कुम्भ के मुख से कम शब्दों में सारभूत कविता सुनी, सुनते ही दाता और पात्र का यथार्थ स्वरूप समझ में आया। सेठजी की आँखें खुली, सभी भ्रमों को छोड़, स्वयं को संयमित किया सेठ ने। आते हुए पात्र को लगा कोई विशेष पुण्य का फल उनके पदों को आगे बढ़ने से रोक रहा है, अपनी ओर खींच रहा है। और सेठ ने प्रांगण की ओर धीरे-धीरे आते कदमों को देखा-सेठ जागृत हो, श्रद्धा सहित, न बिल्कुल धीरे, न बहुत तेज किन्तु मध्यम स्वरों में आगन्तुक का स्वागत शुरु करता हुआ कहने लगा -
"भो स्वामिन्!
नमोऽस्तु ! नमोऽस्तु ! नमोऽस्तु !
अत्र ! अत्र ! अत्र !
तिष्ठ ! तिष्ठ ! तिष्ठ !" (पृ. 322)
हे स्वामिन् ! नमोऽस्तु ! नमोऽस्तु ! नमोऽस्तु ! यहाँ ठहरिये ! यहाँ ठहरिये ! यहाँ ठहरिये ! दो तीन बार इन स्वागत स्वरों को दोहराया गया। साथ ही साथ सेठ के कर्ण कुण्डल भी धीमे-धीमे हिलते हुए अतिथि को सादर बुला रहे हैं। अभय प्रदाता अतिथि आकुलता, चंचलता रहित सेठजी के प्रांगण में आ रुकता है।
धन्य भाग्य मानता हुआ सेठ पत्नी एवं परिवार सहित अतिथि को दांयी ओर ले, दो-तीन हाथ की दूरी से पात्र की परिक्रमा लगाता है। यह दृश्य ऐसा लग रहा है मानो ग्रह-नक्षत्र-ताराओं सहित सूर्य-चन्द्रमा सुमेरुपर्वत की ही परिक्रमा लगा रहे हों। जीवदया पालन करते हुए परिवार ने तीन परिक्रमा पूर्ण की। फिर नवधाभक्ति का प्रारम्भ होता है। मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि और आहार- जल शुद्ध है, पधारिये स्वामिन् ! मम गृह, भोजनशाला में प्रवेश कीजिए, कहता हुआ बिना पीठ दिखाए आगे होता है पूरा परिवार।
घर के भीतर पात्र प्रवेश होने के पश्चात् आसन शुद्धि बताता हुआ उच्चासन पर बैठने की प्रार्थना करता है सेठ। पात्र का आसन पर बैठना हुआ, चरणाभिषेक हेतु पात्र से निवेदन किया गया, स्वीकृति मिली। पलाश पुष्प के समान गुलाबी, अविरति (पाप) से भयभीत श्रमण के दोनों चरण-तल चाँदी के थाल पर रखे जाते हैं। गुरु के प्रति अनुराग व्यक्त करता हुआ रजत-थाल भी कुमकुम सम शुद्ध स्वर्ण-सा लाल बनता है। छानना, तपाये हुए समशीतोष्ण जल से भरे कलश को, दाता हाथ में ले, पात्र के पदों का अभिषेक करता है। झुके हुए कुम्भ ने काम-वासना, मान-घमण्ड से दूर गुरु महाराज के चरणों की अंगुलियों के नख रूप दर्पण में अपना दर्शन किया और धन्य-धन्य, जय-जय गुरुदेव की, जय-जय इस घड़ी की कह उठा। अतीत में अनुभूत पथ की पीड़ाएँ, कष्ट का वेदन, बचा-खुचा मन का मैल सब दूर हुआ। भावना साकार हुई, अपना सब कुछ गुरु-चरण में अर्पण किया।
"शरण चरण हैं आपके,
तारण-तरण जहाज,
भव-दधि तट तक ले चलो
करुणाकर गुरुराज!" ( पृ. 325)
संसार से पार लगाने वाले गुरु महाराज का गुणगान करते हुए, समस्त विघ्नों को नष्ट करने वाला, वैभव-सम्पन्नता को देने वाला अभिषेक पूर्ण हुआ और स्वच्छ वस्त्र से पैरों का प्रक्षालन (पोंछना) भी। सेठ ने परिवार सहित गन्धोदक अपने मस्तक पर लगाया।
इसी क्रम में आगे विधि के अनुसार, योग्य मात्रा में जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल इत्यादि अष्ट द्रव्य से स्थापना पूर्वक पूजन कार्य पूर्णकर, पंचांग नमस्कार करता हुआ नमोऽस्तु...नमोऽस्तु...नमोऽस्तु निवेदित करता है सेठ परिवार । पुनः दोनों हाथों को जोड़ पूरा परिवार पात्र से प्रार्थना करता है कि हे स्वामिन् ! अंजुलि-मुद्रा छोड़कर आहार ग्रहण कीजिए। पात्र ने भी दान-विधि में कुशल दाता को जान, अंजुलि-मुद्रा छोड़ दोनों हाथों को स्वच्छ उष्ण जल से धो लिया। और वह नासाग्रदृष्टि करता हुआ अर्हन्तों की भक्ति में डूबता है अर्थात् कायोत्सर्ग' करता है वह महामना! कैसे हैं वे अर्हन्त प्रभु? सो बताया जाता है।
अरिहन्त प्रभु मोह से रहित, राग रूप माया-लोभ एवं द्वेष रूप क्रोध- मान कषायमय भावों से दूर हैं। जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, क्षुधा, प्यास, मद, आश्चर्य, भय, निद्रा, पसीना, खेद आदि अठारह दोषों से रहित हैं। इनमें अनन्त बल, अनन्त सुख, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन प्रकट हुए हैं। प्रभु सदा शोक से रहित अशोक हैं, सभी चिन्ताओं से दूर, एकाकी, परिग्रह और परिजन से रहित हैं।