कुम्भ की कुशलता ही मेरी कुशलता है, यूँ कहता हुआ कुम्भकार अति निकट पहुँच फावड़े से अवा के ऊपर की राख हटाता है। ज्यों-ज्यों राख हटती जा रही है कुम्भ को देखने का कौतूहल भी बढ़ता जा रहा है कि, कब दिखे वह कुशल कुम्भ। राख के समान ही काले रंग के कुम्भ का दर्शन हुआ। आग से जल-जल कर काली रात जैसी कुम्भ की काया (शरीर) बनी हुई है। कष्ट की चरम सीमा का अनुभव हुआ, अनिष्ट को दूर कर मृत्यु से बचकर आया है कुम्भ।
"कुम्भ की काया को देखने से
दुःख-पीड़ा का, रव-रव का
परीक्षा-फल को देखने से
सुख-क्रीड़ा का, गौरव का
और
धारावाहिक तत्त्व को देखने से
न विस्मय का, न स्मय का
कुम्भकार ने अनुभव किया।" (पृ. 297)
कुम्भ के शरीर को देखने से नारकीय दुख-पीड़ा का और परिणाम- परीक्षा का फल देखने से सुख की अनुभूति का, कुम्भ के आत्मीय गौरव का और प्रवाहमान तत्त्व, द्रव्यत्व की ओर दृष्टि जाने पर न आश्चर्य, न मद का ही अनुभव किया कुम्भकार ने। किन्तु भूत, वर्तमान और भविष्यकाल में वस्तु का परिवर्तन, परिणाम भी उसे स्पष्ट समझ में आ गया कि -
"पावन - व्यक्तित्व का भविष्य वह
पावन ही रहेगा।
परन्तु,
पावन की अतीत-इतिहास वह
इति...हास ही रहेगा।
अपावन......अपावन.......अपावन।" ( पृ. 297)
जो पवित्र है उसका भविष्य निश्चित ही पवित्र होगा, किन्तु कोई भी पवित्र व्यक्ति या वस्तु हो उसका अतीत / इतिहास तो इतिहास यानि पतित अपवित्र ही रहता है। इसमें कोई सन्देह नहीं।