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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • 25. भूख : तन और मन की

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    श्रमण का कायोत्सर्ग पूर्ण हुआ कि श्रावक द्वारा दिए गए उच्चासन पर दोनों एड़ियों में चार अंगुल तथा पंजों के बीच ग्यारह अंगुल का अंतर दे खड़ा हो जाता है अतिथि वह। खड़े होकर भोजन करने का ही मात्र नहीं अपितु एक ही बार भोजन करने का भी नियम है इनका । पात्र ने अपने दोनों हाथों को पात्र बना, दाता के सम्मुख-आगे बढ़ाया। श्रमण की यह भिक्षावृत्ति मन को मान-शिखर से नीचे लाने वाली अर्थात् मान कषाय को कम करने वाली है, यूँ कहती हुई लेखनी क्षुधा  यानी भूख की मीमांसा करती है -

     

    "भूख दो प्रकार की होती है

    एक तन की, एक मन की।

    तन की तनिक है, प्राकृतिक भी,

    मन की मन जाने

    कितना प्रमाण है उसका?

    वैकारिक जो रही,

    वह भूख ही क्या, भूत है भयंकर,

    जिसका सम्बन्ध भूतकाल से ही नहीं,

    अभूत से भी है !" (पृ. 328)

     

    शरीर की और मन की, इस तरह दो प्रकार की भूख देखी जाती है। जिसमें शरीर की भूख तो थोड़ी-सी होती है जो-स्वभाविक है, किन्तु मन की कितनी भूख है यह मन ही जान सकता है कारण की अपने ही विकारी भावों से उत्पन्न होने वाली जो रही। यह भूख ही भयानक भूत के समान कष्ट देने वाली है, तीन लोक की सम्पदा पाकर भी मिटती नहीं। मात्र अतीत काल से ही नहीं किन्तु भविष्य से भी इसका सम्बन्ध है। यही कारण है कि आज तक यह संसारी प्राणी स्व-तत्त्व को उपलब्ध कर सुखी नहीं हो पाया है।

     

    जहाँ तक इन्द्रियों की बात है तो बाहर से भले ही लगता है कि इन्द्रियाँ  विषयों को चाहती हैं किन्तु ऐसा है नहीं। कारण की इन्द्रियाँ जड़ हैं और जड़ का  उपादान भी संवेदन शून्य जड़ ही होता है। इतना अवश्य है कि इन्द्रियों के माध्यम से विषय रसिक भोक्ता पुरुष विषयों की चाह करता है। वस्तु स्थिति यह है कि -

     

    "इन्द्रियाँ ये खिड़कियाँ हैं

    तन यह भवन रहा है,

    भवन में बैठा-बैठा पुरुष

    भिन्न-भिन्न खिड़कियों से झाँकता है

    वासना की आँखों से

    और

    विषयों को ग्रहण करता रहता है। (पृ. 329)

     

    विषयों को ग्रहण करने की इच्छा रखने वाला चेतन-आत्मा, इस शरीर रूपी भवन में बैठा हुआ इन्द्रिय रूपी खिड़कियों से विषयों को ग्रहण करता रहता है। वास्तव में देखा जाय तो पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय को चाहती ही नहीं हैं और इन्द्रियों के विषय भी कभी यह नहीं कहते कि तुम हमें चखो, हमें छुओ,  हमें सूंघों, हमें देखो और हमें सुनो। क्योंकि मधुरादि रस, शीतादि स्पर्श, सुरभि आदि गंध, पीतादि वर्ण और सा रे ग म इत्यादि शुभ-अशुभ शब्द ये सब जड़  स्वभाव वाले, पुद्गल से उत्पन्न हैं।

     

    इससे यही निर्णय निकला कि मोहकर्म और असातावेदनीय के उदय में क्षुधा-तृषा की वेदना होती है। मात्र इतना जानना ही  पर्याप्त नहीं किन्तु साधुता के लिए पञ्चेन्द्रियों के इष्ट और अनिष्ट विषयों में समता परिणाम होना भी अनिवार्य है और यह समता भाव ही श्रमणों का श्रृंगार है।



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