महावीर के तीर्थ क्षेत्र में आज जो हम पाठ ले रहे हैं, उसका श्रेय महाराज कुन्दकुन्द को है। महावीर ने जो दिग्दर्शन किया उसे सुरक्षित रखने तथा दिगम्बरत्व की रक्षा करने का श्रेय भगवान कुन्दकुन्द को है। मैंने उन्हीं की प्रेरणा से श्रमण शतक प्रारम्भ किया। मेरा अनुमान नहीं था कि मैं सफल हो जाऊँगा, क्योंकि मैंने छन्द काव्य अलंकार को नहीं पढ़ा था, सिर्फ जयोदय महाकाव्य को देखकर तथा प्रेरणा पाकर साढ़े तीन माह में पूर्ण किया। कुछ लोगों का आग्रह हुआ कि इनका हिन्दी पद्यानुवाद भी हो ताकि सब को समझ में आ सके। उसे मैंने यहाँ पूरा किया। पंचमकाल में ध्यान की मात्रा कम बन पाती है। अत: मुनिराज विषयों से दूर रहकर अपना समय अध्ययन लेखन में पूर्ण कर सकते हैं।
स्वाध्याय से कर्मों की निर्जरा तथा श्रमण संस्कृति की रक्षा हो सकती है। चारित्र तो होना ही चाहिए, पर उसके साथ ज्ञान भी हो। निर्जरा के लिए स्वाध्याय, उससे ज्यादा निर्जरा के लिए अध्यापन बताया। लेख लिखने से भी मन केंद्रित हो सकता है, इससे भी असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा होगी। और जीवन सुन्दरतम बनता चला जाएगा। गुरु शिष्य पर उपकार करता है, पर शिष्य भी गुरु के अनुरूप चलकर गुरु पर उपकार कर सकता है। यह ग्रन्थ पूर्ण करने में स्वाध्याय का फल व गुरु की कृपा ही मानता हूँ। जीवन में इधर उधर की बातों में न लगकर साहित्य सृजन कर श्रमण संस्कृति की रक्षा कर सके तो आने वाली पीढ़ी याद रखेगी और अध्ययन कर सकेगी। मैं सरस्वती से यही प्रार्थना करता हूँ कि अन्तिम समय तक उसकी सेवा करते हुए अपना जीवनयापन करूं ।