कर्त्तव्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- जहाँ निरीहता वाली बात समाप्त हो जाती है, वहाँ कर्तव्यबोध नहीं रहता।
- कर्तव्य तो करना चाहिए, लेकिन कर्तृत्व बुद्धि नहीं रखनी चाहिए।
- कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति आलोचकों की परवाह न करते हुये अपने कर्तव्य पालन में लगा रहता है।
- कर्तृत्वभाव हमें कर्तव्य से विमुख कर देता है।
- हम दूसरों से कार्य कराना चाहते हैं हम खुद नहीं करना चाहते हैं यह संघर्ष की जड़ है।
- अभिमान नहीं करना चाहिए कर्तव्य की ओर ध्यान रखना चाहिए।
- सुन्दरता कर्तव्यशीलता से ही निखरती है।
- जो पिता की आज्ञा का पालन करता है वही पुत्र माना जाता है। परम्परा का उल्लंघन करने वाला पुत्र कभी भी शांति को प्राप्त नहीं कर सकता।
- कर्तव्य ही सही ज्ञान है, सम्यकज्ञान है।
- दूसरे के कार्य में व्यवधान न होने देना एवं अपने कार्य में सावधान रहना ही कर्तव्य है। दूसरे के कार्य में अपने द्वारा व्यवधान तब होता है जब हम अपने कर्तव्य के प्रति सावधान नहीं रहते। सामान की समस्या नहीं है बल्कि दृष्टि की समस्या है कर्तव्य को दृष्टि में रखें।
- धर्म और किसी वस्तु का नाम नहीं है बल्कि अपने कर्तव्य का नाम धर्म है।
- कर्तव्य सामान्य व्यक्ति होकर किया जाता है और कर्तृत्व विशेष स्वामी बनकर किया जाता है।
- कर्तव्य को दिशा बोध तत्व ज्ञान से प्राप्त होता है।
- हम देव, शास्त्र एवं गुरु को प्रामाणिक मानकर मोक्षमार्ग में बढ़ते चलें। कर्तव्य की भूमि पर खड़ा रहना बहुत कठिन है।