अच्छी तरह से जाँच-परख कर सेवक ने एक-दो छोटे, एक-दो बड़े कुम्भ चुन लिए और वह मूल्य के रूप में शिल्पी के हाथों में कुछ राशि देने का प्रयास करता है सो कुम्भकार बोल पड़ा -
"आज दान का दिन है
आदान-प्रदान लेन-देन का नहीं,
समस्त दुर्दिनों का निवारक है यह
प्रशस्त दिनों का प्रवेश-द्वार !" (पृ. 307)
आज लेन-देन का नहीं, किन्तु दान का दिन है, जो समस्त संकटों को, दरिद्रता को दूर करने वाला है, पुण्य-भाग्यशाली जीवन का प्रवेश द्वार । अनादिकाल से निज आत्मा को भूलकर शरीर में रमने वाले, धर्म को दूर कर धन में ही सुख मानने वाले हम लोगों को अब बाहरी सीप का नहीं भीतरी मोती का, मात्र दीपक का नहीं ज्योति का सम्मान करना है। इस संसार में रहते हुए भी अविनश्वर निज चेतना को अपने निकट लाकर उसमें ही लीन होने का पुरुषार्थ करना है हमें बस!
सोना-चाँदी या अन्य पदार्थ अणु भर हो या बहुत अधिक सभी वस्तुओं का मूल्य होता है, किन्तु धन का अपने आप में क्या मूल्य ? कुछ भी नहीं। मूलभूत पदार्थ ही मूल्यवान होता है। धन कोई मूलभूत वस्तु नहीं है । उसका जीवन पराश्रित होता है दूसरों के लिए, कल्पना से निर्धारित । इतना अवश्य है कि धन से वस्तुओं का मूल्यांकन किया जा सकता है वह भी धनिकों की आवश्यकता पर आधारित है, कभी कम तो कभी ज्यादा तो कभी सामान्य।
धनिक और निर्धन दोनों ही वस्तु के सही-सही मूल्य को स्वप्न में भी नहीं समझ पाते हैं। कारण की धन-हीन प्रायः दीन-हीन बनता है और धनिक धन के मद में डूबा होता है। जब शिल्पी ने राशि स्वीकार नहीं की, तब सेवक ने धन के बदले धन्यवाद दिया और कुम्भ को हाथ में ले सेठ के घर की ओर चल दिया सेवक सानन्द!
सेठ ने ज्यों ही हाथ में कुम्भ लिए सेवक को देखा, त्यों ही उच्च आसन से उतरकर प्रसन्नचित्त हो सेवक के हाथ से कुम्भ, अपने हाथ में ले लिया तथा ताजे शीतल जल से उसे धोकर स्वच्छ किया। फिर बांये हाथ में कुम्भ ले दांये हाथ की अनामिका द्वारा मलयाचल के चंदन से स्वयं का प्रतीक स्वस्तिक लिखा। स्व (निज शुद्धात्मा) की उपलब्धि हो सबको, इसी भावना से । केसर मिश्रित चंदन की चार बिन्दियाँ स्वस्तिक की चारों पांखुरियों पर लगाता है, वह जो यह बताती है कि - चारों गतियों में कहीं भी सुख नहीं है अर्थात् गतियाँ सुख से शून्य हैं। स्वस्तिक के ऊपर चन्द्र बिन्दु सहित ओमकार लिखा गया जो योग (मन-वचन-काय) और उपयोग (आत्मा का परिणाम) की स्थिरता का साधन है। योगी साधक अपना ध्यान प्रायः इसी पर एकाग्र करते हैं।