सेठ के गौर वर्ण वाले दोनों हाथों के मध्य माटी का कुम्भ, सोने के आभूषण में जड़े नीलम-सा सुशोभित हो रहा है। इसी बीच कुम्भ और करों की वार्ता चलती है आपस में। एक दूसरे की प्रशंसा रूप में, सो कुम्भ ने करों से कहा- तुमने हमें ऊपर उठा बड़ा उपकार किया और इस शुभ कार्य में सहयोगी बनने का मुझे सौभाग्य मिला। इस पर तुरन्त करों ने भी कहा - यह तुम्हारी ही भक्ति- भावना का फल है, जो कुछ है वह तुम्हारा ही उपकार है। तुम्हारे बिना यह कार्य संभव ही नहीं था। हम तो ऊपर से निमित्त मात्र बने ! ऊपरी चर्चा को सुनता हुआ नीचे से पात्र का कर पात्र कहता है कि -
"पात्र के बिना कभी
पानी का जीवन टिक नहीं सकता,
और
पात्र के बिना कभी
प्राणी का जीवन टिक नहीं सकता
परन्तु
पात्र से पानी पीने वाला
उत्तम पात्र हो नहीं सकता,
पाणि-पात्र ही परमोत्तम माना है,
पात्र भी परिग्रह है ना ! (पृ. 335 )
बर्तन रूपी आधार के बिना पानी ठहर नहीं सकता और श्रमण आदि सत्पात्र यानी पात्र-दान के बिना संसारी प्राणियों, मनुष्यों का जीवन उज्ज्वल / उन्नत बन नहीं सकता। परन्तु इतना जरूर ध्यान रहे कि कटोरे-थाली आदि पात्रों में भोजन करने वाला, पानी पीने वाला कभी भी उत्तम पात्र हो नहीं सकता क्योंकि संतों ने पाणीपात्र (दोनों हाथों की हथेलियों को जोड़कर बनाया गया पात्र) को ही उत्तम से उत्तम माना है कारण अन्य पात्र भी परिग्रह ही है ना!
और दूसरी बात यह है कि अतिथि के बिना तिथियों में पूज्यता आ नहीं सकती, कारण अतिथि ही तो तिथियों को शुद्ध बनाने वाला, प्रसिद्ध करने वाला सम्पादक है। जैसे-आदिनाथ प्रभु को जिस दिन आहार मिला वह तिथि आज तक अक्षय तृतीया (आखा तीज) के रूप में प्रसिद्ध है, इस दिन सारे शुभ कार्य बिना मुहूर्त के भी सानन्द सम्पन्न किए जा सकते हैं। फिर भी अतिथि तिथियों के बन्धन में नहीं बंधता, इनके बंधन में बंधना भी चारों गतियों में भटकना ही है। कथंचित् यतियों, मुनियों द्वारा प्रतिपादित संयम, आगम की मर्यादा में बंधना ही, निज के रंग में रंगना-लीन होना है। इस प्रकार सत्पात्र की मीमांसा चलती रही।