क्या पूरा-पूरा आशावादी बनँ अर्थात् आज नहीं तो कल संयोग मिलेगा, अथवा नियति अर्थात् भवितव्यता पर ही सब कुछ छोड़ दें जो होना होगा सो होगा और छोड़ दें पुरुषार्थ करना। हे परम पुरुष! आप ही बताएँ, मैं क्या करूं? क्या सब कुछ काल पर छोड़ दें अर्थात् ऐसा कोई काल आयेगा जब स्वयमेव परिणमन होगा। यदि ऐसा मान लें तो फिर प्रति पदार्थ स्वतंत्र है अपना कर्ता स्वयं आप है क्या यह सिद्धान्त सदोष है? जो होना होगा वैसा ही होगा ऐसी होने रूप क्रिया के साथ-साथ करने रूप क्रिया अर्थात् ऐसा करो, ऐसा मत करो रूप पुरुषार्थ का भी तो उपदेश जैन आगम में मिलता है ना।
सेठ के प्रश्नों की पंक्तियाँ सुन मौन तोड़कर माँ के समान गुरु ने वात्सल्य भाव से कहा - कि ऊपर सिर उठाकर मेरी ओर देखो इन सब प्रश्नों का उत्तर तुम्हें यहाँ मिलेगा। सेठ ने सिर उठाकर गीली आँखों से ऊपर देखा-मुनि की गम्भीर मौन मुद्रा दिखी जिनकी आँखों में चंचलता का अभाव, माथे पर छल- कपट से रहित निश्छलता का दर्शन हुआ और वही मुद्रा प्रश्नों के उत्तर रूप रहस्यों का उद्घाटन करती है।
"‘नि' यानी निज में ही
‘यति' यानि यतन-स्थिरता है
अपने में लीन होना ही नियति है
निश्चय से यही यति है,
और
‘पुरुष' यानी आत्मा-परमात्मा है
'अर्थ' यानी प्राप्तव्य प्रयोजन है
आत्मा को छोड़कर
सब पदार्थों को विस्मृत करना ही
सही पुरुषार्थ है।" (पृ. 349)
अपने स्वरूप में स्थिर होना ही नियति है निश्चय से यहीं पर दुखों का विराम-विश्राम है और निज आत्मा को छोड़कर अन्य सभी पर वस्तुओं को भूलना ही सही पुरुषार्थ है।
नियति और पुरुषार्थ का सही-सही स्वरूप ज्ञात हुआ, तो काल मात्र उपस्थित रहने वाला, उदासीन निमित्त है प्रेरक नहीं, यह विषय भी स्पष्ट हुआ। सेठ उत्तर पाकर निःशंक हुआ फिर भी मन उदास है अतः वर्षा होने के बाद फीके पड़े बादलों के समान छोटा-सा उदासीन मुख ले, सेठ घर की ओर जा रहा है।
तेल से बाती का सम्बन्ध टूट जाने के कारण अथवा थोड़ा-सा तेल बचने के कारण टिमटिमाते दीपक के समान अपने तन में प्राणों को संजोय धीमी गति से चल रहा है सेठ। मन में, चिन्तन-मनन भी चल रहा है अतः मूलधन ही समाप्त हो जाने पर खाली हाथ घर लौटने वाले, भविष्य की चिन्ता में किंकर्तव्यविमूढ़ बने व्यापारी के समान बना सेठ घर की ओर जा रहा है।