मान-सम्मान और अपमान-निंदा में सदा समान बुद्धि रखने वाला हो। जिनके मन-वचन-काय की स्थिरता सुमेरु पर्वत' के समान अचल हो । अन्तःकरण गौ के समान छल-कपट से रहित, सहज वात्सल्य को धारण करने वाला हो। लौकिक ख्याति-पूजा-लाभ की चाह के बिना मात्र अपने शुद्ध-आत्म तत्त्व की खोज में लगा हो। दूसरों के दोषों को नहीं किन्तु सद्गुणों को ग्रहण करने वाला हो।
"प्रतिकूल शत्रुओं पर
कभी बरसते नहीं,
अनुकूल मित्रों पर
कभी हरसते नहीं,
और
ख्याति-कीर्ति-लाभ पर
कभी तरसते नहीं!" ( पृ. ३००-३०१)
विपरीत आचरण करने वाले - शत्रु के समान प्राणियों पर भी कभी क्रोध करते नहीं, अनुकूल आचरण करने वाले प्रशंसक मित्रों के समान जीवों पर कभी प्रसन्न होते नहीं अर्थात् सदा समता धारण करते हों और जीवन में कभी भी अपने यश की कामना ले पीड़ित नहीं होते हों। क्रूर नहीं किन्तु सिंह के समान भय से रहित, अयाचक-वृत्ति को धारण करने वाला हो। सूर्य के समान दूसरों का उपकार करने वाला हो किन्तु उपकार का बदला कभी चाहने वाला न हो।
निद्रा को जिन्होंने वश में किया हो, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की हो, सरोवर के समान हमेशा अच्छा उद्देश्य रखने वाला हो, सीमित मात्रा में भोजन करने वाला-अल्पाहारी हो, जिससे प्रमाद रहित आवश्यकों का पालन हो सके। हितकारी और थोड़े वचन बोलने वाला हो, चैतन्य रत्न की इच्छा रखने वाला हो, अपने दोषों को धोने हेतु आत्मनिन्दा, आलोचना करने वाला हो। दूसरों की निन्दा करना तो दूर, निन्दा सुनने के लिए भी जिनके कान बहरे जैसे हो जाते हों।
यशस्वी, तपस्वी, मनस्वी होकर भी मुख से अपनी प्रशंसा करने में गूंगे जैसे हो जाते हों। समुद्र नदी-तालाबों के किनारों पर जिनकी ठंड की रातें सहज कटती, पर्वतों पर कटते गर्मी के दिन तपते सूर्य की किरणों तले ऐसे महाव्रती श्रमण रूप अतिथि का लाभ हमें हो, ऐसी भावना भाई कुम्भ ने। “भावना भव नाशिनी'' सन्तों की यह सूक्ति सफल होनी थी, सो हुई और कुम्भ की भावना पूरी होने को है।