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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. जब हम किसी भी बड़े व्यक्ति के पास जाएँगे तब उनके दर्शन के पूर्व कुछ भेंट करेंगे। हालांकि वे भूखे या भिखारी नहीं होते हैं, पर यह एक सम्मान का, उदारता का प्रतीक है। इसी प्रकार जब तीन लोक के नाथ के पास जायेंगे, नमस्कार करेंगे, तब क्या भेंट करेंगे ? कुछ न कुछ तो देंगे ही। हालांकि वो माँगते भी नहीं है, पर इस प्रकार हम उनका मान-सम्मान करते हैं, जबकि वे मान-सम्मान भी नहीं चाहते हैं। वे तो राग-द्वेषादि से दूर हैं। भेंट में अगर हम और कुछ नहीं तो कम से कम रागद्वेषादि जो हानिकारक है उन्हें ही उनके चरणों में विसर्जित कर देना चाहिए। आत्मा के अहितकारी विषय और कषाय है। अत: सर्व प्रथम महावीर भगवान् के सम्मुख थोड़ा-थोड़ा विषय कषाय को ही त्याग करना चाहिए। अनादि काल से इस जीव ने इन विषय कषायों को अपना मित्र मान रखा है, पर इनसे शान्ति नहीं मिल सकती। अपने भावों को भगवान् तक पहुँचाने के लिए हमें त्यागी के सम्मुख त्यागी बन कर ही जाना चाहिए। चावल लौंग आदि हम जब भगवान् के सामने चढ़ाते हैं, यह भी एक तरह से विषय को त्याग करना है। राग व कषाय, विषय वासना की वृद्धि हो रही हो तो पूजा सार्थक नहीं कहलाती है। जहाँ राग-द्वेष, विषय-कषाय का त्याग होता है वहाँ ही यह प्राणी महावीर भगवान के सन्निकट होता है। भगवान् महावीर का नाम लेने से हम उनके सन्निकट नहीं पहुँच पाएँगे, बल्कि जिस त्याग को उन्होंने अपनाया है उसको धारण करने पर ही हम उनके सन्निकट पहुँच सकते हैं। दुनियाँ का यह प्राणी मृत्यु से बहुत भयभीत होता है, फिर भी उस मृत्यु से मुक्ति नहीं है। क्योंकि जो जीना चाहता है वहाँ मृत्यु जरूर खड़ी होती है। उस चाहरूपी दाह से हमें मुक्त रहना है, तभी मृत्यु से मुक्ति मिल सकती है। आज दुनियाँ में धनवान से धनवान, करोड़पति-अरबपति आदि सबको मृत्यु का भय लगा हुआ है। और जो व्यक्ति डरता है तथा जो डराता है उसे मुक्ति (आनन्द) का अनुभव नहीं हो सकता है। इसे भय संज्ञा कहते हैं, यह सबसे ज्यादा खतरनाक है। आहार और काम संज्ञा से तो कुछ समय के लिए मुक्ति मिल सकती है। पर भय संज्ञा और परिग्रह संज्ञा २४ घंटे लगी रहती है। जो मुक्ति की इच्छा रखता है, उसे इन संज्ञाओं का त्याग करना पड़ेगा। शरीर के पीछे यह जीव विषय-कषायों को अपनाता है, खुद भी निभीक बनें और दूसरों को भी निभक बनावें, यही महोत्सव है। आप चाहते हैं, हर्ष उल्लास का वातावरण, सुख का संवेदन। हर प्राणी मात्र इसी कामना से परिश्रम करता है, पर जब तक वह डरता व डराता है, तब तक यह चीजें असंभव हैं। विश्वशांति तभी सम्भव है, जब हम अहिंसा को अपनाएँगे। दूसरे को डर दिखाने, पीड़ा पहुँचाने तथा हिंसा करने के लिए भी शस्त्र रखना पड़ेगा, और शस्त्रधारी को भी डर रहेगा कि बढ़िया शस्त्र बनाकर कोई उसको हानि न पहुँचा दे। अत: उसे भी भय लगा हुआ है। हमने आज तक यह देखा कि दूसरा अगर करे तो हम भी करें। पहल किसी को न किसी को तो करनी पड़ेगी। हमें भगवान् के दरबार में कुछ न कुछ तो विमोचन करना है। आज आपका जीवन भौतिक चकाचौंध की ओर झुक गया। मोक्ष मार्ग की ओर आरूढ़ हो जाने पर ही मोक्ष प्राप्त होगा। लोग प्रथम गुणस्थान पर रहते हैं पर बातें १४वें गुणस्थान की करते हैं। जब हम महावीर भगवान् के बताये रास्ते पर चलते हैं, तो अगर मन्दिर आकर उनके दर्शन न भी कर सकें तो कोई बात नहीं है। अध्ययन वही कर सकता है जो अध्ययन के समय तो कम से कम राग द्वेष त्याग कर दे। तब ही मोक्ष मार्ग की पृष्ठ भूमि प्रारम्भ हो जाती है। हमें विषय कषायों को गौण करना है, तब ही हम जान पायेंगे कि महावीर भगवान् क्या हैं ? मोक्षमार्ग क्या है ? हम अभी तक उपासक नहीं बन पा रहे हैं, इसका कारण हम स्वयं भयभीत हैं और दूसरों को भयभीत कर रहे हैं। हम मृत्यु से डर रहे हैं और डरा रहे हैं। हम मृत्यु से डरते हुए भी मृत्यु पर विजय प्राप्त नहीं कर रहे हैं। आत्मा को कष्ट व दुख हो रहा है, वह उल्टी परिणति के कारण हो रहा है, और वह उल्टी परिणति क्रोध, मान, माया लोभ है। हम नाम, स्थापना, द्रव्य से जैन हैं, पर भाव से जैन कोई विरला ही होगा। हमें भाव से जैन होना है। समीचीन परिश्रम, व समीचीन खर्च करना है। इसमें विवेक की आवश्यकता है। भौतिक चकाचौंध से सुख प्राप्त करना, अपने आपको धोखा देना है।
  2. नमस्कार का निषेध करने पर क्या होगा, यह हमें देखना होगा। व्यक्ति का साधन व माध्यम भिन्न हो सकता है, पर केन्द्र एक होगा। 'श्री' शब्द लक्ष्मी वाचक है। दुनियाँ में लक्ष्मी अनेक प्रकार की मानी गई है। वर्तमान में स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए विश्व का प्रयास चल रहा है। कोई स्वास्थ्य का अवलोकन धन में, कोई तन में और कोई वन में कर रहा है। स्वास्थ्य दुनियाँ में नहीं है। स्वास्थ्य का मतलब है अभीष्ट की प्राप्ति, कल्याण, अविनाशी सुख। यह दुनियाँ के पदार्थों में नहीं है। जो स्वास्थ्य कभी मिट जाये, कभी पैदा हो जाये, वह स्वास्थ्य नहीं है। स्वास्थ्य जब चरम सीमा पर पहुँच जाये तब ही स्वास्थ्य है। मधु से लिपटी तलवार को चाटने में थोड़ा सा सुख का अनुभव होते ही जीभ दो भागों में विभक्त हो जाएगी। जैसे ही यह जीव भोग के सन्निकट जाता है वैसे ही जो सुख, जो ज्ञान प्राप्त है, वह भी लुट जाता है और रोग के सन्निकट पहुँच जाता है, स्वाधीनता का अभाव हो जाता है। भोगों द्वारा जो क्षणिक सुख प्राप्त होता है, वह सुख, दुख को निमन्त्रण देता है। सोना जो आपको प्रिय लगता है पर ज्यादा भारी सोना स्वास्थ्य में बाधक है। किसी ने अच्छा ही कहा है वा सोने को जारिये जा सों टूटे कान तृष्णा की वजह से शांति प्राप्त नहीं होती है। रोग से पृथक्र, भोग से पृथक् तथा योग से युक्त जो वस्तु है, वह वास्तविक हितकारी है।नमस्कार जिसने नहीं किया है, उसे क्या फल मिलेगा। इसके लिए रावण व बाली मुनि का उदाहरण सामने है। मन बहुत चंचल है। प्राय: करके स्खलित हो जाया करता है पेड़ पर चढ़ना आसान है पर उतरने पर नीचे गड़ा नजर आता है, उतरना बहुत मुश्किल है। अपने आपका आलम्बन छोड़ना, स्वावलंबन को छोड़ना है और पराधीनता को पकड़ना है। तेरा नमस्कार करना दुनियाँ की सुरक्षा करना नहीं, अपनी सुरक्षा करना है। दुनियाँ की सुरक्षा करते-करते तो वर्षों बीत गये। जब असाता वेदनीय कर्म का उदय होगा, तब नाम, यश-कीर्ति सब मिट जाएँगे और अगर नाम रखने की भी कोशिश की तो वह नाम बदनाम हो जायेगा। शारीरिक शक्ति, धन की शक्ति और शासन की शक्ति से भी बढ़ कर आत्मा की शक्ति अलौकिक है। नमस्कार करें तो चमत्कार हो जाये, और तिरस्कार करें तो बहिष्कार हो जाता है। तीन लोक की सम्पदा नमस्कार करने पर मिल सकती है और न करने पर रोना पड़ता है। स्वाधीनता, सरलता और समताभाव को धारण करो, क्योंकि यही आत्मा की निधि है। इसको नहीं अपनाने पर दुख का कारण होता है। जीव मिटता नहीं है, उसे दुख का अनुभव तो करना ही पड़ेगा। किए हुए कार्यों से यह जीव संसार परिभ्रमण करता है। आप लोग रात दिन कुटिलता, ममता, वक्रता के साथ कितना पाप कर रहे हैं, यह विचार करना चाहिए। मायाचार अपना स्वभाव नहीं है। परतंत्रता को छोड़कर स्वाधीनता की ओर आना चाहिए, तभी सफलता मिलेगी।
  3. आज नमस्कार के द्वितीय पहलू के बारे में कुछ कहना है। प्राय: करके जो शब्दों में वर्णन किया जाता है वह बाहर की कीर्ति रह जाती है। शब्दों के माध्यम से जो नमस्कार किया है, उसके बाद आन्तरिक अनुभूति भी होनी चाहिए। अब मैं यहाँ पर नमस्कार कर रहा हूँ, अपने लिए। प्रभु की बात अब अलग हो गई। वास्तविक नमस्कार, भक्ति, स्तुति जो भी है, वह अपने लिए। नमस्कार का लक्ष्य अपने आपको नमस्कार का होना चाहिए। प्रभु को नमस्कार साधन है, माध्यम है, उपाय है। यह उपादेय, सिद्धि अथवा लक्ष्य नहीं है। प्रभु को नमस्कार कोई Artificial नहीं है। हमें अब नमस्कार के बाद आगे बढ़ना है। आत्मानुभूति से, अपने आपका रसास्वादन, अपने आपको टटोलने से ही संसार का भ्रमण रुक सकता है। महावीर भगवान् का यही सन्देश है कि भगवान् की भक्ति मुक्ति नहीं दे सकती है, पर मुक्ति का रास्ता बता सकती है। हमें आत्म भक्ति करनी है। जिसको अपनी कीर्ति, नाम की इच्छा नहीं रहती है, वही आत्मा की भक्ति कर सकता है। जब तक बालक कमजोर है, तभी तक पिताजी का हाथ पकड़ कर चलता है, बाद में स्वयं चलता है। इसी प्रकार प्रभु की भक्ति भी जब तक मोक्ष का रास्ता नहीं दिखे तब तक करना है, उसके बाद आत्मा की भक्ति करना है। दस मंजिल की इमारत पर खड़ा एक दोस्त अपने दूसरे दोस्त को जो सड़क से मंजिल के नीचे से जा रहा है, आवाज देता है। नीचे वाले दोस्त ने उसे देखा, बात भी करी, पर अगर वह दोस्त को ही देखता रहेगा तो दोस्त को प्राप्त नहीं कर सकेगा। उसे दोस्त की तरफ से ध्यान हटा कर दोस्त के द्वारा बताई गई सीढ़ियों (रास्ते) की तरफ देखना होगा तभी वह ऊपर पहुँच सकता है। इसी प्रकार हमने प्रभु के बताए हुए मार्ग को समझ लिया है, अब अगर प्रभु को ही देखते रहे, भक्ति ही करते रहे तो प्रभु के पास कैसे पहुँचेंगे। अब तो प्रभु को भूल कर मोक्ष मार्ग की ओर आरूढ़ होना है। यह नमस्कार का दूसरा पहलू है। हमें अब मार्ग को नहीं भूलना है। प्रभु को गौण करके आत्मा की ओर देखो तो आपको ऐसा रसास्वादन मिलेगा जैसा पहले कभी नहीं मिला होगा। आचार्य कहते हैं कि प्रभु का, नमस्कार का वर्णन करना अलग बात है, और अनुभव करना अलग बात है। मिसरी को चखने पर रसास्वादन का वर्णन करने को शब्द नहीं मिलेंगे। इसी प्रकार नमस्कार को चख लेने पर, अनुभूति कर लेने पर, उसका वर्णन उसका विश्लेषण नहीं किया जा सकता है। नमस्कार संवेदन की चीज है। दस मंजिल पर खड़ा दोस्त कह रहा है कि अब मुझे भूल जा और इस रास्ते को अपना। रास्ते को मत भूलना, नहीं तो कहीं का भी नहीं रहेगा। शब्दों में कभी-कभी अवास्तविकता भी आ जाती है। आप लोग शब्दों को पकड़ना चाह रहे हैं। आप साधन को साध्य मान रहे हैं। यह तो सिर्फ उपाय है। यह तो आरम्भ है, अन्त नहीं। अभी तक नमस्कार से जो अनुभूति आनी चाहिए, उससे आप वंचित रहे। इस रहस्य को समझना ही वास्तविक भगवान् के निकट पहुँचना है। आप कहते हैं कि महाराज का प्रवचन बहुत मीठा होता है। अरे भाई ! पर महाराज को जो अनुभव हो रहा है, वह अगर आपको हो जाये तो आप यह कहना भूल जाओ। ऐसा कहने से सुस्वर नाम के कर्म का बन्ध होता है। निज संवेदन से दुख की प्राप्ति नहीं सुख का, शांति का अनुभव होता है। आज तक हमने बाहर से नमस्कार, जय जयकार किया है। प्रभु तक पहुँचने के लिए प्रभु की तरफ से दृष्टि हटानी ही होगी। और प्रभु जिस रास्ते गये हैं, उस रास्ते की ओर दृष्टि करनी होगी। इसमें थोड़ी भी कमी रह जाये तो हम नीचे गिरते हैं। स्खलन हो जाता है। हमें अपने आपका अनुभव करना होगा। बहुत कुछ त्याग आपके द्वारा हो चुका है और भी त्याग करने को तैयार है। त्याग होना और त्याग करना, दोनों अलग बात है। जो हमारे वास्तविक निकट है उसे त्याग करना है। चश्मे को देखने के बाद दृष्टि में जो भेद पड़ा है, जो कमी है, उसे दूर करना है, तभी संवेदन हो सकता है। अनेकों ने साधु मार्ग को अपनाया, घर बार को छोड़ा, दुनियादारी को छोड़ा। यह प्रारंभ है, अन्त नहीं पहुँचने की प्रारम्भिक विधि है। घर बार को छोड़ना अनिवार्य है, परन्तु घर बार छोड़ने के बाद अनिवार्य रूप से लक्ष्य तक पहुँच ही जाये, यह जरूरी नहीं है। घर बार छोड़ने के बाद भी बहुत कुछ करना है। सामायिक में नींद आती है, गर्मी में पसीना भी आ जाता है, हम पोंछने लग जाते हैं, परन्तु दुकान पर ग्राहकों की भीड़ हो, हवा भी नहीं हो, पसीना आ रहा हो, खाने का समय निकल रहा हो, तो भी चिन्ता नहीं करेंगे। यह कष्ट कोई कष्ट नहीं है, क्योंकि धन में वृद्धि हो रही है, नोटों की लहर आ रही है। अगर ऐसा उपयोग हम सामायिक में लगा दें, तो कल्याण हो जाये। दुकानदारी में एक वक्त खाना छूट जाये तो कोई कष्ट महसूस नहीं करेंगे पर वैसे महीने में एक दिन भी एक समय भोजन नहीं करने का नियम नहीं लेंगे। वहाँ मन विषयों में लगा है, आत्मा में नहीं लगा है, विषयों का विकास हो रहा है, आत्मा के परिणामों का ह्रास हो रहा है। पुद्गलों में वृद्धि हो रही है। महावीर ने कहा है कि त्याग को भी त्याग दो। यानि प्रभु का नाम लो और प्रभु को भी भुला दो, यह नमस्कार का दूसरा पहलू है। स्व-संवेदन करना है। जब स्व-संवेदन में चले जाते हैं, तब बाहर के व्यक्तियों को भूल जाते हैं, यहाँ तक कि प्रभु को भी भूल जाते हैं। घर छोड़ने के बाद यह कहें कि मैं घर का त्यागी हूँ, गलत है। घर में शारीरिक वेदना होती थी, अब इसका त्यागी, उसका त्यागी, यह एक मानसिक वेदना चालू हो जाती है। हम में छोड़ने के बाद परिवर्तन आना चाहिए। घर में हलवा खाता था, यहाँ त्याग हो गया। पर हलवे को भूला नहीं। घर में खाने के उपरांत कुछ समय के लिए तो हलवे को भूल जाता है, पर त्याग करने के बाद दिन भर इसी को याद करना, इससे न तो हलवे का ही रसास्वादन हो पा रहा है और न ही स्व-संवेदन। इससे अपना कल्याण नहीं होगा। आप नौकर से मालिक बनो, उसके कहे अनुसार ही जय-जय मत बोलो, उसके आगे भी बढ़ी। हमें घर के साथ सब को भूलना है। व्यक्तित्व को, अहं को, निज को मिटादे। तू भी स्व को सहज में प्रभु में मिलादे ॥ आप मिलाना पसंद नहीं करते, क्योंकि आप सोचते हैं कि मिलाने के बाद मेरा अस्तित्व, मेरा-प्रभुत्व, स्वामित्व, नाम नहीं रहेगा। लेकिन हमें अपने को, अपने व्यक्तित्व को मिलाना होगा, इससे अपारता अपरिमितता आ जाएगी। हममें अलौकिक शक्ति जागृत हो जाएगी। हमने नमस्कार करने के बाद आज तक अपने को नदी की तरह मिटाना पसन्द नहीं किया। वर्तमान हमेशा नहीं रहेगा। लहर समुद्र में उठती है और मिटती है। वास्तविक शक्ति अपने आपको नमस्कार करने से मिलेगी। लेकिन अगर अपने आपको याद नहीं कर सको, तो प्रभु को तो याद रखना ही है। दोनों को ही नहीं भूलना है। उपासना तब तक करो, जब तक उपास्य नहीं बन जाते। उसके लिए कोशिश करना है।
  4. कुछ लोगों का यह विचार हो सकता है कि हम प्रभु को नमस्कार करें तो इससे क्या लाभ हो सकता है, क्योंकि जैनियों के यहाँ ईश्वर का स्थान नहीं है, क्योंकि सभी जैनी ईश्वर बन सकते हैं। प्रभु आनन्द, सुख, शांति दिलाने वाले नहीं हैं। अगर प्रभु ये गुण दिला दें तो उनके पास कुछ नहीं बचेगा। ये गुण तो आत्मा के गुण हैं। बालक चलना चाहता है, पिताजी के हाथ का सहारा लेकर। क्या पिताजी उसे चलाते हैं ? नहीं ! बच्चा चलता है अपने पैरों से। पर जब तक वह दूसरों का सहारा नहीं लेगा, नहीं चल सकता। अभी वह कमजोर है। अत: दूसरों का सहारा लेना, नमस्कार करना हालांकि अपनी कमजोरी है, परन्तु हमें इसे एकांतरूप नहीं लगाना है। आत्मा में अनन्त शक्ति है, परन्तु छिपी है। नमस्कार बन्ध का कारण है, परन्तु अनादि से जो भूख लगी है, वह खाने के द्वारा ही मिटेगी। जिस प्रकार तंदरुस्त के लिए हस्तावलम्बन, चलने (दौड़ने) के लिए गतिरोध का कारण है, पर बच्चे के लिए सहायक है, इसी प्रकार नमस्कार सबके लिए ही बन्ध का कारण नहीं है। यह गति भ्रमण को रोकने में भी कारण है। जिसने वर्षों अभ्यास किया है, तार पर चलने का, फिर भी वह नट लट्ट को लेकर चलता है, लट्ट उसके लिए सहायक है, हालांकि उसकी दृष्टि लक्ष्य की ओर है। ध्यान में आलंबन नितांत आवश्यक है। पूजा, प्रक्षाल, दान, विनय, इंगित पर चलना बन्ध के लिए कारण नहीं है। बन्ध करना और बन्ध होना, दोनों अलग हैं। बन्ध करने में संकल्प व इरादा है। बन्ध होने में नहीं। दुकान में नौकर रखना, व्यय करना है, पर वह नौकर धन वृद्धि में कारण है। खर्च करने के साथ ही आमदनी हो रही है, वह घाटा नहीं है। नौकर को वेतन देने में खुशी हो रही है, क्योंकि यहाँ देना आदान का कारण है, उससे डबल कमाई हो रही है। आस्रव का द्वार यदि छोटा हो और संवर का द्वार बड़ा हो तो कोई बात नहीं है। नमस्कार करने में यह चतुराई होनी चाहिए कि मुझे बन्ध ज्यादा हो रहा है या इससे भी ज्यादा संवर हो रहा है। हमें आस्त्रव व बन्ध से डर होना चाहिए। इस जीव को अनादिकाल से आस्रव ही सता रहा है। हमको बहुत विचारशील होकर आस्रव को रोकना है। हम उपाय को ढूँढ़ते हैं। अपाय को नहीं। हमारे बाधक कारण का आलंबन, उत्पत्ति दुख है। दुख की सामग्री को फेंक कर हमें सुख की सामग्री को जुटानी है। दुख की सामग्री आस्त्रव और बन्ध है। और सुख की सामग्री संवर और निर्जरा है। इसको प्रयोग में लाने पर ही मोक्ष सुख की प्राप्ति होगी। हमें अर्थ को चाहते हुए अनर्थ से बचते हुए अर्थ का त्याग करना है, इसमें घाटा नहीं है नाश नहीं है, दुख नहीं है, सुख का कारण है। हमें चलना है तो रुक कर पैर से काँटे को निकालना है। Absent और Late में बहुत अन्तर है। देरी से पहुँचने में ज्यादा नुकसान नहीं है। पर नहीं पहुँचने में जुर्म है। जिसके पास जो गुण ज्यादा है, कम गुण वाले पदार्थ वैसे ही गुण में परिणत हो जाते हैं। जो बहुमत है, उसी के अनुसार कार्य किया जाता है। उसके पास पुण्य की सामग्री ज्यादा है तो बन्ध भी पुण्य हेतु बन जाता है। इसलिए आचार्यों को मन, वचन, काय से, संगीत से, किसी भी प्रकार नमस्कार करना चाहिए। लेकिन इस नमस्कार करने में संक्लेश परिणाम नहीं होने चाहिए। वैद्य भी कभी-कभी एक रोग को मिटाने के लिए ऐसी दवा भी देता है जो दूसरा रोग भी पैदा कर देती है और फिर इलाज कर दोनों रोगों को मिटाता है। विशुद्धि लब्धि कषाय को उपशमित कर देती है। मंद कषाय सम्यग्दर्शन की भूमिका का कारण होती है। जब कषायों में मंदता आती है, तब वह प्रभु के चरणों की ओर लक्ष्य रखता है, अपने आप से हटता है। संवर निर्जरा को प्राप्त करने वाला व्यक्ति सर्वप्रथम अपने आपको भूल कर प्रभु-चरणों में अपने आपको बिठायेगा। जब नदी अपने आपको खोती है और समुद्र में समर्पण कर देती है, कठिनाइयों को झेलती है, पहाड़ों से गिरती है, पत्थरों से चोट खाती है, सारा मैल आदि ले जाती है और अपने आप को भूल कर समुद्र की अनन्त शाँति में पहुँच जाती है। आज हम अपने नाम को मिटाना नहीं चाहते हैं पर प्रभु का नाम भी लेना चाहते हैं। आलम्बन तो लेना चाहें और अपना नाम रखना चाहें, यह सम्भव नहीं है। जिसको प्राप्त करना चाहते हैं, उसकी स्तुति, कीर्ति, उपासना करते समय अपने आपको भूलना पड़ेगा, अपने आपको मिटाना पड़ेगा। जिसको मोह है इस अवस्था से वह तीन काल तक सुख को प्राप्त नहीं हो सकेगा, क्योंकि वर्तमान पर्याय हमेशा रहने वाली नहीं है। सत्ता ज्यों की त्यों रहती है, पर पर्याय तो नष्ट होती है। प्रभु को नमस्कार करते समय अपने आपको भूलने व मिटाने से हम मिटेंगे नहीं, उससे सत्ता में सुन्दरता आती है पर्याय भले ही बदल जाये। कुरूप से सुरूप बनने की चेष्टा करो, दुरूप बनने की नहीं। घर में भी आस्रव होता है और मन्दिर में भी आस्त्रव होता है, पर दोनों में भिन्नता है। मन्दिर का आस्त्रव सम्यग्दर्शन के सम्मुख है और घर का आस्रव मिथ्यादर्शन के सम्मुख। मन्दिर में बन्ध हो रहा है, पर घर में बन्ध करते हैं। इसमें भिन्नता है। देव, शास्त्र, गुरु को नमस्कार करके हम कर्मों की निर्जरा भी करते हैं। मंदिर आदि आलम्बन हैं। लक्ष्य उसी प्रकार का चाहिए जो चलने में सहायक हो। यहाँ १ घंटे बैठकर आप इतने समय के लिए कषाय को भूल गये, देशना लब्धि को प्राप्त किया, इससे असंख्यात गुणी निर्जरा हो गई। वस्तु तत्व का चिंतन करने पर सुख अपने आप आने लगता है। प्रभु ने सुख दिया नहीं पर सुख का रास्ता बता दिया। प्रभु देते व लेते नहीं हैं। दर्पण मुख दिखाता नहीं, पर मुख को दिखा सकता है।
  5. अनुशासन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार कठोरता के बिना "अनुशासन" चलता ही नहीं। नियम, संविधान, लचकदार नहीं होना चाहिए, कानून तो कठोर ही होना चाहिए, वरन् व्यवस्था बिगड़ जाती है। कमल इतनी उष्णता को सह रहे हैं, तभी तो खिले हुये रहते हैं, वैसे ही कठोर "अनुशासन" बनाये रखेंगे तो आपके घर में हमेशा मर्यादायें कायम रहेगी। सूर्य की किरणें शुरूआत में कोमल बाद में कठोर ही होती हैं, फिर भी कमल को खिला देती हैं। कठोरता का अनुभव करने से जीवन में अच्छा फल मिलता है। आदेश देने वाला सभी को खुश नहीं रख सकता। पाप के डर से मर्यादा में रहना चाहिए, इसी का नाम अनुशासन है। अनुशासन में रहना पापभीरूता का प्रतीक है। कार्यक्रम की शोभा अनुशासन से ही हुआ करती है। कार्य सानंद सम्पन्न तभी होता है, जब संकल्प और अनुशासन दृढ़ हो। बाहरी शासन एक सीमा तक अनिवार्य होता है। समझदार को इशारा काफी नासमझ को ये सारा भी कम है। आप स्वयं खुद खुदा बनना चाहते हो तो खुदा के बंदे तो बन जाओ, खुदा बनने की शुरुआत हो जावेगी। आप स्वयं खुद खुदा बनना चाहते हो तो खुद में एक डंडा लगाओ। दूसरे पर डंडा लगाकर अधिकार पूर्वक खुदा मत बनो। हम अपने आपको नियंत्रण में रखने का प्रयास करें दूसरा अपने आप नियंत्रण में आ जावेगा। दूसरे को नियंत्रण में रखना कमजोरी है। अपने को नियंत्रण में रखना अपने कोस की बात मानी जाती है। भगवान् महावीर ने किसी पर शासन नहीं चलाया, वे आत्मानुशासन में लगे रहे। नियंत्रण आस्था के ऊपर आधारित रहता है। हम प्रतिष्ठा नहीं चाहते स्व में प्रतिष्ठित होना चाहते हैं। पर की ओर जाना आक्रमण माना जाता है, स्व की ओर आना प्रतिक्रमण माना जाता है। आत्मानुशासन ही परम शासन है, आत्मानुशासन से किसी को कष्ट नहीं होता लेकिन दूसरे पर शासन जमाने पर दूसरे को कष्ट अवश्य पहुँचता है। किसी दूसरे पर शासन करने का भाव ही हिंसा है। एक कार्य में लगे दूसरे कार्य के बारे में सोचना, चिन्ता करना अनुशासन हीनता मानी जाती है। हम अपने पर अधिकार न रखकर दुनियाँ पर अधिकार जमाने का भाव करते हैं, यही संसार की जड है। शिष्य और शीशी को डॉट अवश्य लगाना चाहिए। यदि शीशी में डॉट न हो तो माल सुरक्षित नहीं रह सकता।
  6. जब तीर्थकर भगवान् का जन्म होता है, तब धूल-धूसरित रास्ता उज्ज्वल बनता जाता है और उनके अभाव में वापस धूल से भर जाता है। प्राय: संसारी व्यक्ति को रास्ता बताने की जरूरत पड़ती है। जिस प्रकार आकाश में अनेकों पक्षी चलते हैं पर उनके पद-चिह्न नहीं पड़ते हैं, उसी प्रकार मोक्ष रास्ते में अनेकों व्यक्ति चलते हैं, पर चिह्न नहीं पड़ते हैं। नमस्कार हमको किस लक्ष्य को लेकर करना है ? यह हमें देखना है। अनेक व्यक्ति रात दिन भगवान् का नाम लेते हैं, उपासना करते हैं। तन, मन, धन व वचन से नाम लेते हैं पर इससे ऊपर भी एक चीज है, वह है लक्ष्य की ओर ध्यान देना, निदान की ओर ध्यान देना। जब तक रोग का निदान नहीं होगा, तब तक रोगी का रोग दूर नहीं होगा, उसी प्रकार हमें भी लक्ष्य को पहले देखना होगा। हमें यह देखना होगा कि जिस वस्तु (लक्ष्य) को हम चाह रहे हैं, उसको प्राप्त करने का रास्ता भिन्न तो नहीं है, हमारी गति दूसरी दिशा की ओर तो नहीं है। परिग्रह महा खतरनाक है, जिसको आप लोग अच्छा मानते हैं। बाह्य परिग्रह से भी ज्यादा आभ्यंतर में मिथ्यात्व सबसे बड़ा परिग्रह है। स्थिति क्या है हमारी ? हम बहुत संतप्त हैं, तड़प रहे हैं। पर हवा ठण्डी नहीं है, पानी भी शीतल नहीं है। अनन्तकाल से यही मिथ्यात्व रूपी हवा हमें लग रही है, और जब तक ऐसी हवा लगती रहेगी, तब तक हमारे नमस्कार, उपासना को महावीर भगवान् स्वीकार नहीं कर सकते। उपासना तो दुनियाँ में सब करते हैं, पर कोई विषय-वासना की पुष्टि के लिए, शरीर की रक्षा करते हुए डॉक्टर के कहने पर रस त्याग करते हैं। पर उपासनाउपासना, त्याग-त्याग में फर्क होता है। डॉक्टर के कहने से एक बार भोजन करने का नियम ले लेने से, रस त्याग कर देने से कोई व्यक्ति त्यागी-मुनि नहीं बन सकता है। एक को जीने की, संपोषण की, शरीर को रखने की, पर की इच्छा है। वहाँ मुनि का त्याग भिन्न है। हम नमस्कार तो कर रहे हैं, पर अलग ही लक्ष्य को लेकर। संतान के न होने पर, रोगी होने पर, कचहरी में मुकदमा जीतने के लिए उपासना करना-मिथ्यात्व है विपरीत उपासना है। इससे संसार का अभाव, चतुर्गति भटकन कभी नहीं रुकेगा। वासना, तृष्णा के पीछे भटकते हुए हमारी यही गति हो रही है। जो भगवान् की दृष्टि है, वही भत की दृष्टि होनी चाहिए। भिन्न दृष्टि होने पर लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होगी। हममें यह विवेक नहीं है कि उपासना किसलिए करनी है। तो सबसे बढ़िया यही है कि सुबह उठकर चक्की को धोक दें, जिसके चलाने से कम से कम आटा तो मिलेगा, भगवान् से कया मिलेगा? हमें मिथ्यात्वरूपी परिग्रह को छोड़ना पड़ेगा, यही जन्म-मरण का कारण है। जन्म और मरण के बीच में है ‘जरा' हमें इसका भी संहार करना है। भगवान् ने जब इन तीनों को नहीं चाहा तो भक्त को भी इन तीनों को नहीं चाहना चाहिए। हमें तो मृत्युंजयी बनने की कोशिश करना चाहिए जो इस उद्देश्य को लेकर चलेगा, उसका रास्ता समीचीन बनता चला जायेगा। इस मिथ्यात्वरूपी परिग्रह को हमें गृहस्थाश्रम में ही छोड़ना है, बाकी परिग्रह तो बहुत जल्दी अपने आप छूट जायेंगे। रोग का निदान न होने पर जीरा की जगह हीरा भी खिला दे तो भी उसका प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। सर्व प्रथम जिधर हमें जाना है, अपनी दृष्टि उधर ही करनी पड़ेगी। आत्मा का स्वभाव है ‘चलना' अगर उसे मिथ्यात्व का रास्ता मिल गया तो उधर चलेगी और समीचीन रास्ता मिल गया तो यह आत्मा उधर चलने लगेगी। अनादिकाल से जो कर्म अर्जित है, वह भी एक बार नमस्कार, स्तुति करने से नाश हो जाते हैं। जैसे बहुत सारे कचरे को दिया सलाई से जरा जलाने पर वह जल कर राख हो जायेगा और उस राख को भी हवा उड़ा कर ले जाएगी। हालांकि नमस्कार स्तुति का फल मिलता है, पर वह फल संसार वृद्धि का कारण न होना चाहिए। हमें विषय-वासना आदि के लिए स्तुति, उपासना नहीं करनी है। यद्यपि कीचड़ में कमल है पर सुरक्षित है, उसका लक्ष्य कादे से अलग होने का है, लोहे की तरह मिट्टी में होने का नहीं। हमें इसको सोचना है। हमें लक्ष्य कमल के फूल के समान कीचड़ से अलग होने का बनाना है। हमें प्रभु के सामने कोर्ट केस में जीतने, धन वैभव बढ़ाने आदि संसार वृद्धि के लिए स्तुति नहीं करनी है। दृष्टि में (उपयोग में) समीचीनता है, तो वचनों में भी समीचीनता आ जाती है। नमस्कार के लिए अन्दर का उपयोग जरूरी है, समय, क्षेत्र आदि का ज्यादा महत्व नहीं है। स्तुति, गुरु के न होने पर भी फल देगी, क्योंकि गुरु तो हृदय में विराजे हुए हैं। गुरु प्रत्यक्ष में हों या न हों पर गुरु के प्रति विनय होनी चाहिए। गुरु के प्रति आत्म समर्पण करने पर ही (विद्या) फल की प्राप्ति होगी। हमें शब्दों में नहीं उलझना है, भाव को पकड़ना है। शब्दों में उलझकर समय व शक्ति खर्च नहीं करना है। महावीर भगवान् का कहना है कि ८ साल की उम्र के बाद अच्छे कार्य करने के लिए जीवन भर मुहूर्त है, पर आज ८० साल तक के भी हो जाने पर यही कहते हैं कि मुहूर्त नहीं आया। हमें मुहूर्त के लिए मूढ़ता को छोड़ना है।
  7. अणुव्रत विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार श्रावक मूलधन को अणुव्रत रूपी बैंक में जमा करके अच्छा ब्याज कमा सकता है। दिशाओं की सीमा बाँधने से अणुव्रत भी महाव्रत रूप हो जाते हैं। अणुव्रत महाव्रत के हेतु हैं। महाव्रती का अनुचर अणुव्रती कहलाता है।
  8. अनुभव विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अनुभव ज्ञान की सुगंधी है, शास्त्र की नहीं। अनुभव का जीवन, जीवन माना जाता है। दूसरे पर आधारित जीवन जीवन नहीं माना जाता। स्वं (आत्मा) अनुभव में इसलिए नहीं आ रहा है क्योंकि वह इन्द्रियों का विषय नहीं बन सकता। सूक्ष्मता में जाने पर आगम ही आधार बनेगा। अनुभवगम्य में दूसरे की तुलना नहीं होती। अनुभव स्व का होता है पर का नहीं और अनुभव वर्तमान का, उसी समय का होता है भूत, भविष्य का नहीं। वर्तमान में जो अनुभव हो रहा है वह स्वभाव नहीं है इसलिए इसमें हर्ष-विषाद नहीं करना चाहिए बल्कि समता धारण करना चाहिए। मोक्षमार्ग में मात्र आत्मा का ही अनुभव होता रहता है ऐसा नहीं है साता-असाता कर्म का भी अनुभव होता है इसमें हर्ष-विषाद न करके समता रखने से कर्म की निर्जरा होती रहती है। ज्ञान व श्रद्धान त्रैकालिक का हो सकता है किन्तु अनुभव (अनुभूति) तो वर्तमान का ही होता हैं।
  9. अनादि काल से इस आत्मा की स्थिति झुकने की नहीं रही है, यह मस्तक (गर्दन) सीधा रखना चाहता है। नमस्कार करना, एक दृष्टि से आत्म समर्पण करना है, अपने को लघु समझना है, और जिसके सामने नत मस्तक हुआ है, उसको अपने से बड़ा समझना है। मन, वचन, काय, कृतकारित-अनुमोदन, बाह्य तथा आभ्यंतर से एकमेक होकर नमस्कार करने से समीचीनता आती है। जब भी कोई मंगल कार्य करने जाते हैं तो सर्व प्रथम अपने इष्ट देवताओं को नमस्कार करते हैं। ज्ञान वह है, जिसमें अपूर्णता न्यूनता तथा अज्ञानता नहीं रहती है। हमें गुरु बनना है, अपने आपको गुरु समझना नहीं है। अपूर्ण चीज दुख का अनुभव करा देती है। पूर्णता की उपासना में ही सुख का संवेदन है। हमें उपासक बनना पड़ेगा तभी अपूर्णताएँ समाप्त होंगी। जिस प्रकार जौहरी बनने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति जौहरी के पास जाएगा, उसकी सेवा करेगा, पगचम्पी करेगा और जवाहरात के सम्बन्ध में बार-बार प्रश्न पूछ कर ज्ञान प्राप्त करेगा। धर्म के क्षेत्र में भी हमें उसी प्रकार सेवक बनना पड़ेगा। जिस प्रकार मोटर गाड़ी की सफाई व ड्राइवर की पगचम्पी क्लीनर करता है जिसे संस्कृत भाषा में ‘किन्नर' कहते हैं वह Cleaner ड्राइवर की सेवा करके गाड़ी चलाना सीखता है। स्याद्वाद का यही रहस्य है कि वह जीव किसी रूप में ज्ञानी है तो किसी रूप में अज्ञानी भी है। इन्द्रिय ज्ञान का अभाव सिद्ध परमेष्ठी में है। अतः कथचित् रूप से हम सिद्ध परमेष्ठी को इन्द्रिय ज्ञान की अपेक्षा अज्ञानी कह सकते हैं। परन्तु अतीन्द्रिय ज्ञान उनके पास है, वे अनंत ज्ञानी, अक्षय ज्ञानी हैं। हमें अपेक्षा-वाद को देखना पड़ेगा और आगे चलना पड़ेगा। नमस्कार करना उनके जैसा रूप प्राप्त करने, गुण प्राप्त करने के लिए है। जिस प्रकार वास्तविक जौहरी को हीरा-मोती सौंपने में कोई ऐतराज नहीं है, उसी प्रकार हमको अपने आपको किन्नर समझकर महावीर भगवान् को सौंप देना चाहिए। जब भगवान् के चरणारविन्द में हम बैठ जाते हैं, तब धीरे-धीरे सारे गुण अपने आप चले आते हैं। चींटी से लेकर हाथी तक, कोई भी प्राणी कमजोर नहीं है। अष्ट कर्म आपके बुलाये हुए अतिथि हैं, वे कुछ समय के लिए हैं। हम चाहें तो इन कर्मों को आगे नहीं भी बुला सकते हैं। इनसे घबराने की जरूरत नहीं है। मूर्ति पत्थर तो है ही, पर हमें यह समझना होगा कि यह क्या है ? किस भगवान् की मूर्ति है, उनमें क्या क्या गुण थे, किस मार्ग पर वो चले, किस रूप में हमें इसको मानना है? बच्चा दूर से ही माँ को देख कर भाग कर पास आता है, जबकि माँ उसे आवाज भी नहीं देती, पास आने को इशारा भी नहीं करती है। मतिज्ञान व श्रुतज्ञान का अभाव एकेन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय किसी भी जीव में नहीं है। हमारा ज्ञान जो कुंठित हुआ है, उस ज्ञान को पूर्ण करने (जगाने) हेतु अपने आपको प्रभु को समर्पित करना है। रागी व द्वेषी व्यक्ति कभी भी न सुख प्राप्त कर सकता है और न किसी को सुख दे सकता है। यह पत्थर की मूर्ति एक ऐसा सान्निध्य है, जहाँ राग व द्वेष का प्रादुर्भाव नहीं है, क्योंकि भगवान् महावीर राग व द्वेष नहीं रखते हैं। अत: उनकी मूर्ति के पास जाने व दर्शन करने पर राग-द्वेष नहीं होता है। सिंह को पास में देखकर भय होता है और हम अपने आपकी रक्षा की चिन्ता करते हैं, पर गाय को देखकर ऐसा नहीं होता है। अत: यही बात रागी और वीतरागी की मूर्ति के बारे में है। त्यागी, तपस्वी, साधुगण उपसर्ग में तथा सिद्धान्त का खण्डन होने पर सिंह वृत्ति का प्रयोग करते हैं पर समता का सवाल जहाँ आता है, उस समय गोचरी वृत्ति का परिचय देते हैं। गाय को देखकर दया भाव जागते हैं, पर सिंह को देखकर भयभीत हो जाते हैं। समता की चरम सीमा वीतराग भगवान् में है, अन्य किसी में नहीं। जिस प्रकार पहलवान को देखकर पहलवान बनने, रूपवान को देखकर रूपवान बनने तथा विद्वान् को देखकर विद्वान् बनने की इच्छा होती है, उसी प्रकार वीतराग मुद्रा को देखकर वीतराग भाव जागृत होते हैं, वीतरागी बनने की इच्छा होती है। जब वीतरागी बनने की इच्छा शुरू हो जाती है, तो समझो बेड़ा पार होने की शुरूआत हो जाती है। जो प्रशंसा और निन्दा में हर्ष-विषाद नहीं करते हैं, उन्हें नमस्कार करो। जो गुण का समादर करता है, उसी के लिए भगवान् नेता है। दर्पण उठकर यह नहीं कहता कि मेरे में शक्ति है, मुझे देखकर अपनी सूरत देखो। चेहरा देखने वाला व्यक्ति स्वयं दर्पण के पास जाता है। अत: हमें अपने आपको देखने के लिए भगवान् के पास जाना ही पड़ेगा।
  10. आत्मा के दोषों को जिन्होंने धो दिया है, उन्हें हमारा नमस्कार हो। आचार्यों, संत-महात्माओं की दृष्टि द्वेष की तरफ नहीं जाती है। अन्दर में जो विशेषता होनी चाहिए, उसी की तरफ आचार्यों की दृष्टि रहती है। भगवान् महावीर ने आत्मा में जो कलिमा (राग-द्वेष रूपी) लगी हुई थी उसे धो दिया है, इसलिए उन्हें नमस्कार किया है। गुणों के समीचीन परिणमन होने पर ही सुख की प्राप्ति होती है। यदि हम शीतल जल चाहते हैं तो हमें पानी का गर्म हवा व उष्णता से दूर रखना पड़ेगा। अनादिकाल से कर्म का संबंध आत्मा के साथ जुड़ा हुआ है, उसे प्रेरणा, क्षेत्र काल इत्यादि को पाकर विशुद्ध बनाया जा सकता है। अनेक व्यक्ति इस रहस्य के बारे में जानते भी नहीं हैं। वर्तमान में विद्या का प्रचार बहुत हो रहा है। आज से ५० साल पूर्व अगर कोई मैट्रिक पास कर लेता था, तो उसे बहुत आदर मिलता था, पर आज तो अनेकों B.A. M.A. Ph.d पास घूमते हैं जैसे उनकी गिनती अनपढ़ों में हैं। आज हम नाम के पीछे खुश हो जाते हैं। अपने गुरु का भी आदर नहीं करते हैं। गुण दो प्रकार के होते हैं। जो विपरीत दिशा की तरफ झुक जाये तो वे अवगुण कहलाते हैं और सीधी तरफ झुक जाने पर सद्गुण हो जाते हैं। फ्रेम की कीमत नहीं है, पर उसमें जड़े काँच की कीमत है। आज उल्टा ही काम है। आज फ्रेम की कीमत है, काँच की नहीं। फ्रेम सार-युक्त तभी बन सकता है, जब उसमें दृष्टि के अनुसार काँच हो। हालांकि काँच की रक्षा फ्रेम से होती है। परन्तु काँच के बिना भी फ्रेम की कोई कीमत नहीं है। हमारी दृष्टि सिर्फ फ्रेम तक ही जाती है, काँच तक नहीं। हम आत्मा रूपी दर्पण (काँच) की तरफ नहीं देख रहे हैं, जिसमें तीन लोक झलक रहा है। हमारी दृष्टि अंतरंग की ओर न जाकर बाहर की ओर जा रही है। हेय-उपादेय की स्थिति काँच के द्वारा ही मालूम हो सकती है। आज विद्या की तरक्की हो रही है, इस विद्या को ग्रहण करके विद्यार्थी तीन लोक का दास बनता जा रहा है। विद्या ऐसी ग्रहण करनी चाहिए कि जिससे तीनों लोक उसके दास बन जाये। पूर्व में व्यापार करने में चतुर व त्याग करने में चतुर कोई था तो जैनियों का नाम पहले आता था पर आज हम नाम के पीछे पड़ गये। नाम-निक्षेप के पीछे पड़कर भाव-निक्षेप को हमने नहीं धारा। भाव-निक्षेप वाला ही कृत-कृत्य कहलाता है। वही सुखी बन जाता है। जहाँ अवगुणों का अभाव होता है वहीं सद्गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है। आज जीवन का लक्ष्य बना है अर्थ कमाना। हमने विद्या को अर्थ का माध्यम बना रखा है। इसीलिए हम दुखी हो रहे हैं व्यक्ति सुखी तभी हो सकता है, जब वह समीचीन विद्या ग्रहण करे। आज सब अर्थ के पीछे विद्या ग्रहण करते हैं। इस विद्या से ज्ञान मिल सकता है, परन्तु शांति नहीं मिल सकती। जहाँ विद्या पूर्णरूपेण झलकती है, वहाँ आकर भी हम यह आशा करते हैं कि मेरा जीवन चले। अरे! जीवन तो वैसे भी चलेगा। शरीर को और कर्मों को छोड़ कर अन्दर एक ऐसा बल है, जिससे जीवन प्राप्त हो सकता है। अर्थ को अर्थ ही मानो, परमार्थ नहीं। अर्थ के द्वारा गुणों की प्राप्ति नहीं हो सकती। समीचीन विद्या के द्वारा ही गुणों की प्राप्ति हो सकती है। आज हमने उस क्षेत्र को ताला लगा दिया है, जिस क्षेत्र को महावीर भगवान् ने अपनाकर आत्मा का कल्याण किया था | भोग जीवन का लक्ष्य तीन काल में भी नहीं हो सकता है। जीवन का लक्ष्य योग है। भोग, आशा-तृष्णा के द्वारा अलौकिक शांति नहीं मिल सकती है। दवा के द्वारा रोग निकल सकता है, शक्ति भोजन के द्वारा मिलती है। लौकिक विद्या व भोगों में भारत से बाहर के देश बहुत आगे हैं परन्तु वहाँ पर अरबपति भी शांति का अनुभव नहीं कर सकता है। आज हम भी पुद्गल में विद्या को खोज रहे हैं, भोग और लौकिक विद्या के पीछे पड़ रहे हैं, विदेशों में भी इनसे लोग ऊब चुके हैं। हमारे आचार्यों ने ऐसी विद्या बताई है कि जिससे आना-जाना गति-भ्रमण सब खतम हो जाता है। विद्या पाकर इधर-उधर भटकना नहीं है। वर्तमान में लोग देवत्व को पाना चाहते हैं, ज्योतिलॉक में जाना चाहते हैं। समझदार व्यक्ति स्वर्गादि की इच्छा नहीं करते, निदान नहीं करते। कीमत जौहरी की है, जवाहरात की नहीं। जवाहरात के नष्ट होने पर तो और भी उपलब्ध हो सकते हैं, परन्तु जौहरी का नाश होने पर जवाहरात की कीमत कौन आँकेगा? सुख के लिए हमें प्रवृत्ति को रोकना पड़ेगा और निवृत्ति को अपनाना पड़ेगा। यह ठीक है कि शरीर के माध्यम से हम धर्म साधना कर सकते हैं, हमें इसको भोजनादि देकर रक्षा करना चाहिए, लेकिन २४ घंटे शरीर को ही हृष्ट पुष्ट नहीं करते रहना है। मानव कल्याण हम मात्र लौकिक शिक्षा के द्वारा नहीं कर सकते हैं। आज जैन समाज का लाखों रुपया विपरीत दिशा में खर्च होता है, उन रुपयों का सदुपयोग करो।
  11. अविवेक विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार संसार के जो कार्य होते देखता है, यह जीव बिना परिणाम जाने उसे करने लगता है, यह एक "अविवेक" है। यह शरीर काराग्रह है कि कालाग्रह, काराग्रह से प्रेम करना एक "अविवेक" है। भगवान के सामने सांसारिक वस्तुओं की माँग करना एक अविवेक ही है। विवेक के अभाव में ही संसारी प्राणी पर वस्तु को अपना मान बैठता है। परमार्थ को छोड़कर मात्र अर्थ (धन) में ही जीवन गँवाना अविवेक माना जाता है।
  12. यह प्राणी-मात्र का सौभाग्य है कि अभी भी इस धरती पर धर्म का अस्तित्व बना हुआ है। इस चातुर्मास के अन्तराल में हमें परिश्रम करके उस ध्रुव बिन्दु पर पहुँचने की चेष्टा करनी है, जहाँ पर पहुँचने के बाद सुख और शांति का अनुभव होता है। रात दिन हमें उसी प्रकार की बातें (चर्चाएँ) करनी है जिस प्रकार भरत चक्रवर्ती ९६ हजार रानियों के साथ धर्म चर्चाएँ करता था। इस वर्तमान काल में हमें उपाय की बात करनी है, अपाय की नहीं। आज हम राजनीति, सामाजिक, भौतिक व शैक्षणिक आदि किसी भी क्षेत्र में अपनी भावना को दुनियाँ के सामने रख सकते हैं, कोई हमारा विरोध नहीं करेगा। लोग आपकी दृष्टि समझेंगे, उद्देश्य जानना चाहेंगे और सोचेंगे कि इससे समाज व देश की उन्नति है या नहीं। भगवान् महावीर का २५ सौ वां निर्वाण दिवस निकट आ रहा है, इस शुभ अवसर पर हमें अपनी बातें दुनियाँ के सामने रखनी हैं। भिन्न-भिन्न क्षेत्र में भिन्न-भिन्न लक्ष्य को लेकर अनेक व्यक्ति काम करते हुए पाये जाते हैं। हमारे आचार्यों ने लोक की सम्मति को ठेस न पहुँचाते हुए और सिद्धान्त की रक्षा करते हुए कार्य करने की व्यवस्था की है। शक्ति की अपेक्षा और गुणों की अपेक्षा जो अधिक सम्पन्न होता है, उसे ही मुख्य बनाया जाता है। घर में बड़े दादाजी हैं, पर कार्य पिताजी के द्वारा सम्पन्न होता है। यद्यपि राष्ट्रपति देश का सबसे ऊँचा व्यक्ति होता है, पर कार्य के क्षेत्र में राष्ट्रपति को गौण करके प्रधानमंत्री को मुख्य मानते हैं। इसी प्रकार हम सिद्ध का नाम बाद में कर अरहंत का नाम पहले लेते हैं, इसमें कोई सिद्धान्त की अवहेलना नहीं है। कहा भी है गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूँ पाय। बलिहारी गुरुदेव की जो गोविन्द दियो बताय ॥ जिस प्रकार गुरु, गोविन्द (भगवान्) को बताने वाले हैं उसी प्रकार अरहंत भगवान् रास्ता बताने वाले हैं, उन्हीं के द्वारा कल्याणकारी दिव्यध्वनि खिरती है। इसीलिए अरहंत को 'आप्त” माना है। सिद्ध को बताने वाले अरहंत हैं। सिद्ध तो सिर्फ सर्वज्ञ व वीतरागी ही हैं परन्तु अरहंत भगवान् सर्वज्ञ व वीतरागी के अलावा हितोपदेशी भी है। हम अरहंत का दर्शन कर सकते हैं, नमस्कार कर सकते हैं, उनकी दिव्यध्वनि सुन सकते हैं। इसीलिए पंच नमस्कार मंत्र में अरहंत को प्रथम नमस्कार किया है। हमारे आचार्यों के लेख, उनके क्षेत्र, कार्य, भिन्न रहे हैं पर लक्ष्य एक रहा है। भगवान् महावीर के उपरांत गृहस्थों के हित के लिए स्वामी समंतभद्राचार्य ने लेखनी के द्वारा उपदेश दिया है और वह उपदेश हमें 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' द्वारा मिलता है। गृहस्थों का समुचित विकास किस प्रकार से हो, यह ज्ञान इसी ग्रन्थ से मिलता है। जो इसके अनुसार चलेगा, स्वरूपाचरण में स्थिति का मार्ग उसके लिए प्रशस्त होगा। यह ग्रन्थ एक ऐसी पगडंडी है, जिसमें कंकड़-पत्थर आदि रुकावट नहीं है। इसके द्वारा ही स्वरूपाचरण तक पहुँच सकते हैं। हम अपने लिए तो सब कुछ करते हैं पर जब दूसरों को, जो स्खलित हैं, दृष्टि प्रदान करते हैं, रास्ता बताते हैं, तब ही बड़ी बात है। आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने अपने जीवन में ऐसे ही कार्य किए हैं। उन्होंने बड़े-बड़े हितोपदेशी ग्रन्थों की रचना कर हमारा बहुत उपकार किया है। आज जो भौतिक आविष्कार हो रहे हैं वे सब रास्तों को समेटते जा रहे हैं। हमारे आचार्य अपना कार्य करने के साथ-साथ दूसरों के लिए रास्ता बनाते गये हैं। आज आचार्य परमेष्ठी भी वही रास्ता बता रहे हैं जो अरहंत परमेष्ठी बता गये हैं। स्वामी समंतभद्राचार्य इस युग के महान् आचार्य हैं। उन्हीं के बताए हुए मार्ग का अनुसरण करना है। धर्म ध्वज को लेकर आगे बढ़ना है। इस कार्य में कोई रुकावट, रोड़ा नहीं बनेगा। इसमें सब सहायक बनेंगे, साथ चलेंगे और मार्ग प्रशस्त करेंगे। इसमें अगर बाधक बन सकता है तो सिर्फ ‘मन' बन सकता है। तन, धन और वचन तीनों ही पर 'मन' न हो तो काम नहीं बन सकता है। मन उल्टा व सुल्टा हो सकता है। हमें उसे मजबूत व सुल्टा रखना होगा और आगे बढ़ना होगा। अब गाड़ी Start करना बाकी है, Signal हो चुका है। हमें किधर चलना है? उधर.जिस रास्ते भगवान महावीर गये थे। हमें उस ओर जाना है, जहाँ अहिंसा, सत्यता, अचौर्य, सुशीलता व अपरिग्रह हो। जो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदि लाइन को बन्द करदे, उस गलत लाइन का फ्यूज उड़ा दें। हमें कुसंगी नहीं, सुसंगी बनना है। अगर हमारा शरीर काम करने लायक नहीं है, वचन भी हमारे नहीं बोलने लायक हैं तथा धन भी खर्च करने के लिए नहीं है, तो भी क्या हुआ ‘मन' तो है, हम अपना रास्ता बना सकते हैं। वर्तमान में तो तन, मन, धन और वचन सब कुछ है, कमी किसी चीज की नहीं है। स्वाभिमानी व्यक्ति को विचार करना चाहिए कि भगवान् महावीर ने राज-पाट, धन-वैभव सारे सुखों को छोड़ा और उन्हीं के २५ सौ वें निर्वाण दिवस के लिए हम १ पैसा रोजाना भी नहीं दे सकते, पैसे को जकड़े हुए हैं, हम कैसे उनके अनुयायी हैं? जब भगवान् की स्थिति कमजोर नहीं है, तब हम उनके भत कहलाने वाले क्यों कमजोर पड़ रहे हैं? महावीर भगवान् को हम वीर कहते हैं। हम त्याग करने में पीछे नहीं हटेंगे। हम मूल धन नहीं तो कम से कम ब्याज तो चुकायेंगे। भगवान महावीर का दिव्य संदेश आज भी हमारे पास है, ये शास्त्र जीवित लक्ष्मी है। साहित्य हमारे पास है, उसका विकास कर उनके उपदेशों को घर-घर में पहुँचाना है। हम अर्थ त्याग के द्वारा ही विचारों को साकार बना सकते हैं। हमें उस त्याग को अपनाना है, जिसके द्वारा अपने तन, मन के साथ दूसरों के तन, मन को कष्ट न पहुँचे। इसी में सुख निहित है।
  13. अतिथि विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार मोक्षमार्ग की साधना में लगने वाले अतिथि कहलाते हैं। अतिथियों में सम्पादक अतिथि हुआ करते हैं, जिस तिथि में ‘अतिथि'आ जाते हैं, वह पुण्यतिथि (शुभ) मानी जाती है। जिसमें आने-जाने की कोई तिथि निश्चित नहीं होती, वे अतिथि कहलाते हैं। अतिथि को भक्तिभाव पूर्वक दान देने से अद्भुत फल प्राप्त होता है, पंचाश्चर्य प्राप्त होते हैं |
  14. सदेह में विदेह भोक्ता गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को मेरा कोटि कोटि वंदन...... हे गुरुवर!आज मैं आपको वह घटना याद करा रहा हूं जिससे आप कुछ विचलित सेे हुए थे किंतु विद्याधर जी के जवाब से आपके हर्षाश्रु आ गए थे, जिसे आप सहजता से छुपा दिए थे और रात भर आशीर्वाद देते रहे होंगे तो लाडले ब्रह्मचारी सुबह हंसते हुए मिले थे, जिसको किशनगढ़ के वो लोग आज तक नहीं भूले। जो उसके साक्षी थे। इस संबंध में शांतिलाल गोधा जी(आवड़ा वाले) मदनगंज किशनगढ़ से लिखते हैं- "सन 1967 मदनगंज किशनगढ़ चातुर्मास के दौरान एक दिन रात्रि में ब्रह्मचारी विद्याधर जी को बिच्छू ने काट लिया" तब ज्ञान सागर जी महाराज ने समाज के व्यक्तियों को शीघ्र उपचार करने के लिए कहा। तत्काल एक वैद्य को बुलाया गया, तब विद्याधर जी ने उपचार के लिए मना कर दिया। समाज के सारे लोगों की चिंता बढ़ गई। उनकी तकलीफ को देख सभी उन्हें मनाते रहे। प्रमुख लोगों ने पूछा- "आप मना क्यों कर रहे हो ? तो ब्रह्मचारी विद्याधर जी बोले-मुझे मुनि बनना है तब कैसे सहन करूंगा ?" और बिना उपचार के ही चटाई पर लेट गए, पीड़ा को सहन करते रहे। हम सभी लोग अन्यमनस्क हो, तरह-तरह की शंकाएं लेकर गुरुजी के पास गए थे, सुनकर उनके मुख पर गर्वोन्मुक्त मंद मुस्कान फैल गई और फिर हम लोग घर वापस चले गए। दूसरे दिन सुबह जब समाज के लोग पहुंचे तब ज्ञान सागर जी महाराज को सारी बात बतलाई तो ज्ञान सागर जी महाराज ने विद्याधर जी को बुलाया और पूछा-"स्वास्थ्य कैसा है?" तो विद्याधर जी हंसते हुए बोले-"आप के आशीर्वाद से बिल्कुल ठीक हूं। यह सुनकर गुरु महाराज प्रसन्न हो गए और हम सभी विद्याधर जी की ऐसी उत्कृष्ट साधना देखकर हतप्रभ रह गए। इस तरह विद्याधर जी मुनि बनने की उत्कृष्ट भावना लेकर साधना में लीन थे जिससे उनकी साहस एवं सहनशीलता का परिचय मिलता है ऐसे श्रेष्ठ साधक के ब्रह्मचारी को पाकर आप भी गौरवान्वित हुए होंगे। आपके गौरव को प्रणाम करता हुआ हूं। मुझमें भी ऐसी सहनशक्ति प्रगट हो इस भावना के साथ....... अन्तर्यात्री महापुरुष पुस्तक से साभार
  15. अज्ञान विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार स्वर्ण कभी भी बाह्य पदार्थ के सम्पर्क में जंग नहीं खाता बल्कि लोहा ही जंग खाता है, वैसे ही ज्ञानी कभी पर पदार्थों से मोहित नहीं होता, बल्कि अज्ञानी होता है। विषयों में आकर्षण 'अज्ञान' का प्रतीक है। अज्ञान का अर्थ है - कषाय के वशीभूत हो जाना, परिग्रह के पीछे पड़ जाना। जब सूर्य अस्ताचल की ओर जाता है तो वह प्रकाश का त्याग कर पाताल में डूब जाता है, फिर अंधकार का साम्राज्य हो जाता है। वैसे ही जो संयम की उपेक्षा कर असंयम का स्वागत करता है, वह रसातल की ओर चला जाता है, उसका ज्ञान 'अज्ञान' रूप हो जाता है। विपरीत धारणा को छोड़ देने से मन हल्का हो जाता है। मन दूसरे को समझाना चाहता है, स्वयं को नहीं यह एक सबसे बड़ा अज्ञान है।
  16. अनर्थ विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अपने बारे में सोचो, अपने अनर्थों के बारे में सोचो दूसरे के भले के बारे में सोचो, यह अपाय विचय धर्मध्यान है और दूसरे का बुरा सोचने से दुध्यान होता है। अनर्थ से बचना ही प्रयोजनभूत है। दुर्लभ क्षणों को व्यर्थ मत गवाओ, माला फेरो, स्तुति पाठ करो। पहले के समय में चक्की चलाते रहते थे और स्तुति पढ़ते रहते थे, मन को भटकने नहीं देते थे। अर्थ नीति के बिना गृहस्थ का जीवन चल नहीं सकता, लेकिन अनर्थ नीति से धन इकट्ठा करना ठीक नहीं। प्रयोजन दूसरा होने पर हम प्रयोजनभूत को भूल जाते हैं। अहिंसा महाव्रत को पालने वाले रात्रि में तो बोलते नहीं है, दिन में भी निष्प्रयोजन नहीं बोलते। अप्रयोजनभूत को याद करने से मन की बीमारी बढ़ जाती है। प्रयोजन के अभाव में बोलना भी हिंसा का कारण है। जिस साहित्य को पढ़कर मन पापमय हो जाये, ऐसे साहित्य को दु:श्रुति बोलते हैं। इनसे हमेशा बचना चाहिए। निष्प्रयोजन घूमना/घुमाना अनर्थदण्ड कहलाता है। अनर्थों से बचने से रत्नत्रय धर्म पुष्ट होता है। मधु (शहद) की एक बूंद खाने से सात गाँव जलाने के बराबर दोष लगता है। इसलिए इस अनर्थ से बचना चाहिए। अनर्थदण्ड से श्रावकों को पहले बचना चाहिए। जो अनर्थ से डरता है, वह विकास कर सकता है। अनर्थ से डरने वाला हमेशा सावधान रहता है। जिससे संसारी प्राणी का वध हो, ऐसे शस्त्रादि का दान नहीं करना चाहिए। बुद्धि को बिगाड़ने वाले सारे पदार्थ हिंसा दान में आते हैं। पहले दूध का दान होता था, आज चाय का, यह पाउच संस्कृति है, दरिद्रता का प्रतीक है।
  17. राष्ट्रीय संगोष्ठी और अभा कवि सम्मेलन भी भोपाल। आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के पचासवे दीक्षा वर्ष के अवसर पर 5 नवम्बर रविवार को भोपाल के विधानसभा परिसर में जैन दर्शन पर राष्ट्रीय संगोष्ठी, जैन समागम 2017 और अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया है। संगोष्ठी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डा. कृष्णगोपाल संबोधित करेंगे। आयोजन के सूत्रधार रवीन्द्र जैन पत्रकार ने बताया कि आचार्यश्री का संयम स्वर्ण महोत्सव पूरे देश में श्रध्दा व आस्था से मनाया जा रहा है। 5 नवम्बर को आचार्यश्री का 46 वां आचार्य पदरोहण दिवस है। इस अवसर पर भोपाल में मुख्य कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। राष्ट्रीय संगोष्ठी : 5 नवम्बर रविवार को विधानसभा स्थित मानसरोवर सभागृह में सुबह 10 बजे "जैन दर्शन की प्रासंगिकता और दायित्व बोध" पर संगोष्ठी का शुभारंभ होगा। पवन जैन आईपीएस विषय प्रवर्तन करेंगे। संगोष्ठी को आरएसएस के सह सरकार्यवाह डा. कृष्णगोपाल जी एवं जैनधर्म के विद्वान डा. वीरसागर जैन दिल्ली संबोधित करेंगे। संगोष्ठी की अध्यक्षता मप्र के वित्त मंत्री जयंत मलैया करेंगे। जैन समागम 2017 : इसी सभागार में दोपहर एक बजे जैन समागम 2017 शुरू होगा। इसमें जैन समाज के अधिकारी, राजनेता, उद्योगपति, समाजसेवी, डाक्टर, इंजीनियर, सीए, वकील, साहित्यकार पत्रकार शामिल होकर आचार्यश्री के व्यक्तित्व, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सरोकार, जैनत्व की स्वीकारिता, जैन विरासत का संरक्षण व संवर्धन, संतों की सुरक्षा और परस्पर सहयोग विषयों पर विमर्श करेंगे। जैन समागम को मप्र के श्रमायुक्त शोभित जैन, ग्वालियर कलेक्टर राहुल जैन, समाजसेवी ह्रदयमोहन जैन सहित समाज की कई हस्तियां संबोधित करेंगी। बाल ब्रह्मचारी विनय भैया समापन उद्बोधन देंगे। जैन समागम का संचालन नितिन नांदगांवकर करेंगे। अभा कवि सम्मेलन : विधानसभा परिसर में शाम 6.30 अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया है। कवि सम्मेलन में पवन जैन भोपाल, गजेन्द्र सोलंकी दिल्ली, रमेश शर्मा चित्तौड़गढ, तुषा शर्मा मेरठ, चौधरी मदनमोहन समर भोपाल, दिनेश दिग्गज उज्जैन और अशोक सुन्दरानी सतना अपनी रचानाएं प्रस्तुत करेंगे। रात्रि 10 बजे आचार्यश्री के चित्र की आरती के साथ समारोह का समापन होगा। - रवीन्द्र जैन पत्रकार आयोजन के सूत्रधार 9425401800
  18. अर्पण -समर्पण विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अपनत्व में सब कुछ समर्पण किया जाता है। जैसे श्रीकृष्णजी की अंगुली कट जाने पर रुक्मणी अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर पट्टी बाँध देती है। स्वार्थ जहाँ से चला जाता है, वहाँ से समर्पण प्रारम्भ हो जाता है। समर्पण में प्रतिफल की इच्छा गौण हो जाती है। जिसमें समर्पण भाव रहता है, वही इस चकाचौंध के युग में भविष्य के लिए कुछ कर सकता है। समर्पण जीवन का आदिम एवं अंतिम साधन है। आगे चलकर समर्पण कर्तव्य का रूप ले लेता है। समर्पण के बाद ही जीवन में संघर्ष की शुरुआत होती है, इससे पीछे नहीं हटना चाहिए। समर्पित हुए बिना कृत्कृत्य की उपाधि नहीं मिल सकती। समर्पण की यात्रा कर्तव्य से पूर्ण होती है और कर्तव्य का पालन समर्पण के साथ किया जाता है। समर्पण के बाद कर्तव्य प्रारम्भ होता है। समर्पण वाला ही हव (हाँ) कहता है, नहीं तो How (कैसे) कहता है। मैंने भगवान् बनाया ऐसा नहीं बल्कि मैं भगवान् को समर्पित हो गया, ऐसा कह सकते हैं। जिनेन्द्र भगवान् का नाम रहे और हमारा दासों के दास में नाम रहे, यही समर्पण है। अपने उद्देश्य के प्रति पूर्ण समर्पित होना चाहिए। यदि हम उन प्रभु व गुरु के पवित्र जीवन पर समर्पित हो जाते हैं तो यह हमारा कलंकित जीवन भी पवित्र हो जाता है। कबूतर की तरह देव, शास्त्र व गुरु रूपी जहाज पर समर्पित हो जाओ संसार समुद्र से पार हो जाओगे । एक आत्मा के साथ जब दूसरी आत्मा का सम्बन्ध स्थापित हो जाता है तब तन, वतन सब गौण हो जाते हैं। जिनवाणी की रक्षा एवं अहिंसा धर्म की रक्षा में अपना तन, मन व धन समर्पित कर देना चाहिए। जीवन की परवाह न करते हुए धर्म की रक्षा में समर्पित हो जाना ही सही समर्पण है। समर्पण में साथ किया गया कार्य ही सफलीभूत होता है। जो उद्देश्य के प्रति पूर्ण समर्पित हो जाता है, वही परीक्षा में खरा उतरता है। प्राणियों के संरक्षण में तन, मन एवं धन समर्पण करोगे तो तुम्हारा जीवन भी अमर बन जावेगा और अविनश्वर आत्मा का मूल्य सुरक्षित होगा।
  19. अहिंसा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार कदम में फूल हों और कलम में शूल हो तो अहिंसा का पालन नहीं हो सकता, लेखन के माध्यम से भी 'अहिंसा' की वृत्ति कितनी है, यह मीमांसा की जा सकती है। जब तक अहिंसा जीवन में नहीं आएगी, तब तक शब्दों में ताकत नहीं आ सकती, अहिंसा के क्षेत्र में बुद्धि का, तन, मन, धन का उपयोग करना चाहिए। राग की अनुत्पति ही अहिंसा है। अनुकूलता कथचित् हमें साधक बना सकती है, क्योंकि अनुकूलता में पुरुषार्थ किया जा सकता है। अहिंसा की रक्षा पैसे के बल पर नहीं, बल्कि अहिंसा को अपने जीवन में अपनाकर ही हो सकती है। अहिंसा धर्म की शरण में रहने वाला हमेशा खुश रहता है और कमियाँ उसके जीवन में कभी भी नहीं रहतीं। उसका हमेशा विकासवान् जीवन हुआ करता है। अहिंसा में कार्य करने से स्व-पर दोनों में कल्याण की बात हो जाती है। जो लोग अहिंसा धर्म को अपने जीवन में स्थान देते हैं, उन्हें दुनिया में हर जगह स्थान मिलता है। अहिंसा के क्षेत्र में दिया हुआ हमेशा बढ़ता है कम नहीं हो सकता। दुनियाँ की बैंक फैल हो सकती है पर यह अहिंसा की बैंक कभी फैल नहीं हो सकती। अहिंसा धर्म वह संख्या है कि जिस शून्य में आगे लग जावे तो उसका महत्व दश गुना बढ़ जाता है। शून्य अकेला कोई शक्ति नहीं रखता यदि उसमें आगे अंक ना हो तो। शून्य का महत्व अंक से अांका जाता है। अन्याय, अत्याचार के साथ संग्रह किया हुआ धन खाने-पीने में नहीं आता। अहिंसा धर्म के अनुयायी रागी होते हुए भी वीतरागता की आरती उतारते हैं, राग की नहीं। पार्श्वनाथ भगवान् के अंदर सहज करुणाभाव था उन्होंने विषधर जैसे जीवों के प्रति भी करुणा भाव धारण किया और उन्हें भी स्वर्ग सुख का लाभ पहुँचाया। जो अहिंसा धर्म को मानने तैयार नहीं हैं, उन्हें दिव्यध्वनि सुनने नहीं मिल सकती। धर्म वही है, जो दया से विशुद्ध हो। अहिंसा महान् प्रकाश है, आज देश को मात्र अहिंसा की आवश्यकता है। दया धर्म से जो रहित होते हैं, वे कितने ही धनी बन जावें पर वह सात्विक गुणों से भूषित नहीं हो सकते। मुमुक्षु वही है, जो करुणावान होता है। दूसरे की पीड़ा को दूर करने से दूसरे की नहीं, स्वयं की पीड़ा दूर होती है। जिसके घट में दया करुणा नहीं है, वह कभी भी कैसे अपने स्वरूप को, जीवत्व को हासिल कर सकता है ? अहिंसक व्यक्ति का जन्म होते ही चारों ओर हरियाली छा जाती है। दया के बिना संसार हमेशा झुलसता रहता है, क्योंकि दया के अभाव में धर्म नहीं होता। दया का अभाव बता देता है कि अंदर कषाय है। दया अनुकम्पा से ही धर्म की शुरुआत होती है। वह हृदय शून्य है, जो अहिंसा पर आस्था नहीं रखता। हृदय में यदि सत्य अहिंसा के प्रति आस्था है तो समझना राम, महावीर भगवान् से आज भी हमारा सम्बन्ध निश्चित है, इसमें कोई संदेह नहीं। अहिंसा के अभाव में देश क्या देश रह जावेगा ? आदमियों का नाम देश नहीं है, बल्कि संस्कृति का नाम देश है। जहाँ पर दया है वहाँ सब कुछ मिलता रहता है, धन तो वहाँ बरसेगा ही। जीवदया के अभाव में साधना कितनी भी हो ? वरदान सिद्ध नहीं होगी। मन, वचन व काय की चेष्टाओं के द्वारा अपनी स्वयं की भी हिंसा होती है। मुनिराज कम खर्चा ज्यादा फायदा हो, ऐसी ही चेष्टायें करते हैं, वे आगमानुसार चेष्टायें करते हुए अप्रमत्त ही रहते हैं। आत्म-धर्म हिंसा रहित धर्म से ही प्राप्त होता है। रागादि भाव का होना भी हिंसा है।
  20. सत् शिव सुन्दर 7 - श्रेयस् पथ विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार प्रवृत्ति को छोड़कर निवृत्ति के मार्ग पर जाना ही श्रेयस्कर है। वर्तमान पुरुषार्थ का प्रभाव भूत और भविष्य दोनों पर पड़ता है। त्रस पर्याय की प्राप्ति उतनी ही दुर्लभ है जितनी कि गुणों में कृतज्ञता। बड़ों में गंभीरता, धैर्य, साहस, वैराग्य सब कुछ प्रौढ़ होना चाहिए। पक्ष-विपक्ष से परे जीवन को निष्पक्ष बनाना ही श्रेयस्कर है। कैंची नहीं सुई बनो क्योंकि कैंची का काम है काटना और सुई का काम है जोड़ना। हमें जोरदार नाम नहीं करना, किन्तु जोरदार काम करना है। उच्चविचार ही जीवन में उच्च आचार को लाते हैं तथा उच्चतम स्थान दिलाने में कारण होते हैं। अच्छे कार्य करने से ही अच्छे पद मिला करते हैं, बुरे कार्य करने से कभी भी अच्छे पद नहीं मिलते। यदि दृष्टि में विकार है तो निर्दिष्ट लक्ष्य को निष्पन्न कराना असम्भव ही है। अधिक बोलने से शक्ति का अपव्यय होता है, मौन रहने से चिन्तन में प्रखरता तथा विचारों में प्रौढ़ता आती है। मौन की अपेक्षा ऐसे वचन बोलना भी श्रेष्ठ हैं जिससे क्षुब्ध वातावरण भी शांति का अनुभव कर सके। कषायी के ऊपर नहीं, कषायों के ऊपर क्रोध करना श्रेयस्कर है। वज़ के प्रहार से पत्थर कट सकता है पर नवनीत नहीं क्योंकि नवनीत विनीत ही बना रहता है। दुनियाँ भले ही हमसे मतलब रखे, किन्तु हमें दुनियाँ से मतलब नहीं रखना है। खसखस के दाने बराबर दूसरों को दिया गया दुख हमारे लिये मेरु के बराबर होकर फलता है। अपनी रक्षा करना तो ठीक है, लेकिन अपनी रक्षा के लिये दुनियाँ भी मिट जाय यह कोई धार्मिकता नहीं है। जो पापों से बचाकर प्राणियों की रक्षा करे वह है क्षत्रिय। अपराधियों को मारने के लिये नहीं किन्तु अपराध से भयभीत कराने के लिये क्षत्रियों के हाथ में शस्त्र दिये जाते हैं। अपनी और पर की रक्षा के लिये शस्त्र रखा जाता है न कि हिंसा के लिये। चक्र चलाने के लिये नहीं किन्तु जिसका मन चलायमन है उसे स्थिर करने के लिये है। चक्रवर्ती षट्खण्ड को जीतकर आया है फिर भी उसकी सुरक्षा के लिये अंग रक्षक (Body Guard) अहो! आश्चर्य की बात है। कर्तव्य के प्रति अनादर एवं अकर्तव्य के प्रति आदर होना प्रमाद का सूचक है। भय, दबाव और अरुचि से की गई क्रियायें कभी भी वास्तविक फल की प्राप्ति नहीं करा पाती। मात्र लीक के पीछे मत दौड़ो, नहीं तो भेड़ों की तरह जीवन का अन्त हो जायगा। हम जहाँ कहीं भी जो भी कार्य करें वह अपनी भूमिका, योग्यता और विवेक के साथ करें। प्रमाद के साथ नहीं किन्तु जागृति से करें। जिसके कदम लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं वह न तो भटकता है और न ही अटकता है क्योंकि अधिक अटकने पर भटकने का भी भय रहता है। जीवन में यदि सच्चा साधु न मिल पाये तो भी कार्य सध सकता है किन्तु कुसाधु की संगति अवश्य ही संसार में डुबोती है। अपनी क्षमता तथा पद की मर्यादा के अनुकूल ही कर्तव्य होना चाहिए किन्तु ध्यान रहे उसमें कर्तृत्व बुद्धि न हो। पापी के पीछे पड़े रहने से स्वयं का भी पुण्य लुट सकता है और अपने ही पुण्य में लगे रहने से पापी भी मुड़ सकता है। गुणीजनों को हमेशा मान-सम्मान देने का प्रयास करो किन्तु मान-सम्मान पाने की भूख मत रखो। स्वयं में गुरुता का अनुभव करने वाला व्यक्ति ही गर्व करता है। यदि माता-पिता और गुरुओं का वरदहस्त हमारे ऊपर है तो हम अपने लक्ष्य की ओर अबाधित बढ़ते जायेंगे। फिर हर जगह सफलता ही सफलता मिलेगी। उपकरणों की संख्या देखकर ही उसके प्रति आसक्ति का अन्दाज लगाया जा सकता है। वातावरण ऐसा निर्मित करें जिससे व्यक्ति पतन नहीं बल्कि उत्थान की ओर अग्रसर हो। भौतिक सुविधायें मन को दुविधाग्रस्त करती हैं। मंदिर जाओ, जाना न पड़े और घर न जाओ, जाना पड़े तो समझ लो धर्म की शुरूआत हो गई। बहुमूल्य प्रतिमाओं का मूल्य नहीं किन्तु न्यौछावर होना चाहिए। व्यक्ति की परख उसके कुल से नहीं कर्म से होती है। सत् शिव सुन्दर की चर्चा खूब की अब तब। अब चर्चा की नहीं अर्चा की जरूरत है। सत् शिव और सुन्दर का जो साम्राज्य जहाँ छिपा है उसे खोजो और पाने का प्रयास करो। प्रतिनिधि सामान्य बात नहीं है क्योंकि प्रतिनिधि के माध्यम से ही उस निधि की पहचान होती है। विपरीत वृत्ति वाले के लिये उत्तर नहीं मौन ही श्रेष्ठ है। कर्म से प्रभावित उपयोग में वस्तुतत्व का वास्तविक अनुभव/अवलोकन संभव नहीं। अर्थ का अधिक संग्रह शांति का कारण नहीं बल्कि समुचित वितरण शांति का कारण है। हमें धन का समर्थन परिवर्द्धन नहीं करना किन्तु समय-समय पर उसका सदुपयोग करना है। दुख को समझना/अनुभव करना ही सुख को प्राप्त करने का सही रास्ता है। वह सुख किस काम का जो चाहते हुए भी किसी के दुख को दूर न कर सके। जब तक दुख का सही-सही अनुभव नहीं होता तब तक सुख की गवेषणा नहीं हो पाती। पावन का झुकना पतित होना नहीं वरन् पतित को पावन बनाने की प्रक्रिया है। असंयमी पुण्ययोग से प्राप्त दिव्य वस्तु का उपयोग भी असंयत होकर ही करता है। भले ही देश बदल जाये, वेश बदल जाये, लेकिन कभी अपना लक्ष्य नहीं बदलना, उद्देश्य नहीं बदलना। राग-द्वेष वाले दो पलड़े सहित कर्म कॉवड़ी को यह संसारी प्राणी भारवह बना अनंत काल से ढो रहा है। अन्तर की शुद्धि का महत्व अपने लिये अधिक होता है दूसरे के लिये कम और व्यवहार शुद्धि का महत्व अपने लिये कम होता है दूसरे के लिये अधिक। मानव पर्याय की दुर्लभता को पाना तभी सार्थक है जबकि हमारे जीवन में अध्यवसान/रागद्वेष कम हो । आप अपने जीवन को जैसा ढालेंगे वैसा ही ढलेगा। आप उसे अपना मित्र बनाएँ या शत्रु, सुख-दुख के कार्य आपके अपने ही होंगे। भगवान महावीर का उपासक वही है जो नमस्कार करता है चेतन को और बहिष्कार करता है अचेतन का। हमें जीवन को चलाना नहीं है जीवन तो अपने आप अविराम चल रहा है लेकिन जीवन को उन्नति की ओर बढ़ाने में ही मानव जीवन की सफलता है। दूसरों की सुख-सुविधाओं को देखकर जलने वाला व्यक्ति कभी भी सुख-शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता। आज का व्यक्ति अपने दु:ख से दु:खी कम है किंतु दूसरों को प्राप्त सुख से दु:खी ज्यादा है। दूसरा नरक नहीं है, दूसरा हमारे लिये दु:ख नहीं है अपितु दूसरों को पकड़ने की जो परिणति है वही हमारे लिये दु:ख और नरक का काम करती है। जिस प्रकार नदी ढलान की ओर सहज ही बह जाती है उसी प्रकार इन्द्रियाँ और मन अपने विषयों की ओर सहज ही बह जाते हैं। सुख से प्राप्त हुआ ज्ञान दु:ख के आने पर कपूर के समान उड़ जाता किन्तु जो कष्ट परिषह झेलकर ज्ञान अर्जित किया जाता है वह प्रतिकूल परिस्थितियों में भी स्थायी बना रहता है। जो समझना चाहता है उसे समझाना चाहिए लेकिन जो समझाने पर भी नहीं समझता, उल्टा काम करता है, उससे माध्यस्थ भाव रखना ही श्रेष्ठ है। सोचो, विचार करो! आर्थिक विकास के लिये अर्थ का अवलम्बन लेना ठीक है, लेकिन जीवन ही अर्थ के लिये बन जाय। जीवन चलाने के लिये तो भोजन ठीक है किन्तु भोजन के लिये ही जीवन बन जाये, यह ठीक नहीं है। ऐश आराम की जिन्दगी विकास के लिये नहीं वरन् विनाश के लिये कारण है, या यूँ कहो कि ज्ञान का विकास रोकने में कारण है। मनुष्यों की दृष्टि में ऊपर उठना बहुत आसान है किन्तु परमात्मा के निकट पहुँचना अत्यन्त कठिन है। जो मनुष्यों की दृष्टि में ऊपर उठने का आकांक्षी है वह तो अनिवार्यत: परमात्मा की दृष्टि में नीचे गिर जाता है। जिससे अपराध हुआ है उससे मौन लेना तो अच्छा है लेकिन अन्य जगह जाकर उसकी निन्दा करना ठीक नहीं। यदि पीठ पीछे उसकी निन्दा करते हैं तो माध्यस्थ भाव नहीं है अपितु द्वेषभाव हो जायेगा। माध्यस्थ भाव रखना अपराधी के लिये सबसे उत्तम दण्ड है।
  21. सत् शिव सुन्दर 6 - राष्ट्र-भावना विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार देश पर आपत्ति के क्षणों में अपने संग्रहीत धन का सदुपयोग नहीं करना, राष्ट्र के प्रति बहुत बड़ी कृतघ्नता है। कर्तव्य निष्ठ व्यक्ति ही देश और धर्म की सुरक्षा कर सकता है। देश के प्रति गौरव, बहुमान एवं अपनत्व के द्वारा ही लोकतंत्र की नींव सुरक्षित रहेगी। त्याग, तपस्या तथा नि:स्वार्थ सेवा के बिना आत्मोद्धार और देश का उद्धार संभव नहीं। सभी जीव सुखी हों, सभी का कल्याण हो, सभी प्रसन्न रहें, राजा धार्मिक बना रहे। इस तरह की भावना सभी को भानी चाहिए। देश में एकता, शांति और संस्कृति के संरक्षणार्थ जो भी कदम उठाए जायें वह सब स्वागत के योग्य हैं। हमें अपने राष्ट्र के प्रति गौरव, भक्ति और समर्पण होना चाहिए। हमारा देश हर तरह से समृद्धशाली बने तथा शांति अहिंसा का विस्तार हो ऐसी लोक हितकारी भावना भी रखनी चाहिए। यदि हमारे अन्दर राष्ट्रीयता नहीं है, देश के प्रति निष्ठा नहीं है हम स्वयं ही उसकी जड़े कमजोर करने में लगे हैं तब फिर हमसे बड़ा कृतघ्नी और कौन होगा? हम जिस डाल पर बैठे हैं, यदि उसे ही काटने लगे तो सोचो भला फिर हमारा क्या होगा? पता नहीं हमारी ये अज्ञानता हमें कहाँ ले जायेगी। जो व्यक्ति राजकीय नियमों का उल्लंघन करके कोई कार्य करता है, तो समझिये कि वह अपनी तरफ से ही धार्मिक कार्यों में बाधा उपस्थित करता है। समाजवाद का वास्तविक अर्थ है सबके साथ वात्सल्य, प्रेममय व्यवहार, सबका हित देखना हिल मिलकर रहना। हम समाजवाद-समाजवाद की बात तो बहुत करते हैं, पर होता यह है कि पहले हम... समाज बाद में ! समाजवाद का यह रूप तो ठीक नहीं। जिस प्रकार दानवीर भामाशाह ने अपनी न्यायोपार्जित संपत्ति को न्योछावर कर राष्ट्र सुरक्षा संवृद्धि के लिये योगदान दिया उसी प्रकार आज भी प्रत्येक राष्ट्रभक्त श्रावक के लिये अपना सर्वस्व न्योछावर कर देश की रक्षा करना चाहिए। देश के धन को विदेशी बैंकों में जमा करना और व्यक्तिगत पूँजी बना लेना राष्ट्र की नींव को कमजोर करना है। पारस्परिक सौहाद्र और समन्वय से ही देश की एकता और अखंडता कायम रह सकती है। प्रेम, मैत्री, करुणा और आस्था समाज संगठन की आधारभूत भावनायें हैं। विनय, वात्सल्य, एकता तीनों रत्नत्रय के समान हैं। समाज की संरचना में इनका बहुमूल्य योगदान है। अपरिग्रह का सिद्धान्त समाजवाद का व्यवहारिक रूप है यह सिद्धान्त समाजवाद को जीवित रखने के लिये संजीवनी का काम करता है। जिस व्यक्ति के अन्दर अपने राष्ट्र के प्रति प्रेम नहीं है वह व्यक्ति राष्ट्र भक्त कैसे कहा जा सकता है? देशद्रोह, अपराधों में एक बहुत बड़ा अपराध है। देश के प्रति वफादार होना ही राष्ट्र के प्रति सच्ची कृतज्ञता है। धर्माराधन के लिये शासकीय अनुकूलतायें होना भी जरूरी है। प्रशासक (राजा) यदि धर्म का पक्षधर हो तो उसे राज्य में रहने वाले तपस्वियों के तप का छठवाँ भाग सहज ही मिल जाता है।
  22. सत् शिव सुन्दर 5 - निजता का पाठ विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार हम लोग अभाव में पूजा तो करते हैं पर सद्भाव में नहीं। सद्भावना हमारे अन्दर छिपी सम्भावनाओं को अभिव्यक्त कर देती है। चिराग को नहीं किन्तु चिर-आग (राग) को बुझाओ। मानव, माया का दास बना है माया, मानव की दासी नहीं। आशा को ही जिन्होंने दासी बना लिया अब उनके चरणों में सारा जगत् ही दास बनकर खड़ा हो जायेगा। अज्ञानता की धरती पर ही राग-द्वेष की खेती हो रही है। लक्ष्योन्मुखी दृष्टि होने से गिरा हुआ व्यक्ति भी उठ सकता है जैसे कि चींटी। उत्कृष्ट साधकों के दर्शन करने से ही उत्कृष्ट परिणाम (भाव) प्राप्त होते हैं। व्यक्ति, माल से मालदार नहीं किन्तु भावों से मालदार बनता है। हमें दीप का नहीं ज्योति का और सीप का नहीं मोती का सम्मान करना है। अपनी पहचान मानवता की पहली शर्त है। प्रत्येक प्राणी का जीवन अपने आप में एक आधी अधूरी कहानी है। प्रत्येक द्रव्य अपनी सृजनशीलता का कोष है। अपने में अपने हित की भावना ही जागृति है, तभी जीवन में सवेरा है। जब हवा काम नहीं करती तब दवा काम कर जाती है। और जब दवा काम नहीं करती तब दुआ काम कर जाती है। वर्ण का आशय न रंग से है न अंग से वरन् चाल-चलन ढंग से है। वचनों के माध्यम से देश, वंश और परिवार का परिचय प्राप्त हो जाता है। कलयुग की यही पहचान है जिसे खरा भी अखरा है सदा और सतयुग उसे तू मान जिसे बुरा भी बूरा सा लगा है सदा। शांति कहीं और से आने वाली नहीं, अशान्ति जहाँ से आ रही है उसे दूर करना ही शान्ति को लाना है। शांति किसके लिये ? स्वयं को या दुनिया को। यदि स्वयं शांत हो जाओगे तो दुनिया अपने आप शांत हो जायेगी। मंगलाचरण और मंगल ध्वजारोहण आदिक कार्यों के समय ही हमें मंगलकारी भावना नहीं भानी चाहिए बल्कि हमेशा भाते रहना चाहिए। शुद्ध तत्व का निरीक्षण करने वाला व्यक्ति पावन/पवित्र होता है। हमारी दृष्टि में समीचीनता तभी आ सकती है जब हम वस्तु के असली रूप को देखने का प्रयास करेंगे। स्वतंत्रता के अधिकार के साथ-साथ स्वतंत्रता के सम्मान का कर्तव्य भी लगा हुआ है। अर्थ पुरुषार्थ का अर्थ है कि दो अर्थों के बीच पुरुष। जिसका अर्थ है कि अर्थ (धन) पुरुष (आत्मा) के लिये है। लोग कहते हैं कि उत्पादन नहीं हो रहा पर मैं कहता हूँ कि आज मुख्य समस्या उत्पाद की नहीं, उत्पात की है जो हर जगह हो रहा है। संतुलित एवं संयमित आहार के द्वारा शारीरिक बल को नियन्त्रित किया जाता है जो शरीर एवं स्वास्थ्य दोनों के लिये लाभप्रद होता है। शाकाहार के साथ-साथ आहार की मात्रा भी संतुलित करना जरूरी है। अभक्ष्य और अनिष्ट का त्यागकर उसी तरह का भोजन करना चाहिए जो स्वास्थ्य वर्धक एवं हितकारी हो। आप हाथापाही को ठीक मानते हैं और माथाफोड़ी में कठिनाई महसूस करते हैं, पर विज्ञजन कहते हैं कि हाथापाही बहुत की अब थोड़ी माथाफोड़ी भी कर लो यानि अनर्गल (असम्यक्र) प्रवृत्ति छोड़ दो और युक्ति संगत कार्य करो। आज के युग की सबसे बड़ी समस्या विचार, उच्चार एवं आचार के बीच की खाई है, जिस दिन यह पटेगी उस दिन मानव जीवन की बहुत सारी समस्यायें स्वयमेव सुलझ जाएँगी। पहले नाव की बात होती थी, आज सिर्फ चुनाव की बात होती है। पहले तैरने-तिराने की बात होती थी। आज सिर्फ डूबने-डुबाने की बात होती है। हमें कागज की नाव में नहीं चलना है। कागजी नाव से आज सारी की सारी समाज परेशान है। आज नावें भी सही नहीं हैं बल्कि नाव के स्थान पर आज चुनाव हावी होता जा रहा है। जीव के परिणाम और कर्म के बीच की स्थिति है नोकर्म, हमें नोकर्म पर हर्ष-विषाद नहीं करना चाहिए। जैसे पत्र पाने वाला व्यक्ति अपनी प्रतिक्रिया पत्र प्रेषक के प्रति करता है न कि डाकिया पर। समय इतना सूक्ष्म है जिसका विभाजन करना संभव नहीं। वह तो निरन्तर प्रवाहमान है, रविवार के समापन और सोमवार की शुरूआत के बीच की संधि आज तक कोई भी नहीं पकड़ पाया। नगर-पालिका की ओर से यदि दो चार दिन ही शहर में सफाई न हो तो गंदगी काफी फेल जाती है निकलना कठिन हो जाता है किन्तु इस आत्मा के अन्दर जन्म जन्मान्तरों का कचरा पड़ा हुआ है फिर भी हमें ध्यान नहीं। व्याकरण में प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष और अन्य पुरुष यह तीन पुरुष होते हैं। अन्य पुरुष में ‘है' का प्रयोग होता है, प्रथम पुरुष में ‘हूँ' का और मध्यम पुरुष में ‘हो’ का प्रयोग होता है। जब 'हूँ' या ‘हो’ निकल जायेगा तब ‘है' शेष रह जायेगा। सर्वोदय का साक्षात् दर्शन अन्य पुरुषों में होता है। अन्य पुरुष में पूर्ण समष्टि है, इसे आचार्य कुन्दकुन्द ने महासत्ता कहा है। अन्य पुरुष में प्रथम और मध्यम पुरुष की अपेक्षा वात्सल्य प्रेम का व्यापक दृष्टिकोण होता है।
  23. "अप्रैल 1968 नसीराबाद में हम लोग ज्ञानसागर जी महाराज की वैयावृत्ति के लिए रात में जाते थे।" तब समाज के कुछ लोग भजन सुनाते थे, विद्याधर जी को एक भजन बहुत अच्छा लगा वह मेरे पिताजी नेमीचंद जी गदिया से प्रतिदिन वहीं भजन सुनाने के लिए कहते थे, और स्वयं भी साथ साथ मधुर वाणी में बोलते थे। उनकी मधुर वाणी में भजन सुनकर हम युवा बड़े प्रभावित हुए, वह भजन हम लोगों ने तैयार कर लिया फिर मुनि दीक्षा के बाद सन 1972 में आए और जून 1973 तक रहे तब कई बार वह भजन हम लोगों ने उन्हें सुनाया वह इस प्रकार है- लय- रिमझिम बरसे बादरवा मनहर तेरी मूरतिया,मस्त हुआ मन मेरा। तेरा दरश पाया, पाया,तेरा दरश पाया।। प्यारा प्यारा सिंहासन,अति भा रहा,भा रहा। उस पर रूप अनूप,तिहारा छा रहा,छा रहा। पद्मासन अति सोहे रे,नयना उमगे है मेरे। चित्त ललचाया आया,तेरा दरश पाया।।1।। मनहर तेरी .......... तव भक्ति से भव के दुःख मिट जाते है,जाते है। पापी तक भी भव सागर तिर जाते हैं,जाते है।। शिव पद वह ही पावे रे,शरणा-गत में है तेरी। जो जीव आया-पाया,तेरा दरश पाया।।2।। मनहर तेरी........ साँच कहूँ खोई निधि मुझको मिल गई,मिल गई। जिसको पाकर मन की कलियां खिल गई,खिल गई।। आशा पूरी होगी रे,आश लगा के "वृद्धि"। तेरे द्वारा आया-पाया,तेरा दरश पाया।।3।। मनहर तेरी....... फिल्म - रतन (1944) इस तरह विद्याधर जी भजन सुनकर के अपना हिंदी का ज्ञान प्रगाढ़ करते रहते थे, युवा सोचते थे कि मुनि श्री भजन में आनंद ले रहे हैं, किंतु वास्तविकता यही थी कि वह हर क्षण ज्ञान वृद्धि में लगे रहते थे। धन्य है ऐसी ज्ञानपिपाशा को नमन करता हुआ......
  24. एक बार की बात है सदलगा के पास में निप्पाणी शहर है, वहां चलने के लिए विद्याधर ने मुझसे(महावीर प्रसाद जी) कहा- तब मैंने पूछा क्यों जाना ? तो बोला- "वहां पर आचार्य विनोबा भावे जी भाषण देने के लिए आ रहे हैं मुझको उनके भाषण सुनना है वह देश के लिए और देश के गरीबों के लिए बहुत अच्छा काम करते हैं अच्छा भाषण देते हैं इसलिए हमको उनका भाषण सुनना चाहिए। "तब हम दोनों पिताजी के पास गए और बोले हम लोगों को विनोबा भावे जी का भाषण सुनना है। तब पिताजी ने समझाते हुए ऊंचे स्वर में कहा- वह भूदान के लिए भाषण देने आ रहे हैं अपने पास अभी ज्यादा भूमि नहीं है दान क्या दोगे ? जाओ अभी स्कूल जाओ। यह सुन कर विद्याधर नाराज हो गए। उसे विनोबा भावे के भाषण सुनने की याद आ रही थी। तब मेरे पास पांच रुपये थे, मैंने उसे दे दिया और कहा-तू मित्रों के साथ चला जा। तो वह मित्रों के पास गया, मित्रों ने कहा-एक शर्त पर चलेंगे। हम विनोबा जी का भाषण नहीं सुनेगें। हम जेमिनी सर्कस देखेंगे तुमको भाषण सुनना है तो सुन लेना, विद्याधर तैयार हो गया और चला गया वहां से वापस आकर मुझे सब कुछ बताया। पूरा भाषण सुनाया और सुनाते समय अपनी बातों का समर्थन करते जा रहा था- विनोबाजी गरीबों के लिए कितना अच्छा कार्य कर रहे हैं देश का हित होगा और गरीबों को अभयदान मिलेगा" इस तरह विद्याधर महापुरुषों और प्रसिद्ध नेताओं के भाषण सुनने सदलगा से बाहर जाया करता था। एक बार मेरे साथ पंडित जवाहरलाल नेहरू का भाषण सुनने गया था। इस तरह विद्याधर बचपन से ही महापुरूषों की आदर्शता को अपने अंदर सहेजता जा रहा था। आज वो स्वयं लोकादर्श बन गया है। और अनेक महापुरुष, बड़े मंत्री लोग उनके प्रवचन को सुनने के लिए लालायित हो जाते हैं। ऐसे आदर्श महापुरुषों के आदर्शों को सदैव नमन करता हुआ....... अन्तर्यात्री महापुरुष पुस्तक से साभार
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