बंध विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- स्निग्ध और रुक्षत्व के माध्यम से ही बंध होता है।
- राग-द्वेष से रहित होने पर ही आत्मा कर्म बंध से बच सकता है।
- आत्मा के पास राग रूपी चिकनाहट एवं द्वेष रूपी रूखापन है जिसके माध्यम से कमों का बंध हो रहा है।
- आत्मा अपने परिणामों से, पर पदार्थों के निमित्त से कर्मों का बंध भी कर सकता है, उन्हीं पदार्थों से कर्म की निर्जरा भी कर सकता है।
- आत्मा के पास ऐसी क्षमता विद्यमान है कि अंतर्मुहुर्त में कर्मों को नष्ट कर सकती हैं और अनंतकाल तक उन्हें मौजूद भी रख सकती है।
- कर्मों से डरने की आवश्यकता नहीं है, उन्हें समझकर निर्जरित करने की आवश्यकता है। आगे कर्म न बांधों जो कर्म बाँधा है उसे साफ करो।
- केवली भगवान् के पास अनंत शक्ति है लेकिन आयु कर्म अपनी स्थिति तक उन्हें संसार में बाँधे/रोके रहता है।
- दो में आपस में बंध होता है, दोनों का भान उसमें नहीं होता बंध के बाद तीसरा ही होता है इसी का नाम बंध है। जैसे हल्दी चूना का मिश्रण न हल्दी का रंग न चूने का रंग बल्कि तीसरा ही रंग पैदा हो जाता है।
- राग-द्वेष रूप परिणाम ही भाव बंध है।
- कर्मबंध से छूटना चाहते हो तो रागद्वेष को कम करते जाना चाहिए।
- अंधकार, दृष्टि को प्रतिबंधित कर देता है।
- दूसरे का आधार लेना बंध का कारण है।
- अशुभोपयोग में न आ जावे इसलिए शुभोपयोग का आधार लिया जाता है, शुभोपयोग में भी कर्म निर्जरा के साथ-साथ पुण्य कर्म का बंध भी होता है।
- जो चेतन भाव है वही कर्माश्रव को रोकने में कारण है, उसी को निश्चयनय से भाव संवर कहा है और जो द्रव्यास्रव को रोकने में कारण है, वह द्रव्य संवर कहलाता है।
- भाव संवर व द्रव्य संवर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध को लिए हुए है।
- जिस चेतन भाव से कर्म बंधता है वह तो भाव बंध है और कर्म व आत्मा के प्रदेशों का एकाकार होने रूप द्रव्यबंध है।
- आत्मा मोह से प्रभावित उपयोग के द्वारा कर्मबंध को प्राप्त होती है।
- कर्मों का बंध एवं निर्जरा अपने भावों पर आधारित है।
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव