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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. आचार्य स्वयं भी तैरता है और दूसरों को भी तैराता है। आचार्य नौका के समान है। वह पूज्य है। इन भावनाओं के अंतर्गत अरहंत परमेष्ठी के बाद आचार्य परमेष्ठी की भक्ति का विवेचन है। सिद्ध परमेष्ठी को यहाँ ग्रहण नहीं किया गया क्योंकि उपयोगिता के आधार पर ही महत्व दिया जाता है। जैनेतर साहित्य में भी भगवान से बढ़कर गुरु की ही महिमा का यशोगान किया है। गुरु गोविन्द दोनों खड़े काके लागूँ पाय। बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताय॥ ‘बताय' शब्द के स्थान पर यदि 'बनाय' शब्द रख दिया जाय तो अधिक उपयुक्त होगा क्योंकि गुरु शिष्य को भगवान् बना देते हैं। इसीलिए उन्हें तरणतारण कहा गया है। गुरु स्वयं तो सत्पथ पर चलते हैं, दूसरों को भी चलाते हैं। चलने वाले की अपेक्षा चलाने वाले का काम अधिक कठिन है। रास्ता दूसरों को तारता है इसलिए वह तारण कहलाता है। पुल भी तारण है। किन्तु रास्ता और पुल दोनों स्वयं खड़े रह जाते हैं। 'गुरु' स्वयं भी तैरते हैं और दूसरों को भी तैराते हैं। इसलिए उनका महत्व शब्दातीत है। आचार्य नौका के समान हैं जो स्वयं नदी के उस पार जाती है और अपने साथ अन्यों को भी पार लगाती है। भगवान् महावीर की वाणी गणधर आचार्य की अनुपस्थिति होने से छियासठ दिन तक नहीं खिरी। आचार्य ही उस वाणी को विस्तार से समझाते हैं। वे अपने शिष्यों को आलंबन देते हैं, बुद्धि का बल प्रदान करते हैं, साहस देते हैं। जो उनके पास दीक्षा लेने जाये, उसे दीक्षा देते हैं और अपने से भी बड़ा बनाने का प्रयास करते हैं। वे शिष्य से यह नहीं कहते तू मुझ जैसा बन जाये वे तो कहते हैं तू भगवान बन जाये। मोक्षमार्ग में आचार्य से ऊँचा साधु का पद है। आचार्य अपने पद पर रहकर मात्र उपदेश और आदेश देते हैं, किन्तु साधना पूरी करने के लिये साधु पद को अंगीकार करते हैं। मोक्षमार्ग का भार साधु ही वहन करता है। इसीलिए चार मंगल पदों में, चार उत्तम पदों में और चार शरण पदों में आचार्य पद को पृथक् ग्रहण न करके साधु पद के अंतर्गत ही रखा गया है। आचार्य तो साधु की ही एक उपाधि है जिसका विमोचन मोक्ष-प्राप्ति के पूर्व होना अनिवार्य है। जहाँ राग का थोड़ा भी अंश शेष है, वहाँ अनन्त पद की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसीलिए साधना में लीन साधु की वंदना और तीन प्रदक्षिणा आचार्य द्वारा की जाती है। मैंने अभी दो दिन पूर्व थोड़ा विचार किया इस बात पर कि भगवान महावीर अपने साधना काल में दीक्षा के उपरान्त बारह वर्ष तक निरन्तर मौन रहे। कितना दृढ़ संकल्प था उनका। बोलने में सक्षम होते हुए भी, वचन गुप्ति का पालन किया। वचन-व्यापार रोकना बहुत बड़ी साधना है। लोगों को यदि कोई बात करने वाला न मिले तो वे दीवाल से ही बातें करने लगते हैं। एक साधु थे। नगर से बाहर निकले इसलिये कि कोई उनसे बातें न करे किन्तु फिर भी, एक व्यक्ति उनके साथ हो गया और बोला-महाराज, मुझे अपने जैसा बना लें। मैं आपकी सेवा करता रहूँगा। आपको कोई न कोई सेवक तो चाहिए अवश्य सेवा करने के लिये। साधु बड़े पशोपेश में पड़ गये। आखिर बोले, सबसे बड़ी मेरी सेवा आप ये ही करो कि बोलो नहीं। बोलना बन्द कर दी। बोलने वालों की कमी नहीं है, प्राय: सर्वत्र मिल जाते हैं। मुझे स्वयं भी एक ऐसी घटना का सामना करना पड़ा मदनगंज, किशनगढ़ में। ब्रह्मचर्य अवस्था में एक स्थान पर बैठकर मैं सूत्रजी का पाठ कर रहा था। एक बूढ़ी माँ आई और मुझसे कुछ पूछने वहीं बैठ गयी। मैं मौन ही रहा परन्तु धीरे-धीरे वहाँ और भी कई मातायें आकर बैठने लगीं और दूसरे दिन से मुझे वह स्थान छोड़ना पड़ा। विविक्त शय्यासन अर्थात् एकांतवास भी एक तप है जिसे साधु तपता है इसलिए कि एकान्त में ही अन्दर की आवाज सुनाई पड़ती है। बोलने से साधना में व्यवधान आता है। आचार्य कभी भी स्वयं को आचार्य नहीं कहते। वे तो दूसरों को बड़ा बनाने में लगे रहते हैं। अपने को बड़ा कहते नहीं। कोई और उन्हें कहे तो वे उसका विरोध भी नहीं करते और विरोध करना भी नहीं चाहिए। गाँधीजी के सामने एक बार यह प्रश्न आया। एक व्यक्ति उनके पास आया और बोला, महाराज, आप बड़े चतुर हैं, अपने आप को महात्मा कहने लग गये। गाँधीजी बोले, "भैया, मैं अपने को महात्मा कब कहता हूँ। लोग भले ही कहें। मुझे क्या ? मैं किसी का विरोध क्यों करूं ?" यही उनकी महानता है।
  2. प्रसन्नचित्त विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार हमेशा प्रसन्नचित रहना चाहिए, प्रसन्नचित रहने से कर्मों के वेग में भी आत्मा का संवेग भाव काम करता रहता है, इसलिए फूल की तरह हमेशा ‘प्रसन्न' रहना चाहिए। प्रसन्नचित्त होकर ही आवश्यकों का पालन करें, उससे और निखार आ जाता है दिनोंदिन चर्या के प्रति उल्लास बढ़ता जाता है। रोते हुए दिन निकालने की अपेक्षा मुस्कान के साथ दिन निकाल लो, कैसे निकालें ? प्रभु को देख लो वे हमेशा शांत रहते हैं। हम दु:खी रहते हैं तो सामने वाले भी दु:खी रहेंगे तो दोनों को असाता का बंध रहेगा, तो क्या आप दूसरों को असाता का बंध कराना चाहते हैं? प्रभु! आपने मोक्षमार्ग का प्ररूपण किया पर कुछ भी बदले में चाह, इच्छा नहीं रखी, धन्य है आपकी यह अलौकिक वृत्ति। आत्महित के साथ-साथ परहित की भी सोच सकते हैं, यह अपायविचय धर्म्यध्यान में आ जाता है।
  3. प्रत्यक्ष-परोक्ष विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जिसमें आत्मा को ज्ञेय की ओर उपयोग ले जाना पड़ता है, वह परोक्ष ज्ञान है और जिसमें आत्मा को उपयोग बाहर नहीं ले जाना पड़ता वह प्रत्यक्ष ज्ञान है। परोक्ष का ही विश्वास किया जाता है, क्योंकि मानना तभी होता है जब तक उसकी साक्षात् अनुभूति नहीं होती। मान्यता में विवाद आ जाता है, जबकि प्रत्यक्ष होने पर विवाद समाप्त हो जाता है। स्वाध्याय के समय वाद-विवाद होता है और ज्यों ही भगवान् के सामने पहुँचे वाद-विवाद समाप्त, शांति मिल जाती है, यह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की महिमा है। परोक्ष साक्षात् सुख नहीं देता मान्यता में है कि सुख मिलेगा। किसी की परोक्ष में निंदा करना हिंसा का प्रतीक है। अवधिज्ञान प्रत्यक्षज्ञान होकर भी मर्यादित पदार्थ आदि को जानता है। जिसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव रूप व्यवधान उपस्थित हो जाते हैं, उसे परोक्ष कहते हैं। परोक्ष ज्ञान के द्वारा भक्ति अच्छी होती है, भक्ति के माध्यम से अपनी प्यास बुझा सकते हैं। परोक्ष ज्ञान में ही मन को संयत बनाने की बात होती है, प्रत्यक्ष ज्ञान के बाद कुछ नहीं होता।
  4. भक्ति-गंगा की लहर हृदय के भीतर से प्रवाहित होनी चाहिए और पहुँचनी चाहिए वहाँ, जहाँ निस्सीमता है। आज हम अहत् भक्ति की प्ररूपणा करेंगे। अर्हतीति अर्हत् अर्थात् जो पूज्य हैं उनकी उपासना, उनकी पूजा करना। इसी को अर्हत् भक्ति कहते हैं, किन्तु प्रश्न है पूज्य कौन? किसी ने कहा था-भारत देश की विशेषता ही ये है कि यहाँ पूज्य ज्यादा हैं और पूजने वाले कम हैं। उपास्य ज्यादा हैं उपासक कम। जब पूज्यों की कमी हुई तो प्रचुर मात्रा में मूर्तियों का निर्माण होने लगा। पूज्य कौन है? इसी प्रश्न का उत्तर पहले खोजना होगा क्योंकि पूज्य की भक्ति ही वास्तविक भक्ति हो सकती है। अन्य भक्तियाँ तो स्वार्थ साधने के लिये भी हो सकती हैं। पूज्य की भक्ति में गतानुगतिकता के लिये स्थान नहीं है। दो सम्यकद्रष्टियों के भाव, विचार और अनुभव में अन्तर होना संभव है। भले ही लक्ष्य एक हो क्योंकि अनुभूति करना हमारे अपने हाथ की बात है। भाव तो असंख्यात लोक प्रमाण है। आज से कई वर्ष पूर्व दक्षिण से एक महाराज आये थे। उन्होंने एक घटना सुनाई। दक्षिण में एक जगह किसी उत्सव में जुलूस निकल रहा था। मार्ग थोड़ा सकरा था पर साफ सुथरा था। अचानक कहीं से आकर एक कुत्ते ने उस मार्ग में मल कर दिया। स्वयं-सेवक देखकर सोच में पड़ गया। परन्तु जल्दी ही विचार करके उसने उस मल पर थोड़े से फूल डाल कर ढक दिया। अब क्या था एक-एक करके जुलूस में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति ने उस पर फूल चढ़ाये और वहाँ फूलों का अम्बार लग गया। वह स्थल पूज्य बन गया। ऐसी मूढ़ता के लिये भक्ति में कोई स्थान नहीं है। भक्ति किसकी ? जो भक्तों से कहे, आ जाओ मेरी ओर, और मेरी पूजा करो, मैं तुम्हें शरण दूँगा। ऐसा कहने वाला भगवान नहीं हो सकता। जहाँ लालसा है ख्याति की, वहाँ भगवान कैसे ? काम भोग की आकांक्षा रखने वालों से भगवान् का क्या वास्ता ? 'भगवान् भक्त के वश में होते आये' इस कहावत का भी अर्थ गहराई से समझना पड़ेगा। भगवान् तो चुम्बक हैं जो उस लोहे को अपनी ओर खींच लेते हैं जिसे मुक्ति की कामना है। उस पाषाण को कभी नहीं खींचते जिसे भुक्ति की कामना है। भक्ति-गंगा की लहर हृदय के भीतर से प्रवाहित होनी चाहिए और पहुँचनी चाहिए वहाँ, जहाँ निस्सीमता है। गंगा के तट पर पहुँचकर एक आदमी चुपचाप नदी का बहना देखता रहा। उसके गंगा से यह पूछने पर कि वह कहाँ दौड़ी चली जा रही है ? नदी ने मौन उत्तर दिया वहाँ जा रही हूँ, जहाँ मुझे शरण मिले। पहाड़ों में शरण नहीं मिली। मरुभूमि और गड़ों में मुझे शरण नहीं मिली, जहाँ सीमा है, वहाँ शरण मिल नहीं सकती, नदी की शरण तो सागर में है, जहाँ पहुँच कर बिन्दु सिन्धु बन जाता है और जहाँ इन्दु भी गोद में समा जाता है। पूजा करो, पूर्ण की करो। अनंत की करो। लोक में विख्यात है कि सुखी की पूजा करोगे तो तुम स्वयं भी सुखी बन जाओगे। गंगा, सिन्धु के पास पहुँच कर स्वयं भी सिन्धु बन गयी। वहाँ गंगा का अस्तित्व मिटा नहीं, बिन्दु मिटी नहीं, सागर के समान पूर्ण हो गयी। जैसे एक कटोरे-जल में लेखनी द्वारा एक कोने से स्याही का स्पर्श कर देने से सारे जल में स्याही फैल जाती, है इसी तरह गंगा भी सारे सिन्धु पर फैल गयी अपने अस्तित्व को लिए हुए। इसे जैनाचार्यों ने स्पर्द्धक की संज्ञा दी है जिसका अर्थ है शक्ति। यह कहना उपयुक्त होगा कि भगवान् भक्त के वश में होते आये और भक्त भगवान् के वश में होते आये, क्योंकि जहाँ आश्लेष हो जाये, वही है असली भक्ति का रूप। हमारी मुक्ति नहीं हो रही क्योंकि हमारी भक्ति में भुक्ति की इच्छा है। जहाँ लालसा हो, भोगों की इच्छा हो, वहाँ मुक्ति नहीं। भक्ति में तो पूर्ण समर्पण होना चाहिए। पर समर्पण है कहाँ ? हम तो केवल भोगों के लिए भक्ति करते हैं अथवा हमारा ध्यान पूजा के समय भी जूतों चप्पलों की ओर ज्यादा रहता है। मैंने एक सज्जन को देखा भक्ति करते हुए। एक हाथ चाबियों के गुच्छे पर और एक हाथ भगवान् की ओर उठा हुआ। यह कौन-सी भक्ति हुई, भइया बताओ। कल आपको क्षुल्लकजी ने यमराज के विषय में सुनाया था। दांत गिरने लगे, वृद्धावस्था आ गई तो अब समझो श्मशान जाने का समय समीप आ गया किन्तु आप तो नई बत्तीसी लगवा लेते हैं क्योंकि अभी भी रसों की भुक्ति बाकी है। रसों की भक्ति वाला कभी मुक्ति की ओर देखता नहीं। भक्ति मुक्ति के लिए है और भुक्ति संसार के लिए है। हम अपने परिणामों से ही भगवान् से दूर हैं और परिणामों की निर्मलता से ही उन्हें पा सकते हैं। भक्ति करने के लिए भक्त को कहीं जाना नहीं पड़ता। भगवान् तो सर्वज्ञ और सर्वव्यापी हैं। जहाँ बैठ जाओ, वहीं भक्ति कर सकते हो। हमारे भगवान् किसी को बुलाते नहीं और यदि आप वहाँ पहुँच जायेंगे तो आपको दुतकारेंगे भी नहीं। क्या सागर, गंगा नदी से कहने गया कि तू आ, किन्तु नदी बहकर सागर तक गई तो सागर ने उसे भगाया भी नहीं। मन्दिर उपयोग को स्थिर करने के लिये हैं। किन्तु सबके उपयोग को स्थिर करने में निमित्त बने, ये जरूरी नहीं है। जैनाचार्यों ने कहा, जो अर्हत को जानेगा, वह खुद को भी जानेगा। पूज्य कौन है ? मैं स्वयं पूज्य, मैं स्वयं उपास्य। मैं स्वयं साहूकार हूँ तो भीख किससे मांगूं ? मैं ही उपास्य जब हूँ स्तुति अन्य की क्यों? मैं साहूकार जब हूँ, फिर याचना क्यों ? बाहर का कोई भी निमित्त हमें अहत् नहीं बना सकता। अहत् बनने में साधन भर बन सकता है, अहत् बनने के लिए दिशा-बोध भर दे सकता है पर बनना हमें ही होगा। इसीलिये भगवान् महावीर और राम ने कहा- तुम स्वयं अर्हत् हो। हमारी शरण में आओ, ऐसा नहीं कहा। कहेंगे भी नहीं। ऐसे ही भगवान वास्तव में पूज्य हैं। तो हमारा कर्तव्य है कि हम अपने अन्दर डूब जायें। मात्र बाहर का सहारा पकड़ कर बैठने से अहन्त पद नहीं मिलेगा। जब तक भक्ति की धारा बाहर की ओर प्रवाहित रहेगी तब तक भगवान् अलग रहेंगे और भक्त अलग रहेगा। जो अर्हत् बन चुके हैं उनसे दिशा-बोध ग्रहण करो और अपने में डूब कर उसे प्राप्त करो। 'जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ।' यही है सच्ची अहत् भक्ति की भूमिका। गहरे पानी पैठ वाली बात को लेकर आपको एक उदाहरण सुनाता हूँ। एक पण्डित जी रोज सूर्य को नदी के किनारे एक अंजुलि जल देते थे और फिर नदी में गोता लगाकर निकल आते थे। एक गड़रिया जो रोज उन्हें ऐसा करते देखता था उसने पूछा- महाराज, यह गोता क्यों लगाते हो पानी में ? पंडित जी बोले-तू क्या जाने गड़रिये, ऐसा करने से भगवान् के दर्शन होते हैं। भगवान् के दर्शन, ओह! आपका जीवन धन्य है, मैं भी करके देखेंगा और इतना कहकर गड़रिया चला गया। दूसरे दिन पंडित जी के आने से पहिले वह नदी में कूद गया और डूबा रहा दस मिनट पानी में। जल देवता, उसकी भक्ति और विश्वास देखकर दर्शन देने आ गये और पूछा- माँग वरदान, क्या माँगता है ? गडरिया आनंद से भरकर बोला- दर्शन हो गए प्रभु के, अब कोई माँग नहीं। प्रभु के दर्शन के बाद कोई माँग शेष नहीं रहती। ऐसे ही गहरे अपने अन्दर उतरना होगा तभी प्राप्ति होगी प्रभु या स्वयं या आत्मा की। महावीर जी में मैंने देखा एक सज्जन को। घड़ी देखते जा रहे हैं और लगाये जा रहे हैं चक्कर मंदिर के। पूछने पर बताया, एक हजार आठ चक्कर लगाना है। पहले एक सौ आठ चक्कर लगाए थे, बड़ा लाभ हुआ था। ऐसे चक्कर से, जिसमें आकुलता हो, कुछ नहीं मिलता। भक्ति का असली रूप पहिचानो, तभी पहुँचोगे मंजिल पर, अन्यथा संसार की मरुभूमि में ही भटकते रह जाओगे।
  5. प्रमाद विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार प्रत्येक प्रवृत्ति में प्राय: प्रमाद जुड़ा रहता है। प्रमाद आत्मा की कमजोरी का नाम है, तीर्थंकर भी छद्मस्थ अवस्था में प्रमाद में, छट्टे गुणस्थान में आ जाते हैं। अभ्यन्तर प्रमाद तो वर्धमान चारित्र वाले तिर्थंकरो में भी आ जाता है। अप्रमत्त का अर्थ प्रमाद रहित अवस्था है, यह मुनिराज में सप्तम-गुणस्थान में गुप्ति एवं समिति दोनों में रह सकती है। आहार एवं स्वाध्याय के समय भी मुनियों के सप्तम-गुणस्थान होता है। समितियों का पालन करते समय बुद्धिपूर्वक प्रमाद होता है और गुप्ति आदि के समय अबुद्धिपूर्वक प्रमाद होता है। शनिवार की रात को सोया विद्यार्थी रविवार को जानबूझकर देर से उठता है, क्योंकि उसे मालूम है कि आज उसे स्कूल नहीं जाना, यह प्रमाद (आलस्य) कहलाता है। प्रमाद वास्तव में असावधानी ही है, इसे भी कषाय में ही गिना है। इस जीव को जब तक योग्य पदार्थ नहीं मिलता तब उसके लिए प्रयास करता है और मिल जाने पर प्रमाद करने लगता है।
  6. प्रज्ञा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार प्रज्ञा के द्वारा आत्मा और कर्म के सम्बन्ध को जानो तथा प्रज्ञा के द्वारा आत्मा को जानो एवं प्रज्ञा के द्वारा कर्म का छेदन करो। प्रज्ञा के द्वारा ही धर्म का स्वरूप जाना जा सकता है।
  7. प्रशंसा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार भोजन कराने वालों की प्रशंसा तब तक नहीं करनी चाहिए जब तक भोजन पच न जाये, यह नीति वाक्य है। जब तक राजा युद्ध में जीतकर न आ जाये तब तक राजा की प्रशंसा मत करना। जब तक नारी वृद्धा नहीं हो जाती भले शीलवती हो प्रशंसा नहीं करनी चाहिए। जब तक साधना पूरी नहीं हो जाती, तब तक अपनी साधना की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए। नाविक की प्रशंसा नाव के उस पार जाने तक नहीं करनी चाहिए। जैसे बीज बोने के उपरांत किसान की प्रशंसा तब तक नहीं करनी चाहिए जब तक वह फसल को काटकर घर नहीं ले आता । आप किसी की प्रशंसा नहीं कर सकते तो एक नियम ले लो कि हम कभी किसी की निन्दा नहीं करेंगे।
  8. परमार्थ विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार स्वार्थ वही सही माना जाता है जिससे परमार्थ की सिद्धि होती है। तत्वोपदेश परमार्थ की भावना से ही दिया जाता है। तत्व का प्ररूपण करने के लिए स्वार्थ का विमोचन करना अनिवार्य है। अर्थ एवं काम पुरुषार्थ श्रावकों को धर्म पुरुषार्थ पूर्वक ही करना चाहिए, तभी जीवन सार्थक हो सकता है। साधु उसी को कहते हैं जो परमार्थमय हो क्योंकि परमार्थरत ही मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
  9. निश्चय/व्यवहार विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार वह व्यवहार, व्यवहार नहीं माना जाता जो निश्चय की ओर न ले जाए और वह निश्चय, निश्चय नहीं माना जाता, जो व्यवहार को बिल्कुल ही तोड़कर रख दे, गौण कर दे। बाहरी पक्ष, भीतरी पक्ष दोनों आपस में सम्बन्ध रखते हैं, जिसे हम व्यवहार या निश्चय कह सकते हैं। निश्चय-व्यवहार दोनों नय सापेक्ष हैं। जैसे एक आँख विषय बनाती हैं तो दूसरी आँख सहयोग देती है। परस्पर सापेक्षता से ही काम चलता है। निश्चय कहता है तुम बाह्य में कुछ नहीं कर सकते यदि करना है तो अपने में कुछ करो। निश्चय में कर्म, कर्ता, करण सामग्री अभिन्न हुआ करती है और हमारी दृष्टि हमेशा भेद पर जाती है, अभिन्न की ओर जाना महत्वपूर्ण है। अभिन्न से निरालम्ब, परनिर्पक्ष अपने आप रुचने लगता है। हम निश्चय के स्थान पर व्यवहार और व्यवहार के स्थान पर निश्चय की बात करते हैं यही गलत है। व्यवहार में भी जिसे छोड़ रहे हो उस ओर दृष्टि न रखकर जो निश्चय ग्रहण करना है उस ओर दृष्टि रखना चाहिए। भगवान् निश्चय से आत्मज्ञ हैं और व्यवहार से सर्वज्ञ हैं। निश्चय में अपना आत्म तत्व ही उपादेय है। अशुद्ध निश्चयनय बारहवें गुणस्थान तक चलता है क्योंकि वहाँ तक अशुद्ध उपादान चलता रहता है। त्याग और ग्रहण निश्चय में होता ही नहीं। नरकों में जो वेदना है, वह सम्यक दर्शन का भी कारण बनती है। केवली भगवान् निश्चय से आत्मा को देखते-जानते हैं, व्यवहार से सभी को जानते हैं। अर्थात् निश्चय से आत्मज्ञ हैं और व्यवहार से सर्वज्ञ हैं। स्वसंवेदन तो निश्चयनय का आलम्बन लेकर ही किया जा सकता है। अपने आप को उन्मार्ग से उठाकर सन्मार्ग पर लाना निश्चय सम्यक दर्शन है। यदि गुरु महाराज हमेशा निश्चय में ही बैठे रहते तो हम लोग इस मार्ग पर कैसे आ पाते ? व्यवहार में धर्म तीर्थ की प्रभावना होती है और निश्चय में आत्मा को प्राप्त करने की भावना होती है। व्यवहार धर्म के अभाव में धर्म तीर्थ का लोप हो जायेगा और निश्चय धर्म के अभाव में आत्म तत्व का लोप हो जायेगा, अत: दोनों धर्म की आपस में मित्रता है। एक दूसरे में कार्यकारण या साध्य-साधक का सम्बन्ध है। निश्चय या शुद्धोपयोग तो उपादेय है ही लेकिन व्यवहार, शुभोपयोग उसका कारण है उपकारक है, इसलिए यह भी उपादेय है। अशुद्ध निश्चयनय से राग जीवात्मा ने किया, निश्चय से तो आत्मा में राग है ही नहीं ऐसा श्रद्धान रखना ही सही श्रद्धान है तभी हम राग को छोड़ सकते हैं। निश्चयनय से संसारी प्राणी कषायों से, पापों से रहित है। फिर मोक्षमार्ग पर चलो, ऐसा कहना गलत है पर ऐसा नहीं है इसलिए व्यवहार धर्म आवश्यक है। व्यवहारनय से जो भगवान् का श्रद्धान नहीं कर सकता, वह निश्चय से भी श्रद्धान नहीं कर सकता | निश्चयनय की अपेक्षा न बंध है, न मोक्ष है बल्कि सभी जीव शुद्धनय से सिद्धस्वरूप ही हैं। निश्चय का अर्थ स्वभाव होता है इसलिए राग-द्वेष जीव से नहीं बल्कि जीव के स्वभाव से भिन्न हैं, ऐसा विश्वास रखने पर ही हम राग-द्वेष से बच सकते हैं, वरन् हम कभी राग-द्वेष को छोड़ ही नहीं सकते। श्रमण (साधु) को दो ड्रेस (पोशाक) दी गयीं हैं। आत्मा से बाहर आते ही व्यवहार में मूलाचार और निश्चय से जब आत्मा में जाते हैं तो समयसार है। लेकिन एक बात हमेशा ध्यान रखना बिना मूलाचार के समयसार में प्रवेश नहीं किया जा सकता क्योंकि व्यवहार मुद्रा से ही निश्चय मुद्रा बनती है। आत्मा दूध की भाँति है और राग-द्वेष आदि कर्म पानी की भाँति हैं, इनका आपस में अनादिकाल से सम्बन्ध है। ऐसा जब तक श्रद्धान नहीं होगा, तब तक दोनों को पृथक्-पृथक् करने की बात ही नहीं होती। शुद्धोपयोग अशुद्ध निश्चयनय का विषय है, क्योंकि वह स्वभाव नहीं है। अपने आपको उन्मार्ग से उठाकर सन्मार्ग पर लाना निश्चय सम्यक दर्शन को पुष्ट करना है। जितने भी सिद्ध हुए हैं, उन्हें सबसे पहले व्यवहार मोक्षमार्ग प्राप्त हुआ है फिर निश्चय मोक्षमार्ग । व्यवहार पराश्रित नहीं है, क्योंकि पर के सहयोग से वह अपने में ही होता है। व्यवहार धर्म चकमक से उत्पन्न आग जैसा है और निश्चय धर्म लाइटर जैसा है। सम्यक दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप हलुआ बना है वही आत्म तत्व निश्चय रत्नत्रय है, ध्यान रूपी अग्नि से पकाया हुआ। सम्यक दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों अभिन्न हों, तभी मोक्ष प्राप्त होता है। जैसे नृत्यकार, गीतकार और वादक तीनों का स्वर एक हो तभी संगीत में आनंद आता है। निश्चय में सम्यक दर्शनज्ञान-चारित्र की एकता रहती है। जब व्यवहार में अनुपात सही रहेगा तभी निश्चय धर्म प्राप्त होगा।
  10. वास्तव में दूसरे की सेवा करने में हम अपनी ही वेदना मिटाते हैं। दूसरों की सेवा में निमित्त बनकर अपने अंतरंग में उतरना ही सबसे बड़ी सेवा है। वैयावृत्य का अर्थ है - सेवा, सुश्रुषा, अनुग्रह, उपकार। सेवा की चर्चा करते ही हमारा ध्यान पड़ोसी की ओर चला जाता है। बचाओ शब्द कान में आते ही हम देखने लग जाते हैं कि किसने पुकारा है, कौन अरक्षित है और हम उनकी मदद के लिये दौड़ पड़ते हैं। किन्तु अपने पास में जो आवाज उठ रही है उसकी ओर आज तक हमारा ध्यान नहीं गया। सुख की खोज में निकले हुए पथिक की वैयावृत्ति आज तक किसी ने नहीं की। सेवा, तभी हो सकती है जब हमारे अन्दर सभी के प्रति अनुकम्पा जागृत हो जाये। अनुकम्पा के अभाव में न हम अपनी सेवा कर सकते हैं और न दूसरे की ही सेवा कर सकते हैं। सेवा किसकी ? ये प्रश्न बड़ा जटिल है। लौकिक दृष्टि से हम दूसरे की सेवा भले कर लें किन्तु पारमार्थिक क्षेत्र में सबसे बड़ी सेवा अपनी ही हो सकती है। आध्यात्मिक दृष्टि से किसी अन्य की सेवा हो ही नहीं सकती। भगवान का उपकार भी उसी को प्राप्त हो सकता है जो अपना उपकार करने में स्वयं अपनी सहायता करते हैं। दूसरों का सहारा लेने वाले पर भगवान कोई अनुग्रह नहीं करते। सेवा करने वाला वास्तव में अपने ही मन की वेदना मिटाता है। यानि अपनी ही सेवा करता है। दूसरे की सेवा में अपनी ही सुख-शांति की बात छिपी रहती है। मुझे एक लेख पढ़ने को मिला। उसमें लिखा था कि इंग्लैण्ड का गौरव उसके सेवकों में निहित है। किन्तु सच्चा सेवक कौन ? तो एक व्यक्ति कहता है कि चाहे सारी सम्पति चली जाय, चाहे सूर्य का आलोक भी हमें प्राप्त न हो किन्तु हम अपने देश के श्रेष्ठ कवि शेक्सपियर को किसी कीमत पर नहीं छोड़ सकते। वह देश का सच्चा सेवक है कहा भी है- "जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि"। ठीक है, कवि गूढ़ तत्व का विश्लेषण कर सकता है किन्तु एक काम तो वह भी नहीं कर सकता, वह "निजानुभवी नहीं बन सकता।" ऐसा कहा जा सकता है कि जहाँ न पहुँचे कवि, वहाँ पहुँचे निजानुभवी-पाश्चात्य देश शब्दों को महत्व अधिक देते हैं जबकि भारत देश अनुभव को ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानता है। कवि और चित्रकार प्रकृति के चित्रण में सक्षम है किन्तु यही मात्र हमारा लक्ष्य नहीं, तट नहीं। स्वानुभव ही गति है और हमारा लक्ष्य भी है। स्वानुभवी बनने के लिये स्व-सेवा अनिवार्य है । स्वयंसेवक बनो, पर सेवक मत बनो। मात्र भगवान् के सेवक भी स्वयंसेवक नहीं बन पाते। 'खुदा का बन्दा' बनना आसान है किन्तु 'खुद का बन्दा' बनना कठिन है। खुद के बन्दे बनो। भगवान् की सेवा आप क्या कर सकेंगे ? वे तो निर्मल और निराकार बन चुके हैं। उनके समान निर्मल और निराकार बनना ही उनकी सच्ची सेवा है। हम शरीर की तड़पन तो देखते हैं किन्तु आत्मा की पीड़ा नहीं पहचान पाते। यदि हमारे शरीर में कोई रात को भी सुई चुभी दे तो तत्काल हमारा समग्र उपयोग उसी स्थान पर केन्द्रित हो जाता है। हमें बड़ी वेदना होती है किन्तु आत्म-वेदना को हमने आज तक अनुभव नहीं किया। शरीर की सड़ांध का हम इलाज करते हैं किन्तु अपने अंतर्मन की सड़ांध/उत्कट दुर्गध को हमने कभी असह्य माना ही नहीं। आत्मा में अनादि से बसी हुई इस दुर्गध को निकालने का प्रयास ही वैयावृत्य का मंगलाचरण है। हमारे गुरुवर आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने ‘कर्तव्य पथ प्रदर्शन' नाम के अपने ग्रन्थ में एक घटना का उल्लेख किया है। एक जज साहब कार में जा रहे हैं अदालत की ओर। मार्ग में देखते हैं कि एक कुत्ता नाली में फँसा हुआ है। जीवैषणा है उसमें किन्तु प्रतीक्षा है कि कोई आ जाये और उसे कीचड़ से बाहर निकाल दे। जज साहब कार रुकवाते हैं और पहुँच पाते हैं उस कुत्ते के पास। उनके दोनों हाथ नीचे झुक जाते हैं और झुककर वे उस कुत्ते को निकाल कर सड़क पर खड़ा कर देते हैं। सेवा वही कर सकता है जो झुकना जानता है। बाहर निकलते ही उस कुत्ते ने एक बार जोर से सारा शरीर हिलाया और पास खड़े जज साहब के कपड़ों पर ढेर सारा कीचड़ लग गया। सारे कपड़ों पर कीचड़ के धब्बे लग गये। किन्तु जज साहब घर नहीं लौटे। उन्हीं वस्त्रों में पहुँच गये अदालत में। सभी चकित हुए किन्तु जज साहब के चेहरे पर अलौकिक आनन्द की अद्भुत आभा खेल रही थी। वे शांत थे। लोगों के बार-बार पूछने पर बोले-मैंने अपने हृदय की तड़पन मिटाई है, मुझे बहुत शांति मिली है। वास्तव में, दूसरे की सेवा करने में हम अपनी ही वेदना मिटाते हैं। दूसरों की सेवा हम कर ही नहीं सकते। दूसरे तो मात्र निमित्त बन सकते हैं। उन निमित्तों के सहारे अपने अंतरंग में उतरना, यही सबसे बड़ी सेवा है। वास्तविक सुख स्वावलम्बन में है। आरम्भ में छोटे-छोटे बच्चों को सहारा देना होता है किन्तु बड़े होने पर उन बच्चों को अपने पैरों पर बिना दूसरे के सहारे खड़े होने की शिक्षा देनी होगी। आप हमसे कहें कि महाराज आप उस कुत्ते को कीचड़ में से निकालेंगे या नहीं, तो हमें कहना होगा कि हम उसे निकालेंगे नहीं। हाँ, उसको देखकर अपने दोषों का शोधन अवश्य करेंगे। आप सभी को देखकर भी हम अपना ही परिमार्जन करते हैं क्योंकि हम सभी मोह कर्दम में फँसे हुए हैं। बाह्य कीचड़ से अधिक घातक यह मोह-कर्दम है। आपको शायद याद होगा हाथी का किस्सा जो कीचड़ में फंस गया था। वह जितना निकलने का प्रयास करता उतना अधिक उसी कीचड़ में धंसता जाता था। उसके निकलने का एक ही मार्ग था कि कीचड़ सूर्य के आलोक से सूख जाये। इसी तरह आप भी संकल्पों-विकल्पों के दल-दल में फँस रहे हो। अपनी ओर देखने का अभ्यास करो, तब अपने आप ही ज्ञान की किरणों से यह मोह की कीचड़ सूख जायेगी। बस, अपनी सेवा में जुट जाओ, अपने आप को कीचड़ से बचाने का प्रयास करो। भगवान महावीर ने यही कहा है- 'सेवक बनो स्वयं के' और खुदा ने भी यही कहा है -खुद का बन्दा बन। एक सज्जन जब भी आते हैं एक अच्छा शेर सुनाकर जाते हैं। हमें याद हो गया अपने दिल में डूबकर पा ले, सुरागे जिंदगी। तू अगर मेरा नहीं बनता, न बन, अपना तो बन॥
  11. ध्यान विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अपने उद्देश्य को सही बनाये रखना ही धर्मध्यान है। आर्त्त, रौद्रध्यान को पहचानकर उसे छोड़ दो, फिर धर्मध्यान मिल जायेगा। हमारा कितना समय प्रमाद में निकल गया यह भी ध्यान में रखना चाहिए। सामायिक में तन, मन कब हिलता है, यह देखो इसी का नाम ध्यान है। ध्यान का कार्य ड्रायवर के जीवन के समान है। जो सभी व्रत, नियम रूपी यात्रियों को मंजिल तक पहुँचाता है। ध्यान सब अनुष्ठानों का उपसंहार है। सामायिक की सामर्थ्य से ध्यान धारण करते हैं और ध्यान से केवलज्ञान प्राप्त होता है। स्वभाव की ओर दृष्टि रखने से ध्यान अपने आप लग जाता है। ध्येय की ओर दृष्टि रखें ध्याता की ओर नहीं, क्योंकि ध्याता अशुद्ध है, ध्यान में शुद्ध को रखो। ध्यान करना फिर भी आसान है, लेकिन ध्यानातीत होना बहुत कठिन है। गुणस्थानातीत होने के लिए ध्यानातीत होना अनिवार्य है। ऐसा कोई भी गुणस्थान नहीं है जिसमें ध्यान नहीं हो। इसलिए कहा है कि ध्यानातीत हुए बिना मुक्ति नहीं हो सकती। ध्यान का अर्थ है अस्त-व्यस्त योगों को व्यवस्थित करना। सभी शुभ-ध्यानों से कर्म प्रकृतियों की निर्जरा होती है। शुद्धात्मा की आराधना से तात्पर्य है आत्म-ध्यान में लीन होना। शुद्धात्मा का ध्यान करने वाला रत्नत्रय का धारी होता है। रत्नत्रय महाव्रत धारण करने से प्राप्त होता है। ध्यान आत्मा का स्वभाव नहीं है, आत्मा का परिणाम है। ज्ञान और ध्यान में उतना ही अंतर होता है जितना प्रवृत्ति और निवृत्ति में हुआ करता है। शक्ति ज्ञान से नहीं ध्यान से आती है। दूसरे के दु:ख को देखकर दु:खी होना एवं दूसरे का दु:ख दूर कैसे हो, ऐसा विचार करना अपायविचय धर्म ध्यान कहलाता है। ध्यान रूपी अग्नि के माध्यम से ही कर्म रूपी ईधन को जलाया जा सकता है। शुक्लध्यान की ओर ध्यान रखने से धर्मध्यान अच्छे से होता है। शारीरिक वेदना होने पर भी उसमें हर्ष-विषाद नहीं करना धर्मध्यान का कारण है। ध्यान में एक काम अच्छा हो जाता है कि स्वार्थ मिट जाता है। ध्यान मुद्रा में भद्रता होनी चाहिए यह प्रसन्नता का प्रतीक है। यह हास्य नहीं है, हर्ष-विषाद से परे है। दूसरों के दु:ख को देखकर आँखों में पानी आना धर्म ध्यान है। आज पानी का स्तर नीचे क्यों जा रहा है ? क्योंकि आज दूसरों के दु:ख को देखकर आँखों में पानी नहीं आ रहा है। ध्यान में कंडीशन तो होती है लेकिन एयर कंडीशन नहीं। स्वार्थ के लिए रोना आर्तध्यान माना जाता है। स्वार्थ को भूलने से धर्म ध्यान अपने आप हो जाता है। ध्यान द्वारा संसार का भी संपादन होता है तो ध्यान द्वारा मुक्ति का भी सम्पादन होता है। एक ध्यान सोपान का कार्य कर जाता है तो एक ध्यान मदिरापान का। एक ध्यान के माध्यम से हम गिर जाते हैं, एक ध्यान के माध्यम से हम उन्नत हो जाते हैं, आगे बढ़ जाते हैं। निश्चिंतता में जहाँ भोगी सो जाता है, वहाँ योगी आत्मा में खो जाता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुरूप हमारी शक्ति सो भी जाती है और जाग भी जाती है। निमित्ताधीन दृष्टि होने से ही परिणाम विकृत होते हैं। नदी, पहाड़ों-पत्थरों से डरकर कभी वापस नहीं लौटती। जबकि मानव को थोड़ी-सी कठिनाई का अनुभव हो जाता है तो वह अपना रास्ता बदलने लग जाता है।
  12. हर्ष विवाद से परे आत्म-सत्ता की सतत् अनुभूति ही सच्ची समाधि है। यहाँ समाधि का अर्थ मरण से है। साधु का अर्थ है श्रेष्ठ/अच्छा अर्थात् श्रेष्ठ/आदर्श। मृत्यु को साधु-समाधि कहते हैं। ‘साधु' का दूसरा अर्थ "सज्जन" से है। अत: सज्जन के मरण को भी साधु-समाधि कहेंगे। ऐसे आदर्श-मरण को यदि हम एक बार भी प्राप्त कर लें तो हमारा उद्धार हो सकता है। जन्म और मरण किसका ? हम बच्चे के जन्म के साथ मिष्ठान्न वितरण करते हैं। बच्चे के जन्म के समय सभी हँसते हैं, किन्तु बच्चा रोता है। इसलिये रोता है कि उसके जीवन के इतने क्षण समाप्त हो गये। जीवन के साथ ही, मरण का भय शुरू हो जाता है। वस्तुत: जीवन और मरण कोई चीज नहीं है। यह तो पुद्गल का स्वभाव है, वह तो बिखरेगा ही। आपके घरों में पंखा चलता है। पंखे में तीन पंखुड़ियाँ होती हैं। और जब पंखा चलता है तो एक पंखुड़ी मालूम पड़ती है। ये पंखुड़ियाँ उत्पाद, व्यय, श्रौव्य की प्रतीक हैं और पंखे के बीच का डंडा जो है वह सत् का प्रतीक है। हम वस्तु की शाश्वतता को नहीं देखते, केवल जन्म-मरण के पहलुओं से चिपके रहते हैं जो भटकाने/घुमाने वाला है। समाधि ध्रुव है, वहाँ न आधि है, न व्याधि है और न ही कोई उपाधि है। मानसिक विकार का नाम आधि है। शारीरिक विकार व्याधि है। बुद्धि के विकार को उपाधि कहते हैं। समाधि मन, शरीर और बुद्धि से परे हैं। समाधि में न राग है, न द्वेष है, न हर्ष है और न विषाद। जन्म और मृत्यु शरीर के हैं। हम विकल्पों में फँस कर जन्म-मृत्यु का दुख उठाते हैं। अपने अन्दर प्रवाहित होने वाली अक्षुण्ण चैतन्य-धारा का हमें कोई ध्यान ही नहीं। अपनी वैकालिक सत्ता को पहिचान पाना सरल नहीं है। समाधि तभी होगी जब हमें अपनी सत्ता की शाश्वतता का भान हो जायेगा। साधु-समाधि वही है जिसमें मौत को मौत के रूप में नहीं देखा जाता है। जन्म को भी अपनी आत्मा का जन्म नहीं माना जाता। जहाँ न सुख का विकल्प है और न दुख का। आज ही एक सज्जन ने मुझसे कहा, "महाराज, कृष्ण जयन्ती है आज।” मैं थोड़ी देर सोचता रहा। मैंने पूछा क्या कृष्ण जयन्ती मनाने वाले कृष्ण की बात आप मानते हैं ? कृष्ण गीता में स्वयं कह रहे हैं कि मेरी जन्म-जयन्ती न मनाओ। मेरा जन्म नहीं, मेरा मरण नहीं। मैं तो केवल सकल ज्ञेय ज्ञायक हूँ। वैकालिक हूँ। मेरी सत्ता तो अक्षुण्ण है। अर्जुन युद्ध-भूमि में खड़े थे। उनका हाथ अपने गुरुओं से युद्ध के लिए नहीं उठ रहा था। मन में विकल्प था कि कैसे मारूं अपने ही गुरुओं को। वे सोचते थे चाहे मैं भले ही मर जाऊँ किन्तु मेरे हाथ से गुरुओं की सुरक्षा होनी चाहिए। मोहग्रस्त ऐसे अर्जुन को समझाते हुए श्री कृष्ण ने कहा- जातस्य हिध्रुवो मृत्यु ध्रुवो जन्म मृतस्य च । तस्माद परिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ जिसका जन्म है उसकी मृत्यु अवश्यम्भावी है और जिसकी मृत्यु है उसका जन्म भी अवश्य होगा। यह अपरिहार्य चक्र है, इसलिये हे अर्जुन! सोच नहीं करना चाहिए। अर्जुन! उठाओ अपना धनुष और क्षत्रिय-धर्म का पालन करो। सोची, कोई किसी को वास्तव में मार नहीं सकता। कोई किसी को जन्म नहीं दे सकता। इसलिये अपने धर्म का पालन श्रेयस्कर है। जन्म-मरण तो होते ही रहते हैं। आवीचि मरण तो प्रतिसमय हो ही रहा है। कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, और हम हैं केवल जनम-मरण के चक्कर में, क्योंकि चक्कर में भी हमें शक्कर-सा अच्छा लग रहा है। तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान। रागादि प्रकट ये दुख दैन, तिन ही को सेवत गिनत चैन ॥ हम शरीर की उत्पति के साथ अपनी उत्पति और शरीर-मरण के साथ अपना मरण मान रहे हैं। अपनी वास्तविक सत्ता का हमको भान ही नहीं। सत् की ओर हम देख ही नहीं रहे हैं। हम जीवन और मरण के विकल्पों में फँसे हैं किन्तु जन्म-मरण के बीच जो ध्रुव सत्य है उसका चिन्तन कोई नहीं करता। साधु-समाधि तो तभी होगी जब हमें अपनी शाश्वत सत्ता का अवलोकन होगा। अत: जन्म-जयन्ती न मनाकर हमें अपनी शाश्वत सत्ता का ही ध्यान करना चाहिए, उसी की सँभाल करनी चाहिए।
  13. डोंगरगांव पंचकल्याणक महोत्सव, पात्र चयन का आयोजन शुरू। अब तक चयनित पात्रों की सूची- ● मूल नायक पुण्यार्जक- श्रेष्ठि श्री सुनील जैन सुजीत कुमार जैन डोंगरगांव। ● भगवान के माता-पिता बनने बाले सौभाग्यशाली- श्रेष्ठि श्री सुजीत जी ममता जैन।, डोंगरगांव। ● सौधर्म इंद्र बनने के सौभाग्यशाली- श्रेष्ठि श्री संदीप जैन डोंगरगांव। ● कुबेर इंद्र- श्रेष्ठि श्री प्रशांत जैन डोंगरगांव। ● भगवान पार्श्वनाथ प्रतिमा पुण्यार्जक श्रेष्ठि श्री प्रवीण जैन अरुण जैन अनिल जैन सुनील जैन डोंगरगांव ● दूसरे भगवन श्री पार्श्वनाथ- श्रेष्ठि श्री राजेन्द्र जैन सुभाष जैन डोंगरगांव ● भरत चक्रवर्ती बाहुबली श्रेष्ठि श्री दिलीप जैन मनीष जैन डोंगरगांव (दोनों सगे भाई है) ● विधि नायक प्रतिमा- श्रेष्ठि श्री उत्तम चन्द सुदेश जैन डोंगरगांव अध्यक्ष ● यज्ञनायक- श्रेष्ठि श्री कमलेश जैन, प्रमोद जैन, स्वतंत्र जैन डोंगरगांव (आंशिक त्रुटि संभव, कृपया त्रुटि होने पर हमें अवगत करावें।) सूचना साभार- श्री राजेश जैन भिलाई। Source अनिल जैन बड़कुल, ए बी जैन न्यूज़
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