यह लोक छह द्रव्यों के द्वारा भरा हुआ है। यहाँ ऐसा कोई भी स्थान रित नहीं है, जहाँ ६ द्रव्य नहीं पाये जाते हों। जहाँ जीव द्रव्य है तो वहाँ पुद्गल द्रव्य भी है। उनका सबका अपने-अपने स्वभाव के अनुरूप भिन्न-भिन्न परिणमन होता रहता है और अनंतकाल से यही हो रहा है। इस लोक में इस जीव को सुख की प्राप्ति क्यों नहीं हो रही है? इसके लिए महान् आत्माओं ने रास्ते बताये हैं। दुख का अनुभव हो रहा है एक मात्र विषमता के कारण तथा समता के अभाव में। जब समता का प्रादुर्भाव होगा तब सौभाग्य का द्वार खुल जायेगा। लोग भविष्य के बारे में सोचते हैं वे जीवन को सुखमय शांतिमय और समृद्धिमय बनाना चाहते हैं, तो उन्हें वर्तमान को नहीं खोना चाहिए। जो वर्तमान को खोता है, वह मूर्ख है।
जिस उद्देश्य को लेकर पाँच माह पूर्व आपने अजमेर में चातुर्मास स्थापना की विनती की थी। आज चातुर्मास समापन होने जा रहा है। इस ६ द्रव्यरूपी लोक में हमारा क्या कर्तव्य है, क्या धर्म है ? जिस काल की प्रतीक्षा की थी चातुर्मास के पहले वह चला गया। उस समय विचार किया था कि कब हम संघ को लावें और चातुर्मास की स्थापना करावें। वह समय भी चला गया। अन्य द्रव्यों पर तो आपका कुछ अधिकार हो सकता है, पर काल द्रव्य पर अधिकार नहीं हो सकता। जब काल जाता है, तब वह अन्य द्रव्यों में भी परिवर्तन लाता है। पाँच माह में दुर्लभ से दुर्लभ गणधरों के मुख से बिखरी जिनवाणी का श्रवण, मनन व चिंतन किया है, उसी के अनुरूप आपने भावना भी बना ली होगी। जिस चीज की इच्छा है उसी अनुरूप कारण मिलने पर उसकी प्राप्ति हो सकती है। काल बंधा नहीं रहता है। पाँच माह उस तरह निकल गये, जिस तरह ५ दिन ही निकले हैं। दुर्लभतम जीवन जो मिला है, उसके विकास के लिए बहुत कारण मिल गये हैं। काल आप लोगों की प्रतीक्षा नहीं करेगा। अत: जब तक काल है, अपने को मांजने की आवश्यकता है। दुर्लभ रूप बोधि, जिनवाणी, गुरुओं में जो आस्था है, उसे सुदृढ़ बनाने के लिए प्रमाद का विमोचन करो। सर्व प्रथम मिथ्यात्व को तो आपने ५ माह में हटा ही दिया होगा। यहाँ बैठे ७०-८० साल के वृद्धों ने दान, पूजा, प्रक्षाल, स्वाध्याय आदि किया है, कर रहे हैं, उससे मिथ्यात्व हट गया होगा। अब आगे अनादिकाल से जो शक्ति छिपी हुई है, उस स्वभाव को प्रकट करने की आवश्यकता है। गुरुओं का समागम, स्वाध्याय आदि साधन है पर अंतिम लक्ष्य स्वात्मानुभूति होनी चाहिए। दोष और आवरणों का क्षय होने पर भगवान् वीतरागी बन गये, इसीलिए उनको नमस्कार किया है। भगवान् की भक्ति, पूजा साक्षात मोक्ष को प्राप्त नहीं कराने वाली है, लेकिन मोह और राग-द्वेष को दूर करने पर आत्मा की मुक्ति हो सकती है। अपने आप में लवलीन होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। मिथ्यात्व के द्वारा भगवान् की भक्ति भी नहीं होती है।
आत्मा की भक्ति इतना ही कार्य अपेक्षित नहीं है, अब अविरति का विमोचन करना होगा। पागल, नादान व अज्ञानी प्राणी का संसार में भ्रमण हो रहा है प्रमाद के कारण। अत: प्रमाद का विमोचन जरूरी है चाहे भगवान् की पूजा, स्वाध्याय सभी कर ली। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद का विमोचन जरूरी है। मिथ्यात्व का तो विमोचन आपने कर दिया पर प्रमाद का विमोचन नहीं हो रहा है। अपने आपके समीप पहुँचने के लिए बाहरी चीजों का विमोचन जरूरी है। ५ माह से पूर्व जिस बात को लेकर वर्षा योग किया था उसे बताना मुनियों का कर्तव्य है। जिन्होंने महाव्रतों का आधार ले रखा है तथा आकिंचन्य को अपना रखा है, वे तो आदर्शमय जीवन बनाएँगे ही, लेकिन उन लोगों के समागम से आपका भी जीवन बने, विकास करे, उनके अनुसार बने। खाना-पीना, उठना-बैठना तो अनादिकाल से रात दिन चल रहा है। उनकी कथाएँ परिचित हैं, उनके बारे में विश्लेषण कोटि जिह्वा से भी सम्भव नहीं है अत: जहाँ चाह है वहाँ राह भी है। जैसी आपकी चाहत होगी वैसीवैसी राह मिलेगी। अगर नया-नया जीवन चाहते हो तो वो भी मिल सकता है निगोद में, जहाँ एक श्वांस में १८ बार जन्म मरण होता है।
जिस मनुष्य पर्याय को प्राप्त करने की आपको बहुत इच्छा थी, वह मनुष्य भव भी पुण्य प्रकृति में आता है। यहाँ आने पर आत्मा का विकास करने के लिए कार्य करना है। और यही काल जहाँ आपकी आत्मा के विकास के लिए विद्यमान है वहाँ तिर्यच्च आदि के लिए नहीं। ऐसी दुर्लभ चीज प्राप्त करने पर भी आपकी दृष्टि आत्म विकास की ओर न होकर विषय वासना की ओर रहेगी तो, जिस प्रकार अपार समुद्र में फेंके मणि को प्राप्त करना दुर्लभ है उसी प्रकार मनुष्य पर्याय पाना दुर्लभ है। मनुष्य पर्याय में भी बुद्धि का प्राप्त होना, दीर्घायु होना तो और भी दुर्लभ है, इतना होते हुए भी विकास की ओर दृष्टि न होने पर तो यह कहा जायेगा कि उपादान में गन्दगी पड़ी है। आप सोचे कि जीवन में कब आकिंचन्य धर्म, ब्रह्मचर्य धर्म को अपनाएँगे? कब सब जीवों से खम्मामि करेंगे? बाहरी पदार्थों व कार्यों के लिए मुहूर्त की जरूरत है त्याग के लिए, आत्मा के उद्धार के लिए मुहूर्त की जरूरत नहीं है। काल को मुहूर्त का बाधक समझो और बहुत जल्दी समता को धारण करो, इसके अभाव में ही दुख का अनुभव हो रहा है। आप अपने पद पर आरूढ़ हो जाये नहीं तो दुख उठाना पड़ेगा। जैसे कहा भी है -
योगी स्वधाम तज बाहर दूर आता,
सद्ध्यान से स्खलित हो अति कष्ट पाता ॥
तालाब से निकलकर बाहर मीन आता।
होता दुखी, तड़पता, मर शीघ्र जाता ॥
जिस प्रकार पानी के अभाव में मछली को तड़प-तड़प कर वेदना सहनी पड़ती है, और यहाँ तक कि जीवन से भी हाथ धोना पड़ता है, इससे भी ज्यादा कष्ट आपको हो रहा है, क्योंकि स्वधाम से दूर हैं। निज स्वभाव के अनुरूप जो काम है वही अपना काम है। योगी भी स्वधाम को अगर छोड़ता है तो कष्ट पाता है। अत: निज घर को याद करो, पर घर को छोड़ो, पर घर में अनेक व्यवधान आते हैं। पर घर आत्मा के लिए परतन्त्रता है। इस जीवन को खोना नहीं है। अपने स्वभाव को प्राप्त करना है। आप भी उसी क्षमा को अपनाओ, जिसे भगवान महावीर ने भी अपनाकर अनन्त को प्राप्त कर लिया है।