पात्र को दान देने का कार्य प्रारम्भ किया गया सो सर्वप्रथम कर-पात्र में प्रासुक जल देने हेतु कलश बढ़ाया गया, किन्तु पात्र ने अंजुलि बंद कर ली। फिर तुरन्त दूध से भरा स्वर्ण कलश आगे लाया गया फिर भी अंजुलि न खुली। तीसरे ने मधुर इक्षुरस से भरा रजत-कलश दिखाया, चौथे ने अनार के लाल रस से भरी स्फटिक की झारी दिखाई किन्तु अंजुलि न खुली तो विवश होकर स्फटिक झारी भी निराशा में डूब गई ।
अधिक देर होने से पात्र अन्तराय मानकर बैठ सकता है, बिना आहार-पान लिए वापस लौट सकता है। ऐसा भय परिवार के मुख पर छाने लगा कि मन ही मन भगवान् को याद करते हुए, धैर्य के साथ सेठजी ने माटी के कुम्भ को आगे बढ़ाया सो अतिथि की अंजुलि खुल पड़ी। जैसे-स्वाति नक्षत्र में जल की उज्ज्वल बूंद को देखते ही सागर की छाती पर तैरती सीप अपना मुख खोलती है।
चार-पाँच अंजुलि जलपान किया, फिर इक्षु रस का सेवन फिर जो कुछ भी मिलता गया, बिना किसी आकुलता के सहज भाव से चलता गया। वह भी बिना माँगे, बिना संकेत, जब चाहे मन चाहे नहीं और फिर जब भूख लगी हो तो कैसा भी भोजन हो रसदार या रूखा-सूखा सब समान लगता है। जैसे-एक बर्तन से दूसरे बर्तन में भोजन जाते समय बर्तन में कोई परिवर्तन नहीं होता, न ही कोई बर्तन रोता है और न ही कोई हँसता है यूँ ही साम्य यहाँ चल रहा है -
"धन्य ! धन्य है यह नर
और यह नर-तन
सब तनों में, ‘वर'-तन !" (पृ. 332)
सभी देह धारियों में श्रेष्ठ यह मनुष्य का तन ही है जिसके द्वारा इस प्रकार समता की साधना की जा सकती है। धन्य! धन्य है यह अतिथि और अतिथि का तन, श्रेष्ठ तन ! सभी तनों में वर-तन। श्रमणों की अनेक वृत्तियाँ हुआ करती हैं, जिनमें अध्यात्म की झलक देखने मिलती है, जो इन कानों से सुनी थी। जो आज पास, बहुत पास से देखने को मिली हैं, सो इस प्रकार है-कृषक बीज बोने के पूर्व खेत की भूमि को कूड़ा- कचरा आदि डालकर गड्डे को पूरा समतल बनाता है, उसी प्रकार पेट रूपी गड्ढे को भरना गर्त-पूरण-वृत्ति है समताधर्मीश्रमण की। गाय के सामने घास-फूस डाला जाय तो डालने वाले के आभरण-आभूषणों, अंग-उपांगों को वह नहीं देखती बस ऐसी ही आहार के समय प्रवृत्ति होना साधु की गोचरी-वृत्ति है।
घर में आग लगी हो तो खारा, मीठा, ठंडा, गरम जैसा मिले वैसा ही जल डालकर आग को बुझाया जाता है। उसी प्रकार पेट में भूख रूपी आग को बुझाते समय रसादि, ठंडे-गरम का विकल्प नहीं करना सब वृत्तियों में महावृत्ति अग्निशामक-वृत्ति है श्रमणों की । जैसे-भौंरा फूलों को बिना पीड़ा पहुँचाये उनका रस पीता है, उसी प्रकार दाता को कष्ट न हो अपितु दाता दान देकर प्रसन्नता से भर जाये, उसका अज्ञान अन्धकार मिट जाए ऐसी प्रवृत्ति सन्तों की भ्रामरीवृत्ति कहलाती है। इन वृत्तियों को देखने का परिणाम यह हुआ की पूरा का पूरा परिवार अपार आनंद से भर उठा।