सम्यक दर्शन के साथ तीन मूढ़ताओं का विलोप होना चाहिए। मूढ़ता उसे कहते हैं, जो मात्र सामने वाले दृश्य को देखकर बहे। सरल भाषा में हाँ में हाँ मिलाना ही मूढ़ता है। मूढ़ता तीन प्रकार से बताई है, उसमें लोक मूढ़ता प्रसिद्ध है। कोई पदार्थ खरीदते समय पहले ज्ञान प्राप्त करते हैं, तब खरीदते हैं। हमारा अभीष्ट सुख है, उसके मार्ग के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। ज्ञान की आवश्यकता ही नहीं समीचीन ज्ञान की आवश्यकता है। ज्ञान तो सभी के पास है, पर समीचीन ज्ञान की जरूरत है, वह ज्ञान बाहर से नहीं आता है। जो ज्ञान के साथ मल अनादिकाल से चिपका हुआ है उसे हटाने से ही ज्ञान समीचीन होता है। ज्ञान-ज्ञान कहने मात्र से ज्ञान समीचीन नहीं होता। ज्ञान आत्मा का भंडार है, गुण है, वह मटमैला हो रहा है, उसे माँजना है। ज्ञान की उपासना नहीं वीतराग विज्ञानता की उपासना करनी है। ज्ञान आत्मा को सुख भी देता है, किन्तु वह इधर-उधर भागे नहीं, लुढ़के नहीं, इसके लिए उसे समीचीन बनाना है। ज्ञान दर्शन जो स्वभाव है, वह विभाव को लेकर है। अत: उन्हें समीचीन बनाने के लिए चारित्र बताया है। ज्ञान दर्शन को समीचीन बनाने के लिए जो उपक्रम है, उसे चारित्र कहते हैं। समझने की बात है। ज्ञान जब तक चारित्र द्वारा मंजता नहीं, तब तक दर्शन व ज्ञान में समीचीनता आती नहीं। दर्शन व ज्ञान में जो मल चिपका है, वह चारित्र के द्वारा दूर होता है। चारित्र को जब हम धारण करेंगे, तब ज्ञान दर्शन ठीक-ठीक काम करेंगे और तभी सुख शांति का अनुभव होगा। आकुलता का अभाव ही चारित्र है। जिस दर्शन-ज्ञान के साथ आकुलता है, वह वास्तविक दर्शन-ज्ञान नहीं। उसमें कमियाँ हैं। सिर्फ शाब्दिक ज्ञान को ही न लेकर शोध की बड़ी आवश्यकता है। आचार्यों ने बहुत गूढ़ अर्थ को लेकर वर्णन किया है। शब्द तो सीमित है। आचार्यों के अन्तस्थल तक पहुँचने के लिए शब्दार्थ, नयार्थ, आगमार्थ, मतार्थ, भावार्थ आदि को समझने की जरूरत है। राग, कषाय चारित्र मोहनीय की प्रकृति है, फिर भी विपरीत अभिनिवेष हो जाता है। रागद्वेष तो समता के, चारित्र के अभाव में होता है। चारित्र के अभाव में अनन्तानुबन्धी आ जाएगी और आपका परिश्रम निष्फल हो जायेगा। अत: दर्शन ज्ञान को समीचीन बनाने के लिए चारित्र की आवश्यकता है। चारित्र शारीरिक चेष्टा का नाम नहीं है बल्कि दर्शन ज्ञान को मांजने के लिए जो आत्मिक विधि विधान है, उसका नाम चारित्र है। ऐसा होने पर मल धुल जाएगा, स्वच्छ प्रकाश हो जायेगा। ज्ञान आज तक सामान्य ज्ञान ही रहा, पर वीतराग-विज्ञान नहीं हुआ। ज्ञान के साथ सुख नहीं, वीतराग विज्ञान के साथ सुख है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र को मोक्ष मार्ग नहीं कहा, बल्कि उसके पहले सम्यक्र शब्द रखा है। सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक्र चारित्र तीनों का जो वास्तविक मिश्रण है, उसका नाम मोक्ष मार्ग है। मात्र राम-राम कहने से, हाँ में हाँ मिलाने से भगवान् दिखते नहीं हैं। शब्दों में श्रोत नहीं है। समीचीन रूप जो अपनी शुद्ध पर्यायों को प्राप्त करता है, ग्रहण करता है, व्याप्त करता है, उसे समय कहा है। ज्ञान तो सभी के पास है पर समीचीन ज्ञान से ही सुख की प्राप्ति होगी। ज्ञान के ऊपर जो रागद्वेष है, वो चारित्र मोहनीय के द्वारा ही है, उन्हें हटाने पर ही समीचीन ज्ञान है। ज्ञान को मांजो तो वह सुखदायक हो सकता है। आजकल का ज्ञान मात्र शाब्दिक है, डिग्री लेने का है। शब्दों को न लेकर उसके अन्त:करण तक पहुँचने की चेष्टा करो। ज्ञान वह जो उस रूप बनने की चेष्टा हो, वरना तो वह शाब्दिक ज्ञान है। एक वाक्य में जहाँ दो क्रियायें हैं, वहाँ बहुत समझने की जरूरत है। आस्रवों को अशुचिरूप, दुखरूप जानकर उन आस्रवों बंधों को तत्काल जो छोड़ देता है और निवृत्ति को अपना लेता है। निवृत्ति का मतलब ही चारित्र है। ज्ञान समय अर्थ समय में तल्लीनता, तद्रूप परिणमन, वीतराग विज्ञान से ही आनन्द की अनुभूति हो रही है। मात्र शब्द ज्ञान हो गया तो मात्र परिग्रही बन गये। प्ररूपणा अलग चीज है, अनुभूति अलग चीज है। प्ररूपणा द्रव्यश्रुत है और अनुभूति भावश्रुत है। द्रव्यश्रुत चम्मच के माफिक और भावश्रुत जिह्वा के माफिक है। द्रव्यश्रुत पौदूलिक है, उसकी अनेक बार प्ररूपणा हो चुकी है। वर्गणाएँ लोकाकाश में बहुत हैं। भावश्रुत वीतराग विज्ञान रूप है। अनन्तानुबन्धी सम्यक्त्व को मिटा देती है, विपरीत अभिनिवेष वह जो सम्यक्त्व से डिगादे।
विषय वासना गृद्धता को लेकर होगी। विषयों में जब अतिगृद्धता है तब तीन काल में भी सम्यक्र दृष्टि वह नहीं हो सकता है। हरेक मोक्ष मार्गी बन सकता है, टटोल सकता है, पर विषयों में रचपच जाना नहीं। कमाना-कमाना खाना-खाना नहीं। यह तो जानते हैं कि जड़ अलग है आत्मा अलग है पर आत्मा की वास्तविकता विचारे कि इन सबसे ऊपर मेरा उपयोग स्वभाव है। जब तक आत्मा का वास्तविक रसास्वादन नहीं। शुभ अशुभ संसार परिभ्रमण के लिए कारण है। अनादिकाल से टेढ़ी चाल हो रही है। इस देह के निर्माण के लिए, इसकी सुरक्षा के लिए क्या-क्या अनर्थ नहीं किया। आत्मा पर कितना मल ला ला कर रखा, शरीर के कार्यों में फंसकर आत्मा का कितना अहित किया। अपने को रागद्वेष से दूर कर बंधन से मुक्ति चाहते हो तो आत्मा को शुद्ध बनाओ।
आत्मा के पास अशुद्धि आती है प्रथम तो मिथ्या दर्शन से, कषाय से। जहाँ मिथ्यात्व है, वहाँ कषाय अवश्य है और तभी आत्मा के पास कर्म चिपकते हैं, तभी संसार परिभ्रमण है। कर्म प्रवाह रागद्वेष के कारण से है। सम्यक दर्शन का विरोधक जो अनन्तानुबन्धी है, उसे समाप्त करो, तभी प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य आदि आ जाते हैं। प्रशमभाव का मतलब ही अनंतानुबंधी का अभाव है। सार वही जो समयसार है। धन तो असार है। मोक्ष सुख को चाहते हो तो इस धन की जरूरत नहीं। अर्थ के पीछे पड़ने से अनर्थ होगा, परमार्थ रुक जाएगा और दुख का अनुभव होगा। सम्यक दृष्टि संसार, शरीर, भोग से निर्भिन्न होता है। निर्भिन्न का मतलब अनासति है।
संसार मार्ग से दूर रहना चाहते हो तो दर्शन ज्ञान को सम्यक्त्वाचरण चारित्र से, संयमाचरण चारित्र से युक्त करो। सबसे पहले ज्ञान नहीं, सबसे पहले दीक्षा, फिर शिक्षा, गणपोषण और अन्त में आत्म संस्कार है। मोक्ष मार्ग की शिक्षा चाहते हो तो पहले संयमाचरण, सम्यक्त्वाचरण चारित्र की दीक्षा ली तब शिक्षा मिलेगी। आज तक जो अनर्थ हुआ, वह अपने साथ ही हुआ। शब्दों के पीछे नहीं पड़ना है, उसका अर्थ समझना है, मन के माफिक अर्थ नहीं निकालना है। जो भव्य है, वह तो परीक्षा करके, ढूँढ़कर असली माल लेगा, बजा-बजा कर लेगा। जब मटकी या नारियल बजा-बजा कर लेते हैं तो मोक्ष मार्ग भी बजा-बजा कर लेना। टटोली, परीक्षा करो, फिर लेओ। आज तक दूसरों को टटोला, खुद को नहीं। स्वाध्याय किया उसे पुष्ट करने हेतु स्वयं के लिए ही उपदेश होता है। अत: स्वल्प जीवन को स्वल्प काल में ही उपयोगी बनाने की चेष्टा करो।