पूर्व पुण्य के फलस्वरूप, धर्म की कृपा से सेठजी को जो मिला उस महाप्रासाद' के पंचमखण्ड में एक चैत्यालय स्थापित है। जिसमें चाँदी के सिंहासन पर, कर्म रूपी धूल से रहित वीतरागी प्रभु की अतुलनीय रजत प्रतिमा विराजमान है। प्रतिदिन के समान ही सेठ प्रभु की पूजन करने चैत्यालय जाता है। सबसे पहले रुचि पूर्वक उत्साह से प्रभु की वंदना करता है फिर प्रतिमा का अभिषेक किया पश्चात् जो स्वयं निर्मल है एवं दूसरों की निर्मलता का कारण बनता है ऐसे गंधोदक को सेठजी ने विनय पूर्वक आनंद से अपने उत्तमांग (सिर) पर लगा लिया। फिर जल से हाथ धोकर, स्वच्छ (साफ-सुथरे) श्वेत वस्त्र से प्रतिमा का प्रक्षालन किया। तत्पश्चात् -
"पाप-पाखण्डों से
परिग्रह-खण्डों से
मुक्त असंपृक्त
त्यागी वीतरागी की पूजा की
अष्टमंगल द्रव्य ले
भाव-भक्ति से चाव-शक्ति से
सांसारिक किसी प्रलोभनवश नहीं,
प्रयोजन बस, बन्धन से मुक्ति !
भवसागर का कूल.......किनारा।" (पृ. 312)
पाप-प्रपंचों से दूर, पूर्णतः अपरिग्रही, अलिप्त वीतरागी प्रभु की जल चन्दनादि अष्ट द्रव्य' ले भाव-भक्ति से, यथाशक्ति उत्साह को प्रदर्शित करते हुए पूजा की। पूजा का प्रयोजन किसी सांसारिक वस्तु की प्राप्ति नहीं अपितु संसार सागर का किनारा, भाव बंधन से मुक्ति मिले बस।