सप्त स्वरों को सुन सेवक विचार करता है कि कुम्भ में ऐसी आश्चर्य जनक शक्ति स्वर कहाँ से आये? सो कुम्भ बोलता है - यह सब शिल्पी की शिल्पकला, अत्यधिक मेहनत, दृढ़ संकल्प और निरंतर साधना, संस्कार का फल है। और सुनो मेरा शरीर जो कृष्णजी जैसा काला दिख रहा है, सो जलने के कारण नहीं, अपितु शिल्पी ने मेरे अंग-अंग पर स्याही पोत दी है, जो भाँति-भाँति के बोल खोल देती है। जैसे-वाद्यकला कुशल शिल्पी मृदंग के मुख पर स्याही लगा देता है और भिन्न-भिन्न स्वर सुनता है। पुद्गल और चेतन आत्मा के भेद को ये स्वर स्पष्ट प्रकट कर देते हैं, हाथ की गादी और मध्यम अंगुलि के संघर्ष-स्पर्श होने पर जैसे-
"धा....धिन्....धिन्...धा
धा....धिन्....धिन्....धा
वेतन -भिन्ना, चेतन-भिन्ना,
ता...तिन....तिन...ता
ता...तिन....तिन...ता
का तन ....चिन्ता, का तन .......चिन्ता?
पूँ....पूँ....यूँ!" (पृ. 306)
धन-पैसा, स्त्री आदि परिवार जन भिन्न/पृथक् हैं और मैं चेतन-आत्मा पृथक् हूँ। इसी प्रकार से सदा मेरे साथ रहने वाला शरीर भी मुझसे पृथक् स्वभाव वाला ही है, नश्वर है, कर्मों के अधीन है। फिर ऐसे जड़ स्वभावी शरीर की क्या ज्यादा चिन्ता करना? इसका सदुपयोग करो, धर्मध्यान में, आत्मसाधना में लगा दो।
कुम्भ की आकृति, शिल्पी द्वारा निर्मित कुम्भ के चमत्कार को देख सेवक का मन मन्त्रित हुआ, तन कीलित-सा हुआ। वह विचारता है यदि चेतन के चित्चमत्कार से मिलन हो जाए तो अनादि-कालीन करुण पुकार और मन की चिन्ता क्षण भर में नष्ट हो जावेगी। कहीं बाहर नहीं किन्तु जैसे-तालाब में उठने वाली तरंग तालाब में ही लीन हो जाती है।