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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 41 - सोचो - क्यों आये हैं !

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    किसी भी कार्य के आदि में यह विचार, निश्चय अवश्य किया जाता है कि मुझे क्या प्राप्त करना है ? वही हमारा अभीष्ट है, जिसे हमने अनादिकाल से प्राप्त नहीं किया, जिसका जीवन परिचय, अनुभव नहीं किया, जो अज्ञात रहा। उसी अज्ञात की खोज के लिए विचार, अध्ययन अनुकरण की आवश्यकता है।

     

    संसारी प्राणी अनादिकाल से सुख का रास्ता ढूँढ़ रहे हैं। धर्म की बात करते हुए धर्म के मर्म को आज तक समझा ही नहीं। जिस प्रकार दैनिक कार्य बुद्धि अबुद्धि पूर्वक करते हैं, और खाना खाते, पानी पीते, नींद लेते हुए भी श्वांस लेते हैं, उसी प्रकार धर्म कार्य को अपने जीवन का अंग बनाना होगा। अधिक परिश्रम करना होगा, तभी आप लोगों की कामना, विचार साकार बन सकते हैं। किसी सत्ता के द्वारा कहने पर नहीं, उत्साह के साथ होना चाहिए। हुकुम, दबाव से नहीं, स्वेच्छा से जीवन का अंग बना कर कार्य करना है। सब कुछ भूलना है और योजना बद्ध कार्य करने के लिए जीवन को इसमें लगाना है। जिस प्रकार रोगी व्यक्ति शरीर के स्वास्थ्य के बारे में जानना चाहता है, उसी प्रकार धर्मात्मा को वास्तविक रहस्य के बारे में जानना चाहिए। इसके लिए शरीर भले ही गौण हो जाये पर धर्म को गौण न करें। जीवन सुधार के बारे में आपने कभी सोचा ही नहीं। उस जीवन में क्या विशेषता है जो लाभ हानि का विचार नहीं करता? वैरागी व्यक्ति असंयमी, दुर्जन व्यक्तियों से बात करना पसन्द नहीं करेगा वह वीतरागता को प्राप्त करना चाहेगा, विकास की ओर उन्मुख होगा और रूढ़िवादों से, तीन मूढ़ता से दूर रहेगा। वह स्वतंत्रता, आजादी, मुक्ति के उपाय के बारे में सोचेगा, परतंत्रता, अपाय को छोड़ेगा।

     

    सम्यक दृष्टि जीव अविरति होते हुए भी दुष्कुल में जन्म नहीं लेगा, कुरूप नहीं होगा तथा अल्पायु भी नहीं होगा। वह रागी-द्वेषी, असंयमी व्यक्तियों से बातचीत नहीं करेगा। सभी बंधन होना आवश्यक हैं, पर एक तरफ निरबंध होने की दृष्टि होनी चाहिए। धार्मिक क्षेत्रों में बंधन नहीं होना चाहिए। अगर माता-पिता भी धार्मिक कार्यों में बंधन करते हैं तो उन्हें भी गौण कर देना चाहिए। प्रसंग में जो है, वही मुख्य तथा अप्रासंगिक को गौण कर दे, तभी हमारा जीवन सुधरेगा। यह बात सोचने की है। मनुष्य जीवन बहुत दुर्लभता से मिला है। सोची-हम भोगों के लिए नहीं, योग धारण करने के लिए आए हैं। हमारे में वैराग्य के अंकुर क्यों नहीं पैदा हो रहे हैं? आप जब कभी कुछ छोड़ते हैं तो गुस्से में, द्वेष के आवेश में छोड़ते हैं। सीढ़ी चढ़ते-चढ़ते बहुत मुश्किल से विकास हुआ है। अब तो ऐसे उपाय को अपनाओ, जिससे केवल ज्ञान प्राप्त हो। मात्र खाने-पीने, व जन्ममरण की बात नहीं करो, धर्म चर्चा करो। यह जीवन क्या है, अन्दर क्या चीज है। उत्पाद, व्यय, श्रौव्य के बारे में सोची, सत् का विचार करो। समय पाकर, पुद्गल का परिवर्तन होता है, पर जीवन में परिवर्तन क्यों नहीं,? उपयोग में परिवर्तन क्यों नहीं ? इस कान से सुना इस कान से छोड़ दिया। क्रांति व परिवर्तन क्यों नहीं? अपने जीवन में वह क्रांति लाओ जो क्लांति को मिटादे और शांति को प्राप्त करा दे। कुछ दिनों के उपरान्त भगवान् महावीर का तप कल्याण दिवस आ रहा है। निर्वाण से आपको कुछ मिला नहीं, लेकिन कुछ फेंकते हुए जब आप देखेंगे, तब शायद वैराग्य जागृत हो जाए, आपको तब कषायों का उपशम करना ही होगा। भगवान् महावीर ने केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिए 'तप' को अपनाया था, उसे ही साधन बनाया था। इस तप दिवस का उद्घाटन देवर्षि लोगों के द्वारा ही होता है। वे लौकांतिक देव एक भव के बाद ही मोक्ष जाने वाले होते हैं, वो विषयी नहीं होते, मात्र धर्म चर्चा करते हैं वे वीतरागता के गुण गाते हैं। हमारे यहाँ छोटे-बड़े का सवाल नहीं है, जो गुण व ज्ञान में वृद्ध हैं उसकी पूजा है। आज तक आप में गुणों की वृद्धि क्यों नहीं हुई? वैराग्य क्यों नहीं हुआ? यही विचारना है, वरना आपका सारा प्रयास व्यर्थ रहेगा। पुद्गल के साथ जीव में भी परिवर्तन आना चाहिए, मोह के चिह्न दूर होने चाहिए। आप रागी-द्वेषी बनकर संसार की वृद्धि चाह रहे हैं। मुक्ति का रस लो, थोड़ा प्रयास करने पर क्रान्ति आ सकती है। चारों ओर भोग सामग्री जो प्रतीक्षा में है, उसे ठुकरा दो, सूघो भी मत। विचारो-मेरा कुछ भी इनमें नहीं है, ये सारे जड़ है। मेरा तो मात्र चैतन्य है। तपकल्याण के दिन तप को अपनाओ, वास्तविक रहस्य को समझो। गौण को मुख्यता देने पर मूर्खता कहलाएगी। अत: मुख्य को मुख्यता दो।


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    पुद्गल के साथ जीव में भी परिवर्तन आना चाहिए, मोह के चिह्न दूर होने चाहिए। आप रागी-द्वेषी बनकर संसार की वृद्धि चाह रहे हैं। मुक्ति का रस लो, थोड़ा प्रयास करने पर क्रान्ति आ सकती है। चारों ओर भोग सामग्री जो प्रतीक्षा में है, उसे ठुकरा दो, सूघो भी मत। 

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