Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    896

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. जिस दूध में से पूरा का पूरा घी का अंश निकाल लिया गया है, ऐसे नीरस दूध के समान संवेदन शून्य हुआ सेठ घर की ओर जा रहा है। साथ में पढ़ने-लिखने वाले, खेलने-कूदने वाले सहपाठियों के बीच हार हो जाने से उत्पन्न होने वाली पीड़ा से कई गुनी अधिक पीड़ा का अनुभव सेठ को हो रहा है इस समय। डाल से मिलने वाले रस से छूटा, टूटकर धूल में गिरे फूल के समान, अपनेपन की दूरी का भाव साथ ले, थोड़े-बहुत साहस को बटोरकर अपने घर की ओर सेठ जा रहा है। माँ के वियोग में रुक-रुक कर सिसकते हुए शिशु की भाँति लंबी श्वांस लेता हुआ सेठ घर की ओर जा रहा है। वसन्त ऋतु के समाप्त होने से शोभा रहित वन-उपवन के शरीर के समान सन्त संगति से दूर हुआ सेठ घर की ओर जा रहा है। मरुस्थलीय मरुभूमि में सागर से मिलने की आशा मात्र लिए बहती हुई पतली सी नदी के समान हुआ सेठ घर की ओर जा रहा है। पूर्व दिशा की गोद में उदित हुआ और अस्ताचल की ओर जाते प्रकाश पुंज प्रभाकर के समान, आगामी अन्धकार से भयभीत, सेठ घर की ओर जा रहा है। कृष्ण पक्ष के चन्द्रमा के समान हीन, शान्त रस से रहित कविता के समान, पक्षियों की चहचहाहट से रहित प्रभात काल के समान, शीतल चन्द्र - किरणों से रहित रात्रि के समान और बिन्दी से रहित नारी के माथे के समान, सब कुछ सेठ जी को कोलाहल-उत्साह रहित लग रहा है इस तरह ढलान में ढुलकते- ढुलकते पत्थर की भाँति सेठ घर आ पहुँचता है।
  2. क्या पूरा-पूरा आशावादी बनँ अर्थात् आज नहीं तो कल संयोग मिलेगा, अथवा नियति अर्थात् भवितव्यता पर ही सब कुछ छोड़ दें जो होना होगा सो होगा और छोड़ दें पुरुषार्थ करना। हे परम पुरुष! आप ही बताएँ, मैं क्या करूं? क्या सब कुछ काल पर छोड़ दें अर्थात् ऐसा कोई काल आयेगा जब स्वयमेव परिणमन होगा। यदि ऐसा मान लें तो फिर प्रति पदार्थ स्वतंत्र है अपना कर्ता स्वयं आप है क्या यह सिद्धान्त सदोष है? जो होना होगा वैसा ही होगा ऐसी होने रूप क्रिया के साथ-साथ करने रूप क्रिया अर्थात् ऐसा करो, ऐसा मत करो रूप पुरुषार्थ का भी तो उपदेश जैन आगम में मिलता है ना। सेठ के प्रश्नों की पंक्तियाँ सुन मौन तोड़कर माँ के समान गुरु ने वात्सल्य भाव से कहा - कि ऊपर सिर उठाकर मेरी ओर देखो इन सब प्रश्नों का उत्तर तुम्हें यहाँ मिलेगा। सेठ ने सिर उठाकर गीली आँखों से ऊपर देखा-मुनि की गम्भीर मौन मुद्रा दिखी जिनकी आँखों में चंचलता का अभाव, माथे पर छल- कपट से रहित निश्छलता का दर्शन हुआ और वही मुद्रा प्रश्नों के उत्तर रूप रहस्यों का उद्घाटन करती है। "‘नि' यानी निज में ही ‘यति' यानि यतन-स्थिरता है अपने में लीन होना ही नियति है निश्चय से यही यति है, और ‘पुरुष' यानी आत्मा-परमात्मा है 'अर्थ' यानी प्राप्तव्य प्रयोजन है आत्मा को छोड़कर सब पदार्थों को विस्मृत करना ही सही पुरुषार्थ है।" (पृ. 349) अपने स्वरूप में स्थिर होना ही नियति है निश्चय से यहीं पर दुखों का विराम-विश्राम है और निज आत्मा को छोड़कर अन्य सभी पर वस्तुओं को भूलना ही सही पुरुषार्थ है। नियति और पुरुषार्थ का सही-सही स्वरूप ज्ञात हुआ, तो काल मात्र उपस्थित रहने वाला, उदासीन निमित्त है प्रेरक नहीं, यह विषय भी स्पष्ट हुआ। सेठ उत्तर पाकर निःशंक हुआ फिर भी मन उदास है अतः वर्षा होने के बाद फीके पड़े बादलों के समान छोटा-सा उदासीन मुख ले, सेठ घर की ओर जा रहा है। तेल से बाती का सम्बन्ध टूट जाने के कारण अथवा थोड़ा-सा तेल बचने के कारण टिमटिमाते दीपक के समान अपने तन में प्राणों को संजोय धीमी गति से चल रहा है सेठ। मन में, चिन्तन-मनन भी चल रहा है अतः मूलधन ही समाप्त हो जाने पर खाली हाथ घर लौटने वाले, भविष्य की चिन्ता में किंकर्तव्यविमूढ़ बने व्यापारी के समान बना सेठ घर की ओर जा रहा है।
  3. हाथ में कमण्डलु लिए सेठ जी छाया की भाँति श्रमण के पीछे-पीछे जा रहे हैं। नगर के पास में ही उपवन (बगीचा) है उपवन में नसियाँ जी है, जिसमें नयनहारी नेमिनाथ भगवान् का जिनबिम्ब है, जो निजस्वरूप का ज्ञान कराता है। नसियाँ जी का गगन चूमता-सा ऊँचा शिखर है, शिखर पर स्वर्ण का कलश चढ़ा हुआ है। जो अपनी कान्ति से बता रहा है कि संसार की सारी चमक-दमक भ्रम पैदा करने वाली और चतुर्गतियों में भटकाने वाली है । इनसे सन्मार्ग नहीं मिलता। जिनबिम्ब के दर्शन करते ही तन रोमांचित हो, मन हर्षित हुआ। एक बार पुनः गुरु चरणों को नमस्कार कर सेठ ने घर लौटने का उपक्रम किया, पर शरीर शक्ति हीन-सा लगा। आँखों में आँसू भर आए, पथ ओझल-सा हो गया, पैर भारी से लगने लगे। रोकने का प्रयास किया किन्तु रोना रुक न सका। पूज्यपाद, गुरु चरणों में लोट-पोट होता हुआ सेठ जोर-जोर से रोने लगा। रोते हुए मुख से निकले कुछ शब्द-हे गुरुवर! यह जीव आपके चरणों की शरण को छोड़कर वापस घर लौटना नहीं चाहता है। जैसे-हंस मानसरोवर को छोड़ अन्यत्र कहीं जाना नहीं चाहता। फिर भी दुःख की बात है कि शरीर को मन का साथ देना ही पड़ता है। मेरा मन भी बहुत चंचल है प्रभो ! जल्दी ही उद्वेग-आवेग (क्रोधादि की तीव्रता) से घिर जाता है फिर ऐसी परिस्थिति में संसार के दुःख, पापों से भयभीत हो, धर्म के प्रति रुचि रूप परिणामों के साथ सदाचरण-सम्यक्चारित्र का पालन कैसे संभव हो सकता है? फिर समीचीन आधार के बिना यह जीवन कैसे टिकेगा? तीव्र कर्मोदय के कारण चाहकर भी धर्म का पालन, पहाड़-सा भारी और कठिन लग रहा है। आषाढ़ माह में आने वाली बाढ़ में, छोटे-छोटे ही नहीं बड़े-बड़े हाथी जैसे प्राणी भी बह जाते हैं, वही दशा मेरी भी हो रही है कर्मों के आगे मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा हूँ। मैं अपने आपको बौना ही नहीं किन्तु अपाहिज भी महसूस कर रहा हूँ। लम्बा पथ है कैसे चलें, आकाश को छूता शिखर है कैसे चढ़े और कुशल साथी भी तो नहीं है कैसे बढ़े अब आगे।
  4. आहारदान की क्रिया सम्पन्न हुई। आसन पर बैठ पेट-छाती-हाथ आदि अंगों को अपने हाथों में जल लेकर स्वच्छ बना श्रमण पुनः कुछ समय के लिए पलकों को अर्थोन्मीलित कर परमात्मा की भक्ति (कायोत्सर्ग) में लीन हो जाता है। कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर सेठ ने अपने हाथों से, मुनिराज के दोनों हाथों में मयूर पंख से बनी पिच्छिका प्रदान की। जो कि मृदु, कोमल, हल्की और मन को आकर्षित करने वाली भी है। प्यास बुझाने हेतु नहीं किन्तु शास्त्र-स्वाध्याय के पूर्व और शौचादि क्रियाओं के बाद हाथ-पैरादि की शुद्धि हेतु कमण्डलु में प्रासुक जल डाला गया जो कि 24 घण्टे तक उपयोग में लाया जा सकता है इसके पश्चात् सदोष हो जाता है अर्थात् त्रस जीवों की उत्पत्ति की संभावना हो जाती है। अतिथि के चरण छूने तथा पावन दर्शन हेतु अड़ोस-पड़ोस की जनता आँगन में आ खड़ी हुई । ज्यों ही अतिथि का आँगन में आना हुआ त्यों ही जय- जयकार के घोष से सारा आकाश गूंज उठा और भावुक जनता सहित सेठ ने प्रार्थना की गुरुवर से - "पुरुषार्थ के साथ-साथ हम आशावादी भी हैं आशु आशीर्वाद मिले शीघ्र टले विषयों की आशा, बस! चलें हम आपके पथ पर।" (पृ. 344) हे गुरुवर! हमारे विषयों की इच्छा शीघ्र ही दूर हो, ऐसा आशीर्वाद जल्दी ही प्रदान करें। क्योंकि पुरुषार्थ के साथ-साथ कुछ इच्छा भी रखते हैं हम। सो आपके जैसे बने, आपके पथ पर चलें और जाते-जाते ऐसा सूत्र देते जाइए, जिससे बंधे हम अपने आपको जान सकें। क्योंकि जो सुई- सूत्र अर्थात् धागे से बंधी होती है वह कभी गुमती नहीं। हमारा जीवन भी ऐसा ही बने। इस पर अतिथि सोचता है कि उपदेश के योग्य न ही यह स्थान है और न ही समय। फिर भी भीतरी करुणा उमड़ पड़ी और सीप से निकलने वाले मोती के समान पात्र के मुख से निकलते हैं कुछ शब्द - "बाहर यह जो कुछ भी दिख रहा है सो......मैं.....नहीं....हूँ और वह मेरा भी नहीं है।" (पृ. 345) इन दो आँखों से जो भी कुछ संसार में दिख रहा है यह शरीर, भाई-बन्धु, मकान, दुकान, नगर आदि वह मैं अर्थात् मेरा स्वरूप नहीं है और न ही वे मेरे अपने हैं। अर्थात् बाहरी सभी पदार्थ मुझसे सर्वथा भिन्न हैं। ये आँखें मेरे वास्तविक स्वरूप को देख नहीं सकती क्योंकि मैं तो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण से रहित, अमूर्त हूँ। और ये आँखें रूपी पदार्थों को ही अपना विषय बनाती हैं, किन्तु मैं जीव हूँ मुझमें ही देखने की शक्ति है। उस शक्ति का ही स्वामी मैं हूँ, था और रहूँगा। यह मेरा त्रैकालिक स्वभाव है। भाव यह निकला कि शरीर सो मैं नहीं किन्तु शरीर के भीतर मैं हूँ। यूँ कहते-कहते पात्र (मुनिराज) के पद चल पड़े उपवन की ओर तथा पीठ हो गई दर्शकों की तरफ।
  5. इधर घर के सब छोटे बच्चे-बच्चियों को भीतर रहने की आज्ञा मिली है और चुपचाप बैठने को बाध्य किया गया है। फिर भी बीच-बीच में चौखट के भीतर या खिड़कियों से एक दूसरे को आगे-पीछे कर बाहर झाँकने का प्रयास चल रहा है सच ही है - "सीमा में रहना असंयमी का काम नहीं, जितना मना किया जाता उतना मनमाना होता है। पाल्य दिशा में।" (पृ. 341) नियम-संयम की सीमा में बंधे रहना असंयमी के वश की बात नहीं है। जितना मना किया जाता है मन उस दिशा में उतना ही स्वच्छंद होता है। अज्ञान दशा में त्यागने योग्य वस्तु का त्याग होना और ग्रहण करने योग्य वस्तु का स्वीकारना संभव नहीं हो पाता है। फिर जो कुछ भी पलता है जबरदस्ती, भय के कारण ही। इधर बालों के उपद्रव से बचने हेतु सेठ ने सिर को भी कसकर बाँध रखा है। फिर भी सेठ के माथे पर काले-काले बालों की लट बार-बार बाहर आ आहार-दान के सुखद दृश्य को, अन्य ध्यान से विमुख हो देख रही है। और वह निर्भीक होकर परम-पात्र अतिथि से कहती है कि - आप समता के धनी सन्त हैं और सेठ जी दाता हैं, सज्जन पुरुष, ममता की खान। जो वैराग्य के प्रति अनुराग रखते हैं, आप दोनों का ध्येय बन्धन से मुक्ति पाना है फिर भला मुझे बन्धन में क्यों डाल दिया, मुझे भी बन्धन रुचता नहीं। माना कि मेरा इतिहास गलत है और मेरा ही नहीं किसका गलत नहीं है पतित, पाप पंक से लिप्त नहीं। परन्तु आज मैं भी सुधरना चाहती हूँ। पाप पुण्य से मिलने आया है, विष अमृत में ढलने आया है, हे प्रकाश पुंज प्रभाकर ! मुझ अन्धकार की प्रार्थना पर ध्यान दें, बार-बार भगाने की अपेक्षा एक बार इसे जगा दें, सत्य का बोध करा अपने चरणों में जगह दें, अपने समान बना लें। प्रकाश का सही लक्षण यही है कि वह सबको प्रकाशित करें। एक बात और कहता हूँ प्रभो! "भाग्यशाली भाग्यहीन को कभी भगाते नहीं, प्रभो! भाग्यवान् भगवान् बनाते हैं।" (पृ. 342) जो पुण्यवान पुरुष होते हैं, वे भाग्यहीन पुरुषों को भी तिस्कृत नहीं करते अपने से दूर नहीं भगाते अपितु अपनी कृपा से उसे भी पुण्यशाली बना, भगवान् तक बना देते हैं। यूँ कहकर लट झट (जल्दी) से पलटकर चुप हो जाती है।
  6. इधर बिना किसी बाधा के आहार-दान चल रहा है सेठ भावना भा रहा है कि यह कार्य ऐसा ही सानंद-सम्पन्न भी हो। सेठ के कन्धों से नीचे की ओर लटकते उत्तरीय वस्त्र की छोर ऐसी लग रही है मानो कुम्भ की नीलिमा (नीले रंग की आभा) से पराजित हुई लज्जा का अनुभव करती धरती में ही छुपी जा रही है। सेठ के दाँये हाथ की मध्यमा अंगुलि में स्वर्ण निर्मित अंगूठी है। जिसमें लगा माणिक रत्न, श्रमण के लाल-लाल होठों से बार-बार अपनी तुलना करता है और अन्त में हार मानकर अतिथि के पद-तलों को छूता-सा प्रतीत हो रहा है। ठीक ही है-पूज्य पुरुषों की पूजा से ही मनवांछित फल की प्राप्ति संभव है। इसी प्रकार सेठ के बाँयें हाथ के तर्जनी की मुद्रा में लगी मुक्ता भी कर-पात्री के नखों की चमक देख पीड़ा का अनुभव कर दुखी हो, ज्वर ग्रस्त-सी लग रही है, यही कारण लगता है उसकी काया रक्त रहित सफेद बनी है। सेठ के दोनों कानों के कुण्डल भी पात्र के मांसल, गोल-गोल सुन्दर गालों से अपनी तुलना कर रहे हैं कि इन गालों की कान्ति में और हममें इतना अन्तर क्यों? किससे पूछे? कैसे पूछे? तभी उलझन में उलझे कुण्डलों को मिलता है कपोलों (गालों) का उद्बोधन-तुम्हें देखते ही दर्शकों के मन में राग-भाव पैदा होता है तो हमें देखते ही वात्सल्य भाव उमड़ता है। रागी भी कुछ पल के लिए विरागता (वैराग्य) में खो जाता है। हमारे भीतर स्थित वात्सल्य-भाव बैरियों के पाषाण हृदय को भी फूल के समान मृदु मुलायम बना देता है। हममें अनमोल बोल/वचन पलते हैं जबकि तुममें केवल पोल यानि खालीपन ही मिलता है। एक बात और है कि - "विकसित या विकास-शील जीवन भी क्यों न हो, कितने भी उज्वल-गुण क्यों न हों, पर से स्व की तुलना करना पराभव का कारण है दीनता का प्रतीक भी।" (पृ. 329) जीवन पूर्ण विकास को प्राप्त हो चुका हो अथवा होने वाला हो, तथा अपने पास कितने भी अच्छे-अच्छे गुण क्यों न हों? औरों से अपनी तुलना करना- हार का, अपने सुख के विनाश का कारण बनता है और यह कार्य दीनता का प्रतीक भी है। तुलना की क्रिया ही एक रूप से स्पर्धा है, स्पर्धा में जीवन आधा हो जाता है। और स्पर्धा के कारण ही सूक्ष्म अहंकार की सत्ता भी जाग जाती है, फिर जीवन में संतोष कहाँ? संतोष रहित जीवन दोष पूर्ण ही माना जाता है। यही कारण है कि प्रशंसा, यश की चाह रूपी आग में झुलसा सदोष जीवन सहज, सुखद गुणों की छाँव को प्राप्त नहीं कर पाता है। वैसे ‘स्वयं' शब्द ही यह कह रहा है कि स्व यानि सम्पदा है, स्व ही विधि का विधान अर्थात् भाग्य की रेखा है और 'स्व' ही सुख का अनमोल खजाना है। स्वयं को प्राप्त करना ही संसार की संपूर्ण उपलब्धियों को पाना है फिर अतुलनीय निज की तुलना पर से क्यों? यूँ कपोलों से अपनी पोल खुलती देख स्वर्ण के कुण्डल भी कान्तिहीन हो गए। सेठ ने पीले वस्त्र पहने हैं, जिस पहनाव में उसका मुख गुलाब के जैसा खिल रहा है। फूल लहराते हुए पीले दुपट्टे में कुम्भ की नीलम छवि तैर रही थी सो ऐसा लग रहा है कि पीताम्बर दुपट्टे की पीलिमा यानि पीली-पीली आभा कुम्भ की नीलिमा को पीने हेतु उतावली (जल्दबाजी) कर रही हो।
  7. आहारदान चल रहा है, सेठजी के वस्त्राभूषणों द्वारा पात्र के अंगोंपांग से तुलना-अहंकार का पोषक। बच्चों द्वारा झांकने का प्रयास, असंयमी का काम, सर को कसकर बाँधा, पर बाहर निकली लट कहती है, पात्र से-मुझे क्यों बन्धन में डालते ? सानन्द सम्पन्न आहार दान पुनः परम तत्त्व में लीन साधक, संयमोपकरण कर कमलों में, कमण्डलु में प्रासुक जल अतिथि दर्शन हेतु आंगन में अड़ोस-पड़ोस की जनता का आना एवं सेठ द्वारा उपदेश देने की प्रार्थना अतिथि से, पात्र के मुख से निकले कुछ शब्द और उपवन की ओर विहार, पीठ दर्शकों की ओर। सेठ कमण्डलु ले, श्रमण के पीछे-पीछे चलता हुआ नसियाँ जी में पहुँचता है। गुरु चरणों को छोड़ वापस घर लौटने का उपक्रम- सेठ की आँखों में आँसू भर आते हैं, मन की शंका-प्रश्नावली गुरु सम्मुख कहता है-गुरु की गम्भीरता रहस्योद्घाटन करती है। नियति और पुरुषार्थ का सही स्वरूप जानकर भी उदासीन भावों के साथ ढलान में लुढ़कते-ढुलकते पाषाण खण्ड की भाँति घर पहुँचता है सेठ।
  8. सेठ के गौर वर्ण वाले दोनों हाथों के मध्य माटी का कुम्भ, सोने के आभूषण में जड़े नीलम-सा सुशोभित हो रहा है। इसी बीच कुम्भ और करों की वार्ता चलती है आपस में। एक दूसरे की प्रशंसा रूप में, सो कुम्भ ने करों से कहा- तुमने हमें ऊपर उठा बड़ा उपकार किया और इस शुभ कार्य में सहयोगी बनने का मुझे सौभाग्य मिला। इस पर तुरन्त करों ने भी कहा - यह तुम्हारी ही भक्ति- भावना का फल है, जो कुछ है वह तुम्हारा ही उपकार है। तुम्हारे बिना यह कार्य संभव ही नहीं था। हम तो ऊपर से निमित्त मात्र बने ! ऊपरी चर्चा को सुनता हुआ नीचे से पात्र का कर पात्र कहता है कि - "पात्र के बिना कभी पानी का जीवन टिक नहीं सकता, और पात्र के बिना कभी प्राणी का जीवन टिक नहीं सकता परन्तु पात्र से पानी पीने वाला उत्तम पात्र हो नहीं सकता, पाणि-पात्र ही परमोत्तम माना है, पात्र भी परिग्रह है ना ! (पृ. 335 ) बर्तन रूपी आधार के बिना पानी ठहर नहीं सकता और श्रमण आदि सत्पात्र यानी पात्र-दान के बिना संसारी प्राणियों, मनुष्यों का जीवन उज्ज्वल / उन्नत बन नहीं सकता। परन्तु इतना जरूर ध्यान रहे कि कटोरे-थाली आदि पात्रों में भोजन करने वाला, पानी पीने वाला कभी भी उत्तम पात्र हो नहीं सकता क्योंकि संतों ने पाणीपात्र (दोनों हाथों की हथेलियों को जोड़कर बनाया गया पात्र) को ही उत्तम से उत्तम माना है कारण अन्य पात्र भी परिग्रह ही है ना! और दूसरी बात यह है कि अतिथि के बिना तिथियों में पूज्यता आ नहीं सकती, कारण अतिथि ही तो तिथियों को शुद्ध बनाने वाला, प्रसिद्ध करने वाला सम्पादक है। जैसे-आदिनाथ प्रभु को जिस दिन आहार मिला वह तिथि आज तक अक्षय तृतीया (आखा तीज) के रूप में प्रसिद्ध है, इस दिन सारे शुभ कार्य बिना मुहूर्त के भी सानन्द सम्पन्न किए जा सकते हैं। फिर भी अतिथि तिथियों के बन्धन में नहीं बंधता, इनके बंधन में बंधना भी चारों गतियों में भटकना ही है। कथंचित् यतियों, मुनियों द्वारा प्रतिपादित संयम, आगम की मर्यादा में बंधना ही, निज के रंग में रंगना-लीन होना है। इस प्रकार सत्पात्र की मीमांसा चलती रही।
  9. पात्र को दान देने का कार्य प्रारम्भ किया गया सो सर्वप्रथम कर-पात्र में प्रासुक जल देने हेतु कलश बढ़ाया गया, किन्तु पात्र ने अंजुलि बंद कर ली। फिर तुरन्त दूध से भरा स्वर्ण कलश आगे लाया गया फिर भी अंजुलि न खुली। तीसरे ने मधुर इक्षुरस से भरा रजत-कलश दिखाया, चौथे ने अनार के लाल रस से भरी स्फटिक की झारी दिखाई किन्तु अंजुलि न खुली तो विवश होकर स्फटिक झारी भी निराशा में डूब गई । अधिक देर होने से पात्र अन्तराय मानकर बैठ सकता है, बिना आहार-पान लिए वापस लौट सकता है। ऐसा भय परिवार के मुख पर छाने लगा कि मन ही मन भगवान् को याद करते हुए, धैर्य के साथ सेठजी ने माटी के कुम्भ को आगे बढ़ाया सो अतिथि की अंजुलि खुल पड़ी। जैसे-स्वाति नक्षत्र में जल की उज्ज्वल बूंद को देखते ही सागर की छाती पर तैरती सीप अपना मुख खोलती है। चार-पाँच अंजुलि जलपान किया, फिर इक्षु रस का सेवन फिर जो कुछ भी मिलता गया, बिना किसी आकुलता के सहज भाव से चलता गया। वह भी बिना माँगे, बिना संकेत, जब चाहे मन चाहे नहीं और फिर जब भूख लगी हो तो कैसा भी भोजन हो रसदार या रूखा-सूखा सब समान लगता है। जैसे-एक बर्तन से दूसरे बर्तन में भोजन जाते समय बर्तन में कोई परिवर्तन नहीं होता, न ही कोई बर्तन रोता है और न ही कोई हँसता है यूँ ही साम्य यहाँ चल रहा है - "धन्य ! धन्य है यह नर और यह नर-तन सब तनों में, ‘वर'-तन !" (पृ. 332) सभी देह धारियों में श्रेष्ठ यह मनुष्य का तन ही है जिसके द्वारा इस प्रकार समता की साधना की जा सकती है। धन्य! धन्य है यह अतिथि और अतिथि का तन, श्रेष्ठ तन ! सभी तनों में वर-तन। श्रमणों की अनेक वृत्तियाँ हुआ करती हैं, जिनमें अध्यात्म की झलक देखने मिलती है, जो इन कानों से सुनी थी। जो आज पास, बहुत पास से देखने को मिली हैं, सो इस प्रकार है-कृषक बीज बोने के पूर्व खेत की भूमि को कूड़ा- कचरा आदि डालकर गड्डे को पूरा समतल बनाता है, उसी प्रकार पेट रूपी गड्ढे को भरना गर्त-पूरण-वृत्ति है समताधर्मीश्रमण की। गाय के सामने घास-फूस डाला जाय तो डालने वाले के आभरण-आभूषणों, अंग-उपांगों को वह नहीं देखती बस ऐसी ही आहार के समय प्रवृत्ति होना साधु की गोचरी-वृत्ति है। घर में आग लगी हो तो खारा, मीठा, ठंडा, गरम जैसा मिले वैसा ही जल डालकर आग को बुझाया जाता है। उसी प्रकार पेट में भूख रूपी आग को बुझाते समय रसादि, ठंडे-गरम का विकल्प नहीं करना सब वृत्तियों में महावृत्ति अग्निशामक-वृत्ति है श्रमणों की । जैसे-भौंरा फूलों को बिना पीड़ा पहुँचाये उनका रस पीता है, उसी प्रकार दाता को कष्ट न हो अपितु दाता दान देकर प्रसन्नता से भर जाये, उसका अज्ञान अन्धकार मिट जाए ऐसी प्रवृत्ति सन्तों की भ्रामरीवृत्ति कहलाती है। इन वृत्तियों को देखने का परिणाम यह हुआ की पूरा का पूरा परिवार अपार आनंद से भर उठा।
  10. श्रमण का कायोत्सर्ग पूर्ण हुआ कि श्रावक द्वारा दिए गए उच्चासन पर दोनों एड़ियों में चार अंगुल तथा पंजों के बीच ग्यारह अंगुल का अंतर दे खड़ा हो जाता है अतिथि वह। खड़े होकर भोजन करने का ही मात्र नहीं अपितु एक ही बार भोजन करने का भी नियम है इनका । पात्र ने अपने दोनों हाथों को पात्र बना, दाता के सम्मुख-आगे बढ़ाया। श्रमण की यह भिक्षावृत्ति मन को मान-शिखर से नीचे लाने वाली अर्थात् मान कषाय को कम करने वाली है, यूँ कहती हुई लेखनी क्षुधा यानी भूख की मीमांसा करती है - "भूख दो प्रकार की होती है एक तन की, एक मन की। तन की तनिक है, प्राकृतिक भी, मन की मन जाने कितना प्रमाण है उसका? वैकारिक जो रही, वह भूख ही क्या, भूत है भयंकर, जिसका सम्बन्ध भूतकाल से ही नहीं, अभूत से भी है !" (पृ. 328) शरीर की और मन की, इस तरह दो प्रकार की भूख देखी जाती है। जिसमें शरीर की भूख तो थोड़ी-सी होती है जो-स्वभाविक है, किन्तु मन की कितनी भूख है यह मन ही जान सकता है कारण की अपने ही विकारी भावों से उत्पन्न होने वाली जो रही। यह भूख ही भयानक भूत के समान कष्ट देने वाली है, तीन लोक की सम्पदा पाकर भी मिटती नहीं। मात्र अतीत काल से ही नहीं किन्तु भविष्य से भी इसका सम्बन्ध है। यही कारण है कि आज तक यह संसारी प्राणी स्व-तत्त्व को उपलब्ध कर सुखी नहीं हो पाया है। जहाँ तक इन्द्रियों की बात है तो बाहर से भले ही लगता है कि इन्द्रियाँ विषयों को चाहती हैं किन्तु ऐसा है नहीं। कारण की इन्द्रियाँ जड़ हैं और जड़ का उपादान भी संवेदन शून्य जड़ ही होता है। इतना अवश्य है कि इन्द्रियों के माध्यम से विषय रसिक भोक्ता पुरुष विषयों की चाह करता है। वस्तु स्थिति यह है कि - "इन्द्रियाँ ये खिड़कियाँ हैं तन यह भवन रहा है, भवन में बैठा-बैठा पुरुष भिन्न-भिन्न खिड़कियों से झाँकता है वासना की आँखों से और विषयों को ग्रहण करता रहता है। (पृ. 329) विषयों को ग्रहण करने की इच्छा रखने वाला चेतन-आत्मा, इस शरीर रूपी भवन में बैठा हुआ इन्द्रिय रूपी खिड़कियों से विषयों को ग्रहण करता रहता है। वास्तव में देखा जाय तो पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय को चाहती ही नहीं हैं और इन्द्रियों के विषय भी कभी यह नहीं कहते कि तुम हमें चखो, हमें छुओ, हमें सूंघों, हमें देखो और हमें सुनो। क्योंकि मधुरादि रस, शीतादि स्पर्श, सुरभि आदि गंध, पीतादि वर्ण और सा रे ग म इत्यादि शुभ-अशुभ शब्द ये सब जड़ स्वभाव वाले, पुद्गल से उत्पन्न हैं। इससे यही निर्णय निकला कि मोहकर्म और असातावेदनीय के उदय में क्षुधा-तृषा की वेदना होती है। मात्र इतना जानना ही पर्याप्त नहीं किन्तु साधुता के लिए पञ्चेन्द्रियों के इष्ट और अनिष्ट विषयों में समता परिणाम होना भी अनिवार्य है और यह समता भाव ही श्रमणों का श्रृंगार है।
  11. कुम्भ के मुख से कम शब्दों में सारभूत कविता सुनी, सुनते ही दाता और पात्र का यथार्थ स्वरूप समझ में आया। सेठजी की आँखें खुली, सभी भ्रमों को छोड़, स्वयं को संयमित किया सेठ ने। आते हुए पात्र को लगा कोई विशेष पुण्य का फल उनके पदों को आगे बढ़ने से रोक रहा है, अपनी ओर खींच रहा है। और सेठ ने प्रांगण की ओर धीरे-धीरे आते कदमों को देखा-सेठ जागृत हो, श्रद्धा सहित, न बिल्कुल धीरे, न बहुत तेज किन्तु मध्यम स्वरों में आगन्तुक का स्वागत शुरु करता हुआ कहने लगा - "भो स्वामिन्! नमोऽस्तु ! नमोऽस्तु ! नमोऽस्तु ! अत्र ! अत्र ! अत्र ! तिष्ठ ! तिष्ठ ! तिष्ठ !" (पृ. 322) हे स्वामिन् ! नमोऽस्तु ! नमोऽस्तु ! नमोऽस्तु ! यहाँ ठहरिये ! यहाँ ठहरिये ! यहाँ ठहरिये ! दो तीन बार इन स्वागत स्वरों को दोहराया गया। साथ ही साथ सेठ के कर्ण कुण्डल भी धीमे-धीमे हिलते हुए अतिथि को सादर बुला रहे हैं। अभय प्रदाता अतिथि आकुलता, चंचलता रहित सेठजी के प्रांगण में आ रुकता है। धन्य भाग्य मानता हुआ सेठ पत्नी एवं परिवार सहित अतिथि को दांयी ओर ले, दो-तीन हाथ की दूरी से पात्र की परिक्रमा लगाता है। यह दृश्य ऐसा लग रहा है मानो ग्रह-नक्षत्र-ताराओं सहित सूर्य-चन्द्रमा सुमेरुपर्वत की ही परिक्रमा लगा रहे हों। जीवदया पालन करते हुए परिवार ने तीन परिक्रमा पूर्ण की। फिर नवधाभक्ति का प्रारम्भ होता है। मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि और आहार- जल शुद्ध है, पधारिये स्वामिन् ! मम गृह, भोजनशाला में प्रवेश कीजिए, कहता हुआ बिना पीठ दिखाए आगे होता है पूरा परिवार। घर के भीतर पात्र प्रवेश होने के पश्चात् आसन शुद्धि बताता हुआ उच्चासन पर बैठने की प्रार्थना करता है सेठ। पात्र का आसन पर बैठना हुआ, चरणाभिषेक हेतु पात्र से निवेदन किया गया, स्वीकृति मिली। पलाश पुष्प के समान गुलाबी, अविरति (पाप) से भयभीत श्रमण के दोनों चरण-तल चाँदी के थाल पर रखे जाते हैं। गुरु के प्रति अनुराग व्यक्त करता हुआ रजत-थाल भी कुमकुम सम शुद्ध स्वर्ण-सा लाल बनता है। छानना, तपाये हुए समशीतोष्ण जल से भरे कलश को, दाता हाथ में ले, पात्र के पदों का अभिषेक करता है। झुके हुए कुम्भ ने काम-वासना, मान-घमण्ड से दूर गुरु महाराज के चरणों की अंगुलियों के नख रूप दर्पण में अपना दर्शन किया और धन्य-धन्य, जय-जय गुरुदेव की, जय-जय इस घड़ी की कह उठा। अतीत में अनुभूत पथ की पीड़ाएँ, कष्ट का वेदन, बचा-खुचा मन का मैल सब दूर हुआ। भावना साकार हुई, अपना सब कुछ गुरु-चरण में अर्पण किया। "शरण चरण हैं आपके, तारण-तरण जहाज, भव-दधि तट तक ले चलो करुणाकर गुरुराज!" ( पृ. 325) संसार से पार लगाने वाले गुरु महाराज का गुणगान करते हुए, समस्त विघ्नों को नष्ट करने वाला, वैभव-सम्पन्नता को देने वाला अभिषेक पूर्ण हुआ और स्वच्छ वस्त्र से पैरों का प्रक्षालन (पोंछना) भी। सेठ ने परिवार सहित गन्धोदक अपने मस्तक पर लगाया। इसी क्रम में आगे विधि के अनुसार, योग्य मात्रा में जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल इत्यादि अष्ट द्रव्य से स्थापना पूर्वक पूजन कार्य पूर्णकर, पंचांग नमस्कार करता हुआ नमोऽस्तु...नमोऽस्तु...नमोऽस्तु निवेदित करता है सेठ परिवार । पुनः दोनों हाथों को जोड़ पूरा परिवार पात्र से प्रार्थना करता है कि हे स्वामिन् ! अंजुलि-मुद्रा छोड़कर आहार ग्रहण कीजिए। पात्र ने भी दान-विधि में कुशल दाता को जान, अंजुलि-मुद्रा छोड़ दोनों हाथों को स्वच्छ उष्ण जल से धो लिया। और वह नासाग्रदृष्टि करता हुआ अर्हन्तों की भक्ति में डूबता है अर्थात् कायोत्सर्ग' करता है वह महामना! कैसे हैं वे अर्हन्त प्रभु? सो बताया जाता है। अरिहन्त प्रभु मोह से रहित, राग रूप माया-लोभ एवं द्वेष रूप क्रोध- मान कषायमय भावों से दूर हैं। जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, क्षुधा, प्यास, मद, आश्चर्य, भय, निद्रा, पसीना, खेद आदि अठारह दोषों से रहित हैं। इनमें अनन्त बल, अनन्त सुख, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन प्रकट हुए हैं। प्रभु सदा शोक से रहित अशोक हैं, सभी चिन्ताओं से दूर, एकाकी, परिग्रह और परिजन से रहित हैं।
  12. इस प्रकार दाताओं की भिन्न-भिन्न दशाओं को देख कुम्भ ने सेठ को सचेत किया कि - यही दशा हमारी भी हो सकती है। दान के समय विवेक कभी नहीं भूलना चाहिए, पात्र के सन्मुख विनय अनुनय से प्रार्थना हो किन्तु अतिरेक- अधिकता नहीं। मन-वचन-काय से लघुता, नम्रता प्रकट हो किन्तु उदासता नहीं। होठों पर मन्द-मन्द मुस्कान तो हो किन्तु हँसी-मजाक नहीं, दान के प्रति उत्साह, उमंग हो पर जल्दबाजी नहीं। दान के समय विनय की सुगंध, मधुरता तो झरे (प्रकट हो) किन्तु दीनता नहीं होनी चाहिए। इसी संदर्भ में स्वीकारने योग्य, विद्वानों के द्वारा स्तुत (स्वीकृत) एक कविता प्रस्तुत है जो सन्तों के मुख से सुनी थी - सूरज की गरमी से तपी धरती को प्यास लगी है, जल पीने की इच्छा है अतः धरती ने अपना मुख खोल रखा है (जगह जगह दरारें पड़ चुकी हैं) किन्तु धरती भी कृत संकल्पित है कि - दाता का विशेष इंतजार नहीं करना और न ही अच्छी-बुरी मीमांसा तथा अपना स्थान छोड़कर अन्यत्र भी नहीं जाना है कारण - "पात्र की दीनता निरभिमान दाता में मान का आविर्माण कराती है पाप की पालड़ी फिर भारी पड़ती है वह, और स्वतन्त्र- स्वाभिमान पात्र में परतन्त्रता आ ही जाती है, (पृ. 320) पात्र यदि दीन-हीन बनता है तो घमंड से रहित दाता में भी मान उत्पन्न हो जाता है, जिससे दाता को पुण्य के स्थान पर पाप का बन्ध होने लगता है और सिंह वृत्ति के धारक स्वतन्त्र, स्वाभिमानी पात्र में भी पराधीनता आने लगती है। जिससे दाता और पात्र दोनों अपने-अपने कर्त्तव्य से दूर खिसकते जाते हैं, जिसका फल दोनों ही अधर में लटके रह जाते हैं। अर्थात् दाता दान के समीचीन फल को उपलब्ध नहीं कर पाता एवं पात्र असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा' के साधन रूप एषणा समिति का निर्दोष पालन नहीं कर पाता। तभी तो पाप को पुण्य में बदलने सत्पात्र की खोज में निकले काले- काले बादल, पृथ्वी रूपी पात्र को प्राप्त कर गड़गड़ाहट ध्वनि करते, उसके चरणों में मूसलाधार वर्षा करते हैं। फिर पृथ्वी ने भी सहज रूप से बादल की कालिमा को धो डाला अन्यथा वर्षा के बाद बादल समूह चाँदी जैसे स्वच्छ दिखाई पड़ते हैं क्यों?
  13. इसी बीच एक दाता बोल पड़ा, पात्र का प्रांगण में आना और फिर बिना भोजन-पान पाये लौट जाना, घनी पीड़ा होती है दाता को किन्तु तुरन्त ही सन्तों के वचन याद आयें - "परम-पुण्य के परमोदय से पात्र-दान का लाभ होता है।" (पृ. 316) पूर्वोपार्जित विशेष पुण्य का उदय होने पर पात्र-दान का योग बनता है। हमारे पुण्य का उदय तो है किन्तु अनुपात से पर्याप्त पतला अर्थात् कम लगता है और फिर दुर्लभता इसी को तो कहते हैं। कुछ दाता तो मूक हुए कीलित (स्थिर किए हुए) से खड़े रह गये। कुछ विधि ही भूल गये, आकुल-व्याकुल हो कपाल पर बार-बार हाथ लगाते हैं, मानो प्रतिकूल भाग्य को डाँट रहे हों।एक दाता ने तो सहज भाव से कह दिया कि महाराज विधि नहीं मिली तो न सही, कम से कम हमारी ओर अच्छे से देख तो लेते। हम इसी में संतोष कर लेते। "दाता के कई गुण होते हैं उनमें एक गुण विवेक भी होता है।" (पृ. 317) किन्तु एक दाता ने विवेक ही खो दिया और पात्र के निकट मार्ग में ही पहुँच अति दयनीय शब्दों में कहने लगा। हे महाराज! इस जीवन में आज तक इसे पात्र-दान का सौभाग्य नहीं मिला। कई बार पात्र मिले किन्तु भाव नहीं बने । आज भावना बलवती (मजबूत) हुई फिर भी दर्शन हो, चरण-स्पर्श का मौका नहीं, चरण छूने मिले किन्तु आहारदान का सौभाग्य नहीं क्या भावना अधूरी ही रहेगी? हे भगवन् ! आज का आहार हमारे यहाँ हो बस! इस प्रसंग में यदि कोई दोष लगेगा तो मुझे ही लगेगा आपको नहीं स्वामिन्, हे कृपासागर! कृपा करो अब दया करो, देर नहीं। दाता की भावुकता पर मन्द मुस्कान ले मौन-धारी मुनि-चार हाथ जमीन देखता हुआ आगे बढ़ जाता है तब तक दाता के मुख से पुनः निराशा मिश्रित पंक्तियाँ निकली - "दाँत मिले तो चने नहीं चने मिले तो दाँत नहीं, और दोनों मिले तो....... पचाने को आँत नहीं........!" (पृ. 318) अर्थात् जब पात्र मिले थे तब भाव नहीं बने, अब भाव बने तो पात्र लाभ नहीं और जब दोनों मिले तो दान के योग्य पुण्य नहीं रहा। अथवा कमजोर पड़ गया।
  14. इधर खेल-खेलती बालिकाओं द्वारा प्रांगण में सुन्दर चौक (रंगोली) पूरा गया। अतिथि के आगमन का समय निकट ही आ चुका है, सभी दाताओं के बीच इसी बात की चर्चा चल रही है। नगर के प्रतिमार्ग में आमने-सामने, अड़ोस- पड़ोस में अपने-अपने प्रांगण में दाताओं की दूर-दूर तक लाईन (पंक्तियाँ) लगी हैं। प्रति प्रांगण में दाता प्रायः अपनी धर्मपत्नि के साथ खड़ा है, सबकी भावना और प्रभु से प्रार्थना है कि अतिथि का आहार निर्विघ्न हो और वह हमारे यहाँ हो बस! सेठ भी पूजन कार्य से निवृत हो हाथ में माटी का कुम्भ ले प्रांगण में पड़गाहन हेतु खड़ा हो जाता है। शेष परिवार जन भी कोई चाँदी का कलश ले, कोई हाथ जोड़े, तांबे का कलश ले, पीतल का कलश ले, आमफल ले, सीताफल ले, रामफल ले, जामफल ले, कलश पर कलश ले, सिर पर कलश, हाथ में केला, कोई अकेला, खाली हाथ तो कोई थाली साथ ले इत्यादि अनेक प्रकार से विधियाँ बनाये पड़गाहन के लिए खड़े हैं। विशेष बात यह है कि सभी के मस्तक पात्र के प्रति नम्रीभूत हैं और बार-बार दूर-दूर तक देखते हुए अतिथि की प्रतीक्षा कर रहे हैं। प्रतीक्षा की घड़ी समाप्त हुई, लो सामने से आते हुए अतिथि का दर्शन हुआ कि दाताओं के मुख से जयकार की ध्वनि निकल पड़ी। अनियत विहार वालों की, नियमित विचार वालों की, शान्त मन वाले सन्तों की, गुणवन्तों की, सौम्य-शांत छवि वालों की जय हो! जय हो! जय हो! पक्षपात से दूर रहने वालों की, तुरन्त जन्मे बालक के समान निर्विकार यति वीरों की, दया धर्म को धारण करने वालों की, समता-धन रखने वाले धनिकों की जय हो! जय हो! जय हो! भवसागर के तट स्वरूपों की, शिवनगरी के शिखरों की, सहनशील-धैर्यवानों की, कर्ममल को धोने के लिए जल के समान ऐसे मुनियों की जय हो! जय हो! जय हो! अतिथि का निकट ही आना हुआ तथा कई प्रांगण अतिथि पार कर चुका। कदम आगे ही बढ़ते जा रहे हैं कि पीछे छूटे प्रांगण के दाताओं के मुख का तेज-उत्साह नष्ट-सा हो गया जैसे सूरज ढलने पर कमल म्लान-मुखी हो जाता है। फिर भी पात्र पुनः लौटकर भी आ सकता है, इतनी आशा बस जगी है उसमें और फिर सूर्य (पात्र) कल भी तो आ सकता है, आता ही है। परन्तु पूर्व से पश्चिम की ओर गए सूर्य की भाँति, पात्र मुड़कर आना तो दूर पलटकर भी नहीं देखता है। बिजली की चमक की भाँति पात्र, शीघ्रता से दाताओं, विधि- द्रव्यों की पहचान कर लेता है, पता भी नहीं चलता।
  15. पूर्व पुण्य के फलस्वरूप, धर्म की कृपा से सेठजी को जो मिला उस महाप्रासाद' के पंचमखण्ड में एक चैत्यालय स्थापित है। जिसमें चाँदी के सिंहासन पर, कर्म रूपी धूल से रहित वीतरागी प्रभु की अतुलनीय रजत प्रतिमा विराजमान है। प्रतिदिन के समान ही सेठ प्रभु की पूजन करने चैत्यालय जाता है। सबसे पहले रुचि पूर्वक उत्साह से प्रभु की वंदना करता है फिर प्रतिमा का अभिषेक किया पश्चात् जो स्वयं निर्मल है एवं दूसरों की निर्मलता का कारण बनता है ऐसे गंधोदक को सेठजी ने विनय पूर्वक आनंद से अपने उत्तमांग (सिर) पर लगा लिया। फिर जल से हाथ धोकर, स्वच्छ (साफ-सुथरे) श्वेत वस्त्र से प्रतिमा का प्रक्षालन किया। तत्पश्चात् - "पाप-पाखण्डों से परिग्रह-खण्डों से मुक्त असंपृक्त त्यागी वीतरागी की पूजा की अष्टमंगल द्रव्य ले भाव-भक्ति से चाव-शक्ति से सांसारिक किसी प्रलोभनवश नहीं, प्रयोजन बस, बन्धन से मुक्ति ! भवसागर का कूल.......किनारा।" (पृ. 312) पाप-प्रपंचों से दूर, पूर्णतः अपरिग्रही, अलिप्त वीतरागी प्रभु की जल चन्दनादि अष्ट द्रव्य' ले भाव-भक्ति से, यथाशक्ति उत्साह को प्रदर्शित करते हुए पूजा की। पूजा का प्रयोजन किसी सांसारिक वस्तु की प्राप्ति नहीं अपितु संसार सागर का किनारा, भाव बंधन से मुक्ति मिले बस।
  16. सेठजी द्वारा गृह चैत्यालय में जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमा का अभिषेक, प्रक्षालन, अष्टमङ्गल द्रव्य से पूजन, प्रयोजन, भव का किनारा। अतिथि चर्या का समय, दाताओं के बीच वार्ता, सेठ परिवार का अतिथि पड़गाहन हेतु कलश, श्रीफलादि लिए खड़े होना, अतिथि का दर्शन जय-जयकार, पीछे छूटे प्रांगणों की दशा, पात्र द्वारा दाता की परख, दाता का एक गुण विवेक भी । कुम्भ ने सेठ को सचेत किया दाता-पात्र की समीक्षा, बादल दल विमल क्यों ? सेठजी का संयत होना, पात्र का प्रांगण में आना, रुकना, प्रदक्षिणा, नवधाभक्ति का सूत्रपात, पात्राभिषेक माटी के कुम्भ से, गन्धोदक मस्तक पर, पूजन पंचांग-प्रमाण आहार जल ग्रहण की प्रार्थना। दोनों हाथ धो-अर्हन्त भक्ति में डूबता सन्त, आसन पर खड़ा होना, क्षुधा की मीसांसा, इन्द्रियाँ खिड़कियाँ तो पुरुष भोक्ता । माटी के कुम्भ से जल देने पर पात्र की अंजुलि खुलना। श्रमण की वृत्ति गर्तपूरण, गोचरी, अग्निशामक, भ्रामरीवृत्ति सब वृत्तियों में महावृत्ति । कुम्भ और करों की परस्पर कृतज्ञता, पाणि-पात्र ही सत्पात्र ।
  17. कुम्भ के कण्ठ में हल्दी की दो पतली रेखायें खींची गईं, जिनके बीच में कुमकुम लगाया गया। हल्दी, कुमकुम और केसर की महक से वातावरण भी आकर्षित और प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला बना । सुन्दर मुलायम हरे-हरे भोजन पचाने में सहायक चार-पाँच पान कुम्भ के मुख पर रखे गये। बीचोबीच श्रीफल रखा गया, जिसमें हल्दी कुमकुम छिड़के गये। अब वे पान खुले कमल की पाँखुड़ियों के समान शोभित हो रहे हैं। इस अवसर पर श्रीफल कहता है पानों से - हमारा शरीर कठोर है और तुम्हारा नरम-मुलायम, संभव है यह कठोरता तुम्हें अच्छी न लगे। लेकिन इतना विचार करना कि आज तक स्पर्शन इन्द्रिय मुलायम तन- वसन-शयन को ही चाहती रही, सो संसार का ही कारण बना, किन्तु यह पथ संसार से विपरीत मोक्ष का है यहाँ आत्मा की पराजय नहीं जीत है। इस मोक्षपथ' का सम्बन्ध तन से नहीं है, यहाँ तन गौण होता है चेतन-प्राप्ति की चाह ही मुख्य है। इसलिए मृदुता और काठिन्य में समानता पाई जाती है यहाँ। और फिर यह तो देखो हमारा भीतरी भाग जितना मुलायम है उतना मुलायम तुम्हारा उपरिल तन है क्या? बस बाहर ही बाहर नहीं हमारे भीतर भी झाँको क्योंकि "मृदुता और काठिन्य की सही पहचान तन को नहीं, हृदय को छूकर होती है।" (पृ. 311) कोमलता और कठोरता का वास्तविक परिचय शरीर को छूकर नहीं अपितु हृदय अंत:करण को स्पर्श कर ही किया जा सकता है। श्रीफल की सारी जटायें दूर कर दी गई है, सिर पर एक चोटी बस तनी/खड़ी है, जिस पर खिला-खुला एक गुलाब का महकता फूल सजाया गया है। प्रायः सबकी चोटी नीचे की ओर लटकती हुआ करती हैं, किन्तु श्रीफल की ऊपर उठी हुई होती है। लगता है इसीलिए श्रीफल के दान को मोक्ष देने वाला कहा गया है। कुम्भ के गले में स्फटिक की माला पहनाई गई जो कहती है कि - निर्विकार, स्फटिक के समान निर्मल, शुद्ध प्रभु का जाप करो। इस प्रकार से सजाए हुए माटी के मंगल कलश को अष्ट पहलुदार (अष्टकोणीय) चंदन की चौकी पर अतिथि के इंतजार में रख दिया गया।
  18. अच्छी तरह से जाँच-परख कर सेवक ने एक-दो छोटे, एक-दो बड़े कुम्भ चुन लिए और वह मूल्य के रूप में शिल्पी के हाथों में कुछ राशि देने का प्रयास करता है सो कुम्भकार बोल पड़ा - "आज दान का दिन है आदान-प्रदान लेन-देन का नहीं, समस्त दुर्दिनों का निवारक है यह प्रशस्त दिनों का प्रवेश-द्वार !" (पृ. 307) आज लेन-देन का नहीं, किन्तु दान का दिन है, जो समस्त संकटों को, दरिद्रता को दूर करने वाला है, पुण्य-भाग्यशाली जीवन का प्रवेश द्वार । अनादिकाल से निज आत्मा को भूलकर शरीर में रमने वाले, धर्म को दूर कर धन में ही सुख मानने वाले हम लोगों को अब बाहरी सीप का नहीं भीतरी मोती का, मात्र दीपक का नहीं ज्योति का सम्मान करना है। इस संसार में रहते हुए भी अविनश्वर निज चेतना को अपने निकट लाकर उसमें ही लीन होने का पुरुषार्थ करना है हमें बस! सोना-चाँदी या अन्य पदार्थ अणु भर हो या बहुत अधिक सभी वस्तुओं का मूल्य होता है, किन्तु धन का अपने आप में क्या मूल्य ? कुछ भी नहीं। मूलभूत पदार्थ ही मूल्यवान होता है। धन कोई मूलभूत वस्तु नहीं है । उसका जीवन पराश्रित होता है दूसरों के लिए, कल्पना से निर्धारित । इतना अवश्य है कि धन से वस्तुओं का मूल्यांकन किया जा सकता है वह भी धनिकों की आवश्यकता पर आधारित है, कभी कम तो कभी ज्यादा तो कभी सामान्य। धनिक और निर्धन दोनों ही वस्तु के सही-सही मूल्य को स्वप्न में भी नहीं समझ पाते हैं। कारण की धन-हीन प्रायः दीन-हीन बनता है और धनिक धन के मद में डूबा होता है। जब शिल्पी ने राशि स्वीकार नहीं की, तब सेवक ने धन के बदले धन्यवाद दिया और कुम्भ को हाथ में ले सेठ के घर की ओर चल दिया सेवक सानन्द! सेठ ने ज्यों ही हाथ में कुम्भ लिए सेवक को देखा, त्यों ही उच्च आसन से उतरकर प्रसन्नचित्त हो सेवक के हाथ से कुम्भ, अपने हाथ में ले लिया तथा ताजे शीतल जल से उसे धोकर स्वच्छ किया। फिर बांये हाथ में कुम्भ ले दांये हाथ की अनामिका द्वारा मलयाचल के चंदन से स्वयं का प्रतीक स्वस्तिक लिखा। स्व (निज शुद्धात्मा) की उपलब्धि हो सबको, इसी भावना से । केसर मिश्रित चंदन की चार बिन्दियाँ स्वस्तिक की चारों पांखुरियों पर लगाता है, वह जो यह बताती है कि - चारों गतियों में कहीं भी सुख नहीं है अर्थात् गतियाँ सुख से शून्य हैं। स्वस्तिक के ऊपर चन्द्र बिन्दु सहित ओमकार लिखा गया जो योग (मन-वचन-काय) और उपयोग (आत्मा का परिणाम) की स्थिरता का साधन है। योगी साधक अपना ध्यान प्रायः इसी पर एकाग्र करते हैं।
  19. सप्त स्वरों को सुन सेवक विचार करता है कि कुम्भ में ऐसी आश्चर्य जनक शक्ति स्वर कहाँ से आये? सो कुम्भ बोलता है - यह सब शिल्पी की शिल्पकला, अत्यधिक मेहनत, दृढ़ संकल्प और निरंतर साधना, संस्कार का फल है। और सुनो मेरा शरीर जो कृष्णजी जैसा काला दिख रहा है, सो जलने के कारण नहीं, अपितु शिल्पी ने मेरे अंग-अंग पर स्याही पोत दी है, जो भाँति-भाँति के बोल खोल देती है। जैसे-वाद्यकला कुशल शिल्पी मृदंग के मुख पर स्याही लगा देता है और भिन्न-भिन्न स्वर सुनता है। पुद्गल और चेतन आत्मा के भेद को ये स्वर स्पष्ट प्रकट कर देते हैं, हाथ की गादी और मध्यम अंगुलि के संघर्ष-स्पर्श होने पर जैसे- "धा....धिन्....धिन्...धा धा....धिन्....धिन्....धा वेतन -भिन्ना, चेतन-भिन्ना, ता...तिन....तिन...ता ता...तिन....तिन...ता का तन ....चिन्ता, का तन .......चिन्ता? पूँ....पूँ....यूँ!" (पृ. 306) धन-पैसा, स्त्री आदि परिवार जन भिन्न/पृथक् हैं और मैं चेतन-आत्मा पृथक् हूँ। इसी प्रकार से सदा मेरे साथ रहने वाला शरीर भी मुझसे पृथक् स्वभाव वाला ही है, नश्वर है, कर्मों के अधीन है। फिर ऐसे जड़ स्वभावी शरीर की क्या ज्यादा चिन्ता करना? इसका सदुपयोग करो, धर्मध्यान में, आत्मसाधना में लगा दो। कुम्भ की आकृति, शिल्पी द्वारा निर्मित कुम्भ के चमत्कार को देख सेवक का मन मन्त्रित हुआ, तन कीलित-सा हुआ। वह विचारता है यदि चेतन के चित्चमत्कार से मिलन हो जाए तो अनादि-कालीन करुण पुकार और मन की चिन्ता क्षण भर में नष्ट हो जावेगी। कहीं बाहर नहीं किन्तु जैसे-तालाब में उठने वाली तरंग तालाब में ही लीन हो जाती है।
  20. इधर नगर के महासेठ ने सपना देखा, जिसमें उसने दिगम्बर मुनिराज का अपने ही प्रांगण में माटी का कलश ले पड़गाहन किया। सुबह निद्रा से उठा उसने सपने को सराहा और परिवार को स्वप्न की बात बता दी, फिर हर्षित हो एक सेवक को कुम्भ लाने शिल्पी के पास भेजा। सेवक ने कुम्भकार को सेठ जी के स्वप्न की बात सुनाई। सेवक की बात सुन हर्षित हो शिल्पी बोल उठा - "दम साधक हुआ हमारा श्रम सार्थक हुआ हमारा और हम सार्थक हुए।" (पृ. 302) संयम की साधना, पुरुषार्थ सफल हुआ और हम भी सफल हुए। सेवक ने कुम्भ को अपने एक हाथ में उठाया और दूसरे हाथ में एक कंकर ले बजा बजाकर देखने लगा। इस क्रिया को देख कुम्भ आश्चर्य के स्वर में बोल पड़ा सेवक से-क्या अग्नि परीक्षा देने के बाद भी, परीक्षा लेना शेष है? पर की परीक्षा कर रहे हो अपनी परीक्षा करके देखो, बजा-बजाकर देखो तो सही कौन-सा स्वर निकलता कौवे का काँव-काँव या गधे का पंचम आलाप । परीक्षक बनने से पहले स्वयं का परीक्षा में पास होना अनिवार्य है अन्यथा योग्यता के अभाव में परीक्षक भी हँसी का पात्र बनेगा। इस पर सेवक शालीनता से कहता है-यह सत्य है कि तुमने अग्नि परीक्षा दी है किन्तु अग्नि ने तुम्हारी सही-सही परीक्षा ली है कि नहीं यह जानने हेतु तुम्हें निमित्त बनाकर अग्नि की ही अग्नि परीक्षा ले रहा हूँ। दूसरी बात यह भी है कि मैं एक स्वामी का सेवक ही नहीं किन्तु जीवन में काम आने वाली कुछ वस्तुओं का स्वामी तथा उपयोग करने वाला भी हूँ। मात्र धन की ओर दृष्टि जाने से वस्तुओं का सही-सही लेन-देन, व्यापार नहीं हो सकता है कारण ग्राहक की दृष्टि में, वस्तु का सही मूल्य उस वस्तु की उपयोगिता है। वह उपयोगिता ही भोक्ता पुरुष को कुछ समय के लिए सुख प्रदान करती है। सो यह सेवक ग्राहक बनकर आया और वह कुम्भ को हाथ में ले सात बार बजाता है, सो प्रथम बार में ‘सा' शब्द उत्पन्न होता है फिर क्रमशः रे, गा, म, प, ध, नि शब्द नाश रहित स्वर के समान वीतराग परिणति का उद्घाटन करते उत्पन्न होते हैं कुल मिलाकर भाव यह निकला - "सा...रे ग... म यानी सभी प्रकार के दु:ख प...ध यानी पद-स्वभाव और नि यानी नहीं, दुःख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता । "(पृ. 305) संसार के सारे गम अर्थात् दुख अपनी आत्मा के स्वभाव नहीं हैं। मोहकर्म से प्रभावित आत्मा का स्वभाव से विपरीत परिणमन मात्र है।यह आत्मा अनंत सुख स्वभाव वाली है। असातावेदनीय आदि कर्मों से आत्मा (संसारी जीव) दुख प्राप्त करता है। सो पर निमित्त से उत्पन्न होने वाला परिणाम किसी अपेक्षा अर्थात् निश्चयनय से अपने से भिन्न पराये ही हैं। इन सप्त स्वरों का भाव समझना ही सही संगीत में लीन होना और सही जीवन साथी को प्राप्त करना है।
  21. मान-सम्मान और अपमान-निंदा में सदा समान बुद्धि रखने वाला हो। जिनके मन-वचन-काय की स्थिरता सुमेरु पर्वत' के समान अचल हो । अन्तःकरण गौ के समान छल-कपट से रहित, सहज वात्सल्य को धारण करने वाला हो। लौकिक ख्याति-पूजा-लाभ की चाह के बिना मात्र अपने शुद्ध-आत्म तत्त्व की खोज में लगा हो। दूसरों के दोषों को नहीं किन्तु सद्गुणों को ग्रहण करने वाला हो। "प्रतिकूल शत्रुओं पर कभी बरसते नहीं, अनुकूल मित्रों पर कभी हरसते नहीं, और ख्याति-कीर्ति-लाभ पर कभी तरसते नहीं!" ( पृ. ३००-३०१) विपरीत आचरण करने वाले - शत्रु के समान प्राणियों पर भी कभी क्रोध करते नहीं, अनुकूल आचरण करने वाले प्रशंसक मित्रों के समान जीवों पर कभी प्रसन्न होते नहीं अर्थात् सदा समता धारण करते हों और जीवन में कभी भी अपने यश की कामना ले पीड़ित नहीं होते हों। क्रूर नहीं किन्तु सिंह के समान भय से रहित, अयाचक-वृत्ति को धारण करने वाला हो। सूर्य के समान दूसरों का उपकार करने वाला हो किन्तु उपकार का बदला कभी चाहने वाला न हो। निद्रा को जिन्होंने वश में किया हो, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की हो, सरोवर के समान हमेशा अच्छा उद्देश्य रखने वाला हो, सीमित मात्रा में भोजन करने वाला-अल्पाहारी हो, जिससे प्रमाद रहित आवश्यकों का पालन हो सके। हितकारी और थोड़े वचन बोलने वाला हो, चैतन्य रत्न की इच्छा रखने वाला हो, अपने दोषों को धोने हेतु आत्मनिन्दा, आलोचना करने वाला हो। दूसरों की निन्दा करना तो दूर, निन्दा सुनने के लिए भी जिनके कान बहरे जैसे हो जाते हों। यशस्वी, तपस्वी, मनस्वी होकर भी मुख से अपनी प्रशंसा करने में गूंगे जैसे हो जाते हों। समुद्र नदी-तालाबों के किनारों पर जिनकी ठंड की रातें सहज कटती, पर्वतों पर कटते गर्मी के दिन तपते सूर्य की किरणों तले ऐसे महाव्रती श्रमण रूप अतिथि का लाभ हमें हो, ऐसी भावना भाई कुम्भ ने। “भावना भव नाशिनी'' सन्तों की यह सूक्ति सफल होनी थी, सो हुई और कुम्भ की भावना पूरी होने को है।
  22. भक्त की भावना भगवान् को भी अपनी ओर खींच ही लेती है और अतिथि संविभाग, पात्र-दान की भावना कुम्भ के मन में उत्पन्न हुई, किन्तु वह - "पात्र हो पूत-पवित्र पद-यात्री हो, पाणिपात्री हो पीयूष-पायी हंस-परमहंस हो ।" (पृ. 300) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय से निर्मल हो अर्थात् वीतरागी, निष्परिग्रही देव, शास्त्र और गुरु पर श्रद्धा रखने वाला, उनके द्वारा उपदिष्ट समीचीन तत्त्व को जानने वाला एवं तदनुरूप आचरण करने वाला हो। ईर्यासमिति का पालन करता हुआ चार हाथ नीचे जमीन देखकर, जीवों की रक्षा करते हुए पृथ्वी तल पर निराकुल पैदल विहार/गमन करने वाला हो। जिसने समस्त बर्तन आदि उपकरणों का त्याग कर दिया हो और अपने कर-पात्र यानि दोनों हाथों की हथेलियों को अंजुलि बनाकर उसमें ही भोजन-पानी ग्रहण करता हो, वह भी श्रावकों के निवास पर जाकर निर्दोष आहार। हमेशा अध्यात्म रूपी अमृत को पीने वाला हो, ज्ञान-ध्यान-तप में लीन रहता हो, जो विशुद्ध संयम धारण करने हेतु निज आत्म तत्त्व में लीन, परमात्म पद की उपलब्धि हेतु निरन्तर पुरुषार्थ करने वाला हो। अपने प्रति वज्र यानि हीरे के समान कठोर तथा दूसरों के प्रति नवनीत यानि मक्खन के समान मुलायम हो। दूसरों के दुख को अपना दुख मानने वाला अर्थात् दया, करुणा के भावों से भरा हो। अरिहंतादि पञ्चपरमेष्ठी की भक्ति में लीन हो परम आनंद की अनुभूति करने वाला हो। "पाप प्रपञ्च से मुक्त, पूरी तरह पवन-सम नि:संग परतन्त्र-भीरु ।" (पृ. 300) हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों से पूर्ण रूपेण अर्थात् मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुमोदना से सदा दूर रहने वाला, हिंसादि में कारण आरम्भ-सारम्भ का भी पूर्ण त्यागी हो। हवा के समान निष्परिग्रही, मात्र पिच्छी-कमण्डलु और शास्त्र को उपकरण के रूप में स्वीकारने वाला तथा उपकरणों के प्रति भी मूच्र्छा भाव, संग्रह वृत्ति से रहित, स्वतन्त्र किन्तु आगम एवं गुरु की आज्ञानुसार अनियत विहार करने वाला हो। पराधीनता से सदा भयभीत रहने वाला अर्थात् असंयमी श्रावक आदि के बंधन में न रहकर आत्मानुशासन में रहने वाला हो। दर्पण के समान अहंकार-घमण्ड से रहित, जाति, कुल, पूजा, ज्ञान, ऋद्धि, तप आदि सम्बन्धी मदों से रहित हो । हरे-भरे, फूल-फलों से लदे वृक्ष के समान नम्र बुद्धि-विनय को धारण करने वाला हो, दर्शन-ज्ञान-चारित्र और उपचार विनय का यथाशक्ति पालन करता हो। नदी प्रवाह के समान ही अपने लक्ष्य शुद्धात्मानुभूति, केवलज्ञान की ओर बिना थके, बिना रुके निरन्तर पुरुषार्थ करने वाला हो।
  23. अतिथि सत्कार हेतु पात्र की विशेषताएँ - करपात्री, पदयात्री, विनीत, निश्छल, सदाशयी इत्यादि। नगर के महासेठ ने सपना देखा-भिक्षार्थी महासन्त का स्वागत । कुम्भ लेने सेवक पहुँचता है कुम्भकार के पास, सेवक ने बताई सपने की बात सुनकर कुम्भकार की प्रसन्नता । सेवक द्वारा कुम्भ की परीक्षा, अग्नि की अग्नि परीक्षा, कुम्भ से उभरे स्वर सा रे ग म । सेवक चमत्कृत हुआ। कुम्भ के बदले में धन देने की बात, कुम्भकार द्वारा अस्वीकार, यह कहकर कि आज दान का दिन है लेन-देन का नहीं, धन के बदले धन्यवाद दे, कुम्भ ले सेवक चला घर की ओर। सेवक से कुम्भ अपने हाथ में ले सेठ कुम्भ सजाता है स्वस्तिक, श्रीफल, पान। श्रीफल की कठोरता पत्रों की मृदुता- मुक्ति पथ की बात, कुम्भ चन्दन की चौकी पर।
  24. अवा से बाहर कुम्भ को निकाला गया, कृष्ण की काया के समान नीली-आभा उसमें से फूट रही है। ऐसा लग रहा है मानो उसके भीतरी दोष सभी जलकर बाहर आ गये हों, वह पूर्णतः पाप से रहित हो गया है। ठीक ही है पाप से भरा रहता तो क्या कभी भी प्यासे प्राणियों की प्यास बुझा सकता था वह। कुम्भ के मुख पर संसार दुखों को पार कर मुक्त हुई सिद्धात्मा-सी प्रसन्नता झलक रही है। काया की ओर कुम्भ का उपयोग नहीं है कारण भीतर आनंद की अनुभूति जो चल रही है। भौंरा काला होता हुआ भी, कभी उदास नहीं दिखता कारण की हमेशा सुधा का पान जो करता रहता है वह। "काया में रहने मात्र से काया की अनुभूति नहीं, माया में रहने मात्र से माया की प्रसूति नहीं, उनके प्रति लगाव - चाव भी अनिवार्य है।" (पृ. 298) शरीर में रहने मात्र से शरीर जन्य सुख-दुख की अनुभूति नहीं होती और संसार के, धन के बीच में रहने मात्र से संसार वृद्धि को प्राप्त नहीं होता। जब संसार के प्रति अपना-पन मोह होता है, तभी संसार बढ़ता है अन्यथा नहीं। बहुत सावधानी के साथ शिल्पी अवा में से हाथ पर ले एक-एक कुम्भ को बाहर निकालकर धरती पर रखता जा रहा है। सच ही है माटी धरती की थी, है और रहेगी। अन्तर इतना ही आया है कि पहले धरती की गोद में थी अब धरती की छाती यानी हृदय पर है कुम्भ का रूप धारण कर । बाहर हो या भीतर कुम्भ के अंग-अंग में आनंद का संगीत गूंज रहा है और सारी धरती, सारा आकाश उसी गीत में लीन/मग्न हो रहा है। दो-तीन दिन ही व्यतीत हुए कि कुम्भ के मन में अतिथि दान के शुभ भाव उमड़ने लगे। निश्चित ही यह भाव उज्ज्वल भविष्य का प्रतीक है, अब जीवन का पतन नहीं विकास ही होगा। अब कुछ ही दुर्लभ नहीं इस जीवन में सब कुछ सामने ही सामने मिलने वाला है।
  25. कुम्भ की कुशलता ही मेरी कुशलता है, यूँ कहता हुआ कुम्भकार अति निकट पहुँच फावड़े से अवा के ऊपर की राख हटाता है। ज्यों-ज्यों राख हटती जा रही है कुम्भ को देखने का कौतूहल भी बढ़ता जा रहा है कि, कब दिखे वह कुशल कुम्भ। राख के समान ही काले रंग के कुम्भ का दर्शन हुआ। आग से जल-जल कर काली रात जैसी कुम्भ की काया (शरीर) बनी हुई है। कष्ट की चरम सीमा का अनुभव हुआ, अनिष्ट को दूर कर मृत्यु से बचकर आया है कुम्भ। "कुम्भ की काया को देखने से दुःख-पीड़ा का, रव-रव का परीक्षा-फल को देखने से सुख-क्रीड़ा का, गौरव का और धारावाहिक तत्त्व को देखने से न विस्मय का, न स्मय का कुम्भकार ने अनुभव किया।" (पृ. 297) कुम्भ के शरीर को देखने से नारकीय दुख-पीड़ा का और परिणाम- परीक्षा का फल देखने से सुख की अनुभूति का, कुम्भ के आत्मीय गौरव का और प्रवाहमान तत्त्व, द्रव्यत्व की ओर दृष्टि जाने पर न आश्चर्य, न मद का ही अनुभव किया कुम्भकार ने। किन्तु भूत, वर्तमान और भविष्यकाल में वस्तु का परिवर्तन, परिणाम भी उसे स्पष्ट समझ में आ गया कि - "पावन - व्यक्तित्व का भविष्य वह पावन ही रहेगा। परन्तु, पावन की अतीत-इतिहास वह इति...हास ही रहेगा। अपावन......अपावन.......अपावन।" ( पृ. 297) जो पवित्र है उसका भविष्य निश्चित ही पवित्र होगा, किन्तु कोई भी पवित्र व्यक्ति या वस्तु हो उसका अतीत / इतिहास तो इतिहास यानि पतित अपवित्र ही रहता है। इसमें कोई सन्देह नहीं।
×
×
  • Create New...