इधर बिना किसी बाधा के आहार-दान चल रहा है सेठ भावना भा रहा है कि यह कार्य ऐसा ही सानंद-सम्पन्न भी हो। सेठ के कन्धों से नीचे की ओर लटकते उत्तरीय वस्त्र की छोर ऐसी लग रही है मानो कुम्भ की नीलिमा (नीले रंग की आभा) से पराजित हुई लज्जा का अनुभव करती धरती में ही छुपी जा रही है। सेठ के दाँये हाथ की मध्यमा अंगुलि में स्वर्ण निर्मित अंगूठी है। जिसमें लगा माणिक रत्न, श्रमण के लाल-लाल होठों से बार-बार अपनी तुलना करता है और अन्त में हार मानकर अतिथि के पद-तलों को छूता-सा प्रतीत हो रहा है। ठीक ही है-पूज्य पुरुषों की पूजा से ही मनवांछित फल की प्राप्ति संभव है। इसी प्रकार सेठ के बाँयें हाथ के तर्जनी की मुद्रा में लगी मुक्ता भी कर-पात्री के नखों की चमक देख पीड़ा का अनुभव कर दुखी हो, ज्वर ग्रस्त-सी लग रही है, यही कारण लगता है उसकी काया रक्त रहित सफेद बनी है।
सेठ के दोनों कानों के कुण्डल भी पात्र के मांसल, गोल-गोल सुन्दर गालों से अपनी तुलना कर रहे हैं कि इन गालों की कान्ति में और हममें इतना अन्तर क्यों? किससे पूछे? कैसे पूछे? तभी उलझन में उलझे कुण्डलों को मिलता है कपोलों (गालों) का उद्बोधन-तुम्हें देखते ही दर्शकों के मन में राग-भाव पैदा होता है तो हमें देखते ही वात्सल्य भाव उमड़ता है। रागी भी कुछ पल के लिए विरागता (वैराग्य) में खो जाता है। हमारे भीतर स्थित वात्सल्य-भाव बैरियों के पाषाण हृदय को भी फूल के समान मृदु मुलायम बना देता है। हममें अनमोल बोल/वचन पलते हैं जबकि तुममें केवल पोल यानि खालीपन ही मिलता है। एक बात और है कि -
"विकसित या विकास-शील
जीवन भी क्यों न हो,
कितने भी उज्वल-गुण क्यों न हों,
पर से स्व की तुलना करना
पराभव का कारण है
दीनता का प्रतीक भी।" (पृ. 329)
जीवन पूर्ण विकास को प्राप्त हो चुका हो अथवा होने वाला हो, तथा अपने पास कितने भी अच्छे-अच्छे गुण क्यों न हों? औरों से अपनी तुलना करना- हार का, अपने सुख के विनाश का कारण बनता है और यह कार्य दीनता का प्रतीक भी है।
तुलना की क्रिया ही एक रूप से स्पर्धा है, स्पर्धा में जीवन आधा हो जाता है। और स्पर्धा के कारण ही सूक्ष्म अहंकार की सत्ता भी जाग जाती है, फिर जीवन में संतोष कहाँ? संतोष रहित जीवन दोष पूर्ण ही माना जाता है।
यही कारण है कि प्रशंसा, यश की चाह रूपी आग में झुलसा सदोष जीवन सहज, सुखद गुणों की छाँव को प्राप्त नहीं कर पाता है। वैसे ‘स्वयं' शब्द ही यह कह रहा है कि स्व यानि सम्पदा है, स्व ही विधि का विधान अर्थात् भाग्य की रेखा है और 'स्व' ही सुख का अनमोल खजाना है। स्वयं को प्राप्त करना ही संसार की संपूर्ण उपलब्धियों को पाना है फिर अतुलनीय निज की तुलना पर से क्यों? यूँ कपोलों से अपनी पोल खुलती देख स्वर्ण के कुण्डल भी कान्तिहीन हो गए।
सेठ ने पीले वस्त्र पहने हैं, जिस पहनाव में उसका मुख गुलाब के जैसा खिल रहा है। फूल लहराते हुए पीले दुपट्टे में कुम्भ की नीलम छवि तैर रही थी सो ऐसा लग रहा है कि पीताम्बर दुपट्टे की पीलिमा यानि पीली-पीली आभा कुम्भ की नीलिमा को पीने हेतु उतावली (जल्दबाजी) कर रही हो।