इस प्रकार दाताओं की भिन्न-भिन्न दशाओं को देख कुम्भ ने सेठ को सचेत किया कि - यही दशा हमारी भी हो सकती है। दान के समय विवेक कभी नहीं भूलना चाहिए, पात्र के सन्मुख विनय अनुनय से प्रार्थना हो किन्तु अतिरेक- अधिकता नहीं। मन-वचन-काय से लघुता, नम्रता प्रकट हो किन्तु उदासता नहीं। होठों पर मन्द-मन्द मुस्कान तो हो किन्तु हँसी-मजाक नहीं, दान के प्रति उत्साह, उमंग हो पर जल्दबाजी नहीं। दान के समय विनय की सुगंध, मधुरता तो झरे (प्रकट हो) किन्तु दीनता नहीं होनी चाहिए।
इसी संदर्भ में स्वीकारने योग्य, विद्वानों के द्वारा स्तुत (स्वीकृत) एक कविता प्रस्तुत है जो सन्तों के मुख से सुनी थी - सूरज की गरमी से तपी धरती को प्यास लगी है, जल पीने की इच्छा है अतः धरती ने अपना मुख खोल रखा है (जगह जगह दरारें पड़ चुकी हैं) किन्तु धरती भी कृत संकल्पित है कि - दाता का विशेष इंतजार नहीं करना और न ही अच्छी-बुरी मीमांसा तथा अपना स्थान छोड़कर अन्यत्र भी नहीं जाना है कारण -
"पात्र की दीनता
निरभिमान दाता में
मान का आविर्माण कराती है
पाप की पालड़ी फिर
भारी पड़ती है वह,
और
स्वतन्त्र- स्वाभिमान पात्र में
परतन्त्रता आ ही जाती है, (पृ. 320)
पात्र यदि दीन-हीन बनता है तो घमंड से रहित दाता में भी मान उत्पन्न हो जाता है, जिससे दाता को पुण्य के स्थान पर पाप का बन्ध होने लगता है और सिंह वृत्ति के धारक स्वतन्त्र, स्वाभिमानी पात्र में भी पराधीनता आने लगती है। जिससे दाता और पात्र दोनों अपने-अपने कर्त्तव्य से दूर खिसकते जाते हैं, जिसका फल दोनों ही अधर में लटके रह जाते हैं। अर्थात् दाता दान के समीचीन फल को उपलब्ध नहीं कर पाता एवं पात्र असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा' के साधन रूप एषणा समिति का निर्दोष पालन नहीं कर पाता।
तभी तो पाप को पुण्य में बदलने सत्पात्र की खोज में निकले काले- काले बादल, पृथ्वी रूपी पात्र को प्राप्त कर गड़गड़ाहट ध्वनि करते, उसके चरणों में मूसलाधार वर्षा करते हैं। फिर पृथ्वी ने भी सहज रूप से बादल की कालिमा को धो डाला अन्यथा वर्षा के बाद बादल समूह चाँदी जैसे स्वच्छ दिखाई पड़ते हैं क्यों?