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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 45 - चारित्र सबसे बड़ा

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    जो श्रद्धा आप लोगों को देवदर्शन, स्वाध्याय व अच्छे कार्यों के द्वारा प्राप्त हो चुकी है, वह निर्दोष पले एवं दिनों दिन वृद्धि को प्राप्त हो, इसके लिए मद रूपी भावों का विमोचन करें। यह मद कभी सम्यक दर्शन को लेकर उत्पन्न नहीं होता है। सम्यक दर्शन के जो विरोधक हैं, उनको तथा मदों को हटाना चाहिए। मद तब उत्पन्न होते हैं, जब हमारी आस्था परम देव, शास्त्र गुरु में कम दिखाई पड़ती है। मद उत्पन्न करने योग्य जो पदार्थ है, उनसे दूर रहे। सम्यक दर्शन, श्रद्धा जो उत्पन्न हुई है, उसके लिए बहुत काल व्यतीत करना पड़ा है। आस्था को अविनाशी बनाने के लिए परिणामों में कमी है। आज क्षायोपशमिक श्रद्धा ही हो सकती है। जो आस्था आप लोगों को हुई है उसको सुरक्षित रखने के लिए मदों से दूर हटने की चेष्टा करें।

     

    जब चारित्र सम्यक्त्व के साथ रहता है, तब वह सम्यक्त्वाचरण चारित्र कहलाता है। सम्यक दर्शन के विरोधक पदार्थ यहाँ बहुत मौजूद हैं, उनको रोकने के लिए जो आपकी श्रद्धा हुई है उसे मजबूत करने वाला सम्यक्त्वाचरण चारित्र है। इसके बिना सम्यक दर्शन को सुरक्षित नहीं रख सकते। आप लोग यह कहते हैं कि चारित्र मोहनीय का उदय है, इसलिए चारित्र नहीं धारण कर सकते। इसका मतलब यह है कि या तो आपके पास सम्यक दर्शन नहीं है या सम्यक दर्शन है तो सुरक्षित नहीं रह सकता। सम्यक दर्शन के साथ देव आयु का बन्ध हो गया हो तो वह चारित्र की तरफ अवश्य झुकेगा। अथवा सम्यक दर्शन के साथ मनुष्य आयु या नरक, तिर्यञ्च आयु का बन्ध हो गया हो तो वह गत्यांतर सम्यक दर्शन को ले जा नहीं सकता कारण कि यह सिद्धान्त की प्ररूपणा है। जो सम्यक दर्शन के साथ उपरोक्त इन गतियों को प्राप्त करेगा तो क्षायोपशमिक सम्यक दृष्टि ही होगा। आज किन्तु क्षायिक सम्यक्त्व यहाँ नहीं है इसलिए अन्त समय में सम्यक दर्शन अवश्य छूटेगा। मनुष्य आयु का दुबारा बन्ध करने पर सम्यक दर्शन अवश्य छूटेगा।

     

    अत: चारित्र को अवश्य ही अपनाना पड़ेगा नहीं तो सम्यक दर्शन अवश्य छूटेगा, क्योंकि यह बहुत कम समय के लिए उत्पन्न होता है। जिस प्रकार पांव में चोट आने पर हड़ी टूट जाने पर वापस कुछ देर में बैठ तो जाएगी, लेकिन पांव को सुरक्षित रखने के लिए उसी हालत में रखना पड़ेगा, पट्टा भी शायद बंधेगा। इसी प्रकार देव दर्शन, गुरु उपदेश सुनकर जो भाव उत्पन्न होते है, उन्हें स्थिर रखने के लिए उसी के अनुरूप चारित्र को धारण करना पड़ेगा। सम्यक दर्शन होता तो है पर सुरक्षा जरूरी है। जिस प्रकार पैर तो ठीक हो गया पर सुरक्षा के लिए समय लगेगा। जिस प्रकार घोड़े के लगाम होने के बाद भी उसकी दोनों आँखों की साइड में और कवर (पट्टा) रहता है ताकि वह सिर्फ सामने रास्ते को देखे, इधर-उधर नहीं। उसी प्रकार सम्यक दर्शन होने के बाद भी उसे सुरक्षित रखने के लिए उसी प्रकार की दृष्टि हो, स्वच्छन्द विचार न हो, उसके लिए चारित्र की आवश्यकता है। सम्यक दर्शन तो एक भाव है जो कुछ देर के लिए होता है। आप लोग भले ही पैर की सुरक्षा के लिए उसी अनुरूप रहेंगे पर सम्यक दर्शन की सुरक्षा के लिए नहीं चाहेंगे। जो अनन्त संसार को काटना चाहता है, वह सामायिक आदि बन्धन को भी अपना लेगा। हमारी दृष्टि मौलिक चीज की ओर जाती ही नहीं, आपने तो उन चीजों को महत्व दे रखा है जो संसार का विकास करने वाली है। अत: सम्यक दर्शन रूपी भूमिका के अनुरूप चरित्र को अपनाना जरूरी है वरना हमारा जीवन इसके बिना अधूरा ही रह जाएगा। चारित्र के अनुपालन से ही दृष्टि बिल्कुल सुदृढ़ बन सकती है। जब दृष्टि में स्खलन होता है तब चारित्र में भी स्खलन हो जाता है। अत: मद नहीं करना चाहिए, रुढ़िवाद को नहीं अपनाना चाहिए। सम्यक दर्शन प्राथमिक दशा में अधूरा रहता है, चारित्र धारण करने पर धीरे-धीरे कमियाँ दूर होती हैं, पूर्ण चारित्र बाद में होता है। मद धीरे-धीरे मिटता है।

     

    आज क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता है पर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व तो होता है। इनमें यही फरक है जितना जवान व बुड़े के द्वारा हाथ में लाठी पकड़ने में है। जवान लाठी को मजबूती से पकड़ेगा पर वृद्ध के हाथ में लाठी हिलती रहेगी, शायद गिर भी जावे। अत: आपका सम्यक्त्व छूट सकता है पर क्षायिक सम्यक्त्व नहीं। जिस प्रकार पैर ठीक करवाने के लिए उसी रूप में रहते हैं, उसी प्रकार सम्यक दर्शन को ठीक रखने के लिए उसी रूप में रहकर शांति का अनुभव करो। मंजिल तक पहुँचाने के लिए दृष्टि मंजिल तक नहीं पहुँचाएगी पर चारित्र पहुँचाएगा। ज्ञान जानने के लिए है। जिस पर श्रद्धान विश्वास हो गया, उसका अनुभव करने के लिए चारित्र की आवश्यकता है। दर्शन व ज्ञान के लिए ज्यादा समय की आवश्यकता नहीं, पर चारित्र के लिए समय की जरूरत है।विश्वास केवल सम्यक दर्शन व ज्ञान का ही नहीं होता, विश्वास आँखों के द्वारा देखने पर होता है।आँखों के द्वारा दर्शन व ज्ञान नहीं दिखता, पर सम्यक्रचारित्र ही आँखों के द्वारा दिखता है। चारित्र वीतराग ही बनना है। अनादिकाल से रागरूपी आग से इतनी जलन हो रही है, जिसका विश्लेषण कोटि जिह्वा वाला करने में भी असमर्थ है। वीतरागता को धारण न करने पर ही दुख का अनुभव हो रहा है। इस लोक में सिद्ध परमेष्ठी सुख का अनुभव कर रहे हैं, और आप लोग दुख का अनुभव कर रहे हैं। दुख का अनुभव सम्यक दर्शन व ज्ञान के साथ भी है, अगर समता नहीं है। सम्यक दर्शन के साथ-साथ चारित्र हो तो आप भी बहुत सुख का अनुभव कर सकते हैं। सुख की प्राप्ति के लिए चाहे धन-दौलत, वैभव सब कुछ चला जाये तो कोई बात नहीं। सम्यक दृष्टि अपने भावों से चारित्र का ही छोंक लगाता है। उस सम्यक दर्शन के साथ आपकी आस्था, विश्वास नहीं है जो वीतरागता के साथ है। मनुष्य आयु का बन्ध जिसके है वह चारित्र को नहीं अपना सकता है। मनुष्य आयु का बन्ध होने पर सम्यक दर्शन भी साथ नहीं जाएगा यहीं छूटेगा। अत: उसे सुरक्षित रखने के लिए तीनों समय एक दो घंटे सामायिक करो, स्वाध्याय करो। आप पिक्चर लगातार ३ घण्टे देख सकते हैं, पर सामायिक नहीं। सामायिक में तो नींद भी आती है, पिक्चर में नहीं आती-ध्यान एक तरफ बना रहता है। इसका यही अर्थ है कि सामायिक में अविश्वास तथा पिक्चर में विश्वास है। सामायिक में असंख्यात गुणी निर्जरा बताई है। सारे विषय कषाय उसमें छूट जाते हैं। कुछ समय के लिए यही भावना होनी चाहिए। हेयोपादेय की बुद्धि जागृत होने पर एक बार सूचना देने पर विवेक द्वारा काम चालू करना चाहिए। बार-बार कहने की जरूरत नहीं। आपने आत्माराम को तो एक तरफ रख दिया है और बहिरात्मा की उपासना चालू कर दी है। चौबीस घण्टे बाहरी काम में लगे रहते हैं।

     

    भरत चक्रवर्ती दिग्विजय करने भी गये तो भी तीनों समय सामायिक करते थे, आत्मा का चिंतन करते थे। इसे कहते हैं गृद्धता का अभाव, भोगों में अनासति। इसीलिए कहा है कि ‘वैभव को काक वीट सम गिनत हैं सम्यक दृष्टि लोग”। आज चेतन के द्वारा अचेतन की पूजा हो रही है, जीवन का लक्ष्य कहाँ है? अत: प्रवचन सुनकर एक घण्टा आस्था में वृद्धि हो गई है, आपने आत्मा के बारे में सुना है, अतः चारित्र के बिना अब कोई शरण नहीं है, आस्था तभी सुरक्षित रह सकती है। दृष्टि जो स्खलित थी, उसे चारित्र द्वारा जोड़ लगा दो, तभी वह स्थिर रहेगी।


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