इसी बीच एक दाता बोल पड़ा, पात्र का प्रांगण में आना और फिर बिना भोजन-पान पाये लौट जाना, घनी पीड़ा होती है दाता को किन्तु तुरन्त ही सन्तों के वचन याद आयें -
"परम-पुण्य के परमोदय से
पात्र-दान का लाभ होता है।" (पृ. 316)
पूर्वोपार्जित विशेष पुण्य का उदय होने पर पात्र-दान का योग बनता है। हमारे पुण्य का उदय तो है किन्तु अनुपात से पर्याप्त पतला अर्थात् कम लगता है और फिर दुर्लभता इसी को तो कहते हैं। कुछ दाता तो मूक हुए कीलित (स्थिर किए हुए) से खड़े रह गये। कुछ विधि ही भूल गये, आकुल-व्याकुल हो कपाल पर बार-बार हाथ लगाते हैं, मानो प्रतिकूल भाग्य को डाँट रहे हों।एक दाता ने तो सहज भाव से कह दिया कि महाराज विधि नहीं मिली तो न सही, कम से कम हमारी ओर अच्छे से देख तो लेते। हम इसी में संतोष कर लेते।
"दाता के कई गुण होते हैं
उनमें एक गुण विवेक भी होता है।" (पृ. 317)
किन्तु एक दाता ने विवेक ही खो दिया और पात्र के निकट मार्ग में ही पहुँच अति दयनीय शब्दों में कहने लगा। हे महाराज! इस जीवन में आज तक इसे पात्र-दान का सौभाग्य नहीं मिला। कई बार पात्र मिले किन्तु भाव नहीं बने । आज भावना बलवती (मजबूत) हुई फिर भी दर्शन हो, चरण-स्पर्श का मौका नहीं, चरण छूने मिले किन्तु आहारदान का सौभाग्य नहीं क्या भावना अधूरी ही रहेगी? हे भगवन् ! आज का आहार हमारे यहाँ हो बस! इस प्रसंग में यदि कोई दोष लगेगा तो मुझे ही लगेगा आपको नहीं स्वामिन्, हे कृपासागर! कृपा करो अब दया करो, देर नहीं। दाता की भावुकता पर मन्द मुस्कान ले मौन-धारी मुनि-चार हाथ जमीन देखता हुआ आगे बढ़ जाता है तब तक दाता के मुख से पुनः निराशा मिश्रित पंक्तियाँ निकली -
"दाँत मिले तो चने नहीं
चने मिले तो दाँत नहीं,
और दोनों मिले तो.......
पचाने को आँत नहीं........!" (पृ. 318)
अर्थात् जब पात्र मिले थे तब भाव नहीं बने, अब भाव बने तो पात्र लाभ नहीं और जब दोनों मिले तो दान के योग्य पुण्य नहीं रहा। अथवा कमजोर पड़ गया।