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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • 16. अग्नि परीक्षा : अग्नि की

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    इधर नगर के महासेठ ने सपना देखा, जिसमें उसने दिगम्बर मुनिराज का अपने ही प्रांगण में माटी का कलश ले पड़गाहन किया। सुबह निद्रा से उठा उसने सपने को सराहा और परिवार को स्वप्न की बात बता दी, फिर हर्षित हो एक सेवक को कुम्भ लाने शिल्पी के पास भेजा। सेवक ने कुम्भकार को सेठ जी के स्वप्न की बात सुनाई। सेवक की बात सुन हर्षित हो शिल्पी बोल उठा -

     

    "दम साधक हुआ हमारा

    श्रम सार्थक हुआ हमारा

    और

    हम सार्थक हुए।" (पृ. 302)

    संयम की साधना, पुरुषार्थ सफल हुआ और हम भी सफल हुए। सेवक ने कुम्भ को अपने एक हाथ में उठाया और दूसरे हाथ में एक कंकर ले बजा बजाकर देखने लगा।

     

    इस क्रिया को देख कुम्भ आश्चर्य के स्वर में बोल पड़ा सेवक से-क्या अग्नि परीक्षा देने के बाद भी, परीक्षा लेना शेष है? पर की परीक्षा कर रहे हो अपनी परीक्षा करके देखो, बजा-बजाकर देखो तो सही कौन-सा स्वर निकलता कौवे का काँव-काँव या गधे का पंचम आलाप । परीक्षक बनने से पहले स्वयं का परीक्षा में पास होना अनिवार्य है अन्यथा योग्यता के अभाव में परीक्षक भी हँसी का पात्र बनेगा। इस पर सेवक शालीनता से कहता है-यह सत्य है कि तुमने अग्नि परीक्षा दी है किन्तु अग्नि ने तुम्हारी सही-सही परीक्षा ली है कि नहीं यह जानने हेतु तुम्हें निमित्त बनाकर अग्नि की ही अग्नि परीक्षा ले रहा हूँ।

     

    दूसरी बात यह भी है कि मैं एक स्वामी का सेवक ही नहीं किन्तु जीवन में काम आने वाली कुछ वस्तुओं का स्वामी तथा उपयोग करने वाला भी हूँ। मात्र धन की ओर दृष्टि जाने से वस्तुओं का सही-सही लेन-देन, व्यापार नहीं हो सकता है कारण ग्राहक की दृष्टि में, वस्तु का सही मूल्य उस वस्तु की उपयोगिता है। वह उपयोगिता ही भोक्ता पुरुष को कुछ समय के लिए सुख प्रदान करती है।

     

    210.jpg

     

    सो यह सेवक ग्राहक बनकर आया और वह कुम्भ को हाथ में ले सात बार बजाता है, सो प्रथम बार में ‘सा' शब्द उत्पन्न होता है फिर क्रमशः रे, गा, म, प, ध, नि शब्द नाश रहित स्वर के समान वीतराग परिणति का उद्घाटन करते उत्पन्न होते हैं कुल मिलाकर भाव यह निकला -

     

    "सा...रे ग... म यानी

    सभी प्रकार के दु:ख

    प...ध यानी पद-स्वभाव

    और

    नि यानी नहीं,

    दुःख आत्मा का स्वभाव-धर्म

    नहीं हो सकता । "(पृ. 305)

    संसार के सारे गम अर्थात् दुख अपनी आत्मा के स्वभाव नहीं हैं। मोहकर्म से प्रभावित आत्मा का स्वभाव से विपरीत परिणमन मात्र है।यह आत्मा अनंत सुख स्वभाव वाली है। असातावेदनीय आदि कर्मों से आत्मा (संसारी जीव) दुख प्राप्त करता है। सो पर निमित्त से उत्पन्न होने वाला परिणाम किसी अपेक्षा अर्थात् निश्चयनय से अपने से भिन्न पराये ही हैं। इन सप्त स्वरों का भाव समझना ही सही संगीत में लीन होना और सही जीवन साथी को प्राप्त करना है।



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