पंच-कल्याणक की प्रत्येक क्रिया का विश्लेषण करना तो विद्वानों और गणधर परमेष्ठी के लिए भी शक्य नहीं पर फिर भी 'क्या छोड़ना है और क्या ग्रहण करना है'- यह ज्ञान यदि हमें इन पाँच दिनों के अन्दर हो जाता है तो यह हमारा सौभाग्य होगा। धर्म की अधिकांश बातें सूक्ष्म हैं और परोक्ष हैं। हमारे इन्द्रिय-ज्ञान-गम्य नहीं हैं। फिर भी पूर्वाचार्यों ने उन सभी बातों को कहने और लिपिबद्ध करके हमें समझाने का प्रयास किया है। उसे साहित्य के माध्यम से हमें समझने का प्रयास करना चाहिए। साथ ही इन शुभ-क्रियाओं को देखकर अपने जीवन को सँभालने का प्रयास करना चाहिए।
कल जहाँ संध्या के समय हम सामायिक करने वाले थे वहाँ कुछ लोग आये और कहने लगे- महाराज! कल जन्म-कल्याणक महोत्सव है। आप भी जुलूस के साथ पाण्डुक शिला तक चलें और कार्यक्रम में सम्मिलित होवें तो अच्छा रहेगा। हम सभी को बड़ा आनन्द आयेगा। तो हमने कहा- भैया! हमारा कार्य तो दीक्षा कल्याणक के दिन से ही शुरू होगा। अभी तो आपका कार्य है, आप जाओ और मैं नहीं आया। यद्यपि मेरे पास समय था, मैं आ सकता था, लेकिन नहीं आने के पीछे कुछ रहस्य भी था, जिसके माध्यम से कुछ बातें आपको समझनी हैं।
यह मैं भी जानता हूँ कि जन्म-कल्याणक में सौधर्म इन्द्र आता है। अपने हाथों से बालक आदिनाथ को उठाने का सौभाग्य पाता है और जीवन को कृतकृत्य मानता है। इन्द्राणी-शची भी इस सौभाग्य को पाकर आनन्द-विभोर हो जाती है और अपने सांसारिक जीवन को मात्र एक भव तक सीमित कर देती है। इस अवसर को प्राप्त करके वह नियम से एक भव के पश्चात् मुक्ति को पा लेती है। इतना सौभाग्यशाली दिन है यह। फिर भी हमारे नहीं आने के पीछे रहस्य यह था। बंधुओ! हमारा धर्म वीतराग-धर्म है। जन्म से कोई भी भगवान् नहीं होता। जिनकी धारणा हो कि भगवान जन्म लेते हैं तो वह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर तो गृहस्थाश्रम में ही मुक्ति माननी होगी और राग के बाद केवलज्ञान मानना होगा जो कि संभव नहीं है। जन्म-कल्याणक और जन्माभिषेक तो राग-दशा में होते हैं। इसमें आप सम्मिलित हों यह तो आपका कर्तव्य है। क्योंकि सरागी श्रावक के लिए तो इसी में धर्म है। श्रावक की धार्मिक क्रियाओं में पूजा-प्रक्षाल-अभिषेक आदि शामिल है। अशुभ राग से छूटने तथा वीतरागता को प्राप्त करने के लिए शुभ राग का आलम्बन आवश्यक है। आपको शुभ राग के कार्यों में जितना आनन्द आता है उतना ही हमें वीतरागता में आता है। हमारी दशा अर्थात् साधु की स्थिति आपसे भिन्न है। जैसा अभी-अभी पंडितजी ने भी कहा था (पं. कैलाशचन्दजी सिद्धान्ताचार्य)। इसलिए हमारा उस अवसर पर आना सम्भव नहीं हुआ।
आपने जन्म-कल्याणक का आनन्द लिया जो आपके लिये उचित ही है लेकिन सही पूछो तो असली आनन्द का दिन कल आने वाला है। जब कुमार आदिनाथ का दीक्षा-कल्याणक होगा। वे सारे परिग्रह को छोड़कर निग्रन्थ-दिगम्बर होकर तपस्या के लिये निकलेंगे। आपके चेहरे फीके पड़ सकते हैं क्योंकि कल से छोड़ने-त्यागने की बात आयेगी। पर बंधुओ! ध्यान रखना, आनंद तो त्याग में ही है। आप कह सकते हैं कि महाराज! कल तो छोड़ना ही है इसलिए क्यों ना हम आज ही आदिनाथ को भगवान् मान लें ? पूज्य मान लें ? तो यह ध्यान रखना कि होनहार भगवान् और साक्षात् भगवान में बहुत अन्तर है। पूज्यता तो भगवान् बनने पर ही आती हैं। पंच-परमेष्ठी ही वीतराग-धर्म में पूज्य माने गये हैं। क्योंकि वे वीतरागी हो गए हैं।
जन्म कल्याणक के समय क्षायिक सम्यकदर्ष्टि सौधर्म इन्द्र और करोड़ों की संख्या में देव लोग आते हैं। पांडुक-शिला पर बालक-तीर्थकर को ले जाकर जन्म-कल्याणक मनाते हैं। अभिषेक, पूजन और नृत्य-गानादि करते हैं। रत्नों की वृष्टि होती है। जिसने आज जन्म लिया, यह जन्म लेने वाली आत्मा भी सम्यकदर्ष्टि है। उसके पास मति, श्रुत और अवधिज्ञान भी है। हमारे यहाँ जिनेन्द्र भगवान् के शासन में पूज्यता मात्र सम्यकदर्शन से नहीं आती, पूज्यता तो वीतरागता से आती है। सम्यकदर्शन के साथ जन्म हो सकता है परन्तु वीतरागता जन्म से नहीं आ सकती। इसलिए जन्म से कोई भगवान् नहीं होता। जब आपका बच्चा बोलना शुरू करता है तब तोतला बोलता है। इधरउधर की कई बातें भी करता है। आपको अच्छी भले ही लगती हों लेकिन वे प्रामाणिक नहीं मानी जाती क्योंकि वह अभी बच्चा है। मनुष्यायु का उदय होने पर भी बच्चे को कोई मनुष्य नहीं कहता। यह कोई नहीं कहता कि मनुष्य जन्मा है, सभी यही कहते हैं कि बच्चा जन्मा है। इसी प्रकार जो आज जन्मे हैं वे अभी भगवान् नहीं हैं, अभी तो वे बालक आदिनाथ ही कहलायेंगे। बच्चे ही माने जायेंगे।
दूसरी बात यह भी है कि 'आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी' ने उन मुनियों को भी प्रमत्त कहा है, नासमझ कहा है जो स्वात्मानुभूति से च्युत होकर शुभ-क्रियाओं में लगे हुए हैं। तब ऐसी दशा में अभी जिस आत्मा ने जन्म लिया है, जो वस्त्र-आभूषण पहने हुए हैं उसे वीतरागी मानकर, भगवान् मानकर कोई मुनि कैसे पूज सकता है? मैं अभी उसका सम्मान करूं, स्वागत करूं यह नहीं हो सकता। अभी वह आत्मा तीर्थकर नहीं बनी। जिस दिन वह आत्मा राग के ऊपर रोक लगायेगी अर्थात् संयम को ग्रहण करेगी। उस दिन मैं बार-बार उसे नमोऽस्तु करूंगा और अपने-आपको सौभाग्यशाली समझेंगा क्योंकि वह महान् भव्य आत्मा निग्रन्थ दीक्षा-धारण करते ही अनेक ऋद्धियों को प्राप्त करेगी, मन:पर्यय ज्ञानी होगी, वर्धमान-चारित्र को प्राप्त करेगी और तप के माध्यम से संसार के आवागमन से मुक्त होगी, सिद्धालय में विराजेगी।
आपके मन में यह भाव आ सकता है कि महाराज! जब अभी उस आत्मा के पास पूज्यता नहीं है तो हम जन्म कल्याणक क्यों मनायें? ऐसा नहीं सोचना चाहिए। भइया! यह तो सारा का सारा नियोग है और इंद्र आकर स्वयं इस सारे कार्यक्रम को यथाविधि सम्पन्न करता है। जिसे देखकर हमें ज्ञात होता है कि एक जीवात्मा ने विगत जीवन में कैसा अद्भुत पुरुषार्थ किया, जिसका फल स्वर्गादिक में भोगकर पुन: यहाँ मनुष्य जन्म लेकर सांसारिक सम्पदा और वैभव को भोग रही है। इतना ही नहीं इसके उपरांत मुनिव्रत धारण करके मुक्तिश्री को प्राप्त करेगी। ऐसी भव्य तद्भव मोक्षमार्गी आत्मा की जन्म-जयंती मनाना श्रावक का सौभाग्य है, पर इसका यह आशय नहीं है कि सामान्य व्यक्ति की जन्म-जयंती मनाई जाये। आज तो यहाँ जो भी मनुष्य उत्पन्न होगा चाहे मनुष्य गति से आये, तिर्यऊचगति या नरकगति से आये अथवा चाहे देवगति से आये, वह सम्यकदर्शन लेकर नहीं आ सकेगा। ऐसी दशा में मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के साथ जन्मजयंती मनाना उचित नहीं है। बंधुओ! समझो! यह कौन सी पर्याय है? कब और कैसे हमें मिली है? इसके माध्यम से कोई भी धार्मिक क्रिया बिना विवेक के नहीं करना चाहिए। जो भी धार्मिक क्रियाएँ करो उनको विवेक पूर्वक करो ताकि आवागमन मिट सके। कर्म के बंधन, कर्म की बेड़ियाँ/श्रृंखलाएँ ढीली हो सकें और हमारा भविष्य उज्ज्वल बन सके।
कर्म के बंधन तोड़ना इतना आसान भी नहीं है कि कोई बिना पुरुषार्थ किये ही कर ले। बिना रत्नत्रय को प्राप्त किये यह कार्य आसान नहीं हो सकता । जिसे एक बार रुचि जागृत हो जाये और जो रत्नत्रय की साधना करें उसे ही यह कार्य सहज है, आसान है। जन्म से लेकर जब तक आठ वर्ष नहीं बीत जाते तब तक यहाँ सभी मिथ्यादर्शन के साथ ही रहते हैं। यह पंचमकाल है और उसमें भी हुण्डावसर्पिणी काल है। आठ वर्ष के उपरांत भी सम्यकदर्शन हो ही जाये ऐसा नियम भी नहीं है। दूसरी बात यह है कि सम्यकदर्शन हुआ भी या नहीं हुआ- यह ऐसे मालूम नहीं पड़ सकता क्योंकि जो अस्सी साल के वृद्ध हो गये और अभी रत्नत्रय उपलब्ध नहीं हुआ, जीवन में त्याग नहीं आया तो सम्यकदर्शन का क्या भरोसा ? रत्नत्रय की उपलब्धि ही वास्तविक उपलब्धि है। आप लोग धन के अभाव में दरिद्रता मानते हैं पर वास्तविक दरिद्रता तो वीतरागता के अभाव में होती है। रागद्वेष और विषय कषाय ही दरिद्रता के कारण हैं। गर्भ और जन्म-कल्याणक में देवों के द्वारा होने वाले रत्नों की वर्षा से आपके घर की दरिद्रता भले ही मिट जाती ही लेकिन मोक्षमार्ग में दरिद्रता तभी मिटेगी जब हम त्याग की ओर बढ़ेंगे, वीतरागी होंगे।
आज एक भव्य आत्मा देवगति से शेष पुण्य का फल भोगने के लिये यहाँ आयी है। वह अपने जीवन काल के अन्तराल में केवल भोग में ही रची-पची रहे ऐसी बात नहीं है। वह तो सारे भोग-वैभव को छोड़कर दीक्षा ग्रहण करेगी। जो आज भोग-सम्पदा और देव-सम्पदा का अनुभव करने वाले हैं, वे होनहार भगवान आदिनाथ कल इस सारी माया-ममता को छोडेंगे। क्यों छोडेंगे ? इसलिए छोडेंगे कि आवागमन का कारण माया-ममता ही है। 'आतम के अहित विषय कषाय' यही भगवान जिनेन्द्र की देशना है। हम लोगों के लिए उपदेश है। ये रागद्वेष और विषय-कषाय ही आत्मा को बंधन में डालने वाले हैं। एक मात्र विरागता ही मुक्ति को प्रदान करने वाली है। समयसार में कुन्दकुन्द भगवान ने कहा भी है
रक्तो बंधदि कम्मं, मुंचदि जीवो विराग संपणणो।
ऐसो जिणोवदेसो, तम्हा कम्मेसुमारज्ज।
समयसार राग से जीव बंधता है और वैराग्य से मुक्त होता है, यही बंध तत्व का कथन संक्षेप में जिनेन्द्र देव ने कहा है, इसलिए राग नहीं करना चाहिए। आप यह जो भी कार्यक्रम कर रहे हैं वह अपना कर्तव्य मानकर करें क्योंकि यही बालक आदिनाथ आगे जाकर तीर्थकर बनेगा और हमें वीतरागता का सदुपदेश देगा। वह स्वयं भी परिपूर्ण होगा और हमें भी सही रास्ता दिखायेगा। आगम में उल्लेख है कि दो चारण ऋद्धिधारी मुनि महाराज आकाश मार्ग से गमन कर रहे थे, तब नीचे खेलते हुए भावी तीर्थकर बालक को देखकर उनकी धर्म-शंकाएँ दूर हो गयीं थीं, उन्हें समाधान मिल गया था। पर एक बात और थी कि उन मुनिराजों ने उस भावी तीर्थकर बालक को नमोऽस्तु नहीं किया। सोचिये शंकाओं का निवारण हो गया, वह बालक तीर्थकर होने वाला है। मुनि स्वयं भी मन:पर्ययज्ञान के द्वारा जान रहे होंगे परन्तु वे मुनिराज राग का समर्थन नहीं करते। वे सरागी बालक को नमस्कार नहीं करते।
एक बात और ध्यान रखना कि वीतरागी और अरागी में बहुत अन्तर है। अरागी उसे कहते हैं जिसमें रागद्वेष रूप संवेदन की शक्ति ही नहीं रहती। जिसमें जानने-देखने रूप शक्ति भी नहीं रहती अर्थात् जड़ वस्तु अरागी है। सरागी वह है जो विषय-कषाय से युक्त है। राग-द्वेष कर रहा है। और वीतरागी उसे कहते हैं जिसमें राग पहले था लेकिन अब उसने छोड़ दिया है। 'विगत: राग: यस्य यस्मात्वा इति विराग:।' होनहार भगवान् अभी वीतरागी बनने के लिये उम्मीदवार है और जब वीतरागी बनेंगे तभी वे तीन लोक में सभी के द्वारा पूज्यता/आदर के पात्र होंगे। तभी हम भी नमोऽस्तु करेंगे। यही वीतराग धर्म की महिमा है। इसे समझना चाहिए और आचार्यों ने जो अपने जीवन भर की अनुभूतियों को शास्त्रों में लिखा है उसके अनुरूप ही धार्मिक क्रियाएँ विवेक पूर्वक करनी चाहिए। सच्चे-देव-गुरु शास्त्र की उपासना के माध्यम से हमें अपनी श्रमण-संस्कृति को सुरक्षित रखने का प्रयास करना चाहिए। उसमें चार-चांद लगाना तो बड़े भाग्यशाली जीवों का ही कार्य है लेकिन जितना मिला है उतना ही सुरक्षित रखने का प्रयास हमें करना ही चाहिए। भइया! अभी करीब साढ़े अठारह हजार वर्ष पंचमकाल के शेष हैं। काल की अपेक्षा श्रावक धर्म और मुनि धर्म में शिथिलता तो आयेगी लेकिन शिथिलता आना बात अलग है और अपनी तरफ से शिथिलता लाना अलग बात है। आत्मानुभूति की कलियाँ धीरे-धीरे मुरझाती जायेंगी लेकिन समाप्त नहीं होंगी।
जब फसल पकने को होती है, दस बारह दिन शेष रह जाते हैं तो किसान एक बार पुन: पानी देता है। यद्यपि पानी का प्रभाव अब फसल के लिये विशेष लाभप्रद नहीं होता परन्तु फिर भी साधक तो होता ही है। इसी प्रकार हमें भी समय-समय पर धार्मिक कार्य करते रहना चाहिए और समय-समय पर आने वाली कुरीतियों-कुप्रणालियों से बचते रहना चाहिए।
आज इस जन्म कल्याणक के दिन हमें विचार करना चाहिए कि जन्म, शरीर का हुआ है। आत्मा तो अजर-अमर है, वह जन्मता-मरता नहीं है। मात्र आवागमन हो रहा है। इस आवागमन से मुक्त होना ही सच्चा पुरुषार्थ है। यही कल्याणकारी है। शरीर का कल्याण नहीं करना है, हमें आत्मा का कल्याण करना है। शरीर की पूजा नहीं करनी, शरीर में बैठी हुई रत्नत्रय गुण से युक्त आत्मा की ही पूजा करनी है। उसी की जयन्ती मनानी है। अमूर्त आत्मा की प्राप्ति में शरीर तो साधन मात्र है। इसका अभिमान नहीं करना चाहिए।
एक बार की बात है। इन्द्र की सभा चल रही थी। इन्द्र स्वयं पृथ्वी के चक्रवर्ती के रूप की प्रशंसा कर रहे थे। कह रहे थे कि हम देवों के पास कुछ रूप है ही नहीं। असली रूप का अवलोकन करना हो तो पृथ्वी पर जाकर देखो। कुछ देवों के मन में परीक्षा करने की बात आ गयी। वे नीचे उतरे और जहाँ अखाड़े में चक्रवर्ती धूल-धूसरित होकर कसरत कर रहा था, वहाँ पहुँचे। देव उस छवि को देखकर अवाक् रह गये। सोचने लगे वास्तव में रूप तो सही है। देवों के द्वारा अपनी प्रशंसा सुनकर चक्रवर्ती को अभिमान आ गया। चक्रवर्ती कहने लगा, अभी क्या रूप देखते हो। अभी स्नान करके आभूषण पहन कर जब राज-दरबार में आऊँगा तब देखना। देव राज-दरबार में पहुँचे। राजा आये। राज-सिंहासन पर बैठ गये। पर देवों ने देखा कि अब वह रूप नहीं रहा। अब वह छवि नहीं रही। वे अपने अवधिज्ञान से जान गये कि रूप, लावण्य में कमी आ गयी है और वे बाहर से ही वापिस लौटकर जाने लगे। राजा ने उन्हें बुलाया और पूछा कि क्या बात है? क्या मैं अब सुन्दर नहीं लगता? तब देवों ने कहा- राजन् आपको देखना ही है तो एक थाल मंगा लो और उसमें थूककर देखो। थाल मंगाया गया। राजा ने थूका तो उसमें कितने ही बिलबिलाते रोग के कीड़े देखने में आये। इस शरीर में ऐसे ही घिनावने पदार्थ भरे हुए हैं। यह बात राजा की समझ में आ गयी। वे सामान्य राजा नहीं थे। चक्रवर्ती सनतकुमार थे। कामदेव थे। सोचने लगे-शरीर का स्वभाव ही जब ऐसा है तो इसका अभिमान करना व्यर्थ है। भेद-विज्ञान हो गया। वैराग्य आ गया। वे दीक्षित हो गये।
'जगत्काय-स्वभावी वा संवेग-वैराग्यार्थम्'- संसार और शरीर के स्वभाव को जानकर जो संवेग और वैराग्य धारण करते हैं, वे धन्य हैं। शरीर को पढ़ने वाला, शरीर के स्वभाव को जानने वाला अपढ़ भी भेदविज्ञान को प्राप्त कर लेता है और अपने कल्याण के मार्ग पर चल पड़ता है। लेकिन आज तो समयसार को दस बार पढ़ने वालों को भी संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य नहीं आ रहा। छह खंड पर राज करने वाले, अनेक सांसारिक कार्यों में लिप्त रहने वाले सनतचक्रवर्ती ने क्षणभर में सब त्याग कर दिया। सभी ने समझाया कि राजन्! आपके पास सुख सम्पदा है, भोग सामग्री है। देवों के समान सुन्दर शरीर आपने पाया है। इसका भोग करने के बाद योग धारण करना। अभी से क्यों योग अपनाने चले हो? परन्तु सनतकुमार रत्नत्रय धारण कर लेते हैं और कुछ समय के उपरांत उनके शरीर में कुष्ठ रोग हो जाता है लेकिन भेदविज्ञान के बल से शरीर के प्रति वैराग्य होने के कारण वे अपने रत्नत्रय में अडिग बने रहते हैं। कल ऐसे ही रत्नत्रय की बात आने वाली है। कल के दीक्षा-कल्याणक की आज से ही भूमिका बता रहा हूँ ताकि कल तक शायद आप लोगों में से कोई भव्यात्मा दीक्षा के लिये तैयार हो जाये।
शरीर के प्रति वैराग्य और जगत् के प्रति संवेग-ये दो बातें ही आत्म-कल्याण के लिए आवश्यक हैं। चार प्रकार के उपदेश होते हैं। जिसमें संवेगनीय और निर्वेगनीय- ये दो उपदेश ही जीव के कल्याण में मुख्य रूप में सहायक बनते हैं। आक्षेपणी और विक्षेपणी धर्मकथा/धर्मोपदेश न आदि में काम आते हैं और न ही अंत में सल्लेखना के समय काम आते हैं। वे तो मध्य के काल में उपयोग लगाने के लिये ही उपयोगी हैं। इसलिए संवेग और वैराग्य की बातें ही साधक को मुख्य रूप से ध्यान में रखना चाहिए। उन्हीं का बार-बार चिंतन-मनन करना चाहिए।
कुछ समय के उपरांत फिर इन्द्र की सभा में चर्चा आई और इन्द्र ने कहा कि हम तो यहाँ मात्र शास्त्र-चर्चा में ही रह गये और वहाँ पृथ्वी पर साक्षात् चारित्र को धारण करने वाले सनतकुमार चक्रवर्ती धन्य हैं। महान् तपस्वी को देखना चाहो तो इस समय मात्र सनतचक्रवर्ती के अलावा कोई दूसरा नहीं है। उन दो देवों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह चक्रवर्ती क्या तप करेगा उसे तो अपने रूप का अभिमान हो गया था। फिर भी उन्होंने सोचा कि चलो चलते हैं। चलकर देखेंगे। दोनों भेष बदलकर पहुँचे। बोले -महाराज! आपको क्या हो गया? आपकी कंचन जैसी काया थी। सारी कुष्ठ-रोग से गल गयी है। आप चाहो तो हम इसे पहले जैसी कर सकते हैं। आप बहुत पीड़ा महसूस कर रहे होंगे। हम आपको इस रोग से मुक्त करा सकते हैं। अब सनतचक्रवर्ती तो राजा से महाराज हो गये। मुनिराज हो गये थे। बोले-भइया! इससे भी भयानक एक रोग और है मुझे। हो सके तो उसका इलाज कर दी। दोनों देव बोले- आप हमें बतायें। हम ठीक कर देंगे। ऐसा कोई रोग नहीं जिसकी औषधि जिसका इलाज हमारे पास न हो। मुनिराज कहने लगे-भइया! मुझे तो जन्म जरा-मृत्यु का रोग है, आवागमन की पीड़ा है। कोई ऐसी औषधि बताओ जिससे मेरा संसार में आना-जाना रुक जाये। वे देव स्वयं उसी से पीड़ित थे। तब महाराज बोले-भइया! शरीर के रोग का इलाज कोई इलाज नहीं है। ये शरीर में आया हुआ रोग तो कर्म-निर्जरा में सहायक है। संवर पूर्वक की गई निर्जरा से ही आना-जाना रुकता है। मुक्ति मिलती है। आत्मा स्वस्थ हो जाती है। देव ऐसा सुनकर गद्गद् हो उठे और कहने लगे कि आप वास्तव में चारित्र के धनी हैं। आपको मुक्ति मिलेगी इसमें कोई सन्देह नहीं है।
तो बन्धुओं! यह काया कंचन जैसी भले ही हो जाये लेकिन यह तो पौद्गलिक रचना है। जैसे-जैसे आयु कर्म क्षीण होता जाता है यह भी बिखरती जाती है। पूरण और गलन ही इसका स्वभाव है। आचार्यों ने कहा है जब तक आयु कर्म है, प्रति समय मृत्यु हो रही है। जन्म लिया है तो मृत्यु अवश्य ही होनी है। ये चक्र अनादिकालीन है। इस अनादिकालीन आवागमन से मुक्त होने के लिये जन्म लेने वाली आत्मायें विरली ही होती हैं। हमें भी अपनी चैतन्य-शक्ति को पहचान कर इस जड़ पुद्गल शरीर को साधन बनाकर आवागमन से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए। खूब विचार कर लीजिये कि हम किस ओर जा रहे हैं। अभी रात शेष है। कल दीक्षा-कल्याणक है। शरीर से आत्मा को पृथक् मानने के उपरांत उस शरीर से मोह छोड़ने की बात आने वाली है। उसी मार्ग पर सभी को बढ़ना चाहिए। जिससे इस संसार का अंत हो सके।
रे मूढ़ ! तू जनमता मरता अकेला, कोई न साथ चलता गुरु भी न चेला।
हैस्वार्थपूर्णय निश्चयएकमेल.जतेसधी वड्केजब अंत बेला॥१॥