भक्त की भावना भगवान् को भी अपनी ओर खींच ही लेती है और अतिथि संविभाग, पात्र-दान की भावना कुम्भ के मन में उत्पन्न हुई, किन्तु वह -
"पात्र हो पूत-पवित्र
पद-यात्री हो, पाणिपात्री हो
पीयूष-पायी हंस-परमहंस हो ।" (पृ. 300)
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय से निर्मल हो अर्थात् वीतरागी, निष्परिग्रही देव, शास्त्र और गुरु पर श्रद्धा रखने वाला, उनके द्वारा उपदिष्ट समीचीन तत्त्व को जानने वाला एवं तदनुरूप आचरण करने वाला हो। ईर्यासमिति का पालन करता हुआ चार हाथ नीचे जमीन देखकर, जीवों की रक्षा करते हुए पृथ्वी तल पर निराकुल पैदल विहार/गमन करने वाला हो। जिसने समस्त बर्तन आदि उपकरणों का त्याग कर दिया हो और अपने कर-पात्र यानि दोनों हाथों की हथेलियों को अंजुलि बनाकर उसमें ही भोजन-पानी ग्रहण करता हो, वह भी श्रावकों के निवास पर जाकर निर्दोष आहार।
हमेशा अध्यात्म रूपी अमृत को पीने वाला हो, ज्ञान-ध्यान-तप में लीन रहता हो, जो विशुद्ध संयम धारण करने हेतु निज आत्म तत्त्व में लीन, परमात्म पद की उपलब्धि हेतु निरन्तर पुरुषार्थ करने वाला हो। अपने प्रति वज्र यानि हीरे के समान कठोर तथा दूसरों के प्रति नवनीत यानि मक्खन के समान मुलायम हो। दूसरों के दुख को अपना दुख मानने वाला अर्थात् दया, करुणा के भावों से भरा हो। अरिहंतादि पञ्चपरमेष्ठी की भक्ति में लीन हो परम आनंद की अनुभूति करने वाला हो।
"पाप प्रपञ्च से मुक्त, पूरी तरह
पवन-सम नि:संग
परतन्त्र-भीरु ।" (पृ. 300)
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों से पूर्ण रूपेण अर्थात् मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुमोदना से सदा दूर रहने वाला, हिंसादि में कारण आरम्भ-सारम्भ का भी पूर्ण त्यागी हो। हवा के समान निष्परिग्रही, मात्र पिच्छी-कमण्डलु और शास्त्र को उपकरण के रूप में स्वीकारने वाला तथा उपकरणों के प्रति भी मूच्र्छा भाव, संग्रह वृत्ति से रहित, स्वतन्त्र किन्तु आगम एवं गुरु की आज्ञानुसार अनियत विहार करने वाला हो। पराधीनता से सदा भयभीत रहने वाला अर्थात् असंयमी श्रावक आदि के बंधन में न रहकर आत्मानुशासन में रहने वाला हो।
दर्पण के समान अहंकार-घमण्ड से रहित, जाति, कुल, पूजा, ज्ञान, ऋद्धि, तप आदि सम्बन्धी मदों से रहित हो । हरे-भरे, फूल-फलों से लदे वृक्ष के समान नम्र बुद्धि-विनय को धारण करने वाला हो, दर्शन-ज्ञान-चारित्र और उपचार विनय का यथाशक्ति पालन करता हो। नदी प्रवाह के समान ही अपने लक्ष्य शुद्धात्मानुभूति, केवलज्ञान की ओर बिना थके, बिना रुके निरन्तर पुरुषार्थ करने वाला हो।