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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 52 - दृष्टि बदलो

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    उत्तम दृष्टि की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम हमें रूढ़िवाद का विमोचन करना पड़ेगा। रूढ़िवाद आते ही विचारों की श्रृंखला को ठेस पहुँचती है, और हित अहित का विचार भी नहीं हो पाता है, तथा जीवन के विकास के लिए जो दृष्टि होती है उसे भी विश्राम दे देते हैं। एक ही संसार होता और उसे समाप्त करने के लिए सब इकट्ठे हो जाते तो भी ठीक था, पर अनन्त जीव हैं और अनन्त संसार है। रूढ़िवाद एक ऐसा विष, जहर है जो मोक्ष मार्ग रूपी अमृत में भी विष फैला देता है। बहुत सारे दूध के लिए थोड़ा नमक ही काफी है और दूध फट जाएगा। उसी प्रकार मोक्ष मार्ग महान् पवित्र चीज है, उसके लिए उसी प्रकार का पात्र चाहिए। जिस प्रकार सिंहनी का दूध स्वर्ण पात्र में ही ठहरता है, उसी प्रकार बाहरी बातों से रहित होने पर ही सम्यक दर्शन टिक सकता है। अपने में जो कमी है, उसे निकालने के लिए प्ररूपणा है। स्वतन्त्र विचार और आचरण होना चाहिए। अपने में जो दोष है, जो बाधक है, उन्हें निकालना है। हमारे कपड़े मैले हो जाने पर हमारे कपड़े ही धोने पड़ेंगे दूसरे के नहीं।

     

    जितने-जितने भी क्रिया अनुष्ठान कर रहे हैं, पर अगर अंतरंगभाव, उपादान कारणों में उनसे निर्मलता नहीं आती तो सब बेकार है। आचार्यों ने तीन मूढ़ता बताई हैं उसमें सबसे पहले देव मूढ़ता है। रागद्वेष जिसके निकल चुके हैं वही, चाहे शंकर, विष्णु, ब्रह्मा कोई भी हो पूज्य है, देवता है, बाकी को देवता मानना मूढ़ता है। वीतरागी देवों के आदर्श को देखकर अपने मुख को स्वच्छ कर सकते हैं। भगवान् की इस मूर्ति को भी अपने विचारों में अपने आचरणों के द्वारा कुदेव बना लेते हैं। भगवान् तो कुदेव नहीं है, पर बना लेते हैं। भगवान् में जो देखना चाहिए वह रूप हमें देखने में नहीं आता तो कुदेव हैं। वीतराग मूर्ति को देखकर वीतराग भाव न आवे और हमारी दृष्टि यदि विषय वासना की ओर हो तो वह मूर्ति कुदेव है। भगवान् के समवसरण में जाकर भी जीवों में कुछ अन्य विचार हो जाता है, मंद-मंद पवन को देखकर बाहर ही रुक जावें और अन्दर न जाकर इधरउधर की बातें कर विषयों में फैंस जाते हैं। विषयों के विचार चालू हो जाते हैं तो उसके लिए भगवान् के दरवाजे बन्द हो जाते हैं और वह मूर्ख ही होगा। वीतराग भगवान् के पास जाने पर भी खाना, पीना, विषयों, वित्त वैभव की कल्पना उठने पर मूर्ति भी उसी रूप नजर आएगी। उसका शरीर, छत्र, चंवर, सिंहासन ही दिखेगा। वीतरागता नहीं दिखेगी। विषय अनर्पित है और वीतरागता अर्पित है। कहा भी है - 

     

    दीवार है अमित औ अवरूद्ध द्वार।

    क्यों ही प्रवेश निज में जब हैं विकार ॥

    कैसे सुने जबकि अन्दर मुक्ति नार।

    जो आप बाहर खड़े, करते पुकार ॥

    आप लोगों ने विकार उपस्थित कर अन्दर प्रवेश के लिए द्वार को अवरुद्ध कर दिया। सबको छोड़कर अन्दर प्रवेश करना होगा। अन्दर से अन्दर भिन्न-भिन्न चित्र मिलेंगे और महावीर भगवान् जहाँ विराजमान हैं, वहाँ भी प्रवेश हो जायेगा। मिथ्या दृष्टि भी वहाँ जाता है, उसकी दृष्टि महावीर पर नहीं, छत्र, भामंडल आदि पर जाएगी, वह व्यक्ति अन्तिम लक्ष्य से वंचित रह जायेगा। वो मुद्रा जब तक आँखों में नहीं उतरती, तब तक विचार ही नहीं कि क्या सम्यक दर्शन, क्या मुक्ति, क्या संसार, क्या विकार है ?

     

    घर में जो धन था, वह यहाँ पर भी है, पर धन तो बेड़ी है चाहे बेड़ी सोने की हो, चाहे लोहे की। बंधन तो बंधन ही है। सोने की बेड़ी की कदर महावीर के दरबार में नहीं, सोने के बाजार में है। जिस चीज से इन्द्रियाँ पुष्ट हो जायें, उसे देखने महावीर के पास आएगा, तो महावीर को आप नहीं पहचानेंगे। बल्कि तोलेंगे कि उनके पास वित्त वैभव है, पर मेरे पास नहीं है, इसलिए बड़े हैं। महावीर तो इन चीजों से अनोखी चीज हैं। इनमें नहीं, इनसे परे हैं। उनकी उपासना करते हैं, तब वह देव सत् देव कहलाते हैं। धर्म की ओट में हम फिर संसार वृद्धि के कारणों का समादर करने लग जाये तो मूढ़ता ही है। सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्र की एकता के धारक वीतराग महावीर भगवान् हैं। इन बाहरी चीजों से अलग हैं, बाहरी पदार्थों को उन्होंने लात मारी थी। दुनियाँ जिसे अपनाती, उसे देखते भी नहीं, परे रहते हैं, ऐसा विचार करने पर हमारी पुकार वहाँ तक पहुँचेगी। वरना आवाज दीवारों से टकराकर हमारे कानों तक लौट आएगी।

     

    सद्भाव के अभाव में हमारे विचार वहाँ तक नहीं पहुँच सकते। महावीर के मन में जो विचार आया उसे करने के लिए दूसरे को स्वीकृति नहीं दी, स्वयं ने किया, इसलिए उन्हें स्वयंभू कहते हैं। जब हम सम्यक दर्शन तक चले जाते हैं, तब भी हमें स्वयंभू बनना चाहिए। जो स्वयंभू हैं, उनके रास्ते को अपनाना चाहिए। उस रूप जो विश्वास है, वह सम्यक दर्शन की ओर बढ़ता चला जाता है। पर हमारी दशा वही है, जो पहले थी। हमारी चाल टेढ़ी है। हमें यह सोचना चाहिए कि वह कार्य न करें जिससे संक्लेश हो जाये, वह कार्य बाधक बन जाये, वह कार्य तो हितू बनना चाहिए। हम अनादि से अपनाते-अपनाते चले आ रहे हैं, पर दुर्लभतम वस्तु को खोते आ रहे हैं।

     

    मूढ़ताओं के द्वारा दृष्टि समीचीन नहीं बनती, कमियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। एक को रोता देखकर सब रोने नहीं लगे। विचार करके काम करो, रूढ़िवाद को छोड़ो। इनके पीछे पड़कर आत्मा ने मोक्ष मार्ग की कीमत नहीं आंकी। संसार, व्रत, नियम आदि के बारे में नहीं सोचा। अत: विचार सुदृढ़ बनाओ, विश्वास ठीक जमाओ। ज्ञान तो वर्तमान है, उसे समीचीन बनाने के लिए आगम में जो उल्लेख है, उसी अनुरूप बनें। मूढ़ताओं से दूर रहकर जीवन को विकास की ओर ले जायें, तभी मंजिल आएगी। ऐसा न करने पर जीवन अपूर्ण से पूर्ण न बनेगा और संसार का अन्त न होगा। अत: शक्ति जो महावीर में है, वह शक्ति विद्यमान करो, गल्तियों को सुधारो। २-३ दिन के उपरांत भगवान् महावीर का तप कल्याणक दिवस आ रहा है, उसमें यह प्रयास हो कि मूढ़ताओं, रूढ़िवादों को छोड़, विचारों को साकार बनाकर, महावीर जिस ओर गये, उधर ही जायें। वरना तो अनेकों कल्याण तिथियाँ आएंगी, आ रहीं हैं और चली जा रहीं हैं। अत: भूले व्यक्ति को सजग हो जाना चाहिए।


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    दीवार है अमित औ अवरूद्ध द्वार।

    क्यों ही प्रवेश निज में जब हैं विकार ॥

    कैसे सुने जबकि अन्दर मुक्ति नार।

    जो आप बाहर खड़े, करते पुकार ॥

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