अवा से बाहर कुम्भ को निकाला गया, कृष्ण की काया के समान नीली-आभा उसमें से फूट रही है। ऐसा लग रहा है मानो उसके भीतरी दोष सभी जलकर बाहर आ गये हों, वह पूर्णतः पाप से रहित हो गया है। ठीक ही है पाप से भरा रहता तो क्या कभी भी प्यासे प्राणियों की प्यास बुझा सकता था वह।
कुम्भ के मुख पर संसार दुखों को पार कर मुक्त हुई सिद्धात्मा-सी प्रसन्नता झलक रही है। काया की ओर कुम्भ का उपयोग नहीं है कारण भीतर आनंद की अनुभूति जो चल रही है। भौंरा काला होता हुआ भी, कभी उदास नहीं दिखता कारण की हमेशा सुधा का पान जो करता रहता है वह।
"काया में रहने मात्र से
काया की अनुभूति नहीं,
माया में रहने मात्र से
माया की प्रसूति नहीं,
उनके प्रति
लगाव - चाव भी अनिवार्य है।" (पृ. 298)
शरीर में रहने मात्र से शरीर जन्य सुख-दुख की अनुभूति नहीं होती और संसार के, धन के बीच में रहने मात्र से संसार वृद्धि को प्राप्त नहीं होता। जब संसार के प्रति अपना-पन मोह होता है, तभी संसार बढ़ता है अन्यथा नहीं।
बहुत सावधानी के साथ शिल्पी अवा में से हाथ पर ले एक-एक कुम्भ को बाहर निकालकर धरती पर रखता जा रहा है। सच ही है माटी धरती की थी, है और रहेगी। अन्तर इतना ही आया है कि पहले धरती की गोद में थी अब धरती की छाती यानी हृदय पर है कुम्भ का रूप धारण कर । बाहर हो या भीतर कुम्भ के अंग-अंग में आनंद का संगीत गूंज रहा है और सारी धरती, सारा आकाश उसी गीत में लीन/मग्न हो रहा है।
दो-तीन दिन ही व्यतीत हुए कि कुम्भ के मन में अतिथि दान के शुभ भाव उमड़ने लगे। निश्चित ही यह भाव उज्ज्वल भविष्य का प्रतीक है, अब जीवन का पतन नहीं विकास ही होगा। अब कुछ ही दुर्लभ नहीं इस जीवन में सब कुछ सामने ही सामने मिलने वाला है।