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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 48 - विषय है - विष सम

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    जिन चीजों के द्वारा आत्मा का अध:पतन हो रहा है, जिन कारणों के द्वारा संसार वृद्धि का कारण हो रहा है, हम उन्हें मिटाकर ही शांति का अनुभव कर सकते हैं। जिस कार्य को करते हैं, उसे पूर्ण करने के लिए उसी प्रकार की चेष्टा करना है। आचार्य महोदय सोच रहे हैं कि इस जीव का उद्धार कैसे हो? उसके लिए एक बार ऐसा परिश्रम हो जाये, जिससे सुख की प्राप्ति हो। आगम में, शास्त्रों में, सभी में यही गूँज है, कोई रहस्य है कि व्यक्ति के शाश्वत सुख में साधक व बाधक कौन है। कौन हित चाहता है और कौन अहित चाहता है। दुनियाँ का प्राणी हित चाहता है, कोई भी अहित नहीं चाहता है। पर अनादि से अनंत दुख का अनुभव कर रहा है। हमारे आचार्यों ने ही नहीं, सभी ने मोक्ष को माना है। मोक्ष को मानने में किसी के यहाँ विरोध नहीं है। सुख की प्राप्ति में विसंवाद नहीं है। सुख सब चाह रहे हैं। पर सुख के मार्ग के बारे में भिन्न भिन्न विचार है। कोई भौतिक सुखों को ही सुख मानता है, कोई अन्य बातों को लेकर। मोक्ष का मार्ग आज तक जिसे अपनाया, जिसका विश्वास रखा वह मार्ग नहीं। अच्छे कारणों, मार्गों (जिसे आज तक नहीं अपनाया) के अभाव में अभीष्ट की प्राप्ति नहीं है। असली बात मालूम होने पर ज्यादा प्रयास नहीं, मार्ग फिर सरल बन जाता है, फिर डर कोई चीज नहीं। आपने सुख प्राप्ति के लिए अनन्तकाल तक प्रयास किया, एक सैकेंड भी बेकार नहीं किया पर आपके विचार साकार नहीं हुए। हम जो चाहते हैं,उसके अनुरूप कार्य हो। कहा भी है -

     

    आतम हित हेतु विराग ज्ञान, ते लखे आपको कष्टदान

    आचार्यों ने अपने जीवन की मौलिक घड़ियों को व्यतीत कर अपने ज्ञान व अनुभव के द्वारा बताया कि जहाँ राग है, द्वेष है, विषय-कषाय, मद मात्सर्य है, विपरीत भाव है, वहाँ कोई सुख देने वाला नहीं है, दुख ही देंगे। दुख के साधनों में सुख का विकल्प कर लेना, यही विपरीत दृष्टि है। सुख के साधनों को दुख का कारण मान रखा है, यही भ्रांति है। यह जैन धर्म का सार है। कर्म तीन प्रकार के बताए हैं। प्रथम तो ज्ञानावरणादि आठ कर्म जिन्हें द्रव्य कर्म भी कहते हैं। द्वितीय शरीरादि नोकर्म और तीसरा रागादि जो वास्तविक आत्मा के साथ तादात्म्य को लेकर है। शरीर को आत्मा से भिन्न मान रहे हैं, उसी प्रकार आत्मा से कर्म भी भिन्न है, यह भी कह देंगे, लेकिन जो राग-द्वेष तीसरा है वे भी आत्मा से भिन्न हैं ऐसा विदित हो तभी कल्याण है। मोह मात्सर्य बन्ध के कारण हैं। मुक्ति तो चाहते हैं और बन्ध को अपना रखा है, वह कितनी भ्रांति है। यह मान लो कि हम राग करेंगे तो हमारे लिए वहाँ का वातावरण बन्ध रूप होगा और वहीं वीतरागी के लिए बन्धन रूप नहीं। वातावरण एक ही है पर एक के लिए दुख का तथा एक के लिए सुख का कारण है। रेशम के कीड़े की तरह संसारी जीवों की चाल हो रही है। रेशम का कीड़ा मुँह से लार निकालता हुआ अपने को वेष्टित कर लेता है, जिसके कारण गर्म पानी में डालने पर वह स्वयं भी मर जाता है, अगर मुख से लार न निकाले तो न मरे। हम वास्तविक स्वभाव को छोड़कर अन्यत्र भाग रहे हैं जहाँ हमारे जीवन का सार, अन्वेषण सब लग जाते हैं और वहीं से सुख प्राप्त करने की कोशिश करते रहते हैं अनन्त काल से। फिर भी मन वांछित कार्य सम्पन्न नहीं हो रहा है, तथा अनन्तकाल तक नहीं होगा। जो राग नहीं करता, उसे कुछ भी करने की जरूरत नहीं, यहाँ तक कि भगवान् की भक्ति भी नहीं। आप मुक्ति चाहते हैं तो सोचो कि बन्ध का स्वरूप क्या है ? उसका कारण क्या है ? उसे छोड़ी। शास्त्र किस लिए पढ़ रहे हैं ? यह सोच कर कि कामना पूर्ण होगी, मुक्ति चाह रहे हैं, तभी शास्त्र पढ़ रहे हैं।

     

    मुक्ति के बारे में ज्यादा विचार करने की जरूरत नहीं। फल प्राप्त करने पर कीमत नहीं जब तक फल प्राप्त न हो, तब तक कीमत है। राग द्वेष को जो मोह की पर्याय है सामने पदार्थों में वास्तविक ज्ञान न होने पर आत्मा में राग द्वेष परिणाम होते हैं, जो बन्धन है। जो वीतराग परिणाम रखता है, वह मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। जिसके राग नहीं है, वह मुक्ति को पा लेता है। दो मुख्य द्रव्य हैं, एक जीव द्रव्य और दूसरा पुद्गल द्रव्य। पुद्गल के राग नहीं है, वह वीतरागी भी नहीं है, वह तो अरागी है, अद्वेषी है। अराग और वीतराग में बहुत अन्तर है। जीव रागी है, वह वीतरागी बन सकता है। पुद्गल जड़ की महिमा है तो यह चेतन की महिमा है। आप वीतरागी बनेंगे तो बन्धन से मुक्त हो सकते हैं, पुरुषार्थ की आवश्यकता है। अखण्ड द्रव्य 'मैं' हूँ, सारे द्रव्य क्षणिक है। इनसे सुख का अनुभव नहीं अखण्ड सुख का अनुभव वीतरागी बनने से है। मोक्षमार्ग में ज्ञानावरण का क्षयोपशम कारण नहीं है। संज्ञी पंचेन्द्रिय बन जाये, इतना ही ज्ञानावरण क्षयोपशम मुक्ति के लिए पर्याप्त है। आगे मोह का क्षयोपशम अनिवार्य है। वीतरागी बनने की चेष्टा अनन्त शक्ति को प्राप्त करा सकती है। जितने-जितने वीतरागी बनेंगे, उतने-उतने वीर बनेंगे और जितने-जितने रागी बनेंगे,उतने-उतने डरपोक, कायर बनेंगे। वीतरागी कैसी भी समस्या आए, वह सोचेगा कि मेरे ऊपर कोई प्रहार नहीं फिर भय कैसा ? वह आत्मा का स्वभाव है अमूर्त है। अमूर्त पर मूर्त का प्रहार नहीं हो सकता। रागी सोचेगा कि मैं नष्ट हो सकता हूँ, मिट सकता हूँ, इसीलिए राग-द्वेष है। जो इनको जहर समझता है, विषयों को विष समान गिनता है, वह आज भी उस सुख का अनुभव करता है। जो बड़े-बड़े महलों में राजा महाराजा, सेठ साहूकार नहीं कर सकते हैं। इनके सिर पर इतना भार है कि आत्मा दब रही है और बाहर पुद्गल का विस्तार है। सुख की अनुभूति आत्मा में है, राग-द्वेष में परिणति नहीं जानी चाहिए। इनके बारे में जो सोचे कि ये मेरे नहीं है, मेरा स्वभाव नहीं है, वह व्यक्ति बनती कोशिश राग-द्वेष को घटाएगा और मोक्ष मार्ग को अपनाएगा, संसार मार्ग को नहीं अपनाएगा। चाहे दुनिया उसे पागल समझे, वह स्वयं भी दुनियाँ को पागल ही समझता है। दोनों का रास्ता भिन्न-भिन्न है, किसी ने बड़ा अच्छा कहा है कि -

     

    इन्हीं बिगड़े दिमागों में, घने खुशियों के लच्छे हैं।

    हमें पागल ही रहने दो, कि हम पागल ही अच्छे हैं ||

    वीतरागी प्राणी दुनियाँ के कहने पर नहीं चलेगा, सिद्धान्त के अनुसार चलेगा। आज दुनियाँ से डरकर सिद्धान्त को पीछे छोड़ देते हैं, वे अपनी आत्मा को दबाने व गर्त में ले जाने की चेष्टा करते हैं। ज्ञान जब तक नहीं है, तब तक तो लुढ़क सकता है, पर विवेक होने पर आत्मानुभूति होने पर विषय को विष और वीतरागता को अमृत समझता है। वह जहर पीने की चेष्टा नहीं करेगा वह सोचेगा कि आज तक मुझे दुख इसी के द्वारा हुआ है। वह जो वीतराग रूपी अमृत की खान है, वहाँ जाता है, वह विचारता है कि कब वीतरागी बनूँ, इसी में सार है।

     

    दूष्ट्वा भवंतमनिमेष विलोकनीय।

    नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षु ॥

    पीत्वापयः शशिकर द्युति दुग्ध सिंधोः,

    क्षारं जलं जलनिधे रसितुं क इच्छेत् ॥११॥

      भत्तामर की यह कारिका बोलने में सुहावनी है, आप यही कहेंगे। पर इसका अर्थ भी बहुत सुहावना है, इसमें रस क्या है ? यह देख लो। एक बार आत्मा का दर्शन होने पर दृष्टि दूसरी ओर जाती ही नहीं। रस का स्वादी व्यक्ति भले ही दस दिन भूखा रह लेगा पर बढ़िया बढ़िया हल्वे में ही रस लेगा। वह बाजरे की रोटी व चटनी में रस नहीं पाता। अन्यत्र बाहरी पदार्थों के लिए दौड़ने की चेष्टा होती है, पर आत्म रस के लिए कहीं भागने की जरूरत नहीं। पर ऐसा आत्म विश्वास जमना चाहिए। आत्म सुधार के लिए वैसा करना है, जैसा शास्त्रों में लिखा है।

     

    युगों-युगों से हमारे लिए आचार्यों ने कहा, उपदेश दिया, आचरण करके बता दिया पर कोई उसे नहीं अपनाता है। हम तो शास्त्रों में लिखा है, वही बता रहे, मात्र एजेंट का काम कर रहे हैं। हमें तो कमीशन मिलता रहेगा। आचार्यों की आज्ञा है उपदेश देते जाओ, लाभ होता रहेगा। घाटा आपको ही है, हमको नहीं। आपके लिए प्रशस्त मार्ग यही है कि राग को छोड़ दो। किसी ने कहा है कि :-

     

    चेहरे में चेहरे हैं,

    बहुत ही गहरे हैं,

    किन्तु, खेद है

    त्याग के क्षेत्र में

    अन्धे और बहरे हैं।

    त्याग के क्षेत्र में बहरे नहीं बनना है, जीवन को सुलटाना है। विषय-वासना का विमोचन करने में पसीना नहीं लाना है। वीतराग होने में कठिनाई नहीं है। कर्म का उदय तो अनादिकाल से आ रहा है व आता रहेगा फिर आपका पुरुषार्थ किस काम का है ? आगम के अनुकूल चल कर आप विषय-कषायों को छोड़ सकते हैं। भगवान् महावीर ने भी १२ वर्ष तक प्रयास किया, जबकि वे वज़वृषभनाराच संहनन वाले थे। मति, श्रुति, अवधिज्ञान के धारक थे, उन्हें भी १२ साल लगे। आप लोगों ने आज तक प्रयास-ही नहीं किया मात्र अपनाते-अपनाते चले गये, पीछे मुड़ कर देखा ही नहीं कि कितनी भीड़ लग गई है। भीड़ समाप्त हो सकती है। दरवाजा बन्द करके देखने से। कुछ समय प्रयास करेंगे तो आपका हित हो सकता है। विषय वासना को विष आत्मा को अमृत समझी।


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    बहुत ही गहरे हैं,

    किन्तु, खेद है

    त्याग के क्षेत्र में

    अन्धे और बहरे हैं।

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