जिस दूध में से पूरा का पूरा घी का अंश निकाल लिया गया है, ऐसे नीरस दूध के समान संवेदन शून्य हुआ सेठ घर की ओर जा रहा है। साथ में पढ़ने-लिखने वाले, खेलने-कूदने वाले सहपाठियों के बीच हार हो जाने से उत्पन्न होने वाली पीड़ा से कई गुनी अधिक पीड़ा का अनुभव सेठ को हो रहा है इस समय। डाल से मिलने वाले रस से छूटा, टूटकर धूल में गिरे फूल के समान, अपनेपन की दूरी का भाव साथ ले, थोड़े-बहुत साहस को बटोरकर अपने घर की ओर सेठ जा रहा है। माँ के वियोग में रुक-रुक कर सिसकते हुए शिशु की भाँति लंबी श्वांस लेता हुआ सेठ घर की ओर जा रहा है।
वसन्त ऋतु के समाप्त होने से शोभा रहित वन-उपवन के शरीर के समान सन्त संगति से दूर हुआ सेठ घर की ओर जा रहा है। मरुस्थलीय मरुभूमि में सागर से मिलने की आशा मात्र लिए बहती हुई पतली सी नदी के समान हुआ सेठ घर की ओर जा रहा है। पूर्व दिशा की गोद में उदित हुआ और अस्ताचल की ओर जाते प्रकाश पुंज प्रभाकर के समान, आगामी अन्धकार से भयभीत, सेठ घर की ओर जा रहा है।
कृष्ण पक्ष के चन्द्रमा के समान हीन, शान्त रस से रहित कविता के समान, पक्षियों की चहचहाहट से रहित प्रभात काल के समान, शीतल चन्द्र - किरणों से रहित रात्रि के समान और बिन्दी से रहित नारी के माथे के समान, सब कुछ सेठ जी को कोलाहल-उत्साह रहित लग रहा है इस तरह ढलान में ढुलकते- ढुलकते पत्थर की भाँति सेठ घर आ पहुँचता है।