषार्थ हो सकता है। पर द्रव्य के ऊपर पुरुषार्थ करना हमारे वश की बात नहीं। विज्ञान स्व को विषय बनाना नहीं चाहता, और पर के ऊपर ही प्रयोग करता है। प्रत्येक रोग का निदान पर के ऊपर प्रयोग करके होता है। कहा जाता है-अनुभूत दवाई है टी.वी. की। डायबिटीज की दवाई भी अनुभूत है। क्षय की दवाई भी अनुभूत है। और कोई भी रोग है उन सबकी दवाई भी अनुभूत है। अनुभूत कैसे ? कौन सा भूत आ गया ? अनुभूत का अर्थ क्या होता है ? रिलाइज। कैसे रिलाइज हो सकता है ? कुछ समझ में नहीं आता। दूसरे का अनुभव आप कैसे कर सकते हैं ? इसका का नाम युग है। कब तक चलता है ? जब तक पेट्रोल है, जब तक चल रहा है। स्वयं के ऊपर प्रयोग करेंगे तभी ज्ञान होगा। जैनाचार्यों ने पर के ऊपर प्रयोग करने को नहीं कहा। स्वयं के ऊपर प्रयोग करने को कहा है। प्रकृति के इस बोध को ले लो। गर्मी को भी ले लो। सर्दी को भी ले लो। और वर्षा को भी ले लो। सूर्य प्रकाश को भी ले लो। सबको ले लो। सारे के सारे तत्व प्रकृति में है। प्रकृतिकृत हैं। यह भी प्रकृति है कि हमारे आत्मा में ये कभी भी प्रविष्ट नहीं होंगे। और प्रकृति से जैसे-जैसे हम परिचित होते चले जायेंगे, वैसे वैसे रोगों का आना बंद हो जायेगा। पूज्यपाद स्वामी कहते हैं-मन में जो राग आया है, मन में जो मल पैदा हुआ है, बाहर से पैदा नहीं हुआ, यह ध्यान रखना। वह अपना ही परिणमन है। यदि बाहर से आया हेाता तो खाली हो सकता है। यदि कहीं से आया हो तो वह पदार्थ भी खाली हो गया होगा। द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः॥ तत्त्वार्थसूत्र – ५/४१ कल सामने आने वाला है। शायद राग, द्वेष, मद व मत्सर बाहर को निमित्त बनाने से आते हैं। यह हमारे दिमाग की फितूरी है। भ्रमणा है। यह हमारी उल्टी चाल है। उस राग-द्वेष-मोह को उस पदार्थ के निमित्त से यदि पैदा कर दिया तो ध्यान रखना, कर्ता का महत्व हुआ करता है, कर्म का नहीं। कर्ता हमेशा स्वतन्त्र हुआ करता है। कर्म हमेशा कर्ता के अधीन हुआ करता है। यदि कर्ता चाहे तो कर्म का निर्माण कर सकता है, नहीं तो नहीं। कर्म यह नहीं कह सकता कि मुझे पैदा कर दो। स्वतन्त्र सत्ता का अनुभव निमित-उपादान का चिन्तन-मनन वहाँ बैठकर करते थे, जहाँ कोई कालेज नहीं, यूनिवर्सिटी नहीं, अध्यापक नहीं, स्पीकर नहीं, यह नहीं, वह नहीं। आज एक-एक वाक्य के ऊपर बड़े-बड़े चोटी के विद्वान् शोध करते बैठे हैं। फिर भी पूरा नहीं हो रहा है। ऐसा जैन साहित्य आप लोगों के लिए उपलब्ध है। जैनाचार्यों की यह कृपा है। जिनवाणी का अध्ययन करने से मैं कौन हूँ ? पर क्या है ? मेरा क्या है ? मुक्ति क्या है ? पाप क्या है ? पुण्य क्या है ? भला क्या है ? बुरा क्या है ? मैं क्या कर सकता हूँ ? इन सब बातों का विश्लेषण अर्थात् अकार से हकार पर्यन्त वर्णन मिलता है। अर्थात् सब कुछ अच्छी तरह मिलता है। अ से लेकर ह तक कोई नहीं कहता, जबकि बात एक ही है। अ से लेकर ह तक कहने में एक विशेष बात आ जाती है। पूज्यपाद स्वामी कहते हैं अहम् का ज्ञान हो जाता है। और ए टू जेड कहने से अहंकार आ सकता है। कितना अन्तर है ? कितना समझा आपने ? स्व का ज्ञान हुआ, तो पर का ज्ञान निश्चित हो जाता है। य एक जानाति स: सर्व जानाति जो एक को जान लेता है वह सबको जानता है। क्योंकि एक के बिना सब का अस्तित्व ज्ञात नहीं हो सकता। जैसे-जैसे एक के सामने शून्य रखते चले जाओ, संख्या बढ़ती चली जाती है। एक को हटा दो तो शून्य का कोई महत्व नहीं। उसका मूल्य एक मात्र जीरो में आ जाता है। स्व के ज्ञान के अभाव में पर को आप कितना भी जानते चले जाओ, संख्या के अभाव में संख्या न कहके अंक कह दो तो बहुत अच्छा होगा, अंक के अभाव में शून्य का कोई महत्व नहीं। इसी प्रकार स्व के अभाव में पर का कोई महत्व नहीं। प्रत्येक पदार्थ पर आज मूल्य लिखा जाता हे। लेकिन मूल्यांकन करने वालों का मूल्य सुनने व देखने में नहीं आता। स्वर्णकार का महत्व नहीं, स्वर्ण का महत्व है। यही एकमात्र हम लोगों का अज्ञान माना जाता है। अपने पदार्थ का ज्ञान तब तक नहीं होता, जब तक कि बाहरी पदार्थों को विषय बनाता है। बात समझ में नहीं आई। क्या उपयोगी है ? मान लो किसी पुस्तक के ऊपर लिखा हुआ है-पाँच सौ रुपये। अर्थात् पुस्तक का मूल्य पाँच सौ रुपये है। यहाँ तुम्हारे समय की कोई कीमत नहीं। पाँच सौ रुपये की कीमत वाली किताब तुम पढ़ोगे। मान लो उसे पढ़ने में एक माह लग गया, तो एक माह को ही आपने पाँच सौ रुपये के पीछे समाप्त कर दिया। यहीं सबसे ज्यादा सावधान होना चाहिए। आप लोगों को मुफ्त में जो साहित्य मिलता है, उसे वैसे ही रख देना चाहिए। वह थोड़ी सी कीमत खर्च करके आपके पास जो मौलिक समय है उसको खरीद रहा है। आपके विचारों को दूषित बनाने के लिए ऐसा कोई भी साहित्य दिया जा सकता है। प्रवचन और स्वाध्याय तो कुछ प्रतिशत में प्रभावी होते हैं। जबकि सस्ते साहित्य का मन के ऊपर प्रभाव अधिक व शीघ्र होता है। इसीलिये आचार्यों ने कहा-क्या पढ़ना चाहिए ? कब पढ्ना चाहिए ? कितना पढ़ना चाहिए ? जिसको पढ़ने से आनन्द का अनुभव हो उसे ही पढ़ना चाहिए। आनन्द का अभाव हो, तो चाहे समयसार पढो, प्रवचनसार या पंचास्तिकाय, कोई अर्थ नहीं। आनन्द का अनुभव दिमाग से, अपनी चेतना से हुआ करता है। प्रयास करना चाहिए खाते जायें, खाते जायें तो क्या पुष्टि हो जायेगी। ऐसा नहीं, फिर दवाई भी खानी पड़ेगी। एक बार या दो बार भोजन किया जाता है। इसका तात्पर्य यह कि, शब्द से अर्थ व अर्थ से भाव की ओर यात्रा का प्रयास हम कर सकते हैं। सत्साहित्य का अवलोकन करने से ही हमें यह उपलब्ध हो सकता है। हमारी जो दूषित मानसिकता है, उसको सत्साहित्य के माध्यम से परिमार्जित किया जा सकता है। हम राग को, द्वेष को, कषाय को, मद को व मात्सर्य को अज्ञान के कारण करते आ रहे हैं। उसका परिमार्जन सत्साहित्य के द्वारा ही हो सकता है। आचार्यों के माध्यम से ही हमें जिनवाणी उपलब्ध हो पा रही है। समय आपका हो गया है। आज शौच धर्म है। शुचिता प्राप्त करना है। पाँच बज गये हैं। पाँच मिनट और ले सकता हूँ। पाँच-पाँच घंटे भी ले लें तो भी मन की शुचिता होने वाली नहीं है। उसका प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है। हमें उस मन को साफ-सुथरा बनाने के लिए क्या करना चाहिए ? स्वयं का स्वभाव ज्ञात करना आवश्यक है। राग करना मेरा स्वभाव नहीं है। और राग के द्वारा लाभ क्या है ? हानि क्या है ? यह देखने का प्रयास करना चाहिए। राग करने से हमें कोई लाभ नहीं। हमें कोई उपलब्धि होने वाली नहीं। उससे हानि क्या है ? लाभ क्या है ? यह देखना चाहिए। वैश्य-वृत्ति जब तक हम नहीं अपनायेंगे तब तक हमारी दुकान चलने वाली नहीं। हानि-लाभ पहले सोचना चाहिए। बच्चों को यदि सिखाओ कौन सा ज्यादा है, कौन सा कम है, तो अपने आप कहने लगते हैं-ये मत लो, ये ले लो। दो मिनट का उदाहरण दे देता हूँ। जीवन के अन्त तक अनुभव करता रहता है वह बालक। छोटा बालक रेंगता रहता है, अपनी कलाई के माध्यम से, पेट से, पीठ से सरकता-सरकता आगे जाता है। दीपक रखा है, मना करने के उपरान्त भी हाथ से छू लेता है। माँ ने कई बार मना किया था। बेटा, दूर से देख लेना, छूना नहीं। छूना नहीं, छूना नहीं। संकेतों के माध्यम से समझा दिया जाता है। इसका अर्थ पकड़ना नहीं। अग्नि का ज्ञान कराया जा रहा है, और अग्नि सामने दिख रही है। बहुत अच्छा लग रहा है, ऊपर तक जल रही है, बहुत ही अच्छी लग रही है। लेकिन कोई भी बूढ़ा व्यक्ति उसे कभी नहीं छुयेगा। वह वृद्ध है और वह बालक है। बालक को देखने में तो आ रहा है लेकिन बालक को अनुभव नहीं। वृद्ध ने अनुभव कर लिया। जिस समय वह बालक था अंगुली जल गई थी। पहले की जली हुई है और दाग है। उसी अंगुली द्वारा माँ कह रही है, संकेत कर रही है, पर वह मानता नहीं। और उसको पकड़ लेता है। और तब उं उं उं करने लग जाता है। माँ कहती है-पकड़ ले, और पकड़ ले। दीपक उठाकर के पकड़ ले, पकड़ ले। लेकिन अब वह दूर भागता है। दूर करो। अर्थात् प्रकाश के द्वारा काम लेना चाहिए। दीपक का उपयोग यही है। अन्यथा उसके बारे में रिसर्च करने का कोई भी प्रयोजन नहीं। दीपक से प्रयोजन हम भी यही जान सकते हैं, जो वह तीन साल का लड़का जानता है। तीन साल में जो कोई भी संस्कार डाले जाते हैं माता-पिता, भाई-बहिन गुरुओं के माध्यम से, वह जब तक वृद्ध होकर मृत्यु को प्राप्त नहीं होता, तब तक के लिये जीवित रहते हैं। ऐसे संस्कारों के दिनों में पढ़ा, पला हुआ आपका जीवन है। किन्तु अर्थ का चक्कर ऐसा चक्कर हो गया जो विदेश के साथ भी सम्बन्ध रखने लगा। विदेश से भी अन्यत्र जाने का प्रयास कर रहा है। भारत में जो है, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं। ऐसा होते हुए भी देश का बहुमान बहुत कम हो गया है। विदेश जायें, लेकिन देश की चीजें/संस्कार देकर के आयें। देशी चीज अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। अपने देश का कोई ज्ञान नहीं है। क्या देश की कोई संस्कृति नहीं है ? क्या देश का कोई मूल्य नहीं है ? इसमें क्या कमी है ? किस बात की कमी है? वह देश क्या ? स्वदेश तो आत्मतत्व है। किसकी कमी है। किसकी कमी है आत्मतत्व में ? पूरी की पूरी भरी हुई है। दुनियाँ में क्या है ? इसे दिखाने की क्षमता आत्मतत्व में है। उस कर्ता के पास है। उस उपभोक्ता के पास है। उस स्वामी के पास है। किन्तु वह बहुत पास होने के कारण दूर की ओर बालकवत् जाता है। बालक को आज, कल या मरते वक्त अनुभव आता है। यदि मनुष्य जीवन में प्रयोजनभूत तत्व के मंथन के लिये कुछ क्षण उपलब्ध नहीं होते हैं, तो यही हुआ जैसे सागर से निकलकर आये गंगोत्री में और गंगोत्री से बंगाल सागर में। इस यात्रा का क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ ? कुछ नहीं। इस प्रकार दीर्घकाल को भी आप गवां देते हैं, अर्थ के पीछे। मेरा तो यह कहना है कि स्वाध्याय करना बड़ा कठिन है। लोग स्वाध्याय कर रहे हैं। लेकिन फिर भी स्वाध्याय करते हुए भी २०-२२ घंटे अर्थ उपार्जन को दे रहे हैं। उनसे हमारा निवेदन है कि वे पूरा का पूरा समय इस ओर देने का प्रयास करें। उनके द्वारा बहुत बड़ा काम हो सकता है। एक तो तैयार हो गये हैं। वह क्यों हो गये हैं ? यह तो वही जाने। पर तैयार हो तो गये हैं। लेकिन उनके साथ-साथ अभी जो आद्य वक्तव्य दे रहे थे। बड़े-बड़े विशेषणों के साथ विशेष्य का वर्णन किया जा रहा था। उनसे भी हमारा कहना है-वह किसी के कहने को मानते तो हैं नहीं, और मैं भी जानता हूँ। वे माने या न माने लेकिन कहने से सभा में थोड़ा-सा प्रभाव तो पड़ ही जायेगा। आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज जब थे, तब से वह हैं। बहुत पुराने आसामी हैं। तब से शास्त्र स्वाध्याय करते हैं। इस स्वाध्याय के अलावा जो दैनंदिनी कार्य कर रहे हैं, उसमें किसी प्रकार की कमी नहीं आ रही है। यदि आ रही है तो बहुत अच्छी बात है। महाराज ही कहते-कहते चले गये। मैं ब्रह्मचर्य अवस्था में था, उस समय वे कहते थे। अब मैं कह रहा हूँ। आज उनको अपना समय उस कार्य को छोड़कर इसमें लगाना चाहिए। हम स्व का कल्याण तो करते ही हैं। लेकिन उसके साथ और भी दस-बीस व्यक्तियों का जीवन सुधर जाता है, मुड़ जाता है, तो यह श्रेय आपको ही मिलेगा। हमें देना भी नहीं। कम से कम इस लाभ से तो आपको वंचित नहीं रहना चाहिए। वैसे तो सेठ वही माना जाता है जो अपनी दुकान को बहुत बढ़िया चलाना जानता है। जितनी पर की दुकान अच्छी चलेगी, उतनी ही हमारी दुकान भी अच्छी चलेगी। इस नीति को नहीं भूलना चाहिए। एक से, एक सौ एक तक बनाना चाहिए। ग्यारह से एक नहीं। जैन धर्म की प्रभावना तो होगी ही। भावना के माध्यम से अपना जो आत्मतत्व दूषित है, इस प्रकार से धूमिल है, हम उसे उज्ज्वलता/निर्मलता दे सकते हैं। इन्हीं भावों के साथ शौचधर्म की जय हो.
  14. तप विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार तप कर्मों के क्षय के लिए/किए जाते हैं ख्याति-लाभ पूजा में लिए नहीं। तपों के उद्देश्यों के बारे में सोचते हैं तो ज्ञात होता है कि साधना का फल अलौकिक होता है। इच्छा निरोध: तपः।इच्छा पर वस्तु की होती है, इच्छा निरोध होते ही निर्जरा प्रारम्भ हो जाती है। इच्छा मन का ही नाम है, उसी का निरोध करना तप कहा है। प्रभाकर (सूर्य) जब तक धरती को नहीं तपाता तब तक वर्षा नहीं होती। नौ दिन तपते हैं तपा, बीच में न चूयें तो अच्छा पानी गिरता है। आप भी जब तक मुक्ति नहीं पाओगे तब तक १२ तप तपने ही होंगे, तभी शांति उपलब्ध होगी। तपस्या कठिन-सी लगती है, लेकिन जिसे इसका फल एवं इस पर श्रद्धान रहता है वह कभी कठिन नहीं मानता। २८ मूलगुणों को तप नहीं कहा वे तपा के पूर्व के दिन है, तप तो १२ होते हैं। इस हीन संहनन के साथ आज जो अंतर्मुहुर्त साधना कर लेता है तो उस काल से कई गुणी मानी जाती है। आज रेत के ढेर में एक हीरे की कणिका की भाँति यह तप दुर्लभ है। मूल्यहीन मिट्टी में घड़ा बनने की क्षमता तप के कारण ही उद्धाटित हुई है। तपस्वियों के चरणों में जाओ यदि संसार सागर से पार होना चाहते हो तो, क्योंकि वे जहाज हैं संसार सागर से पार लगाने में। तप साधना के माध्यम से उत्कृष्ट अवस्था का अनुभव किया जा सकता है। जिस प्रकार अग्नि के माध्यम से पाषाण में से स्वर्ण पृथक् किया जाता है वैसे ही हम तप रूपी अग्नि के माध्यम से शरीर से आत्मा को पृथक् कर सकते हैं। तप रूपी अग्नि से शरीर नहीं जलता बल्कि कर्म वर्गणायें जलने लगती हैं। ज्ञानावरणादि आठ कर्मों को जलाने के लिए भिन्न-भिन्न तप रूपी भट्टियाँ (अग्नि) हैं। तप कर्मों को नष्ट कर देता है और रागद्वेष, क्रोध तप को नष्ट कर देते हैं। जैसे दवाईयाँ रोग को ठीक भी करती हैं और अनुपात गड़बड़ाने से प्रतिक्रिया (रिऐक्शन) भी करती हैं। इच्छाओं के माध्यम से स्व एवं पर को नष्ट भी किया जा सकता है, लेकिन तप के द्वारा स्व पर का कल्याण भी किया जा सकता है, इसलिए कहा है इच्छा निरोध: तप:। तप में जोखिम बहुत है, यदि उस समय हमारी दृष्टि साधना की रहती है तो ठीक है वरना तप स्वयं को भी हानिकारक हो सकता है। अपना ही शस्त्र अपने को ही घातक सिद्ध हो सकता है। वीतराग दृष्टि समाप्त हो जाने पर तप जल जाता है। जलाने वाला भी बुझ सकता है। जिस प्रकार अग्नि भगोनी में रखे दूध को तपा/जला रही है लेकिन असावधानी से यदि भगोनी लुढ़क गयी तो वही दूध/पानी अग्नि को भी बुझा देगा। संसार में आत्मा को कंचन का रूप यदि कोई दे सकता है तो वह है तप रूपी अग्नि। तप, ध्यान करने के लिए पहले भूमिका चाहिए। चार संज्ञाओं से ऊपर उठना, पंच पापों का त्याग करना, मन और इंद्रियों को जीतना, समता रखना, फिर ध्यान लगेगा। तप करते समय लक्ष्य ध्रुव की ओर ही होना चाहिए वरन् दिशा बदलने से दशा ही बदल जाती है। मंत्रसिद्धि वालों को मैंने देखा है दिशा बदलने से उनकी दशा ही गड़बड़ा जाती है। तप को अनुपात से करना चाहिए एवं उसका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। इंद्रिय और मन के उद्रेक को हटाने की अपेक्षा से तप करिये शरीर को नष्ट करने के लिए नहीं। शक्ति के साथ-साथ युक्ति से तप करना चाहिए, तभी मुक्ति का लाभ होता है। तप के माध्यम से मन पर क्या प्रभाव पड़ रहा है ? यह भी देखना चाहिए। मन का उद्रेक कम हुआ कि नहीं, कषायों में मंदता आयी है कि नहीं, कर्म ढीले हुए हैं कि नहीं। प्रारम्भ में अग्नि सुलगाते समय थोड़ी-सी हवा की फूँक दी जाती है और जब अग्नि सुलगने लगती है तो उसे (सिगड़ी को) खुली हवा में रख देते हैं, ठीक यही प्रक्रिया तप करने की है। जलते हुए स्टोव में बर्नर में कचरा आने पर अग्नि गड़बड़ा जाती है उसी प्रकार तप करते समय प्रलोभनादि कचरा मन में आ जाता है तो तप गड़बड़ में आ जाता है। इच्छा का निरोध करना कठिन है, बंधुओं यही कार्य करने योग्य है और इस भव में यही करना है, इच्छा करना तो बहुत आसान है। तप करते समय (विकृती न होवे) तन और मन विकृत न हो यह ध्यान रखना चाहिए, तभी तप करना सार्थक होगा।
  15. संयम विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार संयम शरीर के बिना गाड़ी आगे नहीं जा सकती इसलिए औदारिक शरीर का बड़ा महत्व है, चूँकि औदारिक शरीर के बिना "संयम का दर्शन नहीं हो सकता”। औदारिक शरीर छूटते ही असंयम में (देवगति) जाना पड़ता है, इसलिए शरीर की एकदम उपेक्षा करने से पाप का/ असंयम का समर्थन हो जाता है। रोग होने पर औषधि न ली जायेगी तो शरीर जल्दी छूट जायेगा तो कहाँ जाओगे, स्वर्ग में। वहाँ क्या है ? असंयम! तो ध्यान रखो, असंयम का समर्थन हो जायेगा। टायर पंचर हो जाने पर गाड़ी नहीं बदली जाती बल्कि पंचर सुधार कर गाड़ी से काम लेते रहते हैं। संयम की रक्षा के लिए थोड़ा दोष क्षम्य होता है। जैसे लेख में (अल्प विराम, पूर्ण विराम।) क्षम्य होता है। पैराग्राफ (गद्यांश) छोड़ देना क्षम्य नहीं है। असंयमियों के बीच में रहकर संयम का पालन करना बहुत कठिन होता है। मनुष्य पर्याय को इन्द्र भी तरसते हैं, क्योंकि मनुष्य पर्याय में ही पूर्ण संयम को धारण किया जा सकता है। स्वर्गों में तो संयम की गंध तक नहीं आती। संयम और आचरण से ही धर्म का प्रारम्भ होता है। कषायों से घिरा मन विश्वास के योग्य नहीं है, मन वही है जो संयत है। मन पागल हो गया और काट रहा है तो कोई इंजेक्शन नहीं है, मात्र एक संयम ही उसके लिए इंजेक्शन है। आपकी गाड़ी का ब्रेक फेल है और गाड़ी वेगवान है, बस भगवान का नाम लो, कहाँ जावेगी यह गाड़ी? पता नहीं। आत्मा को स्वच्छ, स्वतंत्र बनाना चाहते हो तो मन पर लगाम लगाओ। विकल्पों को तोड़ने का एवं इच्छाओं को संयत बनाने का प्रयास करते रहना चाहिए। आत्मा की उन्नति चाहते हो तो संयम से डरना नहीं चाहिए बल्कि मन को दण्डित करते रहना चाहिए। मन पर लगाम लगाने का नाम संयम है। हमारा मन हमेशा पतन के गड्डे में गिरा देता है। तत्व को पढ़ा नहीं जाता, प्राप्त किया जाता है। वैराग्य के समय भगवान की पालकी असंयम की सेवा करने वाले देवतागण नहीं उठा सकते। ज्ञान पाने का नहीं ज्ञान को रोकने का नाम संयम है। संयम के अभाव में जीवन खतरनाक सिद्ध होगा। जीवन का पतन जिससे हो वह विराधना है, साधना नहीं। बिना साधना के जीवन भारमय हो जावेगा। संयम के माध्यम से ही महान् आत्माओं ने स्वयं का एवं दूसरों का कल्याण किया है। संयम अनंतकालीन असंयम को दूर कर देता है। सहारा मिलने पर भी दुरुपयोग करोगे तो कल्याण नहीं होगा। असंयमी को संयमी से डर नहीं, संयमी को ही असंयम से डर रहता है। जो असंयम से डरता है वह सम्यक दृष्टि है, पाप भीरुता होनी चाहिए। असंयम जीवन के लिए अभिशाप है। सम्यक दृष्टि असंयम की सतह पर रहता है, उसमे डूबता नहीं है, क्योकि वह संयम की तलाश में रहता है। अध्ययन के बाद की परीक्षा में जैसे कठिनाई होती है, वैसे ही सम्यक दर्शन होने पर भी संयम लेने में कठिनाई होती है। संयम से ही श्रद्धा का विषय साक्षात् देखने को मिलता है। १२वें गुणस्थान तक परोक्ष ही सम्यक दृष्टि रहता है। दूध में कभी भी घी का स्वाद आने वाला नहीं है चाहे तो उसे वर्षों तक रखे बैठे रहो। सम्यक दृष्टि वह है जो संयम की ओर दृष्टि रखता है। संयम ही है जो ज्ञान को क्षायिक बनाता है, सम्यक दर्शन को परम अवगाढ़ बनाता है। पहले दीक्षा की बात कही है फिर शिक्षा लेकिन आज पहले शिक्षा फिर दीक्षा की बात करते हैं। (पहले दीक्षा काल है फिर शिक्षाकाल)। जीवन में अशुभता तभी आती है जब असंयम आ जाता है। सम्यक दर्शन अनगढ़ पत्थर है उसे गले में मत पहनना, उसमें चमक लाना महत्वपूर्ण है। चारित्र रूपी शान पर चढ़ता है तो गले का हार बन जाता है। मटमैलापन दूर हो जाता है। परम अवगाढ़ सम्यक्त्व बनाने के लिए उसे चारित्र रूपी शान पर चढ़ाना आवश्यक है। पशु न बोलने से दु:ख उठाते हैं और मनुष्य बोलने से दु:ख उठाते हैं। मन पर लगाम लगाना दु:ख का कारण मानते हो तो यह मोक्षमार्ग का विपरीत श्रद्धान है। मन बेटे के समान है, ताड़ने से पुत्र, शिष्य व मन में गुण आते हैं लाड़ करने से दोष आते हैं। उसी की बुद्धि ठीक अथवा स्थिर रह सकती है, जिसकी इंद्रियाँ उसके वश में हों। जड़ें मन में, रोग तन में। रोग का पहला घर मन ही है। जिसके मन में संयम रहता है, उसी के वचन व काय संयम रह सकते हैं। जो शिल्पी होते हैं, उनका भी एक संयम होता है, साधना होती है तभी उनकी कला की पूजा होती है। जो संयम को सौभाग्य समझकर स्वीकारता है उसका संसार थोड़ा-सा बचता है। वह संसार समुद्र से जल्दी पार हो जाता है। भगवान की प्रतिछवि, वीतरागता का आदर्श हमारे सामने हमेशा बना रहे तो हमारा सम्यक दर्शन एवं संयम सुरक्षित बना रहता है। संयम, ज्ञान और दर्शन को विकसित कर देता है। संयमी के पीछे दुनियाँ का संघर्ष नहीं आ सकता। संयम में आवरणी कर्म को हटाने की प्रक्रिया होती है। मन को संयत बनाने के लिए मन में यह विश्वास जगाना होगा कि विषयों में सुख नहीं है। संयम लेने के उपरान्त संसार वैभव इन्द्रधनुष के समान क्षणिक प्रतीत होते हैं। वह संकल्प का ही परिणाम है जो आपकी २४ घंटे रसोईघर में रहते हुए भी भोजन की ओर दृष्टि नहीं जाती है। लगाम (संयम) हाथ में है तो घोड़ा (मन) कहीं जा नहीं सकता। मन पर ऐसा लगाम लगाओ कि ध्रुव ही दिखे। वृद्धों को जैसे खेलकूद नहीं रुचते वैसे ही संयमी को इस संसार की क्रियाओं में कोई रुचि नहीं रहती। संयम रूपी निधि को उपलब्ध करने का सौभाग्य मनुष्य पर्याय में उपलब्ध होता है। संयम स्वतंत्रता के लिए होता है किसी के आश्रित नहीं रहता। संयमी किसी से डरता नहीं और किसी को डराता भी नहीं। संकल्प के बिना विचारों को मूर्तरूप नहीं दिया जा सकता, संकल्प के बल पर पूर्व कोटि वर्ष तक मर्कट (बंदर) और कुक्कुट भी संयमासंयम का पालन करते हैं। विचारों को संकल्प का रूप नहीं देते तो वे अस्थिर रहते हैं, संकल्प से परिणामों में दृढ़ता आ जाती है। जिसका जीवन संयमित होता है, वह कर्म के उदय में गाफिल नहीं होता।
  16. रास्ता सीधा ही होता है, लेकिन चलने वाला सीधा नहीं हो पाता है। मोक्षमार्ग टेढ़ा नहीं है। मार्ग हमेशा सीधा ही रहता है। भव्य के पास शान्त होने की योग्यता है। अब कम से कम सादि-अनन्त और अनादिसान्त पर्याय को प्राप्त करें, यही आर्जव धर्म का मन्तव्य है। सीधे सीझे शीत है, शरीर बिन जीवन्त। सिद्धों को शुभ नमन हो, सिद्ध बनूँ श्रीमन्त॥ जो सीधे हो गये हैं, उनको मैं बार-बार नमन करता हूँ। जो सीधे नहीं हुए हैं वे सीधे हो जाएं, इस प्रकार की भावना करता हूँ। भावना तो करना ही चाहिए। क्योंकि उसमें मेरा भी नम्बर आ जाता है। भावना तो यह होना चाहिए कि हम सब सीधे बन जायें। सूर्योदय शतक के मंगलाचरण में लिखा, यह दोहा बहुत प्यारा है। संसार में कोई भी व्यक्तित्व ऐसा नहीं दिखता जो इस दोहे के योग्य भाव लाने का प्रयास करता हो। बिन सीझे इसका अर्थ है, यहाँ विद्यमान हैं। और शीत नहीं, इसका अर्थ गर्म है। यहाँ पर विद्यमान हैं। इसलिए सशरीरी हैं, अशरीरी नहीं हैं, यह निश्चित किया जाता है। उन सिद्धों को बार-बार नमस्कार करता हूँ, जिनको कि अरिहन्त परमेष्ठी प्रत्यक्ष-परोक्ष ध्यान का विषय बनाये रहते हैं, और तीर्थकर भी जब तक घर में रहते हैं, सम्पूर्ण छद्मस्थ काल में नम: सिद्धेभ्यः कहते हैं। जिन्होंने साध्य को सिद्ध किया है, वस्तुत: वही पूज्य माने जाते हैं। पूज्य बनने हेतु जो साधन अपनाए जाते हैं, वे भी पूज्य माने जाते हैं। और कथचित् धन्यवाद के पात्र होते हैं। क्योंकि इन सारे के सारे व्यक्तियों की दिशा एक है। भले ही आगे-पीछे हो, फिर भी रास्ता वही है। कोई व्यक्ति विमान के माध्यम से जाता है, उसके लिये बहुत दाम चाहिए, तब वह विमान में बैठने का सौभाग्य प्राप्त करता है। बहुत जल्दी मंजिल तक पहुँच जाता है। यदि इतना पैसा नहीं है तो कोई एक्सप्रेस ट्रेन से चला जाता है। सुनते हैं आजकल विमान और ट्रेन के चार्ज एक जैसे हो गए हैं। उसका कारण यह है कि विमान ऊपर चला जाने पर हृदय धक्र-धक् करने लग जाता है, किन्तुरेल में ऐसा नहीं होता। यदि यह भी नहीं है तो उससे कम दाम में चलने वाला वाहन ले लेते हैं। ऐसा करते-करते कोई व्यक्ति साइकिल भी लेता है। वह भी नहीं है तो पैदल यात्रा करना शुरू कर देता है। पैदल में भी कोई चलता है, कोई दौड़ता है, कोई कूदता है। कूदने का मतलब उसी दिशा में कूदने वाला। मेंढक का भी तो नम्बर आता है, वह पंचम गुणस्थानवर्ती होता है और कमाल का काम करता है। बहुत सीधा रहता है, आप भी उसे देखने और जानने का प्रयास कीजिये। स्वामी समन्तभद्र महाराज ने ऐसे व्यक्तित्व को हमारे सामने रखने का प्रयास इसलिए किया है, क्योंकि वह भी उसे ओर जा रहा है, जिस ओर महावीर भगवान् पहुँच गये हैं। रास्ता सीधा ही होता है, लेकिन चलने वाला सीधा नहीं हो पाता है। मोक्षमार्ग टेढ़ा नहीं है। मार्ग हमेशा सीधा ही रहता है।आर्जवधर्म की क्या बात है ? आर्जव बनने की बात सोच लेना चाहिए। आर्जव का कथन नहीं आर्जव का जतन होना चाहिए। वस्तुत: आर्जव होना निकट भव्यत्व का प्रतीक लगता है। दूसरे के ऊपर यह निर्भर नहीं है, किन्तु दूसरे को देखकर किया जा सकता है। दूसरा सीधा है, इसलिए हम भी सीधे हो सकते हैं। प्रयोजन के अनुसार वह व्यक्तित्व अपनाया जा सकता है। प्रयोजन के बिना यह संभव नहीं है। आज तक कितने जीवों ने इस आर्जव धर्म की शरण लेकर अपने आपको सीधा बनाया है ? इसकी गिनती नहीं कर सकते, केवलज्ञानी ही जान सकते हैं, किन्तु वे भी बता नहीं सकते। कब से यह मोक्षमार्ग प्रारम्भ हुआ ? इसको भी वे कह नहीं पायेंगे, क्योंकि अनादिकाल से यह मार्ग खुला है, किन्तु कहने पर अनन्त ही कहेंगे। जब उन्होंने कैवल्य को उपलब्ध कर लिया, उस समय दिखा तो भी अनन्त दिखा। केवलज्ञान से पूर्व संज्ञी अवस्था में इस तत्व पर श्रद्धान करके भी मार्ग को अनन्त माना था। मंजिल या मार्ग को जानना इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना अनुभूत करना। जानना शब्दों के माध्यम से होता है। मानना आस्था के माध्यम से होता है और अनुभव करना चेतना के माध्यम से हुआ करता है।जिस समय अनुभव करते हैं, उस समय जानते भी हैं और मानते भी हैं, पर कथन नहीं करते। जिस समय कथन की प्रणाली आरम्भ करते हैं, उस समय हम उससे हटकर बाहर आ जाते हैं। अध्यात्म का यह मूल तथ्य है, और आचार्य कुन्दकुन्द जैसे महान् आचार्य अध्यात्म के अनुभव या अहसास को अत्यन्त महत्वपूर्ण मानते हैं। उनके यहाँ विश्वास और श्रद्धान भी अनुभूति परख है। बात बड़ी विचित्र जैसी लगती है कि जानना भी उनके यहाँ अनुभूति है और श्रद्धान करना भी अनुभूति है। सद्वृहदि य पत्तेदि य रोचेदि जां पुणो वि फासेदि। ज्ञान का अर्थ वहाँ पर संचेतना है। एकमेक होना है। महसूस करना है। जिस समय हम महसूस करते हैं, तब शब्द चूक जाते हैं। वाणी मूक हो जाती है और बाहरी संकेत भी अचेत हो जाते हैं। आधार भी निराधार हो जाते हैं। सब प्रवृत्तियां शान्त होती हैं, जब निवृतिपरक कार्य होने लगते हैं। जल पीऊँ, जल पीऊँ, जल पीऊँ इस प्रकार कहते हुए एक दो माला फेर लो, तो मुंह और सूख जायेगा, और सूखने के उपरान्त जल पीऊँ, जल पीऊँ यह वाणी भी बंद हो जायेगी। अगर जल नहीं पिया तो कंठ और सूखता नजर आयेगा। किन्तु जब जल पीता है, उस समय जल पी रहा हूँ ऐसा नहीं कह सकता। ऐसा कहते ही उसको जल लग जाता है, जल बाहर आ जाता है। आज प्राय: जल पीते हैं या नहीं, पर ठसका बहुत लगते हैं। आध्यात्मिक ठहाके देखने हों तो आज की संगोष्ठियों में देख सकते हैं। चर्चायें, संगोष्ठियां, ये, वे बहुत सारे हो रहे हैं, लेकिन वह दृष्टि बहुत कम देखने को उपलब्ध हो रही है। जिसमें भीतर की भी आँख बंद करके और बाहर के भी कान बंद करके आत्मतत्व का सीधा दर्शन हुआ करता है। आचार्य कुन्दकुन्द इस प्रकार के व्यक्तित्व को बार-बार नमस्कार करते हैं। द्रव्यश्रुत केवली को तो वह कह जाते हैं – न जानाति आत्मतत्वं। किन्तु भावश्रुतकेवली को बार-बार नमस्कार करते हैं। क्यों करते हैं ? क्योंकि द्रव्यश्रुत के मनन/अध्ययन/चिन्तन का प्रयोजन यही है, कि वह अपने आपमें लीन हो जाए। चलने वाला व्यक्ति चलता जाता है, उसके आजू-बाजू वाले व्यक्ति या पीछे वाले व्यक्ति सोचने लग जाते हैं कि भैया इसका यह मार्ग अलग क्यों ? बिना पूछे या बिना कहे ही पूछने लग जाते हैं। और पूछने के उपरान्त यदि वह नहीं बताता है तो यह सोचकर कि यही मार्ग सही है। उसके पीछे-पीछे लग जाते हैं। कौन पीछे लगे? उसे यह पता नहीं। लेकिन यदि वह व्यक्ति सही मार्ग पर है, तो उसके पीछे लग जाते हैं। आर्जव धर्म के बारे में यही कहा जाता है। तीर्थकरों ने धर्म का उपदेश दीक्षित होने के उपरान्त नहीं दिया। उपदेश क्या दे दें ? पहले भावेण होई णग्गो सर्वप्रथम भाव लिंगी होना ही आवश्यक कहा जाता है। क्योंकि उसका अनुभव करने के उपरान्त, द्रव्य का प्रदर्शन करना चाहिए। भाव यदि ज्ञात नहीं है और दुकान में द्रव्य को दिखाओ तो क्या होगा ? चौपट हो जायेगा। मुफ्त में ही लेकर चले जायेंगे। भाव बड़े ही महत्वपूर्ण होते हैं। लेकिन वह पकड़ में नहीं आते। लब्थ्युपयोगी भावेन्द्रियम वह सीमा को लेकर चलते हैं। द्रव्य इन्द्रिय जीवन के अन्त तक चलती है, अर्थात् उनकी निवृत्ति और उपकरण बना रहता है। भाव इन्द्रिय कई बार परिवर्तित हो जाती है। उपयोग में अन्तर्मुहूर्त के उपरान्त परिवर्तन अनिवार्य हो जाता है। एक अन्तर्मुहूर्त के लिए भावश्रुतकेवली सीधे हो जाते हैं, और अन्तर्मुहूर्त के लिये वे सीधे नहीं। एक प्रकार से वे टेढ़े हो जाते हैं। घड़ी में पेंडुलम होता है, वह सीधा लम्ब रूप में कब रहता है ? छह पर रहता है। वह बारह की ओर तो नहीं जाता। ऊपर की ओर तो जाता ही नहीं। ज्यादा से ज्यादा सात तक या इधर पाँच तक। छह पर कब आता है ? बहुत कम समय के लिए आता है। इतना ही स्पर्श हो जाय तो काफी है। यह अप्रमत्त दशा है। सीधापन इसी को बोलते हैं। कभी ऊपर से नीचे आता है, और पुन: ऊपर चला जाता है। यह उसका कार्यक्रम चलता रहता है। जो व्यक्ति एक-एक क्षण के लिये, एक-एक अन्तर्मुहूर्त के लिए शुद्धत्व का, सिद्धत्व का, पारिणामिक तत्व का सीधा स्पर्श करता है, आह्वाद का अनुभव करता है, वह कथन नहीं करना चाहता है। क्योंकि कथन करने से उस तत्व का भान किसी को होगा नहीं। उसका संवेदन किसी को होगा नहीं। और जिस समय उसका कथन करेगा, उस समय जो देने वाला है, वह भी उससे वंचित हो जायेगा। जब भोजन करते हैं उस समय श्वांस नली में एक बूंद पानी चला जाय ती ठसका लग जाता है। दो नलियाँ रहती हैं - एक भोजन नली व एक श्वांस नली। श्वांस नली में भोजन का एक दाना भी चला जाय तो ठसका लग जायेगा। और इधर दूसरी नली में जाने पर ठसका नहीं लगता। ऐसा क्यों ? मोक्षमार्ग में परिग्रह वृत्ति का एक दाना भी पहुँच जाय तो ठसका लग जायेगा। लेकिन वह परिग्रह किस नली में भर रहे हैं हम नहीं कह सकते ? समझ में नहीं आता और वह तो भरता ही चला जायेगा। परिग्रह यह अपने आपको टेढ़ा बनाने वाला पदार्थ है। वह व्यक्ति कुछ भी नहीं कर सकता जो स्मृति रखता है, यह आगम का कथन है। यह कथन कहाँ है महाराज ? भविष्य के बारे में सोचना एवं अतीत के बारे में सोचना भी टेढ़ा है। बिल्कुल टेढ़ा है। प्रथम अध्याय के अन्तिम सूत्र में यह आया था। ऋजुसूत्र व वक्रसूत्र आया था या नहीं? सुना हो, तो वक्रसूत्र भी आया था। एक स्थूल ऋजुसूत्र होता है अथवा अशुद्ध ऋजुसूत्र। अशुद्धऋजुसूत्र अनेक समयवर्ती पर्याय को ग्रहण करता है। स्थूल ऋजुसूत्र भी अनेक समयवर्ती पर्याय को ग्रहण करता है। लेकिन सूक्ष्म व शुद्ध ऋजुसूत्र एक समयवर्ती पर्याय को ग्रहण करता है। उसकी दृष्टि में न अतीत है, न अनागत है। यह ध्यान रखना, आचार्य कुन्दकुन्द ने सोच-विचार कर कहा है कि संसार में समय की विवक्षा से केवल ऋजुसूत्र ही कार्य करता है। अन्य जितने भी कार्य हैं सब व्यवहार के कार्य हैं। और व्यवहार एक प्रकार से उपचार ही माना जाता है। क्योंकि भविष्यकाल है ही नहीं और भूतकाल भी नहीं। अर्थात् जो परिणमन करेगा, वह आज नहीं और जो परिणमन कर चुका है वह भी आज नहीं। इसलिए अर्थ यानि ज्ञान का विषय यदि अर्थ के रूप में आता है, तो केवल वर्तमान आता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने अनागत पर्याय को अव्यक्त पर्याय माना है। व्यक्त पर्याय का संवेदन होता है। जबकि अव्यक्त पर्याय की आशा और स्मृति रह सकती है। आशा भी जो नहीं है उसी की की जाती है, और स्मृति जो वर्तमान में है ही नहीं, घटित हो गई है, उसकी ही की जाती है। यदि वर्तमान को विषय कर लें, तो स्मरण समाप्त हो जाता है। वर्तमान में स्मरण का मरण हो जाता है। अगर वर्तमान से खिसक जायें तो वर्धमान भी पकड़ में नहीं आयेंगे। हमेशा-हमेशा वर्तमान में जीने का प्रयास जो करता है, वह ऋजुसूत्र के विषय को धारण करता है। वह आर्जव धर्मी माना जाता है। कितना सूक्ष्म है यह ? अन्तिम समय भी यदि शेष है, यानि रविवार आने वाला है, तब भी शनिवार चल रहा है। जब तक बारह बजने में एक सेकेण्ड भी कम है, तब तक शनिवार चल रहा है। टेढ़ापन चल रहा है। रविवार नहीं है। रविवार जिस समय आया, उस समय शनिवार नहीं है। कितना अन्तर है ? आचार्य कहते हैं-जब तक वह अपने क्षेत्र से नहीं खिसकता शनिवार ही माना जाता है। वर्तमान पर्याय के अलावा हम तो कुछ भी सोचते हैं, वह वास्तव में है ही नहीं। अव्यक्त है। वह ऐसा अव्यक्त है जिसका व्यंजनावग्रह भी नहीं होता। व्यंजनावग्रह के लिये भी अन्तर्मुहूर्तवर्ती पर्याय अपेक्षित है। तब कहीं आप व्यंजनावग्रह को पकड़ सकते हैं। भले ही आप ईहा नहीं कर सकते, धारणा नहीं कर सकते, लेकिन व्यंजनावग्रह की पर्याय भी अन्तर्मुहूर्तवर्ती है। एक समयवर्ती पर्याय ऋजुसूत्रनय का विषय है। उसमें कार्य-कारण की व्यवस्था नहीं। आधार-आधेय की व्यवस्था नहीं। गुण-गुणी की व्यवस्था नहीं। यहाँ पर कोई कल्पना नहीं चलती। जो क्षणक्षायी हुआ करता है, उसमें कार्य-कारण की व्यवस्था नहीं होती है। अनेक प्रकार के जो विकल्प उत्पन्न होते हैं, संकल्प उत्पन्न होते हैं, वह सारे के सारे कार्य-कारण की व्यवस्था को लेकर, या पूर्वोत्तर पर्यायवर्ती व्यवस्था को लेकर, या आधार-आधेय व्यवस्था को लेकर होते हैं। जिस समय आपने जिसको आधार स्वीकार किया, उस समय आधेय की ओर दृष्टि नहीं गई। जिस समय आधेय की ओर दृष्टि गई आधार गायब हो गया। और यह व्यवस्था नहीं बन पाती है। इस प्रकार सीधापन प्राप्त करने के लिये हमें भूत और भविष्य को विस्मृत करने की आवश्यकता है। वस्तुतः काल की इकाई समय है। चूंकि पुद्गल के आश्रित होकर ही व्यवहार काल की व्यवस्था की जा सकती है। यह पचास वर्ष का हो गया, यह चालीस वर्ष का हो गया और यह दस वर्ष का हो गया, ये सारी पर्यायें व्यवहार काल के साथ जुड़ी हुई हैं। और व्यवहार काल स्वयं आश्रित नहीं है। व्यवहार काल पुदूल और जीव पदार्थों के परिणमन पर आधारित है। संग्रह करके, समूह करके या एकत्रित करके जैसे पुदूल को अस्तिकाय की संज्ञा दी जाती है, उसी प्रकार काल की इकाई को संग्रह करके हम एक मिनिट, एक घड़ी, एक अन्तर्मुहूर्त, एक मुहूर्त और दिन आदि कहते चले जाते हैं। काल की इकाई को देख लो, तो वहाँ कोई विकल्प नहीं है। ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से आप लोगों को सोचना है कि हमारा स्वभाव क्या है ? ऋजो भवि: आर्जव:। अ कहाँ से आ गया ? ऋ में से। आ कैसे पैदा हो गया ? बिल्कुल ठीक है, आ की उत्पत्ति ऋ की वृद्धिमूलक हुआ करती है। ऋजोभांव: आर्जव:। ऋषि से सम्बन्ध रखने वाला मार्ग आर्षमार्ग माना जाता है। ऋजु के साथ सम्बन्ध रखने वाला आर्जव होता है। उसका भाव आर्जव होता है। इसलिए भाव परक यह धर्म है, न कि द्रव्य परक। इसमें द्रव्यपरक धर्म की कल्पना की जाती है। इसमें वृद्धि होती है और वृद्धि होती तो ऋगायब हो जाता है। उसी प्रकार जब हम वर्तमान में आ जाते हैं तो अतीत और अनागत दोनों गायब हो जाते हैं। गायब क्या ? कल्पना के विषय थे, मौजूद तो थे ही नहीं। आप लोगों के यहाँ चलता है। दुकानदार हैं न आप लोग। प्राय: करके सब लोग दुकानदार हैं। दुकानदारी करते हैं। दुकान में एक बोर्ड लिखा हुआ रहता है। क्या लिखा रहता है उस पर ? क्यों हंसने लगे ? अव्यक्त पर्याय को भी पकड़ने की क्षमता इन लोगों में है। जो कहा ही नहीं उसको भी पकड़ लिया। दुकान में बोर्ड लगा रहता है, इतना ज्ञान है, और कहते हैं कि-महाराज! हमें कुछ नहीं आता। फिर कैसे भविष्य की बात सोचने लगे। समझ में आ गया कि आज नकद कल उधार। ये ग्राहकों को फंसाने के लिये है। सही बताओ ? महाराज! आज सत्य धर्म थोड़े ही है, सत्य धर्म आने दो तब बता देंगे। आज तो आर्जव धर्म है। आप सुना दीजिये। इस प्रकार कहे बिना और वहाँ पर बोर्ड लगाये बिना कोई ग्राहक नहीं आ सकता। लेकिन यह बोर्ड भी कम से कम एक दिन तो चरितार्थ होना चाहिए। यह ऐसा बोर्ड है कि हमेशा आश, जिज्ञासा, भरोसा रखकर ग्राहक आपके पास आता है। और आप उसे लूटते रहते हैं। समझ में नहीं आता। आपको भी कोई इसी प्रकार लूटे तो बताओ ? महाराज! हम ऐसे चतुर हैं, हम लूट तो सकते हैं, लेकिन स्वयं को नहीं। संसारी प्राणी बहुत चतुर लगता है। यह संसार भी मृग-मरीचिका के समान है। कल आता जैसे लगता है, लेकिन कल कभी भी आता नहीं। और कभी-कभी आज भी जब बारह घंटों का हो जाता है तो उस समय आप लोग क्या कहते हैं-कल करें सो आज कर, आज करे सो अब । यानि वर्तमान रूप आज स्थूलऋजुसूत्र नय का विषय है। आज कहने से बारह घंटा हो जायेगा, इसलिए आप अब की ओर चले जाते हैं, उसमें आश्वासन नहीं चाहते। भविष्य में, उधार में आप काम करना नहीं चाहते, नकद लाओ। नकद यानि हाटकेस। हाटकेस क्या कोई सूटकेस जैसा है ? हाटकेस तो बात ही अलग है। वस्तुत: संसारी प्राणी जिस दशा में पुरुषार्थ करता है, सोच-समझ कर करता है। पूरा समय लगा देता है। पूरी मेहनत करता है, पूरा जीवन लगा देता है। आहार, पानी आदि से वंचित रहकर भी वह कार्य करता है। वस्तु का परिणमन था, है, रहेगा। उसे भी तीन कालों में बांटना नहीं चाहिए। वस्तु परिणमनशील है। वस्तु परिणत हो गई, अथवा वस्तु परिणत होगी। यह भी गड़बड़ है। वस्तु परिणमन कर रही है यह कहने से भी कार्य की ओर दृष्टि चली जाती है। कन्टीन्यू वस्तु परिणमनशील है। यह धर्म की ओर आ जाता है। चार बातें हो गई। वस्तु परिणमन कर रही है, यह कहने से क्या होता है ? काल सापेक्षित होता है। यह भी जानना ठीक नहीं। क्योंकि इसमें निमितपरक अर्थ निकल जाता है। इसमें वर्तमान कहने पर आप वस्तु को न ग्रहण करके काल की ओर चले जाते हैं। परिणत था, कहने से अतीत की ओर चले जाते हैं। परिणत होगी, ऐसा कहने से भविष्य की ओर चले जाते हैं। परिणमन कर रही है, ऐसा कहने से काल के द्वारा परिणमन कर रही है, काल की ओर दृष्टि चली जाती है। परिणमनशील है कहने से ऋजुसूत्रनय आ जाता है। वस्तु हमेशा परिणमनशील रहती है, इसमें हमेशा कहने से तीनों काल आ जाते हैं। लेकिन परिणमन कर चुकी है, कर रही है, करेगी। यह कहने से तीनों काल की ओर दृष्टि चली जाती है। और परिणमनशील कहने से It is nature of trade thinks. वह स्वभाव है। एक वस्तु दूसरे के ऊपर आधारित नहीं। यह वस्तु का सीधापन माना जाता है। Independed शील, स्वभाव, धर्म ये सब अपने ही अपेक्षा को लेकर के चलते हैं। इसका अभाव पर सापेक्ष होता है। शील का अभाव पर चतुष्टय की अपेक्षा से, किन्तु शील का सद्भाव पर की अपेक्षा से नहीं, स्व की अपेक्षा है। जो कि आर्जव धर्म यानि सीधापन स्व सापेक्ष है। सीधापन या आर्जवधर्म सिद्धों में भी पाया जाता है। आप लोग चरखा के माध्यम से या तकली के माध्यम से सूत कातते हैं, निकालते हैं, रुई की पोनी बनाते हैं और चरखा या तकली से जोड़ कर घुमाते हैं। नीचे तकली को घुमाते हैं, पोनी को नहीं। हाँ, तकली। नहीं समझ में आया ? तसल्ली रखो, सब समझ में आ जायेगा। नीचे एक हाथ से घुमाते हैं, और ऊपर से पोनी लगाते हैं, त्यों ही पोनी में से सूत यूँ खींचने से प्रसूत होने लग जाता है। लेकिन यह ध्यान रखना, नीचे की तकली उत्पादव्ययधौव्ययुक्त सत् न उत्पाद हुआ न व्यय हुआ, ज्यों का त्यों ध्रुव रहेगा, तो पोनी पोनी में रहेगी। और हाथ में तकली रहेगी। कोई सूत नहीं निकलेगा। अब देखो, डोर तो निकलती चली जाती है, लेकिन बार-बार टूटने लग जाती है। इसका कारण क्या है ? इसका कारण है, तकली में जो डंडी होती है, वह भले थोड़ी-सी टेढ़ी हो स्थूल ऋजुसूत्रनय का विषय हो तो डोरी बार-बार टूटने लग जाती है। और उसकी गति बिगड़ती चली जाती है। जैसे ही तकली की गति बिगड़ती चली जाती है, वैसे ही जो सूत को निकालने वाला रहता है, उसका भी दिमाग खराब होने लग जाता है। उसको गति देते चले जाइये। और निकालते चले जाइये। नीचे देखने की कोई आवश्यकता नहीं। गति देते चले जाते हैं एक हाथ से और ऊपर से वह खेचते चले जाते हैं। उसमें भी नम्बर होते हैं। जितने चाहें, उतने नम्बर निकाल लें।यदि बहुत वेग से घुमाओगे, तो सूत टूट जायेगा। और बहुत कम गति से घुमाओगे तो भी उसमें नम्बर ठीक नहीं जायेंगे। इसलिए उत्पादव्यय-धौव्ययुक्त सत् रूप जो द्रव्य में से प्रतिसमय सूत की भांति पर्यायें निकलती चलीं जा रही हैं, अटूट हैं, कभी भी नहीं टूटतीं। वे पर्यायें सीधी होना चाहिए, तो आनन्द का अवसर हम लोगों को प्राप्त होता है। थोड़ी-सी भी गति बिगड़ गई तो वह आनन्द का स्रोत टूट जाता है। द्रव्य त्रैकालिक है। परिणमन द्रव्य का स्वभाव है। वह सदा निकल रहा है, व्यतीत हो रहा है। निकलना उसका स्वभाव है। कल जैसा सुख चाहते हो, मिलना भी चाहिए। आने वाले कल के लिए भी ऐसा ही चाहिए। अरे! यदि द्रव्य परिणमन आज कर रहा है, तो कल भी ऐसा ही करेगा, चिन्ता क्यों करते हो ? इस अतीत की चिन्ता, स्मृति और अनागत की जिज्ञासा, आशा संसारी प्राणी को मिटाती है। भगवान् नासा पर दृष्टि रखते हैं। और आप आशा पर दृष्टि रखते हैं। बस इतना ही अन्तर है। भविष्य की प्रतीक्षा में नहीं, अपितु निरीक्षण में उनका प्रतिक्षण गुजर रहा है। प्रतीक्षा अन्य समय की इच्छा है और निरीक्षण प्रत्येक समय में देखने-जानने रूप स्वभाव है। जब हमारी दृष्टि सामने चली जाती है, तो भविष्य दिखता है। हमारी दृष्टि पीछे चली जाती है, तो पीछे की घटना सामने आ जाती है। कार चलाते हैं। एक सामने की ओर काँच होता है। वहीं पर अर्थात् बगल में एक दर्पण और लगा है। उस काँच में भी देखना पड़ता है और सामने के काँच में भी देखना पड़ता है। एक काँच सामने आने वाले पदार्थों को दिखा देता है और वहीं पर लगाया हुआ दूसरा काँच पीछे कौन आ रहा है, उसको दिखाता है। इसी तरह आप अपने उपयोग को कभी भविष्य की ओर, कभी अतीत की ओर ले जाते हैं। बैठे तो रहते हैं वर्तमान में। आप सीधे से लगते हैं। लेकिन सीझे नहीं हैं। इसलिए निश्चित है कि सीधे नहीं है हम। सीझने का अर्थ है पक जाना, निष्पन्न दशा का अनुभव करना। उसे कौन कर सकता है ? जिसका स्वभाव होगा वही पक सकता है। जिसके पास स्वभाव नहीं है तो वह पक नहीं सकता। जो ऋजु होगा, जो जायेगा, नहीं तो नहीं। एक व्यक्ति निशाना साधकर बैठा है। वह धनुर्विद्या में निष्णात है। बाण धनुष पर चढ़ा रहा है और छोड़ रहा है। किन्तु निशाना चूक जाता है तो पुन: एक बाण निकालता है और वह निशाना साधकर छोड़ देता है। पुन: वह चूक जाता है। बार-बार वह ऐसा करता है। विश्वास नहीं होता अपनी कला के ऊपर। बात क्या हो गई ? बात कुछ भी नहीं। किन्तु क्या ? इसी को बोलते हैं-इषुगति। इषु माने बाण की गति। बाण की गति बिल्कुल सीधी होती है। फिर निशाना क्यों नहीं बन रहा ? बाण में निशाना नहीं। निशाना आँख में होता है। और दूसरी बात यह है, निशाने के लिये आँख ठीक देख रही है कि नहीं। फिर भी बाण वहाँ पर क्यों नहीं जा रहा है ? वह इषु नहीं था बाण। उसमें थोड़ी-सी वक्रता थी। उसके कारण वहाँ तक जाकर भी सफल नहीं हुआ। जब हम वस्तु को देखना चाहें तो उस दृष्टि में सरलता पाने का प्रयास करना चाहिए। हम कोण को बना लेते हैं। इसके कारण हमें वस्तु दिख नहीं पाती। दो दोस्त जंगल में चले जा रहे हैं। घूमते-घूमते वहाँ पर एक हाथी चरता हुआ दिखा। वह पेड़ की हरी-हरी टहनियों और डाल को तोड़कर खा रहा था। तोड़ लेता है, खा लेता है, आगे बढ़ जाता है। ऊपर, नीचे, आजू-बाजू वह देखता ही नहीं। दोस्त ने अपने दोस्त को कहा-यह हाथी एक ऑख से अंधा है। कैसे देखा आपने? देखने की कोई आवश्यकता नहीं। नजदीक जाकर देखते हैं तो सचमुच ही हाथी एक आँख से अंधा है। तुम्हें तो अब केवलज्ञान होने वाला है। मन:पर्ययज्ञान हो गया क्या ? परमावधि तो नहीं ? क्या बात है ? तुम्हीं बताओ। तुम सोची, एक आँख से अंधा है इसलिए इसकी दृष्टि तो ठीक है। लेकिन एक ही ठीक है। दूसरी दृष्टि ठीक नहीं है। क्योंकि दाहिनी आँख के पास जो हरी-हरी डाल आदि हैं उन्हें इसने खाया नहीं। ऊपर वाली डाल की ओर ही अपनी सूड को ले जा रहा है। यह तो पास ही है। लेकिन इस आँख के द्वारा यह डाल देखने में नहीं आ रही। इस आँख के पास ज्योति नहीं होने के कारण वस्तु होते हुए भी गायब जैसी लगने लग जाती है। वस्तु में अनेक पहलू होने के कारण हमारी दृष्टि उन सभी पहलुओं को नहीं ग्रहण कर पाती है। और सही-सही निर्णय नहीं ले पाते। अनुभूति में वह नहीं आ पाती। यदि हमारे पास ऐसी शक्ति आ जाय, तो वह इधर और उधर भी होता चला जाए। सुनते हैं, पता तो नहीं कि कौवे की दो आँखें नहीं हुआ करतीं। सुना आप लोगों ने भी। अच्छा, अनुभव भी किया है। अब मैं यही कहना चाह रहा हूँ कि सुनना, देखना और अनुभव करना इनमें बहुत अन्तर है। जैसे कौआ इतना जल्दी इधर की गोलक को उधर भेज देता है और उधर की गोलक को इधर भेज देता है। वहाँ दो सांचे हैं आँख के। लेकिन गोलक एक है। इसी तरह हम लोग भी बहुत जल्दी अपने उपयोग को दोनों तरफ ले जायें तो वस्तु की सही परख हो सकती है। इसमें जितने भी पहलू हैं, समझ में आ सकते हैं। और इसके लिए आर्जवधर्म की शरण में जाना अनिवार्य है। भले ही पदार्थ टेढ़ा बना हो। लेकिन स्वभाव की अपेक्षा से सीधा ही है। यहाँ पर स्वभाव का दिग्दर्शन है, और विभाव का गौणीकरण। जैसे जो करिया है वह गैया है। श्यामा, श्यामा . बोलते हैं ना। किन्तु काली गाय का दूध काला होता है क्या ? नहीं होता ना। अरे होना तो चाहिए था। ध्यान रखी, घी पीला हो जाय यह बात अलग है। क्योंकि वह पर्यायान्तर हो गया। लेकिन दूध तो सफेद ही रहेगा, काला नहीं हो सकता। क्योंकि काली तो उसकी त्वचा का स्वभाव है, दूध का स्वभाव नहीं। उसी प्रकार सभी पदार्थ स्वभाव की अपेक्षा से सीधे हैं। सभी पदार्थ आर्जवधर्म की अपेक्षा से आर्जव युक्त हैं। किन्तु वहीं पर पदार्थ से प्रभावित होकर विभाव में आ जाते हैं। इसलिए उनको हम टेढ़ा कह सकते हैं। कैसा भी हो, लेकिन उसका शील या स्वभाव आर्जव ही रहेगा। आज तक कोई भी पदार्थ टेढ़ा न हुआ है, न आगे होगा। क्योंकि उसका परिणमनशील स्वभाव टेढ़ा नहीं है। शरीर टेढ़ा हो जाय, हाथ टेढ़ा हो जाय, और हुंडक संस्थान वाला भी क्यों न हो, वह १४वें गुणस्थान को पार करके चला जाता है। सिद्ध परमेष्ठी को कभी भी विग्रह वाला नहीं माना जाता। क्योंकि उनका शरीर उस समय ऋजु नहीं था। टेढ़ा था इसलिए टेढ़े शरीर के साथ जायेगा। उसे अब विग्रह तो नहीं लेना पड़ेगा। जब कभी भी यह प्रश्न पूछा गया, उस समय हमने तो यही उत्तर दिया-हुडकसंस्थान भले ही हो और उसके माध्यम से वह मुक्त हो जाता है। मानली उसके हाथ-पैर कहीं टूट जायें, तो भी उसका संस्थान यानि आत्मा के प्रदेशों का संस्थान जो रहता है वह मनुष्य के आकार वाला ही रहता है। न कि ऊपर का शरीर टेढ़ा होने के कारण उसमें भी टेढ़ापन रह जाता है। और संस्थान में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। हाथ-पैर टूट जाय और उसी अवधि में केवलज्ञान प्राप्त हो जाय और मुक्त हो जाय। शरीर छूट जाय यह बात अलग होती है। लेकिन उसका संस्थान ज्यों का त्यों रहता है। इसमें परिवर्तन नहीं। संहनन और संस्थान एक ही रहते हैं। मान लो, बदल जाय, तो १४ वें गुणस्थान में जाकर के समचतुरस्त्र संस्थान होना चाहिए। परम औदारिक शरीर बन जाना अलग है। परमौदारिक अर्थात् स्थूल नोकर्म रूप शरीर से निगोदिया राशि का निकल जाना। इसकी अपेक्षा से संस्थान में कोई परिवर्तन नहीं आता। १४ वें गुणस्थान को भी पार करने वाले के, चूंकि रत्नत्रय में टेढ़ापन नहीं है। रत्नत्रयधारी के शरीर में टेढ़ापन रह सकता है। उसमें आठों अंग-उपांग टेढ़े हो सकते हैं, लेकिन रत्नत्रय तो सीधा ही रहता है। क्योंकि स्वभाव में कभी भी किसी भी प्रकार से वक्रता नहीं आती। नयों में वक्रता कब आ जाती है ? जब भिन्न-भिन्न काल का आधार लिया जाता है। जो कि काल्पनिक माने जाते हैं। इसलिए नयों में भी वक्रता आ गई। ऋजुसूत्र और अनऋजुसूत्र। ऋजुता का अभाव हो गया। यानि एक प्रकार से उस नयप्पन का उसमें विपरीतपना आ गया। अतीत और अनागत काल की विवक्षा में ऋजुता का गौणीकरण होने के कारण स्थूलता आ जाती है या अशुद्धता आ जाती है। आपकी हिस्ट्री में कितनी वक्रता है, इसे प्रयोग के माध्यम से देख सकते हैं। कौन से प्रयोग के माध्यम से देख सकते हैं ? आपके हाथ में सुई है। सुई के सिर में छेद है। उस छेद में से एक डोर को पोना है। आपकी आँखों में कोई नम्बर नहीं, बहुत अच्छी आँखें, ज्योति:पुंज। आपके एक हाथ में डोर दी गई और एक हाथ में सुई है। आप सुई की ओर देख रहे हैं। देखकर भी आप यूँ कर देते हैं। इसके उपरान्त आप अंगूठा व तर्जनी के माध्यम से डाल रहे हैं, किन्तु वह नहीं गया। वह आगे चला गया। आपने सोचा धागा चला गया है, अत: उसको यूँ खींच लिया। और सुई नीचे गिर गई। ऐसा क्यों हुआ ? ऐसा इसलिए हुआ, लगता है हम बहुत सीधे हैं। बिल्कुल सीधे हैं। सिद्ध परमेष्ठी जैसे सीधे हैं क्या ? हमारी दृष्टि, हमारी आस्था, हमारी धारणा यह निर्णय लेती है कि हमने उसको पो दिया। लेकिन पीने में नहीं आया। क्योंकि छेद इतना छोटा है और डोर बहुत मोटी है। तो क्या किया जाय ? वहीं अंगूठी और तर्जनी यूँ-यूँ (हाथ का इशारा) करो। फिर से पानी लगाओ। थूक नहीं लगाओ। पानी लगाओ। अशुद्धि से भी नहीं होना चाहिए। देखो सूत को आप उस छेद से पार करा रहे हैं, तो अशुद्धि नहीं होना चाहिए। कई लोगों की यह आदत होती है, नोट गिनते गिनते थूक लगाते हैं। लेकिन उनको सावधान रहना चाहिए। कभी भी शास्त्र के पन्ने इस तरह से नहीं पलटने चाहिए। सावधानी के साथ करना चाहिए। कई लोगों को हमने देखा है। यूँ लगाकर यूँ-यूँ कर देते हैं। यह गलत है। असावधानी है। अब देखो, हमें उसको पो देने में बहुत समय लग जाता है। छेद सामने दिख रहा है और डोर भी बहुत पतली की गई है। लेकिन फिर भी देर लगती है। डोर में टाइटनेस होना चाहिए, हैना। हाँ। कल मृदुता की बात थी, किन्तु यहाँ मृदुता नहीं चाहिए। आज आर्जव धर्म है। है ना! कल का धर्म छोड़ दें क्या ? छेद से यदि डोरा पार करना चाहते हो तो मुलायमपने के साथ तो वह रुक जायेगा। टिक जायेगा। टकरा जायेगा। उसको थोड़ा टाइट करना पड़ेगा। और यदि अग्रभाग को पतला कर दे, तो फिर निकालना और आसान होगा। बहुत देर नहीं लगेगी। आर्जव धर्म बहुत कठिन है, पसीना आ जाता है। कई लोगों को डोर पोते समय भी पसीना आ जाता है। इतना सीधा काम नहीं है। सीधा होने में बहुत मेहनत होती है। दूसरा कौन सा उदाहरण दे दें ? हम भी नहीं थकते। और आप भी सुनते-सुनते नहीं थकते। हाँ, बिल्कुल ठीक, बिल्कुल ठीक। देखो, एक लुहार है। उसके यहाँ कोई व्यक्ति सलाई लेकर आया। उसकी रॉड टेढ़ी है। अब क्या करना पड़ेगा ? वह तो बड़ी है। लेकिन सीधी तभी हो सकती है जब वह पहले मार्दव धर्म की अग्नि में जाये। उसको पहले अच्छे ढंग से तपाओ। तपा देने के उपरान्त घन के प्रहार किये जाते हैं। घन के प्रहार किये जाते हैं, उसको सीधा करने के लिये। वह मुलायम हुए बिना घन के प्रहार को सहन नहीं कर सकती। बल्कि यूँ कहना चाहिए कि वह प्रहार को सहन कर सकती थी, किन्तु मुलायम हुए बिना वह सीधी नहीं हो सकती। अणिग्गिपक्क अग्नि के द्वारा जब तक नहीं पकाया जायेगा, अग्नि परीक्षा जब तक नहीं की जायेगी, तब तक उस रॉड में आया हुआ वक्र पन सीधा नहीं होगा। और वैसे के वैसे रख दें, तो पुन: टेढ़ा हो जायेगा। ज्यों का त्यों वह बन रहेगा। जिस समय वह तप जाता है, उस समय मुलायम होने के कारण, उसके ऊपर जहाँ पर वक्रता है, घन का प्रहार देते हैं तो वह सीधा हो जाता है। और इसके लिये बहुत सारा कोयला खर्च किया जाता है। अग्नि के सामने लुहार को भी तपना पड़ता है। जो रॉड लेकर बैठ जाता है, उसको भी तपना पड़ता है। और कुछ प्रहार को भी सहन करना पड़ता है। किन्तु तब तक वह उसके ऊपर प्रहार करता चला जाता है, जब तक कि वह सीधी नहीं होती। कभी-कभी देखने में ऐसा आता है कि एक बार के तपन में वह पूर्ण सीधी नहीं हो पाती। तो पुन: उस रॉड को एक बार, दो बार या तीन बार तक अग्नि में डाल देते हैं। तब कहीं जाकर के वह सीधी हो पाती है। और लुहार कहता है- भैया ५० रुपये निकाली। इसके लिये पचास रुपये ? जरा-सा तो टेढ़ा था। ऐसा नहीं था, ऊंगली का टेढ़ापन बहुत जल्दी सीधा हो जायेगा। लेकिन उसका ऐसा नहीं होता। यहाँ पर कितना कोयला जल गया, पहले यह देखो। फिर बाद में पैसा दे देना। अनेक प्रवचनों के माध्यम से सीधा करने का प्रयास किया। अभी भी सीधे नहीं हुये तो कब होंगे ? पर्व तक देख लें। एक-एक करके धर्म चले गये। संभव है तप-त्याग धर्म के दिन तक हो जाये। यह सोचें कि अपने परिणामों को सीधा करने का संकल्प है, कि नहीं। अगर है, तो कभी भी कर सकते हैं, उसके लिये मुहूर्त की आवश्यकता नहीं। दिन कभी टेढ़ा-सीधा नहीं होता। चार द्रव्यों में हमेशा अर्थपर्याय होने के कारण सीधे हैं। ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से दो ही द्रव्य टेढ़े हैं-जीव और पुदूल। जीव दिखता नहीं, पुदूल दिखता है। उसका स्वभाव भी टेढ़ा नहीं, पर अनेक के संयोग से टेढ़ापन आ जाता है। उसमें अनादि से वक्रता आ रही है और जिसके अनन्तकाल तक रहेगी, वह अभव्य है। अनेक सिद्ध सीझ जाये, तो भी वह सीधा नहीं होगा। जब तक स्वभाव में नहीं जायेगा तब तक ऋजुता नहीं आयेगी। भव्य के पास शान्त होने की योग्यता है। अब कम से कम सादि-अनन्त और अनादि-सान्त पर्याय को प्राप्त करें, यही आर्जव धर्म का मन्तव्य है। आचार्यों ने इसी की आराधना गुफाओं में बैठकर की है। सीधेपन का मनन-चिन्तन किया है। चुक्केज छल ण घेतव्वं। छल वक्रता है। आचार्य कहते समय अगर कुछ चूक गये तो तुम धारणा बनाते समय न चूक जाना। चूक हो सकती है, पर ग्रहण न करें। सन्तों ने आराधना की, कर रहे हैं। तप कर रहे हैं, उस अग्नि से अपने को सीधा कर रहे हैं। मन के चलायमान होने पर भी आस्था के बल पर सीधा किया जा सकता है। गिरते तभी हैं, जब दृष्टि में टेढ़ापन हो। पुन: गिरकर, उठकर मंजिल की ओर जो बढ़ता है वह आर्जवधर्म का उपासक है। हमारे कदम भी आर्जव धर्म की ओर बढ़े, इसी भावना के साथ महावीर भगवान् की जय.।
  17. सत्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार सत्य को स्वीकारते हुए भी हम उसका अनुसरण नहीं कर पाते, इसलिए हमारा उद्धार नहीं हुआ है। जीभ दो न हों, जीवन में सत्य ही, सब कुछ है। जीभ दो न हों का अर्थ है, झूठ ना बोलो क्योंकि सत्य ही जीवन में सब कुछ है। हम सभी का सच्चा-सच्चा नाम है, आत्माराम। असत्य के साथ जीने वालों को कभी भी सत्य का दर्शन नहीं हो सकता। अहं (अहंकार) को छोड़ अहं (मैं) को पाना ही सत्य है, ऐसे सत्य को बार-बार नमस्कार हो। सत्य महाव्रत का अर्थ सत्य बोलना नहीं है बल्कि असत्य का त्याग करना है। सत्य कभी कटु नहीं होता लेकिन जो असत्य के आदी हो गये हैं, उन्हें सत्य कटु लगने लगता है और असत्य मधुर। जीवन में यदि कुछ प्राप्तव्य है तो वह है-सत्य। सत्य को प्रकट नहीं करना बल्कि असत्य की परतों को हटाना है, सत्य स्वत: प्रकट हो जावेगा। जिसे जीवन का प्राप्तव्य ज्ञात नहीं है, वह कभी सत्य को प्राप्त नहीं कर सकता। राम नाम सत्य है, यह अंतिम मंत्र है। संकल्प न लेने वाले को सत्य पाना कठिन होता है।सत्य का उद्घाटन होना कठिन है। सत्य का पार नहीं पाया जा सकता, सत्य को देखा जा सकता है। सत्य को याद रखने की आवश्यकता नहीं होती जब सत्य आत्मसात् हो जाता है तो वह अपने आप याद हो जाता है। राम नाम सत्य होने के पूर्व में रावण को छोड़ दो राम हमेशा साथ हैं। जब सत्य दृष्टि हो जाती है, तब सारी धरती समग्र/अखण्ड दिखने लगती है। अपना सत्य जानो, सभी को अपना ही सत्य जानना है दूसरे का नहीं। सत्य हमारे बहुत पास है माया से धुंधला हो जाता है दिखाई नहीं देता। जल्दी की अपेक्षा ईमानदारी रखिए भले लम्बा चलना पड़े। प्रतीक्षा करिये सत्य अवश्य ज्ञात/ प्राप्त होगा। सत्य तो सत्य है। दवाई की तरह है न मीठा है, न कड़वा है। सत्य को कटु सत्य इसलिए कहते हैं, क्योंकि उसे अमल में लाते समय बहुत कठिनाई जाती है। सत्य हमेशा वाद-विवाद से परे होता है। सत्य वचन बोलने से मार्ग की प्रभावना होती है। दूसरे का नाम बदनाम हो जावे ऐसा बोलना असत्य है। सत्य पाना कठिन नहीं है, बल्कि असत्य छोड़ना कठिन है। दुनिया असत्य की सेवा करती है किन्तु सम्यग्दृष्टि सत्य की सेवा करता है। असत्य बोलने से मैं बच जाऊँगा ऐसा सोचने वालो सत्य तो यह है कि तुम कभी मर ही नहीं सकते। तुम तो अमर हो। यदि आपकी बात सत्य है तो उसे सिद्ध करने का प्रयास मत करो। सत्यवादी से लाखों लोग प्रकाश पा सकते हैं। जिसके माध्यम से हिंसा हो ऐसा सत्य भी ना बोलें। एक बार का बोला गया झूठ हमेशा का सत्य खो बैठता है। असत्य बोलने वाले का कोई विश्वास नहीं करता। सत्य बोलने से वचन सिद्धि हो जाती है। अज का अर्थ बकरा होता है ऐसा असत्य बोलने से युगों-युगों तक हिंसा चल रही है। सत्य और अनुभय वचन संसार सुख के निर्माता हैं, ये वचन पाप से रहित हैं और धर्म सहित हैं, बोलने योग्य हैं तथा सारभूत हैं। असत्य का त्याग सत्य महाव्रत है और सत्य बोलना भाषा समिति है, गुप्ति भी है। अप्रिय और अहित करने वाले दोनों वचन स्वयं एवं पर के लिए दु:ख देने वाले होते हैं। कभी-कभी वह असत्य भी सत्य माना जाता है, जिससे जीवों की रक्षा होती है। सत्य, मिष्ट वचन बोलो तो बोलो नहीं तो मुख मत खोलो। सत्यनिष्ठ व्यक्ति के पास सरस्वती का वास होता है। क्षयोपशम बढ़ाने से नहीं बल्कि सत्यनिष्ठ होने से बढ़ता है। शब्दकोष में मधुरता नहीं होती बल्कि मुख और भावों में मधुरता होती हैं। सत्य की प्राप्ति के पूर्व असत्य क्या है, यह पहचानना सत्य की प्राप्ति का पहला कदम है। कषाय और विषयों से संसार का विकास होता है और दु:ख का लाभ होता है, यह भी एक सत्य है। हेय का विमोचन कर उपादेय की ओर कदम बढ़ाने का नाम सत्य है। सार-सार को निकाल लो असार को फटकार दो, इसी का नाम सत्य है। आज तक हमने असत्य को नहीं फटकारा इसलिए सत्य प्राप्त नहीं हुआ। सत्य बोलने का नाम सत्य व्रत नहीं है, बल्कि झूठ बोलने के त्याग का नाम सत्य व्रत है। असत्य को उपयोग में नहीं लाना ही सत्य है।
  18. शौच विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार संतोष अमृत है, तृष्णा विष है। आवश्यक है अमृत और विष की पहचान करके विष के त्याग करने की। दूसरे को कितना मिल रहा है, यह मत देखो। तुम्हें कितना मिल रहा है उसे लेकर संतोष धारण करो। लोभी व्यक्ति धर्म को भी खा जाता है, धर्म के साथ खाओ पर धर्म का मत खाओ। निर्माल्य द्रव्य का भक्षण मत करो, इस महान् पाप से बचो। मन, वचन व काय की शुचिता के लिए खानपान की शुचिता अनिवार्य है। पवित्र भाव के द्वारा ही अशुद्ध द्रव्य पूर्णत: शुद्ध हो सकता है। शुद्ध हुए बिना अनगढ़ पत्थर की कोई कीमत नहीं। चारित्र रूपी शान के ऊपर चढ़ता है तो ज्ञान रूपी अनगढ़ पत्थर गले का हार बन जाता है। धर्म का लोभ जिसे होगा वही निर्लोभी होगा। शौचधर्म वह धर्म है, जिसमें शरीर को गौण किया जाता है। लोभ से चिपकने वाले के मन में अशुद्धि रहती है। लोभ हमेशा असंतुलन की ओर ले जाता है। लोभ को जिसने सुधारा नहीं, छोड़ा नहीं समझो उसने धर्म करना शुरू ही नहीं किया। शौच धर्म का अर्थ ही है अपरिग्रह के साथ मन को प्रसन्न बनाना। जो दीवाल मिट्टी की हो वह साफ नहीं हो सकती, उसी प्रकार यह शरीर है। मेरे अंदर अशुचिता है, ऐसा जो स्वीकारता है, वही शौच धर्म अंगीकार करता है। जो पहले से अपने आप को शुद्ध मानता है, वह कैसे स्वीकारेगा ? सही सोला तो अॉप्रेशन थियेटर में रहता है। बहुमूल्य शक्ति अनगढ़ पत्थर में रहती है। अनगढ़ को शुद्ध कहोगे तो खदान में और जौहरी बाजार में कोई अंतर नहीं ? जीना है तो चढ़ो, संयम के जीना पर बिना स्नान के चढ़ना है। यहाँ शारीरिक शुचिता गौण हो जाती है आत्मिक शुचिता मुख्य हो जाती है। (जीना=सीढ़ी) तप, संयम की शुद्धि के बाद बाह्य शुद्धि की आवश्यकता नहीं पड़ती। लोभ का त्याग करने पर ही शौच धर्म आ सकता है। लोभ पाप का बाप बखाना न जाने क्या-क्या खाना। लोभी, गेहूँ के साथ-साथ भूसा भी खा लेता है। श्मशान में भी मुनि शुचि धर्म की आराधना करते हैं। मन से शुद्ध, लोभ रहित को नमोऽस्तु- निर्लोभी को कोई शोर/सूतक नहीं लगते। जिनका मन पवित्र होता है उनके सामने हमारे लोभ भी भय खाते हैं। संसार में परिग्रह का जाल हमेशा-हमेशा भटकाता रहता है। हम अनादिकाल से बाह्य की सफाई करते रहें लेकिन अंदर कभी दृष्टि ही नहीं डाली। दीवाल बाहर से पोत दी भीतर तो धूल ही धूल है। सम्यक दर्शन और परिग्रह दोनों का सर्प-नेवला जैसा बैर है। सम्यक दर्शन प्राप्त करना सरल नहीं है, उसके लिए अनंतानुबंधी लोभ का त्याग करना अनिवार्य है। सम्यक दर्शन की प्राप्ति के बाद दूरी भले हो पर मुख मंजिल की ओर होता है। तिर्यच अपने पास लाकर कुछ नहीं रखते, संग्रह वृत्ति मनुष्य के पास ही जबरदस्त होती है। दूसरे को कुछ नहीं देना अपने सम्बन्धी को ही देना यह भी लोभवृत्ति है। जो अपना नहीं है, उसे दिन डूबने से पहले छोड़ दो, वरना खुद डूब जाओगे संसार समुद्र में। पक्षपात की जड़ लोभ है। बाह्य अशुचिता सागर के जल से भी धोओ तो कोई महत्व नहीं, भीतरी शुचिता के अभाव में। भीतरी शुचिता के लिए एक भी बार प्रयास नहीं किया, भीतर क्या हो रहा है जरा सोचो ? अपने घर की सफाई की जाती है बाहर सड़क की नहीं। आत्मा को मांजने का विकल्प आज तक नहीं किया, सोचो कैसा विकृत हो रहा होगा। आप बिना स्नान भोजन नहीं करते और मुनिराज लोग इतने व्यस्त हो जाते हैं भीतरी सफाई करने में कि बाहरी सफाई के लिए विकल्प ही नहीं उठता। यदि हमारा अंदर की सफाई के लिए एक बार भी हाथ नहीं उठता, उस ओर कदम नहीं बढ़ता तो मानना होगा कि हम अंतर्जगत से अपरिचित हैं। चश्मे के काँच पर धूल जमी हो तो वस्तु स्पष्ट दिखाई नहीं देती। इसी प्रकार आत्मा के ऊपर पड़ी कर्म रूपी धूल को नहीं हटाओगे तो आत्म तत्व के दर्शन नहीं हो सकते। यदि जल से शुचिता प्राप्त होती तो मछली और मेंढ़क तो उसी पानी में ही रहते हैं अभी तक तो वे शौच धर्म को प्राप्त कर चुके होते। आभ्यन्तर तप प्रायश्चित्त से प्रारम्भ होता है, जिससे उपयोग के मन की शुद्धि प्राप्त होती है। बर्तन को तपाकर उसके भीतरी स्थान को साफ-सुथरा करते हैं, वैसे ही भीतरी शुचिता के लिए आचार्यों ने बारह तप रखे हैं। जिसके माध्यम से जो भीतर लोभ बैठा है, वह बाहर निकल जाता है। कथंचित लोभ ठीक है, कथचित् नहीं। साधु संगति का लोभ, रत्नत्रय का लोभ, भगवान् के भजन का लोभ अच्छा है। धन का, पद का लोभ अच्छा नहीं है। लोभ छोड़ो नहीं उसका परिवर्तन कर दो । (पाप की जगह पुण्य में)। कुछ लोगों को भोजन करने का लोभ होता है तो कुछ लोगों को भोजन कराने का लोभ रहता है। आहार देने का लोभ यह बहुत बड़ा लोभ है वह आगे का प्रबंध कर रहा है। धार्मिक कार्यों में, अनुष्ठान में लोभ हो जावे तो इससे बढ़कर कोई दूसरी प्रभावना नहीं है। पवित्र भावना के माध्यम से धर्म की सुगंधी दूर-दूर तक फैल जाती है। आत्मा के ऊपर ऐसे संस्कार डालते जाओ जिससे लोभ अच्छे क्षेत्र में वृद्धिगत होता जावे। डॉ. को, वैद्य को पैसे का नहीं सेवा का लोभ होना चाहिए। यदि पर की सेवा नहीं कर सकते तो अपनी सेवा तो करो। यदि आपको अपने स्वयं के बारे में जानकारी हो गयी है तो क्या छोड़ना है ? क्या मांजना है ? उसे प्रारम्भ करिये । दुनिया अनावश्यकता के कारण दुखी है और इसका कहीं स्टॉप (अन्त) ही नहीं। पेट अंदर साफ नहीं है और भोजन डाल लिया तो डकार में खट्टापन आवेगा ही। लोभ ही लोभ करते-करते जब कभी आत्मा की बात करते हैं, तब ऊँवासी (नींद) आने लगती है। हमें दुनियाँ का लोभ एवं धर्म में लोभ कितना है, विचार करो। हमारा धर्म के प्रति लोभ बढ़ जाये यही सबसे बड़ा शौचधर्म होगा। ये लोभ सही दिशा में होना चाहिए सेवा का लोभ, वैय्यावृत्ति का लोभादि। क्षयोपशम पढ़ने-पढ़ाने से नहीं बढ़ता बल्कि जितना मोह का अभाव होता जाता है उतना ही क्षयोपशम बढ़ता जाता है। हमें खोजना नहीं, खोदना है। संसार में धर्म खोजने से भागने से नहीं मिलेगा बल्कि रुकने से अपने अंदर खोदने से मिलेगा। पानी खोदने से मिलेगा भटकने से नहीं। आत्मा के लोभी को, आत्म-संतोषी को संसार के बाहरी प्रलोभन कभी लुभा नहीं सकते। दूसरे की वस्तु की माँग करना ही अपने धर्म को, स्वाभिमान को खोना है। अपनी आत्मा में ही सब कुछ है, यह श्रद्धान होने पर फिर आत्मा में ही खोदने का लोभ आ जावेगा और आत्म धन जो अंदर खदान है उससे प्राप्त कर लेगा। आत्म भान, वस्तु स्वरूप का ज्ञान होने पर शुचिता क्या वस्तु है, यह ज्ञात हो जाता है। जैसे आप बिना कहे स्नान कर लेते ही वैसे ही बिना कहे कषायों को धोने का कार्य भी करना चाहिए। भीतरी स्नान का हमेशा ध्यान रखना चाहिए। आप लोगों का लोभ ऐसा है कि एक हाथ से दान देते हो और दूसरे हाथ को आगे फैला देते हो कि इसका फल मिलेगा या नहीं। जो देता है, वह देखता नहीं जो देखता है वह देता नहीं। लोभ मंद हुआ है कि नहीं यह देखो, लोभ नहीं हो रहा है तो समझना मंथन अच्छा चल रहा है। लोभ के अत्यन्त अभाव में ही शौच धर्म प्राप्त हो जाता है। आप लोगों ने मन में ऐसे संस्कार डाल रक्खे हैं कि अनावश्यक का भी लोभ कर जाते हो। अनावश्यक के प्रति झुकाव होना ही तो लोभ है। संसारी प्राणी लोभ के कारण पर के (बच्चों आदि में) बारे में सोच रहा है अपने बारे में नहीं। लोभी प्राणी को अंत समय पश्चात्ताप ही हाथ लगता है। पुरुषार्थ स्वयं अपने क्षेत्र में कर सकते हैं यही मात्र नियति है, पर के क्षेत्र में लगना लोभ है। हाथ डालकर बर्तन साफ करिये आत्मतत्व रूपी दही को विकृत मत करिये। जो कर्म कालिमा अनादिकाल से जमी है उसकी थोड़ी-थोड़ी सफाई करते जाओ। वैभव मिलने पर लोभ बसने लगता है। पाई-पाई के लिए भाई ने भाई को नहीं छोड़ा, चक्रवर्ती ने अपने भाई पर चक्र चलाया। संतोष के बिना संयम प्राप्त नहीं हो सकता। संतोष संयम के पूर्व की भूमिका है और लोभ, संयम मार्ग का खतरनाक शत्रु है। मन पवित्र हो तो शरीर पवित्र हो ही जाता है, देव भी उस वीतराग रूप को देखने जमीन पर उतर आते हैं। ऊपरी साफ-सफाई आत्मानुभूति का कारण नहीं बन सकती बल्कि जो आत्मा पर कषाय रूपी गंदगी जमी हुई है, उसे साफ करने से आत्म लाभ होता है। रूप का मद देव और मनुष्यों को सताता रहता है।
  19. आर्जव विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार हमारी दृष्टि में सरलता नहीं है, दृष्टि में सीधापन होना बहुत महत्वपूर्ण है। सूक्ष्म की बात करते हैं, लेकिन सूक्ष्म-दृष्टि भी रखना चाहिए। आत्मा को देखने के लिए सूक्ष्म-दृष्टि की आवश्यकता है। भीतर से दृष्टि में एकाग्रता आनी चाहिए। संतुलन में ऋजुता रहती है। आज संतुलन के अभाव में बातों में भी सीधापन नहीं आ रहा है। दृष्टि में ध्रुव, लक्ष्य दिखना चाहिए, अर्जुन की भाँति। दृष्टि एक पर लगी रहती है तो बाह्य पदार्थ बाधक नहीं हो सकता। बहुत दूर तक न चलो, थोड़ा चलो पर सीधा तो चलो। युक्ति से, भक्ति से चलो। जैसे टेड़ी नली में धागा डालना है धागा के कार्नर में गुड़ लगा दिया चींटी उसे पकड़कर उस पार ले गयी। आर्जव धर्म सीधे होने की बात सिखाता है। हमारे, मन, वचन, काय में सीधापन होना चाहिए। जो सीधा होता है, वह सादा भी होता है, लेकिन आज हाई लिविंग विदाऊट थिंकिंग हो गया है। हाईलेविल पर आज कोई नहीं जी सकता मात्र भगवान जीते हैं क्योंकि उनका अकालमरण नहीं होता। अतीत, अनागत वक्र है, वर्तमान सीधा है वर्तमान में जीना ही सीधा सरल माना जाता है। अतीत की स्मृति के कारण वर्तमान से वंचित होना पड़ता है। वर्तमान की मृति (मरण) और अतीत की स्मृति एकार्थवाची है। स्व की अनुभूति के लिए वर्तमान चाहिए। मन, वचन व काय की समष्टि में आनंद आता है। उस समय एक का ही अनुभव होता है, भविष्य जब भी आवेगा तो वर्तमान में ही आवेगा। इसलिए था, थे, थी, गा, गे, गी छोड़ दो। रहा, रही, हैं (वर्तमान) में आ जाओ यही सरल मार्ग है। मन जिनवाणी की गोद से उछलना चाहता है लेकिन जिनवाणी की गोद में ही हमेशा आर्जव धर्म बना रह सकता है। आप जिनवाणी को बच्चे की तरह सुनोगे तो ज्यादा सुनने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, किसी एक का भी केवलज्ञानी पूर्ण अतीत नहीं कह पावेगे तो फिर उसे जानने की आप इच्छा क्यों रखते हो ? सीधा सादा जीवन जीने के लिए सीधा सादा रास्ता है। सीधा बोलना, सीधा चलना, सीधा सोचना सीखो। यदि ऐसा नहीं कर सकते तो शांति से बैठ जाओ, फिर सीधापन अपने आप आ जावेगा। हर बात में टेड़ापन, हमारा जीवन कुत्ते की पूँछ की तरह है। हम दुनियाँ को तो सीधा करने में लगे रहते हैं पर अपने को सीधा करना नहीं सीख पाये। यही तो सबसे बड़ी विडम्बना है। साधु अपना टेड़ापन निकालता है, भगवान के सामने रोते हुए कहता है कि हे भगवान! मुझे कुछ हठात् करना पड़ता है न चाहते हुए भी। अपने को ही कर्म, कर्ता व साधन बनाओ मात्र एकत्व की भावना भाओ यही एक श्रेय मार्ग है, आर्जवधर्म है। वर्तमान है तो संवेदन है, अतीत का संवेदन करने का अधिकार किसी को नहीं है, अनागत का तो सवाल ही नहीं उठता। सरल कोण बन जाता है तो रेखा में एक भी अंश की कमी नहीं आती। आपका जीवन Triangle है। सीधा सरल बनाने का प्रयास करें। अपना ही उपयोग आनंद का धाम है और आक्रंदन का भी। उन प्रभु को बार-बार नमस्कार करते हैं, जिनका शांति का रूप हमें शांति का उपदेश देता रहता है। दृष्टि की वक्रता धर्म में बाधक है क्योंकि थोड़ी-सी भी वक्रता मोक्ष मार्ग में सहनीय नहीं है। वर्धमान कहते हैं कि वर्धमान मिलेंगे तो वर्तमान में मिलेंगे। हमें अपनी दृष्टि सब ओर से हटाकर वर्तमान में ही केन्द्रित करना चाहिए। जब हम वर्तमान को पकड़ लेंगे तो वर्धमान बनने में देर नहीं लगेगी। कल को पाने वाली दृष्टि टेडी मानी जाती है दृष्टि को चलाने की नहीं बल्कि स्थिर करने की आवश्यकता है। अपने उपयोग का टेड़ापन हमें अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँचा सकता। हम अपनी दृष्टि को वर्तमान से हटाकर भविष्य के मूल्यांकन में लगा देते हैं, यही तो हमारी दृष्टि का टेड़ापन है।
  20. सबसे ज्यादा अनर्थ होते हैं, तो मान-प्रतिष्ठा के कारण होते हैं। इसी के कारण आज बड़े-बड़े राष्ट्रों के बीच में संघर्ष छिड़ा हुआ है। मानी व्यक्ति अपनी पत्नी को छोड़ सकता है। मानी व्यक्ति अपनी प्रजा को छोड़सकता है। मानी व्यक्ति अपने भ्राता को छोड़ सकता है। लेकिन अपने मान को नहीं छोड़ सकता । आज यह पर्व का द्वितीय दिन है। जो व्यक्ति दूसरे को नहीं देखना चाहता है वह एक प्रकार से मानी कहलाता है। बिल्कुल ठीक। भगवान् को आप देखते हैं। भगवान् किसी को देखते हैं क्या? नहीं। आप लोग प्रतिदिन भगवान् को देखकर के आ जाते हैं। क्या भगवान् ने किसी को देखा? नहीं देखते। और जो किसी को नहीं देखना चाहे, उनको क्या कहा जाय ? मानी। बिल्कुल ठीक। दुनियाँ को देखते-देखते अनन्तकाल व्यतीत हो गया। और उसी का यह परिणाम है कि हमने अपने आप का महत्व खो दिया। भगवान् के दर्शन करने से हमें यही तो ज्ञात होता है। इस दुनियाँ को देखने से ही हमारे भीतर कषाय उत्पन्न होती चली जाती है। दुनियाँ को देखने से कभी भी अभिमान नहीं होता। किन्तु अपने स्वरूप से च्युत होकर के जब हम भिन्न पदार्थों के संयोग से अपने आपको बड़ा समझते हैं, उस समय यदि कोई हमारे इक्वल, बराबर मिल जाते हैं, तो कषाय के भाव जागृत हो जाते हैं। विधर्मी से इतनी लड़ाई, इतना संघर्ष नहीं होता, जितना कि साधर्मी भाई से होता है। कोई भी व्यक्ति विदेश से यहाँ आ जाय, तो उससे आप कभी भी अभिमान नहीं करेंगे। अन्य प्रान्त से आ जाता है, तो उससे भी नहीं करेंगे। अन्य संभाग से आ जाता है, तो उससे भी कोई लेनदेन नहीं। अन्य जिला से भी आता है तो बनती कोशिश उससे भी नहीं होगा। अब बात आ जाती है अपनी तहसील की। वह भी कभी कभार मिल जाते हैं तो बात अलग है। नहीं तो वह भी यूँ ही निकल जाते हैं। अब बात आती है अपने गाँव की। उसमें भी कोई दूर रहता है। अन्य किसी मुहल्ले में और उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है, तो उससे भी कोई मान-अभिमान की बात नहीं होगी। अब बात आ जाती है अड़ोस-पड़ोस की। बस, एक दुकान भी बीच में हो, तो दूसरी दुकान से भी अभिमान ज्यादा नहीं होगा। कषाय नहीं होगी। साथ-साथ रहते हैं, तो वहाँ पर अभिमान उत्पन्न होने लग जाता है। जितना निकट हो, उतना परिचय प्राप्त हो, उन्हीं के साथ हम लोगों का इस प्रकार का संघर्ष चलता रहता है। इससे शान्ति पाने के लिये और अपने स्वभाव की कीमत देखकर विश्व को देखना ही बंद कर दिया, स्वभावनिष्ठ हो गये, ऐसे भगवान् की मूर्ति देखते हैं, तो हमको कभी भी अभिमान उत्पन्न नहीं होता है। अभिमान तो दूसरे के ऊपर से होता है। इसलिए वह महामानी सिद्ध होते हैं। और मान का अर्थ भी एक प्रकार से ज्ञान वाचक है। क्योंकि प्रमाण की उत्पत्ति होती है, तो मान को प्र उपसर्ग लगाने से ही होती है। जिसको स्व व पर का सही मूल्य ज्ञात नहीं है, वही व्यक्ति प्रत्येक द्रव्य के पास अपने उपयोग को भेजकर उसका आदर करना प्रारम्भ करता है। दुनियाँ की छोटी से छोटी वस्तु भी हमारे आकर्षण का केन्द्र बन जाती है। और तीन लोक की सम्पदा से भरा हुआ वह व्यक्तित्व भी जो छिपा हुआ है, उसके बारे में हम कभी भी सोचते तक नहीं। यह ध्यान रखो, दश खण्ड का प्रासाद, भवन भी अपने काम में नहीं आने वाला और अपनी कुटिया भी बहुत अच्छी छायादार नजर आयेगी। स्वाभिमान वाला जो व्यक्ति होता है, वह सोचता है कि महान प्रासाद में अपने को नहीं रहना है। अपने को अपनी कुटिया में ही रहना है, अर्थात् स्वतन्त्रता यहीं पर है। वहाँ पर स्वतन्त्रता नहीं। एक-एक पाई के लिये एक-एक मांग की पूर्ति के लिये दुनियाँ का यह प्राणी कहाँ-कहाँ पर नहीं गया ? जैसे कि कल उदाहरण दिया था, मान का। व्यक्ति जब दूसरे पदार्थ की इच्छा रखता है, तो वह क्या-क्या नहीं करता ? सब कुछ करने के लिये तैयार रहता है। पाँचों इन्द्रियों के भिन-भिन्न विषय हैं। यह मान-प्रतिष्ठा कौन-सी इन्द्रिय का विषय है ? खुराक है ? थोड़ा सा देख लें, तो बहुत अच्छा है। किसका पेट भरता है, मान को खाने से ? स्पर्शन इन्द्रिय की भी खुराक यह नहीं है। इसकी खुराक क्या है ? आठ प्रकार के स्पर्श हैं। मान प्रतिष्ठा उसकी खुराक नहीं। रसना इन्द्रिय का विषय अनेक प्रकार के रस हैं। पाँच प्रकार के रस हैं। रसना इन्द्रिय की भूख भी मान प्रतिष्ठा के माध्यम से मिटती नहीं। तीसरे नम्बर की है नासिका। उसकी क्या आशा है ? वह भी कभी मान-प्रतिष्ठा नहीं चाहती। गन्ध चाहती है। सुगन्ध हो या दुर्गन्ध हो, कोई भी हो, वह पसन्द करती है। चक्षु इन्द्रिय अर्थात् आँख, यह भी मान-प्रतिष्ठा नहीं चाहती है। चाहती है क्या ? महाराज! जब अपमान हो जाता है तो आँखों में से पानी आ जाता है। है ना ? हाँ, इसीलिये आँख की खुराक मान है। यदि मान नहीं मिले तो पानी आ जाता है। अन्यथा आँखें फूल जाती हैं, खिल जाती हैं। इससे स्पष्ट है कि आँख की खुराक मान है। नहीं, आँख की खुराक रूप है। अब रही कान की बात। अपनी प्रशंसा सुन लेते हैं, तो कान उठकर ही खड़े हो जाते हैं। पैर आ जाते हैं उनके पास। वह भी नहीं। क्यों इसलिए सुबह कहा था ना, संज्ञी वही होता है जो संकेत को समझकर के काम कर लेता है। इस तरह पाँचों इन्द्रियाँ गायब हो गई। किन्तु प्रतिष्ठा किसकी खुराक है ? एक मात्र मन रह जाता है, वही एक मात्र इसकी भूख रखता है। किन्तु वह हमेशा रखे, यह नियम नहीं। जब व्यक्ति दरिद्र रहता है, उस समय वह मान की ओर प्राय: नहीं देखता। तब सब तरह से दरिद्रता रहती है। जब एक-एक विषय की पूर्ति होती चली जाती है, तो धीरे-धीरे मन को एक प्रकार से जीवन मिल जाता है। जिसका पेट ही नहीं भरता, वह चक्रवर्ती बनना नहीं चाहेगा। स्वप्न तक नहीं देखेगा वह। क्योंकि यह संभव नहीं, थोड़े से ऊपर खड़े हो जाते हैं तो फिर भागने की बात आ जाती है। जो उठकर देख भी नहीं पा रहा है, पैर ही नहीं हैं, तो फिर भागने की बात ही नहीं होती। एक-एक विषयों की पूर्ति होती चली जाती है तो मान-प्रतिष्ठा की ओर भी चला जाता है। मन का विषय मान है, क्योंकि छोटा व्यक्ति बड़े के पास जाना नहीं चाहता। वह मुझे खरीद लेगा। बड़ा व्यक्ति छोटे के पास जाना चाहता है। क्यों? उसकी पूर्ति उन्हीं के माध्यम से होगी। अब देखो! मान की भूख किसको हो गई। बड़ों को हो गई। अब उसकी पूर्ति किससे करेंगे ? एक बड़े व्यक्ति की भूख को मिटाने वाला छोटा व्यक्ति बड़ा है या वह बड़ा है। नहीं समझे। कि एक बड़ा व्यक्ति चक्रवर्ती भी अपनी भूख को मिटाने के लिये दरिद्र के पास चला जाता है। उसकी भूख वह मिटा देता है, तो बड़ा कौन हो गया ? चक्रवर्ती सोचता है, बड़े साहूकार सोचते हैं-मेरी वजह से इसका कार्य हो रहा है। सही पूछा जाय तो ज्ञान के द्वारा सोच लेना चाहिए कि इसके द्वारा मेरा काम चल रहा है। यदि यह नहीं चलेगा तो ब्लडप्रेशर में कमी-वेशी होने लगेगी, यह निश्चित बात है। अब मुझे कौन पूछेगा ? पूछ लगा लो, तो पूछेगा ही। किससे आप पूंछ लगवा रहे हैं ? मनुष्य होकर पूंछ चाहते हो। वाह! तब वह जागृत हो जाता है। सबसे ज्यादा अनर्थ होते हैं, तो मान-प्रतिष्ठा के कारण होते हैं। इसी के कारण आज बड़े-बड़े राष्ट्रों के बीच में संघर्ष छिड़ा हुआ है। हमने खोज की, हम वहाँ पर गये, हमने यह किया, वह किया, यह सब बातें केवल प्रतिष्ठा की अपेक्षा से आ जाती हैं। एक व्यक्ति ने कहा था-आज सौरमंडल के बारे में जितनी भी छानबीन हो रही है, उसमें जितना पैसा खर्च हो गया, आगे की जो योजनायें हैं, उसका खर्च भी निकालकर रख जाय, तो उससे तीन वर्ष तक विश्व की आबादी के लिये अनाज की पूर्ति की जा सकती है। हमें समझ में नहीं आता-इन राष्ट्रों के उद्देश्य क्या हैं ? तीन वर्ष तो बहुत हो गया। इतना खर्च किया जा रहा है, वहाँ जाने के लिये। इससे क्या सिद्ध करना चाहते हैं ? इससे कुछ सिद्ध नहीं होने वाला। इससे कोई ज्ञान का विकास होने वाला नहीं। फिर कहाँ गये, इस पर भी एकमत नहीं है। कोई दरिद्र हैं, कोई अकाल में पड़े हैं। कोई ईति से ग्रसित हैं, बहुत ही हीन दशा में पहुँच गये हैं। उनके लिये थोड़ा प्रबन्ध किया जाता है, तो बहुत बड़ा कार्य हो सकता था। लेकिन उसके बारे में नहीं सोचते। यह व्यक्ति मान-प्रतिष्ठा का ऐसा शिकार बन चुका है कि उसका सोच ही नहीं रहा। यह क्यों नहीं सोचता ? आचार्य कहते हैं-कि अफसोस की बात यही है। दुनियाँ के बारे में सोच रहा है। इसलिए ऐसा हो रहा है। जहाँ मान कषाय आ रही है, तो उसका कारण बस एक ही है कि वह दुनियाँ के बारे में छानबीन करता चला आ रहा है। यदि अपने बारे में सोच ले या स्वभाव के बारे में सोच ले, तो यह नहीं हो सकता। दूसरी बात यदि दूसरे के बारे में सोचता भी है तो, दीन व्यक्तियों की बात अलग है। मानी से मानी व्यक्ति भी किसी दीन-दुखी व्यक्ति को देख लेगा तो उसको नीचे से ऊपर उठाने का प्रयास भी करेगा। कुछ बातें पूछने के लिए बात करेगा। यद्यपि और किसी से वह बातचीत नहीं करता। लेकिन रोते हुए व्यक्ति को देखकर, भयभीत व्यक्ति को देखकर, वह बड़ा है, यह अपने आप ही भूलकर उसका सुख-दुख सुनने को तैयार हो सकता है। ये दो बातें हैं। पर को देखने से, दीन दरिद्र को देखने से अपना मान कम हो सकता है, और स्वभाव की ओर देख लें, तो मान समाप्त ही हो सकता है, हो जाता है। महाभारत कब हुआ, और क्यों हुआ ? इसकी जड़ क्या है ? क्या खाने के लिये नहीं था या रहने के लिये जगह नहीं थी ? जंगल में मंगल हो सकता है। दस-दस खण्ड के मकान में रहने वाले यहाँ पर, क्षेत्र पर एक भी मकान नहीं मिल रहा। महाराज! इतनी जगह मिल गई, बहुत पर्याप्त है। पर्याप्त है, मान कहाँ चला गया ? वहाँ न पंखा है, न कूलर है, न फ्रिज है, न कुकर। क्या है ? कुछ भी तो नहीं है। बस इतना ही पर्याप्त है, महाराज! कैसे दिन निकल रहे हैं ? महाराज! पता नहीं चलता। ऐसा लगता है दिन आता है तो रात सामने है। रात आती है तो दिन सामने है। यानि सुबहशाम निकल रहे हैं। और आनन्द मंगल है। हमें पहले यह देखना है कि हमारी ऐसी दशा कैसे हुई ? मान-प्रतिष्ठा के कारण हमने बहुत सारे गुणों का अनादर किया। महाभारत इसीलिये हुआ। मान-प्रतिष्ठा के कारण हुआ। इतनी यातनायें, ये सभी मान-प्रतिष्ठा के कारण और अन्त में मान की चरम सीमा है। अपमान करने की एक चरम सीमा है। दूसरे को अपमान करके अपना पेट भरने की चरम सीमा है। दुर्योधन और दु:शासन ने यह निश्चित कर लिया कि द्रौपदी के वस्त्र का हरण कर लेना। उसमें कौन-सी बात छिपी हुई थी, मुझे बताओ ? उसमें एक मात्र यही बात बनेगी कि हमारे देखते ही देखते मानप्रतिष्ठा समाप्त हो गई। इस प्रकार उनको नीचा दिखने का एकमात्र उद्देश्य था। यह कौन-सी भूख है ? यह किसकी भूख है ? यह राक्षसी भूख है। शीलवती स्त्री के ऊपर भी इस प्रकार का कार्य हो सकता है। जब मान खड़ा हो जाता है, तब यह महान अनर्थ का कार्य भी कर सकता है। योद्धा कहना तो फिर भी ठीक है, लेकिन इन दोनों के साथ दुर् ही लगा है। हमारी समझ में नहीं आता। योद्धा अच्छा हो तो सद्योद्धा, सुयोद्धा और योद्धा कह सकते हैं। अयोद्धा कह सकते हैं। लेकिन इन दोनों भाईयों के पीछे एक ही नाम दुर्योधन, दु:शासन और एक नाम दुष्यन्त में दु क्यों लगा? यह समझ में नहीं आता। जिनकी बुद्धि ही दुष्ट है, जिनका शासन ही दुष्ट है। क्या सोचता है मन? पाँच इन्द्रियाँ सोचतीं नहीं और यह मन सोचता है। इनको दुखित बनाने का मात्र एक ही उपाय है-इनकी पत्नि को नग्न कर देना। बहुत बड़ा अनर्थकारी निर्णय। और वह कौन ? भीष्म पितामह। कैसे देखते रह गये, जो महाभारत की सभा में सिरमौर जैसे, और देखते रह गये वह कौन-सी भीतर की इच्छा है ? लोभ, ललक है। यह कौन सी खुराक है ? क्या नीति ही डूब गई ? मानी व्यक्ति के सामने सब कुछ डूब जाता है। रावण आखिर नरक क्यों गया ? इसका भी उत्तर यही है। मैंने पुरुषार्थ किया है, तो तुमको भी पुरुषार्थ करना है। सामने दिख रहा है, स्पष्ट दिख रहा है, इसमें मेरी मृत्यु निश्चित है। मृत्यु तो हमेशा होती है, किन्तु क्षत्रिय का कर्तव्य होता है कि मान-प्रतिष्ठा बढ़ाकर चलना चाहिए। अब प्राण प्यारी मन्दोदरी से रावण कहता है- मेरी बात मंजूर है, तो ठीक है, नहीं तो यहाँ पर आने की जरूरत नहीं है। रावण स्वयं नीतिज्ञ है। उसके सामने नीति सिखाने का यह प्रयास ठीक नहीं। मानी व्यक्ति अपनी पत्नि को छोड़ सकता है। मानी व्यक्ति अपनी प्रजा को छोड़ सकता है। मानी व्यक्ति अपने भ्राता को छोड़ सकता है। लेकिन अपने मान को नहीं छोड़ सकता। सबको छोड़ सकता है वह मानी व्यक्ति, प्राण प्यारे जीवन को भी छोड़ सकता है। लेकिन मान को नहीं छोड़ सकता। नरक जाना मंजूर है, लेकिन मान को कभी भी, किसी के सामने बेचेंगा नहीं। यही क्षत्रियता के लिये कलंक है। मैं अपने परिवार में व राज्य में राजा होकर कभी अपने जीवन को कलंकित नहीं करूंगा। ध्यान रखो, मैं क्षत्रिय मर जाऊँ, मैं कभी मर नहीं सकता। यह शरीर आज नहीं तो कल मरना ही है। मुझे अपने जीवन की अमरगाथा बनाकर के ही जाना है। रावण का नाम युगों-युगों तक यह जग याद करता रहेगा। मैं राम बनना नहीं चाहता, रावण बनना चाहता हूँ। ऐसा सबको बता देता है। समझे। इस चीज की प्राप्ति के लिये कितने अनर्थ किये जा सकते हैं। पुराण ग्रन्थ उनके लिये साक्षी हैं। एक भी पुराण ऐसा नहीं है, जिसमें मान के कारण कोई नरक नहीं गया हो। एक भी युग ऐसा नहीं है, जहाँ पर इस प्रकार मान-प्रतिष्ठा को धक्का लगने से व्यक्ति भीतर ही भीतर घुटकर नहीं मरा हो। बहुत दयनीय स्थिति है। इतिहास को देखिये। उनमें हमारा भी नम्बर अवश्य होगा, शायद। आज तक मान कषाय पनप रही है। उसका क्या कारण है ? मान का परिवेश क्रोध से कम नहीं है। ये दोनों द्वेष के प्रतीक हैं। सभा में यदि विप्लव हो सकता है तो दो व्यक्तियों के माध्यम से हो सकता है। एक क्रोधी या एक मानी के माध्यम से। किसी को क्रोध आ जाय, तो वह सभा में विप्लव कर दे। एक मानी व्यक्ति आकर के सबसे सामने बैठ जाय। आपकी आँखों के सामने बैठ जाये। पीछे वालों को देखो, आगे वालों को भी देखो। क्या बात है ? जो सामने है उसी को देखो। आपको सामने देखना है। मैं उनको ही सामने देख रहा हूँ। मान-प्रतिष्ठा के लिए यह संसारी प्राणी बहुत अनर्थ करता है। पेट भरता नहीं। पेट कहता है- भैया! मैं तो भूखा हूँ, और मेरे लिये आधा पाव आटा आवश्यक है। भैया! आटो ढूंढ़ रहे हो आप लोग। समझ में नहीं आता, आप आटो में घुमा दोगे तो मेरा कुछ होगा नहीं और किसको क्या भर रहा है ? हमें समझ में नहीं आ रहा है। मन पूरा भी नहीं समझता। क्योंकि हम तो घूम आये और ऐसी कार में बैठकर घूम आये जो किसी के पास नहीं थी। ऐसी कार। सब बेकार बैठे हैं। ऐसी कार में घूमकर सबके सामने से आ गया हूँ। पेट कहता- मेरे लिये क्या मिला ? कुछ तो खिलाते। कुछ तो पिलाते। उसकी ओर कोई नहीं देखता। प्रयोजनभूत तत्व के बारे में जब हम सोचते हैं, तब मान-प्रतिष्ठा अप्रयोजनीय सिद्ध हो जाती है। और जिस व्यक्ति की दृष्टि में तत्वचर्चा करने के उपरान्त भी मान-प्रतिष्ठा की भूख रहती है, तो इस तत्वज्ञान का कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि यह प्रयोजनभूत ही नहीं है। इसीलिये कथचित् आचार्यों ने कहा है, कि तुम्हारे लिये प्राणों की रक्षा करना है। सुन रहे या नहीं। सुनाने की सामग्री तो अब सुन ही लो, कानों से सुन लो, तो अच्छा है। उसमें क्या इनडायरेक्ट दिखता है ? यहाँ जो हमारे लिये मोक्षमार्ग में कार्यकारी है, ऐसी पाँचों इन्द्रियों को प्राण के रूप में स्वीकार किया है। आयु को भी प्राण के रूप में स्वीकार किया है। लेकिन मान को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया। मोक्षमार्ग में मान का क्या महत्व है ? पूछा जाये, तो कोई महत्व नहीं है। एक सेकेंड के लिये भी वह कार्यकारी नहीं है। बल्कि मान के कारण मोक्षमार्ग में दूषण लगते हैं। मान को मिटाने के लिये पुरुषार्थ बताया है। इसलिए प्राण के स्थान पर होने वालीं इन्द्रियाँ, जिसके माध्यम से ज्ञान प्राप्त कर हम मोक्षमार्ग पर चल सकते हैं, वे तो हमारे लिये कार्यकारी हैं। किन्तु मान-प्रतिष्ठा नहीं। यदि आप मान की प्रतिष्ठा बढ़ाना चाहते हो, तो मान कषाय की प्रतिष्ठा मत बढ़ाओ। प्रमाण की प्रतिष्ठा बढ़ाना चाहिए। सही ज्ञान की प्रतिष्ठा वह है जिसके माध्यम से तत्वज्ञान से हीन व्यक्ति भी तत्वज्ञान की ओर आकृष्ट हो जाये। तत्वज्ञान की संभाल करो यानि सम्यग्ज्ञानी का सम्मान करो और सम्मान करो अर्थात् उसको मान नहीं दी। मान और सम्मान में बहुत अन्तर है। क्योंकि ज्ञानी का सम्मान करने से अनेक अज्ञानी भी ज्ञान की ओर आ जायेंगे और मान देने से वही विपरीत चलने लग जाता है। उसको मान कभी न दें, क्योंकि वह सोचेगा, मैं जो कार्य कर रहा हूँ, मैं जो सोच रहा हूँ, वह समीचीन है और बहुत अच्छा है। इसलिए एक प्रकार से आपके माध्यम से उसका पतन हो जायेगा। मान सम्मान अनिवार्य है लोक में। पर प्रयोजनभूत तत्व की ओर लाने के लिये उसको क्षय कर देना चाहिए। प्रयोजनभूत तत्व क्या है? मान प्रयोजनभूत तत्व नहीं है, यह पहले समझें। महाभारत, रामायण और भी पुराणों को देखने से ऐसा लगता है, कि बड़े-बड़े क्षत्रियों में भी मान की बातें थी। मान का आधार क्या है ? किन-किन चीजों को लेकर मन में मान जागृत हो जाता है? मान का अधिकृत स्थान मन है। और मन क्या चाहता है ? किन-किन चीजों के लेकर मान करता है ? आचार्य समन्तभद्र जी महाराज ने कहा, उनकी यह कारिका बहुत अच्छी लगती है। इस कारिका को पढ़ने, सुनने और अध्ययन करने से लगता है कि यह एक मात्र कारिका ही पर्याप्त है, दुनियाँ में सम्यग्ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए, अध्यात्म के प्रचार-प्रसार के लिये। पहले क्या रखा? पहले ज्ञान रखा ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धिद्रं तपो वपुः। अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयः॥ (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-२५) गतस्मय: यह विस्मय की बात है। किसके ऊपर यह मद करता है। मय यानि मद होता है। ज्ञान को लेकर व्यक्ति मद करता है, किन्तु यह विपरीत हो गया। ज्ञान तो दीपक का काम करता है। विज्ञान अपने को भी बचाता है और उसकी छाया में जो आता है वह भी बच जाता है। लेकिन ज्ञान के माध्यम से सम्यग्दर्शन समाप्त हो जाता है। यह तो समझ में नहीं आता। ज्ञान के माध्यम से नहीं, ज्ञान का मद करने से। ज्ञान के माध्यम से तो स्व-पर प्रकाशन हो जाता है। ज्ञान का मद करने से स्व का भी ज्ञान और पर का भी ज्ञान, दोनों ही पतित हो जाते हैं और मान करते-करते कहाँ पर चले जाते हैं ? पता नहीं लगता और अनर्थ हो जाता है। दो व्यक्ति आये और कहा- महाराज! हम दोनों मिलकर काम कर रहे हैं, हमारे लिए आशीर्वाद दे दो, ताकि हम दोनों के बीच कोई मतभेद न हो। घबराते क्यों हो ? दोनों व्यक्तियों में से एक व्यक्ति ने कहा - हमारा सामंजस्य बना रहे, महाराज! हमें विश्वास है, कि सामंजस्य बना रहेगा, क्योंकि तुम देने में से एक ही विद्वान् है। दो विद्वानों के बीच में ही मतभेद होते हैं। और मतभेद होते-होते मनभेद भी हो जाते हैं। घबराओ नहीं। दो विद्वानों के मिलने से ही झगड़े शुरू होते हैं। ऐसा बड़ा तूफान भी हो जायेगा। किन्तु एक विद्वान् के पीछे नहीं। हमारी बात क्यों नहीं मानी जा रही ? इसीलिये झगड़ा होता है। मेरी बात नहीं मानी जा रही है। हमें क्या कम समझते हो ? तो ज्यादा कौन है ? कम तो कोई नहीं है। मैं भी नहीं। तू ही है मैं कहने से तो दोनों व्यक्ति आ सकते हैं। मैं कहने की अपेक्षा से ही तब वह कहेगा आपको तुम कहो। और तुम उनको कह दो। दोनों ही आ जायेंगे। वह होना चाहिए। पर ऐसा होता नहीं। इसलिए पहले ज्ञान को रखा। ज्ञान चूँकि राग-द्वेष का अभाव करने के लिये था, किन्तु उसके कारण मद कर लिया, तो ज्ञान का ही दम निकल गया। मद का विलोम परिणामन हो जाता है। दम निकल गया। जिसके द्वारा जीवन बनना था, उसी से जीवन बिगड़ गया। जिसके माध्यम से विकास होना था, विकास समाप्त हो गया। मद आने के उपरान्त आचार्यो ने कहा है-अन्धकार फैल जाता है। मद वाले अन्धे होते हैं। मदान्ध जिसको कहते हैं। मद हो जाता है तो अन्धा हो जाता है। और यदि मद नहीं है तो अन्धा भी ज्ञानी हो जाता है। यही एकमात्र कारण है, जिसके करने से सम्यग्दर्शन समाप्त हो जाता है। कुल का मद, जाति का मद, ऐश्वर्य का मद, शारीरिक बल का मद आदि ये सारे के सारे मद के स्रोत हैं। जिस ज्ञान के माध्यम से मद आता है, तो वह दूसरों को समाप्त करना चाहता है। जो व्यक्ति मद के कारण दूसरों को समाप्त कर देता है, वह अपने आत्मधर्म को ही मिटा देता है और कुछ नहीं कर रहा है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को इसी मद के कारण मिटाने पर तुले हुए हैं। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को गिराने के लिये बल का प्रयोग करता है। यदि उस बल का प्रयोग विकास के लिये करता है तो क्या कहना ? यह नहीं हो रहा है। 'न धमों धार्मिकैबिना' धर्म कभी भी हम देख नहीं सकते, इस दुनियाँ में धर्मात्माओं के अभाव में। और धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति यदि अपने मद के कारण धर्मात्माओं को अपमानित करता है, उनको नीचा गिराने का प्रयास करता है, तो यथार्थतया वह व्यक्ति क्या कर रहा है ? धर्म को ही निर्मूल समाप्त कर रहा है। मान की एक ऐसी गर्मी है, जिसके द्वारा ठण्ड के दिनों में भी पसीना आ जाता है। नहीं आता क्या ? हाँ। मान के कारण बाहर ही बैठ जाता है, उनको वहाँ भी कुछ नहीं होगा। मान के कारण भीतर भी नहीं आते, क्योंकि हमें बुलाया नहीं गया। उन्हें ठण्ड नहीं लगेगी, इतनी गर्मी है, सर्दी कहाँ से लगेगी ? उनको तो लग ही नहीं सकती। जब तक वह उतरेगा नहीं मान के शिखर से, तब तक उन पर ठण्ड की कोई अनुभूति नहीं। न चादर की आवश्यकता, न कमरे की आवश्यकता, न पाटे की आवश्यकता, न चटाई की आवश्यकता, किसी की आवश्यकता नहीं। जब तक यह गर्मी रहेगी, तब तक तो वहाँ बिल्कुल हीटर जल रहा है। निश्चित बात है, यदि हम लोग प्रयोजनभूत तत्व को देख लें तो बहुत बड़े-बड़े लाभ कर सकते हैं। और हम उस प्रयोजन को गौण कर लें तो बहुत बड़े-बड़े अनर्थ भी हो सकते हैं। तुम्हारा यह मौलिक जीवन धूल में मिल सकता है। मिलता आया है। गुस्सा से हम बहुत कुछ काम कर सकते हैं। मान से हम बहुत कुछ कर सकते हैं। लेकिन धार्मिक भाव से, आज तो धर्म युग नहीं है, महाराज! क्यों? पंचमकाल है। और पंचमकाल में धर्म-कर्म नहीं होता है। स्ववश धर्म होना आज दुर्लभ है। परवश बहुत कुछ हो सकता है। इससे तो बढ़िया यहीं-कहीं उपवास करके रह जायें। बस वह ४-५ दिन तक खायेगा नहीं। एक व्रत करना भी मुश्किल था, उसके लिये और इस तरह डॉट दिया, तो वह पाँच दिनों तक उपवास कर सकता है। हम आयेंगे नहीं, बुलायेंगे। छह दिन तक आप बुलाते रहोगे, फिर हम आयेंगे। यह अत्यधिक तीव्र होता है। अब कहें क्या ? दिखता तो है नहीं, महाराज। मान इतने बड़े व्यक्तित्व को भी क्यों हिला देता है ? समझ में नहीं आता। कल ही कहा था परं परं सूक्ष्मम्॥ प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक् तैजसात्॥ अनन्तगुणे परे॥ (तत्त्वार्थसूत्र - २/३७, ३८, ३९ ) हाँ, अनन्तगुण भरे हैं। अनन्तानन्त पुद्गल परमाणुओं के माध्यम से मान का निष्पादन होता है। वह गोली का काम करता है उसके पास ऐसी शक्ति है। बल्कि वह शब्द तो निकल जाता है। लेकिन जब कभी याद आ जाय तब भी वह जैसे अभी गोली लगी हो, ऐसा अनुभव होता है। इसी को बोलते हैं प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ स्थान यानि फल देने की शक्तियाँ। चौदहवें गुणस्थानवर्ती के लिये भी यह संभव है। क्यों होता है ऐसा ? इसके पास उसकी शक्ति रहती है। मनोभाव के साथ अच्छे भाव के बारे में हम सोच लेते हैं तो उसी प्रकार अचेतन को लेकर भी कार्य हो सकता है। बुराई को लेकर कर सकते हैं तो बुरे कार्य भी हो सकते हैं। तो अच्छे भावों के साथ प्रथम स्थान, द्वितीय स्थान, तृतीय स्थानगत बन्ध होता था, परन्तु ज्यों ही सम्यग्दर्शन की भूमिका आ जाती है, आचार्यों का उल्लेख है - प्रशस्त प्रकृतियों में चतुर्थ स्थानीय बंध होना प्रारम्भ हो जाता है। हम कषायों के द्वारा चतुर्थ स्थानीय को द्वितीय स्थान तक ले जाते हैं। और यदि धार्मिक कार्यों की ओर झुकाव हो जाता है, सात्विक जीवन की ओर चला जाता है उपयोग, तो निश्चित रूप से वह चतुर्थ स्थानीय बंध करना प्रारम्भ कर देता है। वह ऐसी पोटेंसी होती है, जिसका बिना बोले ही मात्र भावों के माध्यम से उस व्यक्ति के ऊपर प्रभाव पड़ जाता है। सम्मान के ऐसे कार्य भी आप कर सकते हैं, जिसके माध्यम से बड़े-बड़े कार्य जो रुके हुए हैं, वह भी यूँ ही खेल-खेल में हो जाते हैं। ज्ञान का सदुपयोग आप करना चाहें तो अवसर है। इस समय उस ज्ञान को वितरित करो, फैला दो, जिसके द्वारा मानी व्यक्ति भी इस ओर घूमना चाहे तो घूम सके। आज मान-प्रतिष्ठा के लिये ही कुछ जीवों का वध किया जा रहा है। और आपके मान को और बढ़ाने का संकल्प लिया गया है। आज पचास वर्ष हो गए आपकी उन्नति के लिये। राष्ट्र ने संकल्प लिया है, भारतवासियों को विश्व के सामने लाकर के खड़ा कर देना है। अरे! हम तो संकल्प लेते हैं। रात-दिन एक करके, आपके जीवन की उन्नति के लिये, आपकी शान को बढ़ाने के लिए, कितने ही जीवों का वध हो जाय, कोई बाधा नहीं, यह वध जो हो रहा है, भुखमरी है, इसलिए नहीं हो रहा है। ध्यान रखो, आप लोगों के पेट भरने के उपरान्त अब आपका मान और भर जाय। विश्व के सामने स्टेण्डर्ड कायम हो जाय, इसके लिये यह काम किया जा रहा है। आपकी मंजूरी है। हाँ, आप मान बढ़ाना चाह रहे हैं। पशुओं का वध कर यहाँ से मांस और खून का निर्यात करके, वहाँ से विदेशी मुद्रा लाकर राष्ट्र को उन्नत बनाने का संकल्प ठीक नहीं है। यदि ठीक नहीं है, तो फिर पचास साल से आपने सोचा क्यों नहीं ? राष्ट्र को इस प्रकार उन्नत बनाने का संकल्प ठीक नहीं है। जिस समय राष्ट्र को स्वाधीनता मिली, उस समय एक-एक व्यक्ति के पास कुछ न कुछ धन था। किन्तु आज प्रत्येक नागरिक पर हजार रुपये का कर्ज है। कर्ज के साथ ही भारतीय व्यक्ति का जन्म हो रहा है। पेट में आया नहीं कि वह कर्जदार हो गया। अब पहले कर्ज को मिटाओ। क्या कर्जदार व्यक्ति बाजार में सूटेड-बूटेड जा सकता है ? शाम को जल्दी-जल्दी जाकर काम निकाल दो, भैया। मेन रोड से मत चलो, वायपास से चलो। बाजार में मुख दिखाने लायक नहीं, भारत के ऊपर कर्ज होकर भी भारत कहता है - कि हम उन्नति की ओर अग्रसर हैं। विकासशील राष्ट्रों में भारत का भी नम्बर है। मतलब कर्ज लेने में वह विकासशील है। खूबी की बात तो यह है कि किसी को करुणा नहीं आ रही है। इस कर्ज को यदि समाप्त करना चाहें, तो कर सकते हैं। यदि कोई भारतीय सोच ले कि भारत के धन को जो बाहर रखा गया है, वह आ जाय, तो पूरा कर्ज समाप्त हो सकता है। पशुओं को काटने की क्या आवश्यकता है ? लेकिन मान-प्रतिष्ठा की बात आ जाती है। समन्तभद्र महाराज कहते हैं - मान-प्रतिष्ठा की पूर्ति के लिये हम कौन-कौन से अनर्थ नहीं करते ? सब कुछ कर सकते हैं। सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकैर्बिना॥ हम दूसरों को समाप्त करने के लिये तुले हैं। स्वामी समन्तभद्र कहते हैं- धर्मात्माओं के बिना धर्म नहीं हो सकता। यदि धर्मात्मा यहाँ पर हैं तो धर्म की रक्षा करना चाहिए। यह परम कर्तव्य है, संस्कृति को सुरक्षित रखना, अहिंसा को सुरक्षित रखना। भारत की संस्कृति अहिंसा है। इस अहिंसा में सारी संस्कृतियां अपने आप समाहित हो जाती हैं। सभी कलायें, सभी ज्ञान की विधायें सारा का सारा साहित्य सुरक्षित रह जाता है। इस साहित्य को तो सुरक्षित आप रखो और जो जीवित प्राणी हैं, उनको मौत के घात उतारकर संस्कृति की रक्षा करना चाहो, तो यह कभी भी नहीं हो सकता। प्राणियों के प्रति जिस व्यक्ति के हृदय में वात्सल्य/प्रेम/करुणा/दया नहीं है, वह व्यक्ति भी नहीं है। उसके कदम किस ओर हैं ? हम कह नहीं सकते। अच्छाई की ओर तो वह नहीं ही है। इसलिए कि पचास वर्ष के उपरान्त भी आप लोगों ने यह नहीं सोचा कि सही उन्नति किसमें निहित है। हमारा हित किसमें निहित है ? ज्यादा शास्त्रों को रखने से, ज्यादा वस्तुओं के संकलन करने से, अच्छे-अच्छे बिल्डिंग बनाने से हमारी संस्कृति का संरक्षण नहीं है। अपितु हमारे विचार, हमारे आचार जितने सात्विक बनेंगे, उतना ही आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ आत्मोन्मुखी होने का सौभाग्य प्राप्त हो सकता है। विषय सामग्री जितनी फैलती चली जायेगी इस धरती पर, उतना ही व्यक्ति परोन्मुखी ही होता चला जायेगा, आत्मोन्मुखी तो हो ही नहीं सकता। बहिर्मुखी होना इस युग का सबसे बड़ा अभिशाप माना जायेगा। पहले अन्तर्मुखी और ऊध्र्वमुखी हुआ करते थे। हमारा लक्ष्य ऊध्र्वमुखी होना था, किन्तु आज दूरमुखी बहिर्मुखी हो रहा है। और दूरदृष्टि की आवश्यकता है, दूरदर्शन की नहीं। क्योंकि दूरदर्शन को देखने से आँखों की ज्योति खराब होती है, और दूरदृष्टि रखने से हमारा मानसिक स्तर बढ़ता चला जाता है। जितनी दूरदृष्टि रखोगे, चिन्तन की धारा उतनी ही डीप तक पहुँच जायेगी और जितनी गहराई में आप पहुँचोगे उतने ही माणिक-मोतियों का खजाना आपको मिलेगा। उसी के बारे में आप क्या सोच रहे हैं। छोटी-छोटी बातों के ऊपर शोध चल रहे हैं। आत्मा की खोज के बारे में, वस्तुत: जीवन के विकास के बारे में क्या सोचा जा रहा है ? कुछ नहीं। यही अकर्मण्यता है। सही उद्योग करने से जीवन उन्नत हो सकता है, लेकिन आज बिना उद्यम का व्यवसाय माना जाता है। पहले के व्यक्ति इस प्रकार के कार्य की सोचते तक नहीं थे। सही व्यवसाय के माध्यम से यदि धन का अर्जन होता है, तो कोई बाधा नहीं। सुनते हैं कि जैन समाज में पहले चूने का काम नहीं करते थे। जैन समाज में ईटों का काम नहीं करते थे। जैन समाज में और भी कुछ ऐसे कार्य हैं, जिनको नहीं करते थे। कुछ ऐसे व्यापार, धन-धान्य भी जिनमें वर्षा के दिनों में ज्यादा कीड़े/लटें पड़ जाती हैं, स्वीकृत नहीं करते थे। उनको दो महीने तक लाना बिल्कुल बंद कर दिया जाता था। किन्तु आज किसी भी प्रकार से आये, जैसा-तैसा आवे, पैसा आवे। बस ये तुकबंदी अच्छी लग रही है आप लोगों को, किन्तु यह अच्छा नहीं है। ज्यादा पैसा लाने से पैसा वाले थोड़े ही होते हैं। लेकिन पैसे का भी अपना महत्व रहता है। सात्विक पैसा अलग काम करता है। राजसता पूर्ण पैसा अलग काम करता है। खानदानी और नया पैसा इनमें क्या अन्तर है ? ओल्ड को गोल्ड माना जाता है। और नया बोल्ड माना जाता है। आप कितना भी करो उसके द्वारा कभी भी शक्ति नहीं मिलती, क्योंकि प्राणों में शान्ति जब आती है, जब अन्न अच्छा मिलता है। अन्न अच्छा तभी माना जाता है, जब धन अच्छा होता है। इसलिए नया पैसा अच्छा नहीं है। पैसा तो पुराना ही अच्छा है, क्योंकि पुरानी की ही कीमत का आज पैसा है, यह भी ध्यान रखना। एक व्यक्ति ने आकर कहा-महाराज! पहले में और आज में कुछ अन्तर नहीं। हाँ, बिल्कुल अन्तर नहीं। आपको कितना वेतन मिलता है ? मैंने पूछा। महाराज! पाँच हजार मिलता है। पहले कितना मिलता था? पहले तीस वर्ष पूर्व सौ रुपये मिलते थे। बहुत उन्नति हो गई, पचास गुना हो गया। नहीं! महाराज, उस में भी उतने में एक तोला सोना आता था और भी वही है। कहाँ है वह उन्नति बताओ ? तेली के बैल की भांति आप पचास वर्ष की उन्नति के बाद भी वहीं के वहीं हैं। इस समय एक जीरो और आ गया। पाँच हजार में हम कैसे काम चलायें ? सूघ-सूघ कर रखना पड़ता है। पहले शक्कर के लिये मुंह में पानी आता था, आज शक्कर का नाम सुनकर आँखों में पानी आ जाता है। सोचिये, विचार करिये। क्या जमाना आ गया ? वह ठीक था, कि यह ठीक है ? महाराज, क्या दोनों एक ही हैं सूखापना आ गया है। सौ रुपया कहीं भी बांध बूध कर रख जाते थे। पाँच हजार रखने के लिये स्थान ही नहीं। अब नोट के बंडल बहुत हो गये हैं, कहाँ रखें। आज जमाना आ गया टोकरे में तो नोट ले जाओ और दुकान से सामान खरीदकर पाकेट में ले आओ। अब पैकिट में कोई भी देखता नहीं, भैया। यह क्या है जेब में ? यह देखलो, बहुत मंहगाई है। वस्तुस्थिति देखते हैं तो कुछ हुआ ही नहीं है। हुआ है, ऐसा कहा जा रहा है या धारण बनाई जा रही है। आपका जीवन वहीं पर और ज्यों का त्यों है। विकास कहाँ है बता दीजिये ? अपितु हमारे देश का ह्रास हुआ है। आज सात्विकता समाप्त होने के कारण से ऐसी दशा हो रही है। मान-प्रतिष्ठा के कारण से हम चमक-दमक में फैंसते जा रहे हैं। मान-प्रतिष्ठा को बढ़ाने में प्रत्येक व्यक्ति लगा हुआ है। सब अपनी चिन्ता में है, देश की चिन्ता किसी को नहीं। भगवान् के स्वरूप को उनके दर्शन से लाखों व्यक्तियों में परिवर्तन आ जाता है। आज भारत की इस धरती पर ऐसे व्यक्तित्व की आवश्यकता है, जो चारों तरफ शान्ति का वातावरण ला सके। आज हमें ऐसे दीपक की आवश्यकता है, जो इस अन्धकार को दूर कर सके, ऐसे रत्नदीपक की बहुत आवश्यकता है। कषाय छोड़ने से शान्ति मिलती है। अपनी प्रतिष्ठा के लिये दूसरे को क्यों अपमानित किया जाता है ? वह मूक पशु जो स्वयं पीड़ित रहता है, तुम क्यों अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये उसे पीड़ित कर रहे हो ? वह पशु तो रूखा-सूखा घास ही तो खाता है, लेकिन आपको क्या देता है ? इसके बारे में विचार करो। पशु सीमा में रहकर कभी भी प्रकृति विरुद्ध नहीं होता। नारकी और देव भी विरुद्ध नहीं होते। अगर होते हैं तो मानव। मनु यानि मानी नहीं। वही मान करना सिखाते हैं। मनु चले गये पर ये महामना बन गये, जो मान रखते हैं। मान का भूखा है यह मानव। पेट भरते हैं जीवन चलाने के लिये और पेटी भरते हैं जीवन को चढ़ाने के लिये। पेट आधा घंटे में भर जाता है और पेटी जीवन भर में नहीं भरेगी। संकल्प करें - कषाय कम करने का। मूल्य को बढ़ाने के लिये सद्धर्म का आश्रय लेना आवश्यक होता है। अब भारत को मान-प्रतिष्ठा की दौड़ को छोड़कर आत्मनिष्ठा की ओर आना चाहिए। भारत की धरती पर जो दुष्कृत्य बढ़ रहे हैं, उन्हें मिटाने की बात करना चाहिए। मांस का निर्यात करना भारत जैसे राष्ट्र को शोभा नहीं देता। इस कार्य को अविलम्ब रुकवाने के लिये आवाज उठाना चाहिए, और भारत में मांस निर्यात बन्द होना चाहिए। इसी में राष्ट्र का हित है। इसी भावना के साथ... उत्तम मार्दवधर्म की जय.......
  21. ईधन को पटकना बंद कर दो तो अग्नि धीरे-धीरे शान्त होती चली जाती है। इससे बोध का एक अवसर प्राप्त हो जाता है और यदि क्रोध बिल्कुल शान्त हो गया, तो बोध शोध में परिवर्तित हो जाता है। नहीं, तो शोध प्रतिशोध के रूप में भी सामने आकर खड़ा हो सकता है।बहुत पहले की बात है, वर्षों पहले एक पुरानी कारिका अपने को सुनने मिली थी। वह कारिका बहुत ही प्रासंगिक है | पुष्पकोटिसमं स्तोत्रं स्तोत्रकोटिसमं जपः । जप: कोटिसम ध्यान ध्यानकोटिसम क्षमा॥ इसी के माध्यम से व्याख्या प्रारम्भ कर दें, तो बहुत अच्छा हो। कोई भी कार्य करते हैं, तो हमारे आचार्यों ने यह ही कहा है, कि उसमें आरम्भ सारंभ कम हो और कार्य पूर्ण हो अर्थात् खर्चा कम और आमद ज्यादा, यह उन्नति का लक्षण है। इस कारिका में पूरा का पूरा यही भाव आया है। किसी पूज्य के चरणों में करोड़-करोड़ फूल चढ़ाने के उपरान्त जो फल मिलता है। वह एक बार पूज्य की स्तुति/स्तोत्र पाठ करने से प्राप्त होता है। हाँ महाराज। ऐसी ही कुछ बातें बताया करो, ताकि हमारा कुछ खर्च न हो और बढ़ता जरूर चला जाये। लेकिन इतना ध्यान रखना, मुक्ति की बात है यह। इससे भी आगे बढ़ना है। स्तोत्रकोटिसमं जप: जो करोड़ों बार स्तोत्र पाठ करता है और जो एक बार जप करता है, तो दोनों को ही समान फ़ल मिलता है। और करोड़ों जाप करने का जो फल हो वह एक बार ध्यान करने से मिलता है, एक बार क्षमा करने से उसको उतना फल मिल जाता है। इसमें अहिंसा की धारा क्रमश: बढ़ती जा रही है। अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्ति-र्हिसेति जिनागमस्य संक्षेपः॥ संतों ने कहा-जो हिंसा बाहर होती है, वह हिंसा तब होती है, जब पहले भीतर हो चुकी होती है। तभी भीतर होकर बाहर आती है। बाहर हो या न हो, किन्तु भीतर हो गई, तो हो गई। उसका परिणाम कालान्तर में या निश्चित एक अवधि के बाद सामने आता है। कई व्यक्ति आकर पूछते हैं, कि महाराज। हमने अपने जीवन में किसका बुरा किया है ? जो हमारी यह स्थिति बन गई है, और हम धर्म करने के लिए आ रहे हैं या करने जा रहे हैं और उसमें यह फल मिल रहा है। इसमें हमें धर्म में ही उदासीनता आ रही है। एक बार आपसे पूछ लू-उदासीन होऊँ या नहीं होऊँ ? सुनो। केवल वर्तमान की दशा को मत देखो, कुछ इतिहास भी खोलो What is your history हिस्ट्री को सुनने से आप हिस्टीरिया रोग से ग्रसित हो जायेंगे। ऐसी प्रत्येक की हिस्ट्री है। अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्ति-र्हिसेति जिनागमस्य संक्षेपः॥ अहिंसा या क्षमा तक पहुँचने के लिये हमें क्या करना चाहिए? उस हिंसा को समाप्त करके अहिंसा पर हमें आरूढ़ होना है। उसके लिये क्या करना है ? क्षमा धर्म को प्राप्त करना चाहते हो, तो एक लाख का दान दे दो, दो लाख का दान दे दी, तीन लाख का दान दे दो, चार लाख का दान दे दी। महाराज। इससे हमारे पर विशेष कृपा कर देंगे, क्षमा कर देंगे। आपके या मेरे द्वारा क्षमा कर देने से सारे के सारे दोष निर्मूल हो जायें, तो मैं करने के लिये तैयार हूँ। इसमें कोई बाधा नहीं। किसी भी प्रकार से हो जाये। इससे स्व का कल्याण भी हो जाये और पर का भी कल्याण हो जावे। इस कारिका में कहा गया है कि जो व्यक्ति विषय सामग्री को पूजन सामग्री में परिवर्तित कर देता है, इस प्रकार बढ़ाता है, तो निश्चित है कि उसकी हिंसकवृत्ति कम होती चली जाती है। प्रत्येक व्यक्ति की एक ही परिणति होती है, ऐसी बात नहीं है। अत: हमें उस राग-द्वेष की प्रणाली को समाप्त करना है। उसे किस ढंग से कम कर सकते हैं ? जिनके स्तोत्र पाठ करने से हमारा जीवन अपने आप ही शान्त होता चला जाता है। दहाड़ ने वाला सिंह, फुफकारने वाला सर्प, फन उठाये हुए सर्प, ये सब घातक हिंसक होते हुए भी क्षमा का रूप धारण कर लें। उपल खाज खुजावते वाली बात चरितार्थ हो जाती है। तुल्यावर्तितयो: आचार्य शुभचन्द्र ने अपने ज्ञानार्णव में यह लिखा है अर्थात् घातक और यजक दोनों में एक प्रकार से साम्य वृति रखने से हनकवृत्ति में भी कमी आ जाती है और यजकवृत्ति में विकास भी हो जाता है। यह सारा का सारा बाहरी वातावरण भीतरी वातावरण के ऊपर आधारित होता है। भजन में कुछ लोग कहा करते हैं | ऊपर वाला पाँशा फेंके नीचे चलते दाँव। इसमें थोड़ा-सा सुधार कर लेना चाहिए-भीतर वाला पॉशा फेंके, बाहर चलते दांव। ऊपर और नीचे कहने से भगवान् के ऊपर निर्भर (डिपेंड) हो जायें और नीचे हम सारे के सारे उदासीन बैठ जायें। ऐसा नहीं। भीतर वाला जो पॉशा फेंकता है, वह हमने कब फेंका ? हमें स्वयं पता नहीं, किन्तु जब उदय में आ जाता है, तब बाहर पांव चलने लग जाते हैं। इन्होंने किया...... इन्होंने किया। नहीं, जो कुछ भी कार्य हो रहा है, वह हमारे अतीत की ही घटना की एक फलश्रुति के रूप में सामने आ रहा है। हमने क्या-क्या कार्य किये हैं अतीत में ? उसको छुपाने की कोई आवश्यकता नहीं। कर्म एक ऐसा निष्पक्ष न्यायकर्ता है, जिससे कोई यदि छिपाना चाहे भी तो छिप नहीं सकता। देखो, ज्यादा छिपाना चाहोगे तो और हमारी अवधि बढ़ जावेगी। संक्रमण हो जायेगा। हमारी बात मान ली, अज्ञान दशा में कर लिया, कर लिया। एक बार कान पकड़ लो, तो बार-बार उठक - बैठक करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। नहीं, कैसे करूं ? ऐसा करोगे तो और मुश्किल हो जायेगी। वह सब पर्दाफाश कर देता है। बाहर लाकर रख देता है, कि तुमने ऐसा इतिहास रचा था। एक सैकेण्ड के भीतर ही इतिहास बन जाता है और बाहर आकर खड़ा हो जाता है। आप उसको किसी भी प्रकार से इंकार नहीं कर सकते। ज्ञानसागर महाराज जी कहा करते थे-बिना कान फड़फड़ाये सुनलो। इसको यूँ (हाथ से इशारा करते हुए) करोगे, तो कोई छुट्टी नहीं मिलने वाली है। सुनिये, इतिहास बहुत बुरा है। अच्छा तो किसी का इतिहास है ही नहीं। इतिहास अच्छा नहीं, तो भविष्य भी अच्छा नहीं होगा - ऐसा नहीं समझो। यही बात कही जा रही है, कि अतीत के इतने बुरे कर्मों को जब हम देखते हैं, तब आज यह अवसर है, कर्मों के ऊपर क्षमा नहीं करना। किन्तु नूतन भावों में ही इस प्रकार का कार्य करना है। जिन्होंने कषायों को छोड़ दिया और साम्य मुद्रा में बैठ गये हैं। उनके स्तोत्र यदि आप पढ़ते चले जाओ, तो निश्चित रूप से आपकी क्रोध रूपी अग्नि शान्त होती चली जायेगी। क्योंकि नोकर्म मिलना समाप्त हो गया। भगवान् की जब स्तुति करेंगे, उस समय क्रोध के जो नोकर्म हैं, वे नहीं मिलेंगे। जैसे ईधन पटकते चले जाते हैं, तो अग्नि धधकती चली जाती है ऊपर की ओर। लेकिन ईंधन बन्द कर दें तो बस। पारा उतर जाता है। मूकमाटी में यही कहा गया है- ईंधन को पटकना बंद कर दो तो अग्नि धीरे-धीरे शान्त होती चली जाती है। इससे बोध का एक अवसर प्राप्त हो जाता है और यदि क्रोध बिल्कुल शान्त हो गया तो बोध, शोध में परिवर्तित हो जाता है नहीं तो शोध, प्रतिशोध के रूप में भी सामने आकर खड़ा हो सकता है। प्रतिशोध किसको कहते हैं ? प्रतिशोध का अर्थ होता है, बदले के भाव। और बदले के भाव क्रोध के बिना नहीं हो सकते। बोध और क्रोध एक म्यान में दो तलवार वाली बात नहीं हो सकती। और बोध तो घटता चला जाय, तब शोध तो कहीं आ ही नहीं सकता। वहाँ प्रतिशोध ही खड़ा होता है। जिन्होंने शोध किया और बोध में लीन हो गये, तो उनके क्रोध का अभाव हो गया। उनके पास जाकर खड़े होकर स्तोत्र पाठ प्रारम्भ हो जाता है। इससे ज्यादा फल नहीं मिल रहा है, अर्थात् हमें आमदनी बढ़ाना है, जाप करो। अब ज्यादा बार-बार कण्ठ दुखाने की कोई आवश्यकता नहीं है। कम काम हो जाता है और फल ज्यादा मिल जाता है। सिद्धचक्र मण्डल विधान जब होता है, तब सिद्धचक्र मण्डल विधान होते हुए भी स्तोत्र पाठ क्यों नहीं किया जाता ? जाप क्यों किया जाता है ? एक-एक विधान के अपने-अपने जाप की संख्या नियत है। जाप क्यों ? स्तोत्र पाठ कर लें मण्डल विधान में तो ? स्तोत्र पाठ तो भी सिद्धों का गुणगान ही है, लेकिन जाप के माध्यम से उसका फल विशेष रूप से निखरकर के सामने आ जाता है। और अन्तिम दिन यही काम आता है। विधान में जाप की संख्या जितनी बढ़ेगी उतना ही वह सफलीभूत विधान माना जाता है। अब जाप से भी आगे बढ़ना चाहते हैं। बढ़ना ही चाहिए। जितनी सीढ़ियां हैं, उतनी सीढ़ियाँ तो चढ़ना चाहिए। नीचे ही क्यों ? तट पर बैठकर ही क्यों ? अपितु भीतर पहुँचना चाहिए। निखार और आना चाहिए। जाप भी आपके लिये परेशानी पैदा कर सकता है। जाप जपते-जपते जीभ फिसल सकती है। जाप जपते जपते कंठ सूख सकता है। जिह्वा और तालु के बिना भी जाप किया जा सकता है, लेकिन उसमें भी कठिनाई का अनुभव हो सकता है। उसके उपरांत मानसिक जाप भी किया जा सकता है। क्या करें ? करोड़ जाप करने की अपेक्षा एक बार ध्यान करो। बहुत सस्ता है महाराज! कौन आपको रोक रहा है, महंगे की बात ही नहीं। सस्ता होता चला जा रहा है और फल ज्यादा मिलता जा रहा है। और नीचे जितने भी हैं वह महंगा होता चला जा रहा है और फल कम मिलता है। और क्या करना चाहिए। आपको ? महाराज! ऊपर का चाहिए। तो धीरे-धीरे ऊपर खिसकते आ जाओ। ध्यान की ओर आ जाओ। ध्यान नहीं लगता है, तो जाप में बैठा दी। जाप में नहीं बैठता है, तो स्तोत्र पाठ करो। स्तोत्रपाठ नहीं करते तो स्वाहा बोलो। बस जाप वह देता है और आप लोग बोलो स्वाहा, पुष्प चढ़ाओ। पुष्पकोटि का मतलब पुष्पकोटिसम स्तोत्र। बस स्वाहा, बस लोग कुछ करना नहीं चाहते। बस हमें तो फल मिलना चाहिए। करोड़ों-करोड़ों बादाम चढ़ाओ, गोले चढ़ाओ इसमें क्या बाधा है। लेकिन ध्यान रखो, बहुत देर तक काम करोगे तो भी उतना काम नहीं होता। सही बनिया तो वही होता है कि जो ऐसा व्यापार करना चाहता है कि पसीना भी ना आये और सीना भी फूलता जाये। समझ में बात आ जाती है, तो समझ जाते हैं आप लोग। बिल्कुल पसीना न आये और सीना भी फूलता जाए। भैया। क्या कहें? अरबों के आसामी हैं, खरबों का माल है। करोड़पति उनके नौकर-चाकर हैं। नौकरों के भी नौकर हैं। और नौकरों के भी चाकर हैं। कारोबार क्या है ? कहाँ तक है ? उसका कोई भी हिसाब-किताब नहीं है। कितने मुनीम जी हैं, पता नहीं ? मुनीम जी भी सेठ-साहूकारों से कम नहीं लगते। सोचने की बात है, जब हम उपयुक्त साधना को अपना लेते हैं तो यही बात हमेशा-हमेशा मोक्षमार्ग में होती चली जाती है। हिंसा की मात्रा जितनी कम होगी, चारों ओर उतनी हरियाली छाती चली जायेगी। और जितनी हिंसा बढ़ती चली जाती है, तो बाहर भी उसकी लपटें आना प्रारम्भ हो जाती हैं। जब ध्यान के पास आप आ गये, तब करोड़ जाप करने की भी कोई आवश्यकता नहीं। यदि ध्यान सुरक्षित है तो वह मोक्ष का हेतु है। वह दो प्रकार का ध्यान अर्थात् धर्मध्यान और शुक्लध्यान ये ही मोक्षमार्ग के हेतु हैं। मोक्ष देने वाले हैं। अपरे संसारस्य हेतू करोड़ों रुपये खर्च होते हुए भी आप आर्तध्यान व रौद्रध्यान ही करते रहते हैं, इससे संसार का ही संपादन होता चला जा रहा है। सबसे सस्ता धर्मध्यान है। पैसा दान करो और घर भी बैठे रहो। कई लोग तो विधान करवाते हैं, करते नहीं। उनके संविधान में तो यही लिखा है कि भैया। दस-बीस हजार दे दो और हम तो उसी दुकान में बैठेगे। वहाँ पर बैठकर वे काम करेंगे। इधर जो हैं विधान करवायें, लेकिन संविधान कहता है कि भैया। ऐसा करने से आपको इतना लाभ नहीं मिल रहा है, क्योंकि यह नौकरों के द्वारा धर्मध्यान कराने की बात हुई। दुकानदारी तो आप नौकर-चाकर या मुनीम इत्यादि के माध्यम से चला सकते हैं। लेकिन मन्दिर में तो आपको स्वयं ही कमर कसनी होगी। यह बात इसलिए कही जा रही है कि धर्मध्यान दूसरे के माध्यम से नहीं होता। धर्मध्यान के लिये स्वयं ही कटिबद्ध होना अनिवार्य है। जो व्यक्ति ध्यान के उपायों को अपना लेता है उसको करोड़ों स्तोत्र पाठ, करोड़ों जप और करोड़ों पुष्पों का त्याग, यह सारा का सारा निचले स्तर पर रह जाता है। और हमेशा-हमेशा ध्यान करने वाला व्यक्ति स्थूल नहीं होता। वह सूक्ष्म होता है, क्योंकि वह बाहर से भीतर की ओर आ जाता है। ध्यान लगाता है और ध्यान जब बिगड़ने लग जाता है तो सूक्ष्म से स्थूल की ओर चला जाता है। आज का युग कौन-सा है? परमाणु युग। हाँ। आणविक युग है। इसीलिये सूक्ष्मता की ओर आ रहा है। सूक्ष्म से सूक्ष्म ऐसे यन्त्रों का निर्माण कर रहा है, जिसके माध्यम से बहुत कम समय में वध हो सके। यह है आणविक युग। ध्यान भी आणविक युग का ही एक रूप है। वह अन्तर्जगत् का रूप है, और वह बहिर्जगत् का। त्याग की अपेक्षा से, जाप की अपेक्षा से, स्तोत्र की अपेक्षा से ध्यान में बहुत ज्यादा पोटेन्सी हैं। मन को शुद्ध करके सात्विक भावों के साथ सब जीवों के भले के लिये धर्मध्यान कर लेना चाहिए। महाराज! न हमने अपने जीवन में सिद्धचक्र मण्डल विधान किया। महाराज! हमने तो जम्बूद्वीप विधान भी नहीं किया। कल्पद्रुम की तो कल्पना भी नहीं की। ऐसे-ऐसे विधान हैं, हमें ज्ञात ही नहीं। जी! हम क्या कर सकते हैं ? हम तो थोड़े बहुत पशुओं का पालन कर लेते हैं। और बड़े-बड़े सेठ-साहूकार जो धर्मध्यान करते हैं, उनकी सराहना करते हैं। धन्य है, धन्य है, धन्य है भगवन्! ऐसे धर्मात्माओं के लिये धन्य हैं। ऐसा कह देते हैं ताकि इतना-सा भी धर्मात्मा नहीं बन पा रहे हैं। जो बढ़े तो बड़े बने। बढ़े सो पावे। ऐसा कहकर उनकी प्रशंसा कर जाते हैं। महाराज! ठीक हो रहा है। बहुत अच्छा हो रहा है, क्योंकि अपायविचय धर्मध्यान कर सकता है। कर्म के बारे में वही सोच सकता है जो संयम को धारण करेगा, वही इस प्रकार का ध्यान कर सकेगा। और अपायविचय धर्मध्यान स्वयं के लिये होता है, ऐसा नहीं है। देखो! वह संसारी प्राणी स्वार्थी है। महाराज! मेरे दुखों का अभाव कैसे हो ? कुछ न कुछ धर्मध्यान करो, मेरे नाम से। हमारे तो बहुत सारे काम हैं, हम कर नहीं पाते। और आपको तो कोई काम है ही नहीं। सब कुछ छोड़ रखा है आपने। इसीलिये कम से कम मेरा ध्यान रखिये महाराज। इस प्रकार के कई व्यक्ति आ जाते हैं। हाँ भैया! ज्ञान तो सभी का रखता हूँ। परन्तु ध्यान तो आत्मा का रखता हूँ। वह आत्मा मेरी आत्मा है। ऐसी बात नहीं कि आपकी आत्मा की बात करता हूँ। आपका ध्यान नहीं करूंगा मैं। हे भगवन्! इसकी बुद्धि पलट जाये सुलट जाये और अपनी चिंता कर ले। इस प्रकार का मैं ध्यान करता हूँ। और कोई ध्यान नहीं। अत: आप लोगों को भी अपना अब ध्यान करना चाहिए। साधु हमेशा-हमेशा स्व एवं पर, दोनों का ध्यान करता है। मन में ऐसी भावना करना - सब जीव सुख का अनुभव करें, यह भी ध्यान हुआ। करोड़ों जाप का भी उतना फल नहीं, जितना इसका है। करोड़ों बार स्तोत्र पढ़ने के बाद, भत्तामर का अखण्ड पाठ जीवन पर्यन्त भी करोगे, तो भी उतना फल नहीं मिलेगा, जितना कि आप पाँच मिनट बैठकर धर्मध्यान करने से पा सकते हैं। सब जीवों का कल्याण हो वहाँ अपने आप ही स्वार्थ मिट जाते हैं। ध्यान में एक काम बहुत अच्छा हो जाता है कि स्वार्थ समाप्त हो जाता है। भगवान् का ध्यान करना या संसारी प्राणियों का ध्यान करना, महाराज कौन-सा करना बताओ ? किसका करना चाहिए ? मैं तो आप लोगों से पहले यह कहूँगा - जो भगवान् बनने के योग्य हैं, उनका ध्यान करना चाहिए। जो भगवान् बन चुके हैं, उनका क्या ? उन्होंने तो यह कहा है जीवों का ध्यान करो। जड़ का ध्यान छोड़ दो। जीव का ध्यान करेंगे तो भगवान् दिखते हैं। और नहीं भी दिखते। सब जगह नहीं दिखते भगवान्। लेकिन होने योग्य भगवान् तो जहाँ जाओ वहाँ पर आपको मिलेंगे। यद्यपि वे होने वाले भगवान् हैं, किन्तु उनका वर्तमान कर्म सहित होने के कारण दिक्कत पूर्ण हो रहा है। उनके बारे में यह सोची, विचार करो और कुछ तन से, धन से, मन से, वचन से ऐसी भावना करो, ताकि उनका दुख दूर हो जाये। उनके कर्म कट जायें। उनका सुभिक्ष हो जाये। यह भावना अपने ही सुभिक्ष के लिये, अपने ही कर्म काटने के लिए हो रही है। हमारे यहाँ दो प्रकार के साधन बताये गये हैं-एक, उपादान रूप साधन और एक, निमित रूप साधन। अर्थात् दो मार्ग हैं- एक निश्चयमार्ग और दूसरा व्यवहारमार्ग। इसी तरह ध्येय दो हैं-स्व और पर। पर में भी दो ध्येय हैं- जीव और अजीव। अजीव हेय है। जीव उपादेय व ध्येय है। उसको यदि दृष्टि में रखोगे, तो पहचान हो जायेगी। आदर्श से देखोगे, जीव तत्व को सामने देखोगे तो अपनी पहचान होगी, दुख का संवेदन होगा। उसी प्रकार ध्यान के माध्यम से हमारी तड़फ या संवेदन रूप जो बहिर्मुखीपना है, वह समाप्त होता चला जाता है। और आणविक युग का अर्थ बहिर्जगत से सम्बन्ध छूट जाना है। आज के आणविक युग का बहिर्जगत से सम्बन्ध छूटा, इसीलिये नहीं है कि, उनका ध्येय तो यह है कि मेरा स्वार्थ कैसे पूर्ण हो ? धर्म ध्यान और इस ध्यान में यही अन्तर है। यह आब्जेक्ट (Object) को लेकर चलता है। मोक्षमार्ग में ध्यान सब्जेक्ट को लेकर चलता है। इसका विषय जड़ है, तो उसका विषय चेतन। चेतन को तकलीफ होती है, जड़ को कभी तकलीफ नहीं होती। अब वह कब तक ? जब तक तकलीफ होती है। जड़ सामग्री के अभाव को प्राप्त हो जाने से तकलीफ होती है। उसमें भी ये जितने भी जीव हैं उन जीवों के बारे में आप ध्यान लगाना प्रारम्भ कर दोगे, तो आपका विकास निश्चित है। इसमें असंख्यातगुणी कर्म की निर्जरा ज्यादा होती है। महाराज! यह विषय थोड़ा कठिन जैसा लग रहा है। सो कोई बाधा नहीं, यदि इसमें पसीना भी आ रहा है, तो भी कोई बाधा नहीं। आज क्षमा का दिन है, तो कहते हैं। भैया- केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है, तो अनन्त जीवों के लिये अभय प्रदान करने वाले केवली हो जाते हैं, तब कोई भी जीव उनसे भयभीत नहीं होंगे। अब आप लोगों को यह भी देखना है कि कौन-कौन से व्यक्ति हमको देखकर भयभीत हो रहे हैं ? जिस व्यक्ति के मन में कषाय जितनी मात्रा में है, वह व्यक्ति आगम के अनुसार स्व की उतनी हिंसा करता जा रहा है। इस बात की ओर हमारी दृष्टि बहुत कम जाती है। कषाय की घुटन में जीना, जीना नहीं है। जीना अर्थात् उन्नति की ओर जाना है। जीना बोलते हैं न आप लोग। जीना अर्थात् सीढ़ी। जीना चाहते हो ? जीना तो चाहते हैं महाराज! तो जीने पर चढ़ जाओ। धरती पर मौत है और जीने पर जीना। कैसे चढे महाराज ? तो वही चढ़ सकता है जो गुणस्थान में चढ़ता है। वह भी कषायों का अभाव करके चढ़ता है, मोह को समाप्त करके चढ़ता है। और यदि चढ़ने की तैयारी करता है तो अपने आपकी, अपने आप ही उन्नति देखने में आने लग जाती है। अन्तर्मुहूर्त नहीं लगता, वह सत्तर कोड़ाकोड़ी का स्थितिबन्ध अन्त:कोड़ाकोडी की स्थिति में आ जाता है। मिथ्यात्व दशा में इतना कम कर सकता है। बहिर्जगत् का सम्बन्ध छूटा नहीं और भीतरी जगत् की ओर दृष्टिपात नहीं किया कि यह हो जाता है। इसे भव्य भी कर सकता है और अभव्य भी कर सकता है। भव्वाभव्वेसु सामण्णा अन्तर्जगत् की बात है। यहाँ स्थूल से सूक्ष्मता की ओर आने से ऐसी बात बन जाती है इसका कोई भी बाहर से सम्बन्ध नहीं रहता। तत्व क्या है ? तत्व भाव परक स्थूल नहीं, सूक्ष्म है। द्रव्य नहीं भाव है। भाव के माध्यम से द्रव्य का एक प्रकार से लाभ हम ले सकते हैं। दुनियाँ में द्रव्य के कारण नहीं, माल के कारण नहीं, अपितु भाव के कारण मालदार बनते हैं। क्यों भैया ? मानली, गुड़ का भाव नीचे आ गया और भेलियां बहुत सारी गोदाम में भरी हुई हैं तो क्या होगा ? घाटा। अरे! इतना भरा हुआ है फिर भी ? घाटा हो जायेगा महाराज। यदि माल कम भी हो और भाव बढ़ जायें तो फिर क्या कहना! माल कम है इसलिए पैसा कम आता है, ऐसा नहीं है। भाव बढ़ गया तो दुगुना-तिगुना होता चला जाता है। उसी भाव की प्रतीक्षा में हम प्रतिदिन अखबार देखते रहते हैं। भाव यानि तत्व। किसका यह तत्व है ? आत्म तत्व की बात करो तो अपने आप भाव बढ़ने लग जाते हैं। भाव बढ़ा नहीं कि अपने आप ही सत्तर कोड़ाकोड़ी के स्थान पर अन्त:कोड़ाकोड़ी आ जाता है। यह अन्तर्मुहूर्त का काम है। अनन्तकाल में जो काम नहीं हुआ वह अन्तर्मुहूर्त में हो सकता है। ऐसा भाव अपने भीतर आ जाय, हम दूसरों की रक्षा नहीं कर रहे हैं, किन्तु हम इन भावों के माध्यम से अपनी रक्षा करते हैं। अपनी रक्षा करते जाते हैं, तो दूसरों की रक्षा अपने आप हो जाती है। करने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। करते समय हम दूसरे को निमित्त बनाकर कर सकते हैं। लेकिन करना तो अपने को ही है। पुरुषार्थ का क्षेत्र भले ही भिन्न हो, लेकिन यदि उद्देश्य भीतर का रहता है तो उसको उतना ही फल मिल जाता है। ध्यान के मामले में आचार्यों ने पाबन्दी लगा दी है। ध्येय के विषय में पाबन्दी नहीं लगाई। ध्यान होना चाहिए धर्मध्यान। लेकिन धर्मध्यान की सामग्री के लिये छ: द्रव्यों में से किसी भी द्रव्य की विषय करो और अच्छा है। यदि जीव अपने लिये नहीं दुनियाँ में जो कुछ भी है वह सभी। इससे स्पष्ट हो जाता है कि ध्येय कुछ भी हो किन्तु ध्यान का उद्देश्य यदि ठीक है, तो काम चाहे निमित्त का करो, चाहे उपादान को पकडो, काम आपका निश्चय रूप से होगा। आज क्षमा की विराटता आपके सामने आ रही है। क्या पशुओं का पालन करने वाला, जीवों को संरक्षण करने वाला पर्व नहीं माना जा रहा है ? क्या पशु दशलक्षण पर्व नहीं मना सकता है ? और जिनका पालन किया जा रहा है क्या वह पर्व नहीं मना रहे हैं ? मना सकते हैं। अपने यहाँ कछुआ, मगरमच्छ, मेंढक, गाय, भैंस आदि सारे के सारे पर्व मनाने वाले होते हैं। इतना अवश्य है, उनके सामने कोई टी.व्ही. नहीं होती, वीडियो कैसेट उनकी कोई नहीं बनाता। मैं अब यह कहना चाहता हूँ कि यहाँ पर वीडियो कैसेट न बनाकर के जहाँ कहीं भी इस प्रकार का प्रायोगिक कार्य, रचनात्मक कार्य हो रहा है उसको लाइट में लाने की आवश्यकता है। लाइट जलाने की कोई आवश्यकता नहीं है। हाँ! लाइट में लाने की आवश्यकता है। वस्तुत: धर्म क्या है ? इसको हमें समझना है - प्रकृति कितनी शान्त रहती है? कोई किसी के लिये मारकाट नहीं करते, ऐसा नहीं। लेकिन वे हमेशा-हमेशा एक सीमा बनाये रहते हैं। क्या इस प्रकार की क्षमा हम नहीं अपना सकते ? जो निरपराध हैं, उनको यदि परेशानी या दुख दिया जा रहा है तो इस समय क्रोध करना भी क्षमा से कम नहीं। इस समय आप क्षमा छोड़ भी दोगे, तो क्षमा को एक बहुत विराट रूप मिल जाता है। सामने वाले व्यक्ति की कषाय को समाप्त करने के लिये यदि कषाय करें, तो इसमें कोई अधर्म नहीं। कषाय को मिटाने के लिये यदि कषाय की जाती है तो वह ठीक है। लेकिन ध्यान रखो, आज ऐसा धर्म बहुत कम मात्रा में देखने को मिलता है। राम का हाथ पर हाथ रखकर न बैठना और रावण के ऊपर प्रहार करना भी धर्मध्यान का प्रतीक है। क्योंकि बार-बार क्षमा करने के उपरान्त भी रावण नहीं मान रहा है। तो कुछ अकल आ जाय, इसलिए धनुष व तीर लेकर सामने राम खड़े हो जाते हैं। फिर भी अन्तिम समय तक यही कहते हैं-संभल जा रावण। मेरी सीता को दे दे। वह कहता है-इस बात को बन्द करो। दूसरी बात करो। दुबारा तो मैं बात कर सकता हूँ, लेकिन दूसरी बात नहीं कर सकता। दुबारा कह देता हूँरावण अब तो छोड़ दे। कैसे छोड़ दे? क्षत्रियता मिटाना थोड़े ही है। यह धर्म नहीं है तुम्हारा। मांगना क्षत्रिय का धर्म नहीं होता। मैं आ रहा हूँ, रावण फिर भी मान ले, बार-बार यह कहते चले जा रहे हैं क्षमा, क्षमा, क्षमा। फिर तीर और कमान रख रखे हैं। उसके बिना रावण नहीं मानता, इसलिए ये आवश्यक हैं। तीर और कमान में जादू है। कोई माँ गुस्सा कर दे। आँखें लाल कर दे। क्योंकि उसके बिना बदमाश बच्चा मानता नहीं तो क्या करें। कभी-कभी करुणा की आँखों में भी धधकती हुई ज्वाला देखी जा सकती है। लेकिन क्षणिक। उसमें वह एकदम डर जायेगा, तो वह करुणा के रूप में परिवर्तित हो जायेगा। इसलिए आप क्रोधाविष्ट होकर के यदि किसी को समझा रहे हैं तो भी आपका उद्देश्य उनकी रक्षा भाव का है। उसमें किसी प्रकार का दुध्यान नहीं माना जा सकता। ध्यान की कोई सींग, पूंछ नहीं है। ध्यान वही है जिसका उद्देश्य अच्छा है, ध्येय अच्छा है। परन्तु क्षेत्र कुछ भी हो। क्योंकि किसान किसानी करता हुआ ही पर्व मनायेगा। नौकरी छोड़कर पर्व थोड़े ही होते हैं। नौकरी अपने आप में पर्व का रूप धारण कर सकती है। अन्याय, अत्याचार से बचकर अपनी डयूटी, अपना कर्तव्य यदि कर रहा है, तो वहाँ पर भी पर्व मनाया जा रहा है। उसका प्रवाह, उसकी सुगन्धी चारों ओर फैलती चली जायेगी। Duty is the beauty of right knowlege आप Beauiful तो होना चाह रहे है लेकिन dutyfull होना नहीं चाह रहे हैं। क्या करें ? डयूटी का अर्थ धर्मध्यान या कर्तव्यपरायणता है। यह धर्मध्यान का चिह्न है। कर्तव्य को छोड़कर आप यदि धर्मध्यान करना चाहते हैं, तो वह धर्मध्यान नहीं माना जाता है। और उसके द्वारा ज्ञान की शोभा नहीं होती। ज्ञान की शोभा तो संयम है। ज्ञान की शोभा तो अहिंसा है। ज्ञान की शोभा तो क्षमा है। ज्ञान की शोभा तो कषाय का अभाव है। यह निश्चित बात है इसलिए धीरे-धीरे धर्मात्मा उस साधन को अपनाते चले जाते हैं, जिसके माध्यम से चारों ओर हरियाली छा जाती है। ऐसा क्षमा धर्म आप लोगों के द्वारा आज किया जा रहा है, सुना जा रहा है, पाठ किया जा रहा है। सुबह से ही प्रारम्भ हो गया था। आज क्षमाधर्म का पूजन करके बाद में यहाँ आये हैं। तत्वार्थसूत्र का वाचन होगा, एक अध्याय का पूर्ण वाचन सुनेंगे। तत्वार्थसूत्र का पाठ भी होगा। इसके उपरान्त क्षमा समाप्त। क्योंकि बन्द कर दें ? क्षमा तो समाप्त हो ही गयी। अब तो मार्दव आ रहा है सामने। मार्दव क्या है मशीनवत् काम हो रहा है। हम सुनते थे विदेश में मशीनरी ज्यादा है। प्रभाव तो भारत के ऊपर भी पड़ गया। इसी प्रकार के आपके कार्यक्रम भी होते हैं। भीतर की बात क्यों ? महाराज, जो भीतर हो रहा है, वही बाहर हो रहा है। यह बात नहीं, क्योंकि मैं यह नहीं कह सकता, कि भीतर इसी के अनुरूप हो रहा है। उद्देश्य क्या है ? लक्ष्य क्या है ? लक्ष्य यदि नहीं है तो लक्षण भी घटित नहीं होता लक्षण के माध्यम से लक्ष्य की ओर तो यात्रा हो सकती है, लेकिन यदि लक्ष्य ही नहीं है तो कौन-सा लक्षण बनाओगे आप ? इस धर्मध्यान में आपका यदि लक्ष्य या ध्येय दयाधर्म के प्रति है, क्षमाभाव के प्रति है, संरक्षण भाव के प्रति है, स्व व पर कल्याण का लक्ष्य है, तो आपके पास वह लक्षण आ सकता है। ये जितने भी साधन हैं वे उस साध्य तक पहुँचने के लिये कार्यकारी हो सकते हैं। लेकिन कब हो सकते हैं ? जबकि आपका लक्ष्य बहुत बढ़िया हो। यह कमाल की बात है कि निशाना क्या है ? इसकी क्या आवश्यकता है ? शब्दभेदी शास्त्र को पढ़कर शब्दभेदी नहीं होता, अपितु शब्द को भी आप तभी छेद सकोगे, जब शब्द को अच्छी ढंग से सुन सकोगे। शब्द किधर से आ रहा है, यदि लक्ष्य नहीं है तो आप कमान व तीर रख लो चाहे, वे नये हों या पुराने, परन्तु काम नहीं आवेंगे। यदि आपका लक्ष्य ठीक है तो वह टूटा-फूटा भी काम कर सकता है। निश्चित रूप से वह निशाना भेद देगा। कोई शस्त्र के बिना भी, तीन-कमान के बिना भी, शब्द के बिना भी, भाव के माध्यम से निशाना साध सकता है। जिसके पास मन्त्रसिद्धि है वह यहीं पर एक बार णमोकार मन्त्र पढ़ ले, एक बार जाप कर ले, जिसकी उसके पास सिद्धी है, उस दिशा में मुख करने की भी कोई आवश्यकता नहीं, उच्चारण करने की भी कोई आवश्यकता नहीं। मन्त्र का एक मात्र स्मरण पर्याप्त हो जाता है। कभी-कभी कहा जाता है-एक माला फेर लो काम हो जायेगा। किसी-किसी को आधी माला फेरते ही काम हो जाता है। किसी-किसी को एक बार ही मन्त्र जाप करते काम हो जाता है। क्योंकि उसकी एकाग्रता उसका लक्ष्य, उसकी साधना अनूठी होने के कारण उसे लक्ष्य मिल जाता है। कार्य हो गया। ऐसा कह देता है-आपको पुनः इधर आने की कोई जरूरत नहीं। आपके पहुँचते-पहुँचते ही आपका कार्य हो गया, यह ध्यान रखना। मन में जितना बल है, वचनों के बल से वह बहुत असीम है। वचनों में जितना बल है तन के बल से वह भी असीम है। तन का बल धन के बल से असीम है। इसलिए धन से जो काम होता है वह बहुत कमजोर होता है। तन से जो काम होता है, उससे बलजोर वचन वाला होता है। फिर मन से होता है। बैठे-बैठे भी हजारों व्यक्तियों से काम कराया जा सकता है। फिर वचनों से जो कार्य होता है, उससे भी बहुत-बहुत दूर तक मन अपना काम कर सकता है। और मन यदि संयत होकर कार्य करता है, तो फिर केवलज्ञान होने में देर नहीं। एक भी नियन्त्रित मन चाहे तो वह सब कुछ काम कर सकता है। आपके पास मन है कि नहीं ? सोच ली। है कि नहीं है, कहाँ है बताओ ? मन वहीं है महाराज, जहाँ हम छोड़ कर आये थे। इस प्रकार मन, वचन, काय और धन ये चार साधन आपके पास हैं। ज्यादा से ज्यादा आप धन का प्रयोग करना चाहते हैं। जबकि आप सात्विक भावना जगाइये। मन को प्रौढ़ बना दीजिए। तन नहीं है, कमजोर है तो भी चल जायेगा। झुकाने वाला चाहिए, झूकने को दुनियाँ तैयार है। लेकिन जबरदस्ती नहीं। परमार्थ यदि है, तब झुको ऐसा भी कहने की आवश्यकता नहीं है। रुको कहने की कोई आवश्यकता नहीं। टिको कहने की कोई आवश्यकता नहीं। वह व्यक्ति अपने आप ही संभव जायेगा। क्योंकि भीतरी जो जगत् है उसका प्रभाव बाहर आये बिना नहीं रह सकता। कस्तूरी के लिये शपथ देने की कोई आवश्यकता नहीं। यह कस्तूरी है, मैं सही कर रहा हूँ, सुन लेना। सामने वाला कहता है कि, भाई यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं। यदि आपको विश्वास नहीं हो रहा है, तो समझो अब विश्वास उठ गया है। क्योंकि आप कह क्यों रहे हैं ? कहते हुए भी इसकी गन्ध तो आ नहीं रही है। इससे स्पष्ट है कि दस बार बोलकर हमसे बुलवाना चाह रहे हो। किन्तु यह कस्तूरी नहीं है। कस्तूरी को तो डिब्बे में भी बन्द कर ताला लगा दो, दरवाजा बन्द कर दो और बाहर हो जाओ आप। फिर भी उससे पहले वह बाहर आती हुई दिखने में आ जाती है। कस्तूरी कोई मूर्ति है क्या ? तो क्या है ? कोई ठोस है, वह तो गन्धमात्र है। इसीलिये दरवाजा बन्द भी कर दो, तो भी आपसे पहले वह बाहर आ जायेगी। भावना भाइये, मन को प्रौढ़ बनाइये। मन को नियन्त्रण में रखिये। ध्यान लगाये। कैसे काम नहीं होता है देखें। दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं। यदि आप हैं तो दिखने में आ जायेंगे, यह निश्चित बात है। इसलिए धर्म की ओर जैसे-जैसे हम बढ़ेंगे, वैसे-वैसे स्व का तो विकास या उत्थान होगा, साथ ही पर का भी होगा। जो बिल्कुल पतन की ओर, गर्त की ओर जा रहा है, वह भी खड़ा होकर देखेगा और अपनी यात्रा की दिशा को बदल देगा और बाहर की ओर अपने आप ही आ जायेगा। गर्त में से निकालने की कोई आवश्यकता नहीं। यह गर्त है और तुम ऊपर आना चाहते हो तो आ सकते हो, डरने की कोई बात नहीं, कह सकते हो। लेकिन यह केवल बाहर ही बाहर रह गया है। आणविक युग होते हुए भी एक वह युग है जो धर्म से सम्बन्ध रखता है। बाहर होते हुए भी वह भीतर ही रहता है। क्योंकि उसका लक्ष्य, उसका ध्येय हमेशा-हमेशा चेतन तत्व रहता है। और उसको मांजने में वह हमेशा-हमेशा लगा हुआ रहता है। उसको ठीक करना है। उसको जो ठीक करता है वह प्रत्येक क्षेत्र में कार्यकारी हो सकता है। जिसका वह ठीक नहीं है, तब बाहर से कुछ भी करो, कुछ नहीं होता। बाहर से जिसकी छाती जितनी बड़ी है, उतनी यदि भीतर से हो जाय तो गड़बड़ हो जाये। हार्ट जिसको बोलते हैं, वह छोटा होता है। यदि ऊपर से बढ़ने लगा तो यह कायबल में आ जाता है। भीतर में आप जो हैं, वही रही। उसको ज्यादा बढ़ाओ नहीं। उसको बढ़ावा देना गड़बड़ है। वह कब बढ़ जाता है, जब कि धुकधुकी ज्यादा हो जाती है। डर लगने लग जाता है। रक्तचाप बढ़ जाता है। चिन्ताएं बढ़ जाती हैं। तब हार्ट बढ़ने लगता है। जिसका हार्ट बढ़ रहा है उसकी उदार नहीं कहते। विशाल हृदय का अर्थ बड़ा हृदय नहीं। किन्तु जिसके विचारों में, अभिप्रायों में, उद्देश्यों में विशालता आ जाती है, वही विशाल हृदयी माना जाता है। इसलिए यह ध्यान रखना कि काया की जो मात्रा है अर्थात् हाइट (ऊँचाई) और विट्थ बढ़ जाये, लेकिन भीतर का पार्ट तो ठीक होना चाहिए। चेतन न बढ़ता है और न घटता है। चेतन क्या करता है ? चेतन जो है, पतित हो जाता है। चेतन का पतन भावों के ऊपर डिपेंड है। चेतन का उत्थान भावों की सीढ़ियों पर चढ़ने से ही ज्ञात होता है। इसके लिये कोई बाहरी परिश्रम की आवश्यकता नहीं होती। समय आपका हो गया। आज क्षमा का दिन रहा। आप लोगों ने यह सुना था, या एक दिन अर्थात् आज पूजन आदि कार्यक्रम सम्पन्न किये। बहुत अच्छे-से किये हैं। यदि यह बीजारोपण बहुत अच्छा हुआ तो कुछ ही दिन लगेंगे, अंकुर फूटेंगे। बल्कि यूँ कहना चाहिए कि खाद डाली है, पानी का सिंचन हुआ है, मिट्टी बहुत अच्छी है, भाव बहुत अच्छे हैं और पवन का योग भी बहुत अच्छा है। भीतर से अंकुर फूटना प्रारम्भ हो गये हैं। ऐसा नहीं समझ लेना कि अंकुरण में २-३ दिन लग जाते हैं। वह लगता तो जरूर है पर देखने में नहीं आता। एक-एक समय में उसका प्रभाव रहता है। यदि एक समय का प्रभाव उस पर नहीं पड़ा, तो फिर दूसरे समय का भी नहीं पड़ेगा। तो इस प्रकार समय-समय करते हुए एक घण्टा भी यूँ ही चला जायेगा। जब घण्टा चला जायेगा तो एक दिन भी चला जायेगा। तीन दिन के उपरान्त एक साथ वह अंकुरित नहीं हो सकता। यदि आप लोगों ने एक घंटे तक सुना तो अंकुर का प्रारम्भ होना हो गया, मैं ऐसा मान लेता हूँ। मान लें। ऊपर से ही कह रहे हो कि भीतर से कह रहे हो ? महाराज, भीतर से कह रहे हैं। निश्चित है कि हम अब जो पशु-पालक हैं, उनमें भी पर्व के दर्शन करना चाहेंगे। जो कर रहे हैं वह भी धर्मात्मा है, ऐसा समझेंगे और उनके बारे में संरक्षण करने के लिये भले ही क्रोधाग्नि हमारी भड़क जाय, कोई बाधा नहीं, हम कह देते हैं। आपकी क्षमा बिल्कुल सुरक्षित है, ऐसा समझकर के क्रोध कीजिये। इसमें कोई भी बाधा नहीं है। अहिंसा परमो धर्म की जय
  22. मार्दव विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार मान के खण्डन के बिना प्रदर्शन तो चलता रहेगा, किन्तु यह जीव अंदर के दर्शन से वंचित रह जावेगा। अभिमान नहीं बहुमान होना चाहिए। आत्म स्वरूप का ज्ञान होते ही बाहरी रूप का अभिमान टूट जाता है। क्रोध को पहचानने के लिए विशेष मेहनत नहीं लगती मान को पहचानने में देर लगती है। मान से बचने के लिए विवेक आवश्यक है। ज्वर अंदर खून को जलाता है, वैसे ही यह मान है।हड्डी का ज्वर बहुत दिनों में निकलता है। मान भी मोतीझिरा जैसा अंदर प्रवेश कर गया है। देव, शास्त्र व गुरुओं के समागम से, उनके दर्शन से अनन्तानुबन्धी कषाय नष्ट हो जाती है। जैसे इन्द्रभूति समवशरण में गया और उसका मान खंडित हो गया। मानी व्यक्ति अच्छी-अच्छी हस्ती को डुबो देता है। मान के पीछे लग जाना बहुत बड़ा पागलपन है। जो मान रूपी हाथी पर आर्जव का अंकुश लगाकर उस पर बैठ जाते हैं, उनको नमस्कार है, वे तीन कम नौ करोड़ मुनिराज उसी में लगे हुए हैं। महान् व्यक्ति ही ऐसा कार्य कर सकते हैं, वे उम्र में छोटे होते हुए भी महान् हैं। मान को खारेपन से ही तृप्ति मिलती है। आत्म तत्व, कषायों के कारण भव-भव तक विषाक्त होता चला जाता है। ज्ञान का प्रदर्शन करना बौनापन है। गहराई में जाने पर बताने की बात ही नहीं होती। ज्ञान, मान प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनना चाहिए। संसार में, मैं और मेरेपन को लेकर संघर्ष चल रहा है यह विश्व में संघर्ष का स्रोत है। मान को जिसने मार दव (मार दिया) उसके मार्दव धर्म उत्पन्न होता है। चेतन स्वभाव को छोड़कर घनत्व (मान) को स्वीकार कर लेता है क्योंकि वह अपने अस्तित्व को संसार में अलग से कायम रखना चाहता है, जैसे बर्फ जल से पृथक् अस्तित्व बनाये रखना चाहता है। बर्फ जब अपने घनत्व को (मान को) मार देता है, छोड़ देता है तब वह पानी-पानी हो जाता है। मान बहुत बड़ा योद्धा है, वह अपने आपको सब कुछ मानता है सामने वाले की कीमत नहीं समझता। अभिमान यहाँ पर चूर-चूर हो जाता है कि पुद्गल (कर्म) के पास ऐसी शक्ति है कि जिसने केवलज्ञान के स्वभाव को नष्ट कर दिया है। वह कहता है मेरे राज्य में केवलज्ञान रूपी सूर्य की एक किरण भी नहीं फूट सकती। बारहवें गुणस्थान के अंत तक वह अपना अधिपत्य जमाये रहता है। यह देखकर मानी प्राणी का मान पानी पानी हो जाता है। अनंत शक्ति वाला चैतन्य तत्व इन मानादि कषायों के कारण कहाँ छिपा है पता नहीं। मान इंद्रियों की नहीं बल्कि मन की खुराक है। मन को मान से बचाना ही साधना की एक चरम सीमा है। तीर्थंकर चक्रवर्ती होते हुए भी नव निधि, चौदह रत्नादि के स्वामी मुनि बनने के बाद जब नवधाभक्ति के माध्यम से तप में वृद्धि के लिए एक गरीब की कुटिया में आहार लेने जाते हैं। चक्रवर्ती तीर्थंकर इससे बड़ा और मान का हनन क्या होगा ? साधना वही है जो अपने मान को समाप्त कर दे। जब आत्मतत्व के प्रति बहुमान प्राप्त हो जाता है तब मान के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता। मान को जीतने की आंतरिक साधना महत्वपूर्ण है। ख्याति, लाभ, पूजा एवं यशकीर्ति को छोड़ना बहुत कठिन है, ये संसारी प्राणी क्या कीर्तिकीर्तन कर पावेंगे, इन्हें हमारा वास्तविक स्वभाव ज्ञात ही नहीं है। मान के लिए, तुलना के लिए दूसरा पदार्थ आपेक्षित होता है लेकिन आत्मा के लिए, स्वभाव में आने के लिए पर पदार्थ की आवश्यकता नहीं होती। मान द्वंद पैदा करता है। आठ चीजों (ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, तप, रूप और ऐश्वर्य) को लेकर मान हो सकता है यह विस्मय की नहीं अस्मय की बात है। वह अपना ही अस्तित्व समाप्त करना चाह रहा है, जो मान के कारण धर्मात्मा को नीचे दिखाना चाह रहा है। सम्यक दृष्टि ही स्व-पर के अस्तित्व को समझ सकता है, जिसे आत्मा के अस्तित्व के बारे में पहचान हो जाती है वह मान के पीछे क्यों भागेगा ? मानी मानव दूसरे पर डिपेन्ड रहना चाहता है, दूसरे पर डिपेन्ड जो आनंद है, उसे पाने वाला भिखारी है। मान से सुख नहीं मिलता, वह सुखा देता है। मैं बड़ा हूँ, यह भी एक चिंता है। ऐसा स्वाध्याय, तप-साधना आदि करें ताकि मान प्रमाण के रूप में परिवर्तित हो जावे। अभिमान करने का उद्देश्य अपने को बड़ा मानना है और दूसरे को छोटा मानना यह एक खतरनाक उद्देश्य है और यही हमारा अज्ञान है। अध्यात्म के क्षेत्र में दूसरे को छोटा मानने वाले का स्वागत नहीं है। यदि मान की एक भी तरंग है, लकीर है तो लकीर के फकीर माने जाते हैं। मान का मर्दन करने वाला वीर माना जाता है, वही बाद में हमारे सामने महावीर बनकर आता है। बालक अच्छे कपड़े पहन ले तो उसकी चाल ही बदल जाती है, यह मान का प्रतीक है। हे प्रभु ! आपने ऐसे कौन से शस्त्र का प्रयोग किया कि आपका मान प्रमाण बन गया ? अधूरापन समाप्त हो गया। छोटे, बड़े की मान्यता हमारे ही दिमाग की उपज है, प्रत्येक जीव का अस्तित्व अनादि अनिधन है। अधूरे व्यक्तियों के पास जाओगे तो मान खड़ा होगा ही इसलिए मान से बचना हो तो भगवान् के पास बैठ जाओ। हम कभी भी दूसरे को छोटा नहीं मानेंगे यह छोटा-सा व्रत ले लो। फिर मान अपने आप समाप्त हो जावेगा। दूसरे को छोटा मानना अस्तित्व गुण में दोष है। कष्टों को सहते हुए साधना करें, बहुत कुछ प्राप्त हो जावेगा, मान के साथ नहीं। अभिमान में अड़ जाने पर संघर्ष छिड़ जाता है। अभिमानी धर्म नहीं कर सकता, क्योंकि पाप का मूल अभिमान है | यदि आप अहंकार को छोड़ना चाहते हो तो, हमेशा-हमेशा रामायण का वाचन करते रहना चाहिए। लघु बने बिना दूसरे से प्रेरणा नहीं ली जा सकती और लघु बने बिना राघव नहीं बन सकते। नाम की तृष्णा, भूख एक प्रकार से हमें कर्तव्य से विमुख कर देती है। हे प्रभु! मुझे ऐसा पुण्य बंध न हो, जिससे में अभिमानी बन जाऊँ, मोक्षमार्ग ही छिन जाये। जिस साबुन से (दानादि से) कपड़ा साफ होता है, उससे कपड़ा (आत्मा) गंदा भी हो सकता है, अभिमान करने से। मान की तरंग उठने से अंतरंग बदल जाता है, मटमैला हो जाता है। लघुपना स्वीकारने से कषायों का शमन होता है। जिसके माध्यम से जीवन में विकास होता चला जाता है। पर्वत पर (बड़प्पन के पर्वत पर) चढ़ने से अहंकार की लू लग जाती है, नीचे रहने पर लू नहीं लगती। मानी की प्रेरणा संसार में भटकाने के लिये होती है और मानातीत दृष्टि वालों की प्रेरणा संसार से पार लगा देती है। मोहमार्ग वालों को मान अच्छा लगता है, श्रुत नहीं | मान की सामग्री मनुष्य ही सूघता है, जंगली प्राणी नहीं। आत्मा के स्वरूप के बारे में सोचोगे तो रूप का मद नहीं होगा।
  23. क्षमा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार क्रोध ही शत्रु है, उसे दांत किटकिटाते हुए बाहर कर दो। गुस्सा के ऊपर गुस्सा करने वाला कुछ कर सकता है पर गुस्सा करने वाले पर गुस्सा करने वाला कुछ नहीं कर पाता। क्रोधाग्नि स्व एवं पर दोनों को जला देती है। क्रोध के कारण से हम स्व को भूल जाते हैं। क्रोध एक बहुत बड़ा नशा है। जो व्यक्ति की बुद्धि को गाफिल कर देता है। राख के द्वारा अग्नि बुझती तो नहीं पर ढक अवश्य जाती है। उसी प्रकार क्रोध में उपयोग समाप्त तो नहीं होता किन्तु ढक अवश्य जाता है। आत्मानुभूति करने के लिए क्रोध को निकालना आवश्यक होता है। उत्तम क्षमा रखना ही पर्व मनाना है। मन का विजेता बनना ही पर्व का सार है। आज आपस में आप क्षमा को स्वीकार रहे हैं, इससे बड़ा और कोई धर्म नहीं होगा। क्षमा ऐसी वस्तु है, जिससे सारी ज्वलनशीलता समाप्त हो जाती है और चारों ओर हरियाली ही हरियाली दिखने लगती है। भगवान पार्श्वनाथ के जीव ने क्षमा रूपी महा शीतल धर्म के द्वारा ही सारी कठिनाईयों को सहा। क्योंकि वे इस बात को जानते थे कि अपने अपने कर्म का फल सभी भोगते हैं। अपने-अपने कर्म का फल भोगे संसार। एक खस टट्टी सींचता एक लेता बहार॥ अगरबत्ती जलकर ही सुगंधी फैलाती है, हमको भी समता धारण करके आगे बढ़ना चाहिए महाभारत पढ़ने के बाद नवभारत के बारे में सोचें ? मैं कौन हूँ? सम्बन्ध क्या है? वात्सल्य के साथ निभाना बाद में तो टूटना ही है। यह सम्बन्ध नहीं, संयोग है उस दूध और पानी की भांति आप लोगों को रहना चाहिए। भगवान को छोड़कर सभी से गलती होती है। संसारी प्राणी बाहर से सब ठंडे हैं पर भीतर से सभी गरम हैं (क्रोध सत्व में है इस अपेक्षा से) । इस जीवन में तापमान (क्रोध)पूर्णत: समाप्त नहीं हो सकता लेकिन भीतर रहते हुए भी बाहर तापमान (क्रोध) नहीं आने देना, यह एक महान् पुरुषार्थ है। क्रोध ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे हाथ में लेकर फेंक दो, बल्कि चाहो तो उसका उपयोग करने से रोका जा सकता है। वृद्धावस्था में भी क्रोध जीर्ण नहीं होता। चाहे वह आठ वर्ष का हो या अस्सी वर्ष का सभी में क्रोध भरा हुआ है, क्योंकि क्रोध कभी बूढ़ा नहीं होता। क्रोध अपने आप कुछ नहीं करता हम उस रूप परिणमन कर हो जाते हैं इसलिए वह अपना प्रभाव दिखा देता है। क्रोध के सत्व में बहुत ही शक्तिशाली बारूद भरी रहती है जिसका कभी भी विस्फोट हो सकता है। मान्यता मन में बनाये बिना क्रोध की प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं हो सकती। विषैले शस्त्र कभी अपने आप नहीं चलते, चलाने वाले पर आधारित होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के पास फटाके(क्रोध) की दुकान है और वह स्वयं उसमें बैठकर चला रहा है। यदि विस्फोट हो गया तो पहले स्वयं जलेगा बाद में कोई जले भी या नहीं भी। कषाय को जीतना है तो क्षमा को धारण करो। साधुओं ने सबसे पहले संकल्प लिया है कि हम क्रोध रूपी बम का प्रयोग नहीं करेंगे। भीतर क्रोध होते हुए भी उसका प्रयोग नहीं करेंगे तो शांति का वातावरण बना रहेगा। जिस प्रकार माचिस बाक्स में रखी हुई तिल्लियाँ बरसात में काम नहीं करतीं हैं बल्कि सभी घिसकर समाप्त हो जातीं हैं, इसका कारण नमी, आद्रता है। ठीक उसी प्रकार हमारे भीतर कषायों की तिल्लियाँ भरी पड़ी हैं, हम बाहर का वातावरण क्षमा का बना लें तो कषायों की तिल्लियाँ उदय में आकर चली जावेगी, कोई हानि नहीं होगी। क्रोध रहित वीतराग मुद्रा के सामने सिंह भी अपना हिंसत्व छोड़कर उनके चरणों में बैठ जाता है क्योंकि मान्यता के ऊपर ही क्रोध की उत्पत्ति होती है, क्रोध का विस्फोट मान्यता पर आधारित है। यदि कोई अपने ऊपर बरस (गरज) रहा है तो यह मेरे ऊपर नहीं गरज रहा है, यह तो अज्ञानी है ऐसी मान्यता बना लो। क्रोध बाहर नहीं आवेगा और आपने इसकी विपरीत मान्यता बना ली तो आप अज्ञानी हो गये। क्रोध छोड़ने की भूमिका यही है कि अपनी विपरीत मान्यता को बदलिए। अज्ञान दशा में किए गए कार्य ज्ञान दशा में क्षमा करने योग्य होते हैं। स्वभाव को भूलने वाला ही क्रोध कर सकता है। क्रोध हमारा स्वभाव नहीं है, इस विश्वास को मूर्तरूप देते जाओ, धीरे-धीरे क्रोध पर विजय प्राप्त होती जावेगी। ज्ञानी के पास सदा स्वाभिमान रहता है। वह क्रोध में, उतावली में कभी अनुचित कार्य नहीं कर सकता । संघर्ष से जल में भी अग्नि उत्पन्न हो जाती है। जब बादल जल से नहीं जलन से भरे होते हैं, तब आपस में संघर्ष कर लेते हैं तो व्रजपात हो जाता है। क्रोध का तूफान स्वयं एवं पर दोनों को उड़ा ले जाता है। हमारे परिणामों में यह क्षमता है कि हम सभी को जीत सकते हैं और चाहें तो सभी हमारे विरोधी हो सकते हैं। जिन वस्तुओं से क्रोध (कषायादि) उत्पन्न होते हैं, उन्हें पहले ही त्याग कर देना चाहिए। मान लो क्रोध रूपी अग्नि लग गयी है तो पानी डालो, पानी नहीं है तो धूल डालो, धूल नहीं डाल सकते तो अग्नि से ईधन का सम्पर्क तो हटा सकते हो। फिर अग्नि धीरे-धीरे स्वत: शांत हो जावेगी। क्रोध करना अज्ञान का ही प्रतीक है, उस समय अपने को अज्ञानी समझना चाहिए। क्रोध रूपी अज्ञान को नष्ट करने के लिए क्षमा रूपी शस्त्र ही उपयोगी है।
  24. यदि कोई सिद्धान्त का गलत अर्थ निकालता है, तो उस समय बिना पूछे ही उसका निराकरण करना चाहिए। यदि उस समय वह समन्तभद्राचार्य जैसी गर्जना नहीं करता है तो उसका सम्यग्ज्ञान मिथ्याज्ञान में परिणत हो जाएगा। जिस प्रकार माहौल के वातावरण से प्रभावित होकर के गिरगिट अपना रंग बदलता रहता है, उसी प्रकार आजकल के वक्ता भी स्वार्थ सिद्धि की वजह से आगम के अर्थ को बदलते रहते हैं। लोभ के वशीभूत हुआ प्राणी सत्य धर्म को सही-सही उद्घाटित नहीं कर सकता। सत्य का अर्थ है अहिंसा। असत्य का अर्थ है हिंसा, सत्य का पक्ष कभी फालतू नहीं जाता। लौकिक क्षेत्र में यह प्रसिद्ध है कि जिस रोग के आवागमन से शरीर का एक पक्ष विकल हो जाता है; शरीर का एक भाग काम नहीं करता, उसे वैद्य लोग पक्षाघात कहते हैं। मैं समझता हूँ कि पक्षाघात स्वयं पक्षाघात से युक्त है, क्योंकि वह शरीर के मात्र आधे हिस्से को ही निष्क्रिय करता है, पूरे को नहीं। किन्तु! सही पक्षाघात में पक्षपात को मानता हूँ, पक्षपात के आने से उसकी चाल में, उसकी दृष्टि में, उसकी प्रत्येक क्रिया में अन्तर आ जाता है। जहाँ पक्षपात आ जाता है वहाँ भीतर की बात भीतर ही रह जाती है। किसी व्यक्ति से पूछा जाए कि तुमने चोरी की है तो उसका मन पहले कहता है कि ‘हूँ फिर बाद में जब उसे बाध्य किया जाता है तो यह 'परावाकू' पश्यन्ति के रूप में परिवर्तित हो जाती है। उस समय भी परावाक् बिल्कुल शुद्ध रहती है, पश्यन्ति भी बिल्कुल ठीक रहती है किन्तु मध्यमा के ऊपर ज्यों ही चढ़ना प्रारम्भ कर देता है त्यों ही उसके लिए एक आशा आ जाती है और जिह्वा बोलना भी चाहती है, लेकिन उसका गला घुटकर-सा रह जाता है। वह कहती है कि-जैसा हुआ। वैसा नहीं, जो मैं कह रहा हूँ वह बोलना है। क्यों तुमने चोरी की है तो वह कहता है कि हूँ. हूँ. नहीं, यह निकल गया। इसका अर्थ है ‘है' हाँ फिर उसके उपरांत ‘नहीं' करता है। आप कितनी भी पिटाई कीजिए, कड़ा से कड़ा दण्ड दीजिए वह सत्य को असत्य की ओट में छुपा देता है। यही विचार की बात है, आचार की बात है; कौन नहीं जानता कि चोरी करना गलत है, लेकिन वह चोर भी जानता हुआ डरता है, पीछे मुड़कर देखता है कि पुलिस आ रही है और मेरे लिए पकड़ेगी। इस प्रकार वह भयभीत होता हुआ, चोरी को अच्छा नहीं समझता, फिर भी लत पड़ गई है, इसलिए वह चोरी को छोड़ नहीं पा रहा है। विषयों की चपेट में आया हुआ प्राणी, विषयों को छोड़ नहीं पाता, यह अज्ञान है। अज्ञान का अर्थ यह नहीं कि वहाँ पर ज्ञान का अभाव है। ज्ञान तो है लेकिन पूरा नहीं है, और सही नहीं है। इसलिए येन केन प्रकारेण विषयों की पूर्ति के लिए कदम उठाता है। पक्षपात! यह एक ऐसा जल प्रपात है जहाँ पर सत्य की सजीव माटी टिक नहीं सकती बहे जाती पता नहीं कहाँ ? वहे जाती असत्य के अनगढ़ विशाल पाषाण खण्ड अधगढ़े टेढ़े-मेड़े अपने धुन पर अड़े शोभित होते (डुबो मत लगाओ डुबकी से) पक्षपात एक ऐसा जलप्रपात है जो सत्य की माटी को टिकने नहीं देता। सिद्धक्षेत्र मुतागिरजी में हमने देखा था, तो वहाँ टेड़े/मेड़े विशाल पाखण्ड खण्ड ही मात्र मिले, माटी के दर्शन तो वहाँ पर हुए ही नहीं। असत्य जीवन के पास जाते ही घबराहट होने लगती है। कहीं ऐसा न हो कि सत्य, असत्य के रूप में परिणत हो जाए आज सुबह ही एक सूत्र में आया था 'बन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ च' (तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५, सूत्र ३७) परिणमन कराने की शक्ति असत्य के पास बहुत है, सत्य के पैरों को भी वह हिला देता है क्योंकि सत्य आदि है, और असत्य अनन्तकाल से चला आ रहा है। सत्य की सुरक्षा आज अनिवार्य है और सत्य की सुरक्षा वहीं पर हो सकती है, जहाँ पर पक्षपात नहीं है। जहाँ शुद्ध आचार/विचार है, और यदि यह सब नहीं है तो वहाँ सत्य धीरे-धीरे फिसलता हुआ असत्य के रूप में बदलता जाता है। आज मुझे सत्य की बात कहना है असत्य की नहीं, असत्य से तो आप सभी लोग परिचित हैं। सुदपरिचिदाणुभूदा, सव्वस्सवि कामभोगबंधकहा। एयक्तस्सुवलम्भो, णवरि ण सुलहो विहत्तस्स॥ आचार्य कुन्दकुन्ददेव समयसार में कहते हैं कि इस आत्मा ने भोग/काम/बन्ध की कथायें खूब सुनी हैं। यदि नहीं सुनी है तो, एकत्व की कथा नहीं सुनी। विषयों का इसे खूब अनुभव है। विषय भोग के बारे में कोई भी बालक नहीं है, सभी अनंतकाल के आसामी हैं और अनंत का कोई ओर-छोर नहीं होता। आत्मा का क्या इतिहास है? पहले ही हमने बताया था, कि आज मुझे सत्य की बात कहना है। सत्य क्या है? सत्य, अजर/अमर है। सत्य, अनादिकाल से चला आ रहा है। आज तक हमने सत्य का मूल्यांकन नहीं किया, आज तक हमने सत्य को संवेदन नहीं किया और मात्र असत्य का संवेदन, मनन/चिन्तन/किया है, स्वप्न में भी सत्य का संवेदन नहीं किया। जिसने सत्य का संवेदन किया उसे मार्ग मिला, मंजिल मिली और अनंतकाल के लिए वह अनंत/अव्याबाध सुख का भोक्ता बन गया। सत्य की महिमा कहने योग्य नहीं है, उसे हम शब्दों में बाँध नहीं सकते। वह लिखने की वस्तु नहीं लखने की वस्तु है। लिखनहारे तो बहुत हैं, लेकिन लखनहारा तो विरल ही पाओगे, वस्तुतत्व का निरीक्षण करने वाला हृदय आज कहाँ है? इसलिए आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने लेखनी उठाते ही कह दिया 'सुदपरिचिदाणुभूदा' सभी कार्य संसारी प्राणी ने अनंतों बार किए हैं। पूर्व वत्ता ने अभी-अभी कहा था कि जिनवाणी को अपने जीवन में उतारना है। 'धम्मं भोगणिमित' यह गाथा जब मैं आगे जाकर उसी समयसार में देखता हूँ तो एक विचित्र सत्य के दर्शन होते हैं। एक मिथ्यादृष्टि जीव है, वह सच्चे देव/शास्त्र/गुरु पर श्रद्धा रखता है, लेकिन फिर भी उसके अन्दर कहाँ पर कमी रहती है? तो आचार्य कहते हैं कि भाव-भासन का अभाव है। भोगों की चपेट से वह अपने को छुड़ा नहीं पा रहा है। ज्ञान का समार्जन करने वाला व्यक्ति, यह सोचता है कि-मेरे भीतर भोग की लिप्सा कितनी मात्रा में घटी है। चाहे वह स्वाध्याय करने वाला हो या पूजन करने वाला, अन्दर ही अन्दर वे घड़ियाँ चलती रहती हैं। जिस प्रकार ब्लड-प्रेशर नापते समय काँटा यूँ-यूँ करता है उसी प्रकार मन की प्रणाली बार-बार विषयों की ओर आती जाती है। सत्य क्या है ? असत्य क्या है वह सोचता रहता है। एक दोस्त था। उसके घर के लोग तन्त्र/मन्त्र को बहुत मान्यता देते थे। और वह मात्र देव/ शास्त्र/गुरु को मानता था। एक दिन वह कहता है कि मुझे एक ताबीज लेना है। मैंने कहा कि कहाँ से लाओगे? सुनार के यहाँ से लायेंगे। मैंने कहा कि चलो हम भी देखते हैं कैसे ताबीज बनती है। तब वह सुनार के पास जाकर कहता है कि फलाने व्यक्ति ने इस प्रकार की ताबीज लाने के लिए कहा था। जो कुछ भी पैसा लेना है ले लो, लेकिन! ताबीज अच्छी बनाना है। ताबीज बनाते समय ताँबे के ऊपर हथौड़े की सही चोट पड़ना चाहिए, झूठ नहीं पड़ना चाहिए। झूठ का मतलब मैं समझता रहा, देखता रहा। झूठ कौन-सी होती है जो कोई भी आभरण बनते हैं, उन पर हथौड़े की चोट करके यूं यूँ करते हैं। उसको बोलते हैं झूठा प्रहार, उसका कोई मतलब नहीं होता। इसका अर्थ होता है, कि ताबीज झूठा प्रहार सहन नहीं कर सकता। बाँधने वाला झूठ बोले यह बात अलग है, लेकिन! ताबीज कहता है कि मेरा निर्माण बिना झूठ के हुआ है। हमने सोचा क्या मामला है? तो मामला यह है कि सुनार की सावधानी वहाँ पर होगी। आज तो 'धर्मयुग' है। हाँ बात तो बिल्कुल ठीक है भैय्या आज तो धर्मयुग पत्रिका निकल रही है, और ‘युगधर्म' भी निकलता है। कभी धर्म आगे बढ़ जाता है, तो कभी युग आगे बढ़ जाता है। तो हम धर्म-युग की बात करें। आज युग इतने आगे बढ़ गया है, और धर्म इतने पीछे रह गया है कि क्या बताऊँ? इसलिए तो धर्म युग कहा गया। धर्म की बातें करने से धर्म नहीं आ सकता, धर्म तो तब आएगा जब युग धर्ममय बन जाए। पंक्तियाँ-प्रस्तुत हैं यह युग अप्रत्याशित आगे बढ़ चुका है बहुत दूर और! धर्म वह पीछे रह चुका है अन्यथा पत्रिका का नाम धर्म युग क्यों पड़ा यह ? ('चेतना के गहराव में' से) सत्य का अर्थ है अहिंसा, और असत्य का अर्थ है हिंसा। हमारे उपास्य देवता सत्य और अहिंसा हैं। इन्हीं दो मन्त्रों को लेकर गाँधीजी ने ब्रिटिश गवर्नमेंट को प्रभावित किया था। इस शताब्दी में भी इस प्रकार के परिवर्तन हुए हैं | सत्य-अहिंसा कोई शाब्दिक व्याख्या नहीं है। यह एक प्रकार से भीतर की बात है। आज सत्य के कदम कहाँ तक उठ रहे हैं, अपने जीवन में सत्य का मूल्यांकन कहाँ तक हो रहा है? छोटी-छोटी बातों को लेकर झूठ बोलते हैं, लेकिन! यह विश्वास के साथ सोचना चाहिए, जो काम झूठ के द्वारा हो रहा है, क्या वह सत्य के द्वारा नहीं होगा? उससे बढ़कर ही होगा लेकिन! असत्य के ऊपर हमारा विश्वास जमा हुआ है। असत्य की ही ओर हमारी दृष्टि है। सत्य का पक्ष वह है जो कभी फालतू नहीं होता। असत्य का पक्ष हमेशा फालतू ही हुआ करता है, उसकी कीमत तब तक ही रहती है जब तक हम समझते नहीं हैं। हमें असत्य/हिंसा का पक्ष नहीं लेना है, सत्य/अहिंसा का पक्ष ही लेना है। लेकिन! सत्य का पक्ष लेने वाला व्यक्ति, क्रोध/ लोभ/भीरुता/हास्य का आलम्बन नहीं लेगा। लोभ के वशीभूत हुआ प्राणी सत्य धर्म को सही-सही उद्घाटित नहीं कर सकता। सत्य की सुरक्षा के लिए क्रोध/लोभ/भीरुता/हास्य को छोड़ना होगा। आचार्य शुभचन्द्र जी ने ज्ञानार्णव में एक बात कही है, जो मुझे बहुत अच्छी लगी, कि विद्वान् को अपनी गंभीरता नहीं छोड़ना चाहिए। यद्वा/तद्वा नहीं बोलना चाहिए, अपनी सीमा में रहना चाहिए, यह बिल्कुल ठीक है। बार-बार पूछने के उपरान्त भी नहीं बोलना चाहिए, लेकिन यदि धर्म का नाश हो रहा हो तो ? धर्मनाशे क्रियाध्वंसे सुसिद्धान्तार्थविप्लवे। अपृष्टैरपि वक्तव्यं तत्स्वरूप-प्रकाशने॥ (ज्ञानार्णव सर्ग ९, शलोक १५) जब धर्म का नाश होने लगता है, धार्मिक क्रियाओं का विध्वंस होने लगता है और यदि कोई व्यक्ति सिद्धान्त का गलत अर्थ निकालता है तो, उस समय बिना पूछे ही उसका निराकरण करना चाहिए। उस समय वह समन्तभद्राचार्य जैसी गर्जना नहीं करता है तो उसका सम्यग्ज्ञान मिथ्याज्ञान के रूप में परिणत हो जाएगा। क्योंकि उस समय उसने सत्य को ढँक दिया। यह बात मुमुक्षु को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। आज महावीर भगवान के सिद्धान्त के अनुसार चलने वाले विरले ही रह गए हैं। मात्र साहित्य के माध्यम से ही महावीर भगवान का धर्म जीवित नहीं है, बल्कि! उस साहित्य के अनुरूप चर्या भी देखने मिल रही है, भले ही उसका पालन करने वाले अल्प संख्या में हैं। साहित्य के अनुरूप आचरण करने वालों की कमी होने के कारण आज बौद्ध धर्म विश्व में रहते हुए भी किस रूप में है ? हम जान नहीं सकते। वह मात्र पेटियों में बन्द हो गया है, बौद्ध धर्म के उपासक आज भारत में नहीं हैं। जबकि बौद्धधर्म भारत में ही स्थापित हुआ था, प्रचार-प्रसार हुआ था किन्तु उनके उपासक यहाँ पर नहीं टिक सके । फिर बाद में वह धर्म तिब्बत, लंका आदि में चला गया। यहाँ पर भगवान आदिनाथ से लेकर महावीर भगवान तक जैनधर्म अबाधगति से चला आ रहा है, इसमें कारण क्या है ? एक विदेशी लेखक ने एक पुस्तक में लिखा है कि बौद्ध धर्म का उद्गम भारत में हुआ और भारत में ही उसका वर्चस्व कायम नहीं रह पाया। जैन धर्म का उद्गम भी भारत में हुआ और जीवित रह गया। बौद्धधर्म जीवित क्यों नहीं रह पाया? इसमें कारण यही है कि उसके उपासकों की संख्या घटती गई इसलिए बौद्ध धर्म यहाँ से उठ गया। उपासकों के अभाव में वह धर्म लुप्त हो गया और उपासकों के सद्भाव में जैन धर्म आज भी जीवित है और आगे भी रहेगा। यह बात अलग है कि धीरे-धीरे शिथिलता आ रही है। चलने वाला शिथिल भले हो, लेकिन धर्म जीवित रखने का श्रेय उपासकों को ही है। धर्म रूपी रथ के दो पहिए हैं-एक मुनि, दूसरा श्रावक। यह सत्य है कि यदि एक पहिया निकाल दिया जाए तो रथ नहीं चल सकता। इसी प्रकार श्रुतज्ञान को निकाल दिया जाए तो केवलज्ञान गूंगा हो जाएगा। केवलज्ञान और सर्वज्ञ को समाप्त कर दिया जाए तो श्रुतज्ञान नहीं रहेगा, इसलिए दोनों के सद्भाव में यह धर्म रहने वाला है। अक्षर के पास ज्ञान भी नहीं है, पर अर्थ को व्यक्त करने की योग्यता उसके पास है। योग्यता का अधिकरण उसकी विवक्षा करने वाले वक्ता के ऊपर निर्धारित है सो आज उन लोगों के पास वह भी नहीं है। आज साहित्य क्या है? वस्तुत: जो वाच्यभूत पदार्थ है उसको हम शब्दों में व्यक्त करते हैं। शब्द वस्तुत: ज्ञान नहीं हैं, शब्द कोई वस्तु नहीं है किन्तु वस्तु के लिए मात्र संकेत है। भाषा (लेंग्वेज) यह नॉलेज नहीं है, मात्र साइनबोर्ड है। नॉलेज का अर्थ जानने की शक्ति और लेंग्वेज को जानने के लिए भी नॉलेज चाहिए। यदि वह विषयों में, कषायों में घुला हुआ है तो ध्यान रखना उसका कोई मूल्य नहीं है। आज कई विदेशी आ जाते हैं, दिगम्बरत्व के दर्शन करते हैं, श्रावकों को देखते हैं तो ताज्जुब करते हैं कि इस प्रकार धर्म रह सकता है। गाँधीजी जब यहाँ से विदेश गए थे, वहाँ पर उनके स्वागत के लिए बहुत भीड़ एकत्रित थी। यह कैसी खोपड़ी है? यह कैसी विचारधारा है? जिसके माध्यम से हमारा साम्राज्य पलट गया। उस व्यक्ति को हम देखना चाहते हैं, जब वो निकल गए तो लोग इधरउधर देखने लगे। कहाँ हैं गाँधीजी किसी ने कहा कि गाँधीजी यही हैं। भैया! तो वे कहने लगे किअरे ये तो साधु जैसे हैं। तब गाँधीजी ने कहा कि ये तो साधु की पृष्ठभूमि है, साधु तो बहुत पहुँचे हुए लोग होते हैं। तब लोगों ने कहा कि जब आपका इतना प्रभाव है तो उनका कितना होगा? गाँधीजी बोले-वे अपना प्रभाव दिखाते नहीं हैं क्योंकि वे दुनियाँ से ऊपर उठे हुए हैं। आचार्य उमास्वामी ने सप्तम अध्याय में कहा है कि चोरी से, झूठ से काम लेना यह असत्य है। सत्य बोलना सत्य नहीं है। असत्य का विमोचन करना सत्य है। अभी पूर्व वक्ता ने आपके सामने कहा कि महाराज तो विमोचन करने में माहिर हो चुके हैं।(पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य द्वारा लिखित सज्ज्ञानचन्द्रिका का विमोचन करते समय) हॉ.परिग्रह का तो मैं विमोचन करता हूँ पर श्रुत का विमोचन नहीं करता। श्रुत का विमोचन तब तक नहीं होगा जब तक मुझे मुक्ति नहीं मिलेगी। श्रुत का विमोचन यह लौकिक पद्धति है लेकिन आज स्वाध्याय का मूल्यांकन घटता चला जा रहा है। एक वक्ता ने अभी कहा कि आज बड़ी-बड़ी संस्थायें हैं, संस्थाओं से शास्त्र भी प्रकाशित हुए हैं लेकिन उनको कोई पढ़ने वाले नहीं हैं। यह कथचित् ठीक है लेकिन! मैं भी यह बात उनसे कहता हूँकि ग्रन्थ प्रकाशित करने वालों का क्या कर्तव्य है? जरा इस पर भी ध्यान दें। देखो! सुबह से लेकर मध्याह्न तक रसोई मन लगाकर बनाई जाती है। भीतर से यह मन कहता है कि मैं किसी भूखे-प्यासे की क्षुधा दूर करूं। मेरी रसोई का मूल्यांकन पूर्ण रूप से हो और वह सार्थक हो जाए। जिस किसी व्यक्ति को आप श्रुत देकर अपने आपको कृत-कृत्य नहीं मानोगे। जिस प्रकार जिसको भूख है उसी को आप खाना खिलायेंगे। जिसके लिए अध्ययन की रुचि है उसे ही आप श्रुत दान दीजिए, यदि आप सही दाता हैं, श्रुत का सही-सही प्रचार-प्रसार करना चाहते हैं तो। बहुत सारे छात्र मेरे पास आ जाते हैं, बहुत सारे व्यक्ति मेरे पास आ जाते हैं और कहते हैं कि महाराज मुझे कुछ दिशा बोध दीजिए, जो व्यक्ति खरीद करके दिशा बोध देता है, उसका सामने वाला सही-सही मूल्यांकन नहीं करता। जिनवाणी की विनय ही हमारा परम धर्म है। यदि सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं, तो सम्यग्ज्ञान के भी आठ अंग हैं लेकिन सम्यग्ज्ञान के आठ अंगों से बहुत कम लोग परिचित हैं। जिनवाणी का दान जिस किसी व्यक्ति को नहीं दिया जाता। जिनवाणी सुनने का पात्र वही है जिसने मद्य/मांस/मधु और सप्तव्यसनों का त्याग कर दिया है। मद्य/मांस/मधु का सेवन आज समाज में बहुत हो रहा है। केवल स्वाध्याय करने मात्र से ही सम्यग्दर्शन नहीं होने वाला। बाह्याचरण का भी अन्तरंग परिणामों पर प्रभाव पड़ता है। विषय वासनाओं में लिप्त यह आपकी प्रवृत्ति अन्दर के सम्यग्दर्शन को भी धक्का लगा सकती है, दुश्चरित्र के माध्यम से सम्यग्दर्शन का टिकना भी मुश्किल हो जाएगा। आजकल प्रत्येक क्षेत्र में प्रवृत्तियाँ बदलती जा रही हैं। पहले जैन ग्रन्थों पर मूल्य नहीं डाले जाते थे। क्योंकि जिनवाणी का कोई मूल्य नहीं है वह अमूल्य है लेकिन आज ग्रन्थों पर मूल्य डाले जा रहे हैं जो कि ठीक नहीं हैं। मोक्ष सुख दिलाने वाली इस जिनवाणी माँ को आप व्यवसाय का साधन मत बनाइये। सभा में बैठे हुए विद्वानों को यह कथन रुचिकर नहीं लग रहा होगा लेकिन यह एक कटु सत्य है। सत्य चाहे कड़वा हो या मीठा, उसको उद्घाटित करना हमारा परम कर्तव्य है। एक बात ध्यान रखना दवा कड़वी ही हुआ करती है और कड़वी दवा के माध्यम से ही रोग का निष्कासन हुआ करता है। पुरुषार्थसिद्धियुपाय संहारिका मेरे पास आई थी, मैंने उसे देखा तो उसमें एक स्थान पर आया जिनवाणी सुनने का वही पात्र है-जिसने सप्त व्यसन और मद का त्याग कर दिया हो। आज दिनों दिन सदाचरण मिटते चले जा रहे हैं। मद्य/मांस/मधु से हमारा परहेज प्राय: समाप्त होता चला जा रहा है। केवल समयसार मात्र पढ़ने से हमें सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होने वाला। आचार्य अमृतचन्द्रजी कहते हैं-वही व्यक्ति पात्र है जो सदाचार का पालन करता हो, इसके उपरान्त ही सम्यग्दर्शन सम्भव है। इसलिए उन्होंने पहले सुनने की पात्रता बताई। हमें इसी प्रकार सीखना है तो उत्तमपात्र के लिए बहुत खर्च करना पड़ता है। इसके उपरान्त आपका वित्त सार्थक होगा। पहले के लोग भी स्वाध्याय करते थे, मैंने पहले के कुछ ग्रन्थ देखे हैं जिन पर कीमत के रूप में स्वाध्याय लिखा जाता था। उन ग्रन्थों के ऊपर कीमत नहीं लिखी जाती थी, मैंने कई बार इस बात को कहा है। मैं स्वाध्याय का निषेध नहीं करता स्वाध्याय आप खूब करिये! लेकिन विनय के साथ करिये। पहले स्वाध्याय करने की पात्रता/योग्यता अपने आप में लाइये, तभी आप सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कर सकेंगे। उसकी विनय के अभाव में वह सम्यग्ज्ञान तीनकाल में संभव नहीं है। श्रुत का दान आप उसे दीजिए जिसने उसका महत्व समझा हो। वह पवित्र जिनवाणी उसी के लिए भेंट कीजिए जो उसका सदुपयोग कर सके। जिस किसी के लिए आप दे देते हैं वह उसकी विनय नहीं रखता, कहीं भी ले जाकर रख देता है और यदि वह शास्त्र किसी बच्चे के हाथ में पड़ जाए तो वह उसे फाड़ देता है। ग्रन्थालयों में ग्रन्थ तो मिल जाते हैं, लेकिन खोलते ही ऊपर पद्मपुराण लिखा रहता है और बीच में हरिवंश पुराण के भी पृष्ठ मिल जाते हैं और अंत में उत्तरपुराण के भी दर्शन हो जाते हैं। किसी भी ग्रन्थालय में ग्रन्थ व्यवस्थित नहीं रखे मिलते। सारों की बात तो अलग ही है, समयसार में गोम्मटसार के दर्शन होते हैं और प्रवचनसार में धवला के दर्शन होते हैं, उन महान सिद्धान्त ग्रन्थों के पने भी, अस्त व्यस्त रहते हैं। स्वाध्याय शील व्यक्ति भी उन्हें पढ़कर यथायोग्य नहीं रखते। जल्दी-जल्दी जैसे भी पढ़ लिया और अलमारी के किसी कोने में पटक दिया, यह कोई स्वाध्याय करने का तरीका नहीं है। महिलायें भी स्वाध्याय करने में कई कदम आगे हैं। शास्त्र स्वाध्याय के साथ-साथ उनकी पूजा भी चलती रहती है और यदि कोई बीच में पुरुष आ गया तो अभिषेक का अनुरोध भी कर लेती हैं। क्या मतलब है? पढ़ भी रहे हैं, पूजा भी कर रहे हैं, अभिषेक भी चल रहा है। यह तो हुई पड़ी-लिखी महिलाओं की बात, पर जो पड़ी लिखी नहीं हैं, वे वृद्धा किसी से भी कह देती हैं। भैया सूत्रजी सुनाओ और बीच में शांतिधारा दिखा दो हमारा अभिषेक देखने का नियम है। उसी समय किसी तीसरे व्यक्ति से कह देती भैया! सहस्रनाम सुना दो। चौथे व्यक्ति से कहतीं भैया पद्मपुराण सुना दो। यह तो हमारी स्थिति है। (श्रोता समुदाय में भारी हँसी) यह क्या है? यह कोई स्वाध्याय करने का तरीका हुआ? यह क्या स्वाध्याय का मूल्यांकन हुआ? जिनवाणी की तो आज यह स्थिति हो रही है कि कहते हुए हृदय फटता है। आप यदि किसी सप्त व्यसनी को समयसार पकड़ा दोगे तो वह उसकी क्या विनय करेगा। उसके द्वारा जिनवाणी की अवहेलना ही होगी। एक बात और मैं पुन: जोर देकर कहूँगा कि ग्रन्थ प्रकाशन समितियों को ग्रन्थों पर मूल्य नहीं रखना चाहिए। दानदाताओं से अभी यह धरती खाली नहीं हुई है। ध्यान रखना! श्रावक धनोपार्जन करता है तो कुछ ना कुछ दानादि कार्यों के लिए बचा कर अवश्य रखता है। दान दिया हुआ पैसा पुन: उपयोग में नहीं लाना चाहिए। उसको अच्छे कामों में लगाइये, सदुपयोग कीजिए। मुझे अष्टसहस्त्री पढ़नी थी, प्रति उपलब्ध नहीं थी, मुझे बहुत चिंता थी। कहीं से भी खोजने पर एक प्रति आ गई जब उसको खोलकर देखा तो उसमें कहीं पर मूल्य नहीं पड़ा था। महाराज श्री (आ. गुरुवर ज्ञानसागर जी) बोले कि भैया! पहले पुस्तक के देने उपरान्त भी कोई नहीं लेता था। इसका अर्थ है कि पढ़ने की रुचि नहीं है, इसलिए प्रतियों का अकाल पड़ गया। पढ़ने की रुचि पहले जागृत कर दी जाए इसके उपरान्त ग्रन्थ भेंट किया जाए। भोजन आप उसको दीजिए जिसे भूख लगी है। प्रकाशन करके यद्वा-तद्वा बाँटने से उसका दुरुपयोग होता है। आज कल तो शादी/विवाह में समयसार बाँटे जाते हैं। क्या समयसार का मूल्य इतना निम्न-स्तर पर पहुँच गया? जब समयसार ग्रंथ श्रीमद् रायचंद को मिला तो वे इतने खुश हुए कि ग्रन्थ भेंट करने वाले को उन्होंने थाली भरकर हीरा-मोती भेंट स्वरूप दिए थे। इतने सारे, हाँ इतने सारे। वह अमूल्य है, उसकी कोई कीमत नहीं। ले जाओ जितना चाहो उतना ले जाओ और आज हम उस समयसार की कीमत चाँदी के चंद सिक्कों में आक रहे हैं। जो लेखक हैं, उनके लिए क्या आवश्यक है? उनके लिए कोई कीमत मत दीजिए। महापुराण पढ़ रहा था, उस समय उन्होंने यह व्यवस्था की है। जैन ब्राह्मण भी होते हैं जो अध्ययन कराने में अपना जीवन व्यतीत करते हैं। और उनकी आजीविका कैसे चलती है तो आप जो खा रहे हैं, पी रहे हैं, उसी के अनुसार आप कर दीजिए। यही उनके प्रति बहुमान है। तो पंडितजी के लिए हम वेतन दें, यह अच्छा नहीं लगता । बे.तन आत्मा) का काम करने वालों को आप वेतन (जड़) देते हैं। भेंट अलग वस्तु है। उसका मूल्य आँकना अलग होता है। सम्यग्ज्ञान, सम्यक्रचारित्र का कोई मूल्य नहीं है। जिनसे अनंत सुख मिलता है, उन रत्नों की कीमत क्या हम जड़ पदार्थों के माध्यम से आँक सकते हैं? नहीं, तीनकाल में भी यह संभव नहीं है। इसी प्रकार गुरु महाराज की भी कोई कीमत नहीं होती, वे अनमोल वस्तु हैं। और भगवान की भी कोई कीमत नहीं होती। एक बार एक बात आई थी, रजिस्ट्री कराने की। जितनी आपके यहाँ मूर्तियाँ हैं उन सब मूर्तियों को गवर्मेन्ट को बताना होगा और उनका वेट (वजन) कितना है, यह भी बताना होगा। समस्या आ गई, जैनियों ने कह दिया हम सब कुछ बता सकते हैं, आपको खर्चा करने की आवश्यकता नहीं है लेकिन हम भगवान को तौल नहीं सकते। ये भी कितने आदर की बात है किन्तु जिनवाणी की बात है जैसा अभी (मूलचन्द्रजी लुहाड़िया किशनगढ़) पूर्व वत्ता ने कहा, ज्ञान की पिटाई ऐसी हो रही है। मैं तो यह कह रहा हूँ जिनवाणी की पिटाई भी होती चली जा रही है। किसी ने कहा है जिनवाणी जिनदेव से, रो-रो करत पुकार। हमें छोड़ तुम शिव गए, कर कुपात्र आधार॥ आज वह जिनवाणी रो रही है, जिसे आप माता बोलते हैं, जिसे आप अपने सिर पर धारण करते हैं किन्तु वही जिनवाणी कहती है कि मुझे कुपात्रों के रहने के स्थान पर क्यों छोड़े जा रहे हो? हे भगवन्! आप कहाँ पर चले गए? जिनकी पूजा होती है उनकी सही-सही विनय होना चाहिए। आजकल इसमें बहुत कुछ शिथिलता आती जा रही है। मात्र स्वाध्याय करने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होने वाला। सत्य वह है जो अर्थ को, भाव को सही-सही बताने वाला होता है। अभी किसी वत्ता ने कहा था कि जो व्यक्ति लिख रहा है, पढ़ रहा है, उसका जहाँ कहीं से पढ़ना/लिखना प्रारम्भ हो गया। अभी वाचना चल रही थी। धवला इत्यादि की तो धवला की आठवीं पुस्तक में यह बात लिखी है कि घरत्थेसु णत्थि चारिक्तं गृहस्थाश्रम में चारित्र नहीं है इसलिए वह रत्नत्रय का दाता नहीं हो सकता। जिसके पास जो चीज नहीं है वह देगा क्या? एक हेतु भी है कि जिसके पास सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्रचारित्र नहीं है, उसे रत्नत्रय दान करने का अधिकार नहीं है। कम से कम उसे रत्नत्रय का उपदेश तो देना ही नहीं चाहिए। उपदेश देने का उसको अधिकार भी नहीं है। फिर क्या उपदेश छोड़ दें? नहीं.नहीं वहाँ पर भाव यह है कि चारित्र को लेकर जब हम आगे बढ़ेंगे तब यह बात हो सकती है। बार-बार वर्णी जी की चर्चा आती है। वर्णीजी कौन थे? वर्णीजी क्या गृहस्थ थे? नहीं। वर्णी का अर्थ मुनि/यति/अनगार/तपस्वी/त्यागी होता है। वे गृहस्थ नहीं ग्यारहवीं प्रतिमा धारक क्षुल्लक जी थे। इसलिए उनका प्रभाव जन मानस के ऊपर पड़ा। आप लोगों का प्रभाव क्यों नहीं पड़ रहा? इसका अर्थ है जो व्यक्ति विषय कषायों का विमोचन नहीं करता उस व्यक्ति को सत्य का उद्घाटन करने का अधिकार नहीं है और वह कर भी नहीं सकता। किसी ने कहा था निभाँक के साथ-साथ निरीह भी होना चाहिए। मोक्षमार्ग प्रकाशक में पं. टोडरमलजी ने लिखा है कि जिस वक्ता की आजीविका श्रोताओं पर निर्धारित है, वह वक्ता तीन काल में सत्य का उद्घाटन नहीं कर सकेगा वक्ता के भी कुछ विशेषण होते हैं, दानदाताओं के भी कुछ विशेषण होते हैं, मुनि महाराज की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार जिनवाणी की भी आज परीक्षा हो रही है। जो कोई भी व्यक्ति आज स्वाध्याय/प्रवचन यद्वा तद्भवा करते जा रहे हैं और उसके फलस्वरूप अर्थ का अनर्थ भी खूब हो रहा है। कई समस्यायें आज समाज के समक्ष चली आ रही हैं। भाषा का बोध हो, उस विषय संबंधी जानकारी हो, गुरुओं के सान्निध्य में अध्ययन अनुभव प्राप्त किया हो तो बात अलग है। ज्ञानार्णवकार ने एक स्थान पर लिखा है न हि भवति निर्विगोपक्रमनुपासितगुरुकुलस्य विज्ञानम्। प्रकटितपश्चिमभाग पश्यन्त्यं मयूरस्य। ज्ञानार्णव सर्ग १५, श्लोक ३४ देख लीजिए आज गुरुकुल की पद्धति समाप्त हो गई, स्वाध्याय का भी कोई क्रम नहीं रहा। दो दिन ही पढ़ा नहीं और वह लेख लिखना प्रारम्भ कर देता है। यह सब गलत है। स्वाध्याय अपने आप नहीं हो सकता। मयूर का नृत्य बहुत अच्छा लगता है लेकिन वह श्रृंगार रस के साथ-साथ वीभत्स रस को भी प्रदर्शित कर देता है। यह नहीं होना चाहिए। वीरसेन स्वामी ने एक स्थान पर लिखा है कि सम्यग्दर्शन की उत्पति के लिए उपदेश देना या श्रवण करना आवश्यक होता है। नरकों में भी सम्यग्दर्शन होता है और वहाँ भी देव आकर सम्यग्दृष्टि बनाते हैं। हाँ.बिल्कुल ठीक है। तीसरे नरक तक जाकर उपदेश देते हैं, फिर इसके उपरांत क्यों नहीं देते? इसके उपरान्त देव नहीं जाते तो नहीं सही लेकिन सातों पृथ्वियों में सम्यग्दृष्टि जीव पहले से ही भरे हुए हैं, वे सब मिलकर जो मिथ्यादृष्टि नारकी हैं उन्हें सम्यग्दृष्टि बना देते? तत्थतणसम्माइट्टि धम्मसवणादो पढमसम्मत्तस्सा उण्पत्ति किण्ण होदि त्ति वुत्ते, ण होदि, तेसि भवसंबंधेण पुत्ववैरसंबंधेण वा परोप्पर विरुद्धाण अणुगेज्झणुग्गाहयभावाणमसं-भवादो। वहाँ के सम्यग्दृष्टि नारकी मिथ्यादृष्टि नारकीयों को सम्यग्दर्शन उपलब्ध क्यों नहीं करा सकते? इसमें क्या कारण है? पूर्ववैरसम्बन्धात् पूर्व वैर का संबंध होने से सर्वप्रथम नारकी यही सोचेगा कि यह जो नवागन्तुक नारकी है, कहाँ से आया है? इस प्रकार सोचने के उपरान्त वह उससे लड़ना प्रारम्भ कर देगा। पूर्व वैर होने के कारण उसका उपदेश वहाँ पर कुछ काम नहीं करेगा। पूर्व वैर होने के कारण आपके वचनों से उसका क्रोध और भड़क उठेगा। "परस्पर अनुग्राह्म अनुग्राहक भावाभावात" आपस में नारकियों में अनुग्राह्य और अनुग्राहकभाव तीनकाल में नहीं बन सकता, क्योंकि वहाँ अनुकम्पा/दया का अभाव है। दया कब आ सकती है? जब सत्य धर्म का अनुपालन हो। हम स्वयं संयम का अनुपालन करें तब कहीं दूसरे के ऊपर हमारा प्रभाव पड़ सकता है। यदि आपका पुत्र स्मोकिग () कर रहा है, और आप उसे रोकना चाहते हैं, तो सर्वप्रथम आपको यह देखना होगा कि मेरे पास तो यह दुर्गुण नहीं है। तब आप उसे कहेंगे तो वह मान जाएगा। सत्य का केवल व्याख्यान करने मात्र से समाज का कल्याण तीनकाल में संभव नहीं है, किन्तु! सत्य पर चलने से ही होगा। ज्ञानार्णवकार आचार्य शुभचन्द्र जी कहते हैं "अपृष्टैरपिवक्तव्यं" बिना पूछे कहना आवश्यक है। यदि सत्य का लोप हो रहा हो, क्रियाओं में कमी आ रही हो तो बिना पूछे ही सत्य/तथ्य को रखना चाहिए। आज जो साहित्य हमारी समाज के सामने आ रहा है वह देखकर लगता है कि इनके माध्यम से यह समाज किस ओर जाएगी? ‘ जैनधर्म में भगवान की मूर्ति का अभिषेक करना कोई आवश्यक नहीं है", इस प्रकार की पुस्तकें आज लिखी जा रही हैं और उनमें कई मूर्धन्य विद्वानों की सम्मतियाँ भी छपी हुई हैं। आप आज की नई पीढ़ी को धर्म की ओर आकृष्ट भी करना चाहें तो कैसे करें? इस प्रकार का साहित्य उन्हें भ्रम में डाल देता है। आज के स्वाध्याय का यही प्रतिफल है। सत्य को जानते हुए भी लोभ, भीरुता और विषयों के वशीभूत होकर स्वाध्यायप्रेमी उसे उद्घाटित नहीं कर पाते। जिनेन्द्र भगवान सच्चे देव-शास्त्रगुरु यह व्यवहार से हैं, ये हमारे लिए कार्यकारी नहीं हैं। यह आज के विद्वानों के मुख से सुनने मिल रहा है कि ‘पूजन/अभिषेक/दान/उपवास/शीलाचार इत्यादि क्रियायें मात्र पुण्य बंध के लिए कारण हैं, उनसे निर्जरा नहीं होती'। क्या यह सत्य है? यदि सत्य नहीं है तो क्या असत्य है? यह असत्य है तो इसके माध्यम से जिनवाणी विकृत नहीं होगी। जो सत्य पथ पर चल रहे हैं वे उससे भ्रमित नहीं होंगे क्या? अवश्य होंगे। आज यह कोई नहीं कहता कि भक्ति करना कितना आवश्यक है। मैं यह बात एक बार नहीं बार-बार कहूँगा कि स्वाध्याय को मात्र धनोपार्जन का साधन न बनायें और जो अच्छे विद्वान् हैं, उन्हें वेतन नहीं देना चाहिए, उनको पुरस्कृत करके, उनके माध्यम से, अपने ज्ञानादि को विकसित करना चाहिए। हमने उन विद्वानों को एक हजार, दो हजार रुपया मासिक वेतन दे दिया, यह कोई उनका मूल्य नहीं है। हजारों व्यक्ति जिसका वाचन करते/सुनते हैं, स्वाध्याय करते हैं। मात्र इतने में ही उसका काम हो जाएगा? नहीं वह अनमोल निधि है। आज ऐसे भी ग्रन्थ देखने को मिलते हैं जिनमें लिखा रहता है 'सर्वाधिकार सुरक्षित'। अब आचार्य वीरसेन आचार्य गुणभद्र के धवला, जयधवला, महाधवला, आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार आदि और उमास्वामी महाराज का तत्त्वार्थसूत्र आदि जितने भी ग्रन्थ हैं वे सब सर्वाधिकार सुरक्षित हैं। यह कर्तृत्व बुद्धि का महान् मोह है, यह स्वामित्व का व्यामोह है। जब एक वस्तु का अधिकार दूसरी वस्तु पर नहीं रहता है, तो हम उनकी कृतियों पर अधिकार कैसे कर सकते हैं। दूसरा व्यक्ति यदि प्रकाशित करना चाहें तो वह कर नहीं सकता यह बात तो बिल्कुल गलत है ही। उस ग्रन्थ का सम्पादन/संशोधन कोई दूसरा व्यक्ति न करे यह तो फिर भी ठीक है लेकिन अधिकार वाली बात तो होना ही नहीं चाहिए। जब बड़े-बड़े आचार्यों ने उसके ऊपर अधिकार नहीं चलाया तो आप 'सर्वाधिकार सुरक्षित' लिखने वाले कौन होते हैं? कुन्दकुन्द देव ने अनेक बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे उनमें कहीं भी अपने नाम तक का उल्लेख नहीं किया। दान का महत्व वर्तमान में कम होता जा रहा है। पहले किसी दाता ने दान दिया तो उसका उपयोग दूसरी बार नहीं होता था। दूसरी बार के लिए कोई अन्य दाता दान देता था और आजकल ट्रस्ट पर ट्रस्ट खुलते चले जा रहे हैं और दाताओं का पैसा न्याय और न्यायालयों में जा रहा हा। कुण्डलपुर में जब हमारा चातुर्मास चल रहा था। उस समय वर्णी ग्रन्थमाला के बारे में झगड़ा चल रहा था। मैंने कहा कि वणजी तो क्षुल्लकजी थे, उनको इससे कोई मतलब नहीं था। लेकिन उनके माध्यम से आज झगड़ा क्यों हो रहा है? तो जहाँ पर पैसा रहेगा वहाँ पर झगड़ा नियम से होगा तो स्वाध्याय कहाँ हुआ? दक्षिण में बहुत अच्छी प्रथा है किसी मंदिर में पैसा नहीं मिलेगा। इसका क्या मतलब है? मतलब यह है कि वे आवश्यक कार्य कर लेते हैं, इसके उपरान्त समाप्त। मंदिरों के पीछे कोई धन सम्पत्ति की बात नहीं होना चाहिए। निस्परिग्रही भगवान् बैठे हैं। उस मंदिर के पीछे इतना वेतन, इतना किराया, इसी में झगड़ा होने लगता है। एक-एक मंदिर के पीछे आज लाखों का किराया आता है। भैया! यह सब किसके माध्यम से होता है? मंदिर के माध्यम से। फिर ट्रस्टी/मंत्री/अध्यक्ष/ कोषाध्यक्ष आदि बनते हैं। इसलिए आचार्यों को लिखना पड़ा कि जो धर्म का खाता है वह सीधा नरक जाता है। जो दान का दिया हुआ द्रव्य है उसके प्रति तो निस्पृहवृत्ति होना चाहिए। दान में दिया हुआ धन अपने उपयोग में नहीं लेना चाहिए। किन्तु आज बहुत सी इस प्रकार की बातें जैन समाज में भी आ चुकी हैं। यह महान् रूढ़िवाद है, यह कोई छोटी-मोटी रूढ़ि नहीं है, इसको पहले निकालना चाहिए। आज संस्थाओं को लेकर जितने झगड़े हो रहे हैं, उतने इतिहास में कभी नहीं मिलते। आज विद्यालयों, संस्थाओं, ग्रन्थालयों सबमें झगड़ा चल रहा है। और कुछ नहीं वहाँ केवल कुसीं रहती है, डेकोरेशन रहता है और विद्यार्थियों की संख्या केवल ५-६ है। मास्टरों की संख्या कितनी है? यह सुनकर आपको हँसी आएगी। ५-६ विद्यार्थी और १० मास्टर। यूनिवर्सिटी में जैनधर्म के विषय रखे जा रहे हैं। वहाँ जैनधर्म पढ़ाया जाएगा, बहुत अच्छी बात है लेकिन जैनधर्म पढ़ने वाले विद्यार्थी हैं या नहीं? यह पहले देखना अनिवार्य है। मूल कार्य जो आवश्यक था, वह तो नहीं होता और संस्थायें खुलती चली जा रहीं हैं। सत्य का प्रदर्शन आचरण से होता है मात्र बातों से नहीं। सत्य को उद्घाटित करने वाला कौन होता है ? असत्य का उद्घघाटन करने वाला कौन होता है? बस! एक उदाहरण देकर मैं समाप्त कर रहा हूँ। एक विद्वान् का पुत्र, उच्च शिक्षा प्राप्त करने कहीं गया था। इसके पिता किसी मंदिर में प्रवचन/पूजन आदि करते थे। एक दिन आवश्यक कार्य के आने वे से बाहर चले गए और उनका जो लड़का था, उससे कह गए कि ४-५ दिन के लिए मैं बाहर जा रहा हूँ। और जब तक मैं वापिस न आऊँ तब तक तुम प्रवचन आदि करते रहना। कोई बुलाने आए तभी जाना, अपने आप नहीं जाना। गाँव में लोग कहने लगे पंडित जी चले गए कोई बात नहीं, उनका लड़का भी बहुत होशियार है अभी-अभी पढ़कर आया है। यह विचार कर कुछ लोग उसके पास गए और उससे कहने लगे, कोई बात नहीं, आपके पिताजी तो बाहर गए हैं और आपको आज नहीं तो कल यह कार्य करना ही है। आप ही प्रवचन करने चलिए। इस प्रकार लोगों की अनुनय/विनय देख वे प्रवचन करने चल दिए। शास्त्र में जहाँ से पढ़ना था, वहाँ से पढ़ना शुरू कर दिया, चार-पाँच पंक्तियाँ पढ़ने के उपरांत कहा कि देखो कण भर जो मांस खाता है वह सीधा नरक चला जाता है। सभा में हलचल मच गई। सब लोगों ने कहा-ये क्या पढ़ रहे हो? उसने पुनः दुहराया कण भर जो मांस खाता है। वह इतना कह ही नहीं पाता कि लोगों ने कहा कि गलत पढ़ रहे हो। उसने कहा गलत नहीं बिल्कुल सही पढ़ रहा हूँ, कण भर जो मांस खाता है वह सीधा नरक जाता है। तुम यहाँ से चले जाओ, तुम्हारा यहाँ कोई कार्य नहीं, तुम्हारे पिताजी को आने दो तभी दण्ड मिलेगा-समाज के प्रमुख व्यक्ति ने कहा और सबने उसे निकाल दिया। पिताजी के आते ही सब लोग उनके ऊपर टूट पड़े। तुमने कैसे लड़के को तैयार किया। आपका लड़का था इसलिए हमने कुछ नहीं कहा, इतना पढ़कर आया फिर शास्त्र की छोटी सी बात नहीं समझा पाया। आपके संकोच से हमने कुछ नहीं कहा, नहीं तो सीधा जेल भेज देते। आज से आप ही शास्त्र बाँचिये, वे आगे का प्रसंग पढ़ते हैं कि कणभर जो मांस खाता है वह सीधा नरक जाता है। पं. जी क्या बात हो गई, आज आप चश्मा बदलकर आये हैं क्या? नहीं नहीं यह ठीक लिखा है लेकिन! इसका अर्थ क्या है? जो कण भर भी मांस खाता है कि वह नरक चला जाता है, किन्तु! जो मनभर खाता है वह स्वर्ग जाता है। आज इस प्रकार अर्थ का अनर्थ किया जा रहा है, इस प्रकार की व्याख्या सुनकर समन्तभद्र स्वामी की वह कारिका मेरे सामने तैरकर आ जाती है कालः कलिर्वा कलुषाशयो वा श्रोतुः प्रवक्तुर्वचनाशयो वा । त्वच्छासनैकाधिपतित्त्वलक्ष्मी– प्रभुत्वशतेरपवादहेतुः॥ (युक्त्यानुशासन) समन्तभद्र स्वामी ने बिल्कुल सही लिखा है कि है भगवन्! आपका अद्वितीय धर्म है। इसकी शरण में आने वाला आज तक ऐसा कोई भी नहीं है, जिसका उद्धार न हुआ हो। लेकिन! बात ऐसी है अपवाद किसका हुआ है? अपवाद उसे बात का है कि कलि काल का एक मात्र अपराध है जो महान् कलुष आशय वाला है। धर्म को भी जो अपने अनुरूप चलाना चाहता है। हंस की उपमा श्रोता को दी है। इस प्रकार की कलुषता होने के कारण ही वक्ता अर्थ बदलता है जिस वक्ता में धन कञ्चन की अास और पाद-पूजन की प्यास जीवित है, वह जनता का जमघट देख अवसरवादी बनता है आगम के भाल पर घूंघट लाता है कथन का ढंग बदल देता है जैसे झट से अपना रंग बदल लेता है गिरगिट । (तीता क्यों रोता से) जिस वक्ता में धन, कचन, ऐश्वर्य, ख्याति, पूजा, लाभ की चाह लिप्सा रहती है वह आगम के यथार्थ अर्थ को परिवर्तित कर देता है। जिस प्रकार मौसम से प्रभावित होकर के गिरगिट अपना रंग बदलता रहता है। उसी प्रकार आजकल के वक्ता भी (असंयमी व्यक्ति) माहौल को देखकर आगम के अर्थ को बदलते रहते हैं। वह व्यक्ति तीनकाल में सत्य का उद्घाटन नहीं कर सकता है। वह जल्दी-जल्दी आगम के अर्थ को पलट देता है। इस प्रकार की वृत्ति देखकर मन ही मन जिनवाणी रोती रहती है। मेरे ऊपर तुमने घूंघट लाया है, मैं घूंघट में जीने वाली नहीं हूँ। मैं तो जनजन तक पहुँचकर अपना संदेश देने वाली हूँ। लेकिन! आजकल कुछ पंक्तियां तो अण्डर लाइन की जाती हैं, और कुछ पंक्तियां अण्डर ग्राउन्ड की जाती हैं। यह क्या सत्य है? यह क्या सत्य का प्रदर्शन है? नहीं, यह इसलिए हो रहा है कि आज परमार्थ के स्थान पर अर्थ ने अपनी सत्ता जमा ली है। लोगों में राजनीति, अर्थनीति आ गई है, धर्मनीति के लिए स्थान नहीं बचा। नौजवानो! उठो!! जागो !!! यदि अपना हित चाहते हो, अपनी संस्कृति को जीवित रखना चाहते हो, अपने बाप दादाओं के आदशों को सुरक्षित रखना चाहते हो तो अर्थ के लोभ में आकर कोई कार्य नहीं करना यहाँ पर लोभ का सकलीकरण है, यहाँ पर त्याग का अंगीकरण है। यहाँ पर केवल आत्मबल की चर्चा है, परमार्थ की चर्चा है, अर्थ की चर्चा यहाँ पर नहीं है। आप लोग कहते हैं अर्थ तो हाथ का मैल है यूँ-यूँ करने से वह निकल जाता है (हाथ मलते हुए) पुण्य की वह छाया है। पुण्य का उदय हुआ तो वह आ जाता है और पाप का उदय हुआ तो वह चला जाता है। आप धार्मिक अनुष्ठान कीजिए। लेकिन पुण्य ही हमारे जीवन का लक्ष्य नहीं है। हमें पुण्य पाप से अतीत होकर उस सत्य को प्राप्त करना है जिसे प्राप्त करने के लिए महापुरुष अहर्निश प्रयास करते रहते हैं। उस सत्य की झलक पाने के लिए वे अपनी आँखें बिल्कुल खोल के रखते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द देव प्रवचनसार में कहते हैं आगमचक्खू होति साहूणं आगम ही साधु की आँख है। साधुओं की आँख न तो धन-दौलत है और न ही ख्याति/ पूजा/लाभ। मंजिल तक पहुँचाने वाली आगम की आँख ही है, उस आँख को बहुत अच्छे ढंग से सम्भालकर रखना चाहिए। उस दृष्टि में जब विकार या पक्षपात आ जाएगा तो जिनवाणी उस समय पिट जाएगी, जिनवाणी का मूल्यांकन समाप्त हो जाएगा। बंधुओ! यह वो रत्न है जिसको हम कहाँ रख सकते हैं? देखो! समन्तभद्र स्वामी ने जो कि महान् दार्शनिक थे, अध्यात्मवेत्ता थे, उन्होंने रत्नकण्डक श्रावकाचार के अंत में लिखा है येन स्वयं वीतकलङ्क-विद्या-दृष्टि-क्रिया-रत्नकरण्डभावं। नीतस्तमायाति पतीच्छयेव, सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु विष्टपेषु ॥१४९॥ यह कारिका कितनी अच्छी लगती है। रत्न कहाँ पर रखते हैं? ट्रेजरी में ही रखते हैं न, हाँ.हाँ...। तो उसमें बहुत से खाने होते हैं, उसके अन्दर एक ऐसी डिब्बी होती है, जिस डिब्बी को देखकर मुँह में पानी आ जाता है। उसके उपरांत उस डिब्बी के भीतर एक और डिबिया रहती है। उसकी बनावट ही अलग प्रकार की रहती है और उसके भीतर मखमल बिछा हुआ रहता है। लाल या हरा। उस हीरे के विपरीत रंग वाला ही होता है वह मखमल का कपड़ा और उस मखमल पर चमकता हुआ वह रत्न, हीरे का नग रहता है। यह हुई रत्नों की बात। लेकिन श्रावकाचार किसमें रखा गया है? रत्नकरण्डक में। एक बात और ध्यान देने योग्य है कि रत्नकरण्डक का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ लेकिन रत्नकरण्डक इस शब्द का अनुवाद नहीं हुआ। क्या मतलब? मतलब यह है कि हिन्दी में इसका अर्थ यह है ‘रयण मज्जूषा' रयण का अर्थ है रत्न मन्दता यानि पेटी/सन्दूकची। रत्न जैसे सन्दूकची में रखे रहते हैं उसी प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्रचारित्र रूपी तीन रत्नों को उन्होंने 'रत्नकरण्डक' में रखा है। आचार्य कहते हैं- ये बड़ी अनमोल निधि है जो कि बड़ी दुर्लभता से प्राप्त हुई है। छहढालाकार ने छहढाला की चतुर्थ ढाल में कहा है कि- इह विधि गये न मिले सुमणि ज्यों उदधि-समानी। जिस प्रकार समुद्र में मणि गिर गई तो पुन: मिलने वाली नहीं है, ऐसे ही मनुष्य जीवन की कीमत है। इने-गिने लोग ही इस श्रावकाचार को अपनाते हैं। तीन कम नौ करोड़ ही मुनिराज हैं जो मूलाचार के अनुसार चलने वाले हैं और श्रावकों की संख्या तो असंख्यात है लेकिन मनुष्यों में नहीं। अब सोचिये बहुत कम संख्या है। अनंतानंत जीवों में श्रावक बनने का सौभाग्य कुछ ही जीवों को होता है जो कि आप लोगों को उपलब्ध है। ऐसे श्रावकाचार को अपनाओ। दृश्यमान पदार्थों की कोई कीमत नहीं है। तो हमें दृश्यमान पदार्थों की कीमत नहीं करना, दृष्टा की कीमत करना है। आज हम दृश्य के ऊपर, ज्ञेय के ऊपर लेबिल लगाते जा रहे हैं। यह अध्यात्म नहीं है, यह सिद्धान्त नहीं है, यह सिद्धान्त का सही-सही उपयोग नहीं है। केवल हम ज्ञाता-दूष्टा उस आत्म-तत्व की चर्चा उसका मूल्यांकन करते हैं, इसका मूल्यांकन क्या करें? जो स्वाध्याय करके असंख्यातगुणी निर्जरा कर रहा है। स्व और पर के लिए एकस्थान पर चर्चा आई है कि जो व्यक्ति आचरण करने वाला है वह सब कुछ कर रहा है, हमारे लिए धरोहर के रूप में क्योंकि वह चलकर दिखा रहा है। इसका बड़ा महत्व है। मात्र श्रावक पंडित जी (पं० पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर) सप्तम प्रतिमाधारी श्रावक हैं और आप लोग कहते हैं कि पं० इसी रूप में रहे और कोई नया ग्रन्थ लिखें । मैं तो कहता हूँकि पंडित जी को इधर-उधर के काम छोड़ देना चाहिए। बिल्कुल पन्नालाल के आगे सागर लगना चाहिए ‘पन्नालाल सागरजी' और ग्रन्थ को लिखकर समय का सदुपयोग कर आत्म कल्याण कर लेना चाहिए। इसके द्वारा पंडित जी समय ज्यादा मिलेगा और आपके लिए एक पंथ दो काज, दो ही नहीं दो सौ काज हो जाऐंगे। क्या कमी है? और बहुत काम होंगे, बहुत से लोग आकर्षित होंगे क्योंकि वणी जी की परम्परा को आप निभाना चाहते हैं। वर्णी जी टोपी में नहीं थे, धोती/कमीज में नहीं थे। हमने कुण्डलपुर में आपको यही कहा था। आपने कहा था सम्यग्दर्शन की चर्चा हमने लिख दी है, आगे लिखने का कोई विचार नहीं है। तो हमने कहा नहीं पण्डित जी आगे और लिखना पर चारित्र के बारे में आप क्या लिखेंगे? हालांकि! पंडित जी का विकास अन्य विद्वानों की अपेक्षा चारित्र के क्षेत्र में बहुत हुआ है और आज समाज के लिए यह सौभाग्य की बात है। लेकिन! पंडित जी को मात्र सागर में ही रहने के कारण गड़बड़ हो जाता है। जहाँ पर रत्न, हीरा आदि निकलते हैं, वहीं पर उन्हें नहीं रखना चाहिए, उनको तो जौहरी बाजार में भेजना चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति उनको देखे और सही-सही मूल्यांकन करें और सागर वालों को मान मिलेगा ऐसी बात नहीं। सागर ने कई रत्न दिए हैं, उनमें एक रत्न पंडित जी भी हैं। सागर वालों को कृतकृत्य मान लेना चाहिये कि पंडित जी इस बात को अपना रहे हैं। आपके लिए यह बात बिल्कुल नहीं सोचना है कि आगे बढ़कर हम क्या करेंगे। आपका नियम से शरीर साथ देगा और वातावरण भी साथ देगा और समाज तो साथ है ही। ज्यों ही वणी जी सप्तम प्रतिमा की ओर बढ़े त्यों ही समाज की दृष्टि उनकी ओर चली गई, जब उन्होंने सवारी का त्याग किया तब तहलका मच गया, सवारी में अब वणी जी नहीं बैठेगे तो क्या करेंगे? हम तो उन्हें पालकी में ले जाएंगे। ऐसे लोग आने लगे। यह त्याग का परिणाम है। अंत में जब तक घट में प्राण रहे तब तक वे सवारी में नहीं बैठे और क्षुल्लकजी बनकर उन्होंने जो कुछ किया वह सराहनीय है। समन्तभद्रस्वामी ने यह ग्रन्थ बनाया है और उसका अनुकरण करना हमारा परम कर्तव्य है। पूर्वाचार्यों के ऊपर यदि हमारा उपकार होता है तो मात्र उसके अनुसार चलने से ही होता है, केवल कागजी घोड़े दौड़ाने से नहीं। बात ऐसी है कि जब सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान है तो ऐसी स्थिति में चारित्र की कोई बात ही नहीं उठती, वह तो अपने आप ही हो जाता है। सन्निपात का लक्षण उथलपुथल ही रहता है। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान हो और वह चारित्र की ओर न बढ़े यह तीन काल में सम्भव ही नहीं। शक्ति बहुत आ जाती है सन्निपात के समय, उसी प्रकार भीतर सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञान होने से और देशचारित्र अंगीकार करने के उपरांत, मुनि कब बनूँ इस प्रकार मन में लगा रहता है। भीतर की बात कह रहा हूँ। अब हम और आगे बढ़े लेकिन हमारा मार्ग अवरुद्ध हो चुका है। सप्तम गुणस्थान से ऊपर चढ़ नहीं सकते। ऐसी सीमा खींच दी अब हम क्या करें? हम और आगे बढ़ना चाहते हैं। कहाँ गए महावीर स्वामी? कहाँ गए वे महाश्रमण? जिनके पास जाकर हम अपनी बात कहें। आप लोगों को मात्र ज्ञान से ही मतलब नहीं रखना चाहिए। हमारी कितनी रुचि हो गई है हेय के प्रति और उपादेय के प्रति हमारी घृणा बढ़ती चली जा रही है और कितना उत्साह हमारे भीतर जागृत होना और अपेक्षित है। क्षेत्र के अनुसार सारी बातें ध्यान रखना चाहिए। इसलिए सत्य वह है जैसा वह कहता है कि इसमें लिखा है, कण मात्र खाने वाला नरक जाता है और मन भर खाने वाला स्वर्ग जाता है। इस प्रकार की वृत्ति इस प्रकार का वक्तव्य अपने को नहीं करना है। चन्द दिनों के इस जीवन को चलाने के लिए इस प्रकार अर्थ हमें नहीं निकालना है। सत्य का जयघोष कोई सुने या नहीं सुने किन्तु सत्य का अनुकरण करते चले जाओ। सूर्य आगे-आगे बढ़ता चला जाता है और नीचे प्रकाश मिलता चला जाता है, इससे कोई मतलब नहीं। कोई अपनी खिड़की या कुटिया बन्द करके सो जाता है। उसके लिए सूर्य कुछ कहता नहीं है कि तुम खिड़की खोलो। इसी प्रकार तीर्थ का संचालन करने वाले भी ऐसे ही चले गए। उनके पीछे-पीछे, जो हो गये वो भी उनके साथ चले गये। और रुकने वाले हम जैसे यहीं पर हैं। यह मात्र सत्य की बात है, उसको अपनाने के लिए कोई आता है तो ठीक, नहीं आता तो भी ठीक है। हमें सदा सत्य की छाँव में ही रहना है, सत्य वह है जो अजर/ अमर/अविनाशी है। सत्य ही जीवन है, असत्य डर है, मौत है और उसमें आकुलताएँ भी अधिक हैं। जिस शाश्वत सत्य के अभाव में आज सारी दुनियाँ विकल त्रस्त है उस सत्य की प्राप्ति करके उस सत्य की शीतल छाँव में बैठकर ही महावीर ने कैवल्य ज्योति प्रकट की थी, उसी सत्य की छाँव में बैठकर गाँधीजी ने भारत को परतन्त्रता रूपी जंजीरों से मुक्त किया था। उस सत्य को हमें जीवन में अपनाना है उस सत्य की छाँव को हमें कभी नहीं छोड़ना है चाहे हमारा सर्वस्व लुट जाए हमें कोई चिन्ता नहीं है पर सत्य की छाँव, सत्य का आलम्बन ना छूटे। सत्य रूपी वरदान को आप छोड़िए मत और इस असत्य के ऊपर अपने जीवन का बलिदान करिये मत। सत्य के सामने अपना जीवन अर्पण हो जाये, तो वह मात्र अर्पण ही नहीं, एक दिन दर्पण बन जायेगा। आज तक संसारी प्राणी की दशा यही हुई है। अन्त में यही कहूँगा कि जो श्लोक पहले कहा गया है अवाक् विसर्गः वपुषैव मोक्षः मार्गप्रशस्तं विनयेव नित्यं । ध्यानप्रधाना समतानिधाना अाचार्यवर्यं सततं जयन्ति॥ आचार्य महोदय सतत् जयवंत रहें अर्थात् इस कामना के साथ अपने उन आचार्य को नमस्कार किया। केवल मोक्षमार्ग की प्ररूपणा शरीर के द्वारा इस दिगम्बर मुद्रा के द्वारा ही की है। बोलने के द्वारा मोक्षमार्ग का प्ररूपण नहीं होता, बिना बोले ही उस स्वर्ण या अनमोल हीरे की कीमत हो जाती है। बोलने से उसकी कीमत सही नहीं मानी जाती। यह हीरा ऐसा है जिसकी कीमत आज तक सही-सही नहीं लगाई गई क्योंकि उसको जो खरीदने वाला व्यक्ति मुँह माँगा दाम देकर खरीदता है। जब खान में से वह निकलता है तब उसकी कीमत हजार रुपये भी नहीं होती और बाजार में जाते ही उसकी कीमत लाखों की हो जाती है। बेचने वाला और खरीदने वाला दोनों मालामाल हो जाते हैं। इस पवित्र जिनवाणी की बात है। इसकी छाया में जो कोई भी आया उसका जीवन निहाल हो गया। हम भी यही चाहते हैं कि उस सत्य की छाँव में आकर के हमारा जीवन जो अनादिकाल से अतृप्त है उसे तृप्त करें, सुखमय बनायें। ॥ महावीर भगवान की जय॥
  25. दशलक्षण विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार दशलक्षण धर्म उस मानसरोवर में रहते हैं, जहाँ कषाय रूपी मगरमच्छ नहीं रहते, इसलिए अपने मन रूपी सरोवर को कषाय रूपी मगरमच्छ से रहित नि:शंक बनाओ तभी धर्म को प्राप्त कर पाओगे। दशलक्षण धर्म को अपने जीवन में धारण करने के बाद पूरा जीवन पर्वमय हो जाता है।
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