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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 39 - प्रभावना - सो कैसे ?

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    द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि को देखकर धर्म का प्रचार व प्रसार होता है। एक समय था जब हमारे से भी ज्यादा ऊंची भावना को लेकर लोग धर्म के प्रचार व प्रसार को तैयार थे, पर उस समय राजा लोग धर्म के नाम पर डरते थे। जब हम अधिक सिद्धि के लिए तैयार होते हैं, तब अनेक कठिनाइयाँ खड़ी हो जाती हैं। उस समय के राजा महाराजा अहिंसा से डरते थे। कहते हैं कि समयसमय पर पतन होता चला जा रहा है। चतुर्थ काल की अपेक्षा पंचम काल में धर्म का प्रचार खूब हो सकता है। आज सरकार स्वयं अहिंसा, अपरिग्रह के सिद्धान्तों के प्रचार में लगी है, उसके द्वारा जैन धर्म का समादर हो रहा है। आज हमने ऐसे समय जन्म धारण किया है, जबकि धार्मिक दृष्टि का कहीं विरोध नहीं बल्कि धर्म की महिमा समझने के लिए विद्वान् लोग साहित्य का सृजन कर रहे हैं। और दुनियाँ में उसको प्रस्तुत कर रहे हैं। इसके लिए अनेक सुविधाएँ भी मिल रही हैं। किन्तु जो जैन कुल में जन्म ले चुके हैं, वे इस बात को भूल रहे हैं, वे मात्र जीवन यापन समय मापन करना ठीक समझ रहे हैं। आपका लक्ष्य अहिंसा का संवर्धन ही होना चाहिए ताकि अहिंसा का आलम्बन लेकर प्रत्येक प्राणी संसार से तिरे। भेष बदल ले तो कोई बात नहीं, पर विचार नहीं बदलना चाहिए। विचार बदलने पर धर्म का कार्य आगे बढ़ाने में रुकावट आ जाती है। किसी को यह मालूम न हो कि वता अपना समर्थन कर रहा है। अहिंसा को सामने लाना है। दूसरों के पक्ष का समर्थन करते हुए जो यश मिल चुका, मिल रहा है तथा मिलेगा, वह दूसरों को कष्ट देने व अपनी प्रशंसा करने से नहीं मिला। दूसरों का समर्थन अपने सिद्धान्त का लोप न करते हुए सबके जीवन का विकास हो, उच्च गोत्र का बन्ध हो। जो आप चाहते हैं, वह दूसरों की प्रशंसा में होगा। गुरु का यदि हम आदर करेंगे तो अपने आप वहाँ पर जैन धर्म विश्व धर्म प्रस्थापित हो सकता है। दूसरा यदि निंदा करता है तो समझो हमारी ख्याति, यश फैला रहा है। ऐसा न हो तो दुनिया के सामने विशेषता आती ही नहीं। विरोध न हो तो विकास होता नहीं। हम लोगों को गालिएँ, निंदा, आलोचना रुचती नहीं प्रत्युत स्वयं हम गाली देने की कोशिश करते हैं। भगवान् महावीर ने गाली को आत्म प्रशंसा बताई है। किए हुए दोषों के निवारण के लिए जो विधि विधान करना होता है, उसे प्रतिक्रमण कहते हैं। अगर जब कोई हमारे दोष दूसरों के सामने रखता है तो वह हमारा ही काम करता है, भला करता है। दूसरों से सार वस्तु को लेकर बाकी को छोड़ना, यह बात हमारे दिल में उतर जाये। दूसरे की आलोचना किए बिना अपने आपको धिक्कारना, निन्दा करना। जिस समय प्राणी अपनी आलोचना करता है, वही समय उसके लिए चतुर्थकाल है। आज काल को दोष देकर अपने दोषों का संग्रह किया जाएगा तो भी उद्धार नहीं होगा। आज तक हमने जब कभी आलोचना की अपनी नहीं, दूसरों कि की। महावीर ने, अपनी निंदा आलोचना के लिए कहा। आपका यही मुख्य कार्य होना चाहिए कि जिससे अहिंसा धर्म का विस्तार, प्रचार, प्रसार हो तथा अहिंसा का नारा जन-जन के कानों तक पहुँचे। जैन जाति नहीं, एक मत है, विचारधारा है। विचारों की स्वतन्त्रता जब चली जाती है तब कोई भी तीन काल में भी विकास नहीं कर सकता। दूसरों के अनुरूप शरीर चला सकते हैं, पर विचार नहीं। खाने में, सोने में रहन सहन में भले ही पाबन्दी हो, पर विचारों के बन्धन नहीं होना। भगवान् महावीर ने कहा कि जिसमें विकास हो, हित निहित हो, उसे अपनाओ। नाम, क्षेत्र में विशेषता नहीं। विचारों का प्रचार करने के लिए ऐसे ढंग अपनावें कि दूसरों को आकर्षित कर लेवें और बाद में अपने में मिला लेवें। सर्वप्रथम दूसरों पर अपनी बात थोपना चाहें तो तीन काल में भी यह बात नहीं हो सकती। मात्र कहने से भी प्रभावना नहीं होती। जहाँ प्रभावना करना चाहो, वहाँ जाना पड़ेगा। मन जिस बात को नहीं चाहता उसको हाथ पैर भी नहीं करते। हाथ डरपोक व हाजिर जवाबी है। आर्डर तो, मन के द्वारा होता है। अन्दर का मल धुलने पर ही सम्यग्दर्शन प्रज्ज्वलित होता है। हम मात्र सम्यग्दर्शन की चर्चा करते हैं, उसे अपनाते नहीं, जो इसे अपनाता है वह दूसरों को भी अपनाएगा, उनकी कमियों को दूर करेगा। जब प्राणी को शारीरिक वेदना होती है, तब प्राय: उसका स्खलन हो जाता है। ऐसा स्खलन न हो उसके लिए प्रयास होना आवश्यक है। सम्यग्दृष्टि सेवा करना जानता है। वह दुखी जीवों को देखकर दुखी होता है और उस दुख को दूर करने की चेष्टा भी करता है। दूसरों के दुख को दूर कर अपना रस पिलाओ, अपनी बात कहो, उपादान में जागृति लाने की चेष्टा करो। भगवान् महावीर के संदेशों को पहुँचाने के लिए दूसरों की शारीरिक, आर्थिक, आध्यात्मिक पीड़ा को दूर करना जरूरी है। अगर एक प्राणी को भी लाइन पर लाते हैं तो आपका जीवन सफल हो सकता है। कामना के अभाव में जो काम होता है, वही काम कहलाता है। कहा है कि- 'भूखे पेट भजन न हो गोपाला', ले लो अपनी कण्ठी माला।' अतः पहले भूखे की भूख मिटाओ, कष्ट को दूर करो। अनेकांत का मतलब सभी से मिलकर चलने वाला धर्म। धर्म को सामने रखकर चलो, पीछे रखकर नहीं, यह रूढ़िवाद का समर्थन नहीं है। अन्दर जो त्रैकालिक सत्ता है उसके विकास के लिए कार्य करना है, जीवों के विकास के लिए कार्य करना है। यह समय जो मिला है, वह फिर नहीं मिलेगा।


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    जो जैन कुल में जन्म ले चुके हैं, वे इस बात को भूल रहे हैं, वे मात्र जीवन यापन समय मापन करना ठीक समझ रहे हैं। आपका लक्ष्य अहिंसा का संवर्धन ही होना चाहिए ताकि अहिंसा का आलम्बन लेकर प्रत्येक प्राणी संसार से तिरे। 

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