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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • 29. मनमाना मन : असंयमी का

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    इधर घर के सब छोटे बच्चे-बच्चियों को भीतर रहने की आज्ञा मिली है और चुपचाप बैठने को बाध्य किया गया है। फिर भी बीच-बीच में चौखट के भीतर या खिड़कियों से एक दूसरे को आगे-पीछे कर बाहर झाँकने का प्रयास चल रहा है सच ही है -

     

    "सीमा में रहना असंयमी का काम नहीं,

    जितना मना किया जाता

    उतना मनमाना होता है।

    पाल्य दिशा में।" (पृ. 341)

     

    नियम-संयम की सीमा में बंधे रहना असंयमी के वश की बात नहीं है। जितना मना किया जाता है मन उस दिशा में उतना ही स्वच्छंद होता है। अज्ञान दशा में त्यागने योग्य वस्तु का त्याग होना और ग्रहण करने योग्य वस्तु का स्वीकारना संभव नहीं हो पाता है। फिर जो कुछ भी पलता है जबरदस्ती, भय के कारण ही।

     

    इधर बालों के उपद्रव से बचने हेतु सेठ ने सिर को भी कसकर बाँध रखा है। फिर भी सेठ के माथे पर काले-काले बालों की लट बार-बार बाहर आ आहार-दान के सुखद दृश्य को, अन्य ध्यान से विमुख हो देख रही है। और वह निर्भीक होकर परम-पात्र अतिथि से कहती है कि - आप समता के धनी सन्त हैं और सेठ जी दाता हैं, सज्जन पुरुष, ममता की खान। जो वैराग्य के प्रति अनुराग रखते हैं, आप दोनों का ध्येय बन्धन से मुक्ति पाना है फिर भला मुझे बन्धन में क्यों डाल दिया, मुझे भी बन्धन रुचता नहीं।

     

    माना कि मेरा इतिहास गलत है और मेरा ही नहीं किसका गलत नहीं है पतित, पाप पंक से लिप्त नहीं। परन्तु आज मैं भी सुधरना चाहती हूँ। पाप पुण्य से मिलने आया है, विष अमृत में ढलने आया है, हे प्रकाश पुंज प्रभाकर ! मुझ अन्धकार की प्रार्थना पर ध्यान दें, बार-बार भगाने की अपेक्षा एक बार इसे जगा दें, सत्य का बोध करा अपने चरणों में जगह दें, अपने समान बना लें। प्रकाश का सही लक्षण यही है कि वह सबको प्रकाशित करें। एक बात और कहता हूँ प्रभो!

     

    "भाग्यशाली भाग्यहीन को

    कभी भगाते नहीं, प्रभो!

    भाग्यवान् भगवान् बनाते हैं।" (पृ. 342)

     

    जो पुण्यवान पुरुष होते हैं, वे भाग्यहीन पुरुषों को भी तिस्कृत नहीं करते अपने से दूर नहीं भगाते अपितु अपनी कृपा से उसे भी पुण्यशाली बना, भगवान् तक बना देते हैं। यूँ कहकर लट झट (जल्दी) से पलटकर चुप हो जाती है।



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