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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 42 - बंधन ! मिटे कैसे ?

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    यही प्रार्थना वीर से छूटे भव-भव जेल।

    सत्ता दीखे वो हमें ज्योति-ज्योति का मेल ॥

    आज मैं आप लोगों को यह तत्व जो अनादिकाल से हम लोगों से दूर है, उसको दिखाने आया हूँ, जब उसके प्रति आस्था हो जाएगी तब संसार से मुक्ति मिल जायेगी, जैसे महावीर को मिली। आप अनुभव करते होंगे कि हम एकांत में रह रहे हैं। यह ठीक है दृष्टि के द्वारा सृष्टि का निर्माण होता है। जो जिस प्रकार देखता है उसी प्रकार वह वस्तु उसे दीखने में आती है। भगवान महावीर ने भी पूर्व में जो कर्मों का संकलन किया था, उस समय दृष्टि अलग थी इसीलिए उन्हें भवरूपी जेल का अनुभव करना पड़ा था। जब कर्मों का नाश कर दिया, वास्तविक दृष्टि मिली तभी छुटकारा मिला। हमें भी वह दृष्टि मिल सकती है, ताले खुल सकते हैं। यह जो बेला गुजर रही है, उसमें यह न विचारें कि विकास नहीं कर सकते। यह कारागार शरीर के लिए है, पर उज्ज्वल विचारों के लिए कारागार नहीं है। आप लोगों के विचार बाहर वालों से भी ज्यादा उज्ज्वल हो सकते हैं। विचारों से ही विकास होता है। भव-भवरूपी जेल छूट जाए, इसके लिए आप लोग भी बढ़कर प्रयास कर सकते हैं, उत्कृष्ट बनने तथा गंदे विचारों को रोकने के लिए उचित स्थान यहाँ भी मौजूद है। जेल में लोग दुख का अनुभव करते हैं, लेकिन दुख जैसी बात नहीं है। जितना प्रभाव दो आँखों का विश्व पर पड़ सकता है, उतना हाथों का नहीं। विवेक से, ज्ञान से, युक्ति से रास्ता चुनने पर सफलता मिल सकती है। विचारों, व्यवहारों में विकास करना है। जेल में दण्ड रूपी पश्चाताप को आया व्यक्ति भी उत्थान की ओर अग्रसर हो सकता है। जेल एक पाठशाला है, यहाँ पर सहज ही मन पवित्र बन सकता है। जिस प्रकार कठिन प्रश्न होने पर ही विद्यार्थियों की कुशलता जानी जाती है, उसी प्रकार रास्ता कठिन ही होना चाहिए। आपत्ति आने पर ही ईश्वर, आत्मा, परमात्मा, कर्म, पुण्य-पाप आदि याद आते हैं। ऐसे जीव भी हैं, जिनका जीवन निन्दतम है, पर वे रास्ते से विमुख हैं। हमारा जन्म जीवन को चलाने के लिए ही नहीं हुआ है, बल्कि उस तरफ जीवन को ले जाना है, जहाँ सुख शांति हो। किसी को मारना ही हत्या नहीं है। महावीर ने वह भी हत्या बताई है, जहाँ राग-द्वेष द्वारा आत्मा की हत्या हो रही है, जिसके कारण चिरकाल पर्यत चार गति रूपी जेल में बन्दी बनना पड़ रहा है। जीव के उत्कर्ष को न मानते हुए उसको नीचा दिखाने के कार्य में लगे हुए हैं यह नहीं विचारते कि सामने जो है, वह भी मैं ही हूँ, वह भी सुख चाहता है, उसके लिए प्रयास जारी है उसका। अगर मैं सुख के रास्ते फूल नहीं बन सकूं तो कम से कम शूल तो नहीं बनूँ। सुख के रास्ते में फूल बन जाये तो वह तो महान् है ही पर अगर शूल भी न बने तो वह भी महान् ही है। हम सामने वाले की पहचान करें। सामने जो सत्ता है उसका भी दर्शन होना चाहिए, उसकी भी ज्योति जले। सामने वाला पेड़ भी उसी सत्ता को लेकर है। हम लोगों ने यही अपराध किया कि अपने से दुर्बल व सबल को ठेस पहुँचाने की चेष्टा की, इसलिए दुख का अनुभव कर रहे हैं। पीड़ा तभी दूर होगी जब दूसरों की पीड़ा भी दृष्टि में आएगी। पेड़ ने स्वयं कभी फलों का रसास्वादन नहीं किया, पर आपको रसास्वादन प्रदान करता है। फलों से आप पेट भर सकते हैं, पर पेड़ का सत्यानाश तो नहीं होना चाहिए। पका फल तोड़ने से भी पेड़ को उसी प्रकार दुख होता है, जिस प्रकार से पके हुए घाव को काटने पर हमको दर्द होता है। अपने जीवन के विकास के लिए दूसरों के जीवन को ठुकराते हुए नहीं बढ़ना। कहा भी है -

     

    थी दूसरों की आपदा हरणार्थ अपनी सम्पदा,

    कहते नहीं थे किन्तु हम करके दिखाते थे सदा।

     नीचे गिरे तो प्रेम से ऊँचा उठाते थे हमीं,

    पीछे रहे को घूम कर आगे बढ़ाते थे हमीं ॥

    किन्तु! आज दूसरे को उठाना तो दूर रहा, जो आगे बढ़ रहा है, ऊँचा उठ रहा है, उसको लंगी मारकर गिरा देते हैं, रूकावट के लिए बाड़ बनाते हैं। यह नहीं सोचते कि उसके पास भी बल है। हमारे पास जो धन, बल शक्ति है, उससे हमें गिरे हुए को उठाना चाहिए, पतित को पावन बनाना चाहिए, तभी ब्रह्मा, खुदा आदि की कृपा हो सकती है। महावीर ने कहा कि सभी का जीवन अपने समान है, उसके पास भी वह बल है जो हममें है। उनके पास वह शक्ति व्यत है हमारी शक्ति अव्यक्त रूप में है। अन्दर वही आत्मा है जो परमात्मा में, महावीर में है। खुदा के बन्दे हैं, पर बहुत गन्दे हैं। एक बार प्रभु को याद करो कि हे प्रभो ऐसा बल दो कि मैं खुद भी आदर्श के साथ जीऊँ, सारे लोग दृष्टांत के रूप में ले ले। ऐसा विवेक दो कि मैं दुखी का दुख दूर करूं ।

     

    जो कृतज्ञ है, वही सर्वज्ञ है। जो कृतघ्न व्यक्ति है, वह नर से नारकी, तिर्यञ्च बन सकता है। कृतज्ञ बनने पर सारे अन्धकार हट सकते हैं। दूसरों को जिलाने की, जीवन दान करने की शक्ति हममें नहीं है तो किसी का जीवन लेने का क्या अधिकार है। मारना ही जीवन लेना नहीं है। बल्कि दूसरों का धन लेना, निरपराधी को अपराधी ठहराना भी जीवन लेना है। खून सर्वप्रथम कोई नहीं पीता। क्रूर से क्रूर प्राणी भी अपनी माँ का दूध ही पीते हैं। अत: आज से ऐसी प्रतिज्ञा करो कि अपने जीवन को विकसित बनाएँगे। उस पार्थिव शरीर के द्वारा जो कुछ समय बाद बिखरने वाला है, अच्छे कार्य करेंगे। आखिर में यही कहता हूँ कि जिससे दूसरे का जीवन बिगड़ता हो, बंधन हो, दुख हो, सत्यानाश हो, ऐसा कार्य नहीं करेंगे। कहा भी है -

     

    मरहम पट्टी बाँध के वृण का कर उपचार।

     ऐसा यदि ना हो सके डण्डा तो मत मार ॥


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    जो कृतज्ञ है, वही सर्वज्ञ है। जो कृतघ्न व्यक्ति है, वह नर से नारकी, तिर्यञ्च बन सकता है। कृतज्ञ बनने पर सारे अन्धकार हट सकते हैं। दूसरों को जिलाने की, जीवन दान करने की शक्ति हममें नहीं है तो किसी का जीवन लेने का क्या अधिकार है। मारना ही जीवन लेना नहीं है। बल्कि दूसरों का धन लेना, निरपराधी को अपराधी ठहराना भी जीवन लेना है। खून सर्वप्रथम कोई नहीं पीता। क्रूर से क्रूर प्राणी भी अपनी माँ का दूध ही पीते हैं। अत: आज से ऐसी प्रतिज्ञा करो कि अपने जीवन को विकसित बनाएँगे। उस पार्थिव शरीर के द्वारा जो कुछ समय बाद बिखरने वाला है, अच्छे कार्य करेंगे। 

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