मोक्ष वह है जो बन्धन से मुक्ति दिला दे, उसके लिए साधन भी निरबन्धन रूप होने चाहिए अगर साधन बन्धन रूप होंगे तो मुक्ति कैसे होगी। साधन साधक का एक मात्र भाव है जो साध्य की ओर बढ़ रहा है। मोक्ष एक संवेध्य है, मोक्ष का मार्ग संवेदना परक है, भाव परक है। भावों के द्वारा ही मुक्ति हो सकती है और भावों के द्वारा ही बन्ध हो सकता है। मुक्ति के लिए भाव कैसे हो ? यह सोचना है। परमार्थ को प्राप्त किए हुए देवों का श्रद्धान करना, परमार्थ के शास्त्रों को मानना, यही मोक्ष मार्ग है। मोक्ष मार्ग के साधनों को बन्धन रूप नहीं अपनावें, मुक्ति रूप अपनावें तभी आचार विचार सभी समीचीन कहलाएगा। श्रद्धान कोई मानसिक, वाचनिक, शारीरिक चेष्टा नहीं है। मन, वचन, काय का परिणमन आत्मा की एक भावना है जो अन्दर से बाहर की ओर उमड़ पड़ती है, उसका अंकन परिलक्षण कैसे करेंगे? इसके लिए दूसरे के साथ तुलना नहीं करनी है। असंख्यात लोक प्रमाण को लेते हुए परिणाम होते रहते हैं, उन परिणामों के साथ अपनी तुलना कैसे हो सकती है, अपने परिणामों को देखो कि किन-किन भावों को लेकर उठते हैं, जब अन्दर से विश्वास को लेकर उठते हैं, तभी विचारों में समीचीनता आती है। विचार कथचित् पौढ़लिक है, विचारों से शरीर में, वचन में परिवर्तन होता है। शरीरादि भी पौढ़लिक है अत: इनमें भी समीचीनता आती है। आप यह सोचते ही नहीं कि बन्धन का निर्माण क्यों हो रहा है, क्योंकि अन्दर के परिणाम विपरीत हो रहे हैं, आज तक वह श्रद्धा हुई ही नहीं, जो होनी चाहिए। आप चाहते हैं कि हम बाहर की ओर जो देख रहे हैं, वे सदैव बने रहें, उनकी सुरक्षा के लिए, उनको पूर्ण करने के लिए हरदम प्रयास होता रहता है। अन्दर जो विचार उठ रहा है, उसकी ओर ध्यान ही नहीं है। इसीलिए पतन हो रहा है।
आचार्यों ने आप्त का मतलब 'मेहमान' बताया है। मेहमान वह है जो हमारी उन्नति, तथा सुरक्षा चाहते हैं, जो रास्ते को समीचीन बनाना चाह रहे है। पर हम उनकी बात पर विश्वास ही नहीं करते। आप्तों का प्रयास हितोपदेश द्वारा दुनियाँ को समीचीनता का दर्शन करा देना है। ऐसा विश्वास जब होता है तभी उसके बाद मार्ग आरम्भ हो जाता है, मोक्षमार्ग के लिए यही भूमिका है, अन्यथा तो सब संसार मार्ग कहलाते हैं। जब यह विश्वास हो जाये कि सुख परमार्थ में है, स्वार्थ में नहीं, तब सभी आचार, विचार, चारित्र समीचीन बनता चला जाएगा। आज हिंसक वृत्ति का बोल वाला है। बार-बार संदेशों को सुनते हैं पर जीवन में नहीं उतारना चाहते, परिवर्तन नहीं चाहते, मात्र पूर्व में भोगे हुए, परिचय में आये हुए पदार्थों को चाहते हैं। यह गलत है, इसमें हिंसक वृत्ति नहीं छूट सकती। हिंसक वृत्ति छूटने पर ही अव्यक्त बल प्राप्त कर सकते हैं। जब पापास्त्रव ही नहीं है तब अन्य सम्पदा संकलन की क्या जरूरत है धन का संग्रह बेकार है। कहा भी है कि ‘पूत कपूत तो क्यों धन संचय, पूत सपूत तो क्यों धन संचय'। कपूत पुत्र के लिए कितना भी धन रखो वह नष्ट कर देगा और सपूत तो अपने आप ही धन कमा लेगा। धन के अर्जन के पीछे जीवन समाप्त कर देना गलत है, संचय के समय कर्म सिद्धान्त को आप लोग भूल जाते हैं। परिवार के जीवन के लिए तथा अड़ोसी-पड़ोसी के जीवन की सुरक्षा के लिए इतने प्रयास की जरूरत नहीं। संसारमार्गी अगर आपको बनना है तो फिर उपदेश की नसियां आदि की जरूरत नहीं है, और अगर मोक्षमार्गी बनना है तो इतनी दौड़ धूप की जरूरत नहीं। आज तो बहुत दौड़ धूप धन संचय के लिए चल रही है। प्राय: ऐसा देखने में आ रहा है कि जितनी-जितनी मात्रा में उमर बढ़ रही है, उतनी-उतनी मात्रा में चिन्ता आकुलताएँ भी बढ़ रहीं हैं। अर्थ का उपार्जन पुण्य पाप का परिपाक है, इन शब्दों पर विश्वास ही नहीं है। जिस व्यक्ति का पुरुषार्थ असाता को बाँध रहा है, वह साता की उदीरणा के लिए बन्धन है। विगत में बहुत पाप किया है। अब आप साता की उदीरणा चाहते हैं तो वर्तमान में असाता कार्य, पाप कार्य बन्द करो। जागृति हो जाने पर सत् कार्य प्रारम्भ करो, जिसके फलस्वरूप पूर्व के पाप कार्य भी पुण्य कार्य (साता-कार्य) रूप परिवर्तित हो जाये, क्योंकि दोनों पुद्गल है, दोनों के मेल से बन्ध हो जाता है। अन्दर के सत्कार्य भी वर्तमान के पाप कार्य में परिवर्तित हो सकते हैं। मन्दिरों में रोजाना पूजन, प्रक्षाल, स्वाध्याय ही पुण्य कार्य नहीं है, ऐसा मानने पर मात्र वाचनिककायिक की ओर दृष्टि चली गई परिणामों में सन्तोष हो। अगर पूजन करते समय भी असंतोष है तो वह पूजन नहीं कहलाएगी। जहाँ सन्तोष है, वहीं पूजन है। दौड़ धूप कम हो। अन्दर में भाव उज्ज्वल हो, लिप्सा में कमी हो, जो बाजार में भी पूजन करता हो, वही वास्तविक पूजन है। जो सिर्फ मन्दिर में ही पूजन करता है और बाहर असंतोष में रहता है, वह पूजक नहीं है। प्राय: देखने में आता है कि जैसे-जैसे तिजोरी में नोटों की गिनती बढ़ती जाती है, तब चाहे पेट खाली भी हो तो भी खून बढ़ता जाता है, मुख पर ऐसी चमक आती है, जैसे बिजली के बल्बों द्वारा भी चमक नहीं होती।
डरने वाला तथा दूसरों को डराने वाला प्राणी सम्यक दर्शन से बहुत दूर हो जाता है। सम्यक दृष्टि जीव दुखी व्यक्ति को दुख से दूर कर धर्म चर्चा करता है। यही वास्तविक अनुकम्पा है। अर्थ तो मात्र परमार्थ के लिए माध्यम है, उसके पीछे जीवन को, परमार्थ को क्यों खोना। आज प्राय: मात्र पानी छानकर पीना तो दया, अहिंसा बताते हैं, परन्तु संज्ञी पंचेन्द्रिय का खून पीने में भी नहीं हिचकिचाते। जो पड़ोसी है, साधर्मी है, मोक्षमार्ग की ओर जो प्रवृत्त है, उसकी हत्या नहीं होनी चाहिए। चींटी की रक्षा तो करें पर मनुष्य की नहीं, यह क्या बात है ? अभयदान सबसे बड़ा है। आहार के बिना भी व्यक्ति कुछ समय रुक सकता है, औषध के बिना भी रोगी कुछ समय तक जीवित रह सकता है, किन्तु अभयदान के बिना एक पल भी नहीं रुक सकता। अभय से रोगी भी बच सकता है, डॉक्टर के द्वारा उसे भी रोग ठीक होने का आश्वासन मिल जाता है, परन्तु भय से निरोगी भी मर जाता है। खतरा वचनों में है। वचनों में डर दिखाने के अंश बिखरे पड़े हैं। अभयदान में आत्मा के परिणाम निर्मल बनते चले जाते हैं। अर्थ भी अनर्थ का मूल है, वह तो मात्र शरीर को चलाने के लिए साधन है। अगर शरीर रोगी हो और न चले तो अर्थ भी उसे नहीं चला सकता है। यह शरीर, अर्थ आदि की बातें बाहर को लेकर है। अन्दर की ओर, आत्मा की ओर जब लक्ष्य होता है, तब अर्थ, शरीर आदि गौण हो जाते हैं। मेरे साथ सबका आध्यात्मिक विकास हो, यही सम्यक दृष्टि चाहता है। अपने पर, आत्मिक भावों पर विश्वास करो। सोचो! हमारे अंदर निर्मलता आई कि नहीं? तभी तो वास्तविक परिवर्तन है। विचारों में समय के साथ-साथ परिवर्तन आता है तभी कालाय तस्मै नम: होता है।