करुणा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- औरों की पीड़ा अपनी करुणा की परीक्षा लेती है।
- अपनी आत्मा पर करुणा करने लगोगे तो दूसरों पर करुणा होने ही लगेगी। करुणा के माध्यम से ही हम अपनी आत्मा की ओर आ सकते हैं।
- पापों से भीति होने का नाम ही तो स्वयं पर करुणा है।
- जो जीवों पर करुणा नहीं कर सकता, वह व्रतों का पालन नहीं कर सकता।
- करुणा का होना अलग है और दु:खित होना अलग है। करुणा और अनुकम्पा से तो सातावेदनीय कर्म का बंध होता है।
- एक करुणादान नाम का दान होता है, उससे विधि नहीं देखी जाती, भूखे की भूख शांत की जाती है।
- धर्म के अनुरूप ही करुणा का स्रोत झरने लगता है।
- जब गुणीजनों को देखकर प्रमोद भाव हो जावे, दुखियों को देखकर करुणाभाव आ जावे, सभी के अस्तित्व पर विश्वास हो जावे तो समझना सम्यकदर्शन की प्राप्ति हो गई।
- दूसरे के दु:ख को महसूस करने का अर्थ है अपनी आत्मा में पीड़ा का अनुभव होना और करुणावश दूसरे के दु:ख को दूर करने का प्रयत्न करना।
- करुणा के धनी तो प्रभु हैं, लेकिन हम वस्तु तत्व को समझते हैं तो दया, करुणा क्या है ? यह समझ में आ जाता है।
- दूसरे के दु:ख को देखकर आँखों में पानी आना करुणा की निशानी है।
- महिला, पशु और नादान पर विशेष करुणा, कृपा होनी चाहिए।
- अनुकम्पा से द्रवित जीव ही दुख में पड़े जीवों की सहायता कर सकता है और सम्यकद्रष्टि जीव में यह भाव उत्पन्न होना सहज ही है।
- अपने बच्चों एवं परिवारजनों का पालन-पोषण मोह के कारण होता है, लेकिन अन्य पशुपक्षियों के साथ करुणा का भाव धर्म का भाव माना जाता है।
- आज पश्चिमी सभ्यता में कारण हम दया करुणा के भाव भूलते ही चले जा रहे हैं, हमें पुन: भारतीय संस्कृति की ओर लौटना होगा।
- जब दया, करुणा हमें प्राणों से भी प्रिय हो जायेगी तब समझना हमारे जीवन में धर्म का अवतरण हो गया।
- दया, करुणा को कर्तव्य समझकर करना चाहिए, तभी धर्म की संज्ञा प्राप्त होगी।