आहारदान की क्रिया सम्पन्न हुई। आसन पर बैठ पेट-छाती-हाथ आदि अंगों को अपने हाथों में जल लेकर स्वच्छ बना श्रमण पुनः कुछ समय के लिए पलकों को अर्थोन्मीलित कर परमात्मा की भक्ति (कायोत्सर्ग) में लीन हो जाता है।
कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर सेठ ने अपने हाथों से, मुनिराज के दोनों हाथों में मयूर पंख से बनी पिच्छिका प्रदान की। जो कि मृदु, कोमल, हल्की और मन को आकर्षित करने वाली भी है। प्यास बुझाने हेतु नहीं किन्तु शास्त्र-स्वाध्याय के पूर्व और शौचादि क्रियाओं के बाद हाथ-पैरादि की शुद्धि हेतु कमण्डलु में प्रासुक जल डाला गया जो कि 24 घण्टे तक उपयोग में लाया जा सकता है इसके पश्चात् सदोष हो जाता है अर्थात् त्रस जीवों की उत्पत्ति की संभावना हो जाती है।
अतिथि के चरण छूने तथा पावन दर्शन हेतु अड़ोस-पड़ोस की जनता आँगन में आ खड़ी हुई । ज्यों ही अतिथि का आँगन में आना हुआ त्यों ही जय- जयकार के घोष से सारा आकाश गूंज उठा और भावुक जनता सहित सेठ ने प्रार्थना की गुरुवर से -
"पुरुषार्थ के साथ-साथ
हम आशावादी भी हैं
आशु आशीर्वाद मिले
शीघ्र टले विषयों की आशा, बस!
चलें हम आपके पथ पर।" (पृ. 344)
हे गुरुवर! हमारे विषयों की इच्छा शीघ्र ही दूर हो, ऐसा आशीर्वाद जल्दी ही प्रदान करें। क्योंकि पुरुषार्थ के साथ-साथ कुछ इच्छा भी रखते हैं हम। सो आपके जैसे बने, आपके पथ पर चलें और जाते-जाते ऐसा सूत्र देते जाइए, जिससे बंधे हम अपने आपको जान सकें। क्योंकि जो सुई- सूत्र अर्थात् धागे से बंधी होती है वह कभी गुमती नहीं। हमारा जीवन भी ऐसा ही बने।
इस पर अतिथि सोचता है कि उपदेश के योग्य न ही यह स्थान है और न ही समय। फिर भी भीतरी करुणा उमड़ पड़ी और सीप से निकलने वाले मोती के समान पात्र के मुख से निकलते हैं कुछ शब्द -
"बाहर यह
जो कुछ भी दिख रहा है
सो......मैं.....नहीं....हूँ
और वह
मेरा भी नहीं है।" (पृ. 345)
इन दो आँखों से जो भी कुछ संसार में दिख रहा है यह शरीर, भाई-बन्धु, मकान, दुकान, नगर आदि वह मैं अर्थात् मेरा स्वरूप नहीं है और न ही वे मेरे अपने हैं। अर्थात् बाहरी सभी पदार्थ मुझसे सर्वथा भिन्न हैं।
ये आँखें मेरे वास्तविक स्वरूप को देख नहीं सकती क्योंकि मैं तो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण से रहित, अमूर्त हूँ। और ये आँखें रूपी पदार्थों को ही अपना विषय बनाती हैं, किन्तु मैं जीव हूँ मुझमें ही देखने की शक्ति है। उस शक्ति का ही स्वामी मैं हूँ, था और रहूँगा। यह मेरा त्रैकालिक स्वभाव है। भाव यह निकला कि शरीर सो मैं नहीं किन्तु शरीर के भीतर मैं हूँ। यूँ कहते-कहते पात्र (मुनिराज) के पद चल पड़े उपवन की ओर तथा पीठ हो गई दर्शकों की तरफ।