Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    895

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. काल विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अनन्तकाल हो गया हमें कषाय मार्गणा में रहते हुए, अभी तक हम निष्कषाय नहीं हो पाये। यदि काल द्रव्य नहीं है तो घड़ी क्यों बाँधते हो। काल द्रव्य को विज्ञान ने समय के रूप में स्वीकारा है लेकिन निश्चय काल के बारे में विज्ञान मौन हो जाता है। कुछ लोग काल द्रव्य को नहीं मानते, लेकिन घड़ी हाथ में बाँधते हैं, यही तो काल द्रव्य को मानना हो गया। जीव और पुद्गल के माध्यम से काल की उत्पत्ति नहीं होती बल्कि काल की पहचान होती है। जो काल परिणाम, क्रिया, परत्व (निकट) अपरत्व (दूर) लक्षण वाला है, वह व्यवहार काल कहलाता है और जो वर्तना लक्षण वाला है, वह निश्चय काल कहलाता है। धर्म के क्षेत्र में काल पर आधारित रहकर चलना ठीक नहीं है, वरन् हम अपने आपको निर्दोषी मानने लगेंगे। आज दु:खमा काल में सुख नहीं मिल सकता, सुख प्राप्ति की भूमिका बन सकती है। अतीत के कथन करते समय वर्तमान की अनुभूति छूट जाती है। आस्था को मजबूत करने के लिए यह दु:खमा काल वरदान सिद्ध होता है। आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कहा करते थे कि यह कौन-सा काल है पंचमकाल, इसका नाम दु:खमा काल है तो सुख नहीं दु:ख ही मिलेगा ऐसा श्रद्धान रखो। जिस काल में कर्म को बीमारी आ जाती है, वह समाधिकाल, स्वकाल है, इसलिए काल को हेय कहा है। जीव और पुद्गल के अभाव में काल को पहचाना ही नहीं जा सकता है। स्थान से स्थानांतर जाने रूप क्रिया कालाणु में नहीं होती। कब, तब ये काल के संकेत करने वाले शब्द हैं। कार्य काल के द्वारा नहीं होता काल में भी नहीं होता बल्कि काल का सहयोग लेकर होता है, उसके अस्तित्व में होता है, लेकिन परिणमन कार्य में ही होता है, काल में नहीं। आगम ग्रन्थों में कर्म चेतना, कर्मफल चेतना और ज्ञान चेतना का वर्णन तो मिलता है, लेकिन काल चेतना का वर्णन नहीं मिलता, इससे सिद्ध होता है काल कर्ता नहीं हो सकता, वह तो मात्र परिणमन में सहयोगी होता है। काल द्रव्य के बिना शेष पाँच द्रव्य अस्तिकाय होते हैं। संसार में अशांति का कारण पर का कर्ता बनना है। आपकी क्रियाएँ आपकी रुचि को बता देती है। जितना परिग्रह कम रहेगा उतना ही कर्तृत्वपन से दूर होगा।
  2. कार्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार धैर्य से कार्य करने से कार्य निर्विघ्न सानंद सम्पन्न हो जाते हैं। कार्य-कर्ताओं को इधर-उधर देखे बिना नीचे निगाह किए हुए कार्य करते रहना चाहिए। अंधे को जब संगीत में निष्णात देखते हैं तो मालूम होता है कि लगन से ही कार्य सिद्धि होती है। समयोचित कार्य करना ही कार्य कुशलता मानी जाती है और आगामी भव सम्बन्धी जो पुरुषार्थ प्रबन्ध कर रहा है, वह कार्य कुशल माना जाता है। जैसे जो किसान बीज को अगली फसल के लिए रखता है, वही कुशल किसान माना जाता है। करने योग्य ही कार्य करो, न करने योग्य कार्य मत करो। ज्ञानी ऐसी युक्ति से कार्य करता है कि जिससे कर्म निर्जरा अधिक और कर्मबंध कम हो।
  3. उत्तम दृष्टि की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम हमें रूढ़िवाद का विमोचन करना पड़ेगा। रूढ़िवाद आते ही विचारों की श्रृंखला को ठेस पहुँचती है, और हित अहित का विचार भी नहीं हो पाता है, तथा जीवन के विकास के लिए जो दृष्टि होती है उसे भी विश्राम दे देते हैं। एक ही संसार होता और उसे समाप्त करने के लिए सब इकट्ठे हो जाते तो भी ठीक था, पर अनन्त जीव हैं और अनन्त संसार है। रूढ़िवाद एक ऐसा विष, जहर है जो मोक्ष मार्ग रूपी अमृत में भी विष फैला देता है। बहुत सारे दूध के लिए थोड़ा नमक ही काफी है और दूध फट जाएगा। उसी प्रकार मोक्ष मार्ग महान् पवित्र चीज है, उसके लिए उसी प्रकार का पात्र चाहिए। जिस प्रकार सिंहनी का दूध स्वर्ण पात्र में ही ठहरता है, उसी प्रकार बाहरी बातों से रहित होने पर ही सम्यक दर्शन टिक सकता है। अपने में जो कमी है, उसे निकालने के लिए प्ररूपणा है। स्वतन्त्र विचार और आचरण होना चाहिए। अपने में जो दोष है, जो बाधक है, उन्हें निकालना है। हमारे कपड़े मैले हो जाने पर हमारे कपड़े ही धोने पड़ेंगे दूसरे के नहीं। जितने-जितने भी क्रिया अनुष्ठान कर रहे हैं, पर अगर अंतरंगभाव, उपादान कारणों में उनसे निर्मलता नहीं आती तो सब बेकार है। आचार्यों ने तीन मूढ़ता बताई हैं उसमें सबसे पहले देव मूढ़ता है। रागद्वेष जिसके निकल चुके हैं वही, चाहे शंकर, विष्णु, ब्रह्मा कोई भी हो पूज्य है, देवता है, बाकी को देवता मानना मूढ़ता है। वीतरागी देवों के आदर्श को देखकर अपने मुख को स्वच्छ कर सकते हैं। भगवान् की इस मूर्ति को भी अपने विचारों में अपने आचरणों के द्वारा कुदेव बना लेते हैं। भगवान् तो कुदेव नहीं है, पर बना लेते हैं। भगवान् में जो देखना चाहिए वह रूप हमें देखने में नहीं आता तो कुदेव हैं। वीतराग मूर्ति को देखकर वीतराग भाव न आवे और हमारी दृष्टि यदि विषय वासना की ओर हो तो वह मूर्ति कुदेव है। भगवान् के समवसरण में जाकर भी जीवों में कुछ अन्य विचार हो जाता है, मंद-मंद पवन को देखकर बाहर ही रुक जावें और अन्दर न जाकर इधरउधर की बातें कर विषयों में फैंस जाते हैं। विषयों के विचार चालू हो जाते हैं तो उसके लिए भगवान् के दरवाजे बन्द हो जाते हैं और वह मूर्ख ही होगा। वीतराग भगवान् के पास जाने पर भी खाना, पीना, विषयों, वित्त वैभव की कल्पना उठने पर मूर्ति भी उसी रूप नजर आएगी। उसका शरीर, छत्र, चंवर, सिंहासन ही दिखेगा। वीतरागता नहीं दिखेगी। विषय अनर्पित है और वीतरागता अर्पित है। कहा भी है - दीवार है अमित औ अवरूद्ध द्वार। क्यों ही प्रवेश निज में जब हैं विकार ॥ कैसे सुने जबकि अन्दर मुक्ति नार। जो आप बाहर खड़े, करते पुकार ॥ आप लोगों ने विकार उपस्थित कर अन्दर प्रवेश के लिए द्वार को अवरुद्ध कर दिया। सबको छोड़कर अन्दर प्रवेश करना होगा। अन्दर से अन्दर भिन्न-भिन्न चित्र मिलेंगे और महावीर भगवान् जहाँ विराजमान हैं, वहाँ भी प्रवेश हो जायेगा। मिथ्या दृष्टि भी वहाँ जाता है, उसकी दृष्टि महावीर पर नहीं, छत्र, भामंडल आदि पर जाएगी, वह व्यक्ति अन्तिम लक्ष्य से वंचित रह जायेगा। वो मुद्रा जब तक आँखों में नहीं उतरती, तब तक विचार ही नहीं कि क्या सम्यक दर्शन, क्या मुक्ति, क्या संसार, क्या विकार है ? घर में जो धन था, वह यहाँ पर भी है, पर धन तो बेड़ी है चाहे बेड़ी सोने की हो, चाहे लोहे की। बंधन तो बंधन ही है। सोने की बेड़ी की कदर महावीर के दरबार में नहीं, सोने के बाजार में है। जिस चीज से इन्द्रियाँ पुष्ट हो जायें, उसे देखने महावीर के पास आएगा, तो महावीर को आप नहीं पहचानेंगे। बल्कि तोलेंगे कि उनके पास वित्त वैभव है, पर मेरे पास नहीं है, इसलिए बड़े हैं। महावीर तो इन चीजों से अनोखी चीज हैं। इनमें नहीं, इनसे परे हैं। उनकी उपासना करते हैं, तब वह देव सत् देव कहलाते हैं। धर्म की ओट में हम फिर संसार वृद्धि के कारणों का समादर करने लग जाये तो मूढ़ता ही है। सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्र की एकता के धारक वीतराग महावीर भगवान् हैं। इन बाहरी चीजों से अलग हैं, बाहरी पदार्थों को उन्होंने लात मारी थी। दुनियाँ जिसे अपनाती, उसे देखते भी नहीं, परे रहते हैं, ऐसा विचार करने पर हमारी पुकार वहाँ तक पहुँचेगी। वरना आवाज दीवारों से टकराकर हमारे कानों तक लौट आएगी। सद्भाव के अभाव में हमारे विचार वहाँ तक नहीं पहुँच सकते। महावीर के मन में जो विचार आया उसे करने के लिए दूसरे को स्वीकृति नहीं दी, स्वयं ने किया, इसलिए उन्हें स्वयंभू कहते हैं। जब हम सम्यक दर्शन तक चले जाते हैं, तब भी हमें स्वयंभू बनना चाहिए। जो स्वयंभू हैं, उनके रास्ते को अपनाना चाहिए। उस रूप जो विश्वास है, वह सम्यक दर्शन की ओर बढ़ता चला जाता है। पर हमारी दशा वही है, जो पहले थी। हमारी चाल टेढ़ी है। हमें यह सोचना चाहिए कि वह कार्य न करें जिससे संक्लेश हो जाये, वह कार्य बाधक बन जाये, वह कार्य तो हितू बनना चाहिए। हम अनादि से अपनाते-अपनाते चले आ रहे हैं, पर दुर्लभतम वस्तु को खोते आ रहे हैं। मूढ़ताओं के द्वारा दृष्टि समीचीन नहीं बनती, कमियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। एक को रोता देखकर सब रोने नहीं लगे। विचार करके काम करो, रूढ़िवाद को छोड़ो। इनके पीछे पड़कर आत्मा ने मोक्ष मार्ग की कीमत नहीं आंकी। संसार, व्रत, नियम आदि के बारे में नहीं सोचा। अत: विचार सुदृढ़ बनाओ, विश्वास ठीक जमाओ। ज्ञान तो वर्तमान है, उसे समीचीन बनाने के लिए आगम में जो उल्लेख है, उसी अनुरूप बनें। मूढ़ताओं से दूर रहकर जीवन को विकास की ओर ले जायें, तभी मंजिल आएगी। ऐसा न करने पर जीवन अपूर्ण से पूर्ण न बनेगा और संसार का अन्त न होगा। अत: शक्ति जो महावीर में है, वह शक्ति विद्यमान करो, गल्तियों को सुधारो। २-३ दिन के उपरांत भगवान् महावीर का तप कल्याणक दिवस आ रहा है, उसमें यह प्रयास हो कि मूढ़ताओं, रूढ़िवादों को छोड़, विचारों को साकार बनाकर, महावीर जिस ओर गये, उधर ही जायें। वरना तो अनेकों कल्याण तिथियाँ आएंगी, आ रहीं हैं और चली जा रहीं हैं। अत: भूले व्यक्ति को सजग हो जाना चाहिए।
  4. काम विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार काम कभी भी पीड़ा का हनन नहीं करता, बल्कि वह पीड़ा को और बढ़ा देता है, इसलिए जो पीड़ा देता है, उसे हम तप के द्वारा नष्ट कर सकते हैं। काम की पीड़ा को जीव सहन कर लेता है, लेकिन तप से जो पीड़ा होती है, उससे भय खाता है। जो तप के माध्यम से काम वासना का दहन कर देता है, उसे समाप्त कर देता है, वह विवेकी माना जाता है। काम का दहन नि:संग अवस्था में ही संभव है, क्योंकि वस्त्र की ओट में तो काम जीता रहता है। काम ने तीन लोक को वश में कर लिया है और जो उस काम को जीत लेता है, वह महान् योद्धा है। काम रूपी अग्नि को सम्यकज्ञान रूपी अमृत की एक बूंद समाप्त कर देती है। गर्मी की अपेक्षा सर्दी में जलाने की क्षमता अधिक होती है। कमल वन लू से नहीं जलता बल्कि सर्दी में तुषार से जल जाता है, वैसे ही क्रोध से नहीं बल्कि काम के वेग से सब कुछ जल जाता है।
  5. महावीर के तीर्थ क्षेत्र में आज जो हम पाठ ले रहे हैं, उसका श्रेय महाराज कुन्दकुन्द को है। महावीर ने जो दिग्दर्शन किया उसे सुरक्षित रखने तथा दिगम्बरत्व की रक्षा करने का श्रेय भगवान कुन्दकुन्द को है। मैंने उन्हीं की प्रेरणा से श्रमण शतक प्रारम्भ किया। मेरा अनुमान नहीं था कि मैं सफल हो जाऊँगा, क्योंकि मैंने छन्द काव्य अलंकार को नहीं पढ़ा था, सिर्फ जयोदय महाकाव्य को देखकर तथा प्रेरणा पाकर साढ़े तीन माह में पूर्ण किया। कुछ लोगों का आग्रह हुआ कि इनका हिन्दी पद्यानुवाद भी हो ताकि सब को समझ में आ सके। उसे मैंने यहाँ पूरा किया। पंचमकाल में ध्यान की मात्रा कम बन पाती है। अत: मुनिराज विषयों से दूर रहकर अपना समय अध्ययन लेखन में पूर्ण कर सकते हैं। स्वाध्याय से कर्मों की निर्जरा तथा श्रमण संस्कृति की रक्षा हो सकती है। चारित्र तो होना ही चाहिए, पर उसके साथ ज्ञान भी हो। निर्जरा के लिए स्वाध्याय, उससे ज्यादा निर्जरा के लिए अध्यापन बताया। लेख लिखने से भी मन केंद्रित हो सकता है, इससे भी असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा होगी। और जीवन सुन्दरतम बनता चला जाएगा। गुरु शिष्य पर उपकार करता है, पर शिष्य भी गुरु के अनुरूप चलकर गुरु पर उपकार कर सकता है। यह ग्रन्थ पूर्ण करने में स्वाध्याय का फल व गुरु की कृपा ही मानता हूँ। जीवन में इधर उधर की बातों में न लगकर साहित्य सृजन कर श्रमण संस्कृति की रक्षा कर सके तो आने वाली पीढ़ी याद रखेगी और अध्ययन कर सकेगी। मैं सरस्वती से यही प्रार्थना करता हूँ कि अन्तिम समय तक उसकी सेवा करते हुए अपना जीवनयापन करूं ।
  6. कषाय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार कषाय और इन्द्रियों को वश में करो, कायक्लेश तप के द्वारा शरीर का शोषण करना चाहिए। बहुत समय तक घोर से घोर तप मत करो, लेकिन कषाय तो मत करो। दुनियाँ की चीजों में स्पर्धा न करके कषाय को जीतने की स्पर्धा करो, फिर मुक्ति तुमसे दूर नहीं। अपनी शक्ति का उपयोग कषाय को जीतने में ही करना चाहिए। ज्ञानी, विवेकी वही है, जो कषाय का शमन करता है। कषाय करने से कषाय की फौज (सेना) और बढ़ती जाती है। जैसे युद्ध में रावण का एक सिर कटता है तो दस सिर और पैदा हो जाते हैं। कषायों का शमन करना बच्चों का खेल नहीं बन सकता, इसलिए इस मार्ग पर चलना चाहते हो तो कषाय को जीतो, परिग्रह का त्याग करो। कषाय की प्रचुरता के कारण ही यह जीव निगोद से नहीं निकल पाता। ईष्र्या, स्पर्धा आदि कषाय के ही अंश हैं, ये मान कषाय को ठेस पहुँचाते हैं। कषायों का आवेग आत्मा को अंधा बना देता है। क्रोधादि चारों कषायों का एक साथ उदय नहीं हो सकता, वरन् संसार में हंगामा मच जायेगा। कषाय आपके पास हैं तो आप कसाई हैं, फिर कोई आपसे कसाई कहता है तो आप आगबबूला क्यों होते हो ? क्रोध, मान, माया, लोभ हमारा स्वभाव नहीं है, जिन्हें ऐसा श्रद्धान हो जाता है, इनकी ओर अपना उपयोग नहीं ले जाता। कषाय से बचना चाहते हो तो सबसे अच्छा सूत्र है, दूसरे के बारे में मत सोचो, अपने बारे में चिंतन करो, दूसरे के बारे में सोचो तो उसकी अच्छाई के बारे में सोचो। कषाय के वशीभूत होकर धर्मात्मा को नीचा दिखाने का अर्थ है, अपने धर्म को ही अपमानित करना । हमारी कषाय शरीरादि नो कर्म को देखकर उद्वेलित हो जाती है। अंदर कर्मों का बारूद भरा है जो नो कर्म रूपी आग का सम्पर्क पाकर फूट पड़ता है। कषाय का सहारा लेने वाला ज्ञान खतरनाक है, वह संसार का कारण बनता है। अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय में आते ही सम्यकदर्शन और सम्यकचारित्र दोनों नष्ट हो जाते हैं। मद, अभिमान मान कषाय की उदीरणा के बिना नहीं हो सकता। हम कषायों के माध्यम से ऊर्जा को विपरीत दिशा में ले जाते हैं तो हमारा विकास पतन को प्राप्त हो जाता है। कषायों का वमन (त्याग) करते ही मन शांत हो जाता है, मन में हल्कापन आ जाता है। जो कषाय वश मोक्षमार्ग को दूषित करता है, कषाय की प्रचुरता रखता है, वह निगोद में जाता है। कषाय करने वाला स्वयं दु:खित है, क्योंकि प्रतिकार के भाव हुए हैं, लेकिन जिसे असाता का उदय है वह समता से सह लेता है तो वह दु:खी नहीं है। कषाय करने वाला उस मुर्गे के समान है, जो दर्पण में अपने बिम्ब से ही लड़ता है। कषाय रखना फटाके की दुकान के समान है। आग्रह रूपी अग्नि का संयोग मिलते ही दुकान तक जलकर समाप्त हो जाती है। प्रतिकार में भाव करना कषाय की मौजूदगी बताते हैं। यदि कषायें शांत हैं तो अपने घर में आ सकते हो वरन् नहीं। कषाय स्वयं अपनी आत्मा को कसती है। कषाय को शमन करने की स्पर्धा करो। जिस स्पर्धा से कषाय उत्पन्न हो, ऐसी स्पर्धा छोड़ दो |
  7. सम्यक दर्शन के साथ तीन मूढ़ताओं का विलोप होना चाहिए। मूढ़ता उसे कहते हैं, जो मात्र सामने वाले दृश्य को देखकर बहे। सरल भाषा में हाँ में हाँ मिलाना ही मूढ़ता है। मूढ़ता तीन प्रकार से बताई है, उसमें लोक मूढ़ता प्रसिद्ध है। कोई पदार्थ खरीदते समय पहले ज्ञान प्राप्त करते हैं, तब खरीदते हैं। हमारा अभीष्ट सुख है, उसके मार्ग के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। ज्ञान की आवश्यकता ही नहीं समीचीन ज्ञान की आवश्यकता है। ज्ञान तो सभी के पास है, पर समीचीन ज्ञान की जरूरत है, वह ज्ञान बाहर से नहीं आता है। जो ज्ञान के साथ मल अनादिकाल से चिपका हुआ है उसे हटाने से ही ज्ञान समीचीन होता है। ज्ञान-ज्ञान कहने मात्र से ज्ञान समीचीन नहीं होता। ज्ञान आत्मा का भंडार है, गुण है, वह मटमैला हो रहा है, उसे माँजना है। ज्ञान की उपासना नहीं वीतराग विज्ञानता की उपासना करनी है। ज्ञान आत्मा को सुख भी देता है, किन्तु वह इधर-उधर भागे नहीं, लुढ़के नहीं, इसके लिए उसे समीचीन बनाना है। ज्ञान दर्शन जो स्वभाव है, वह विभाव को लेकर है। अत: उन्हें समीचीन बनाने के लिए चारित्र बताया है। ज्ञान दर्शन को समीचीन बनाने के लिए जो उपक्रम है, उसे चारित्र कहते हैं। समझने की बात है। ज्ञान जब तक चारित्र द्वारा मंजता नहीं, तब तक दर्शन व ज्ञान में समीचीनता आती नहीं। दर्शन व ज्ञान में जो मल चिपका है, वह चारित्र के द्वारा दूर होता है। चारित्र को जब हम धारण करेंगे, तब ज्ञान दर्शन ठीक-ठीक काम करेंगे और तभी सुख शांति का अनुभव होगा। आकुलता का अभाव ही चारित्र है। जिस दर्शन-ज्ञान के साथ आकुलता है, वह वास्तविक दर्शन-ज्ञान नहीं। उसमें कमियाँ हैं। सिर्फ शाब्दिक ज्ञान को ही न लेकर शोध की बड़ी आवश्यकता है। आचार्यों ने बहुत गूढ़ अर्थ को लेकर वर्णन किया है। शब्द तो सीमित है। आचार्यों के अन्तस्थल तक पहुँचने के लिए शब्दार्थ, नयार्थ, आगमार्थ, मतार्थ, भावार्थ आदि को समझने की जरूरत है। राग, कषाय चारित्र मोहनीय की प्रकृति है, फिर भी विपरीत अभिनिवेष हो जाता है। रागद्वेष तो समता के, चारित्र के अभाव में होता है। चारित्र के अभाव में अनन्तानुबन्धी आ जाएगी और आपका परिश्रम निष्फल हो जायेगा। अत: दर्शन ज्ञान को समीचीन बनाने के लिए चारित्र की आवश्यकता है। चारित्र शारीरिक चेष्टा का नाम नहीं है बल्कि दर्शन ज्ञान को मांजने के लिए जो आत्मिक विधि विधान है, उसका नाम चारित्र है। ऐसा होने पर मल धुल जाएगा, स्वच्छ प्रकाश हो जायेगा। ज्ञान आज तक सामान्य ज्ञान ही रहा, पर वीतराग-विज्ञान नहीं हुआ। ज्ञान के साथ सुख नहीं, वीतराग विज्ञान के साथ सुख है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र को मोक्ष मार्ग नहीं कहा, बल्कि उसके पहले सम्यक्र शब्द रखा है। सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक्र चारित्र तीनों का जो वास्तविक मिश्रण है, उसका नाम मोक्ष मार्ग है। मात्र राम-राम कहने से, हाँ में हाँ मिलाने से भगवान् दिखते नहीं हैं। शब्दों में श्रोत नहीं है। समीचीन रूप जो अपनी शुद्ध पर्यायों को प्राप्त करता है, ग्रहण करता है, व्याप्त करता है, उसे समय कहा है। ज्ञान तो सभी के पास है पर समीचीन ज्ञान से ही सुख की प्राप्ति होगी। ज्ञान के ऊपर जो रागद्वेष है, वो चारित्र मोहनीय के द्वारा ही है, उन्हें हटाने पर ही समीचीन ज्ञान है। ज्ञान को मांजो तो वह सुखदायक हो सकता है। आजकल का ज्ञान मात्र शाब्दिक है, डिग्री लेने का है। शब्दों को न लेकर उसके अन्त:करण तक पहुँचने की चेष्टा करो। ज्ञान वह जो उस रूप बनने की चेष्टा हो, वरना तो वह शाब्दिक ज्ञान है। एक वाक्य में जहाँ दो क्रियायें हैं, वहाँ बहुत समझने की जरूरत है। आस्रवों को अशुचिरूप, दुखरूप जानकर उन आस्रवों बंधों को तत्काल जो छोड़ देता है और निवृत्ति को अपना लेता है। निवृत्ति का मतलब ही चारित्र है। ज्ञान समय अर्थ समय में तल्लीनता, तद्रूप परिणमन, वीतराग विज्ञान से ही आनन्द की अनुभूति हो रही है। मात्र शब्द ज्ञान हो गया तो मात्र परिग्रही बन गये। प्ररूपणा अलग चीज है, अनुभूति अलग चीज है। प्ररूपणा द्रव्यश्रुत है और अनुभूति भावश्रुत है। द्रव्यश्रुत चम्मच के माफिक और भावश्रुत जिह्वा के माफिक है। द्रव्यश्रुत पौदूलिक है, उसकी अनेक बार प्ररूपणा हो चुकी है। वर्गणाएँ लोकाकाश में बहुत हैं। भावश्रुत वीतराग विज्ञान रूप है। अनन्तानुबन्धी सम्यक्त्व को मिटा देती है, विपरीत अभिनिवेष वह जो सम्यक्त्व से डिगादे। विषय वासना गृद्धता को लेकर होगी। विषयों में जब अतिगृद्धता है तब तीन काल में भी सम्यक्र दृष्टि वह नहीं हो सकता है। हरेक मोक्ष मार्गी बन सकता है, टटोल सकता है, पर विषयों में रचपच जाना नहीं। कमाना-कमाना खाना-खाना नहीं। यह तो जानते हैं कि जड़ अलग है आत्मा अलग है पर आत्मा की वास्तविकता विचारे कि इन सबसे ऊपर मेरा उपयोग स्वभाव है। जब तक आत्मा का वास्तविक रसास्वादन नहीं। शुभ अशुभ संसार परिभ्रमण के लिए कारण है। अनादिकाल से टेढ़ी चाल हो रही है। इस देह के निर्माण के लिए, इसकी सुरक्षा के लिए क्या-क्या अनर्थ नहीं किया। आत्मा पर कितना मल ला ला कर रखा, शरीर के कार्यों में फंसकर आत्मा का कितना अहित किया। अपने को रागद्वेष से दूर कर बंधन से मुक्ति चाहते हो तो आत्मा को शुद्ध बनाओ। आत्मा के पास अशुद्धि आती है प्रथम तो मिथ्या दर्शन से, कषाय से। जहाँ मिथ्यात्व है, वहाँ कषाय अवश्य है और तभी आत्मा के पास कर्म चिपकते हैं, तभी संसार परिभ्रमण है। कर्म प्रवाह रागद्वेष के कारण से है। सम्यक दर्शन का विरोधक जो अनन्तानुबन्धी है, उसे समाप्त करो, तभी प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य आदि आ जाते हैं। प्रशमभाव का मतलब ही अनंतानुबंधी का अभाव है। सार वही जो समयसार है। धन तो असार है। मोक्ष सुख को चाहते हो तो इस धन की जरूरत नहीं। अर्थ के पीछे पड़ने से अनर्थ होगा, परमार्थ रुक जाएगा और दुख का अनुभव होगा। सम्यक दृष्टि संसार, शरीर, भोग से निर्भिन्न होता है। निर्भिन्न का मतलब अनासति है। संसार मार्ग से दूर रहना चाहते हो तो दर्शन ज्ञान को सम्यक्त्वाचरण चारित्र से, संयमाचरण चारित्र से युक्त करो। सबसे पहले ज्ञान नहीं, सबसे पहले दीक्षा, फिर शिक्षा, गणपोषण और अन्त में आत्म संस्कार है। मोक्ष मार्ग की शिक्षा चाहते हो तो पहले संयमाचरण, सम्यक्त्वाचरण चारित्र की दीक्षा ली तब शिक्षा मिलेगी। आज तक जो अनर्थ हुआ, वह अपने साथ ही हुआ। शब्दों के पीछे नहीं पड़ना है, उसका अर्थ समझना है, मन के माफिक अर्थ नहीं निकालना है। जो भव्य है, वह तो परीक्षा करके, ढूँढ़कर असली माल लेगा, बजा-बजा कर लेगा। जब मटकी या नारियल बजा-बजा कर लेते हैं तो मोक्ष मार्ग भी बजा-बजा कर लेना। टटोली, परीक्षा करो, फिर लेओ। आज तक दूसरों को टटोला, खुद को नहीं। स्वाध्याय किया उसे पुष्ट करने हेतु स्वयं के लिए ही उपदेश होता है। अत: स्वल्प जीवन को स्वल्प काल में ही उपयोगी बनाने की चेष्टा करो।
  8. करुणा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार औरों की पीड़ा अपनी करुणा की परीक्षा लेती है। अपनी आत्मा पर करुणा करने लगोगे तो दूसरों पर करुणा होने ही लगेगी। करुणा के माध्यम से ही हम अपनी आत्मा की ओर आ सकते हैं। पापों से भीति होने का नाम ही तो स्वयं पर करुणा है। जो जीवों पर करुणा नहीं कर सकता, वह व्रतों का पालन नहीं कर सकता। करुणा का होना अलग है और दु:खित होना अलग है। करुणा और अनुकम्पा से तो सातावेदनीय कर्म का बंध होता है। एक करुणादान नाम का दान होता है, उससे विधि नहीं देखी जाती, भूखे की भूख शांत की जाती है। धर्म के अनुरूप ही करुणा का स्रोत झरने लगता है। जब गुणीजनों को देखकर प्रमोद भाव हो जावे, दुखियों को देखकर करुणाभाव आ जावे, सभी के अस्तित्व पर विश्वास हो जावे तो समझना सम्यकदर्शन की प्राप्ति हो गई। दूसरे के दु:ख को महसूस करने का अर्थ है अपनी आत्मा में पीड़ा का अनुभव होना और करुणावश दूसरे के दु:ख को दूर करने का प्रयत्न करना। करुणा के धनी तो प्रभु हैं, लेकिन हम वस्तु तत्व को समझते हैं तो दया, करुणा क्या है ? यह समझ में आ जाता है। दूसरे के दु:ख को देखकर आँखों में पानी आना करुणा की निशानी है। महिला, पशु और नादान पर विशेष करुणा, कृपा होनी चाहिए। अनुकम्पा से द्रवित जीव ही दुख में पड़े जीवों की सहायता कर सकता है और सम्यकद्रष्टि जीव में यह भाव उत्पन्न होना सहज ही है। अपने बच्चों एवं परिवारजनों का पालन-पोषण मोह के कारण होता है, लेकिन अन्य पशुपक्षियों के साथ करुणा का भाव धर्म का भाव माना जाता है। आज पश्चिमी सभ्यता में कारण हम दया करुणा के भाव भूलते ही चले जा रहे हैं, हमें पुन: भारतीय संस्कृति की ओर लौटना होगा। जब दया, करुणा हमें प्राणों से भी प्रिय हो जायेगी तब समझना हमारे जीवन में धर्म का अवतरण हो गया। दया, करुणा को कर्तव्य समझकर करना चाहिए, तभी धर्म की संज्ञा प्राप्त होगी।
  9. आज आप लोगों के लिए बहुत ही महत्व की कुछ बातें कहनी थीं, लेकिन समय का थोड़ा अभाव रहा। समय का अभाव तो नहीं है किन्तु आप लोगों में धर्म के उत्साह का अभाव है। मैं अपनी बात को बहुत ही संक्षेप में रखने की चेष्टा करूंगा। आप लोगों ने भगवान् महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के अन्तर्गत जिस उत्साह के साथ कदम बढ़ाया है, वह सराहनीय है। उनके संदेशों को जीवन में उतार कर आगे बढ़ना है। दीपावली के दिन ही महावीर ने अपना वास्तविक दिग्दर्शन किया था। महावीर उपाधि का विमोचन किया था, इसलिए निर्वाण कहते हैं और जयंती इसलिए कि इस दिन सिद्ध बने और सिद्ध बने रहेंगे, उस सिद्धत्व अवस्था में कभी विकार नहीं जाएगा। उसी दिन उन्होंने ही वास्तविक जन्म लिया है। हमारा तो वास्तविक जन्म हुआ ही नहीं। जिस जन्म के साथ मरण होता है, वह वास्तविक जन्म नहीं है। आप लोगों के लिए वह निर्वाण दिवस हो सकता है, पर उनके लिए जन्म दिवस है। आज भी महावीर भगवान् आगम चक्षु के द्वारा वास्तविक दर्शन दे रहे हैं। उनके दर्शन सेठ, साहूकार, राजा, महाराजा, चक्रवर्ती, इन्द्रधरणेन्द्र को नहीं हो सकते, बल्कि जो अपने वास्तविक स्वरूप में है, उनको दर्शन होते हैं। मुझे तो अपने सामने भगवान् महावीर दिख रहे हैं। उन्हें संसार से मुक्ति मिल गई। महावीर का जीव जो था, वह तुम्हारे से ओझल हो गया। शरीर पुद्गल है। पुद्गल का जन्म कोई जन्म नहीं। जीव का जन्म अनादि से हुआ ही नहीं। जीव का रहना आयुकर्म के बिना नहीं हो सकता, आयुकर्म से छुटकारा ही जीव का बंधन से छुटकारा है। अनादिकाल से हमारा मरण ही हो रहा है क्योंकि अनादिकाल से जीव के साथ आयु का सम्बन्ध चल रहा है। कहा भी है - तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान, रागादि प्रगट जे दुख देन, तिनही को सेवत गिनत चैन। महावीर तो जिन हो गये, पर आप जैन होकर उनके उपासक होकर भी दुख का अनुभव कर रहे हैं। शरीर का जन्म हो रहा है, मिट रहा है, लेकिन जीव के जन्म होने पर आत्मा का स्वरूप जो अनन्त शक्ति का भंडार है, के दर्शन हो सकते हैं, जिससे आप वंचित हैं। वह वास्तविक वैकालिक सत्ता आँखों में नहीं आई, न आएगी। वह वास्तविक ज्ञान आत्मा के पास है, लेकिन आपने ताला लगा रखा है। महोत्सव मनाते जाओगे तो भी ताले खुलेंगे नहीं अपने आप दरवाजा बंद होने पर बाहर का प्रकाश अन्दर नहीं आ सकता। अन्दर का प्रकाश ही बाहर लाना पड़ेगा। महावीर भगवान् ने क्या काम किया, उन्होंने विचारा कि - ना आधि-व्याधि मुझ में, न उपाधियां है, मेरा न है मरण, ये जड़ पंक्तियाँ हैं। मैं शुद्ध चेतन-निकेतन हूँ निराला, आलोक-सागर, अतः समदृष्टि वाला ॥ मैं कौन हूँ? महावीर कौन थे? आप कौन है? आपको शायद मालूम ही नहीं। महावीर की जय जयकार कर रहे हो, पर आपका क्या हो रहा है ? उनकी प्रशंसा से आपका क्या मतलब है ? उनका नाम ‘महावीर' आपने रखा, और आप ही जय जय बोल रहे हैं, वो तो आत्माराम हैं, महावीर आत्मा से परमात्मा हुए थे। श्रुतकेवली, मन:पर्ययज्ञान के धारी भी उस परमात्मदशा का वर्णन करने में असमर्थ हैं। वचन के द्वारा, पुद्गल के द्वारा उनका सीमित वर्णन ही होगा। यह तो अनुभवगम्य है, पर अपरंपार है। उसकी अनुभूति के लिए जो प्रयास किया, वह श्लाघनीय है। वे महावीर जिस लोक में हैं, उसमें आप भी हैं, वे अनन्त सुख का अनुभव कर रहे हैं और आप अनन्त दुख का अनुभव कर रहे हैं। उनके सामने आप घुटने टेककर नाक भी रगड़ लो, तो भी उनके द्वारा सुख का एक अंश भी आपको नहीं मिल सकता। महावीर का बल अनन्त के रूप में हो गया और आप निर्बल हो रहे। आप अपने स्वरूप का आलम्बन लेकर जड़ की प्रक्रिया छोड़कर विचार करो। महाव्रत धारण कर मुनि न बन सको तो उदासीन बन कर अपना नाम उदासीनाश्रम में लिखा दी। जो जवान हैं, वे आज मेरे साथ आ जायें। उस पथ को मूर्त रूप में दिखा दें, महावीर के सरीखे बन कर। दीक्षा कल्याण कैसे हो, इसके लिए सुन लें जिन्हें जल्दी है वे जायें, पर एक बात जरूर ले जाएं। महावीर के दिव्य संदेशों को सुनकर एक सेठ के मन में उदासीनता छा गई, उसने ज्येष्ठ पुत्र को बुलाकर अपना ताज उसके मस्तक पर रखना चाहा, वह कहता है कि मुझसे सहन नहीं होगा, उसकी आज्ञा बड़ा होकर नहीं छोटा होकर मानूँगा। आप क्यों इसे छोड़ रहे हो ? तब सेठ ने कहा कि जीवन भोग के लिए नहीं, योग के लिए है, उपयोग के द्वारा वैकालिक सत्ता का दर्शन करूंगा संन्यास लूगा, वन में विचरूंगा, भोगों में सुख नहीं, दुख ही दुख है। उसने भोगों की उपेक्षा कर दी। तब बेटा कहता है कि आपने बहुत बढ़िया बात कही है, आपने मुझे भी रास्ता बता दिया। मैं भी उसी रास्ते चलेंगा। पिताजी घर का नाम मिट जाने की चिन्ता में थे भले ही निज का नाम मिट रहा था उसकी चिन्ता नहीं, वे कहते हैं कि तेरा ऐसा कहना ठीक नहीं। बेटा कहता है कि आपके लिए ठीक है तो मेरे लिए कैसे ठीक नहीं। इसी तरह दूसरा, तीसरा, चौथा लड़का भी घर से उदासीन हो जाते हैं। पोता नादान था, उसे घर का भार सौंपकर सेठ व चारों लड़के चले गये। कुछ दिन उपरांत दीक्षा कल्याण तिथि जी आ रही है, उसी प्रकार हमारी तैयारी हो जाये तो अविनश्वर पद की प्राप्ति, वास्तविक ज्ञान का दिग्दर्शन हो जायेगा। वृद्ध होकर यदि महाव्रत को न अपना सकें तो अणुव्रत अपनाकर शेष जीवन उदासीनाश्रम में व्यतीत कर दी। त्यागी, तपस्वी जहाँ रहते हैं, वहाँ का वातावरण सुगंधमय हो सकता है। उदासीनाश्रम में लाख हजार आदि की जरूरत नहीं। लाख तो राख के समान है। अगर आप उदासीन हो गये तो बच्चों को दिक्कत नहीं होगी बल्कि वे स्वयं आपकी हिफाजत करेंगे। भगवान् महावीर स्वयं त्यागी थे, उन्होंने भोगों को ठुकराया था और दुख की निवृत्ति के लिए योग को अपनाया था, उसी त्याग को अपना कर आप उसी योग की जय-जयकार बोलें, उपासना करें।
  10. कर्त्तव्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जहाँ निरीहता वाली बात समाप्त हो जाती है, वहाँ कर्तव्यबोध नहीं रहता। कर्तव्य तो करना चाहिए, लेकिन कर्तृत्व बुद्धि नहीं रखनी चाहिए। कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति आलोचकों की परवाह न करते हुये अपने कर्तव्य पालन में लगा रहता है। कर्तृत्वभाव हमें कर्तव्य से विमुख कर देता है। हम दूसरों से कार्य कराना चाहते हैं हम खुद नहीं करना चाहते हैं यह संघर्ष की जड़ है। अभिमान नहीं करना चाहिए कर्तव्य की ओर ध्यान रखना चाहिए। सुन्दरता कर्तव्यशीलता से ही निखरती है। जो पिता की आज्ञा का पालन करता है वही पुत्र माना जाता है। परम्परा का उल्लंघन करने वाला पुत्र कभी भी शांति को प्राप्त नहीं कर सकता। कर्तव्य ही सही ज्ञान है, सम्यकज्ञान है। दूसरे के कार्य में व्यवधान न होने देना एवं अपने कार्य में सावधान रहना ही कर्तव्य है। दूसरे के कार्य में अपने द्वारा व्यवधान तब होता है जब हम अपने कर्तव्य के प्रति सावधान नहीं रहते। सामान की समस्या नहीं है बल्कि दृष्टि की समस्या है कर्तव्य को दृष्टि में रखें। धर्म और किसी वस्तु का नाम नहीं है बल्कि अपने कर्तव्य का नाम धर्म है। कर्तव्य सामान्य व्यक्ति होकर किया जाता है और कर्तृत्व विशेष स्वामी बनकर किया जाता है। कर्तव्य को दिशा बोध तत्व ज्ञान से प्राप्त होता है। हम देव, शास्त्र एवं गुरु को प्रामाणिक मानकर मोक्षमार्ग में बढ़ते चलें। कर्तव्य की भूमि पर खड़ा रहना बहुत कठिन है।
  11. कर्म विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार कर्म क्षय स्वाश्रित है, लेकिन कर्म बंध कथञ्चित् पराश्रित है। दूसरे का निमित्त कथञ्चित् कर्म बंध में आपेक्षित रहता है, किन्तु मोक्षमार्ग में मात्र आप ही रहते हैं। फिल्म की रील कर्म है और पर्दे पर चित्र नोकर्म हैं। कर्म के अनुरूप ही नोकर्म की व्यवस्था होती है। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से ही ज्ञान होता है, मात्र पढ़ने से नहीं। कर्मोदय में गलत कार्य न करना चाहें तो भी करना ही पड़ते हैं, जैसे नरक में अशुभ विक्रिया न करना चाहें तो भी करना ही पड़ती है। जिनके माध्यम से अशुभ कर्म का बंध होता है, आत्महितैषी को उनसे हमेशा बचना चाहिए। आयु कर्म उस बाँटल में समान है, जो बूंद-बूंद से खाली हो जाती है। यदि कर्म के भरोसे बैठे रहना होता तो प्रभु कर्म निर्जरा का उपदेश क्यों देते ? राग-द्वेष नहीं करोगे तो कर्म बंध नहीं होगा, ऐसा भगवान् ने देखा, जाना और अनुभव किया है। तभी तो उन्होंने संयम से अनुराग किया था और हम लोगों को भी राग-द्वेष छोड़ने का उपदेश दिया है। यदि कर्म के उदय में सब कुछ हो जायेगा ऐसा सोचकर पुरुषार्थ नहीं करोगे तो कर्म निर्जरा कैसे करोगे ? भगवान् ने हमें तप के माध्यम से कर्म निर्जरा करने का उपदेश दिया है। संसारी प्राणी की सारी क्रियाएँ कर्म सापेक्ष ही हुआ करती हैं। दुख, शोक, ताप, आक्रन्दन से असाता कर्म का बंध होता है। आयु कर्म की हानि का नाम ही मरण है, इसी का नाम जीवन है, दीपक प्रकाशित हो रहा है कि तेल जल रहा है, इसे समझने का प्रयास करो। कलम (पेन) चल रही है कि स्याही खत्म हो रही है, इसे समझने का प्रयास करो। दिन अस्त होने से पहले प्रबंध कर लो वरन् इस संसार रूपी जगल में भटक जाओगे। नोकर्म के कारण भावों में गिरावट आ जाती है, इसलिए शरीर आदि नौ कर्मों को स्मृति में मत लाओ और भावों को पुन: स्थिर कर लो। कर्मों की खेती कहाँ से होती है, उस खेती को समाप्त कैसे किया जा सकता है ? इन्हें पैदा करने वाले दुर्भाव को नष्ट कर दो। जो कर्म काटने की कला को अपनाता है, वही तत्ववित् कहलाता है। संसार में दो भूत खतरनाक हैं, पर द्रव्य कर्तृत्व और निमित्ताधीनता। जो इन दोनों से बच जाता है, वही कर्म बंध से बच सकता है। कर्म के न्यायालय में जब कर्म न्याय करता है तो उस समय घूसखोरी नहीं चलती, वहाँ तो "जैसी करनी वैसी भरनी" का सिद्धान्त लागू होता है। जो-जो भाव कर्मों के क्षय से आत्मा में होते हैं, वे सब सादि अनंत होते हैं, कभी नष्ट नहीं होते। जैसे क्षायिक सम्यकदर्शन, क्षायिक ज्ञानादि। कर्मों की कठिनता यदि लता के बराबर हो जाये तो फिर कोई कठिनाई नहीं। कषाय ही कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति बंध का कारण है। आठ कर्मों में मात्र वेदनीय (साता-असाता) कर्म का ही अनुभव होता है। कर्मों की बाढ़ में तैराक भी बह जाते हैं, इसलिए आत्मा का रसास्वादन दुर्लभ है। कर्म के पास इतनी शक्ति नहीं है कि आत्मा की शक्ति को पूर्ण रूप से मिटा सके, इसलिए सभी जीवों में सामान्य रूप से ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम पाया जाता है। कर्म के उदय में हर्ष-विषाद नहीं करना कर्म फल चेतना है। कर्मों का उपादान कारण आत्मा ही है, लेकिन ये स्वभाव नहीं है। कर्मों के वेग में भी युक्ति पूर्वक बचा जा सकता है, वेग में तैराकी जैसी कुशलता चाहिए। गाड़ी चालक भी वेगवान गाड़ी को युक्ति से साइड करते हुए गति धीरे-धीरे कम करता जाता है। गति, आयु, पुण्य रूप नहीं हैं तो सारे पुण्य रूप नामकर्म पाप रूप ही हो जाते हैं।
  12. जिन चीजों के द्वारा आत्मा का अध:पतन हो रहा है, जिन कारणों के द्वारा संसार वृद्धि का कारण हो रहा है, हम उन्हें मिटाकर ही शांति का अनुभव कर सकते हैं। जिस कार्य को करते हैं, उसे पूर्ण करने के लिए उसी प्रकार की चेष्टा करना है। आचार्य महोदय सोच रहे हैं कि इस जीव का उद्धार कैसे हो? उसके लिए एक बार ऐसा परिश्रम हो जाये, जिससे सुख की प्राप्ति हो। आगम में, शास्त्रों में, सभी में यही गूँज है, कोई रहस्य है कि व्यक्ति के शाश्वत सुख में साधक व बाधक कौन है। कौन हित चाहता है और कौन अहित चाहता है। दुनियाँ का प्राणी हित चाहता है, कोई भी अहित नहीं चाहता है। पर अनादि से अनंत दुख का अनुभव कर रहा है। हमारे आचार्यों ने ही नहीं, सभी ने मोक्ष को माना है। मोक्ष को मानने में किसी के यहाँ विरोध नहीं है। सुख की प्राप्ति में विसंवाद नहीं है। सुख सब चाह रहे हैं। पर सुख के मार्ग के बारे में भिन्न भिन्न विचार है। कोई भौतिक सुखों को ही सुख मानता है, कोई अन्य बातों को लेकर। मोक्ष का मार्ग आज तक जिसे अपनाया, जिसका विश्वास रखा वह मार्ग नहीं। अच्छे कारणों, मार्गों (जिसे आज तक नहीं अपनाया) के अभाव में अभीष्ट की प्राप्ति नहीं है। असली बात मालूम होने पर ज्यादा प्रयास नहीं, मार्ग फिर सरल बन जाता है, फिर डर कोई चीज नहीं। आपने सुख प्राप्ति के लिए अनन्तकाल तक प्रयास किया, एक सैकेंड भी बेकार नहीं किया पर आपके विचार साकार नहीं हुए। हम जो चाहते हैं,उसके अनुरूप कार्य हो। कहा भी है - आतम हित हेतु विराग ज्ञान, ते लखे आपको कष्टदान आचार्यों ने अपने जीवन की मौलिक घड़ियों को व्यतीत कर अपने ज्ञान व अनुभव के द्वारा बताया कि जहाँ राग है, द्वेष है, विषय-कषाय, मद मात्सर्य है, विपरीत भाव है, वहाँ कोई सुख देने वाला नहीं है, दुख ही देंगे। दुख के साधनों में सुख का विकल्प कर लेना, यही विपरीत दृष्टि है। सुख के साधनों को दुख का कारण मान रखा है, यही भ्रांति है। यह जैन धर्म का सार है। कर्म तीन प्रकार के बताए हैं। प्रथम तो ज्ञानावरणादि आठ कर्म जिन्हें द्रव्य कर्म भी कहते हैं। द्वितीय शरीरादि नोकर्म और तीसरा रागादि जो वास्तविक आत्मा के साथ तादात्म्य को लेकर है। शरीर को आत्मा से भिन्न मान रहे हैं, उसी प्रकार आत्मा से कर्म भी भिन्न है, यह भी कह देंगे, लेकिन जो राग-द्वेष तीसरा है वे भी आत्मा से भिन्न हैं ऐसा विदित हो तभी कल्याण है। मोह मात्सर्य बन्ध के कारण हैं। मुक्ति तो चाहते हैं और बन्ध को अपना रखा है, वह कितनी भ्रांति है। यह मान लो कि हम राग करेंगे तो हमारे लिए वहाँ का वातावरण बन्ध रूप होगा और वहीं वीतरागी के लिए बन्धन रूप नहीं। वातावरण एक ही है पर एक के लिए दुख का तथा एक के लिए सुख का कारण है। रेशम के कीड़े की तरह संसारी जीवों की चाल हो रही है। रेशम का कीड़ा मुँह से लार निकालता हुआ अपने को वेष्टित कर लेता है, जिसके कारण गर्म पानी में डालने पर वह स्वयं भी मर जाता है, अगर मुख से लार न निकाले तो न मरे। हम वास्तविक स्वभाव को छोड़कर अन्यत्र भाग रहे हैं जहाँ हमारे जीवन का सार, अन्वेषण सब लग जाते हैं और वहीं से सुख प्राप्त करने की कोशिश करते रहते हैं अनन्त काल से। फिर भी मन वांछित कार्य सम्पन्न नहीं हो रहा है, तथा अनन्तकाल तक नहीं होगा। जो राग नहीं करता, उसे कुछ भी करने की जरूरत नहीं, यहाँ तक कि भगवान् की भक्ति भी नहीं। आप मुक्ति चाहते हैं तो सोचो कि बन्ध का स्वरूप क्या है ? उसका कारण क्या है ? उसे छोड़ी। शास्त्र किस लिए पढ़ रहे हैं ? यह सोच कर कि कामना पूर्ण होगी, मुक्ति चाह रहे हैं, तभी शास्त्र पढ़ रहे हैं। मुक्ति के बारे में ज्यादा विचार करने की जरूरत नहीं। फल प्राप्त करने पर कीमत नहीं जब तक फल प्राप्त न हो, तब तक कीमत है। राग द्वेष को जो मोह की पर्याय है सामने पदार्थों में वास्तविक ज्ञान न होने पर आत्मा में राग द्वेष परिणाम होते हैं, जो बन्धन है। जो वीतराग परिणाम रखता है, वह मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। जिसके राग नहीं है, वह मुक्ति को पा लेता है। दो मुख्य द्रव्य हैं, एक जीव द्रव्य और दूसरा पुद्गल द्रव्य। पुद्गल के राग नहीं है, वह वीतरागी भी नहीं है, वह तो अरागी है, अद्वेषी है। अराग और वीतराग में बहुत अन्तर है। जीव रागी है, वह वीतरागी बन सकता है। पुद्गल जड़ की महिमा है तो यह चेतन की महिमा है। आप वीतरागी बनेंगे तो बन्धन से मुक्त हो सकते हैं, पुरुषार्थ की आवश्यकता है। अखण्ड द्रव्य 'मैं' हूँ, सारे द्रव्य क्षणिक है। इनसे सुख का अनुभव नहीं अखण्ड सुख का अनुभव वीतरागी बनने से है। मोक्षमार्ग में ज्ञानावरण का क्षयोपशम कारण नहीं है। संज्ञी पंचेन्द्रिय बन जाये, इतना ही ज्ञानावरण क्षयोपशम मुक्ति के लिए पर्याप्त है। आगे मोह का क्षयोपशम अनिवार्य है। वीतरागी बनने की चेष्टा अनन्त शक्ति को प्राप्त करा सकती है। जितने-जितने वीतरागी बनेंगे, उतने-उतने वीर बनेंगे और जितने-जितने रागी बनेंगे,उतने-उतने डरपोक, कायर बनेंगे। वीतरागी कैसी भी समस्या आए, वह सोचेगा कि मेरे ऊपर कोई प्रहार नहीं फिर भय कैसा ? वह आत्मा का स्वभाव है अमूर्त है। अमूर्त पर मूर्त का प्रहार नहीं हो सकता। रागी सोचेगा कि मैं नष्ट हो सकता हूँ, मिट सकता हूँ, इसीलिए राग-द्वेष है। जो इनको जहर समझता है, विषयों को विष समान गिनता है, वह आज भी उस सुख का अनुभव करता है। जो बड़े-बड़े महलों में राजा महाराजा, सेठ साहूकार नहीं कर सकते हैं। इनके सिर पर इतना भार है कि आत्मा दब रही है और बाहर पुद्गल का विस्तार है। सुख की अनुभूति आत्मा में है, राग-द्वेष में परिणति नहीं जानी चाहिए। इनके बारे में जो सोचे कि ये मेरे नहीं है, मेरा स्वभाव नहीं है, वह व्यक्ति बनती कोशिश राग-द्वेष को घटाएगा और मोक्ष मार्ग को अपनाएगा, संसार मार्ग को नहीं अपनाएगा। चाहे दुनिया उसे पागल समझे, वह स्वयं भी दुनियाँ को पागल ही समझता है। दोनों का रास्ता भिन्न-भिन्न है, किसी ने बड़ा अच्छा कहा है कि - इन्हीं बिगड़े दिमागों में, घने खुशियों के लच्छे हैं। हमें पागल ही रहने दो, कि हम पागल ही अच्छे हैं || वीतरागी प्राणी दुनियाँ के कहने पर नहीं चलेगा, सिद्धान्त के अनुसार चलेगा। आज दुनियाँ से डरकर सिद्धान्त को पीछे छोड़ देते हैं, वे अपनी आत्मा को दबाने व गर्त में ले जाने की चेष्टा करते हैं। ज्ञान जब तक नहीं है, तब तक तो लुढ़क सकता है, पर विवेक होने पर आत्मानुभूति होने पर विषय को विष और वीतरागता को अमृत समझता है। वह जहर पीने की चेष्टा नहीं करेगा वह सोचेगा कि आज तक मुझे दुख इसी के द्वारा हुआ है। वह जो वीतराग रूपी अमृत की खान है, वहाँ जाता है, वह विचारता है कि कब वीतरागी बनूँ, इसी में सार है। दूष्ट्वा भवंतमनिमेष विलोकनीय। नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षु ॥ पीत्वापयः शशिकर द्युति दुग्ध सिंधोः, क्षारं जलं जलनिधे रसितुं क इच्छेत् ॥११॥ भत्तामर की यह कारिका बोलने में सुहावनी है, आप यही कहेंगे। पर इसका अर्थ भी बहुत सुहावना है, इसमें रस क्या है ? यह देख लो। एक बार आत्मा का दर्शन होने पर दृष्टि दूसरी ओर जाती ही नहीं। रस का स्वादी व्यक्ति भले ही दस दिन भूखा रह लेगा पर बढ़िया बढ़िया हल्वे में ही रस लेगा। वह बाजरे की रोटी व चटनी में रस नहीं पाता। अन्यत्र बाहरी पदार्थों के लिए दौड़ने की चेष्टा होती है, पर आत्म रस के लिए कहीं भागने की जरूरत नहीं। पर ऐसा आत्म विश्वास जमना चाहिए। आत्म सुधार के लिए वैसा करना है, जैसा शास्त्रों में लिखा है। युगों-युगों से हमारे लिए आचार्यों ने कहा, उपदेश दिया, आचरण करके बता दिया पर कोई उसे नहीं अपनाता है। हम तो शास्त्रों में लिखा है, वही बता रहे, मात्र एजेंट का काम कर रहे हैं। हमें तो कमीशन मिलता रहेगा। आचार्यों की आज्ञा है उपदेश देते जाओ, लाभ होता रहेगा। घाटा आपको ही है, हमको नहीं। आपके लिए प्रशस्त मार्ग यही है कि राग को छोड़ दो। किसी ने कहा है कि :- चेहरे में चेहरे हैं, बहुत ही गहरे हैं, किन्तु, खेद है त्याग के क्षेत्र में अन्धे और बहरे हैं। त्याग के क्षेत्र में बहरे नहीं बनना है, जीवन को सुलटाना है। विषय-वासना का विमोचन करने में पसीना नहीं लाना है। वीतराग होने में कठिनाई नहीं है। कर्म का उदय तो अनादिकाल से आ रहा है व आता रहेगा फिर आपका पुरुषार्थ किस काम का है ? आगम के अनुकूल चल कर आप विषय-कषायों को छोड़ सकते हैं। भगवान् महावीर ने भी १२ वर्ष तक प्रयास किया, जबकि वे वज़वृषभनाराच संहनन वाले थे। मति, श्रुति, अवधिज्ञान के धारक थे, उन्हें भी १२ साल लगे। आप लोगों ने आज तक प्रयास-ही नहीं किया मात्र अपनाते-अपनाते चले गये, पीछे मुड़ कर देखा ही नहीं कि कितनी भीड़ लग गई है। भीड़ समाप्त हो सकती है। दरवाजा बन्द करके देखने से। कुछ समय प्रयास करेंगे तो आपका हित हो सकता है। विषय वासना को विष आत्मा को अमृत समझी।
  13. कल पं. जगन्मोहनलाल जी साहब ने आप लोगों के लिए एक बात प्रेरणा रूप कही थी कि अपने पास दीपक है और भगवान महावीर के पास भी दीपक जल रहा है, उसकी लौ से इस दीपक को स्पर्श किया जावे तो उद्दीप्त हो जाएगा। पर कौन से दीपक को लौ के पास ले जाना है? जिसमें बत्ती व तेल न हो ऐसा दीपक नहीं होना चाहिए। आचार्यों ने जहाँ भी किसी भी क्षेत्र के बारे में विचार व्यक्त किए, आशय को लेकर पात्र को लेकर कहे हैं ताकि प्रत्येक बहुत सरलता से अभीष्ट तक पहुँच सके। दीपक की शक्ति अपने पास है या नहीं यह भी सोच ली। बत्ती और तेल को अपने दीपक में लगाना होगा, तभी उस दीपक से स्पर्श हो सकता है। समंतभद्राचार्य ने जयघोष के साथ लिखा है कि- हे भगवान्! कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि अपने को प्रभु के चरणों में रख दी, कल्याण हो जायेगा, कोई कहता है कि ईश्वर कुछ नहीं करता है अपने को ही काम का कर्ता मानता है अलग-अलग क्षेत्र को पकड़कर लोग चल रहे हैं। भवितव्यता वह कि निमित्त और उपादान इन दो कारणों के द्वारा आविष्कृत कार्य के चिह्न को धारण करती है। जब हम एक को भी गौण/तुच्छ न मानते हुए आगे बढ़ते हैं तब काम होता है। भवितव्यता, होने योग्य कार्य को कहते हैं। भवितव्यता महान् है, शक्ति को लेकर है एक कारण को लेकर काम नहीं होगा। भगवान् क्षमा के भण्डार हैं अत: समर्पण कर दी। जब हम वीतरागता को अपनाना चाहते हैं, तब अप्रशस्त राग हेय है। हाँ, जहाँ लड़ाई करना है तब अप्रशस्त राग प्राप्तव्य है। होश लाने के लिए, रोष दिलाने के लिए अप्रशस्त राग पैदा करते हैं, वहाँ कहते हैं उठ जाओ बाहों का बल दिखाओ, तभी वहाँ अभीष्ट की प्राप्ति होती है। उसी प्रकार जहाँ वीतरागता का समर्थन करना है तब अप्रशस्त राग का विमोचन अभाव और कषायों से दूर, कषायों में मंदता होनी चाहिए। दीपक में यदि तेल भर दिया पर बत्ती सारी जल गई है, अथवा बत्ती ठीक है पर तेल छान कर नहीं भरा है, तब भी बत्ती नहीं जलेगी। अत: अन्तरंग तथा बहिरंग निमित्त कारणों के होने पर ही कार्य पूरा होता है। प्रभु के चरणों में तो रोज लोट रहे हैं, पोट रहे हैं वीतराग बनने की पात्रता भी है पर जो कमियां हैं उसे दूर करने की कोशिश करनी है। लोहे को पारसमणि सोना बनाता है, पर लोहे पर थोड़ा भी आवरण हो तो सोना नहीं बनेगा। कमी पारस में नहीं है लोहे पर आवरण है। उसी प्रकार भगवान् महावीर में कमी नहीं है पर उनके सिद्धान्तों पर आपको वास्तविक श्रद्धा नहीं हो रही है। अगर दवाई को मुँह में लेकर थूक दिया जाये तो रोग ठीक नहीं होगा। इसमें डॉक्टर की दवाई तो ठीक है पर कमी रोगी में है। विश्वास के साथ ही कार्य होगा। वो झरना उसी स्रोत से झरेगा, जहाँ देखने से झरना प्रारम्भ होता है। चन्द्रमा से अमृत नहीं झरता है, चन्द्रमा तो अमृतमय है। पर चन्द्रमा के उदय में चन्द्रकान्त मणि से पानी निकलता है। चन्द्रकांत मणि को सूर्योदय के सामने रखने पर पानी नहीं झरेगा। भगवान् महावीर चन्द्रमा के समान हैं, अतः हमें चन्द्रकांत मणि होना है। वो श्रद्धा अन्दर से आने वाली है, बाहर से नहीं आएगी। उनके प्रभाव से हमारे में शक्ति पैदा होएगी वह शक्ति हमारे में है। वह उपादान है, आभ्यंतर है बाह्य नहीं। बहुत काल से महावीर की जय-जयकार का नारा लगा रहे हो। अब तो आत्माराम की जय बोलो। अपने उपादान को न भूलो, उसे समर्थ बनाने के योग्य जो कारण है उसे सामने रखो ताकि भूले नहीं। पारस पहाड़ भी ले आओगे तो भी आवरण सहित सुई भी सोना नहीं बनेगी। आपने आँखें बन्द कर रखी हैं, उन्हें खोली, दरवाजे को बन्द मत करो, आँखें खोलकर दर्शन करो। कुछ लोग कहते हैं कि सूर्योदय कब होता है, पता नहीं। वे उठते देरी से हैं, ब्रह्ममुहूर्त में उठते ही नहीं। जब कभी भी महावीर का स्मरण किया जाये तो वीतरागता तो उनमें है, व रहेगी, वे तो अपना काम कर ही रहे हैं, पर हमारी आँखें खुलती ही नहीं। आप चाहते हैं कि कोई आकर आँखें खोलदे, तो यह महान् गल्ती ही होगी। टीटी के द्वारा जब वह टेंक से जुड़ी है, तब स्नान ही स्नान होता है, पर टोटीं अलग करने पर टोटीं से स्नान नहीं हो सकता। जल का स्रोत वह टोटी नहीं है। उसका स्रोत तो अन्दर से आ रहा है। भगवान् महावीर के चरणों में कुछ पराग रखी है, वह आप लोगों के लिए नहीं। उन्होंने प्रयास किया है, तब वे अनन्त शक्ति के धनी बने। अत: आप चाहें माथा रखे रहो तो भी आपमें वह अनन्त शक्ति नहीं आएगी। वह तो अन्दर का टेंक खोलने पर ही आएगी। भगवान् महावीर आपसे कुछ लेंगे भी नहीं तो देंगे भी नहीं। अगर हम उनके अनुरूप काम करेंगे तो उस रूप बन जाएँगे। वीतरागी बनना चाहते हो, उसकी उपासना करना है तो अप्रशस्त राग को छोड़ना है, फिर विचारना है कि हेय क्या है ? ज्ञेय क्या है ? इसके लिए मंद राग की आवश्यकता है। जब तीव्र कषायों की परिणति चलती है, तब हेय उपादेय को जानने की शक्ति नहीं रहती है, अनन्त दुख का अनुभव करना पड़ता है। प्रशस्त राग हेय भी नहीं है तो ध्येय भी नहीं है, वह बीच की अवस्था है। वह साधन आलम्बन के रूप में है, अत: वो भी छोड़ना है। प्रशस्त राग बीमारी को निकालने वाला है बीमारी निकलने पर उसे भी छोड़ना है। पेट में जब तक खराबी होती है, तभी तक दवाई ली जाती है उसके बाद नहीं। दवाई के द्वारा शरीर नहीं टिकता है, वह तो अन्न के द्वारा ही टिकता है। दवाई तो सिर्फ शरीर के रोग को दूर करती है। आज मोक्षमार्ग की प्ररूपणा में भी अति हो गई। महावीर ने महान् अध्ययन के बाद यह घूंटी पिलाई है। जैसी पात्रता वैसा उपदेश। हमारे आचार्यों ने यही तरीका अपनाया है। समंतभद्राचार्य ने कहा कि हे भगवन्! आप मेरे द्वारा नमस्कृत इसीलिए हैं कि औरों में यह विशेषता नहीं है। आप किसी को खाली हाथ नहीं भेजते हैं, देते हैं, जिससे उसके जीवन का विकास होता है। मधुर शब्दों के द्वारा विरोधी के कान भी ठण्डे पड़ जाते हैं। हम अमृत की विशेषता बताते समय जहर की बात करते हैं। अपने को सिर्फ अमृत की विशेषता बतानी है। यही अनेकांत है, दूसरे का निषेध नहीं करना। सामने वाले पर कैसे प्रभाव पड़े दूसरे का खण्डन नहीं, अपना मंडन होना चाहिए। ५० प्रतिशत मूर्ख कहने के बजाये ५० प्रतिशत बुद्धिमान कहना बेहतर है। हरेक व्यक्ति को इस प्रकार बोलना चाहिए कि सामने वाला चुम्बक की तरह खिंचता चला आय। महावीर ने यही विस्तृत विवेचन किया है। सिद्धान्त का समर्थन करते हुए लोगों को अपनाना है, उन्हें आदर देना है। अनादिकाल से वीतरागता के रहस्य को आपने समझा ही नहीं। हमारी शक्ति विरोध करने में खर्च हो रही है, अपना समर्थन करने में नहीं। अत: बाहरी शक्ति को आदर देकर अपना बना सकते हैं।
  14. यह लोक छह द्रव्यों के द्वारा भरा हुआ है। यहाँ ऐसा कोई भी स्थान रित नहीं है, जहाँ ६ द्रव्य नहीं पाये जाते हों। जहाँ जीव द्रव्य है तो वहाँ पुद्गल द्रव्य भी है। उनका सबका अपने-अपने स्वभाव के अनुरूप भिन्न-भिन्न परिणमन होता रहता है और अनंतकाल से यही हो रहा है। इस लोक में इस जीव को सुख की प्राप्ति क्यों नहीं हो रही है? इसके लिए महान् आत्माओं ने रास्ते बताये हैं। दुख का अनुभव हो रहा है एक मात्र विषमता के कारण तथा समता के अभाव में। जब समता का प्रादुर्भाव होगा तब सौभाग्य का द्वार खुल जायेगा। लोग भविष्य के बारे में सोचते हैं वे जीवन को सुखमय शांतिमय और समृद्धिमय बनाना चाहते हैं, तो उन्हें वर्तमान को नहीं खोना चाहिए। जो वर्तमान को खोता है, वह मूर्ख है। जिस उद्देश्य को लेकर पाँच माह पूर्व आपने अजमेर में चातुर्मास स्थापना की विनती की थी। आज चातुर्मास समापन होने जा रहा है। इस ६ द्रव्यरूपी लोक में हमारा क्या कर्तव्य है, क्या धर्म है ? जिस काल की प्रतीक्षा की थी चातुर्मास के पहले वह चला गया। उस समय विचार किया था कि कब हम संघ को लावें और चातुर्मास की स्थापना करावें। वह समय भी चला गया। अन्य द्रव्यों पर तो आपका कुछ अधिकार हो सकता है, पर काल द्रव्य पर अधिकार नहीं हो सकता। जब काल जाता है, तब वह अन्य द्रव्यों में भी परिवर्तन लाता है। पाँच माह में दुर्लभ से दुर्लभ गणधरों के मुख से बिखरी जिनवाणी का श्रवण, मनन व चिंतन किया है, उसी के अनुरूप आपने भावना भी बना ली होगी। जिस चीज की इच्छा है उसी अनुरूप कारण मिलने पर उसकी प्राप्ति हो सकती है। काल बंधा नहीं रहता है। पाँच माह उस तरह निकल गये, जिस तरह ५ दिन ही निकले हैं। दुर्लभतम जीवन जो मिला है, उसके विकास के लिए बहुत कारण मिल गये हैं। काल आप लोगों की प्रतीक्षा नहीं करेगा। अत: जब तक काल है, अपने को मांजने की आवश्यकता है। दुर्लभ रूप बोधि, जिनवाणी, गुरुओं में जो आस्था है, उसे सुदृढ़ बनाने के लिए प्रमाद का विमोचन करो। सर्व प्रथम मिथ्यात्व को तो आपने ५ माह में हटा ही दिया होगा। यहाँ बैठे ७०-८० साल के वृद्धों ने दान, पूजा, प्रक्षाल, स्वाध्याय आदि किया है, कर रहे हैं, उससे मिथ्यात्व हट गया होगा। अब आगे अनादिकाल से जो शक्ति छिपी हुई है, उस स्वभाव को प्रकट करने की आवश्यकता है। गुरुओं का समागम, स्वाध्याय आदि साधन है पर अंतिम लक्ष्य स्वात्मानुभूति होनी चाहिए। दोष और आवरणों का क्षय होने पर भगवान् वीतरागी बन गये, इसीलिए उनको नमस्कार किया है। भगवान् की भक्ति, पूजा साक्षात मोक्ष को प्राप्त नहीं कराने वाली है, लेकिन मोह और राग-द्वेष को दूर करने पर आत्मा की मुक्ति हो सकती है। अपने आप में लवलीन होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। मिथ्यात्व के द्वारा भगवान् की भक्ति भी नहीं होती है। आत्मा की भक्ति इतना ही कार्य अपेक्षित नहीं है, अब अविरति का विमोचन करना होगा। पागल, नादान व अज्ञानी प्राणी का संसार में भ्रमण हो रहा है प्रमाद के कारण। अत: प्रमाद का विमोचन जरूरी है चाहे भगवान् की पूजा, स्वाध्याय सभी कर ली। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद का विमोचन जरूरी है। मिथ्यात्व का तो विमोचन आपने कर दिया पर प्रमाद का विमोचन नहीं हो रहा है। अपने आपके समीप पहुँचने के लिए बाहरी चीजों का विमोचन जरूरी है। ५ माह से पूर्व जिस बात को लेकर वर्षा योग किया था उसे बताना मुनियों का कर्तव्य है। जिन्होंने महाव्रतों का आधार ले रखा है तथा आकिंचन्य को अपना रखा है, वे तो आदर्शमय जीवन बनाएँगे ही, लेकिन उन लोगों के समागम से आपका भी जीवन बने, विकास करे, उनके अनुसार बने। खाना-पीना, उठना-बैठना तो अनादिकाल से रात दिन चल रहा है। उनकी कथाएँ परिचित हैं, उनके बारे में विश्लेषण कोटि जिह्वा से भी सम्भव नहीं है अत: जहाँ चाह है वहाँ राह भी है। जैसी आपकी चाहत होगी वैसीवैसी राह मिलेगी। अगर नया-नया जीवन चाहते हो तो वो भी मिल सकता है निगोद में, जहाँ एक श्वांस में १८ बार जन्म मरण होता है। जिस मनुष्य पर्याय को प्राप्त करने की आपको बहुत इच्छा थी, वह मनुष्य भव भी पुण्य प्रकृति में आता है। यहाँ आने पर आत्मा का विकास करने के लिए कार्य करना है। और यही काल जहाँ आपकी आत्मा के विकास के लिए विद्यमान है वहाँ तिर्यच्च आदि के लिए नहीं। ऐसी दुर्लभ चीज प्राप्त करने पर भी आपकी दृष्टि आत्म विकास की ओर न होकर विषय वासना की ओर रहेगी तो, जिस प्रकार अपार समुद्र में फेंके मणि को प्राप्त करना दुर्लभ है उसी प्रकार मनुष्य पर्याय पाना दुर्लभ है। मनुष्य पर्याय में भी बुद्धि का प्राप्त होना, दीर्घायु होना तो और भी दुर्लभ है, इतना होते हुए भी विकास की ओर दृष्टि न होने पर तो यह कहा जायेगा कि उपादान में गन्दगी पड़ी है। आप सोचे कि जीवन में कब आकिंचन्य धर्म, ब्रह्मचर्य धर्म को अपनाएँगे? कब सब जीवों से खम्मामि करेंगे? बाहरी पदार्थों व कार्यों के लिए मुहूर्त की जरूरत है त्याग के लिए, आत्मा के उद्धार के लिए मुहूर्त की जरूरत नहीं है। काल को मुहूर्त का बाधक समझो और बहुत जल्दी समता को धारण करो, इसके अभाव में ही दुख का अनुभव हो रहा है। आप अपने पद पर आरूढ़ हो जाये नहीं तो दुख उठाना पड़ेगा। जैसे कहा भी है - योगी स्वधाम तज बाहर दूर आता, सद्ध्यान से स्खलित हो अति कष्ट पाता ॥ तालाब से निकलकर बाहर मीन आता। होता दुखी, तड़पता, मर शीघ्र जाता ॥ जिस प्रकार पानी के अभाव में मछली को तड़प-तड़प कर वेदना सहनी पड़ती है, और यहाँ तक कि जीवन से भी हाथ धोना पड़ता है, इससे भी ज्यादा कष्ट आपको हो रहा है, क्योंकि स्वधाम से दूर हैं। निज स्वभाव के अनुरूप जो काम है वही अपना काम है। योगी भी स्वधाम को अगर छोड़ता है तो कष्ट पाता है। अत: निज घर को याद करो, पर घर को छोड़ो, पर घर में अनेक व्यवधान आते हैं। पर घर आत्मा के लिए परतन्त्रता है। इस जीवन को खोना नहीं है। अपने स्वभाव को प्राप्त करना है। आप भी उसी क्षमा को अपनाओ, जिसे भगवान महावीर ने भी अपनाकर अनन्त को प्राप्त कर लिया है।
  15. ब्रह्मांड ज्ञान ऊर्जा धारक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज आपके ज्ञानाचरण को नमन करता हूं...... हे गुरुवर! दया अहिंसा की मां है दया ही अहिंसा में परिणत होती है। विद्याधर सहज उत्पन्न दया के भंडार थे।यही कारण है कि विद्याधर की शुद्ध दया ही अहिंसा महाव्रत में परिणत हुई। इस संबंध में मुनि योग सागर जी महाराज ने बताया- जेसे दूध में घी तैरता है वैसे ही भव्य पुरुष के हृदय में दया स्वाभाविक रूप से तैरती हुई नजर आती है। दया-अहिंसा,परोपकार को जन्म देती है योगियों की योग्यता का मापदंड दया है बचपन की दया ने विद्याधर को दया का सागर विद्यासागर बना दिया। बचपन में एक बार विद्याधर ने घर के एक कोने में चूहे का एक बड़ा बिल देखा, उसमें नवजात चूहे का बच्चा तड़प रहा था। उसके शरीर पर लाल चीटियां काट रही थी। देखते ही विद्याधर ने शिशु चूहे को अपने हाथों में उठा लिया और एक एक करके चीटियों को फूँक से उड़ा दिया। वह शिशु चूहा बच गया। उसी समय माँ ने देखा और पूछा-क्या कर रहे हो ? विद्याधर ने बताया, तब मां बोली-यह तिर्यंच गति दुख की गति है, इस प्रकार से तिर्यंच जीव संसार में सदा दुःख उठाते हैं। दुखी जीवों पर दया करना अच्छी बात है, किंतु शिक्षा भी लेना चाहिए ऐसी गति में जाने से बचना चाहिए। विद्याधर ने मां को कहा- "मैं सदा दुखी जीवों को बचाऊँगा और ऐसे कोई कार्य नहीं करूंगा जिससे तिर्यंच गति में जाना पड़े। और शिशु चूहे को ऊंचे स्थान पर रख दिया जिससे अन्य जीव उसे पीड़ा न पहुंचा पाए।" इस प्रकार आज आपके दिव्य शिष्य की प्रेरणा से सैकड़ों गौशालाएं संचालित हो गई है। जहां पर क़त्ल खानों से लक्षाधिक गौवंश को बचाया गया है। बचपन की दया आज दया का सागर बन गई है। ऐसे अहिंसा के पुजारी गुरुवर को नमोस्तु............ अन्तर्यात्री महापुरुष पुस्तक से साभार
  16. जो श्रद्धा आप लोगों को देवदर्शन, स्वाध्याय व अच्छे कार्यों के द्वारा प्राप्त हो चुकी है, वह निर्दोष पले एवं दिनों दिन वृद्धि को प्राप्त हो, इसके लिए मद रूपी भावों का विमोचन करें। यह मद कभी सम्यक दर्शन को लेकर उत्पन्न नहीं होता है। सम्यक दर्शन के जो विरोधक हैं, उनको तथा मदों को हटाना चाहिए। मद तब उत्पन्न होते हैं, जब हमारी आस्था परम देव, शास्त्र गुरु में कम दिखाई पड़ती है। मद उत्पन्न करने योग्य जो पदार्थ है, उनसे दूर रहे। सम्यक दर्शन, श्रद्धा जो उत्पन्न हुई है, उसके लिए बहुत काल व्यतीत करना पड़ा है। आस्था को अविनाशी बनाने के लिए परिणामों में कमी है। आज क्षायोपशमिक श्रद्धा ही हो सकती है। जो आस्था आप लोगों को हुई है उसको सुरक्षित रखने के लिए मदों से दूर हटने की चेष्टा करें। जब चारित्र सम्यक्त्व के साथ रहता है, तब वह सम्यक्त्वाचरण चारित्र कहलाता है। सम्यक दर्शन के विरोधक पदार्थ यहाँ बहुत मौजूद हैं, उनको रोकने के लिए जो आपकी श्रद्धा हुई है उसे मजबूत करने वाला सम्यक्त्वाचरण चारित्र है। इसके बिना सम्यक दर्शन को सुरक्षित नहीं रख सकते। आप लोग यह कहते हैं कि चारित्र मोहनीय का उदय है, इसलिए चारित्र नहीं धारण कर सकते। इसका मतलब यह है कि या तो आपके पास सम्यक दर्शन नहीं है या सम्यक दर्शन है तो सुरक्षित नहीं रह सकता। सम्यक दर्शन के साथ देव आयु का बन्ध हो गया हो तो वह चारित्र की तरफ अवश्य झुकेगा। अथवा सम्यक दर्शन के साथ मनुष्य आयु या नरक, तिर्यञ्च आयु का बन्ध हो गया हो तो वह गत्यांतर सम्यक दर्शन को ले जा नहीं सकता कारण कि यह सिद्धान्त की प्ररूपणा है। जो सम्यक दर्शन के साथ उपरोक्त इन गतियों को प्राप्त करेगा तो क्षायोपशमिक सम्यक दृष्टि ही होगा। आज किन्तु क्षायिक सम्यक्त्व यहाँ नहीं है इसलिए अन्त समय में सम्यक दर्शन अवश्य छूटेगा। मनुष्य आयु का दुबारा बन्ध करने पर सम्यक दर्शन अवश्य छूटेगा। अत: चारित्र को अवश्य ही अपनाना पड़ेगा नहीं तो सम्यक दर्शन अवश्य छूटेगा, क्योंकि यह बहुत कम समय के लिए उत्पन्न होता है। जिस प्रकार पांव में चोट आने पर हड़ी टूट जाने पर वापस कुछ देर में बैठ तो जाएगी, लेकिन पांव को सुरक्षित रखने के लिए उसी हालत में रखना पड़ेगा, पट्टा भी शायद बंधेगा। इसी प्रकार देव दर्शन, गुरु उपदेश सुनकर जो भाव उत्पन्न होते है, उन्हें स्थिर रखने के लिए उसी के अनुरूप चारित्र को धारण करना पड़ेगा। सम्यक दर्शन होता तो है पर सुरक्षा जरूरी है। जिस प्रकार पैर तो ठीक हो गया पर सुरक्षा के लिए समय लगेगा। जिस प्रकार घोड़े के लगाम होने के बाद भी उसकी दोनों आँखों की साइड में और कवर (पट्टा) रहता है ताकि वह सिर्फ सामने रास्ते को देखे, इधर-उधर नहीं। उसी प्रकार सम्यक दर्शन होने के बाद भी उसे सुरक्षित रखने के लिए उसी प्रकार की दृष्टि हो, स्वच्छन्द विचार न हो, उसके लिए चारित्र की आवश्यकता है। सम्यक दर्शन तो एक भाव है जो कुछ देर के लिए होता है। आप लोग भले ही पैर की सुरक्षा के लिए उसी अनुरूप रहेंगे पर सम्यक दर्शन की सुरक्षा के लिए नहीं चाहेंगे। जो अनन्त संसार को काटना चाहता है, वह सामायिक आदि बन्धन को भी अपना लेगा। हमारी दृष्टि मौलिक चीज की ओर जाती ही नहीं, आपने तो उन चीजों को महत्व दे रखा है जो संसार का विकास करने वाली है। अत: सम्यक दर्शन रूपी भूमिका के अनुरूप चरित्र को अपनाना जरूरी है वरना हमारा जीवन इसके बिना अधूरा ही रह जाएगा। चारित्र के अनुपालन से ही दृष्टि बिल्कुल सुदृढ़ बन सकती है। जब दृष्टि में स्खलन होता है तब चारित्र में भी स्खलन हो जाता है। अत: मद नहीं करना चाहिए, रुढ़िवाद को नहीं अपनाना चाहिए। सम्यक दर्शन प्राथमिक दशा में अधूरा रहता है, चारित्र धारण करने पर धीरे-धीरे कमियाँ दूर होती हैं, पूर्ण चारित्र बाद में होता है। मद धीरे-धीरे मिटता है। आज क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता है पर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व तो होता है। इनमें यही फरक है जितना जवान व बुड़े के द्वारा हाथ में लाठी पकड़ने में है। जवान लाठी को मजबूती से पकड़ेगा पर वृद्ध के हाथ में लाठी हिलती रहेगी, शायद गिर भी जावे। अत: आपका सम्यक्त्व छूट सकता है पर क्षायिक सम्यक्त्व नहीं। जिस प्रकार पैर ठीक करवाने के लिए उसी रूप में रहते हैं, उसी प्रकार सम्यक दर्शन को ठीक रखने के लिए उसी रूप में रहकर शांति का अनुभव करो। मंजिल तक पहुँचाने के लिए दृष्टि मंजिल तक नहीं पहुँचाएगी पर चारित्र पहुँचाएगा। ज्ञान जानने के लिए है। जिस पर श्रद्धान विश्वास हो गया, उसका अनुभव करने के लिए चारित्र की आवश्यकता है। दर्शन व ज्ञान के लिए ज्यादा समय की आवश्यकता नहीं, पर चारित्र के लिए समय की जरूरत है।विश्वास केवल सम्यक दर्शन व ज्ञान का ही नहीं होता, विश्वास आँखों के द्वारा देखने पर होता है।आँखों के द्वारा दर्शन व ज्ञान नहीं दिखता, पर सम्यक्रचारित्र ही आँखों के द्वारा दिखता है। चारित्र वीतराग ही बनना है। अनादिकाल से रागरूपी आग से इतनी जलन हो रही है, जिसका विश्लेषण कोटि जिह्वा वाला करने में भी असमर्थ है। वीतरागता को धारण न करने पर ही दुख का अनुभव हो रहा है। इस लोक में सिद्ध परमेष्ठी सुख का अनुभव कर रहे हैं, और आप लोग दुख का अनुभव कर रहे हैं। दुख का अनुभव सम्यक दर्शन व ज्ञान के साथ भी है, अगर समता नहीं है। सम्यक दर्शन के साथ-साथ चारित्र हो तो आप भी बहुत सुख का अनुभव कर सकते हैं। सुख की प्राप्ति के लिए चाहे धन-दौलत, वैभव सब कुछ चला जाये तो कोई बात नहीं। सम्यक दृष्टि अपने भावों से चारित्र का ही छोंक लगाता है। उस सम्यक दर्शन के साथ आपकी आस्था, विश्वास नहीं है जो वीतरागता के साथ है। मनुष्य आयु का बन्ध जिसके है वह चारित्र को नहीं अपना सकता है। मनुष्य आयु का बन्ध होने पर सम्यक दर्शन भी साथ नहीं जाएगा यहीं छूटेगा। अत: उसे सुरक्षित रखने के लिए तीनों समय एक दो घंटे सामायिक करो, स्वाध्याय करो। आप पिक्चर लगातार ३ घण्टे देख सकते हैं, पर सामायिक नहीं। सामायिक में तो नींद भी आती है, पिक्चर में नहीं आती-ध्यान एक तरफ बना रहता है। इसका यही अर्थ है कि सामायिक में अविश्वास तथा पिक्चर में विश्वास है। सामायिक में असंख्यात गुणी निर्जरा बताई है। सारे विषय कषाय उसमें छूट जाते हैं। कुछ समय के लिए यही भावना होनी चाहिए। हेयोपादेय की बुद्धि जागृत होने पर एक बार सूचना देने पर विवेक द्वारा काम चालू करना चाहिए। बार-बार कहने की जरूरत नहीं। आपने आत्माराम को तो एक तरफ रख दिया है और बहिरात्मा की उपासना चालू कर दी है। चौबीस घण्टे बाहरी काम में लगे रहते हैं। भरत चक्रवर्ती दिग्विजय करने भी गये तो भी तीनों समय सामायिक करते थे, आत्मा का चिंतन करते थे। इसे कहते हैं गृद्धता का अभाव, भोगों में अनासति। इसीलिए कहा है कि ‘वैभव को काक वीट सम गिनत हैं सम्यक दृष्टि लोग”। आज चेतन के द्वारा अचेतन की पूजा हो रही है, जीवन का लक्ष्य कहाँ है? अत: प्रवचन सुनकर एक घण्टा आस्था में वृद्धि हो गई है, आपने आत्मा के बारे में सुना है, अतः चारित्र के बिना अब कोई शरण नहीं है, आस्था तभी सुरक्षित रह सकती है। दृष्टि जो स्खलित थी, उसे चारित्र द्वारा जोड़ लगा दो, तभी वह स्थिर रहेगी।
  17. समंतभद्राचार्य आप लोगों को श्रद्धा के बारे में बता रहे हैं। जब तत्व मालूम नहीं है, उसके बारे में ज्ञान नहीं है, तब उसके बारे में विश्वास तो रखें, श्रद्धा मन में लावें। कार्य कोई भी हो, विश्वास के द्वारा ही होता है। लोक व्यवहार में हर एक बात विश्वास के पीछे चलती है। धार्मिक क्षेत्र में जो भी विश्वास के साथ कह रहे हैं, उन पर विश्वास करो। आपका विश्वास उस पर है, जिसकी कीमत है। हमारे अन्दर जो भाव है, वह वास्तविकता को लेकर नहीं है। हमारे अन्दर वास्तविक इच्छा हुई नहीं। निमित्त एक होने पर भी उपादान भिन्न भिन्न है। पानी बरसता है ऊपर से, पर धूल में गिरने पर कीचड़ का रूप, सीप के मुँह में गिरने पर मोती का रूप, सर्प के मुँह में गिरने पर जहर का रूप धारण कर लेता है। एक निमित्त से अनेक रूप हो जाता है। एक व्यक्ति को जिनवाणी पर विश्वास हो जाता है, एक का विश्वास चला जाता है, सोचता है क्या पता ? श्रद्धान उन गुप्त स्थानों तक ले जाता है, जहाँ आज तक नहीं गये, वह अंतर्दृष्टि बनाता है, जिससे अमूर्त पदार्थ दिखने लगता है, यह अन्धविश्वास नहीं है। विश्वास परोक्ष से होता है। जब परोक्ष सामने आ जाता है, तब साक्षात अनुभव हो जाता है। गुरुओं के उपदेशों से, शास्त्र पढ़कर तथा देवदर्शन से अविदित पदार्थ विदित हो जाते हैं। प्यासे व्यक्ति को पानी का आश्वासन मिलने पर, हालांकि पानी नहीं पिया, एक सुख की अनुभूति होती है। विश्वास के साथ आशावादी होना चाहिए। आपको आचार्यों के वचनों में विश्वास ही नहीं है, इनके वचन झूठे नहीं होते। चैक मिल जाने पर हालांकि रुपया नहीं है फिर भी विश्वास हो जाता है कि रुपया मिल जायेगा। रुपयों की अनुभूति का विश्वास हो जाता है। उसी प्रकार श्रद्धा रखने पर मोक्ष मार्ग की भूमिका बन जाती है। जो गुरुओं के वचनों पर विश्वास लाता है, वह तृष्णा को मिटाता है, आनन्द का अनुभव करता है। आप क्यों बाहर की ओर भटक रहे हैं? अपने आप पर आपको विश्वास नहीं है। विश्वास होने पर ही सम्यग्दृष्टि जीव संसार शरीर भोग से निर्लिप्त हो जाता है। वह अमूर्त की पूजा करता है और उसके अन्दर की लहर बाहर को आने लगती है। वह संसार, शरीर भोग-विलास की पूजा नहीं करता है। जिस प्रकार विश्वास जमने पर ही दवाई कड़वी होने पर भी लेते हैं, उसी प्रकार विश्वास जमने पर ही वह त्याग तपस्या आदि को स्वीकार करता है, वह विचारता है कि संसार में क्या पड़ा है ? वह सोचता है कि तृष्णा जीर्ण नहीं हो रही है, हम ही जीर्ण हो रहे हैं। हम भोगों को नहीं भोग रहे हैं, बल्कि हम ही भोगे जा रहे हैं। जब तक तृष्णा से अनासति नहीं, तब तक गुरुओं की वाणी पर विश्वास नहीं हो सकता है। कर्म सिद्धान्त कहता है कि जब विश्वास हो जाता है तो उस व्यक्ति की गाड़ी ठीक लाइन पर हो जाती है। जैसे-जैसे ब्रेक लगाएगा तैसे-तैसे लब्धियाँ प्रारम्भ हो जायेंगी। क्षायोपशमलब्धि से विशुद्ध लब्धि प्रारम्भ हो जाती है, ब्रेक लगाने पर। जब विशुद्धिलब्धि प्रारम्भ हो जाती है तब गाड़ी चला नहीं रहे हैं, पर चल रही है, कोई बात नहीं। देशनालब्धि गाड़ी को बहुत कुछ रोक देती है और प्रायोग्यलब्धि आने पर गाड़ी धीरे-धीरे चलती है। जैसे एक घण्टे में एक मील की रफ्तार से। कषायों की गति, विषयों की लिप्सा इतनी कम रह जाती है कि पकड़ नहीं सकता, इसे कहते हैं, निर्विघ्न अवस्था। Danger को देखने व ब्रेक को दबाने पर भी कुछ नहीं होगा किन्तु Speed कम करनी पड़ेगी, रुकना पड़ेगा, गाड़ी घुमानी पड़ेगी। मोक्षमार्ग की ओर रुख करना पड़ेगा। विश्वास होने पर अनुकरण करना पड़ेगा। लोग चारित्र मोहनीय का क्षयोपशम का बहाना बनाते हैं। लेकिन इसमें ऐसी बात नहीं। अनन्तानुबन्धी रागद्वेषात्मक है। मिथ्यात्व के द्वारा चोरी डकैती आदि नहीं होती। मिथ्यात्व तो मात्र भुलाता है। रागद्वेष के द्वारा ऐसी परिणति होती है। अत: ब्रेक लगाकर घूम जाऐं, मुड़ जाएँ और पीछे की ओर चले जाएँ, तभी अपरिचित द्रव्य से साक्षात्कार हो जाएगा। आप कहेंगे कि इसमें कोई रस नहीं दिखता, इसका मतलब यही कि आपका विश्वास इस क्षेत्र में है ही नहीं, क्योंकि भोगों की लिप्सा, गृद्धता, रचपच जाना, ऐसा विश्वास वहाँ पर नहीं है। जब विश्वास हो जाता है, तब Foundation आधार हो जाता है, फिर प्रासाद भी खड़ा होने में देर नहीं, उद्धार होने में देर नहीं। विश्वास के बिना क्या सुनना, क्या प्राप्त करना ? मोक्षमार्ग कहता है कि जो पास है, उसका नाश हो, हास हो और जो पास नहीं है, उसका विकास हो। आपका इस बारे में लक्ष्य ही नहीं है। एक घण्टे भर प्रवचन सुनने भर से दिन भर का किया सारा पाप धुलेगा नहीं, बल्कि पुत जाएगा, वह पाप नष्ट नहीं होगा। आपके पापाचार में कमी आनी चाहिए और भोग, लालसा, वासना, शरीर की रक्षा गौण होनी चाहिए। आपने विश्वास के साथ एक पल भी आत्माराम की उपासना की ही नहीं। आप सोचते हैं कि भाग्य जगेगा, तब अपनी ओर बढ़ेंगे, आत्माराम को भजेंगे। ऐसा सोचकर आप अपने जीवन में विश्वास को जमा ही नहीं पा रहे हैं। जब महावीर के प्रति आस्था हो जाती है, अभिमान गल जाता है तब प्राणी सोचने लगता है कि मुझे भी निराकार बनना है, उससे मेरा कल्याण होगा। कब वह घड़ी आएगी जब पापों को भुलाकर आत्माराम को भर्जेगा, २४ घण्टे यही विचार चलते है। वह प्राणी मूर्ख शिरोमणि है, जो अपने आपको नहीं जानता, अपना विकास नहीं चाहता। वह निर्दयी है, वह दूसरों का विकास भी नहीं चाहेगा। अगर एक मात्र मनुष्य का शरीर धारण कर लिया तो क्या? उसका आचरण तो पशु से भी गया बीता है, पृथ्वी भी उससे घृणा करती है। वह सोचती है कि यह सपूत नहीं कपूत हुआ है। हर एक के जन्म लेने से पृथ्वी तीर्थ के रूप में नहीं होती, अपने को धन्यतमा नहीं मानती। भगवान् महावीर सरीखे पुण्यात्मा के जन्म से निर्वाण से पृथ्वी पुण्यतीर्थ बन जाती है, जिस प्रकार वैशाली और पावा भूमि बनी है। अतः राग द्वेष का विमोचन करो, और आत्म कार्य में संलग्न हो जाओ। उलझी हुई बातों को सुलझाओ। अनादिकाल से जो कार्य आप कर रहे हैं, उससे फल मिला ही नहीं। अत: उस कार्य को छोड़ो, विश्वास जमाओ, तभी संसार अनन्त नहीं विपरीत हो जायेगा। धीरे-धीरे संसार का विच्छेद करो। विश्वास के बिना निर्जरा नहीं होती। निर्जरा शाश्वत सुख का कारण है। विश्वास विषयों में नहीं होना चाहिए अपनी तरफ होना चाहिए। सम्यग्दृष्टि को वीतराग मार्ग कष्टप्रद नहीं, बल्कि सुखप्रद मालूम होता है।
  18. मोक्ष वह है जो बन्धन से मुक्ति दिला दे, उसके लिए साधन भी निरबन्धन रूप होने चाहिए अगर साधन बन्धन रूप होंगे तो मुक्ति कैसे होगी। साधन साधक का एक मात्र भाव है जो साध्य की ओर बढ़ रहा है। मोक्ष एक संवेध्य है, मोक्ष का मार्ग संवेदना परक है, भाव परक है। भावों के द्वारा ही मुक्ति हो सकती है और भावों के द्वारा ही बन्ध हो सकता है। मुक्ति के लिए भाव कैसे हो ? यह सोचना है। परमार्थ को प्राप्त किए हुए देवों का श्रद्धान करना, परमार्थ के शास्त्रों को मानना, यही मोक्ष मार्ग है। मोक्ष मार्ग के साधनों को बन्धन रूप नहीं अपनावें, मुक्ति रूप अपनावें तभी आचार विचार सभी समीचीन कहलाएगा। श्रद्धान कोई मानसिक, वाचनिक, शारीरिक चेष्टा नहीं है। मन, वचन, काय का परिणमन आत्मा की एक भावना है जो अन्दर से बाहर की ओर उमड़ पड़ती है, उसका अंकन परिलक्षण कैसे करेंगे? इसके लिए दूसरे के साथ तुलना नहीं करनी है। असंख्यात लोक प्रमाण को लेते हुए परिणाम होते रहते हैं, उन परिणामों के साथ अपनी तुलना कैसे हो सकती है, अपने परिणामों को देखो कि किन-किन भावों को लेकर उठते हैं, जब अन्दर से विश्वास को लेकर उठते हैं, तभी विचारों में समीचीनता आती है। विचार कथचित् पौढ़लिक है, विचारों से शरीर में, वचन में परिवर्तन होता है। शरीरादि भी पौढ़लिक है अत: इनमें भी समीचीनता आती है। आप यह सोचते ही नहीं कि बन्धन का निर्माण क्यों हो रहा है, क्योंकि अन्दर के परिणाम विपरीत हो रहे हैं, आज तक वह श्रद्धा हुई ही नहीं, जो होनी चाहिए। आप चाहते हैं कि हम बाहर की ओर जो देख रहे हैं, वे सदैव बने रहें, उनकी सुरक्षा के लिए, उनको पूर्ण करने के लिए हरदम प्रयास होता रहता है। अन्दर जो विचार उठ रहा है, उसकी ओर ध्यान ही नहीं है। इसीलिए पतन हो रहा है। आचार्यों ने आप्त का मतलब 'मेहमान' बताया है। मेहमान वह है जो हमारी उन्नति, तथा सुरक्षा चाहते हैं, जो रास्ते को समीचीन बनाना चाह रहे है। पर हम उनकी बात पर विश्वास ही नहीं करते। आप्तों का प्रयास हितोपदेश द्वारा दुनियाँ को समीचीनता का दर्शन करा देना है। ऐसा विश्वास जब होता है तभी उसके बाद मार्ग आरम्भ हो जाता है, मोक्षमार्ग के लिए यही भूमिका है, अन्यथा तो सब संसार मार्ग कहलाते हैं। जब यह विश्वास हो जाये कि सुख परमार्थ में है, स्वार्थ में नहीं, तब सभी आचार, विचार, चारित्र समीचीन बनता चला जाएगा। आज हिंसक वृत्ति का बोल वाला है। बार-बार संदेशों को सुनते हैं पर जीवन में नहीं उतारना चाहते, परिवर्तन नहीं चाहते, मात्र पूर्व में भोगे हुए, परिचय में आये हुए पदार्थों को चाहते हैं। यह गलत है, इसमें हिंसक वृत्ति नहीं छूट सकती। हिंसक वृत्ति छूटने पर ही अव्यक्त बल प्राप्त कर सकते हैं। जब पापास्त्रव ही नहीं है तब अन्य सम्पदा संकलन की क्या जरूरत है धन का संग्रह बेकार है। कहा भी है कि ‘पूत कपूत तो क्यों धन संचय, पूत सपूत तो क्यों धन संचय'। कपूत पुत्र के लिए कितना भी धन रखो वह नष्ट कर देगा और सपूत तो अपने आप ही धन कमा लेगा। धन के अर्जन के पीछे जीवन समाप्त कर देना गलत है, संचय के समय कर्म सिद्धान्त को आप लोग भूल जाते हैं। परिवार के जीवन के लिए तथा अड़ोसी-पड़ोसी के जीवन की सुरक्षा के लिए इतने प्रयास की जरूरत नहीं। संसारमार्गी अगर आपको बनना है तो फिर उपदेश की नसियां आदि की जरूरत नहीं है, और अगर मोक्षमार्गी बनना है तो इतनी दौड़ धूप की जरूरत नहीं। आज तो बहुत दौड़ धूप धन संचय के लिए चल रही है। प्राय: ऐसा देखने में आ रहा है कि जितनी-जितनी मात्रा में उमर बढ़ रही है, उतनी-उतनी मात्रा में चिन्ता आकुलताएँ भी बढ़ रहीं हैं। अर्थ का उपार्जन पुण्य पाप का परिपाक है, इन शब्दों पर विश्वास ही नहीं है। जिस व्यक्ति का पुरुषार्थ असाता को बाँध रहा है, वह साता की उदीरणा के लिए बन्धन है। विगत में बहुत पाप किया है। अब आप साता की उदीरणा चाहते हैं तो वर्तमान में असाता कार्य, पाप कार्य बन्द करो। जागृति हो जाने पर सत् कार्य प्रारम्भ करो, जिसके फलस्वरूप पूर्व के पाप कार्य भी पुण्य कार्य (साता-कार्य) रूप परिवर्तित हो जाये, क्योंकि दोनों पुद्गल है, दोनों के मेल से बन्ध हो जाता है। अन्दर के सत्कार्य भी वर्तमान के पाप कार्य में परिवर्तित हो सकते हैं। मन्दिरों में रोजाना पूजन, प्रक्षाल, स्वाध्याय ही पुण्य कार्य नहीं है, ऐसा मानने पर मात्र वाचनिककायिक की ओर दृष्टि चली गई परिणामों में सन्तोष हो। अगर पूजन करते समय भी असंतोष है तो वह पूजन नहीं कहलाएगी। जहाँ सन्तोष है, वहीं पूजन है। दौड़ धूप कम हो। अन्दर में भाव उज्ज्वल हो, लिप्सा में कमी हो, जो बाजार में भी पूजन करता हो, वही वास्तविक पूजन है। जो सिर्फ मन्दिर में ही पूजन करता है और बाहर असंतोष में रहता है, वह पूजक नहीं है। प्राय: देखने में आता है कि जैसे-जैसे तिजोरी में नोटों की गिनती बढ़ती जाती है, तब चाहे पेट खाली भी हो तो भी खून बढ़ता जाता है, मुख पर ऐसी चमक आती है, जैसे बिजली के बल्बों द्वारा भी चमक नहीं होती। डरने वाला तथा दूसरों को डराने वाला प्राणी सम्यक दर्शन से बहुत दूर हो जाता है। सम्यक दृष्टि जीव दुखी व्यक्ति को दुख से दूर कर धर्म चर्चा करता है। यही वास्तविक अनुकम्पा है। अर्थ तो मात्र परमार्थ के लिए माध्यम है, उसके पीछे जीवन को, परमार्थ को क्यों खोना। आज प्राय: मात्र पानी छानकर पीना तो दया, अहिंसा बताते हैं, परन्तु संज्ञी पंचेन्द्रिय का खून पीने में भी नहीं हिचकिचाते। जो पड़ोसी है, साधर्मी है, मोक्षमार्ग की ओर जो प्रवृत्त है, उसकी हत्या नहीं होनी चाहिए। चींटी की रक्षा तो करें पर मनुष्य की नहीं, यह क्या बात है ? अभयदान सबसे बड़ा है। आहार के बिना भी व्यक्ति कुछ समय रुक सकता है, औषध के बिना भी रोगी कुछ समय तक जीवित रह सकता है, किन्तु अभयदान के बिना एक पल भी नहीं रुक सकता। अभय से रोगी भी बच सकता है, डॉक्टर के द्वारा उसे भी रोग ठीक होने का आश्वासन मिल जाता है, परन्तु भय से निरोगी भी मर जाता है। खतरा वचनों में है। वचनों में डर दिखाने के अंश बिखरे पड़े हैं। अभयदान में आत्मा के परिणाम निर्मल बनते चले जाते हैं। अर्थ भी अनर्थ का मूल है, वह तो मात्र शरीर को चलाने के लिए साधन है। अगर शरीर रोगी हो और न चले तो अर्थ भी उसे नहीं चला सकता है। यह शरीर, अर्थ आदि की बातें बाहर को लेकर है। अन्दर की ओर, आत्मा की ओर जब लक्ष्य होता है, तब अर्थ, शरीर आदि गौण हो जाते हैं। मेरे साथ सबका आध्यात्मिक विकास हो, यही सम्यक दृष्टि चाहता है। अपने पर, आत्मिक भावों पर विश्वास करो। सोचो! हमारे अंदर निर्मलता आई कि नहीं? तभी तो वास्तविक परिवर्तन है। विचारों में समय के साथ-साथ परिवर्तन आता है तभी कालाय तस्मै नम: होता है।
  19. यही प्रार्थना वीर से छूटे भव-भव जेल। सत्ता दीखे वो हमें ज्योति-ज्योति का मेल ॥ आज मैं आप लोगों को यह तत्व जो अनादिकाल से हम लोगों से दूर है, उसको दिखाने आया हूँ, जब उसके प्रति आस्था हो जाएगी तब संसार से मुक्ति मिल जायेगी, जैसे महावीर को मिली। आप अनुभव करते होंगे कि हम एकांत में रह रहे हैं। यह ठीक है दृष्टि के द्वारा सृष्टि का निर्माण होता है। जो जिस प्रकार देखता है उसी प्रकार वह वस्तु उसे दीखने में आती है। भगवान महावीर ने भी पूर्व में जो कर्मों का संकलन किया था, उस समय दृष्टि अलग थी इसीलिए उन्हें भवरूपी जेल का अनुभव करना पड़ा था। जब कर्मों का नाश कर दिया, वास्तविक दृष्टि मिली तभी छुटकारा मिला। हमें भी वह दृष्टि मिल सकती है, ताले खुल सकते हैं। यह जो बेला गुजर रही है, उसमें यह न विचारें कि विकास नहीं कर सकते। यह कारागार शरीर के लिए है, पर उज्ज्वल विचारों के लिए कारागार नहीं है। आप लोगों के विचार बाहर वालों से भी ज्यादा उज्ज्वल हो सकते हैं। विचारों से ही विकास होता है। भव-भवरूपी जेल छूट जाए, इसके लिए आप लोग भी बढ़कर प्रयास कर सकते हैं, उत्कृष्ट बनने तथा गंदे विचारों को रोकने के लिए उचित स्थान यहाँ भी मौजूद है। जेल में लोग दुख का अनुभव करते हैं, लेकिन दुख जैसी बात नहीं है। जितना प्रभाव दो आँखों का विश्व पर पड़ सकता है, उतना हाथों का नहीं। विवेक से, ज्ञान से, युक्ति से रास्ता चुनने पर सफलता मिल सकती है। विचारों, व्यवहारों में विकास करना है। जेल में दण्ड रूपी पश्चाताप को आया व्यक्ति भी उत्थान की ओर अग्रसर हो सकता है। जेल एक पाठशाला है, यहाँ पर सहज ही मन पवित्र बन सकता है। जिस प्रकार कठिन प्रश्न होने पर ही विद्यार्थियों की कुशलता जानी जाती है, उसी प्रकार रास्ता कठिन ही होना चाहिए। आपत्ति आने पर ही ईश्वर, आत्मा, परमात्मा, कर्म, पुण्य-पाप आदि याद आते हैं। ऐसे जीव भी हैं, जिनका जीवन निन्दतम है, पर वे रास्ते से विमुख हैं। हमारा जन्म जीवन को चलाने के लिए ही नहीं हुआ है, बल्कि उस तरफ जीवन को ले जाना है, जहाँ सुख शांति हो। किसी को मारना ही हत्या नहीं है। महावीर ने वह भी हत्या बताई है, जहाँ राग-द्वेष द्वारा आत्मा की हत्या हो रही है, जिसके कारण चिरकाल पर्यत चार गति रूपी जेल में बन्दी बनना पड़ रहा है। जीव के उत्कर्ष को न मानते हुए उसको नीचा दिखाने के कार्य में लगे हुए हैं यह नहीं विचारते कि सामने जो है, वह भी मैं ही हूँ, वह भी सुख चाहता है, उसके लिए प्रयास जारी है उसका। अगर मैं सुख के रास्ते फूल नहीं बन सकूं तो कम से कम शूल तो नहीं बनूँ। सुख के रास्ते में फूल बन जाये तो वह तो महान् है ही पर अगर शूल भी न बने तो वह भी महान् ही है। हम सामने वाले की पहचान करें। सामने जो सत्ता है उसका भी दर्शन होना चाहिए, उसकी भी ज्योति जले। सामने वाला पेड़ भी उसी सत्ता को लेकर है। हम लोगों ने यही अपराध किया कि अपने से दुर्बल व सबल को ठेस पहुँचाने की चेष्टा की, इसलिए दुख का अनुभव कर रहे हैं। पीड़ा तभी दूर होगी जब दूसरों की पीड़ा भी दृष्टि में आएगी। पेड़ ने स्वयं कभी फलों का रसास्वादन नहीं किया, पर आपको रसास्वादन प्रदान करता है। फलों से आप पेट भर सकते हैं, पर पेड़ का सत्यानाश तो नहीं होना चाहिए। पका फल तोड़ने से भी पेड़ को उसी प्रकार दुख होता है, जिस प्रकार से पके हुए घाव को काटने पर हमको दर्द होता है। अपने जीवन के विकास के लिए दूसरों के जीवन को ठुकराते हुए नहीं बढ़ना। कहा भी है - थी दूसरों की आपदा हरणार्थ अपनी सम्पदा, कहते नहीं थे किन्तु हम करके दिखाते थे सदा। नीचे गिरे तो प्रेम से ऊँचा उठाते थे हमीं, पीछे रहे को घूम कर आगे बढ़ाते थे हमीं ॥ किन्तु! आज दूसरे को उठाना तो दूर रहा, जो आगे बढ़ रहा है, ऊँचा उठ रहा है, उसको लंगी मारकर गिरा देते हैं, रूकावट के लिए बाड़ बनाते हैं। यह नहीं सोचते कि उसके पास भी बल है। हमारे पास जो धन, बल शक्ति है, उससे हमें गिरे हुए को उठाना चाहिए, पतित को पावन बनाना चाहिए, तभी ब्रह्मा, खुदा आदि की कृपा हो सकती है। महावीर ने कहा कि सभी का जीवन अपने समान है, उसके पास भी वह बल है जो हममें है। उनके पास वह शक्ति व्यत है हमारी शक्ति अव्यक्त रूप में है। अन्दर वही आत्मा है जो परमात्मा में, महावीर में है। खुदा के बन्दे हैं, पर बहुत गन्दे हैं। एक बार प्रभु को याद करो कि हे प्रभो ऐसा बल दो कि मैं खुद भी आदर्श के साथ जीऊँ, सारे लोग दृष्टांत के रूप में ले ले। ऐसा विवेक दो कि मैं दुखी का दुख दूर करूं । जो कृतज्ञ है, वही सर्वज्ञ है। जो कृतघ्न व्यक्ति है, वह नर से नारकी, तिर्यञ्च बन सकता है। कृतज्ञ बनने पर सारे अन्धकार हट सकते हैं। दूसरों को जिलाने की, जीवन दान करने की शक्ति हममें नहीं है तो किसी का जीवन लेने का क्या अधिकार है। मारना ही जीवन लेना नहीं है। बल्कि दूसरों का धन लेना, निरपराधी को अपराधी ठहराना भी जीवन लेना है। खून सर्वप्रथम कोई नहीं पीता। क्रूर से क्रूर प्राणी भी अपनी माँ का दूध ही पीते हैं। अत: आज से ऐसी प्रतिज्ञा करो कि अपने जीवन को विकसित बनाएँगे। उस पार्थिव शरीर के द्वारा जो कुछ समय बाद बिखरने वाला है, अच्छे कार्य करेंगे। आखिर में यही कहता हूँ कि जिससे दूसरे का जीवन बिगड़ता हो, बंधन हो, दुख हो, सत्यानाश हो, ऐसा कार्य नहीं करेंगे। कहा भी है - मरहम पट्टी बाँध के वृण का कर उपचार। ऐसा यदि ना हो सके डण्डा तो मत मार ॥
  20. किसी भी कार्य के आदि में यह विचार, निश्चय अवश्य किया जाता है कि मुझे क्या प्राप्त करना है ? वही हमारा अभीष्ट है, जिसे हमने अनादिकाल से प्राप्त नहीं किया, जिसका जीवन परिचय, अनुभव नहीं किया, जो अज्ञात रहा। उसी अज्ञात की खोज के लिए विचार, अध्ययन अनुकरण की आवश्यकता है। संसारी प्राणी अनादिकाल से सुख का रास्ता ढूँढ़ रहे हैं। धर्म की बात करते हुए धर्म के मर्म को आज तक समझा ही नहीं। जिस प्रकार दैनिक कार्य बुद्धि अबुद्धि पूर्वक करते हैं, और खाना खाते, पानी पीते, नींद लेते हुए भी श्वांस लेते हैं, उसी प्रकार धर्म कार्य को अपने जीवन का अंग बनाना होगा। अधिक परिश्रम करना होगा, तभी आप लोगों की कामना, विचार साकार बन सकते हैं। किसी सत्ता के द्वारा कहने पर नहीं, उत्साह के साथ होना चाहिए। हुकुम, दबाव से नहीं, स्वेच्छा से जीवन का अंग बना कर कार्य करना है। सब कुछ भूलना है और योजना बद्ध कार्य करने के लिए जीवन को इसमें लगाना है। जिस प्रकार रोगी व्यक्ति शरीर के स्वास्थ्य के बारे में जानना चाहता है, उसी प्रकार धर्मात्मा को वास्तविक रहस्य के बारे में जानना चाहिए। इसके लिए शरीर भले ही गौण हो जाये पर धर्म को गौण न करें। जीवन सुधार के बारे में आपने कभी सोचा ही नहीं। उस जीवन में क्या विशेषता है जो लाभ हानि का विचार नहीं करता? वैरागी व्यक्ति असंयमी, दुर्जन व्यक्तियों से बात करना पसन्द नहीं करेगा वह वीतरागता को प्राप्त करना चाहेगा, विकास की ओर उन्मुख होगा और रूढ़िवादों से, तीन मूढ़ता से दूर रहेगा। वह स्वतंत्रता, आजादी, मुक्ति के उपाय के बारे में सोचेगा, परतंत्रता, अपाय को छोड़ेगा। सम्यक दृष्टि जीव अविरति होते हुए भी दुष्कुल में जन्म नहीं लेगा, कुरूप नहीं होगा तथा अल्पायु भी नहीं होगा। वह रागी-द्वेषी, असंयमी व्यक्तियों से बातचीत नहीं करेगा। सभी बंधन होना आवश्यक हैं, पर एक तरफ निरबंध होने की दृष्टि होनी चाहिए। धार्मिक क्षेत्रों में बंधन नहीं होना चाहिए। अगर माता-पिता भी धार्मिक कार्यों में बंधन करते हैं तो उन्हें भी गौण कर देना चाहिए। प्रसंग में जो है, वही मुख्य तथा अप्रासंगिक को गौण कर दे, तभी हमारा जीवन सुधरेगा। यह बात सोचने की है। मनुष्य जीवन बहुत दुर्लभता से मिला है। सोची-हम भोगों के लिए नहीं, योग धारण करने के लिए आए हैं। हमारे में वैराग्य के अंकुर क्यों नहीं पैदा हो रहे हैं? आप जब कभी कुछ छोड़ते हैं तो गुस्से में, द्वेष के आवेश में छोड़ते हैं। सीढ़ी चढ़ते-चढ़ते बहुत मुश्किल से विकास हुआ है। अब तो ऐसे उपाय को अपनाओ, जिससे केवल ज्ञान प्राप्त हो। मात्र खाने-पीने, व जन्ममरण की बात नहीं करो, धर्म चर्चा करो। यह जीवन क्या है, अन्दर क्या चीज है। उत्पाद, व्यय, श्रौव्य के बारे में सोची, सत् का विचार करो। समय पाकर, पुद्गल का परिवर्तन होता है, पर जीवन में परिवर्तन क्यों नहीं,? उपयोग में परिवर्तन क्यों नहीं ? इस कान से सुना इस कान से छोड़ दिया। क्रांति व परिवर्तन क्यों नहीं? अपने जीवन में वह क्रांति लाओ जो क्लांति को मिटादे और शांति को प्राप्त करा दे। कुछ दिनों के उपरान्त भगवान् महावीर का तप कल्याण दिवस आ रहा है। निर्वाण से आपको कुछ मिला नहीं, लेकिन कुछ फेंकते हुए जब आप देखेंगे, तब शायद वैराग्य जागृत हो जाए, आपको तब कषायों का उपशम करना ही होगा। भगवान् महावीर ने केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिए 'तप' को अपनाया था, उसे ही साधन बनाया था। इस तप दिवस का उद्घाटन देवर्षि लोगों के द्वारा ही होता है। वे लौकांतिक देव एक भव के बाद ही मोक्ष जाने वाले होते हैं, वो विषयी नहीं होते, मात्र धर्म चर्चा करते हैं वे वीतरागता के गुण गाते हैं। हमारे यहाँ छोटे-बड़े का सवाल नहीं है, जो गुण व ज्ञान में वृद्ध हैं उसकी पूजा है। आज तक आप में गुणों की वृद्धि क्यों नहीं हुई? वैराग्य क्यों नहीं हुआ? यही विचारना है, वरना आपका सारा प्रयास व्यर्थ रहेगा। पुद्गल के साथ जीव में भी परिवर्तन आना चाहिए, मोह के चिह्न दूर होने चाहिए। आप रागी-द्वेषी बनकर संसार की वृद्धि चाह रहे हैं। मुक्ति का रस लो, थोड़ा प्रयास करने पर क्रान्ति आ सकती है। चारों ओर भोग सामग्री जो प्रतीक्षा में है, उसे ठुकरा दो, सूघो भी मत। विचारो-मेरा कुछ भी इनमें नहीं है, ये सारे जड़ है। मेरा तो मात्र चैतन्य है। तपकल्याण के दिन तप को अपनाओ, वास्तविक रहस्य को समझो। गौण को मुख्यता देने पर मूर्खता कहलाएगी। अत: मुख्य को मुख्यता दो।
  21. तम टला, उडुगण चला, प्राची अरुणिमा हो चली, चला मंद, मंद, सुगंध पवन जहाँ पवित्र पावन, पावा उपवन, पवन की इच्छा है, अच्छा होगा, होगा स्वच्छ मम जीवन भी, एक बार सहर्ष, वीर चरण स्पर्श, अन्तिम दर्शन, कर लू!! न जाने अनागत जीवन!! क्या विश्वास? आया न आया शवास। लता के चल पर फूले, फूल दल, फूला न समाते, स्वयं वीर चरणों में, करते समर्पण स्मित सुमन | सन्मति के पद पयोज पर पयोज- पराग- लोलुपी, भव्य अलिगण, गुण गुण गुंजार, नाच नाचते, मान रहे, हम अमर बनेगे, नहीं मरेगे, जो किया सुधा सेवन, अपूर्व संवेदन | धरती अनिमेष निरखती , युगवीर को , धीर को ,गण गंभीर को , स्वंय को धन्यतमा मानती , दर्ग बिन्दुओ से , सिंधु समान महावीर के , कर, पाद प्रक्षालन | पावा उद्यान , आरूढ़ हो ध्यान यान , किया वर्धमान ने निज धाम कि ओर , जो लोकग्र्स्थिति है , द्रुत गति से प्रयाण। कर लो वीर! स्वीकार, मम नमस्कार, बने वे शीघ्र साकार, उठते जो बार-बार विचार, मम मानस तत्न पर ।
  22. एकान्त/अनेकान्त विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार समाजवाद तो सिद्ध परमेष्ठी में है या निगोदिया जीव में है, जो एक साथ अनंत रहते हैं। एकान्त से ज्ञान विकल्प का कारण है, ऐसा नहीं है बल्कि संयत ज्ञान विकल्प से छूटने का कारण है। संयत ज्ञान रक्षक है, पाप कर्म के उदय में ही किसी भी जीव को पाप करने के भाव होते हैं, इसलिए एकान्त से किसी को भी पापी नहीं समझना चाहिए। अनेक यानि बहुत नहीं किन्तु एक नहीं है। एक एकान्त का निषेधक अनेकान्त है, अनेकान्त यानि बहुत नहीं, बल्कि एक नहीं ऐसा अर्थ निकालना चाहिए। छाछ में जो नवनीत के गोले का ऊपर का थोड़ा-सा भाग दिख रहा है, इतना ही नहीं इससे बारह आना अंदर छाछ में डूबा है यह स्वीकारना अनेकान्त है। कारण के सदृश ही कार्य होता है, ऐसा एकान्त नहीं है। संसारी प्राणी दृष्टि में अनेकान्त तो नहीं रखता लेकिन उसे अकेले में, एकान्त में चैन नहीं मिलती पर की ओर ही जाता है।
  23. द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि को देखकर धर्म का प्रचार व प्रसार होता है। एक समय था जब हमारे से भी ज्यादा ऊंची भावना को लेकर लोग धर्म के प्रचार व प्रसार को तैयार थे, पर उस समय राजा लोग धर्म के नाम पर डरते थे। जब हम अधिक सिद्धि के लिए तैयार होते हैं, तब अनेक कठिनाइयाँ खड़ी हो जाती हैं। उस समय के राजा महाराजा अहिंसा से डरते थे। कहते हैं कि समयसमय पर पतन होता चला जा रहा है। चतुर्थ काल की अपेक्षा पंचम काल में धर्म का प्रचार खूब हो सकता है। आज सरकार स्वयं अहिंसा, अपरिग्रह के सिद्धान्तों के प्रचार में लगी है, उसके द्वारा जैन धर्म का समादर हो रहा है। आज हमने ऐसे समय जन्म धारण किया है, जबकि धार्मिक दृष्टि का कहीं विरोध नहीं बल्कि धर्म की महिमा समझने के लिए विद्वान् लोग साहित्य का सृजन कर रहे हैं। और दुनियाँ में उसको प्रस्तुत कर रहे हैं। इसके लिए अनेक सुविधाएँ भी मिल रही हैं। किन्तु जो जैन कुल में जन्म ले चुके हैं, वे इस बात को भूल रहे हैं, वे मात्र जीवन यापन समय मापन करना ठीक समझ रहे हैं। आपका लक्ष्य अहिंसा का संवर्धन ही होना चाहिए ताकि अहिंसा का आलम्बन लेकर प्रत्येक प्राणी संसार से तिरे। भेष बदल ले तो कोई बात नहीं, पर विचार नहीं बदलना चाहिए। विचार बदलने पर धर्म का कार्य आगे बढ़ाने में रुकावट आ जाती है। किसी को यह मालूम न हो कि वता अपना समर्थन कर रहा है। अहिंसा को सामने लाना है। दूसरों के पक्ष का समर्थन करते हुए जो यश मिल चुका, मिल रहा है तथा मिलेगा, वह दूसरों को कष्ट देने व अपनी प्रशंसा करने से नहीं मिला। दूसरों का समर्थन अपने सिद्धान्त का लोप न करते हुए सबके जीवन का विकास हो, उच्च गोत्र का बन्ध हो। जो आप चाहते हैं, वह दूसरों की प्रशंसा में होगा। गुरु का यदि हम आदर करेंगे तो अपने आप वहाँ पर जैन धर्म विश्व धर्म प्रस्थापित हो सकता है। दूसरा यदि निंदा करता है तो समझो हमारी ख्याति, यश फैला रहा है। ऐसा न हो तो दुनिया के सामने विशेषता आती ही नहीं। विरोध न हो तो विकास होता नहीं। हम लोगों को गालिएँ, निंदा, आलोचना रुचती नहीं प्रत्युत स्वयं हम गाली देने की कोशिश करते हैं। भगवान् महावीर ने गाली को आत्म प्रशंसा बताई है। किए हुए दोषों के निवारण के लिए जो विधि विधान करना होता है, उसे प्रतिक्रमण कहते हैं। अगर जब कोई हमारे दोष दूसरों के सामने रखता है तो वह हमारा ही काम करता है, भला करता है। दूसरों से सार वस्तु को लेकर बाकी को छोड़ना, यह बात हमारे दिल में उतर जाये। दूसरे की आलोचना किए बिना अपने आपको धिक्कारना, निन्दा करना। जिस समय प्राणी अपनी आलोचना करता है, वही समय उसके लिए चतुर्थकाल है। आज काल को दोष देकर अपने दोषों का संग्रह किया जाएगा तो भी उद्धार नहीं होगा। आज तक हमने जब कभी आलोचना की अपनी नहीं, दूसरों कि की। महावीर ने, अपनी निंदा आलोचना के लिए कहा। आपका यही मुख्य कार्य होना चाहिए कि जिससे अहिंसा धर्म का विस्तार, प्रचार, प्रसार हो तथा अहिंसा का नारा जन-जन के कानों तक पहुँचे। जैन जाति नहीं, एक मत है, विचारधारा है। विचारों की स्वतन्त्रता जब चली जाती है तब कोई भी तीन काल में भी विकास नहीं कर सकता। दूसरों के अनुरूप शरीर चला सकते हैं, पर विचार नहीं। खाने में, सोने में रहन सहन में भले ही पाबन्दी हो, पर विचारों के बन्धन नहीं होना। भगवान् महावीर ने कहा कि जिसमें विकास हो, हित निहित हो, उसे अपनाओ। नाम, क्षेत्र में विशेषता नहीं। विचारों का प्रचार करने के लिए ऐसे ढंग अपनावें कि दूसरों को आकर्षित कर लेवें और बाद में अपने में मिला लेवें। सर्वप्रथम दूसरों पर अपनी बात थोपना चाहें तो तीन काल में भी यह बात नहीं हो सकती। मात्र कहने से भी प्रभावना नहीं होती। जहाँ प्रभावना करना चाहो, वहाँ जाना पड़ेगा। मन जिस बात को नहीं चाहता उसको हाथ पैर भी नहीं करते। हाथ डरपोक व हाजिर जवाबी है। आर्डर तो, मन के द्वारा होता है। अन्दर का मल धुलने पर ही सम्यग्दर्शन प्रज्ज्वलित होता है। हम मात्र सम्यग्दर्शन की चर्चा करते हैं, उसे अपनाते नहीं, जो इसे अपनाता है वह दूसरों को भी अपनाएगा, उनकी कमियों को दूर करेगा। जब प्राणी को शारीरिक वेदना होती है, तब प्राय: उसका स्खलन हो जाता है। ऐसा स्खलन न हो उसके लिए प्रयास होना आवश्यक है। सम्यग्दृष्टि सेवा करना जानता है। वह दुखी जीवों को देखकर दुखी होता है और उस दुख को दूर करने की चेष्टा भी करता है। दूसरों के दुख को दूर कर अपना रस पिलाओ, अपनी बात कहो, उपादान में जागृति लाने की चेष्टा करो। भगवान् महावीर के संदेशों को पहुँचाने के लिए दूसरों की शारीरिक, आर्थिक, आध्यात्मिक पीड़ा को दूर करना जरूरी है। अगर एक प्राणी को भी लाइन पर लाते हैं तो आपका जीवन सफल हो सकता है। कामना के अभाव में जो काम होता है, वही काम कहलाता है। कहा है कि- 'भूखे पेट भजन न हो गोपाला', ले लो अपनी कण्ठी माला।' अतः पहले भूखे की भूख मिटाओ, कष्ट को दूर करो। अनेकांत का मतलब सभी से मिलकर चलने वाला धर्म। धर्म को सामने रखकर चलो, पीछे रखकर नहीं, यह रूढ़िवाद का समर्थन नहीं है। अन्दर जो त्रैकालिक सत्ता है उसके विकास के लिए कार्य करना है, जीवों के विकास के लिए कार्य करना है। यह समय जो मिला है, वह फिर नहीं मिलेगा।
  24. एकता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार एक में हर्ष तो हो सकता है, लेकिन संघर्ष एक में नहीं दो के बीच में ही होगा। जहाँ एकता होती है, वहाँ वात्सल्य रहता है। १ के सामने १ रखो ११ होते हैं। घर में एक, एक ही रहो लेकिन समाज में आते ही ११ हो जावे तो बहुत अच्छा होगा। मकान बनाने में प्रत्येक चीप (पत्थर का छोटा-सा टुकड़ा) भी चीफ का कार्य करती है। एकता के द्वारा बड़े-बड़े कार्य भी सहजता से एवं कम समय में पूर्ण हो जाते हैं। जैसे एक हाथ लिख रहा है तो दूसरा हाथ विश्राम नहीं करता वह भी सहयोग देता है। एक आँख जिस ओर देखती है, दूसरी भी उसका सहयोग देती है। एक कहती है तुम देखती रहो हम सहयोग दे रहे हैं, यही तो एकता का प्रतीक है। बच्चा जैसे बातों को जल्दी भूलता है वैसे ही हमें एक दूसरे की गलती को जल्दी भूल जाना चाहिए। समाज में एकता है, तभी तक वह समाज कहलावेगी, व्यक्तियों की संख्या का नाम समाज नहीं है। दर्जी (टेलर) के यहाँ मशीन में एक लड़ी (गिट्टी)में धागा आता है, और सटल से नीचे से भी एक धागा आता है! दोनों मिलकर सिलाई प्रारम्भ कर देते हैं। सिलने में कितने भी धागे (सूत्र) हों, कार्य एक ही स्थान पर एक ही होता है सिलाई का। एक आँख आ जाती है तो दूसरी आँख में आँसू आने लगते हैं, वे भाई-भाई जैसी हैं। एक दूसरे के पूरक बने बिना लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकते। मुट्ठी से पदार्थ आसानी से फोड़ा जा सकता है, कनिष्ठा आगे रहती है कोई अपने को छोटा बड़ा न समझे। लाख चाहिए तो मुट्ठी बंधी रखो वरन् राख। कुछ दिन रहना है तो वात्सल्य, एकता के साथ रहो बहुत प्रतीक्षा के बाद नर तन मिलता है। संसार का चक्कर छूटता नहीं, प्रभु की भक्ति के लिए कुछ क्षण निकालो। भवन में कितने छोटे-बड़े पत्थर लगते हैं पता नहीं, छोटी चीप भी चीफ का काम करती है। एक माला तब बनती है, जब बहुत सारे मोती रहते हैं, एक सूत्र में बंधे होते हैं। एक दूसरे का सहयोग आपेक्षित रहता है। नारंगी की कलियाँ छिलके से बंधकर रहें वरन् सूख जावेगी। एक दूसरे से मिलते, मिलाते जाओ तो धर्म की वृद्धि होती जावेगी।
  25. ऊर्ध्वगमन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार कर्मों के उदय से ऊर्ध्वगमन नहीं होता बल्कि कर्मों के पूर्ण अभाव में जीव का ऊर्ध्वगमन होता है।
×
×
  • Create New...