समंतभद्राचार्य आप लोगों को श्रद्धा के बारे में बता रहे हैं। जब तत्व मालूम नहीं है, उसके बारे में ज्ञान नहीं है, तब उसके बारे में विश्वास तो रखें, श्रद्धा मन में लावें। कार्य कोई भी हो, विश्वास के द्वारा ही होता है। लोक व्यवहार में हर एक बात विश्वास के पीछे चलती है। धार्मिक क्षेत्र में जो भी विश्वास के साथ कह रहे हैं, उन पर विश्वास करो। आपका विश्वास उस पर है, जिसकी कीमत है।
हमारे अन्दर जो भाव है, वह वास्तविकता को लेकर नहीं है। हमारे अन्दर वास्तविक इच्छा हुई नहीं। निमित्त एक होने पर भी उपादान भिन्न भिन्न है। पानी बरसता है ऊपर से, पर धूल में गिरने पर कीचड़ का रूप, सीप के मुँह में गिरने पर मोती का रूप, सर्प के मुँह में गिरने पर जहर का रूप धारण कर लेता है। एक निमित्त से अनेक रूप हो जाता है। एक व्यक्ति को जिनवाणी पर विश्वास हो जाता है, एक का विश्वास चला जाता है, सोचता है क्या पता ?
श्रद्धान उन गुप्त स्थानों तक ले जाता है, जहाँ आज तक नहीं गये, वह अंतर्दृष्टि बनाता है, जिससे अमूर्त पदार्थ दिखने लगता है, यह अन्धविश्वास नहीं है। विश्वास परोक्ष से होता है। जब परोक्ष सामने आ जाता है, तब साक्षात अनुभव हो जाता है। गुरुओं के उपदेशों से, शास्त्र पढ़कर तथा देवदर्शन से अविदित पदार्थ विदित हो जाते हैं। प्यासे व्यक्ति को पानी का आश्वासन मिलने पर, हालांकि पानी नहीं पिया, एक सुख की अनुभूति होती है। विश्वास के साथ आशावादी होना चाहिए। आपको आचार्यों के वचनों में विश्वास ही नहीं है, इनके वचन झूठे नहीं होते।
चैक मिल जाने पर हालांकि रुपया नहीं है फिर भी विश्वास हो जाता है कि रुपया मिल जायेगा। रुपयों की अनुभूति का विश्वास हो जाता है। उसी प्रकार श्रद्धा रखने पर मोक्ष मार्ग की भूमिका बन जाती है। जो गुरुओं के वचनों पर विश्वास लाता है, वह तृष्णा को मिटाता है, आनन्द का अनुभव करता है। आप क्यों बाहर की ओर भटक रहे हैं? अपने आप पर आपको विश्वास नहीं है। विश्वास होने पर ही सम्यग्दृष्टि जीव संसार शरीर भोग से निर्लिप्त हो जाता है। वह अमूर्त की पूजा करता है और उसके अन्दर की लहर बाहर को आने लगती है। वह संसार, शरीर भोग-विलास की पूजा नहीं करता है। जिस प्रकार विश्वास जमने पर ही दवाई कड़वी होने पर भी लेते हैं, उसी प्रकार विश्वास जमने पर ही वह त्याग तपस्या आदि को स्वीकार करता है, वह विचारता है कि संसार में क्या पड़ा है ? वह सोचता है कि तृष्णा जीर्ण नहीं हो रही है, हम ही जीर्ण हो रहे हैं। हम भोगों को नहीं भोग रहे हैं, बल्कि हम ही भोगे जा रहे हैं। जब तक तृष्णा से अनासति नहीं, तब तक गुरुओं की वाणी पर विश्वास नहीं हो सकता है। कर्म सिद्धान्त कहता है कि जब विश्वास हो जाता है तो उस व्यक्ति की गाड़ी ठीक लाइन पर हो जाती है। जैसे-जैसे ब्रेक लगाएगा तैसे-तैसे लब्धियाँ प्रारम्भ हो जायेंगी। क्षायोपशमलब्धि से विशुद्ध लब्धि प्रारम्भ हो जाती है, ब्रेक लगाने पर। जब विशुद्धिलब्धि प्रारम्भ हो जाती है तब गाड़ी चला नहीं रहे हैं, पर चल रही है, कोई बात नहीं। देशनालब्धि गाड़ी को बहुत कुछ रोक देती है और प्रायोग्यलब्धि आने पर गाड़ी धीरे-धीरे चलती है। जैसे एक घण्टे में एक मील की रफ्तार से। कषायों की गति, विषयों की लिप्सा इतनी कम रह जाती है कि पकड़ नहीं सकता, इसे कहते हैं, निर्विघ्न अवस्था। Danger को देखने व ब्रेक को दबाने पर भी कुछ नहीं होगा किन्तु Speed कम करनी पड़ेगी, रुकना पड़ेगा, गाड़ी घुमानी पड़ेगी। मोक्षमार्ग की ओर रुख करना पड़ेगा। विश्वास होने पर अनुकरण करना पड़ेगा। लोग चारित्र मोहनीय का क्षयोपशम का बहाना बनाते हैं। लेकिन इसमें ऐसी बात नहीं। अनन्तानुबन्धी रागद्वेषात्मक है। मिथ्यात्व के द्वारा चोरी डकैती आदि नहीं होती। मिथ्यात्व तो मात्र भुलाता है। रागद्वेष के द्वारा ऐसी परिणति होती है। अत: ब्रेक लगाकर घूम जाऐं, मुड़ जाएँ और पीछे की ओर चले जाएँ, तभी अपरिचित द्रव्य से साक्षात्कार हो जाएगा। आप कहेंगे कि इसमें कोई रस नहीं दिखता, इसका मतलब यही कि आपका विश्वास इस क्षेत्र में है ही नहीं, क्योंकि भोगों की लिप्सा, गृद्धता, रचपच जाना, ऐसा विश्वास वहाँ पर नहीं है। जब विश्वास हो जाता है, तब Foundation आधार हो जाता है, फिर प्रासाद भी खड़ा होने में देर नहीं, उद्धार होने में देर नहीं। विश्वास के बिना क्या सुनना, क्या प्राप्त करना ?
मोक्षमार्ग कहता है कि जो पास है, उसका नाश हो, हास हो और जो पास नहीं है, उसका विकास हो। आपका इस बारे में लक्ष्य ही नहीं है। एक घण्टे भर प्रवचन सुनने भर से दिन भर का किया सारा पाप धुलेगा नहीं, बल्कि पुत जाएगा, वह पाप नष्ट नहीं होगा। आपके पापाचार में कमी आनी चाहिए और भोग, लालसा, वासना, शरीर की रक्षा गौण होनी चाहिए। आपने विश्वास के साथ एक पल भी आत्माराम की उपासना की ही नहीं। आप सोचते हैं कि भाग्य जगेगा, तब अपनी ओर बढ़ेंगे, आत्माराम को भजेंगे। ऐसा सोचकर आप अपने जीवन में विश्वास को जमा ही नहीं पा रहे हैं। जब महावीर के प्रति आस्था हो जाती है, अभिमान गल जाता है तब प्राणी सोचने लगता है कि मुझे भी निराकार बनना है, उससे मेरा कल्याण होगा। कब वह घड़ी आएगी जब पापों को भुलाकर आत्माराम को भर्जेगा, २४ घण्टे यही विचार चलते है।
वह प्राणी मूर्ख शिरोमणि है, जो अपने आपको नहीं जानता, अपना विकास नहीं चाहता। वह निर्दयी है, वह दूसरों का विकास भी नहीं चाहेगा। अगर एक मात्र मनुष्य का शरीर धारण कर लिया तो क्या? उसका आचरण तो पशु से भी गया बीता है, पृथ्वी भी उससे घृणा करती है। वह सोचती है कि यह सपूत नहीं कपूत हुआ है। हर एक के जन्म लेने से पृथ्वी तीर्थ के रूप में नहीं होती, अपने को धन्यतमा नहीं मानती। भगवान् महावीर सरीखे पुण्यात्मा के जन्म से निर्वाण से पृथ्वी पुण्यतीर्थ बन जाती है, जिस प्रकार वैशाली और पावा भूमि बनी है। अतः राग द्वेष का विमोचन करो, और आत्म कार्य में संलग्न हो जाओ। उलझी हुई बातों को सुलझाओ। अनादिकाल से जो कार्य आप कर रहे हैं, उससे फल मिला ही नहीं। अत: उस कार्य को छोड़ो, विश्वास जमाओ, तभी संसार अनन्त नहीं विपरीत हो जायेगा। धीरे-धीरे संसार का विच्छेद करो। विश्वास के बिना निर्जरा नहीं होती। निर्जरा शाश्वत सुख का कारण है। विश्वास विषयों में नहीं होना चाहिए अपनी तरफ होना चाहिए। सम्यग्दृष्टि को वीतराग मार्ग कष्टप्रद नहीं, बल्कि सुखप्रद मालूम होता है।