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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. वर्णी-संस्था तो आप कहो, यदि वर्णी-परम्परा चले तो सब कुछ ठीक-ठाक हो जायेगा। वर्णी का अर्थ क्या होता है जानते हो ? नाममाला में एक जगह आया है, वर्णी का अर्थ यति होता है, मुनि होता है, व्रती होता है। वर्णी-संस्था और वर्णी-परम्परा ये दो चीजें हैं। मुझे वर्णी-संस्था की उतनी चिन्ता नहीं, जितनी चिन्ता वर्णी-परम्परा की है। त्याग, तपस्या के बिना न आज तक समाज का उद्धार हुआ है, न आगे होगा। स्वभाव का बोध न होने के फलस्वरूप संसारी प्राणी पर-पदार्थ की शरण पाने को लालायित हो रहा है। अनन्तकाल व्यतीत हो चुका है, जब उसे अपने स्वभाव का बोध होगा तब वह बहिर्मुखी न होकर, अन्तर्मुखी होना प्रारम्भ कर देगा। भगवान् की मूर्ति सामने है और आप कहते हैं कि- अन्यथा शरणां नास्ति त्वमेव शरणं मम । तस्मात् कारुण्य-भावेन रक्ष-रक्ष जिनेश्वर॥ (समाधिभक्ति १५) हे भगवन्! इस लोक में आपके बिना कोई शरण नहीं है। आपकी शरण मिलने से भीतर जो छुपा परमात्म तत्व है, उसका बोध प्राप्त हो जाता है। ध्यान रखो! संसारी प्राणी भटकता-भटकता मनुष्य योनि में आया है। इसे बोध है किन्तु पर का बोध है, इसे बोध है किन्तु सही बोध नहीं है और जिसे अपने-पराये का बोध नहीं है उसका वह बोध, बोध नहीं बोझ है। जिस बोध के माध्यम से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, उस बोध की बात यहाँ पर हो रही है। जिस व्यक्ति ने इस गुरुकुल की स्थापना की थी, उस व्यक्तित्व का मूल्यांकन हम शब्दों में नहीं कर सकते। दुनियाँ में Collage खुल रहे हैं। अनेक प्रकार के स्कूल हैं, सब कुछ है लेकिन! वह सारे के सारे जीवन-निर्वाह के लिए हैं निर्माण के लिए नहीं। आप जीवन निर्वाह चाहते हैं तो, इस बोध से आपको कोई मतलब नहीं और यदि निर्माण चाहते हैं तो इस बोध की इच्छा करिये, जिसके माध्यम से जीवन का निर्माण हो जाता है और अन्त में निर्वाण यानि मोक्ष प्राप्त हो जाता है, संसार और संस्थाओं से छुटकारा मिल जाता है। भारत में देश-विदेशों में ऐसी कोई संस्था या School-Collage नहीं है, जिनमें आत्मा की क्षण भर चर्चा होती हो। ऐसी कोई शक्ति नहीं है, जिससे वे किसी को उसके स्थायी अस्तित्व का परिचय करा सके । किन्तु यहाँ पर इन गुरुकुलों में वह विद्या...वह कला...वह ज्ञान...वह बोध पाया जा सकता है जिसके द्वारा पर की शक्ति (शरण) छूट जाती है। सुबह-सुबह वाचना चल रही थी। पंडितजी (पंडित फूलचन्द्रजी, वाराणसी) ने एक बहुत अच्छी बात कही थी, उसको दुहराने के लिए कुछ लोगों ने कहा कि पण्डितजी एक बार और बोलो, जैसे काव्य (कविता) पाठ होते हैं तो उसमें 'वंस मोर" (Once more) कह देते हैं आप लोग, उसके अनुसार क्योंकि उसमें बहुत अच्छी बात थी, कि सब लोग धर्म तो चाहते हैं। उस समय मैंने कहा कि पण्डित जी ऐसे प्रवचन होना चाहिए कि जो परिग्रह को बचा रहे हैं, वे परिग्रह छोड़ दें। परिग्रह ने आपको अपने वश में कर रखा है, यह मान्यता गलत है आप लोगों की, किन्तु परिग्रह के अधीन हो गये हैं आप लोग,। ध्यान रखिये, परिग्रह इस शब्द की निष्पत्ति करते हुए पूज्य महाराज जी (आचार्य ज्ञानसागर जी) ने एक बार कहा था – परितः समन्तात् आत्मानं गृह्णाति बध्नाति यत् सः परिग्रहः। आत्मा को जो चारों ओर से बाँध लेता है, ग्रहण कर लेता है उसका नाम है परिग्रह। बिल्कुल ठीक है, आप यहाँ पर बैठे हैं, ट्रेजरी में आपका धन है, फोन आ जाये तो आपका कलेजा काँप जाता है कि वहाँ तक जाते-जाते रहे या नहीं रहे क्या पता? वैसे आपको पसीना नहीं आता लेकिन, आपको पसीना आ जाता है तथा उसके साथ-साथ सीना भी धड़कने लगता है। ऐसा क्यों होता है भैय्या? इसी का नाम है मोह आपने अपने को उसके वश में कर दिया है। यह परिग्रह महाभूत है। पण्डितजी (डॉ. पन्नालालजी साहित्याचार्य, सागर) ने अभी-अभी कहा था कि महाराज कभी Appeal नहीं करते लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से कर दी। हमने किसी को कुछ नहीं कहा लेकिन त्याग के बारे में तो अवश्य Appeal करेंगे। यह हमारा कार्य है, आप त्याग नहीं करेंगे तो वीतरागता की प्राप्ति कैसे होगी ? हमें किसी संस्था को चलाने की चिन्ता नहीं है, किन्तु आत्मा का जो संस्थान है उसकी खबर आपको होनी चाहिए। बस, हमें फिर कोई चिन्ता नहीं। आप लोगों को देखकर बस एक ही भाव जागृत होता है; कि कोई ऐसा माध्यम, साधन उपलब्ध हो जाये इन लोगों को, कि ये आत्मा की बातें करने लगें। चार प्रकार के ध्यान बताये हैं - आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय। किसी सज्जन ने मुझसे पूछा-‘महाराज! धर्मध्यान तो हमें भी होता है और आपको भी होता है। आप धर्मध्यान के माध्यम से जहाँ पर भी जायेंगे तो उसी के माध्यम से हम भी वहाँ पहुँच जायेंगे। मैंने कहा ध्यान रखो! नहीं आ सकते और मैं जो कर्म-निर्जरा करता हूँ आप नहीं कर सकते। धर्मध्यानों में एक संस्थानविचय नामक ध्यान भी तो है। हाँ.हाँ है तो पर थोड़ा-सा अन्तर है उसमें। आपको संस्थानविचय तो नहीं पर संस्थाविचय अवश्य हो सकता है। संस्था अपने आप में परिग्रह है और संस्थानविचय ध्यान अपने आप में परिग्रह नहीं है ये ध्यान रखना। संस्थानविचय ध्यान षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों के माध्यम से तीन लोक में जीव कहाँ-कहाँ भटक रहे हैं वह सारा का सारा चित्र उस समय मन में लाता है। उस ज्ञान के माध्यम से वह ध्याता नरक में भी जाता है, स्वर्ग में भी जाता है, सर्वार्थसिद्धि को भी लाँघ जाता है, सिद्धालय में भी जाता है। निगोद में भी जाता है। तीनों लोकों की यात्रा वह संस्थान-विचय नामक ध्यान के माध्यम से कर लेता है। वह इतनी लम्बी यात्रा करता हुआ भी पूज्य माना जाता है। संस्थाविचय ध्यान जब तक मुनि नहीं बनोगे तब तक तीन काल में भी सम्भव नहीं है। मुझे और किसी क्षेत्र की चिन्ता नहीं है लेकिन आप लोगों को जो धर्मध्यान होगा वह त्याग करने से, दान करने से ही बनेगा। वीरसेन स्वामी ने धवला में कहा है - "दाणां पूया सीलमुववासो सावयाणां चउविही धम्मो।" यदि धर्म हैं तो चार ही हैं। जिनेन्द्रदेव की पूजा करना, शील का पालन करना, उपवास करना, सत्-पात्रों को दान देना ये चार धर्म श्रावकों के हैं। एक प्रश्न रखना चाहता हूँ आपके सामने कि भगवान् के अभिषेक करने से क्या लाभ होता है ? ध्यान रखो, तीन अष्टाहिका में इन्द्र अन्यत्र कहीं नहीं जाता लेकिन नन्दीश्वर द्वीप में जाकर पूजन और अभिषेक करता है। मेरे मन में ये बात आ जाती है कि इन्द्र को समवसरण में जाना चाहिए जहाँ पर भावनिक्षेप से अहन्त परमेष्ठी विद्यमान हैं। उनके चरणों में जा करके दिव्यध्वनि सुनना चाहिए। नन्दीश्वर द्वीप में जाकर क्या करेंगे? क्योंकि वहाँ तो केवल प्रतिमा मिलेगी। लेकिन इसमें एक रहस्य है। ध्यान रखो, मैं सोचता हूँकि जो लाभ उस समय उसे समवसरण में प्राप्त नहीं हो सकता वह नन्दीश्वर द्वीप में प्राप्त हो जाता है, इसलिए वह सपरिवार वहाँ जाता है। साक्षात् भगवान् को छू करके जो आनन्द आता है, वह समवसरण में सम्भव नहीं, उस भामण्डल के अन्दर किसी की गति सम्भव नहीं। इसलिए वह सोचता है कि वहीं पर जाकर भगवान् का पूजन प्रक्षालन करूंगा। प्राण-प्रतिष्ठा द्वारा भगवान् के सम्पूर्ण गुणों को आरोपित करके सूर्यमन्त्र पढ़कर उस पाषाण की प्रतिमा को पूज्य बना दिया जाता है। बुद्धि के द्वारा, भगवान् की साक्षात् कल्पना होती है। मैं पूछना चाहता हूँ-शास्त्र पास में है फिर भी पवित्र मन से आप छूते हैं तो अलग प्रकार की अनुभूति, संवेदना होती है। इन संवेदनाओं के लिए एकमात्र वही क्षण है, वही एक बात आचार्यों ने हमें बता दी कि जिनवाणी की उपासना करने से हमें सम्यग्ज्ञान की उपलब्धि होती है। मुनियों के पास जाने से; उनकी चर्या देखने से, गुरुओं के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है, चारित्र की उपलब्धि होती है। जिनेन्द्र-देव की पूजा अभिषेक आदि से सम्यग्दर्शन की उपलब्धि होती है। वीरसेन स्वामी ने कहा है कि इन चार धर्मों को आप अपनाते चले जाओ। नियम से सब काम होता चला जायेगा। मुझे आप लोगों के निर्वाह के बारे में चिन्ता नहीं, निर्माण के बारे में चिन्ता है। आपका निर्माण धन के द्वारा नहीं होने वाला है। धन के त्याग में ही आपका निर्माण होने वाला है और आप मानते हैं कि हमारे जीवन का उद्धार धन के राग से होगा, ये गलत धारणा है। आप लोगों का जीवन धन के माध्यम से नहीं चल रहा है, बल्कि आपने जो पहले पुण्य किया था उसी के माध्यम से चल रहा है। आयु कर्म जब तक रहेगा तब तक आप रहेंगे। आयु कर्म के निषेक जब क्षीण होंगे तब ब्रह्मा भी आकर आपको मरने से नहीं बचा सकते। इस गति से दूसरी गति में जाने से कोई नहीं रोक सकता। चाहे प्रत्यूष बेला हो या संध्या बेला हो, रात के चाहे कितने भी बजे हों, खाते-पीते, उठते-बैठते उसको रवाना होना ही पड़ेगा, यह नियम है, सिद्धान्त है। मरकर मनुष्यआयु में उत्पन्न होना यह अनिवार्य नहीं है। यदि आपकी यात्रा दो हजार सागर में पंचम गति की ओर नहीं होती है, तो हमें इस बात की चिन्ता होती है कि देखो, कितना प्रयास करके, पुरुषार्थ करके निगोद की यात्रा को छोड़कर इस ओर आया है, लेकिन वह कौन-सा दुर्भाग्य होगा कि मनुष्य योनि को प्राप्त कर पुन: निगोद की ओर जाना होगा। सोचिए, विचार कीजिये, यह सारी की सारी बातें लिखी हुई हैं शास्त्रों में, जिन्हें देखने-समझने की आज बड़ी आवश्यकता है। महान् सिद्धान्त-ग्रंथ धवला-जयधवलादिक में लिखा है कि कम से कम इन चार धर्मों (दान, पूजा, शील, उपवास) का अनुपालन करो। पण्डितजी साहब (सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्रजी शास्त्री, वाराणसी) ने अभी-अभी जो कहा था कि आज के लोग परिग्रह को रखकर के, बचाकर के धर्म करना चाहते हैं, किन्तु यह सब गलत है। धर्म तो विषय-कषाय राग-द्वेष परिग्रहादिक बाह्य वस्तुओं से दूर हटने पर ही होता है अन्यथा धर्म नहीं किन्तु धर्म का कथन अवश्य हो सकता है। दो बातें और कहना चाहूँगा मैं कि वणजी की परम्परा और वर्णीजी की संस्थाओं की परम्परा। आप लोग दोनों को एक मान रहे हैं और मैं दो मान रहा हूँ। वर्णीजी की संस्था चले यह तो आप लोग चाहेंगे लेकिन मैं तो यही चाहूँगा कि संस्था तो ठीक है, यदि वर्णी परम्परा चले तो सब ठीक-ठाक हो जायेगा। वर्णी का अर्थ क्या होता है मालूम है आप लोगों को? कोई सेठ साहूकार नहीं, वर्णी का अर्थ पण्डित भी नहीं होता है। जब मैं (ब्रह्मचारी अवस्था में) नाममाला पढ़ता था, उस समय मुनियों के नाम में वर्णी शब्द आया था।. तो वर्णी का अर्थ साधु होता है, अनगार होता है। वर्णीजी गृहस्थ नहीं थे, वे पिच्छीधारक क्षुल्लक जी थे। यह बात अलग थी कि उनकी काया की क्षमता अधिक न होने से मुनि नहीं बन पाये किन्तु मुनि बनने की उनकी तीव्र भावना अवश्य थी। उनका त्याग था, उनकी तपस्या थी, उनका समर्पण था, समाज के लिए समर्पण नहीं था किन्तु वीतरागी-मार्ग के लिए समर्पण था। जैसा कि अभी पूर्ववता (पण्डित कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, वाराणसी) ने कहा कि उन्हें सारा का सारा समयसार कण्ठस्थ था लेकिन मैं समझता हूँ कण्ठस्थ क्या, हृदयस्थ था, क्योंकि उन्होंने सोच लिया था कि जीवन में यदि कोई मौलिक पदार्थ है तो वह रत्नत्रय है और रत्नत्रय मुझे धारण करना है भले ही वह अभी मिले या न मिले किन्तु प्राप्त तो उसी को करना है। उसी के माध्यम से ही जीवन उन्नतिशील बनेगा और परम निर्वाण यानि मुक्ति का लाभ होगा।.तो मैं यह कहना चाह रहा हूँ कि यदि आप वर्णी जी की परम्परा, उनका नाम कायम रखना चाहते हैं तो दूसरे वर्णी की आवश्यकता है। है कोई यहाँ पर इस सभा में (विद्वत्-मण्डली की ओर संकेत करते हुए) दमदार व्यक्ति जो वर्णी जैसा बनने के लिए तैयार हो। वणजी तो चले गये। कब तक उनकी पुण्यतिथियाँ मनाओगे और मनाने मात्र से कोई प्रभाव पड़ने वाला है क्या? आप लोगों का जीवन अब अल्प बचा है, कम से कम इस अल्प समय में तो वर्णी जैसे जीवन की एक झलक आनी चाहिए। आप लोगों की यह ज्ञानाराधना तभी सार्थक होगी जब आपके कदम चारित्र की ओर बढ़ जायेंगे। वर्णी संस्थाओं का नहीं, वर्णी का निर्माण होना चाहिए क्योंकि जो सैकड़ों संस्थायें काम नहीं कर सकती हैं वह एक त्यागी, व्रती, संयमी वर्णी कर सकता है और एक वर्णी के तैयार होने से हजारों वणां तैयार हो जायेंगे। वर्णी जैसे साधक व्यक्तियों के तैयार होने से उनकी संस्थायें अपने आप चलने लगेंगी। आप जड़ (सम्पत्ति) के माध्यम से वणी जी की संस्थाओं का निर्वाह करना चाहते हो, लेकिन यह ध्यान रखना, मात्र धन-पैसा के द्वारा ही यह कार्य हो सके, यह तीन काल में सम्भव नहीं। जैसा अभी एक वक्ता (पण्डित पन्नालाल जी साहित्याचार्य, सागर) ने कहा- वहाँ (दक्षिण में) बहुत सारे गुरुकुल चल रहे हैं किसके माध्यम से? श्रीमानों के द्वारा, धीमानों के द्वारा, नहीं, यह ध्यान रखना कुम्भोज बाहुबली के समन्तभद्र महाराज के पास गुरुकुल में जो कोई भी विद्यार्थी हैं वे सब बाल ब्रह्मचारी हैं। वे ही गुरुकुल चला रहे हैं, उनके पास त्याग-तपस्या है, संसार, शरीर-भोगों से उदासीनता हैं, अर्थ का प्रलोभन नहीं है, तब कहीं जाकर के यह काम हो रहा है। धन-सम्पति और वेतन के द्वारा हम कभी जिनवाणी का जीणों द्वार नहीं कर सकते। जब तक वेतन मिलता रहेगा तब तक काम चलता रहेगा । वेतन मिलना बन्द तो काम बन्द। वेतन के द्वारा चेतन की उपलब्धि तीन काल में नहीं हो सकती। वेतन आपको खर्च करना होगा, उसके माध्यम से आपका दानधर्म चालू हो जायेगा और जो संस्था के लिए समर्पित है, धर्म-प्रभावना के लिए समर्पित है, उसका भी बाहरी निर्वाह (गुजारा) हो जायेगा, क्योंकि निमित्त नैमितिक सम्बन्ध से सारे के सारे कार्य चल सकते हैं। विद्वान् लोग वृद्ध हो चुके हैं, जिन्होंने जीवन पर्यन्त जिनवाणी की सेवा की है, अब अन्तिम Stage (पड़ाव) पर पहुँच चुके हैं। बेला अन्तिम है, समय निकट है, अब यहाँ से (इस पर्याय से) कभी भी Transfer (तबादला) हो सकता है। हमें, आपको इन अन्तिम क्षणों में सचेत रहना परमावश्यक है। क्योंकि 'अन्त मति सो गति' होता है। अत: समय रहते हुए हम जाग जायें और ज्ञान का जो सही-सही फल अज्ञान की निवृत्ति, कषायों की हानि, आत्म-तत्व और रत्नत्रय की प्राप्ति एवं राग-द्वेष को कम करके चारित्र को अंगीकार करने रूप है, उसे प्राप्त करें। इसी में आपकी भलाई है। निर्वाह से परे जीवन का निर्माण होना आवश्यक है। तदुपरान्त जीवन में संसार से छुटकारा पाकर आत्मा निर्वाण को (मोक्ष) प्राप्त करता है। यही परम सुख रूप मोक्ष-धाम है। इस मोक्ष धाम की प्राप्ति के लिए आज से ही सभी को कटिबद्ध हो जाना चाहिए। एक बार तो उस आत्मिक भाव का स्पर्श करो। बड़े-बड़े महान् आचार्यों ने कहा है कि जीवन में वह घड़ी मौलिक मानी जायेगी, वह समय बहुमूल्य माना जायेगा जिस समय "स्व समय संस्पर्श" आत्मानुशासन होगा। मोह का संस्पर्श तो अनन्तकाल से संसारी प्राणी करता आया है। किन्तु जाते-जाते अन्त में ध्यान रखना बन्धुओ त्याग, तपस्या और नि:स्वार्थ सेवा के बिना आत्मोद्धार और देश का उद्धार तीन काल में नहीं हो सकता। इस प्रकार; त्याग, तपस्या को अपनाकर वणी-संस्था और वण-परम्परा का उद्धार करना है। इन धार्मिक आयोजनों के निमित्त से जीवन को उज्ज्वल एवं सफलीभूत बनाने का प्रयास करें।
  2. जबलपुर, मध्यप्रदेश, भारत कुंडलपुर में बड़े बाबा के मंदिर नवनिर्माण की राह का रोड़ा दूर, हाईकोर्ट ने एनजीटी का आदेश किया निरस्त जबलपुर। जैन धर्म के तीर्थ दमोह जिले के कुंडलपुर में स्थित भगवान महावीर (बड़े बाबा) का एेतिहासिक मंदिर है। यह मंदिर बुंदेलखंड के राजा छत्रसाल के समय का निर्मित है। इस मंदिर के नवनिर्माण का मामला कई दिनों से अदालत में लंबित था। लेकिन मंगलवार को हाईकोर्ट में सुनवाई के बाद मंदिर नवनिर्माण की राह का आखिरी रोड़ा भी अलग हो गया है। म.प्र. हाईकोर्ट ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की भोपाल बेंच के उस आदेश को निरस्त कर दिया, जिसमें निर्माणाधीन मंदिर स्थल वन भूमि में होने के चलते रोक लगा दी गई थी। चीफ जस्टिस हेमंत गुप्ता व जस्टिस विजय कुमार शुक्ला की डिवीजन बेंच ने जयपुर की संस्था जैन संस्कृति रक्षा मंच के अध्यक्ष मिलाप चंद डांडिया पर न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग करने के लिए एक लाख रुपए कॉस्ट भी लगाई है। यह है मामला प्रकरण के अनुसार जैनों के प्रमुख तीर्थस्थल कुंडलपुर में स्थित भगवान महावीर (बड़े बाबा) का एेतिहासिक मंदिर है। यह मंदिर बुंदेलखंड के राजा छत्रसाल के समय का निर्मित है। मंदिर का गर्भगृह जमीन के नीचे था। साथ ही गर्भगृह में स्थापित बड़े बाबा सहित अन्य देवी-देवताआें की प्रतिमाएं कतारबद्ध एक ही पत्थर की दीवार पर थीं। ये जिस पत्थर से निर्मित थीं, वह क्षरणीय था। लिहाजा मंदिर के संचालक श्री दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र कुंडलपुर पब्लिक ट्रस्ट ने इस मंदिर का पुननिर्माण करने का फैसला लिया। पुराने मंदिर से कुछ दूरी पर नये मंदिर का निर्माण करने का प्रस्ताव लाया गया। बड़े बाबा की प्रतिमा को भी अन्य प्रतिमाओं से अलग कर नये मंदिर में स्थापित किया गया। राज्य सरकार ने भी 2014 में इस निर्माण कार्य को कुछ शर्तोंं के साथ अनुमति दी। सुको में राज्य सरकार के आदेश को चुनौती जैनों की जयपुर स्थित मुख्यालय वाले जैन संस्कृति रक्षा मंच ने राज्य सरकार के इस आदेश को सीधे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी। मंदिर को पुरातात्विक महत्व का निरुपित करते हुए मंच ने सुको में कहा कि यहां कोई निर्माण नहीं हो सकता। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पुरातत्व विभाग ने मंदिर नव निर्माण के लिए नोटिफिकेशन जारी किया है। इसमें ये सभी बिंदु समाहित हैं। कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए कहा था कि मंच बार-बार इस मसले कों कोर्ट मे न घसीटे। हाईकोर्ट ने भी की निरस्त अतिरिक्त महाधिवक्ता समदर्शी तिवारी (एएजी) ने कोर्ट को बताया कि इसके बाद रियाज मोहम्मद नामक व्यक्ति ने इस मसले में हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की, जिसे कोर्ट ने सुको के निर्णय के आधार पर खारिज कर दिया। इस पर जैन संस्कृति रक्षा मंच के अध्यक्ष मिलाप चंद ने स्टडी सॢर्कल सोसायटी भोपाल के नाम से एनजीटी के मंदिर निर्माण स्थल वनभूमि पर होने के मसले को लेकर याचिका दायर कराई। इस पर एनजीटी ने 27 मई 2016 को मंदिर निर्माण कार्य स्थगित कर दिया। इसके खिलाफ ट्रस्ट ने फिर हाईकोर्ट की शरण ली। कोर्ट ने 26 सितंबर 2016 को एनजीटी के उक्त आदेश पर रोक लगाते हुए निर्माण कार्य जारी रखने के निर्देश दिए। एनजीटी में हुआ खुलासा एएजी तिवारी ने बताया कि सुको द्वारा प्रतिबंधित किए जाने से संस्कृति रक्षा मंच के अध्यक्ष ने दूसरी संस्था से एनजीटी में याचिका लगवाई। याचिकाकर्ता सोसायटी ने एनजीटी को दिए अपने जवाब में बताया कि उक्त याचिका के लिए दसतावेज उन्हें मिलाप चंद जैन ने ही उपलब्ध कराए थे। तिवारी ने तर्क दिया कि एनजीटी में दायर उक्त याचिका में बाद में संस्कृति रक्षा मंच के अध्यक्ष जैन हस्तक्षेपकर्ता बन गए। सुप्रीम कोर्ट के मना करने के बावजूद मिलाप चंद बार-बार मामले को कोर्ट में किसी न किसी बहाने घसीट रहे हैं। उन्होंने इसे न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग बताया। यह कहा कोर्ट ने ओपन कोर्ट में डिवीजन बेंच ने कहा कि पहले सुप्रीम कोर्ट, फिर म.प्र. हाईकोर्ट मंदिर निर्माण को सही ठहरा चुके हैं। इसके बावजूद एनजीटी ने क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर अनुचित तरीके से निर्माण पर रोक लगाने का आदेश जारी किया। लिहाजा कोर्ट ने एनजीटी का 27 मई 2016 का आदेश निरस्त कर दिया। कोर्ट ने तल्ख लहजे में कहा कि सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए न्यायिक प्रक्रिया का मिलापचंद जैन ने दुरुपयोग किया है। इसलिए वे एक लाख रुपए कॉस्ट हाईकोर्ट विधिक सेवा समिति को जमा करें। विस्तृत आदेश की फिलहाल प्रतीक्षा है। source :- https://www.patrika.com/jabalpur-news/mp-high-court-latest-judgement-for-kundalpur-jain-temple-in-damoh-dist-1977087/
  3. निर्माण पर रोक को लेकर एनजीटी द्वारा पारित सभी आदेश हाई कोर्ट ने किये ख़ारिज
  4. दया धर्म विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार संसारी प्राणी अकेला जीना चाहता है, सभी को जीने दो यह जैनदर्शन का नारा है। हमारा जीवन दूसरों को बाधक न हो, दूसरों को जीने देना उसे जीने में सहायक होना यह जैनदर्शन है। पेट भरना तो धर्म है, पर पेटी भरना अधर्म है। तिर्यच पर्याय में पेटी कहाँ मिलेगी, दुनिया के अनर्थ पेटी के लिए होते है, पेट के लिए नहीं। रोते हुए व्यक्ति को देखने पर आपकी आँख में पानी आ जावे वही धर्मात्मा है। यह जैनधर्म की विशालता है कि वो प्रेम वात्सल्य, विनय, संतोष, उपकार की शिक्षा देता है। सबसे बड़ा धर्म तो अपरिग्रह ही है। यदि संसार में कुछ सार है तो मात्र दया धर्म सारभूत है। मूल के अभाव में जिस तरह वृक्ष नहीं, फल नहीं, फूल नहीं, पत्ते नहीं, छाया नहीं, उसी प्रकार दया धर्म के अभाव में कोई धर्म नहीं। यदि कोई धर्मात्मा किसी कारणवशात् धर्म से विमुख हो रहा हो तो उसकी समस्या हल कर फिर से धर्म में लगा देना सबसे बड़ा काम है। जिसमें दया को स्थान नहीं वह धर्म नहीं। धर्म कर्तव्यपरक है कर्तापरक नहीं दया धर्म के पालन से ही उस दयावान् की पूजा होती है दयामय धर्म जब जीवन में उतर जाता है तो हम तर जाते हैं और दुनिया को प्रकाश मिल जाता है। धर्मात्मा के पास बैठने से अथवा धर्म की बात सुनने मात्र से धर्मात्मा नहीं होते किन्तु जीवन में दयामय धर्म उतारने से धर्मात्मा होते हैं। दया धर्म के प्रति जो समर्पित हो जाता है वह धर्मात्मा कहलाता है। सज्जन व्यक्ति के पास गाय रुखा-सूखा खाकर रहना चाहती है लेकिन दुर्जन के पास हराभरा खाना पसंद नहीं करती। मनुष्यों का पालन पशुओं के निमित से हुआ करता है। पशुओं के पालन से मानव की आजीविका निर्मित होती है। धर्म को सामने रखकर चलो पीछे रखकर नहीं यह रूढ़िवाद का समर्थन नहीं है। भेष बदल ले तो कोई बात नहीं, पर विचार नहीं बदलना चाहिए। विचार बदलने पर धर्म का कार्य आगे बढ़ाने में रुकावट आ जाती है। महान् आत्माएँ अपने ऊपर आने वाली प्रत्येक विपत्ति को सहर्ष स्वीकार करती हैं और धर्म के मार्ग पर आरूढ़ रहकर दूसरों के लिए धर्म का मार्ग प्रदर्शित करती हैं। धर्म की सुरक्षा चाहते हो तो धर्मात्मा बनो। धर्म जड़ नहीं है जिसकी सुरक्षा की जा सके। जो व्यक्ति अपने लिए रोता है वह स्वार्थी कहलाता है लेकिन जो दूसरों के लिए रोता है वह धर्मात्मा कहलाता है। दया का उदय धरती पर होगा तो यहाँ कोई शत्रु आ नहीं सकेगा। दया का सात्विक भाव का विस्तार करने में बुद्धि लगी रहे। धर्म यदि मिल सकता है तो करुणा, मैत्री, प्रमोद भाव के द्वारा ही मिल सकता है। दया धर्म का पालन करेंगे तो सरस्वती और लक्ष्मी दोनों को प्राप्त करोगे।
  5. जिसने रागद्वेष कामादिक, जीते सब जग जान लिया, सब जीवों को मोक्षमार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया। बुद्ध वीर जिन हरिहर ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कहो, भक्ति भाव से प्रेरित हो यह, चित्त उसी में लीन रहो। मेरी भावना || धर्म को हम देखना चाहे तो वह भावपरक है, न वचनों में है, न काय की चेष्टा में, न ही और किसी जमीन-जायजाद में। ये उसी भाव की पूर्ति के लिए माध्यम बनाए जा सकते हैं, जिसके माध्यम से संसार का कार्यक्रम चलता रहता है। भाव के माध्यम से हम एक-दूसरे को पास-पास देख सकते हैं। तन से, धन से और किसी वस्तुओं के माध्यम से भले ही दूसरे को हम, अपने पास देख सकते हैं लेकिन भावों की अपेक्षा से वह बहुत दूर हो सकता है। अत: धर्म के क्षेत्र में भावों की अपेक्षा से दूरी मिटना अनिवार्य है और धर्म वह है जो हमें सुखी बना दे, शान्ति दिला दे, हमारे भीतर वात्सल्यभाव उमड़ जाये। तन के कारण, धन के कारण और किसी अन्य वस्तु के कारण संसार में रहने वाले व्यक्तियों में भेद रेखा खींच सकते हैं। उनमें भेद देख सकते हैं लेकिन वह सब इन अपेक्षाओं की अपेक्षा से एक ही डोरी से बंध जाते हैं। कोई तन की अपेक्षा, कोई धन की अपेक्षा, कोई जमीन-जायदाद की अपेक्षा, कोई बल की अपेक्षा भिन्न माना जाता है किन्तु यह कोई व्यक्तित्व को भिन्न रखने के लिए कारण नहीं है। वह व्यक्ति जो प्रभु के रूप में स्वीकृत है, उसमें राग-द्वेष, अहंकार-ममकार आदि विकार नहीं पाये जाते। वही हमारे लिए ईश्वर है, वह ही हमारे लिए आराध्य है, वही हमारे लिए सुख का कारण है, उन्हीं की शरण में हमें जाना चाहिए। जैनधर्म कोई जातिपरक धर्म नहीं है। जैनधर्म उस बहती गंगा के समान है, जिसमें कोई भी व्यक्ति स्नान कर सकता है और अपने पापों को मिटा सकता है। उस बहती गंगा में अपने जो कुछ भी कषायभाव हैं, उनको फेक सकता है और अपने हृदय को, मन को और तन को भी स्वच्छ-साफ कर सकता है। जैनधर्म का आधार लेने के उपरान्त भी जो व्यक्ति केवल अहंकार-ममकार को पुष्ट बनाता चला जाता है वह अपने जीवन काल में कभी भी धर्म का स्वाद नहीं ले सकता। धर्म का समार्जन कोई भी व्यक्ति यहाँ तक कि तिर्यञ्च, पशु-पक्षी भी कर सकता है। उज्ज्वल-भावधारा का नाम धर्म है। जैनधर्म कषायों को जीतने के लिए कहता है। जैनधर्म शारीरिक स्वच्छता को नहीं मानता किन्तु वह भीतरी स्वच्छता पर अधिक बल देता है क्योंकि धर्म को अपनाने का मुख्य उद्देश्य है कि-मनोमालिन्य समाप्त होना चाहिए, इसी में धर्म का सार समाहित है। ऐसा करने वाला हरि भी हो सकता है, शंकर भी हो सकता है, शिव भी हो सकता है, बुद्ध भी हो सकता है, महावीर भी हो सकता है। जिसने रागद्वेष को जीत लिया है, उनके लिए हमारा बार-बार नमस्कार है। यह इसलिए कहा जा रहा है या कहना आवश्यक हो गया है कि हम बाहरी आडम्बरों को कुछ कम कर लें। हमारे भीतर वह बात है या नहीं ? यह देखने की पूरी कोशिश करो, कि हमारे भीतर कितना रस, धर्म का, आया है। जो कोई भगवान हुए और आगे होंगे उनका यह कहना है कि जीवन इसी का नाम है। दया का अभाव हो जाता है तो पाप का मूल अभिमान आ जाता है। अभिमान के कारण कौन नरक गया ? दया के कारण कौन स्वर्ग से आया ? अथवा प्रभु बना, यह आप लोगों को ज्ञात अवश्य होगा। राम और रावण। रावण के पास भी कोई कमी नहीं, राम के पास भी नहीं। किन्तु रावण के पास एक ही कमी, जिसका नाम धन नहीं, धर्म है और राम के पास भले ही धन कम हो फिर भी धर्म इतना अधिक था कि उनका नाम आज दुनिया लेना चाहती है, रावण का नाम लेना नहीं चाहती। कारण यह है कि वे आदर्श माने जाते हैं, उनका जीवन हमारे जीवन में उतर जाए। अत: धन की रक्षा नहीं, तन की रक्षा नहीं और किसी वस्तु की रक्षा नहीं, किन्तु मात्र धर्म की रक्षा करना है। तुलसी दया न छोड़िये, जब तक घट में प्राण। कब तक ? जब तक घट में प्राण। वही तो धर्म है। यदि धर्म निकल जाएगा तो वह प्राण नहीं माना जाएगा। वह तो केवल खोखला माना जाएगा। धर्म से रहित, दया से रहित, परोपकार से रहित, जो जीवन है वह जीवन, जीवन क्या? मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति: मनुष्य के रूप में पशु है। वह मनुष्य के रूप में एक प्रकार से गाय-भैंस जैसे हैं। उनके अनुसार पृथ्वी भी भार का अनुभव करती है। धिक्कार है उस भारमय जीवन को, जिस जीवन में न दया हो, न परोपकार हो, न धर्म हो। प्रभु के प्रति कुछ भाव समर्पण करने के लिए नहीं हैं वह जीवन, जीवन नहीं है, वह केवल भारमय जीवन हो जाता है और हमारा यह जीवन पृथ्वी के लिए भार बन जाए, अड़ोस-पड़ोस हमारे जीवन के कारण कंटक का रूप धारण कर लें। उसके लिए नीतिकार कहते हैं-मर जाना अच्छा है, पर धर्म बिना जीना अच्छा नहीं है क्योंकि धर्म के अभाव में जीवन नहीं होता, केवल जीवन का अभिनय होता है, नाटक होता है। धर्म को समझो बन्धुओ! कि दया ही हम लोगों के लिए सबसे महान् धर्म माना जाता है और यदि दया हमारे जीवन से निकल गई तो हमारा जीवन ही निकल गया, यह ध्यान रखना। केवल आयु की पूर्ति की जा रही है। न ही उसका स्वर्ग लोक में कोई स्वागत होने वाला है, न ही अन्यत्र विशेष उच्च स्थान मिलने वाला है, बल्कि उसके लिए तो एक बहिष्कृत जैसा स्थान मिलने वाला है, जिसको अधोगति बोलते हैं। वहाँ का दृश्य आपके सामने आगे आ रहा है। धर्म के बारे में एक सन्त जी ने अपने प्रवचनों में कहा कि धर्म के प्रति समाज का, युग का कैसा, क्या लगाव है ? कुछ व्यक्ति गौधर्म से विमुख होकर जीवन जी रहे हैं। उनके लिए सहज रूप से कुछ धर्म का व्याख्यान किया, प्रवचन दिया। बहुत सारे लोगों ने सन्तजी के प्रवचन को समझा कि वस्तुत: ऐसा नहीं होना चाहिए और अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार परोपकार के लिए, दया के लिए, दान के लिए, सेवा के लिए आदि-आदि जो एक जीव को दूसरे जीव से मिलाते हैं, उस दयामय धर्म को पालना चाहिए। ऐसे दयामय धर्म के माध्यम से उस अलगाव को दूर करने के लिए.उस दूरी को मिटाने के लिए, उस भेद रेखा को समाप्त करने के लिए प्रयास करना चाहिए। ऐसी बातें करने लगे अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार उस धर्म का पालन करने का संकल्प लेकर सब चले जाते हैं। एक व्यक्ति दूर खड़ा होकर सुन रहा था। उसका भी भाव धर्म के प्रति बहुत पास आने को हुआ, लेकिन वह कहता है कि मैं पास कैसे आ सकता हूँ ? मेरे जीवन में तो दया का अंकुर भी नहीं फूटा है और दयामय जीवन अपना लेता हूँ तो मेरा जीवन समाप्त हो जाएगा। यह धर्म-कर्म हमारे भाग्य में नहीं लिखा, इस तरह वह पश्चाताप कर रहा है। लेकिन उस पश्चाताप का भी परिणाम ऐसा निकलता है कि सन्त जी इस दृश्य को देखकर जान लेते हैं कि इसके मन में क्या भाव उमड़ रहे हैं ? आरोहण-अवरोहण क्या हो रहा है ? उन्होंने उसको बुलाया-आ जाओ इधर, वह घबड़ा गया। सन्त जी मुझे बुलाते हैं, नहीं जाता हूँ तो गड़बड़, जाता हूँ तो गड़बड़, क्या करें ? सन्त जी के जाल में तो आ ही गये। मैं तुम्हारी घबराहट को जान रहा हूँ, घबराओ नहीं आप। वह पास आ गया। अब अपनी बात कह सकते हो। देखो सन्तजी, हम आए हैं। आपके प्रवचन बहुत सुन्दर हैं, हम लोगों का भाग्य था। जिन्होंने सुना उन्होंने अपने ढंग से धर्म पालन करने के लिए संकल्प लिए लेकिन मैं गुरु से कह रहा हूँ और दिल से कह रहा हूँकि मैं किसी भी बात को अंगीकार नहीं कर सकता, क्योंकि आपका धर्म बहुत मुँहगा है। हमें चाहिए सस्ता। देखो बाजार में सभी प्रकार के ग्राहक आते हैं। सारे के सारे श्रीमान् आते हैं, ऐसी तो बात नहीं है, ऐसे भी होते हैं जिनके पास नोट भी नहीं और खाकर चले जाते हैं। उनके लिए भी बाजार होना चाहिए। सन्त जी कहते हैं भइया! हम क्या कहें, तुम्हारे पास कुछ ना कुछ तो होगा? पर हमारे पास तो कुछ भी नहीं है। कुछ ऐसी चीज मैं देता हूँ उसको ग्रहण कर लेना। बहुत अच्छी बात है। मैं अपनी तरफ से कह देता हूँ, मैं मांस का त्याग नहीं कर सकता, झूठ बोलना छोड़ नहीं सकता, चोरी किए बिना मेरा जीवन चल नहीं सकता और जो कुछ भी संकल्प की बातें हैं वह सारी की सारी मैं कर नहीं सकता। फिर भी इसके उपरान्त आपके पास ऐसी औषधि हो तो दीजिए मैं स्वीकार कर लूँगा। आज तक इस दुकान पर आया ग्राहक लौटा नहीं, यह ध्यान रखना, यह विश्वास है दुकान का। सन्त जी कहते हैं कि तुम मांस का त्याग नहीं कर सकते? नहीं, हमारी आजीविका इसी से चालू होती है। अच्छी बात है, आप यह नहीं कर सकते ? कोई बात नहीं, आपका काम क्या है ? मैं तो मछली मार, धीवर हूँ। मांस का त्याग तो नहीं कर सकते, क्यों नहीं कर सकते? वह मेरा सब कुछ है लेकिन तुम्हें त्याग करना है। कैसे त्याग करना? आप ही करा दो, जीवन को समाप्त करना है तो आप करा दो, दूसरे दिन उपवास हो जायेगा। तुम प्रतिदिन जाकर के जाल फेकते हो तालाब-नदी में तो उसमें जो पहली मछली आती है उसको छोड़कर फिर इसके उपरान्त जो कोई आ जाए उसको पकड़ लेना, यह तो बन जाएगा? यह तो बहुत आसानी की बात है, देखो आपने संकल्प लिया है, अच्छे से निभाना। यह संकल्प तो ब्रह्मा भी आ जाए तो नहीं छूट सकता क्योंकि इसमें कुछ है नहीं हमारा। एक दो मछली आ जाये तो उसको छोड़ देना यह बहुत अच्छी बात है, सस्ता भी है, देखो संकल्प है। हाँ! जब तक घट में प्राण तब तक आपको मैं याद करता रहूँगा कि हमने भी कुछ संकल्प लिया था, दूसरे दिन वह जाल लेकर कुछ निशान कर छोड़ने के उपरान्त दुबारा जाल फेंक दिया, थोड़ी देर बाद वह देखता है मछली तो आई है लेकिन जिसकी पूँछ में चिह्न था वही आई है, उसको पुन: छोड़ दिया क्योंकि पहली मछली को नहीं पकड़ना है, अगली बार जाल फिर फेंका, तीसरी बार भी फेका लेकिन वही मछली आई, फिर उस स्थान को छोड़ दिया, आधा किलोमीटर दूर जाकर के फिर फेंक दिया लेकिन वहीं मछली उस दिन आई। चौथी बार भी वही आई, इस ओर छोड़ कर उस ओर गया, फिर भी वही मछली आई, महाराज जी ने कोई जादूतो नहीं किया, जादू नहीं संकल्प तो संकल्प है, पूरा दिन चला गया, अब दिन ही समाप्त हो गया तो कैसे करें ? वह शाम को खाली हाथ लौटकर आया, क्योंकि गृहमन्त्री को हाजिरी देनी आवश्यक थी। गृहमन्त्री, आप समझते ही हैं कौन है ? कमा करके ले आयेंगे तो कुछ करेंगे लेकिन ऐसी स्थिति हो गई कि आने से पूर्व ही दरवाजा बंद कर दिया। अन्दर से आवाज आयी जहाँ से आए, उधर ही चले जाओ, दरवाजा बंद ही रहा। एक दिन भी नहीं हुआ धर्म को धारण किये और दूसरे दिन ही घर से बाहर निकलना पड़ा। फिर भी संकल्प तो संकल्प, वह बाहर रह जाता है, सर्दी का समय, सांय-सांय करती हवा, किन्तु उसको ओढ़ने को कुछ भी नहीं, रात्रि के समय कहीं जाना अच्छा न समझ वहीं विश्राम करने की कोशिश करता है, जैसे-तैसे कुछ समय के लिए नींद आती है, कि तभी एक सर्प अपने बिल को छोड़कर बाहर आता है और उसे काट देता है, विष के आधिक्य से वह मरण को प्राप्त हो जाता है। किन्तु उसकी गति कहाँ हुई, मालूम है आपको? वह एक महान् धार्मिक खानदान में जाकर जन्म लेता है, कितना क्या त्याग किया था और उसका फल क्या मिला? दया धर्म का पालन करने के लिए अपनी रोजी रोटी में से पहले की एक मछली त्याग का यह परिणाम। मात्र पहली मछली को छोड़ देना, जिसको आप बोलते हैं बोनी। वह उसकी दुकान थी। पहली मछली का उसने त्याग किया। आप लोगों के पास भी दुकान है, आप लोग क्या करते हैं, पहले ग्राहक को छोड़ देते हैं ? नहीं, पहले ग्राहक से तो नोट आते ही रख देते हैं। उसने कितना बड़ा काम किया कि पहले ग्राहक को छोड़ दिया, जिसके ऊपर आप तिलक लगा करके रख देते हैं। यहाँ पहले ग्राहक का ही क्या हुआ भगवान ? सोचो, विचार करो, आर्थिक विकास के लिए अर्थ का अवलम्बन लेना ठीक है, लेकिन जीवन ही बन गया अर्थ के लिए। जीवन चलाने के लिए भोजन तो ठीक है, लेकिन भोजन के लिए ही जीवन बन गया। यह तो गड़बड़ है। अपनी रक्षा तो ठीक है, लेकिन अपनी रक्षा के लिए दुनियाँ भी मिट जाए इससे कोई मतलब नहीं। यह कहाँ का धर्म है ? आज विश्व का प्रत्येक सदस्य, प्रत्येक राष्ट्र का नागरिक अपना देश, अपना नगर, अपना मोहल्ला, अपना घर कहता है, लेकिन होता क्या है भाई-भाई भी छूट जाते हैं और बहिन भी छूट जाती हैं। पति भी छूट जाते हैं। धर्म के अभाव में व्यक्ति केवल स्वार्थ परायण हो जाता है। अपने जीवन के बारे में, अपनी सुख-सुविधाओं के बारे में कोई भी कमी आ जाती है तो वह रोष खा जाता है। रोष खाना उसका जीवन बन गया है। ऐसा रोष कि उसे यह होश नहीं रहता कि मेरा जीवन किसके ऊपर और कैसे चलता आया है। माँ-बाप-दादाओं ने मेरे लिए क्या-क्या किया? अड़ोस-पड़ोस का कितना उपकार मेरे ऊपर है ? छोटे-छोटे पेड़-पौधों का भी मेरे ऊपर कितना प्रभाव है, आप जानते हैं ? ऊपर कपड़ा तन गया, नीचे दरी बिछ गई धरती पर फिर बाद में आकर आप बैठ गए, लेकिन क्या-क्या हुआ मालूम है आपको? इसी प्रकार आपके जीवन को, पार्थिव शरीर को चलाने के लिए कितने-कितने जीव सहयोग देते हैं। वायु आपको कुछ समय के लिए नहीं मिले तो क्या होता है ? प्रदूषण फैल जाएगा। सूर्य प्रकाश आपको नहीं मिलेगा तो आपके शरीर में अपने आप ही खून का पानी होने लग जाएगा। सूर्य प्रकाश के माध्यम से आपके खून की गति होती रहती है। वह रिफाइन होता रहता है। आप भोजन लेते हैं। कई प्रकार के साग-सब्जी खा लेते हैं। वह नहीं हो तो आपको यह जीवन नीरस लगता है। आखिर आप लोगों के जीवन में सहयोग की कितनी गिनती है, ज्ञात है? और उन सब लोगों के जीवन के लिए आप लोगों का जीवन कहाँ तक उपयोगी सिद्ध होता है ? यह कभी देखा, कभी जाना, कभी पहचाना, कभी सोचा, कोशिश तो कम से कम करते। लेकिन इतना स्वार्थ, इतना अपनत्व केवल अपने से भी बढ़ नहीं सका, इसी का नाम कलयुग है। और उसका नाम है सतयुग, जहाँ पर के लिए सब कुछ समर्पण करके आगे चला जाता है। वहाँ पहले जीवन दान की बात थी, पहले दान, फिर बाद में खान। फिर वह भीतर-भीतर कहता है कि यह जीवन कब समाप्त होगा मेरा? मैं हिंसा के माध्यम से चल रहा हूँ, ऐसा कोई जीवन मुझे मिले ताकि मैं हिंसा से बच सकूं, मैं चोरी से बच सकूं, मैं झूठ से बच सकूं। यह जीवन अहिंसामय कब बन सकेगा? यदि इस प्रकार के भाव प्रत्येक मनुष्य के जीवन में आते हैं तो इसी काल का नाम सतयुग है। सतयुग में सत्य का, अहिंसा का वरदान होता है और इतनी वृद्धि होती है, विकास हो जाता है अहिंसा का कि बाद में हिंसा तो अपने आप ही शान्त हो जाती है। आज हिंसा का तूफान-ताण्डव नृत्य चल रहा है। रावण जैसी घटनायें मामूली बात हो गई हैं। आज घर-घर में रावण हो गए हैं। राम की प्रतिमा मिल सकती है, मन्दिर मिल सकते हैं लेकिन घर जितने हैं सब रावण के ही हैं। मन्दिरों की स्थापना कर दी, उसके ऊपर ध्वजा चढ़ा दी और शिखर के ऊपर कलश चढ़ा दिया। राधेश्याम मन्दिर, राम मन्दिर, कृष्ण जी का मन्दिर, महावीर का मन्दिर बन गया। आप लिखते चले जाइये, प्रतिमा की पूजा करते चले जाइये, जबकि प्रत्येक आत्मा में जो आत्मराम बैठा है वही राम का साक्षात् रूप है, उसको देखकर यदि घृणा करते हो, उसकी रक्षा के बारे में, उसके ऊपर दया करने के बारे में सोच भी नहीं, विचार भी नहीं तो वह राम की प्रतिमा कभी आपसे प्रसन्न नहीं हो सकेगी। वह जीवन (धीवर का) प्रतीक है। इस प्रतीक के माध्यम से जो राम का जीवन था उसको कुछ महसूस करना चाहिए। लेकिन वह घटना तभी हमारे जीवन में घट सकती है, जब प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को पहचानने का प्रयास करेंगे। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को समाप्त करने में अपने विशेष ज्ञान का योगदान दे रहा है, खोजछानबीन कर रहा है। एक-एक राष्ट्र कवल बन जायेगा तो यहाँ पर रहेगा कौन? यह दिव्यध्वनि बार-बार सुनने में आ जाती हैं-तीसरा विश्वयुद्ध यदि होगा तो चौथे विश्वयुद्ध के लिए कोई यन्त्र नहीं बचेंगे, वह केवल पाषाण के माध्यम से होगा अर्थात् पाषाण को आयुध बना करके होगा। इसे पाषाण युग बोलते हैं, आदि युग बोलते हैं, तीर-कमान वाली बात नहीं, ऐसी स्थिति क्यों आयेगी? इसलिए आयेगी कि इतना नरसंहार हो जायेगा कि धर्म का नामोनिशान तक नहीं रहेगा, लेकिन धर्म का अवतार यदि हो जाता है तो सब कुछ बच सकता है, लेकिन बचना असंभव-सा हो रहा है, क्योंकि धर्म का स्थान, धन ने पा लिया है और ऐसा अस्तित्व जमा लिया, कि जैसे धर्म का कोई अस्तित्व बचा ही नहीं। आज धन सिर पर है अर्थात् धन सब कुछ है लेकिन धर्म के लिए जमीन तक खाली नहीं, स्थिति यह हो गई कि जो मूल्यवान है उसका अवमूल्यन हो गया और जिसका कोई मूल्य नहीं था उसको हमने सिर पर रख लिया, धन के लिए आज सब कुछ किया जा सकता है, तन की रक्षा के लिए आज सब कुछ किया जा सकता है, नरसंहार हो जाए कोई बात नहीं, लेकिन ध्यान रखो तब भी हमारा जीवन सुरक्षित नहीं है। धीवर देवलोक में गया, दया की यही तो विशेषता है, ऐसी दया आपको भी अपनानी चाहिए। महावीर ने और कोई सन्देश नहीं भेजा, राम का जीवन और कुछ नहीं था, हम लोगों के लिए उपदेश दिया है राम ने महावीर ने और युग के आदि में वृषभनाथ ने, दया को ही एक मुख्य स्थान माना उन्होंने। दया की पूर्ति के लिए अहिंसा और सत्य को आवश्यक माना। चोरी का त्याग भी आवश्यक कहा, परिग्रह/लोभवृत्ति भी उसी के समाप्त हो सकती है जिसके घट में दया विद्यमान रहती है। रागद्वेष जीतना महावीर भगवान् की अहिंसा धर्म का पालन करना है। जो राग नहीं करेगा, द्वेष भी नहीं करेगा, वह निश्चित रूप से अहिंसा धर्म का पालन कर रहा होगा। कैसे होगा? कुछ पदार्थों की अपेक्षा से राग होता है, कुछ से द्वेष। यदि किसी की आवश्यकता नहीं पड़ेगी तो वह रागद्वेष कैसे कर सकता है ? रागद्वेष नहीं करेगा तो दूसरे के पदार्थों को उठा भी नहीं सकेगा, उसी का परिणाम वह हमेशा आपको आदर्श के रूप से देखता चला जाएगा। इस प्रकार जीवन हम लोगों का स्वयं अपने से बनता है निश्चत रूप से युग कोई भी हो स्वर्ग उतर कर धरती पर आ जाता है अगर हमारा जीवन दया से भरपूर हो तो। यह ध्यान रखना कि हमेशा-हमेशा धरती से स्वर्ग का निर्माण होता है, स्वर्ग कोई लोक नहीं है जहाँ कि लोग रहते हों। यहाँ के ही लोग स्वर्ग चले जाते हैं, आप बोलते हैं स्वर्गवास हो गया। वह कहाँ चला गया? स्वर्गलोक चला गया। क्या हो गया? दिवंगत हो गए, कोई ऐसा नहीं कहता नरकगत हो गए। यहाँ से ही स्वर्ग का निर्माण होता है, यदि यहाँ कोई धर्म नहीं करेगा तो स्वर्ग ऊपर से सब खाली हो जाएगा लेकिन ऐसा कभी नहीं होता। यहाँ पर रह कर अहिंसा का पालन करने वाला व्यक्ति स्वर्गों में जाकर के मान-सम्मान पा जाता है और ऐश्वर्य को प्राप्त करता है फिर उस ऐश्वर्य की इच्छा कभी भी दिल में नहीं रहती। क्योंकि उसका सम्यक चिन्तन प्रारंभ होता है कि जब मैं स्वयं ही ईश्वर हूँ तो फिर कौन-सा स्वर्गीय ऐश्वर्य मेरे सामने आने वाला है ? ईश्वर जो होता हैं, उसी के पास ऐश्वर्य रहता है। स्वर्गों में ऐश्वर्य रहता है, यह केवल कहने में आता है। वास्तविक ऐश्वर्य तो ईश्वर के पास है। ईश्वर का अर्थ रागद्वेष जो नहीं करता और अहिंसा व्रत का पालन करता है। दयामय में हमेशा-हमेशा लीन रहता है, उसी का नाम ईश्वर है। "जिसने राग द्वेष कामादिक जीते सब जग जान लिया।" कोई इच्छा भी नहीं, आज कोई भी माँ बेटे के लिए कुछ उपदेश इसलिए देती है अथवा पालन-पोषण भी इसलिए करती है कि कम से कम अन्त में बेटा मुझे पानी तो पिला देगा। बेटी होगी तो वह चली जाएगी, लेकिन बेटा निश्चित रूप से पानी पिलाएगा। इसलिए वह माँ अपनी पूर्ति के लिए अन्तिम घड़ी को सामने रखकर के अच्छे ढंग से पालन-पोषण करती है अर्थात् वह स्वार्थ रखती है। स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या वह नहीं कर पाती। इसी प्रकार पिता भी सोचता है, कि कम से कम अन्त में अग्नि संस्कार तो कर देगा, यह बड़ा काम है। अपने घर का लड़का आ जाता है तो ठीक है, नहीं तो भैया, दूर-दूर सम्बन्ध जोड़कर वंश की परम्परा को जोड़कर उसका अन्तिम संस्कार होता है। नहीं आता तो किसी भी प्रकार से गोद लेना पड़ता है, दत्तक पुत्र जिसको बोलते हैं, वह अपनी सोचता है, अपने धर्म की रक्षा के लिए भी सोचता है। अब मास्टर लोग भी सोचते हैं, मुझसे पढ़ा-लिखा कोई भी लड़का होगा तो मेरा नाम हमेशा-हमेशा होगा लेकिन प्रभु कितने बड़े काम करते हैं किन्तु स्पृहा कुछ भी नहीं रहती, इच्छा कुछ भी नहीं रहती, बदले में कुछ नहीं चाहते। अरे जो प्रभु हो वह दुनिया से क्या चाहेगा? और प्रभु के लिए ऐसी कौन सी पूर्ति करेगी दुनिया? राग के माध्यम से वीतरागी को क्या लाभ मिलेगा? सोचो, विचार करो। जिसको धन नहीं चाहिए, धनिकों से उस व्यक्ति के लिए क्या फायदा? बोलो आप लोगों से हमें क्या फायदा? कोई फायदा नहीं, क्योंकि आप रागी हैं, हम राग चाहते नहीं, फिर यहाँ क्यों आये? एक बात है, हम बता देते हैं आपने बुलाया इसलिए हम आए। रुक जाओ, ऐसी कोई राग की बात मत करो, हम तो इसलिए आए कि इस मार्ग का परिचय इन लोगों को भी हो जाए। यहाँ पर गाड़ियाँ पेट्रोल के लिए तो रुक ही जाती हैं, लेकिन निश्चित है कहाँ पर जाती हैं ? Signboard को कभी नहीं निकाल सकते, अर्थात् यह गाड़ी कहाँ पर जा रही है ? कैसे जा रही है साइनबोर्ड को देखकर आगे जाती है पर बोर्ड को कोई स्पृहा नहीं? वह गाड़ी से कुछ चाहता नहीं। उसी प्रकार हम आप लोगों से कुछ चाहेंगे नहीं, किन्तु ये जरूर चाहेंगे कि इन लोगों का जीवन राग से रहित, विषयों से रहित हो, प्रेम-वात्सल्य का सागर बन जाए। जीव-जीव को पहचाने, अभी अजीव की ओर ही इन लोगों की ज्यादा गति हो रही है और अजीव की रक्षा के लिए जीव के ऊपर प्रहार किया जाता है। स्वयं रहना चाहता है मकान में और वह भी दूसरे के मकान को गिरा करके। कभी दूसरे के मकान में बैठ कर सोचता है कि यह मेरा मकान है। इस प्रकार लड़ाई हो जाती है और तीसरे व्यक्ति को लाभ मिलता है, इस प्रकार फूट भी पड़ जाती है। चोरी भी हो जाती है और एक दूसरे के लड़ने से हिंसा भी हो जाती है। इस प्रकार जो संघर्ष विश्व में है वह केवल रागद्वेष के कारण ही है, और जीव तत्व को नहीं पहचानने का यह परिणाम है। आप जीव की ओर दृष्टिपात करिये। अपने आप ही बीच की बात समाप्त हो जायेगी। जब तक यह परिग्रह-लोभ का पर्दा एक दूसरे के बीच में रहेगा तब तक आप पर्दे की उस ओर जो है, उस चैतन्यतत्व की पहचान नहीं कर पायेंगे। राम, रावण की आत्मा को जान रहे थे लेकिन रावण, राम को नहीं पहचान पा रहा था। रावण के सामने केवल सीता ही सीता थी। सीता बीच में आ रही थी। यह सीता किसकी है ? राम की। उसको समाप्त करना है। देखो सीता के कारण रावण की बुद्धि में यह आया। राम का इतना व्यक्तित्व निखरा हुआ था, लेकिन देखने में नहीं आया। भारत का ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जिसको राम न रुचते हों, राम के लिए रावण काँटा नहीं था, लेकिन रावण के लिए राम हमेशा काँटा थे। रावण को ये सोचना आवश्यक था कि यह धर्म का काँटा है जो मेरे ऊपर प्रहार नहीं कर रहा। मैं राम को, मार कर रहूँगा, यह केवल सीता के कारण। इस प्रकार का काँटा पड़ गया रावण के जीवन में। वस्तु को आप वस्तु के रूप में समझ लीजिये। रावण सीता को सीता के रूप में समझता तो बहुत भला हो जाता, राम ने कभी भी मन्दोदरी की ओर नहीं देखा, राम ने और किसी की ओर नहीं देखा, केवल सीता-सीता कहता गया, यह धर्म है, यह कर्म है, यह एकमात्र जीवन का रहस्यमर्म है। इस डोर में हम बंध करके चलेंगे तो निश्चित रूप से शिवलक्ष्मी हमारे स्वागत के लिए खड़ी होगी। सुख संपदा हमारा स्वभाव है किन्तु हम आपदाओं को मोल ले रहे हैं, उसी के कारण इस प्रकार नीरस जीवन बना हुआ है। एक मछली का त्याग भी देवत्व को प्रदान कर सकता है लेकिन ध्यान रखना उसके पीछे उसके प्राण भी चले गये। घर से बाहर भी निकाला गया, लेकिन उसने भीतर कभी भी ऐसा नहीं सोचा कि हमने संकल्प छोटा सा लिया था। संकल्प छोटा नहीं होता, संकल्प हमेशा बहुत बड़ा हुआ करता है वह खसखस के दाने के बराबर बीज है लेकिन बोने के उपरान्त बड़ का पेड़ बन जाता है। धर्म की बात तो बोलने की हो, करने की हो, विश्वास की हो, वह बात तो बात है, वह ऐसी है कि उसके सामने आकाश भी छोटा पड़ जाता है। वह तीन लोक का नाथ बनाने वाला होता है। अहिंसा पालन के बारे में ऐसा मत सोचिए कि मेरे में शक्ति नहीं है। यह सत्य है कि अहिंसा एक संकल्प है। और वह निश्चित रूप से विकास करेगा, किन्तु कब, कैसे और कहाँ से पता नहीं पड़ेगा। बीज बोते हैं तब पता नहीं लगता किन्तु जब पेड़ होकर आता है सामने तब मालूम होता है कि बड़ का बीज कितना छोटा था और उसका परिणाम कितना बड़ा निकला। धर्म के क्षेत्र में भी आप हृदय से, मन से, वचन से, काय से, कृत से, कारित से और अनुमोदन से सच्चाई के साथ, आस्था के साथ यदि बीज बो लेते हैं तो कुछ ही समय के उपरान्त वहाँ पर बड़ का निर्माण हो जाता है। धीवर धीमानों में भी श्रेष्ठ था। वर माने श्रेष्ठ और धी माने बुद्धि वाला सो धीवर । उसका नाम भी अच्छा रखा। धीवर है उसका नाम, जो कि सार्थक है। उसके पास भी बुद्धि थी। चैतन्य आत्मा का स्वभाव है, उस स्वभाव के माध्यम से सोचो, विचार करो। अनुकम्पा, दया, करुणा फूटना चाहिए। अपने गुरुदेव ज्ञानसागर जी ने “दयोदय चम्पू' काव्य लिखा है उसमें इसी कथा का विस्तार है। धीवर की कथा का नाम रखा दयोदय, दया का जिसके जीवन में उदय होता है उसका नाम दयोदय और वह चम्पू काव्य है। संस्कृत काव्य है, उसका एक श्लोक मुझे याद आ गया। आप लोग भाग्यशाली हैं इसलिये वह श्लोक याद आ गया, उन्होंने बताया है जीवन कैसा होना चाहिए ? परोपकाराय दुहन्ति गावः परोपकाराय वहन्ति नद्यः। परोपकाराय तरोः प्रसूतिः, परोपकाराय सतां विभूतिः॥ महाराज जी ने चार चरणों में हमारे जीवन की पूरी की पूरी योग्य बातें कह दीं। तीन चरण तो प्रकृति के लिए हैं और चौथा विद्वान् कौन है या सज्जन कौन है? साधु कौन है ? इसकी व्याख्या एक चरण में की गई है। तीन चरणों की बात आपके सामने पहले मैं कह रहा हूँ- "परोपकाराय दुहन्ति गावः" गाय क्या खाती है ? घास-फूस खाती है, खली खाती है। तेल आप निकाल लेते हैं और कूड़ा-कचरा जो कुछ रह गया वह उसको मिलता है वही खली वह खाती है लेकिन फिर भी वह आपको क्या देती है? मीठा-मीठा दूध देती है। भले आप लोग पानी डाल दो लेकिन वह पानी मिला दूध नहीं देती। आज तक ऐसी कोई गाय नहीं देखी जिसने कि पानी मिला दूध दिया हो। पानी पेट में जाता होगा लेकिन कभी पानी मिला कर दूध का संग्रह नहीं किया। वह अपने दूध को रखने का भाव भी नहीं करती आप लोग उसके दूध को पूरा का पूरा निकाल लेते हैं। संभव है उस दूध को वह स्वयं पी ले, प्यास लग जाए, भूख लग जाय, लेकिन ऐसी गाय को देखा तो कभी नहीं, जो अपने दूध को स्वयं पी ले, देखा? आप लोगों का प्रभाव पड़ गया होगा, पंचमकाल का। ऐसी कोई गाय नहीं है जो स्वयं दूध पी ले। देखो आप लोगों के सौभाग्य की बात है कि छोटी-सी घटना और याद आ गई। महावीर जी, राजस्थान में एक गाँव है जो कि गम्भीर नदी के तीर है। वहाँ पर क्षेत्र बसा है। वहाँ की यही तो घटना है कि वह गाय दिन भर चर लेती लेकिन एकाध माह से दूध से रिक्त होकर आ जाती। उस ग्वाले ने सोचा क्या बात हो गई, गाय का दूध कौन पीता है ? बछड़ा पीता है या कोई निकाल लेता है। एक बार, दो बार देखा, कुछ मिला नहीं। तीसरी बार देखा तो गाय ने वहाँ पर दूध छोड़ दिया जहाँ चट्टान जैसी शिला है। उस ग्वाले ने सोचा कि इस शिला के नीचे कोई ने कोई चमत्कार होना चाहिए। देखो गाय इतनी होशियार होती है, इतनी सयानी होती है कि भीतर के भगवान् को बाहर ला सकती है। दृष्टि की बात है, ग्वाले ने सोचा-मेरी गाय पालतू है, किसी को दूध नहीं देती, यहाँ पर दूध छोड़ती है। इसका अर्थ है "परोपकाराय दुहन्ति गाव:"। आज तक हजारों, लाखों, करोड़ों व्यक्ति गए होंगे वहीं पर और उन महावीर भगवान् के चमत्कारों से प्रभावित भी हुए होंगे। महावीर भगवान से - विनती भी की होगी किन्तु गाय ने अपनी कोई बात भगवान् के समक्ष नहीं रखी। इसके उपरान्त "परोपकाराय वहन्ति नद्यः", नदियाँ बहती जा रहीं हैं। उनमें किसी का कोई असर नहीं किन्तु आपने अपनी छाप उन पर भी लगा दी कि नागपुर की नदी, जबलपुर की नदी आदि। वह अपनी यात्रा नहीं छोड़ती, प्यासे की प्यास बुझाती है, कोई जो थक गए हों उनको प्रशस्तता लाने के लिए नदी यहाँ से वहाँ दौड़ती चली जा रही है। जहाँ से वह जाती है वहाँ की भूमि बहुत ही उपजाऊँ हो जाती है, वह परोपकार के लिए है। "परोपकाराय तरो: प्रसूति:" यह पृथ्वी पूत मानी जाती है। पूत माने पुत्र होता है, पृथ्वी का पुत्र कौन आप? नहीं, आप पृथ्वीपाल हो सकते हैं लेकिन पृथ्वीपूत नहीं, पृथ्वीपूत का अर्थ पेड़ होता है, पूत वह होता है जो अपने लिए कुछ नहीं रखता है और वह हमेशा दूसरे के लिए छाया प्रदान कर देता है, फल प्रदान कर देता है, सब कुछ कर देता है, किन्तु वह स्वयं कुछ भी खाता-पीता नहीं, पृथ्वी के लिए हमेशा-हमेशा स्थान बनाए रखता है। पूत सपूत हो तो का धन संचय। पूत कपूत हो तो का धन संचय। बुन्देलखण्ड में यह एक कहावत है-पुत्र कपूत नहीं होना चाहिए बल्कि सपूत होना चाहिए। पृथ्वी का नाम हो सकता है, पृथ्वी का काम हो सकता है नहीं तो पृथ्वी उन व्यक्तियों से बदनाम हो जाएगी, जो व्यक्ति कपूत का काम कर जाता है। धनसंचय करने से कुछ नहीं होता। जिसके पास नहीं। किन्तु जिसके पास एक टका भी नहीं किन्तु ज्ञान है, परोपकारिता है, धर्म है उसके पीछे लक्ष्मी पड़ जाती है, तो यह है 'परोपकाराय तरो: प्रसूति।" अब "परोपकाराय सतां विभूति:।" आपका मन, आपका तन, आपका धन, आपके वचन आदि परोपकार के लिए लग जायें। आप ऐसा बोलिए जिसके द्वारा दूसरा खिल उठे, प्रसन्नता का अनुभव करे। आप अपने मन में दूसरों की भलाई के बारे में सोचिये, आपका तन दूसरों के संकट को, दूर करने के लिए कारण बन जाए, अगर इस प्रकार आपका जीवन बन जाता है तो आप में सज्जनता निश्चित रूप से है लेकिन यह बहुत कम हो पाता है। आपका समय हो गया। महाराजजी ने कहा था-यह कारिका हमेशा-हमेशा के लिए याद रखना चाहिए और इसका अनुकरण कर लेना चाहिए, ताकि हम राम बनें, महावीर बनें और आदिनाथ प्रभु के समान बनें किन्तु रावण को स्वप्न में भी याद न करें। क्योंकि रावण का जीवन हम लोगों को अभिशाप है, वह स्वयं के लिए भी अभिशाप हुआ और पर के लिए भी। इसलिए जो वरदान सिद्ध हो उसी जीवन की उपासना करनी चाहिए।
  6. तपस्वी/साधु विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार तपस्वियों को प्रणाम करने से उच्च गोत्र का बंध होता है, साधु बनने योग्य संस्कारित परिवार में उत्पन्न होता है। तपस्वियों मुनिराजों की पूजा करने वालों को हर जगह सम्मान प्राप्त होता है। तपस्वियों की स्तुति करने से भक्त की कीर्ति स्वर्गों तक पहुँच जाती है। देवता भी उसके गुणगान करते हैं। तपस्वियों की दृष्टि में हमेशा आत्मतत्व रहता है। जिसे यहाँ अर्थात् मुनि अवस्था में बेचैनी हो गई तो हम उन्हें चैन कहीं से लाकर के नहीं दे सकते हैं। साधु माने सजनता का व्यवहार करने वाला, भलाई करने वाला, साधुवाद का प्रणेता। कल्याण मार्ग पर आना, साधुमार्ग पर आना है। जो साधु के चरणों में आ जाता है, उसे कुछ शेष नहीं रह जाता है। साधु 'सा' माने छह 'धु' माने धोता। छह कर्मों को धोकर साधना में लगने वाला साधु है। साधु-सन्तों से जन-जन का जब तक सम्पर्क नहीं होता, उनके आसपास के मार्ग से जब तक साधुओं का विहार नहीं होता तो जनता को भी संस्कारित होने का अवसर नहीं मिलता। श्रमणों के पास आने के लिए श्रम तो करना पड़ता है किन्तु भ्रम दूर हो जाता है। गुरुओं से कुछ नहीं मिलता ऐसा नहीं है बल्कि उनसे जो मिलता है वह दुनिया में कहीं नहीं मिलता। अपनी इन्द्रियों पर जो लगाम लगाकर ज्ञान, ध्यान और तप में व्यस्त रहता है वह तपस्वी माना जाता है। अपने सिर दर्द को गौण कर अन्य की पीड़ा दूर करने वाला त्यागी कहा जाता है। वही शिष्य गुरु बनता है जो गुरु की एक-एक बात को जीवन में उतार लेता है। ऐसा ही शिष्य गुरु के गौरव की वस्तु बनता है। कैसा भी कर्म का उदय आ जाये अब अनुकूल हो या प्रतिकूल परन्तु विश्वास तो यह है कि अब नियम से कूल किनारा मिलेगा। इसी को कहते हैं श्रामण्य। श्रमणता पाने के उपरांत किसी भी प्रकार की कमी अनुभूत नहीं होना चाहिए। वैराग्य में कमी आ जाये तो अनित्य भावना का स्मरण कर लीजिए अपने आप ही शांति हो जायेगी। गुरु महाराज हमें वह रास्ता दिखाते हैं जो भव-भव में काम आता है। वैराग्य जो धारण करता है उसके लिए परिणमन के माध्यम से और द्रव्य की वस्तुस्थिति देखने से भी घबराहट नहीं होती है। ये ही उसका स्वरूप है। गर्म जल भी आग को बुझा देता है क्योंकि आग बुझाना उसका गुण धर्म है ऐसे ही संत से किया गया अनुराग भी पाप कर्मों का नाश करता है। जैसे आप लोग एयरकंडीशन में से बाहर नहीं आना चाहते वैसे ही मुनि अपने अभेद स्नत्रयरूपी एयरकंडीशन से बाहर नहीं आना चाहते। आप लोग कहते हो साधुओं की चर्या कितनी कठिन है और हम सोचते हैं कि आप लोग कैसे कठिन पेपर को हल करते होंगे। हमारे पास २२ परीषह हैं। तो आप लोगों के पास २२०० से भी अधिक परीषह हैं। आप लोगों से हम प्रशिक्षण लेना चाहते हैं। गुरु और प्रभु के सामने माँग नहीं होती बिना माँगे ही सब कुछ मिलता है। गुरु कृपा से बाँस में से भी श्वाँस निकलती है तो सुरीली बाँसुरी बनती है। गुरु वचन पालन करने के लिए हैं। सुनने के लिए मात्र नहीं हैं। संकेत की ओर जाना चाहिए यही गुरुओं के वचनों की सार्थकता है। गुरु की कुशलता इतनी है कि शब्द के अर्थ की ओर दृष्टि चली जाये तो वह हमेशा-हमेशा के लिए छप जायेगा। गुरु कभी भी डॉटे तो बुरा नहीं मानना, क्योंकि अपने को ही डाँटा जाता है, पराये को नहीं। सब लोगों के सामने एक को इसलिए डॉटा जाता है ताकि आगे सभी अपनी गलतियों को सुधार लें। शिष्य और शीशी को डॉट अवश्य लगाओ। उपयोग करो, अच्छी तरह और साधन को सुरक्षित रखो, ताकि जीवनपर्यत के बाद भी वह काम करता रहे। मोक्षमार्ग सम्बन्धी डॉट मुक्ति जब तक नहीं मिलेगी तब तक काम करती रहेगी। हम आलस्य करते हैं तो गुरु कान पकड़कर प्रेरित करते हैं। गुरु से ही प्रेरणारूप निमित्त कारण उत्पन्न होता है बाकी सब उदासीन आश्रम में रहते हैं।
  7. त्याग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार त्याग जीवन का अलंकार है, क्योंकि गृहस्थावस्था में भले ही राग भाव से विभिन्न प्रकार के अलंकार धारण किये जाते हैं लेकिन मुनि आश्रम में त्याग भाव ही अलंकार है। त्याग की साक्षात् जीवित मूर्ति के समागम के बिना त्याग के मार्ग में अग्रसर होना सम्भव नहीं है। त्याग के द्वारा जो अतिशय पुण्य संचय सम्यक दृष्टि को होता है, वह पुण्य का संचय मोक्षमार्ग में कभी बाधक नहीं बन सकता है। स्वार्थ का त्याग परमार्थ की सिद्धि के लिए सोपान का काम करता है। जो उपाधि को मिटाने की चेष्टा करता है, वह समाज में मिलने की चेष्टा करता है। अगर त्याग में आकुलता है तो वह त्याग नहीं आग है। त्याग एक ऐसा सरोवर है जिसके पास जाने के बाद गर्म लू भी ठण्डी बन जाती है। अपने पास आने का नाम ही त्याग है। दूसरों को जो अपना हाथ रखा है, उसको छोड़ना ही त्याग है। वस्तु का त्याग ही त्याग नहीं है, पर उसके साथ राग का भी त्याग करो। अपने आप पर अधिकार करने के लिए त्याग की जरूरत है। धन का पालन करने वाला धन्य नहीं हो सकता, लेकिन धन का त्याग करने वाला यदि धन के ढेर पर बैठ जाता है तो भी वह धन्य हो जाता है। सहयोग करने वाले का चरित्र सभी के चित्त पर सदा के लिए चिपक जाता है। मोह एक प्रकार का घाव है, उसे ठीक करने के लिए त्यागरूपी मलहम पट्टी करते रहने चाहिए एवं जिनसे ये घाव बढ़ता है ऐसे कषाय, राग-द्वेष, परिग्रह आदि भावों से बचना चाहिए। जिससे कुलाचार एवं श्रावक धर्म नष्ट होता है, ऐसी वस्तुओं का दूर से ही त्याग कर देना चाहिए। जिनका अभक्ष्य का त्याग है, उन्हें भक्ष्य पदार्थों का त्याग करना प्रारम्भ कर देना चाहिए। अभक्ष्य का त्याग वास्तव में त्याग में नहीं आता, वह तो बालकों का त्याग माना जाता है। बड़ों को तो इससे आगे बढ़ना चाहिए। उनके लिए सही त्याग तो भक्ष्य का त्याग है।
  8. तप त्याग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार गर्भ और जन्म कल्याणक में देवों के द्वारा होने वाली रत्नों की वर्षा से आपके घर की दरिद्रता भले ही मिट जाती है लेकिन मोक्षमार्ग में दरिद्रता तभी मिटेगी जब हम त्याग और तप की ओर बढ़ेंगे, वीतराग होंगे। त्याग के पहले जागृति पर अपेक्षणीय है, निजी संपत्ति की पहचान जब हो जाती है तब विषय सामग्री निरर्थक लगती है और इसका त्याग सहज सरलता से हो जाता है। तप दोषों की निवृत्ति के लिए परम रसायन है। मिट्टी भी तप कर ही पूज्य बनती है, अग्नि की तपन को पास करके ही वह पात्र के रूप में उपयोगी बन जाती है। सामान्य रूप से त्याग की आवश्यता हर क्षेत्र में है। रोग की निवृति के लिए, स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए, जीवन जीने के लिए और इतना ही नहीं मरण के लिए भी त्याग की आवश्यता है। त्याग तपस्या के बिना ना तो आज तक समाज का उद्धार हुआ है, न आगे होगा। तप उसी का होता है जिसने व्रत ले रखे हैं, जो अव्रती है आचारसंहिता का पालन नहीं करता, उसका स्वाध्याय, स्वाध्याय नहीं है और निर्जरा का कारण भी नहीं है। मुझे आप लोगों के निर्वाह के बारे में चिंता नहीं, निर्माण के बारे में चिंता है। आपका निर्माण धन के द्वारा नहीं होने वाला है, धन के त्याग में ही आपका निर्माण होने वाला है और आप मानते हैं कि हमारे जीवन का उद्धार धन के राग से होगा। ये गलत धारणा है। किसी भी आम के पेड़ ने स्वयं आज तक आम नहीं खाये। यदि कोई व्यक्ति उसके सारे आम तोड़ लेता है तो भी ठीक, क्योंकि उसने त्याग करना ही अपना धर्म बना लिया है। इन पेड़ पौधों से तुम त्याग करना सीखो। त्याग के बिना तपस्या का कोई मार्ग नहीं माना जाता और त्याग के बिना तपस्या नहीं की जाती है, तो मार्ग अधूरा रहता है। जो लोभ कर्म हमारे आत्म प्रदेशों पर मजबूती से चिपक गया है, जिससे हमारी स्वर्ग और मोक्ष की गति रुक गयी है, उस लोभ-कर्म को तोड़ने का काम यही त्याग धर्म करता है।
  9. तप विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जब घी जलता है तो उसकी दुर्गंध आती है और जब घी बनता है तो सुगंध आती है इसलिए तप को जलाओ नहीं। सुतप खुशबू फैलाता है और कुतप बदबू फैलाता है। जैसे किसान बीज की सुरक्षा करता है वैसे ही हमें तप की सुरक्षा करनी चाहिए। वरना बोने के काम नहीं आयेगा, अगले जीवन में क्या फसल मिलेगी? अगला जीवन इसी पर निर्भर करता है। जैसे द्वीपायन मुनि का तप सुरक्षित नहीं रहा और विष्णु कुमार मुनि का तप उचित समय पर प्रयोग में आ गया। चित्त को वश में रखना ही तप है। तप की परीक्षा उपसर्ग में होती है। मनुष्य जीवन में सबसे महत्वपूर्ण कार्य है जीवन को तपमय ढालना। विशुद्धि के साथ किया गया तप ही कार्यकारी होता है। जैसे दुकान पर तुरन्त लाभ पाने के लिए आप कड़ी मेहनत करते हो, ऐसे ही मोक्षमार्ग में तुरन्त मुक्ति पाने के लिए आचार्यों ने तप को रखा है। तप एक निधि है, जो सम्यक दर्शन, ज्ञान और चारित्र को अंगीकार करने के उपरांत प्राप्त करना अनिवार्य है। बिना तप का अनुष्ठान किये मुक्ति का साक्षात्कार संभव नहीं है। आज तो मात्र खाओ, पिओ और मौज करो वाली बात हो रही है। इसके बीच भी यदि कोई विषय-कषाय से विरक्त तप की ओर अग्रसर होता है जो यह उसका सौभाग्य है। इतना ही नहीं उसका सान्निध्य भी जिसे मिलता है वह भी सौभाग्यशाली है। तप का सागर पार कर मोक्ष का वरण किया जाता है। इस पार हम है उस पार वह लक्ष्य, मध्य में तप का सागर। विश्वास और आस्था की नाव पर सवार होकर प्रयोग की पतवार से हम उस पार हो सकते हैं। पूर्वजों ने उसे पार किया है। ताप के माध्यम से संताप का सागर छूट जाता है। सम्यक् तप करने से पुरुष बंधु की तरह लोगों को प्रिय होता है। संसार की वेदना को मिटाने के लिए तप रूपी बाम का उपयोग करना होगा। कार्य सिद्धि के लिए तप अपनाना ही होगा। तप से व्यक्ति सर्व जगत का विश्वास पात्र होता है। तप मनुष्य के लिए कामधेनु और चिन्तामणि रून के समान है। तप का वास्तविक उद्देश्य वीतरागता का पोषण संवर्धन है। वीतरागता ही वह परम रसायन है जिसके द्वारा कार्मिक वर्गणायें आत्मा से टूटकर गिर पाती है। आप लोग धूप खेकर सुगंधी बिखेरते हैं, लेकिन उत्तम तप धर्म को स्वीकार करने वाले महामुनि प्रतिदिन तपाग्नि में कर्म रूपी धूप को जलाते हैं और अपनी आत्मा को सुगंधित करते जाते हैं। तप वह साधना-पथ है जिसके माध्यम से जीव अपने लक्ष्य की मंजिल तक पहुँच सकता है। तप वह रसायन है जिसके द्वारा मन का पूर्णरूपेण संशोधन हो सकता है। आनन्द की चरम सीमा तक पहुँचने का एक अनन्य साधन तप है। निर्दोषिता की ओर बढ़ने के लिए यह तप अग्नि की तरह है। सम्पूर्ण दोषों को जलाने में तप ही प्रबलतम साधन है। तप वह है जिससे कामणि शरीर को धक्का लगे। तप द्वारा इच्छाओं को धक्का लगे तो वह तप है तप से तो संसार का विच्छेद होता है। बाह्य तप वह तप है जिससे आभ्यन्तर तप को बल मिले। जोर मत देना बाहरी तप पर, जोर दो अभ्यन्तर तप पर। इच्छा पर आघात करो। जैसे बड़ा बनाने के लिए बड़े को अग्नि परीक्षा देनी होगी। बिना अग्नि में तपे बड़ा नहीं बन सकता। इस प्रकार केवलज्ञान की प्राप्ति स्नत्रय के साथ एक अंतर्मुहूर्त तक ध्यानाग्नि में तपे बिना सम्भव नहीं होती। ध्यान की अग्नि में तपकर ही परम पद का स्वाद पाया जा सकता है। बाहरी तप के बिना भीतरी तप का उद्भव संभव नहीं है। बाहरी तप के माध्यम से शरीररूपी बर्तन तपता है और बाहर से तपे बिना भीतरी तप नहीं आ सकता। जैसे दूध को तपाना हो तो सीधे अग्नि पर तपाया नहीं जा सकता है। बर्तन में ही तपाना होगा। जो निकट भव्य-जीव होते हैं वे नियम से तप का अवसर मिलते ही पूरा का पूरा लाभ लेकर अपना कल्याण कर लेते हैं। हमें तप को साथी बनाना होगा, तभी सुख की प्राप्ति होगी, तभी मोक्ष मार्ग मिलेगा। दशलक्षण धर्म में तप एक प्रौढ़ धर्म है। इस तप के द्वारा अन्य धर्म में भी पास हो जाते हैं। कुतप के द्वारा तो संसार के अनेक पदार्थ प्राप्त कर लिए पर मुक्ति नहीं। सम्यक दर्शन युक्त तप ही समीचीन तप है। शरीर की सुरक्षा मात्र हलवा खाने से ही नहीं बल्कि समीचीन आहार से होती है। समीचीन आहार वह जो तप के लिए कारण हो। तप के बाद शांति नहीं हो तो तप की कोई आवश्यता नहीं। ऐसे ही तपा के माध्यम से बादलों में पानी जाता है और फिर शांतिधारा के रूप में बरसता है। शरीर के द्वारा हम तपस्या तो करें लेकिन मन में यह भावना नहीं करना चाहिए कि कोई हमें तपस्वी कहे। शारीरिक सुख के बारे में कभी भी सोचना नहीं चाहिए। जैसे विष मिला अन्न जल्दी छोड़ देते हैं वैसे ही शारीरिक सुख भी विषान्न के समान समझकर छोड़ देना चाहिए। पाँच इंद्रियों पर विजय प्राप्त करना भी तप है। जो बहुत घोर तप करता है लेकिन वो इंद्रिय विजय नहीं करता है तो फिर वह तप किसी काम का नहीं है। जिन्होंने इंद्रिय रूपी शत्रु को वश में कर लिया है, उनको ऋद्धि-सिद्ध तपश्चरण से स्वयमेव प्राप्त हो जाती है। आज आप लोग वस्तुत: दोनों तरफ कमजोर हैं। न तो अच्छे से खाते हो इसलिए न अच्छी तरह से तप साधना या कठोर तप कर पाते हो। बच्चों की तरह थोड़ा-थोड़ा खाते हो इसलिए बच्चों की तरह साधना करते हो। आज भी ऐसे व्यक्ति हैं जो ४०-५० रोटियाँ-पुड़ियाँ खा लेते हैं। हम परीषह विजय करते हैं तो यह भी एक तप है लेकिन हम परीषह विजय भी नहीं करते हैं, उसके भाव भी नहीं करते हैं। यदि विजय नहीं कर पाते हैं तो कम से कम भाव तो कर लेना चाहिए और अभ्यास बनाये रखना चाहिए। कर्मों को यदि गौण करके निमित्त को ही बलवान करोगे तो आपकी सारी की सारी की तपस्या जल जायेगी। चाहे गुरु हो या चेला हो, कोई भी हो, इसमें कोई भी मेहरबानी करने वाला नहीं। जिसके पास तप गुण है लेकिन विषयों से विरत नहीं है तीन काल में वह चतुर्गति का भ्रमण छूटा नहीं सकता।
  10. जीवन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार हमारे जीवन के उत्थान व पतन का आधार हमारा अच्छा बुरा आचरण है। हम चाहें तो अपने जीवन को उज्ज्वल बना सकते हैं और चाहें तो अपने जीवन को कर्म कालिमा से कलंकित भी कर सकते हैं। दोनों स्थितियाँ हमारे ऊपर निर्भर हैं। आप लोग बच्चों का बर्थ डे और माता-पिता का मेरिज डे मनाते हैं। साठ साल तक तो फिर भी ठीक अस्सी साल वाले वृद्ध भी मेरिज डे मना रहे हैं। जबकि जीवन की घड़ी चलो चलो घड़ी सामने खड़ी है यह पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव है। जन्म उत्सव का मतलब वर्ष वर्धन इसका अर्थ उम्र में एक वर्ष बढ़ गया ऐसा नहीं किन्तु उम्र की हानि में एक वर्ष और बढ़ गया अर्थात् एक वर्ष आयु कम हो गई। संसारी प्राणी हमेशा बाह्य वैभव को मूल्य देता है। उसको मूल्यवान समझता है।उसी की प्राप्ति में अपना अमूल्य जीवन व्यतीत करता रहता है। आत्म वैभव की ओर देखने का प्रयास करो। उदित होता हुआ सूर्य मोक्षमार्ग का एवं अस्त होता हुआ सूर्य संसार मार्ग का दिग्दर्शक होता है। सनसेट अन्धेरे की ओर ले जाता है जबकि सनराइज उजाले की ओर ले जाता है हम अपने जीवन को अन्धेरे की ओर नहीं किन्तु उजाले की ओर ले जाने का प्रयास करें। अहिंसा की ओर कदम बढ़ाने में और विषय भोगों से पीठ फेर लेने में ही जीवन की सार्थकता है। मानव पर्याय पाने के बाद यदि हम जीवन के निर्वाण की बात नहीं सोच रहे हैं तो कहाँ सोचेंगे सोच विचार बिना यदि कार्य करते हैं तो अफसोस ही प्राप्त होता है। सत्य व अचौर्य जीवन के उन्नति की खुराक है। सबसे महान् कलाकार वह है जो जीवन को ही कला का विषय बनाकर जीवन के सभी क्षणों को आनंदमय बना सके। अपना जीवन ऐसा हो कि सबको मधुरता दे स्वयं भी मधुर हो। स्व पर को माधुर्यमय कर दो। जीवन में मधुरता लाने के लिए क्षार का उचित अनुपात रखना चाहिए आटे में नमक के बराबर। खारा जीवन खीरमय नहीं हो सकता किन्तु खारे की एक डली खीर में मधुरता घोल देती है। यही अनुपात तो धर्म है। क्षारयुक्त जीवन को उचित अनुपात से मधुर बना देना ही धर्म है। भविष्य की उज्ज्वलता के लिए दूरदर्शन की नहीं, दूर दृष्टि की आवश्यकता है। मनुष्य जीवन की सफलता इसी में है कि हमें पापों से बचकर पुण्य कार्य करना हैं। जहाँ मायादेवी की अधिकता होगी वहाँ शांतिदेवी ठहर नहीं सकती। जीवन में शांति पाने के लिए मायादेवी और शांतिदेवी का धर्म के काँटे पर संतुलन बनाना अनिवार्य है। समय को सर्वाधिक मूल्यवान मानते हैं किन्तु मानव जीवन काल का मूल्य नहीं कर रहे। मानव जीवन पाकर भी आत्मतत्व से अपरिचित है क्योंकि अन्य का स्वामी बनने की लालसा है। जीवन में दूरदर्शन से सम्बन्ध है किन्तु दूरदृष्टि से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है। जल्दी जल्दी प्रगति करने वाला व्यक्ति सो नहीं सकता। आँधी तूफान में भी वह जागृत रहता है। और जो जागृत रहता है वह दूर की किरणों के माध्यम से भी अपने जीवन को सुंदर बना सकता है। प्रगतिशील और सफल जीवन जीने के लिए हमें धैर्यवान साहसी और संतुलित होना चाहिए। पथ में आने वाली कठिनाइयों को स्वाभाविक ही समझना चाहिए और अपने विवेक एवं स्वभाव को इसके लिए प्रशिक्षित करना चाहिए कि गुत्थियों को कैसे सुलझाया जाता है और अवरोधों को कैसे हराया जाता है। जीवन में ऊँचे नीचे वातावरण घटनाक्रम एवं अनुकूल प्रतिकूल वातावरण में भी अपनी दूरदर्शिता को स्थिर बनाए रखना चाहिए। बचपन, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था आती है चली जाती है, किन्तु बुढ़ापा यदि आता है तो चला नहीं जाता, साथ ले जाता है। बुढ़ापा यात्रा पूर्ण करा देता है। जब तक शरीर स्वस्थ है इन्द्रियाँ सशक्त हैं मन प्रबुद्ध है तथा बुद्धि काम देती है तभी तक तुम इन्हें अपने लक्ष्य की ओर लगाकर जीवन को सफल करने का प्रयास कर सकते हो। इन सबके असमर्थ होने पर कुछ भी नहीं कर सकोगे। फिर क्यों देर कर रहे हो? देखो जीवन क्षणभंगुर है अभी है क्षणभर बाद रहे या नहीं, इसका पता नहीं। यहाँ की सभी चीजें ऐसी ही है फिर किस मोह में पड़कर इस छोटे से जीवन के लिए इतनी गहरी नींव खोद रहे हो? मरण करके मनुष्य आयु में उत्पन्न होना फिर से यह अनिवार्य नहीं है। यदि आपकी यात्रा दो हजार सागर में त्रस पर्याय का काल पंचमगति की ओर नहीं होती है तो हमें इस बात की चिंता होती है कि देखो कितना प्रयास करें निगोद की यात्रा को छोड़कर इस ओर आया है लेकिन वह कौन सा दुर्भाग्य होगा कि मनुष्य योनि को प्राप्त कर पुनः निगोद की ओर जाना हो गया। सोचिये विचार कीजिये। यह स्वर्ण जैसा अवसर है यह जीवन बार-बार मिलता नहीं इसकी सुरक्षा इसका विकास इसकी उन्नति को ध्यान में रखकर इसका मूल्यांकन करना चाहिए जो व्यक्ति इसको मूल्यवान समझता है वह साधना पथ पर कितने उपसर्ग और परीषहों को सहर्ष अपनाता है। इन उपसर्गों और परीषहों को सहर्ष अपनाने वाले जो कोई भी हैं वे मुनि हैं। प्रतिकार करने वाले तो मिलेंगे पर हमें तो उसी रास्ते से गुजरना है। महावीर भगवान् जिस रास्ते से गये वह उपसर्ग और परीषहों से होकर गुजरता है। वह रास्ता काल्पनिक रास्ता हो सकता है। मोक्षमार्ग तो वही है जो परीषहजय और उपसर्गों से प्राप्त होता है और जो उसे धारण करने के लिए तैयार है उन्हें वह अवश्य मिलता है। उत्साह के साथ खुशी के साथ तन, मन, धन सब कुछ लगाकर वह मुक्ति का मार्ग अपनाना चाहिए। एक बार भी उस रास्ते पर चलना प्रारम्भ कर लें तो पुनः लौटने की आवश्यकता नहीं होगी। अनंतकाल तक वहाँ आपको विराम मिलेगा कोई दिक्कत नहीं है वहाँ। मनुष्य जीवन आवश्यक कार्य करने के लिए मिला है अनावश्यक कार्यों में खोने के लिए नहीं। परमात्मा की पहचान के साथ सच्ची जिन्दगी की शुरूआत होती है। जिस प्रकार आकाश में ध्वनि विलीन हो जाती है वैसे ही इस धरती से सबके नाम चरणचिह्न और पर्यायें विलीन हो गयीं। भोगों में रस नहीं आता किन्तु भोग भोगने से जीवन का रस यानि जीवन की शक्ति निकल जाती है। जो व्यक्ति शरीर के प्रति या इस जीवन के प्रति ज्यादा मुग्ध/ मोहित रहता है उसके लिए वीयन्तराय कर्म का क्षयोपशम जो मिला है वह सब समाप्त होने लग जाता है। ऐश आराम की जिन्दगी विकास के लिए कारण नहीं बल्कि विनाश के लिए कारण है या यूँ कहो ज्ञान का विकास रोकने में कारण है। जिसका शरीर सर्दी में कंप जाता है किन्तु प्राणियों के कष्टों को देख करके नहीं कांपता तो उसे लौकिक दृष्टि से भले ही ज्ञानी कहो किन्तु परमार्थरूप से वह सच्चा ज्ञानी नहीं है इस जीवन में। वे आँखें भी हमारे लिए बहुत प्रिय मानी जायेंगी जिसमें करुणा, दया, अनुकंपा के दर्शन पाये जाते हैं, यदि यह नहीं है तो यह मानव जीवन बिल्कुल नीरस प्रतीत होगा। यदि हम लोग प्रयोजनभूत तत्व को देख लें तो बहुत बड़े बड़े लाभ कर सकते हैं और हम उस प्रयोजन को गौण कर लें तो बहुत बड़े बड़े अनर्थ भी हो सकते हैं। यह मौलिक जीवन भी धूल में मिल सकता है। जहाँ पर जीवन का सवाल है, वहाँ पर जड़ वस्तुओं का महत्व नहीं होता। सात्विक जीवन जीने वालों को दुख और आकुलता नहीं होती। स्नत्रय हमारी सहज शोभा है और क्षमादि धर्म हमारे अलंकार हैं, इसी के माध्यम से हमारा जीवत्व निखरेगा। अनंतकाल से जो जीवन संसार में बिखरा पड़ा है उस बिखराव के साथ जीना वास्तविक जीना नहीं है। अपने भावों की सम्भाल करते हुए जीना ही जीवन की सार्थकता है। जिस प्रकार खाया हुआ अन्न देह में रग रग में मिलकर रुधिर बन जाता है उसी प्रकार हमारे जीवन में सरलता या सुलझापन हमारा अभिन्न अंग बन जाये तो जीवन धन्य एवं सार्थक हो जावेगा। जीवन की यात्रा नहीं मानते हो। जहाँ जाओ वहीं यात्रा चल रही है। आप लोग पैसे खर्च करने में ही यात्रा मानते हो कहीं जेब कट गई तो यात्रा कैसे होगी? ऐसी यात्रा करो जो कभी रुके भी नहीं और लुटे भी नहीं रुकना आत्मा का स्वभाव नहीं ऊर्ध्वगमन स्वभाव है। नश्वर जीवन है योगदान के लिए समय निकालें। जो व्यक्ति प्रयोजन के प्रति आलस्य रखता है वह विकसित नहीं है। चाहे समय चढ़ाई का हो या फिर सुखद उतार का हमें अपने जीवन का काल चक्र स्वयं तैयार करना है। ऐसी जीवनरूपी घड़ी बाजार में नहीं मिलती जो सदैव चलती रहे। हमारे जीवन में दो काल होते हैं। संभलाना और संभलना यानी बचपन में हमें संभाला जाता है युवा अवस्था में हम उन्हें संभालते हैं, जिन्होंने हमें संभाला था। जीव के उतार चढ़ाव में बुद्धि और विवेक चालक के समान होते हैं इसका सही उपयोग करने से जीवन सफल होता है और न सिर्फ अपने लिए बल्कि इससे दूसरे भी लाभान्वित होते हैं। मनुष्य जीवन मुफ्त के लिए नहीं पुरुषार्थ और परोपकार के लिए बना है। हर क्षण का उपयोग राष्ट्र हित के लिए करें। आप अपने जीवन में ऐसे फलदार वृक्ष बनो, जिसमें गुणवान्, बुद्धिमान्, संस्कार, प्रतिभा, परोपकार, जीव दया, करुणा जैसे फल लगें। काम, क्रोध, मद, मोह, माया और लोभ जैसे फल न लगे। फलदार, छायादार पेड़ की तरह आप समाज और परिवार का पोषण करें और पथिक को छाया भी दें। सैकड़ों पक्षी आश्रय पायें और जीवन पूरा होने के बाद भी लकड़ी के रूप में वर्षों समाज के काम और नाम आओ। अपनी इस पर्याय का उपयोग करना चाहिए। समय का सदुपयोग करना चाहिए। अपने जीवन को अध्यात्ममय बनाना चाहिए समय यदि मिला है तो ये ही करना चाहिए।
  11. "माँ श्रीमन्ती ने हम दोनों पुत्रियों को ऐसी समज दी थी कि अभी तुम छोटी हो तुम्हसे उपवास नही हो सकता है। इसलिए एकासन किया करो। एकासन का मतलब एक बार सुबह भोजन करना और शाम को तला हुआ पदार्थ जैसे पूड़ी, बूंदी, लाडू, जलेबी आदि। छोटे बच्चों को सब को सब छूट होता है। माँ की ममता की झूठ समज को सच समझकर हम बच्चें वैसे ही एकासन करने लगे। हम लोगो की उम्र उस समय ९ और १२ वर्ष की थी। एक दिन भैया विद्याधर ने ऐसा करते हुए देख लिया तब कहा 'ऐसे भी कोई एकासन होता है क्या ? ऐसा तो मैं हमेशा कर सकता हूँ। एक बार भोजन करना और शाम को मुँह में कुछ भी नही डालना वही एकासन कहलाता है।' विद्याधर की इस समजाइस से हम दोनों बहनों ने अपनी क्रिया सुधारकर सही एकासन व्रत करना शुरू किया था।" इस तरह विद्याधर बचपन से ही कोई भी क्रिया हो उसे आगम के आलोक में सम्यक्-रीति से करते थे। हे गुरुवर!ऐसी समज मुझे भी प्राप्त हो इस भावना के साथ नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु
  12. वे आँखें किस काम की जिनमें ज्ञान होते हुए, देखते हुए भी संवेदना की दो... तीन बूंदें भी नहीं आती। वे आँखें पत्थर की हैं, लोहे की हैं, हमारे किसी काम की नहीं हैं। धर्म का अर्थ यही है कि दीन दुखी जीवों को देखकर आँखों में करुणा का जल छलके अन्यथा नारियल में भी छिद्र हुआ करते हैं। राम-रहीम और महावीर के समय में जिस भारत भूमि पर दया बरसती थी। सभी जीवों का अभय था। उसी भारत भूमि पर आज अहिंसा खोजे-खोजे नहीं मिलती। ऐशो-आराम की जिन्दगी विकास के लिए नहीं बल्कि विनाश के लिए कारण है। या यूँ कहो ज्ञान का विकास रोकने में कारण है। जैन दर्शन कहता है कि उतना उत्पादन करो जितना तुम्हें आवश्यक है। बल्कि! उससे कम ही करो जिससे कुछ समय बचेगा, उसमें परोपकार की बुद्धि जाग्रत होगी। सर्दी का समय है। रात की बात, लगभग १२ बज गए हैं। सब लोग अपने-अपने घरों में अपनी व्यवस्था के अनुरूप सर्दी से बचने के प्रयत्न में हैं। खिड़कियाँ और दरवाजे सब बंद हैं, ऊपर से भी हवा नहीं आ रही है सब कुछ प्रबंध हो चुका है। पलंग पर विशेष प्रकार की गर्म दरी बिछी है, उसके ऊपर मखमल की गादी है, ओढ़ने के लिए रजाई भी है। एक-एक क्षण ऐश-आराम के साथ बीत रहा है। इसी बीच ऐसे शब्द, ऐसी आवाज सुनाई पड़ी जिसमें से अभाव की ध्वनि निकल रही थी, दुख दर्द सुनने में आ रहा था। इस प्रकार दुख भरी आवाज सुनते ही चैन नहीं, इधर-उधर उठकर देखते हैं तो, सर्दी भीतर जाने, घुसने का प्रयास कर रही है, वह सोचता है उठूं कि नहीं वह फिर सो जाता है। कुछ ही क्षण बीते होंगे कि आवाज पुन: कानों में आ जाती है, कानों में आने के उपरान्त कान तो बन्द किए नहीं जा सकते जितना जो कुछ होना था, वह हो चुका फिर भी वह आवाज बार-बार आ रही है, उठने की हिम्मत नहीं है, सर्दी बढ़ती जा रही है, पर देखना तो आवश्यक है। घर के आजू-बाजू में देखते हैं तो आवाज सुनने में नहीं आती, थोड़ी देर बाद तीनचार कदम आगे बढ़कर देखते हैं, तो आवाज और तेजी से आने लगती है। तब वह सोचता है कि आवाज तो यहीं से आ रही है, देखने के उपरान्त वहाँ पर कुत्ते के तीन-चार पिल्ले सर्दी के मारे ऐसे सिकुड़ गए थे.जैसे रबड़ सिकुड़ता है। उन्हें देखकर के रहा नहीं गया और वे अपने हाथों में उन कुत्ते के बच्चों को उठा लेते हैं, जिस गादी पर वे शयन कर रहे थे उस गादी पर लिटा देते हैं और धीरे - धीरे अपने हाथों से उन्हें सहलाते हैं, उनके सहलाने से वे कुत्ते के बच्चे सुख शांति का अनुभव करने लगे, वेदना का अभाव सा होने लगा। सारा का सारा जो शरीर ठंडा पड़ गया था, अब वह उन हाथों के सहलाने से गर्मी का अनुभव करने लगा। उन बच्चों को ऐसा लगा जैसे कोई माँ उन्हें सहला रही हो। लेकिन! सहलाते-सहलाते उनकी आँखें डबडबाने लगी, आँसू आने लगे। रहा नहीं गया सोचने लगे कि इन बच्चों के ऊपर मैं क्या उपकार कर सकता हूँ? इनका जीवन परतंत्र है। प्रकृति का प्रकोप है, और उसका कोई प्रतिकार नहीं कर सकते, ऐसा जीवन ये प्राणी जी रहे हैं। हमारे जीवन में एक सैकेण्ड के लिए भी प्रतिकूल अवस्था आ जाए तो हम क्या करेंगे? पूरी शक्ति लगाकर उसका प्रतिकार करेंगे। सहा नहीं जाता, वे सोचने लगे इस संसार में ऐसे कई प्राणी होंगे जो यातनापूर्वक जीते हैं, मनुष्य होकर भी यातना सहन करते। उन्होंने उसी समय से संकल्प ले लिया, अब मैं ऐश आराम की जिन्दगी नहीं जिऊंगा। ऐश आराम की जिन्दगी विकास के लिए कारण नहीं बल्कि विनाश के लिए कारण है या यूँ कहो ज्ञान का विकास रोकने में कारण है। मैं ज्ञानी बनना चाहता हूँ। मैं आत्म तत्व की खोज करना चाहता हूँ। सबको सुखी बनाना चाहता हूँ। और मेरे जो उद्देश्य हैं उन्हें तभी पूर्ण कर सकता हूँ जब मैं ऐश आराम की जिन्दगी जीना छोड़ दूँगा। उन कुत्ते के बच्चों को उन्होंने अपने जीवन निर्माण का निमित बना लिया था। विकास के लिए कोई न कोई निमित्त आवश्यक होता है। यह कथा किसकी है ? जब मैं पहली कक्षा में था उस समय एक पाठ पड़ा था, गाँधी जी के जीवन में गादी पर सुलाने वाले कुत्ते के बच्चों को सहलाने वाले वे गाँधी जी ही थे। इस घटना से वे बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने नियम ले लिया कि इस प्रकार का जीवन मेरे लिए हितकारी सिद्ध नहीं होगा। जिस प्रकार मैं दुखित हूँ उसी प्रकार दूसरे जीव भी दुखित हैं। मैं अकेला ही सुखी बनूँ यह बात संभव नहीं ऐश-आराम के लिए बहुत कुछ सामग्री हमें मिल सकती है, जिसके द्वारा हमारे विषय-भोगों की कुछ क्षण के लिए पूर्ति हो सकती है। किन्तु मैं अकेला मात्र सुखी बनना नहीं चाहता मेरे साथ जितने और प्राणी हैं सभी को जिलाना है और आनंद के साथ जिलाना है। जो कुछ मेरे लिए है, वह सबके लिए होना चाहिए, बस! दूसरों के सुख में ही मेरा सुख निर्धारित है। जीवन में किस प्रकार सुख-शान्ति हम ला सकते हैं ? इस प्रश्न को समाधित करने की धुन लग गई इसके लिए उन्होंने सोचा कि जो-जो आवश्यक है उन आवश्यकताओं में कमी करना है। सर्वप्रथम मुझे अपने पास एकत्रित भोग्य पदार्थों की सीमा करनी है। एक दिन की बात, वे घूमने जा रहे थे। तालाब के किनारे उन्होंने देखा एक बुढ़िया अपनी धोती धो रही थी। बस! देखते ही उनकी आँखों में पानी आ गया। कितने हैं आपके पास कपड़े? एडवाँस में कितने हैं ? आप कितने कपड़े पहन कर आए हो ? महाराज यह भी कोई प्रश्न है, एक बार में एक ही जोड़ी पहनी जाती है एक कुर्ता और एक धोती। हाँ. ठीक है यह पहनने की बात हुई पर एडवाँस में कितने हैं बोलो ? चुप क्यों हो ? महाराज जी, फिर तो गिनना पड़ेंगे। जिन पेटियों में कपड़े बन्द हैं उन पेटियों में घुस-पुस कर चूहे काटते होंगे। फिर भी आपके दिमाग में यह चूहा काटता रहता है कि उस दिन मार्केट में जो हमने नायलोन देखा था, वह तो अहा हा अहा अब क्या करूं ? पता नहीं ट्रक (सन्दूक) में कितने हैं ? लेकिन! फिर भी जो बाजार में आया है, उसकी पूर्ति के प्रयत्न में हैं। अपव्यय भी हो जाय तो कोई बात नहीं, गाँधी जी ने उस बुढ़िया को देखकर सोचा कि ओ अहो। इनके पास तो पहनने के लिए भी नहीं है। ओढ़ने की बात तो बहुत दूर है। धोते समय उस बुढ़िया ने आधी धोती तो पहन रखी थी और आधी धोती धो रही थी, कितना अभावग्रस्त जीवन है इसका। लेकिन फिर भी वह बुढ़िया किसी से जाकर नहीं कह रही कि मेरी यह स्थिति है। जब से गाँधी जी ने जनता के दुख भरे जीवन के बारे में सोचा तब से उन्होंने सादा जीवन बिताना प्रारम्भ कर दया । वे धोती कैसे पहनते थे? मालूम है आपको, साठ इंची पना वाली नहीं, जैसे आप दुपट्टा पहनते हो! उसी प्रकार की धोती जो घुटनों के नीचे नहीं आती थी, और आपकी धोती क्या करती है ? जमीन को बुहारती है, अब नगर पालिका की कोई जरूरत नहीं। जब आप लोग इस प्रकार चलेंगे तो सड़क अपने आप ही साफ हो जाएगी, अब झाडू लगाकर साफ करने की कोई आवश्यकता नहीं। आप भारत के नागरिक हैं, और वे भारत के नेता माने जाते थे। उनका जीवन कैसा था? एक बार अनुभव हो गया था, ज्ञान उनके पास था। ज्ञान का अर्थ है आँखें, वे आँखें उनके पास थी जिनमें करुणा का जल छलकता रहता था। धर्म का अर्थ यही है दीन दुखी जीवों को देखकर, आँखों में करुणा का जल छलके अन्यथा! नारियल में भी छिद्र हुआ करते हैं। दयाहीन आँखों को तो छिद्र ही मानते है। यद्यपि! ज्ञान है लेकिन उस ज्ञान के माध्यम से यदि संवेदना नहीं होती है तो उस ज्ञान का कोई मूल्य नहीं, इन आँखों से हम सब को देखते अवश्य हैं लेकिन वे सब हमारी आँखों के विषय मात्र बन जाते हैं। वे आँखें किसी काम की नहीं हैं, जिन में ज्ञान होते हुए, देखते हुए संवेदना की दोतीन बूंदें भी नहीं आती। वे आँखें लोहे की हैं, पत्थर की हैं हमारे किसी काम की नहीं हैं। एक अंधे व्यक्ति को हमने देखा था। उस अंधे की आँखों में से पानी आ रहा था। वे आँखें बहुत अच्छी हैं जिनसे भले ही देख नहीं सकते लेकिन उनमें करुणा का जल तो छलकता रहता है किन्तु! उन आँखों का कोई महत्व नहीं है जिनमें दया नहीं है, करुणा का जल नहीं है। उनके पास ज्ञान था, विलायत जाकर के उन्होंने अध्ययन किया और वो बैरिस्टर बने। बैरिस्टर बहुत कम सफल हुआ करते हैं, ध्यान रखना! वह भारत में नहीं विलायत से उपाधि मिलती है। अब देखो! इतना ज्ञान था, लेकिन साथ-साथ दया भी थी। धर्म और संवेदना से वे ऐसे हल्के हो जाते थे कि बस उसमें डूब जाते थे। ऐसी कई घटनाएँ उनके जीवन में घटी। वो दया धर्म को जीवन का मुख्य अंग मानते थे, या यूँ कही जीवन ही मानते थे। कहा भी है - दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान। तुलसी दयान छाँडिये, जब लों घट में प्राण। यह जो समय हमें मिला है, जो कुछ उपलब्धियाँ हुई हैं, वो पूरी की पूरी उपलब्धियाँ दया धर्म पालन के लिए ही हैं। इस ज्ञान के माध्यम से हमें क्या करना है ? तो संतों ने लिखा है कि उन उन स्थानों को जानने की आवश्यकता है, जिन-जिन स्थानों में सूक्ष्म एकेन्द्रियादिक जीव रहते हैं। जब जीवों का परिज्ञान हो जाता है, तब उनको बचाने का उचित प्रयास भी किया जा सकता है। जीवों को जानने के उपरांत यदि दया नहीं आती है, तो उस ज्ञान का कोई उपयोग नहीं वह एक प्रकार से कोरा-थोथा ज्ञान है। वह ज्ञान नहीं माना जाता, जिसके हृदय में थोड़ी भी उदारता नहीं है, जिसके जीवन में अनुकम्पा नहीं है। जिसका जीवन, जिसका शरीर सर्दी में तो कंप जाता है, किन्तु! प्राणियों के कष्टों को देखकर के नहीं कंपता तो उसे लौकिक दृष्टि से भले ही ज्ञानी कहो, किन्तु परमार्थ रूप से वह सच्चा ज्ञानी नहीं है। पंचेन्द्रिय जीव उसमें तिर्यच की बात तो बहुत दूर है, ऐसे मनुष्य भी इस बीसवीं शताब्दी में हैं जिन्हें आवश्यक सामग्री भी उपलब्ध नहीं हो पाती । समय पर भोजन नहीं है, रहने को मकान नहीं है शिक्षक नहीं है, समय पर यथायोग्य सामग्री नहीं मिल पाती, यदि मिल भी जाती है तो जीवन ढलता हुआ नजर आता है। शाम तक यदि कुछ राशन मिल भी जाए तो सूरज डूबने को होता है, प्रकाश में खाने के लिए बिजली तक नहीं है। कहाँ जायें? क्या करें? बेचारों के पास दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है, आप लोग रात्रि भोजन का त्याग करते हैं बिल्कुल ठीक है दिन में ही भोजन करते हैं इसके साथ-साथ ऐसे भी लोग देखे जाते हैं जो दिन में भी एक बार भरपेट भोजन नहीं कर पाते उनकी ओर भी तो थोड़ी दृष्टि कीजिए, कौन-सा व्यक्ति ऐसा है जो उन्हें सहयोग देने का कार्य करता हो ? आज इस भारत में सैकड़ों बूचड़खानों का निर्माण हो रहा है, आप सब कुछ जान रहे हैं, देख रहे हैं, कानों से सुन रहे हैं, फिर भी उन पशुओं की करुण पुकार सुनकर आपके हृदय में यह भाव नहीं उठते कि हम इसका विरोध करें। राम-रहीम और महावीर के समय में जिस भारत भूमि पर दया बरसती थी, सभी प्राणियों के लिए अभय था, उसी भारत भूमि पर आज अहिंसा खोजे नहीं मिलती। आज बडी-बड़ी मशीनों के सामने रख कर एक-एक दिन में दस-दस लाख.बीस-बीस लाख निरपराध पशु काटे जा रहे हैं। आप बम्बई-कलकत्ता-दिल्ली-मद्रास कहीं भी चले जाइये सर्वत्र हिंसा का ताण्डव नृत्य ही दिखाई देगा, देखने तक की फुरसत (समय) आपको नहीं है। आज इस दुनियाँ में ऐसे कोई दयालु वैज्ञानिक नहीं हैं जो जाकर के इन निरपराध पशुओं की करुण पुकार को सुन लें! और उनके पीड़ित अस्तित्व को समझ कर, आत्मा की आवाज पहचान कर, इन कुकर्मों को रोकने का प्रयास करें। उन पशुओं की हत्या कर, उनकी चमड़ी, मांस आदि सब कुछ विभाजित कर, पेटी में बन्द करके निर्यात किया जाता है। आपको यह बातें मालूम नहीं पड़ पाती और मालूम भी हो जाये तो आप पैसों के लोभ में आकर, कई अशोभनीय कार्य कर जाते हैं। केवल आप नोट ही देखते हैं Currency.आगे जाकर जब उसका फल मिलेगा तब मालूम पड़ेगा, इस दुष्कार्य का जो व्यक्ति समर्थक है, अनुमोदक है, उस व्यक्ति के लिए नियम से इस हिंसा जनित पाप के फल का यथायोग्य हिस्सा मिलेगा। छहढाला का पाठ आप रोज करते हैं। ‘सुखी रहें सब जीव जगत् के” यह मेरी भावना भी रोज भायी जाती है। लेकिन फिर भी ये सब क्या हो रहा है, ४० साल भी नहीं हुए हैं गाँधी जी का अवसान हुए और यह स्थिति आ रही है। जिस भारत भूमि पर धर्मायतनों का निर्माण होता था उसी भारत भूमि पर आज धड़ाधड़ सैकड़ों हिंसायतनों का निर्माण हो रहा है। इसमें राष्ट्र का कोई दोष नहीं है, और इस देश में तो प्रजातंत्रात्मक शासन है, प्रजा ही राजा है। आपने ही चुनाव के माध्यम से वोट देकर के उनको उम्मीदवार बनाकर शासक बनाया है, अत: एक प्रकार से आप ही शासक हैं। आपके अंदर यदि इस प्रकार की करुणा जागृत होगी, तो वे कुछ भी नहीं कर सकेगे। आप लोगों को, Indirect तो मिलता ही रहता। सुनो! सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री आप मुँह माँगे दाम देकर के खरीदते हैं, जीवन का आवश्यक कार्य समझकर हमेशा उपयोग करते रहते हैं उसके माध्यम से आप अन्धाधुंध हिंसा करते हुए, बड़ी प्रसन्नता के साथ अपनी मनोकामना पूरी करते हैं। रात्रि भोजन नहीं करते, अभक्ष्य-भक्षण भी नहीं करते, पानी छानकर पीते हैं, आलू भटा इत्यादि भी नहीं खाते, किन्तु! समय आने पर भालू बनकर सब कुछ खाने जैसी प्रवृत्ति कर जाते हैं, इस नश्वर शरीर की सुन्दरता बढ़ाने के लिए, आज कितने जीवों को मौत के घाट उतारा जा रहा है, दूध देने वाली गायें, भैंसें दिन दहाड़े काटी जा रही हैं, खरगोश, चूहे, मेंढ़क और बेचारे बन्दरों की हत्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। आपने कभी सोचा?.समझा कि यह सब क्यों हो रहा है ? ध्यान रखो यह सब आपके अन्दर बैठी हुई वासना की पूर्ति के लिए हो रहा है। इन अनेक प्रकार के पशुओं को सहारा देना तो दूर रहा, उनके पालनपोषण की बात तो छोड़िये.लेकिन उनके जीवन में इस प्रकार की घटना घटते हुए चुप-चाप देखते आज मनुष्य-मनुष्य के लिए खाने को तैयार है। पशुओं को समाप्त किया जा रहा है, आज मुर्गी पालन केन्द्र खुल रहे हैं ताकि उनसे अधिक से अधिक अण्डे प्राप्त हो सके। मछलियों का उत्पादन किया जा रहा है, लेकिन दया की उत्पत्ति, अनुकम्पा की उत्पत्ति, धर्म की उत्पत्ति शान्ति के कष्ट होता है कि जहाँ पर आप लोगों ने जैन विद्यालय-गुरुकुल खोले थे वहाँ पर आज जैन धर्म का नामोनिशान तक नहीं है जबकि लौकिक शिक्षण का कितना अधिक विकास हो गया है। वहाँ पर साइंस आ गई, कॉमर्स आ गई, अर्थ विज्ञान आ गया किन्तु जीव दया पालन जैसा सरल विषय रंचमात्र भी नहीं रहा है। नागरिक शास्त्र जिस समय हम छोटे थे, उस समय पढ़ते थे। नागरिक शास्त्र का अर्थ क्या है ? कैसे नागरिक बनें? कैसे दया का पालन करें? कैसे अपनी समाज की सुरक्षा करें। इन सब बातों को नागरिक शास्त्र हमें सिखाता है। उन नागरिक शास्त्र के माध्यम से, हम सही जीवन जीने का प्रयास करें, दूसरे प्राणियों को अपना सहयोग दें। पशुओं की रक्षा करें, क्योंकि! पशुओं का जीवन परतन्त्र है और हमारा जीवन स्वतंत्र है, इस प्रकार के विचार आज समाप्त होते जा रहे है। जहाँ पर पहले चरस चलाया जाता था, वहाँ पर अब पंप आ गया, उसके द्वारा कुंए के कुंए खाली किए जाते हैं। जहाँ पर जमीन के लिए गोबर आदि की खाद बनाई जाती थी, वहाँ पर आज यूरिया, ग्रोमोर आदि खाद आ गया, जो जमीन की उपजाऊ शक्ति को क्षीण करते हैं। कुएँ की बात कह दूँ। चरस चलाने से कुएँ के झरनों को धक्का नहीं लगता किन्तु पंप के चालू करने से कुएँ के सारे स्रोत बंद हो जाते हैं। पंप का पानी जब जमीन पर बहता है तो वह तेजी से रगड़ता हुआ चला जाता है और जो तत्व शक्ति ऊपर रहती है वह सब रगड़ खाने से धुल जाती है। जबकि चरस का पानी बिल्कुल डूबता हुआ भीतर.भीतर घुसता चला जाता है बहता नहीं है। तपी हुई धरती की प्यास पंप का पानी नहीं बुझा सकता क्योंकि उसकी रफ्तार बहुत तेज रहती है जबकि चरस का पानी धीरे-धीरे बहकर धरती के हृदय में प्रवेश कर उसकी तपन को शान्त कर देता है। जब बालक को माँ का दूध नहीं मिलता तो उसे गाय का अथवा डिब्बे का दूध पिलाया जाता है, किन्तु वह उसे असली दूध के माफिक लाभकारी नहीं होता। वैसे ही जमीन को बनावटी खादपानी भी पूर्णत: लाभकारी नहीं होता। जैसे कमजोर शक्ति वाले को ऊँचे दर्जे का इंजेक्शन लगाने से वह उसे सहन नहीं कर सकता उसी प्रकार जमीन में भी एक हद तक सहन करने की शक्ति रहती है। उसमें तेज खाद डालने से एक फसल तो अच्छी आ जाती है किन्तु दूसरी फसल में हानि हो जाती है-वह कहने लगती है कि अब यह विदेशी खाद नहीं चलेगी, अब तो उसी देशी खाद की ही आवश्यकता है। क्योंकि उसकी पूरी की पूरी शक्ति समाप्त हो चुकी है, इस प्रकार जब हम सही तरीके से सोचते हैं तो, ये हानियाँ हमारे द्वारा होती चली जा रही हैं। यह सारा का सारा विनाशक कार्य बौद्धिक क्षेत्र में हुआ, सामाजिक क्षेत्र में हुआ, आर्थिक और शैक्षणिक क्षेत्र में हुआ कोई भी ऐसा क्षेत्र शेष नहीं है, जिसकी हम पूर्व परम्परा से तुलना कर सके। आप लोग चुपचाप सब बातों को सुन रहे हैं, मात्र सुन ही नहीं रहे हैं, किन्तु उनकी प्रगति में अपने वित्त का उपयोग भी कर रहे हैं। अपनी संतान को इस प्रकार की शिक्षा देने में अपने को कृतकृत्य मानते हैं, हमारा लड़का M.B.B.S. हो तो ठीक है। जबकि धार्मिक विद्यालय सारे के सारे बंद होते जा रहे हैं और यदि हैं भी तो उनमें एकाध Period लगता है, जिसमें मेरी भावना की एकाध कड़ी बोली जाती है।'णमोकार मंत्र बोलकर के वन्दे वीरो' कह देते हैं, बस! धार्मिक अनुष्ठान समाप्त हो गया। न उसके प्रति आस्था है, न कोई आदर है, न धार्मिक संस्कार प्राप्त करने की इच्छा है। बस! एकमात्र Routine (क्रम) सा चलता है, यह कितने दिन तक चलेगा? जो आस्था के बिना, बुद्धि के बिना किया जाता है, वह तो बहुत कम दिन तक चलता है भीतर से उसके प्रति कोई जगह नहीं है, तो वह खोखलापन अल्प समय में ही नष्ट हो जाने वाला है। नवनीत और छाछ ये दो तत्व हैं। जिसमें सारभूत तत्व को छोड़कर छाछ की मटकी की ओर हमारी दृष्टि जा रही है। यदि उसमें छाछ है तो फिर भी ठीक है, लेकिन! उसमें फटा हुआ दूध है, जो न तो इधर है, और न उधर है। वर्तमान में यही दशा भारत की हो रही है। शोध शील होने वाले कुछ राष्ट्रों ने इसके ऊपर दृष्टिपात किया और कुछ खोजने की चेष्टा की है, लेकिन उन्होंने सोचा कि यह भी भौतिकता की चकाचौंध में पागल हो रहा है। अपनी मूल संस्कृति को छोड़कर पाश्चात्य संस्कृति की ओर जा रहा है। भारतीय नागरिक की यह दशा वैकालिक बन गई है। ज्ञान धर्म के लिये है, और होना भी चाहिए क्योंकि धर्म आत्मा को उन्नति की ओर ले जाने वाला है, यदि वह ज्ञान दया धर्म के साथ Connected (संबंधित) होकर दयामय हो जाता है तो वह ज्ञान हमारे लिए हितकारक सिद्ध होगा। वे आँखें भी हमारे लिए बहुत प्रिय मानी जायेंगी जिसमें करुणा, दया, अनुकम्पा के दर्शन होते हैं, यदि नहीं तो यह मानव जीवन बिल्कुल नीरस प्रतीत होगा। आज किसी के पास न तो सहनशीलता है, न त्याग है, न धर्म है, न वात्सल्य है और न ही सह-अस्तित्व भाव है। कुछ भी नहीं है। केवल धक्का-मुक्की खाये जा रहा है। भौतिकता से ऊब कर शांति के लिए अब बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को भी धर्म की ओर मुड़ने को मजबूर होना पड़ रहा है, मुड़ने की भी शक्ति नहीं है, इसलिए उनका माथा ही घूम रहा है। कैसे जियें? क्या, कैसा व्यवहार करें? आदि प्रश्नों के समाधान मिलना दूभर हो रहा है। आज वित्त का अर्जन तो बहुत हो रहा है लेकिन वित्त का उपयोग कैसे करें? इसके लिए उनका दिमाग नहीं चल रहा है। यदि अनावश्यक उत्पादन किया जाता है, तो उनका दिमाग नियम से खराब होगा। हम जब बहुत छोटे थे। उस समय की बात है। रसोई परोसने वाले को हमने कहा कि रसोई दो बार परोसने की अपेक्षा एक बार ही परोसो । तो वह बोला कि हम तीन बार परोस देंगे लेकिन एक बार में नहीं परोसेंगे, यदि हम एक ही बार में परोस देंगे तो तुम आधी खाओगे और आधी छोड़ दोगे। परोसने वाले पूरी की पूरी रसोई कभी नहीं दिखाते। उसके ऊपर कपड़ा ढका रहता है, उसी में धीरे-धीरे सामान निकालकर देते हैं, तृप्ति हो जाती है। एक साथ सब कुछ परोस देने से मन कचोट जाता है और खाने की जो भूख है वह समाप्त हो जाती है। उसी प्रकार आज भी, वही स्थिति है। बहुत उत्पादन होने से दिमाग खराब हो रहा है। एक समय वह भी था, जब धन का संग्रह एक दूसरे के उपकार के लिए होता था, धन का उपयोग धार्मिक अनुष्ठानों में होता था। जो धन दूसरों का हित करने वाला था वही धन आज राग-द्वेष का कारण बना है। मैं किसी को क्यों दूँ? इस प्रकार की भावना मन में आ गई है। आज अनीतिअन्यायपूर्वक धन का संग्रह अधिक मात्रा में हो रहा है, किन्तु उसका उपयोग कैसे करें? कहाँ करें? इसके लिए उनकी बुद्धि नहीं चल रही है, और उन्हें सोचने की फुरसत भी नहीं है। मात्र धन का अर्जन करना ही बुद्धिमानी नहीं है, बल्कि संग्रहीत धन का सही-सही उपयोग करना बुद्धिमानी है। जैनदर्शन कहता है कि उतना उत्पादन करो, जितना तुम्हें आवश्यक है, यदि कुछ कम ही करो तो ठीक है, जिससे कुछ समय बचेगा उसमें परोपकार की बुद्धि जाग्रत होगी। धन की सुरक्षा की अपेक्षा जहाँ पर आवश्यक है वहाँ पर दे दो तो सब कुछ ठीक हो जाएगा। बहुत दिन पहले की बात है, राज्य व्यवस्था और राजा का शासन कैसा हो ? इस बारे में मैंने एक पाठ पड़ा था। उस राजा के राज्य में प्रजा की स्थिति बहुत दयनीय थी। राजा के पास कई बार प्रजा की शिकायतें आई, राजा ने सोचा कि यहाँ पर क्या कमी है ? कमी को मालूम कर उस कमी को दूर करने के लिए सख्त शासन प्रारम्भ कर दिया। और कह दिया कि हमारे राज्य में कोई भी व्यक्ति भूखा सोयेगा तो उसे दूसरे दिन दण्ड दिया जाएगा। कोई भूखा तो नहीं है यह पता लगाने के लिए उसने एक घंटा लगवाया था। जिसकी बहुत दूर-दूर तक आवाज आती थी, एक-दो दिन तक कुछ नहीं हुआ तीसरे दिन घंटा क्यों बजा? वहाँ और कोई नहीं था, एक घोड़ा था। और वह घोड़ा घंटे को बजा रहा था। वहाँ पर घास का पूरा गट्ठा अटका हुआ था उसको खाने के लिए वह सिर हिला रहा था। उसके साथ-साथ घंटा बज रहा था, सिपाही ने सोचा कि यह घोड़ा नियम से भूखा है, इसलिए इस घंटे के ऊपर लगी हुई जो घास है, वह खाना चाह रहा है। उसके मालिक को बुलाया और कहा बोलो कितने दिन से भूखा था? अन्नदाता! भूखा तो नहीं रखा, घोड़े के मालिक ने डरते-डरते कहा। फिर ऐसा क्यों हुआ? राजा ने पुन: प्रश्न किया। अन्नदाता! इसके माध्यम से मैं जो कुछ भी कमाता हूँ उसमें कमी आ गई, जब मेरा ही पेट एक बार भरने लगा तो मैंने सोचा कि अब इसे भी एक ही बार दो। तुम्हारा पेट एक ही बार क्यों भरने लगा? राजा ने पूछा। महाराज! जो किराया देते थे, उसमें लोग कटौती करने लगे और कटौती करने से हमारा पेट एक ही बार भरने लगा। घोड़ा तो वही है और कमाने वाला मात्र मैं ही हूँ तो उसका भोजन हमने एक बार कर दिया। वह तो जानवर है, मैंने उसे पानी तो खूब पिलाया पर घास की पूर्ति नहीं कर सका। यदि करता हूँ तो मुझे भूखा रहना पड़ेगा, यही स्थिति यदि कुछ दिन और रही तो वह जल्दी ही मर जाएगा, क्योंकि वह अब इतना बोझ वहन तो कर नहीं सकता। इतना सुनने के उपरांत राजा ने कहा कि ओ हो ! हम पगडंडी तो बहुत जल्दी अपना लेते हैं और राज मार्ग से स्खलित हो जाते हैं, क्योंकि हमारी वृत्ति कंजूसपने की ओर जा रही है। इसका अर्थ यही है कि मनुष्य-मनुष्य के बीच जो व्यवहार था उसमें ही जब कमी आ रही है, तो फिर पशुओं के व्यवहार की तो बात ही अलग है। उसी दिन राजा ने आज्ञा दी कि जो जितना काम करता है उसे उसके अनुरूप वेतन मिलेगा। इसको बोलते हैं शासन की व्यवस्था। आज भी शासन है, पहले भी शासन था और आगे भी रहेगा, किन्तु कितना फर्क? जमीन आसमान का! धर्म वह है जो जीव को दुख के स्थान से उठाकर सुख के स्थान पर लाकर रख देता है और जो दुख के गर्त में ढकेल देता है वह है अधर्म। वह अधर्म आपकी दृष्टि में हो सकता है, आपके आचरण में भी हो सकता है। वृत्ति, ज्ञान, दर्शन इन तीनों के माध्यम से सुख मिलता है और दुख भी मिल सकता है। यदि धर्म से विमुख हो जाते हैं तो हम इन तीनों से दुख का अनुभव करते हैं और यदि हम धर्म के सन्मुख हो जाते हैं, तो हमारा जीवन सुखमय बन जाता है। गाँधीजी के माध्यम से भारत को स्वतंत्रता मिली। उनका उद्देश्य केवल भारत को ही स्वतंत्रता दिलाने का नहीं था, किन्तु! विश्व भी स्वतंत्रता का अनुभव करे, विश्व भी शान्ति का अनुभव करे । सब संतों का धर्मात्मा पुरुषों का उद्देश्य यही होता है कि जगत के सभी जीव सुखशान्ति का अनुभव करें। कुछ लोग आकर के कहते हैं कि महाराज! कुछ प्रवचन, उपदेश ऐसे दिया करो जिससे गायें कटना बन्द हो जायें और बकरे कटें, ऐं.! और बकरे कटना बन्द हो जाए और अण्डों की उत्पति शुरू हो जाए.नहीं यह गलत है, एक साथ सभी जीवों के प्रति अभय देने की भावना धर्मात्मा के अन्दर होनी चाहिए। वे भी संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव हैं, उनके भी ज्ञान की गरिमा है, उनके आचरण की सीमा है, उनकी दृष्टि भी समीचीन होती है। जीव विज्ञान को पढ़ने से ऐसा ज्ञान हो जाता है कि उनके अन्दर ऐसा ज्ञान, ऐसा चारित्र भरा हुआ है। ऐसी उन जीवों की आस्था रहती है कि आप लोगों को तो प्रशिक्षण देना पड़ता है, किन्तु उनको मात्र इशारा काफी है। देखकर, वे ऐसा जान सकते हैं, पहिचान सकते हैं, आप यहाँ बैठे सुन रहे हैं, लेकिन आप ही मात्र श्रोता हैं ऐसा नहीं है। पेड़ के ऊपर बैठी चिड़ियाँ भी सुन सकती हैं और वे सब प्राणी अपने जीवन को धर्ममय बना सकते हैं। पुराणों के अन्दर ऐसी कथाओं की भरमार है। इन कथाओं को पढ़कर ऐसा लगता है कि हम लोगों को अल्पसमय में बहुत उन्नति कर लेना चाहिए लेकिन करते नहीं हैं। उसका कारण यही है कि हम लोगों का जीवन किसके ऊपर निर्धारित है इसका थोड़ा भी हम विचार नहीं करते। आपका समय हो गया है, सावधान हो जाइये! आपको अभी आगे यात्रा और करनी है। आज आप लोग यह संकल्प कर लें कि नये कपड़े खरीदने से पहले पुराने कपड़े कितने हैं, इसका हिसाब लगा लें और वे फटे हैं कि नहीं? यह देखकर ही बाद में खरीदें। यदि दया आ जाए तो पुराने कपड़े जिनके पास कपड़े नहीं हैं उनके लिए दे दें। इस युग में रहने वाले गाँधीजी ने अपने जीवन को 'Simple living and high thinking' (सादा जीवन-उच्च विचार) के माध्यम से उन्नत बनाया था। वे सदा सादगी से रहते थे। शरीरिक शक्ति कम थी लेकिन आत्मिक शक्ति, धर्म का सम्बल अधिक था। उनके अनुरूप जीवन को बनाने के लिए आप लोग यह संकल्प कर लें जितनी सामग्री आवश्यक है, उतनी ही रखें, उससे अधिक नहीं इस प्रकार परिमाण करने से आप अपव्यय से बच सकते हैं। सर्वप्रथम व्यय से नहीं बचा जाता किन्तु अपव्यय से बचा जाता है। अपव्यय से बचना ही अपने जीवन को उन्नत बनाना है। आप लोग सोचते नहीं हैं कि कितना पैसा अनर्थ में खर्च हो जाता है ? खरीदने के लिए तो आप चले जाते हो, खरीद लेते हो लेकिन दूसरे दिन उसका महत्व कम हो जाता है। ऐसा क्यों होता है ? इसलिए होता है कि उसकी उपयोगिता नहीं थी और आपने खरीद लिया। वह सबसे बड़ा पाप है, जैनाचार्यों ने इसे अनर्थदण्ड कहा है, जो जीवों को दण्ड के समान पीड़ा पहुँचाता है उसे अनर्थदण्ड कहते हैं। अधिक से अधिक पाप अनर्थदण्ड के माध्यम से होता है। आप लोग समय का मूल्यांकन करते हुए जीवन को उन्नत बनाने का प्रयास करें। समय सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण धन है। आत्म तत्व को पाने के लिए समय का मूल्यांकन करें और अपव्यय से बचने का प्रयास करें तभी देश की, संस्कृति की सुरक्षा संभव है।
  13. लोक-परलोक की ज्ञाता गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी के चरणो में नमन करता हूं.....हे गुरूवर! आज मैं आपको विद्याधर के शौक के बारे में बताता हूं। युवा जवान को देखकर सहज ही उत्कंठा हो जाती है कि इसकी कैसी क्या प्रवृत्ति होगी ? आज विद्याधर की युवा अवस्था के बारे में हर किसी को जिज्ञासा बनी हुई है कि वे कैसे क्या करते थे ? इस संबंध में विद्याधर के अग्रज महावीर प्रसादजी ने जो बताया वही लिख रहा हूं- उस जमाने में तो दूरदर्शन नहीं था किंतु कर्ण से ज्ञानार्जन का साधन अवश्य था। तब नया नया रेडियो का प्रचलन हुआ था।अन्ना जी एक रेडियो खरीद कर लाए थे। विद्याधर को उसको चलाने का और मराठी में समाचार और कहानी संवाद सुनने का शौक हो गया था। वह आकाशवाणी, ऑल इंडिया रेडियो, और BBC लंदन स्टेशन के समाचार प्रायः सुनता था,उसे दुनिया जानने की जिज्ञासा प्रायः बनी रहती थी, किन्तु रेडियो सुनने की आदत नहीं पड़ी थी। इसलिये वह कब छूट गया, पता ही नहीं चला। इस प्रकार विद्याधर ज्ञान प्राप्ति के किसी भी साधन-उपाय को छोड़ता नहीं था, चाहे घर पर पिता का स्वाध्याय वाचन हो, विद्यालयीन पढ़ाई हो, मंदिर जी में स्वाध्याय हो या रेडियो हो। विद्याधर की इस सुप्रवृत्ति से शिक्षा मिलती है कि- वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग शिक्षा प्राप्ति के लिए करो, लेकिन आदि मत बनो। ज्ञान को जागृत करने की ललक मुझ में भी सदैव बनी रहे इस भावना के साथ आशीर्वाद का पिपासु........
  14. चलते फिरते तीर्थ गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणो में भावों की विशुद्धिपूर्वक प्रणाम करता हूं..... हे गुरूवर! किशनगढ़ चातुर्मास की एक विशेष बात आपको याद होगी कि-जब विद्याधर को आपने तीर्थ यात्रा जाने की बात कही थी, किंतु उन्होंने मना कर दिया था। इस संबंध में श्रीमती कनक जैन (दिल्ली)हाल निवासी ज्ञानोदय, अजमेर ने बताया- जब हम किशनगढ़ गुरु महाराज के दर्शन करने के लिए आए तब यह बात पता चली, वही बात मैं आपको लिख रहा हूं- सन 1967 में किशनगढ़ के कुछ सज्जनों ने ब्रह्मचारी विद्याधर को निवेदन किया कि- यात्रा के लिए बस जा रही है,आप भी चलिए, तीर्थ यात्रा हो जावेगी। तो ब्रम्हचारी विद्याधर जी ने मना कर दिया बोले- मुझे बहुत पढ़ना है। तो वह सज्जन आचार्य श्री ज्ञानसागर जी के पास आए और बोले- गुरु महाराज हम लोग यात्रा पर जा रहे हैं विद्याधर जी को चलने का निवेदन किया तो वह मना कर रहे हैं। तब गुरुवर ज्ञान सागर जी बोले- विद्याधर!तीर्थ यात्रा पर चले जाओ मना क्यों कर रहे हो ? तब विद्याधर बोले- "महाराज! मैंने आपके चरणों में वाहन का त्याग कर दिया है और मुझे ज्ञान तीर्थ की यात्रा करनी है, जो मैं कर रहा हूँ। आपके चरणो को छोड़कर मुझे कहीं नहीं जाना है।" इस प्रकार विद्याधर एक सच्चे अन्तरयात्री थे, जो ज्ञान रथ पर सवार होकर गुरु के सम्यक् ज्ञान तीर्थ की वंदना करने निकल पड़े थे। ऐसे सम्यक् ज्ञान तीर्थ की मैं वंदना करता हूं। अपने गुरु के रत्नत्रय तीर्थ की मैं सदा वंदना करता हूं इस भावना के साथ.......
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