Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • 21. चर्चा : दाताओं के बीच की

       (0 reviews)

    इधर खेल-खेलती बालिकाओं द्वारा प्रांगण में सुन्दर चौक (रंगोली) पूरा गया। अतिथि के आगमन का समय निकट ही आ चुका है, सभी दाताओं के बीच इसी बात की चर्चा चल रही है। नगर के प्रतिमार्ग में आमने-सामने, अड़ोस- पड़ोस में अपने-अपने प्रांगण में दाताओं की दूर-दूर तक लाईन (पंक्तियाँ) लगी हैं। प्रति प्रांगण में दाता प्रायः अपनी धर्मपत्नि के साथ खड़ा है, सबकी भावना और प्रभु से प्रार्थना है कि अतिथि का आहार निर्विघ्न हो और वह हमारे यहाँ हो बस!

     

    सेठ भी पूजन कार्य से निवृत हो हाथ में माटी का कुम्भ ले प्रांगण में पड़गाहन हेतु खड़ा हो जाता है। शेष परिवार जन भी कोई चाँदी का कलश ले, कोई हाथ जोड़े, तांबे का कलश ले, पीतल का कलश ले, आमफल ले, सीताफल ले, रामफल ले, जामफल ले, कलश पर कलश ले, सिर पर कलश, हाथ में केला, कोई अकेला, खाली हाथ तो कोई थाली साथ ले इत्यादि अनेक प्रकार से विधियाँ बनाये पड़गाहन के लिए खड़े हैं। विशेष बात यह है कि सभी के मस्तक पात्र के प्रति नम्रीभूत हैं और बार-बार दूर-दूर तक देखते हुए अतिथि की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

     

    217.jpg

     

    प्रतीक्षा की घड़ी समाप्त हुई, लो सामने से आते हुए अतिथि का दर्शन हुआ कि दाताओं के मुख से जयकार की ध्वनि निकल पड़ी। अनियत विहार वालों की, नियमित विचार वालों की, शान्त मन वाले सन्तों की, गुणवन्तों की,  सौम्य-शांत छवि वालों की जय हो! जय हो! जय हो!

     

    पक्षपात से दूर रहने वालों की, तुरन्त जन्मे बालक के समान निर्विकार यति वीरों की, दया धर्म को धारण करने वालों की, समता-धन रखने वाले धनिकों की जय हो! जय हो! जय हो! भवसागर के तट स्वरूपों की, शिवनगरी के शिखरों की, सहनशील-धैर्यवानों की, कर्ममल को धोने के लिए जल के समान ऐसे मुनियों की जय हो! जय हो! जय हो!

     

    अतिथि का निकट ही आना हुआ तथा कई प्रांगण अतिथि पार कर चुका। कदम आगे ही बढ़ते जा रहे हैं कि पीछे छूटे प्रांगण के दाताओं के मुख का तेज-उत्साह नष्ट-सा हो गया जैसे सूरज ढलने पर कमल म्लान-मुखी हो जाता है। फिर भी पात्र पुनः लौटकर भी आ सकता है, इतनी आशा बस जगी है उसमें और फिर सूर्य (पात्र) कल भी तो आ सकता है, आता ही है। परन्तु पूर्व से पश्चिम की ओर गए सूर्य की भाँति, पात्र मुड़कर आना तो दूर पलटकर भी नहीं देखता है। बिजली की चमक की भाँति पात्र, शीघ्रता से दाताओं, विधि- द्रव्यों की पहचान कर लेता है, पता भी नहीं चलता।



    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...