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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. सम्यक दर्शन के चौथे अंग अमूढ़ दृष्टि के बारे में समन्तभद्राचार्य ने बताया कि अपने विचारों का उपयोग किए बिना एक मार्ग को अपना लेने से अनेक कठिनाइयां आती हैं, क्योंकि अपना विचार भी अपेक्षित है। जब तक विचारों से सामने वाली वस्तु को नहीं तौलते, तब तक नहीं अपनाते। तौलने के लिए समीचीनता चाहिए। इसके लिए कुछ तर्क, कुछ अनुमान, आगम, अपने से ज्यादा अनुभवी के विचार होना चाहिए। अमूढ़ दृष्टि सम्यक दर्शन का महत्वपूर्ण अंग है। कापुरुष का मतलब कायर से है। पथ के पीछे कापथ लग जाना ठीक नहीं, समीचीन नहीं। वह मंजिल तक पहुँचाने वाला नहीं है। कापथ पर विश्वास व उसकी उपासना जो करता है, वह मूढ़ दृष्टि कहलाएगा। कहा भी है कि :- मिथ्या दिशा पकड़ के जब तू चलेगा, गंतव्य स्थान तुझको न कभी मिलेगा। कैसे मिले सुख भले दुख क्यों टलेगा, रागाग्नि से जल रहा, चिर औ जलेगा ॥ वास्तविक बात यह है कि अमूढ़ दृष्टि को अपनाने पर राग गौण और वीतराग मुख्य हो जाएगा। तब आप रागी द्वेषी के वचनों पर विश्वास नहीं करेंगे, बल्कि वीतराग-विज्ञान पर विश्वास, श्रद्धा लाएँगे, क्योंकि इसमें छल नहीं है। सामने वाले की दृष्टि जब वीतरागता को लेकर है तो उसके विचारों को बिना संदेह के अपना लेंगे। वीतरागता की बातें आपको अच्छी लगेंगी। जो स्वयं भूखा है वह दूसरे को रोटी नहीं दे सकता, जो वीतरागी नहीं है, वह वीतरागता को नहीं बता सकता है। जो कोई पुरुष रागी, द्वेषी, कपटी, मोही, मायावी है, वह तीन काल में भी रास्ता नहीं बता सकता है। रास्ता तो वीतरागी, सजन, सत् पुरुष ही बता सकते हैं। उनके बताये रास्ते को अपनाएँगे तो अमूढ़ दृष्टि को अपनाएँगे। सजन पुरुष के वचनों में विश्वास रखना अन्धविश्वास नहीं है, बल्कि इससे समीचीनता आती है। ऐसा कौन-सा विद्वान् है जो परोक्ष में तत्व का विश्वास रख कर प्रत्यक्ष में हाथ में रख कर दिखा सके? वह तो विश्वास रखकर ही अनुभव कर सकते हैं। शब्दों पर सर्वप्रथम विश्वास रखो। विदेह क्षेत्र में भी जो प्रवचन होता है, वही यहाँ पर भगवान् कुन्दकुन्द ने संकलन किया है। वहाँ जाकर ही आप सुनेंगे, पर पुरुषार्थ तो करना ही होगा। विश्वास सर्वप्रथम परोक्ष में होता है। प्रत्यक्ष में तो अनुभव होता है। अमूढ़दृष्टि का मतलब राग द्वेष, सांसारिक बातों पर विश्वास नहीं होना। सुख के लिए सरल रास्ता है। पर आपको विश्वास ही नहीं। विश्वास हो जाये तो अन्दर की लहर बाहर आ जाएगी। आप दर्शन के लिए बाहर की ओर झाँक रहे हैं, पर आप अन्दर की ओर झाँक लो। वास्तविक दिग्दर्शन बातों में नहीं होता, उसके लिए निडर होने की जरूरत है। जहाँ थोड़ा परीषह उपसर्ग आ जाये तो आप घबरा जाते हैं। यह परीक्षा की चीज है। तेरा माल तो तेरे पास है, पर उसका स्थान भूल गया है, वह कहाँ से आएगा, ये भी तुझे पता नहीं है। मृग कस्तूरी ढूँढ़ने के लिए जंगलों में दौड़ता है पर उसे पता नहीं कि वह तो अपनी नाभि में है। आपने आज तक उस वस्तु को देखा ही नहीं, वीतरागता पर विश्वास लाए नहीं। रागी-द्वेषी की अनुमोदना, सेवा, स्तुति, उपासना नहीं करने से सुख की प्राप्ति होगी। कापथ राग-द्वेष, संसार को बढ़ाने वाला सत्पुरुष नहीं, का पुरुष है, निंदक है। आप में अनादिकाल से अमूढ़दृष्टि आई ही नहीं। वीतरागी के वचनों में विश्वास करने से राग गौण हो जायेगा। वीतरागता की उपासना चालू करने पर तो वीतरागी बनने में देर नहीं। मिथ्या दिशा को पकड़ने से मंजिल नहीं मिलेगी, चलते ही रहोगे। कर्मों के ईधन को लेकर अग्नि जला रहे हो। अग्नि बुझाने के लिए पानी डालना पड़ेगा तथा ईधन हटाना पड़ेगा। तप के द्वारा निर्जरा होती है, पर कथचित् संवर से भी निर्जरा होती है। तृण रहित स्थान पर आग गिरने पर बुझाने की जरूरत नहीं है। यदि वीतरागता में विश्वास रखेंगे तो राग-द्वेष, मोह-माया के कर्म धीरे-धीरे निकल जायेंगे। रागी, द्वेषी, संसारी का विश्वास मत रखी। वीतराग मुद्रा को धारण करने वाले मुनिराज विषय-कषायों, राग-द्वेषों, परिग्रहों से दूर रहते हैं, वे कुछ नहीं चाहते। मात्र समीचीन रास्ता बताएँगे, सुख का रास्ता बताएँगे। वीतरागता में, न डर है, न डराने की जरूरत है। मुनिराज जब प्रवृत्ति को छोड़कर निवृत्ति में तल्लीन हैं, आत्म तत्व में चित्त है, तो सिंह से भी नहीं डरेंगे न डराएँगे। जब प्रवृत्ति करेंगे, विहार करेंगे तो मार्ग में सिंह जिधर से आ रहा है, उससे दूर होकर निकलेंगे। आप तो (मुनिराज तो) सिंह से नहीं डरते, पर आपकी मुद्रा से वह डर जाये। प्रवृत्ति के समय पास नहीं जायेंगे उस समीचीन रूप से मन, वचन, काय को रोक लेंगे तो भय प्रकृति की उदीरणा नहीं होगी और मृग/हिरण भी इसी कारण खाज खुजा लेते हैं। बनती कोशिश वीतरागता की उपासना कर प्रवृत्ति को रोक कर निवृत्ति अपनाकर डरना व डराना नहीं चाहिए। मुनिराज चाहते हैं कि दुनियाँ का कल्याण हो, वे चाहते हैं कि अनन्तकाल से प्राणी दुख उठा रहे हैं। इसका कारण रागी, द्वेषी पर विश्वास है। यही इनकी मूढ़ दृष्टि है। प्रयोजनभूत तत्व अतींद्रिय सुख के बारे में वीतरागी पर विश्वास हो। संसार के कार्यों की बात अलग है। वीतराग देव शास्त्र गुरु पर विश्वास अमूढ़दृष्टि है। परमार्थिक क्षेत्र में रागी, द्वेषी पर विश्वास नहीं होना चाहिए। वे रागी द्वेषी तो स्वयं अधर है, उनके पैर धरती पर नहीं टिकते वे दूसरों को क्या उठाएँगे। जो खुद दुखी हैं वह दूसरों के दुख कैसे मिटायेगा, यह अन्धविश्वास नहीं है। ऐसा विचार होना चाहिए कि इस विषम स्थिति में भी अनादिकाल से राग द्वेष को हम नहीं छोड़ रहे हैं और ऐसे योगीराज भी है जो राग द्वेष छोड़कर आत्म तत्व में लीन हैं। ऐसा एक बार विचार ध्यान हो जाये, ऐसा विश्वास हो जाये तो वह भी कालांतर में वैसा वीतरागी बन जायेगा। जो दृष्टि में माया घुसी पड़ी है, उसे हटाकर उसमें समीचीनता लानी है, तभी आपका कल्याण हो सकता है।
  2. तप, तपस्या विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार धर्म, तप, तपस्या, आशा के साथ मत करो बल्कि कर्म निर्जरा के लिए करो। जब आग को पकड़-पकड़ कर आप अभ्यस्त हो जाते हो तो थोड़ा-थोड़ा तप करके तप में अभ्यस्त क्यों नहीं होना चाहते हो? तप आग तो नहीं है ना। तप के माध्यम से अप्रशस्त प्रकृतियों की निर्जरा होती है और अतत्व बाहर निकल जाते हैं और प्रशस्त प्रकृतियाँ बढ़ती ही चली जाती है। इस जीवन में घोर तपश्चरण मत करो लेकिन पाँच पापों की सीमा बना लो, गर पूर्णत: पाप नहीं छोड़ सकते तो। विकल्पों की, परिग्रहों की सीमा बना लो, व्रती श्रावक बन जाओ, सादगी से जीवन जियो। अब तो स्वयं में जीणोंद्धार की बात सोचो, तपस्या में मन लगाओ। ज्ञान, ध्यान, तप को लेकर बंध स्थान नहीं होना चाहिए, बल्कि निर्जरा स्थान और बढ़ना चाहिए। तपस्या का उद्देश्य प्रदर्शन नहीं आत्मदर्शन होना चाहिए। तप के कारण जीवन में अदभुत अनुभूतियाँ होती हैं, लगनशील ऐसे तप को और बढ़ाते जाते हैं। तप और ध्यान के माध्यम से रत्नत्रय में निखार आता है। व्रतों में लगे दोषों का निर्मूलन तप, प्रायश्चित के द्वारा भी होता है। यह मनुष्य पर्याय जितनी दुर्लभ है, उतनी ही अशुद्ध और दुख:मय है और कर्मों की निर्जरा भी इसी पर्याय में ही की जा सकती है। इसलिए तपस्या करके कर्मों की निर्जरा कर लेना चाहिए। शक्ति का यद्वा-तद्वा व्यय करने से वीर्यान्तराय कर्म का बंध होता है। श्रावकों का परम कर्तव्य है कि पंच, पंचायत को छोड़कर पंचपरमेष्ठी के स्मरण में मन को लगाएँ। तप के माध्यम से क्षमा, शांति आदि अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं, फिर विवेकीजन उस तप को क्यों नहीं चाहेंगे। फूल सूख जाता है, फल बढ़ता जाता है, वैसे ही तप बढ़ता जाता है और शरीर सूखता जाता है। तपस्या बाल सूर्य के समान बढ़ते क्रम से होना चाहिए। शरीर से तपस्या करो, वरन् शरीर की पुष्टि के साथ पापार्जन ही होगा। तप करते समय इतना ध्यान अवश्य रखना, दूध तपाते हैं, लेकिन दूध सुरक्षित रहता है, पानी ही तपता है, वैसे ही कर्म को तपाना है, शरीर को नहीं। तप करते समय प्राणों को बाधा नहीं पहुँचना चाहिए, प्राणों की किस-किसाहट आ जायेगी तो तप करने में आनंद नहीं आयेगा। यदि मशीन गरम हो गई तो वह कुछ दाना माँगती है, उसे दाना देना चाहिए, वरन् चक्की के पाट घिस जाते हैं। समीचीन तप करने वालों को अंत में निश्चित ही समाधि का लाभ होता है। जहाँ आशा-तृष्णा नहीं पलती वहाँ पर दु:ख का नामोनिशान नहीं रहता, वहाँ उससे बड़ा कोई सुख और हो ही नहीं सकता। वस्तु की चाह ही वस्तु की कीमत बढ़ाती है, चाह रहित के सामने वस्तु की कोई कीमत नहीं रहती। बाह्य तप, अग्नि को बढ़ाने वाली हवा के समान है और आभ्यन्तर तप अग्नि के समान है। कर्म आभ्यन्तर तप से ही कटते हैं। तप के माध्यम से सारा दुराचार,पाप नष्ट हो जाता है। जैसे साबुन और पानी से बहुत पुराना गंदा कपड़ा भी स्वच्छ-साफ हो जाता है। जो तप का फल ख्याति, लाभ, पूजा को चाहता है, वह तप रूपी वृक्ष को जड़ से काट रहा है। फूल को तोड़कर उसकी गंध मत लो वरन् उसका फल प्राप्त नहीं कर पाओगे। हमारा तप कच्ची पूड़ी की तरह है जल्दी मत करो, अच्छे से पकने दो वरन् स्वास्थ्य बिगड़ जायेगा। ख्याति, लाभ, पूजा संसार के सुख, कच्चे फल के समान हैं, इन्हें मत चखो, वरन् दाँत गोंठले हो जायेंगे। तप और श्रुत का सदुपयोग कर्म निर्जरा में करना महत्वपूर्ण है। यह शरीर मुनीम है, लेकिन मालिक बन बैठा है। अब अवसर आया है, इसे तप के माध्यम से अपने वश में करो। जीवित अवस्था में इस शरीर को तप के द्वारा जलाओ, वरन् लोग इसे अंत समय तो जलायेंगे ही। जैसे टार्च का सेल उपयोग करते हैं तो ठीक है वरन् बच्चे उससे खेलते रहते हैं। शक्ति का सही उपयोग न कर पाने से फल कम मिलने से वहाँ स्वर्गों में पहुँचकर दु:ख होता है। अफसोस होता है कि मैंने उपलब्ध समय में शक्ति का उपयोग तप में नहीं किया। तपस्वियों की पूजा करने वाले को हर जगह सम्मान मिलता है। तपस्वियों (मुनिराजों) को प्रणाम नमस्कार करने से उच्चगोत्र का बंध होता है, साधु बनने योग्य संस्कारित परिवार में जन्म होता है। तपने के बाद अकाल की कोई सम्भावना नहीं रहती।
  3. सम्यक दर्शन के ८ अंगों में अंग अंगी का भाव अभेदपने को लेकर चलता है। सम्यक दर्शन ८ अंगों से मिला हुआ अंगी नहीं है, बल्कि ८ अंगों (गुणों) का समूह सम्यक दर्शन है। आप लोग गुणी बनना चाहते हैं, पर गुणों का समादर नहीं करते। सम्यक दर्शन को तो मोक्षमार्ग में कारण मानते हैं, पर उसके ८ अंगों की उपेक्षा करते हैं। इन अंगों के द्वारा अवगुणों को दूर कर गुणों के भण्डार बन सकते हैं। जीवन विकास दो पहलुओं को लेकर चलता है, एक दाता बने या पात्र बने। इसमें महत्ता कम ज्यादा हो, इस ओर दृष्टि न करें। हरेक में प्राथमिक और नि:सम्पन्न दशा दोनों होती हैं, दोनों का महत्व होता है। निर्विचिकित्सा अंग मुनिराज का नि:सम्पन्न दशा को लेकर पलता है, परन्तु गृहस्थ का प्रारम्भिक दशा को लेकर पलता है। हमारा जीवन कब सुधरता है तथा भावों का अध:पतन कब हो जाता है? इसके उदाहरण हैं यशोधर मुनिराज, चेलना रानी और राजा श्रेणिक। यशोधर मुनिराज लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं, शरीर से निसंग हैं, आत्मध्यान में लीन हैं। जीवन की महत्ता जिसने न जानी, ऐसे श्रेणिक राजा ने उनके गले में मरा साँप डाल दिया और सातवें नरक की ३३ सागर की उत्कृष्ट आयु का बन्ध कर लिया, लेकिन इधर यशोधर मुनिराज ने असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा कर ली। राजा ने जब यह बात (सर्प गले में डालने की) रानी चेलना से कही, तो रानी पर तो जैसे वज़ गिर गया हो, ऐसी दुखी हुई क्योंकि वह निर्विचिकित्सा अंग को पालने वाली थी। वह राजा को वन में ले गई, उपसर्ग दूर किया और प्रणाम किया। महाराज ने दोनों को आशीर्वाद दिया। उस वातावरण को देखने पर श्रेणिक ने विचारा कि वास्तविक धर्म यही है, क्योंकि रानी को विशेष आशीष नहीं और मेरे लिए अभिशाप भी नहीं। उसने अपनी आत्मा को धिक्कारा, फिर विशेष परिवर्तन हुआ यही कि नरक की आयु कम हुई। आयु का अभाव नहीं होता। कहा है निंदा करे, स्तुति करे, तलवार मरे , या आरती मणिमयी, सहसा उतारे। साधू तथापि मन में समभाव धारे, वैरी सहोदर जिन्हें इकसार सारे ॥ यह वीतराग दशा है, इसमें कौन बैरी, कौन मित्र? न कोई बन्धु, न कोई शत्रु। क्या अनुकूल क्या प्रतिकूल, क्या श्मशान क्या राजमहल ? सब समान है, कोई अन्तर नहीं। कोई आरती उतारे या तलवार मारे मुनिराज कोई फरक नहीं मानते, लेकिन करने वाले पर फरक जरूर पड़ेगा। दोनों में से एक का कार्य परमार्थ के रूप में तथा दूसरे का अनर्थ के रूप में होगा। श्रेणिक राजा पर नास्तिकता के भाव हट गये और आस्तिकता के भाव जागे। आप लोग अगर किसी व्यक्ति को खून से भरा देखेंगे तो आपका हाथ नाक की तरफ जायेगा, लेकिन उसका खून बन्द नहीं करेंगे। चेलना रानी ने उपसर्ग दूर किया। गृहस्थ की दृष्टि मात्र शरीर पर ही नहीं बल्कि शरीर से हटनी भी चाहिए। शरीर में कुछ व्यवधान या बीमारी आ जाये तो उसे न छोड़ते हुए शरीर की सुरक्षा करें। धार्मिक क्षेत्र में किसी प्रकार का बन्धन नहीं, अगर है भी तो उसे समीचीन बनावें, तोड़े नहीं। किन्तु आज लाइफ इंश्योरेंस होता है जिससे कोई मर जाये, चला जाये चिन्ता नहीं, पैसा तो मिल ही जायेगा। निर्विचिकित्सा का मतलब मात्र शरीर की सेवा ही नहीं है, बल्कि यह देखना है कि शरीर से सम्यक दर्शन आदि पल रहे हैं या नहीं। अष्टपाहुड में भगवान् कुन्दकुन्द ने बताया है ‘दंसण मूलो धम्मो'। दर्शन, धर्म का मूल है। जो दर्शन से विहीन है, वह धर्म नहीं, वन्दनीय नहीं है। उसका वन्दन हो जो दर्शन से युक्त हो। दर्शन दो प्रकार का है। एक बाह्य दर्शन और दूसरा अंतरंग। अंतरंग दर्शन का आधार बाह्य दर्शन है। जिस प्रकार तेल रखने के लिए पात्र (आधार) चाहिए यानि तेल आधेय, पात्र आधार है। सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्र धर्म है, इसका मूल दर्शन है। दर्शन क्या है ? दर्शन है यथाजात रूप। २८ मूलगुण पालने योग्य जो लिंग है, वह यथाजात रूप है। वीतरागता का दर्शन करें और यथाजात रूप न हो, यह तीन काल में नहीं हो सकता है। रानी ने सोचा कि मुनि महाराज का शरीर ठीक चलेगा तो सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र ठीक पलेगा, इसीलिए रानी ने शरीर के उपसर्ग को दूर किया। सम्यक दर्शन ज्ञान-चारित्र का आधार यथाजात रूप है। सम्यक दर्शन वन्दनीय है, उसके साथ वीतरागता दिगम्बर मुद्रा है, तभी बहिरंग दर्शन है। उसके बाद अंतरंग दर्शन होगा। गृहस्थ के निर्विचिकित्सा अंग में मात्र शरीर सेवा नहीं, धर्म की सुरक्षा हो, तभी वह पात्र बनने की क्षमता रखेगा, वह उस प्रकार बन्ध करेगा, ताकि मोक्ष मार्ग में उपयुक्त सामग्री प्राप्त हो जाये। अमूर्त आत्मा की उपासना, उसमें विश्वास कर सके, इसके लिए आचार्यों ने बहुत परिश्रम कर विशद विवेचन किया। वे तो कृतार्थ हो गये, जब उसको जीवन में उतारेंगे, तब हम भी कृतार्थ होंगे। जो चारित्र अपनाने का विचार रखता है तो चारित्रधारी के पास जायेगा, उनकी सेवा करेगा, उनके आदर्श को जीवन में उतारेगा, तभी सुख का अनुभव करेगा। उसका अपूर्ण जीवन पूर्णता में परिणत हो जायेगा।
  4. तृष्णा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार तृष्णा की पूर्ति करने से वह कभी उपशमित नहीं होती, उसे पीठ दिखाये बिना वह उपशमित नहीं होगी। तत्व ज्ञान के माध्यम से ही तृष्णा को शांत किया जा सकता है। तृष्णा रूपी अग्नि को बुझाना चाहते हो तो धनादि की इच्छा छोड़ दो और जो रखा है, उसे भी त्याग दो। तृष्णा नागिन का जहर भव-भव में भी नहीं उतरता। जैसे इमली का पेड़ भले ही बूढ़ा हो जाये पर उसकी खटाई कम नहीं होती, ऐसे ही तृष्णा भी कम नहीं होती। तृष्णा रूपी अग्नि में संसार की सम्पदा ईंधन का काम करती है। उससे तृष्णा कम नहीं होती, बल्कि और बढ़ती है। "लार गिरती, गर्दन तो हिलती, तृष्णा युवती"।
  5. जीव विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जीव उपाधि से रहित है। शरीर या पर्याय की अपेक्षा जो उपाधि है, उनमें यह जीव उसी रूप हो जाता है, यह अज्ञान है। जब अविनश्वर जीव की पहचान हो जाती है तब इसके संरक्षण की सारी दौड़-धूप समाप्त हो जाती है। शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से जीव आदि, मध्य और अंत से रहित है। जीव स्व-पर प्रकाशक है, आज तक हमने अपनी शक्ति को दूसरों को प्रकाशित करने में लगायी है। स्वयं को जो प्रकाशित करता है और जो दूसरों को प्रकाशित करने की योग्यता रखता है, वही सम्यकज्ञानी माना जाता है। अमूर्त जीव द्रव्य अवधिज्ञान का विषय नहीं बन सकता। परोक्षज्ञान में मात्र हमारे पास आगम ज्ञान है, जिसके माध्यम से हम जीव को जान सकते हैं, क्योंकि आँखों से अमूर्त जीव दिखता नहीं है। जब जीव अमूर्त है तो पंचेन्द्रिय के विषयों में घटन-बढ़न होने पर हर्ष-विषाद नहीं करना चाहिए। निश्चयनय से आत्मा तो आत्मस्थ है पर संसार परावर्तन करने के कारण संसारस्थ है, यह जीव संसार में रहकर भी संसारातीत का श्रद्धान कर सकता है। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव शुद्ध नय से ज्ञान-दर्शन रूप हैं। वर्तमान में जीव नारायण स्वरूप है, पर दरिद्र नारायण बना हुआ है। निश्चय से शुद्ध स्वरूप है जीव, पर अभी मोह के कारण कर्मों से जकड़ा हुआ है। अशुद्ध निश्चयनय से जीव राग-द्वेष रूपी भाव कर्म का कर्ता है, व्यवहारनय से पुद्गल कर्म आदि का कर्ता है, शुद्धनय से शुद्ध भावों का कर्ता है। जीव द्रव्य सक्रिय है। बिना शरीर के भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता है। वह एक समय में सात राजू पार कर जाता है।
  6. चिन्ता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार भौतिकी जीवन हमेशा-हमेशा चिन्ता का कारण है। चिन्ताग्रस्त होने से कभी समस्या का हल नहीं हो सकता। अंतरंग जगत् की पहचान होने पर बाहरी जगत् का वैभव चिन्ता का कारण नहीं बन सकता। चिन्ताग्रस्त मानव को मानव के पास नहीं बल्कि प्रकृति के पास जाना चाहिए। खिलते हुए फूल को देखकर चिन्ता में कमी आने लगती है। भविष्य की चिन्ता छोड़कर अतीत में पूर्वजों ने कैसा जीवन जिया है ? उस ओर ध्यान दें, तभी भविष्य उज्ज्वल हो सकता है। चिन्ता की बात नहीं, चिन्तन करो, चित् चमत्कार पैदा करो।
  7. भगवान् महावीर के निर्वाणोत्सव के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न स्थानों पर समारोह आयोजित होने से प्रभावना बढ़ती है। यहाँ पर भी महावीर के उपासकों ने भगवान् महावीर की स्थापना करने का निश्चय किया। समतभद्राचार्य ने कहा है कि अपत्य वित्तोत्तर लोक तृष्णाया, तपस्विनः केचनकर्म कुर्वते। भवान् पुनर्जन्म जराजिहासया, त्रयीं प्रवृत्तिं समधीर-वारुणात् ॥ संसार के प्राणी भगवान् की उपासना किसी न किसी अपेक्षापूर्वक करते हैं। कुछ लोग संतान प्राप्ति के लिए, कुछ लोग वित्त वृद्धि के लिए, कुछ लोग समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिए और कुछ लोग आगामी भव की आकांक्षा में यानि अगले भव में ज्यादा वैभव मिले इस अपेक्षा से भगवान की उपासना करते हैं। लेकिन समंतभद्राचार्य कहते हैं कि हे भगवन्! आपने उपरोक्त भावना को लेकर उपासना नहीं की अपितु भव का नाश करने, संसार की उलझनों को छोड़ने के लिए उपासना की। महावीर ने कर्म की विचित्रता के बारे में सोचा। कर्म का उदय है, तब तक मिलेगा, जब कर्म का अभाव होगा तब नहीं मिलेगा। महावीर ने उस व्यक्ति को भक्त माना है जो वित्त वैभव के लिए, दूसरे जीवन की आकांक्षा से उपासना नहीं करता। आप लोग धर्म की ओट में भी वह काम करते हैं कि जिससे संसार की वृद्धि हो रही है। वित्त वैभव की वृद्धि के लिए उपासना चल रही है महावीर के सामने भी। एक सेठ के पास एक व्यक्ति कुछ मांगने गया, सेठ ने कहा जो चाहो वो मांग लो उस व्यक्ति ने मात्र रोटी माँगी। इसी प्रकार आप सोचो महावीर से हम क्या मांगे? दाता देने वाला तो है, पर पात्र नहीं। महावीर ने कहा कि तुम्हारे पास इतनी निधि (जल) है कि उसे ज्यादा खोदने की जरूरत नहीं, मात्र कचरा जो ऊपर लग गया है, उसे हटाना है। पानी बाहर नहीं, भीतर है। आपकी उपासना में इच्छा आकांक्षा न हो तभी वास्तविक वीतरागता, वास्तविक स्वरूप ज्ञात हो जाएगा। आज परिग्रह के पीछे जीवन इतना व्यस्त हो गया कि उपासना में भी विचारों की तरंगें चलती रहती हैं। मात्र कामना, खाना, पीना, सोना यही आप लोगों के सामने है। आप सोचते हैं कि महावीर जी में छोटे घड़े की नसियां में अथवा तिजारा में भगवान् की मूर्ति में चमत्कार है। लेकिन महावीर अथवा अन्य वीतरागी भगवान् कोई चमत्कार नहीं दिखाते। आज तक आपने उनके स्वरूप को समझा ही नहीं, महावीर को दुनियाँ से मतलब नहीं है। चमत्कार तो आप जैसे भक्त लोग दिखाते हैं और महावीर की प्रभावना करते हैं। नमस्कार चमत्कार के लिए नहीं। चमत्कार का बहिष्कार कर, विषयों का तिरस्कार कर, नमस्कार करें, इसी में कल्याण निहित है।
  8. इस संसारी प्राणी को दुख जो हो रहा है, उसका अभाव करना है। यह प्राणी मान रहा है कि खाने-पीने, धन वैभव, सत्ता आदि में सुख है, लेकिन इनमें सुख नहीं है। इसके द्वारा तो दुख का ही अनुभव करना पड़ता है। दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णा वश धनवान। कहीं न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ॥ आचार्य महोदय जीवन में खूब अध्ययन कर, सिद्धान्त का मंथन कर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ‘कहीं न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान'। इसको जीवन में उतार, संसार की असारता के लिए खूब अध्ययन किया और सार वस्तु के लिए जीवन समर्पित किया। आक्रमण दूसरों पर और प्रतिक्रमण अपने पर होता है। आक्रमण आत्मा को दुख में डालने वाला, आत्मा की निधि खोने वाला होता है। प्रतिक्रमण इससे उल्टा होता है। आक्रमण और प्रतिक्रमण दोनों शब्द क्रम को लेकर हैं। क्रम अर्थात् प्राप्त करना। उपसर्ग है और प्रति भी उपसर्ग अपने पर है। दोनों का खेल देखो। एक तरफ सिकन्दर बादशाह जो अनेक देशों को जीत कर भारत को जीतने का प्रयास कर रहा है और एक तरफ कल्याण मुनि हैं। जीत किसकी होती है, उसके पीछे आप को लगना है। हार की तरफ कोई नहीं होता है। जो जीतता है समीचीन उतरता है, उसकी ओर देखना है। सिकन्दर देश-विदेश को जीतकर दंभ से आगे बढ़ रहा है, उसकी इच्छा है कि सब पर राज करूं, सब मेरे अधिकार में रहें। बहुत कुछ कत्ल-विनाश हो रहा है। उसने सुन रखा है कि भारत में धन व धर्म की कमी नहीं है, वह भारत की ओर बढ़ा, पर वहाँ धर्म की विजय हो गई। वहाँ जाता है, जहाँ व्यक्ति प्रतिक्रमण में संलग्न है। वहाँ जाकर कहता है कि क्यों दुख उठा रहे हो, जो मांगना चाहो सो मांगो। तो दूसरी ओर वाले कहते हैं, जो स्वयं भीख मांगता है, जो आक्रामक है, वह दूसरों के दुख को नहीं मिटा सकता । प्रतिक्रमण जहाँ है वहाँ दया, अनुकम्पा विद्यमान है। निभीक होकर भी व्यक्ति कुछ न कुछ बोध दे सकता है। एक तरफ सिकन्दर बादशाह और दूसरी तरफ कल्याणमुनि। आज टोटल में एक जीरो और बढ़ जाने पर चाल टेढ़ी हो जाती है। जैसे-जैसे धन बढ़ता है, व्यक्ति ऊपर देखने लगता, नीचे नहीं। सिकन्दर कल्याण मुनि को देखता है और सोचता है कि वास्तविक जीवन यही है। आत्मा की उत्कर्षता के लिए काम करे। शरीर, मकान नाम की उत्कर्षता के लिए नहीं। काल द्रव्य हरेक को अपनी चपेट में ले लेता है, उसे पुराना बना देता है। हम अपनी आत्मा को जो मटमैली है, उसे राग-द्वेष से सुरक्षित रख सकते हैं। सिकंदर ने दुनियाँ को नहीं मारा, अपने आप को मारा। ज्यों ज्यों परिग्रह बढ़ता चला जाता है तो वह व्यक्ति स्वतन्त्र विचरण नहीं कर पाता है। दो पैरों से चलने में सुविधा है, चार पैरों से चलने में गतिरोध, छ: पैर से चलने में कम गति और आठ पैरों से चलने में तो बहुत बाधा आती है। सिकंदर ज्यों ज्यों देश जीतता है, त्यों त्यों उसकी इच्छा बढ़ती जाती है, चिंता बढ़ती चली जाती है, वह रात दिन प्रयास करता है। पर बोध होने पर अन्तिम समय में वह कहता है, कि दुनियाँ यह शिक्षण ले ले, ऐसा कार्य न करे। और जब मेरे शव को ले जावे तब मेरे दोनों हाथ खाली बाहर रहे, ताकि जनता जाने कि बादशाह खाली हाथ जा रहे हैं। आते वक्त मुट्ठी बन्द पर जाते वक्त खाली हाथ, कुछ नहीं। आप सोचते हैं कि आते समय वह दरिद्र थे, जाते वक्त साहूकार है। यही भ्रम है। जाते वक्त दिगम्बर ही जाते हैं, घर वाले सब छीन लेते हैं। दिगम्बर जाना पड़ता है। आप स्वयं जीवन में अगर दिगम्बर नहीं बनोगे तो अंत में बना दिए जाओगे। आप लोग समय-समय पर सुख की सामग्री समझकर बाहरी वस्तुएँ बटोर रहे हैं। पर आत्म तत्व को जानने वाले निस्पृही मुनिराज जो मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा रखते, बाल के अग्रभाग पर रखने योग्य परिग्रह को भी न रखते हैं, न रखाते हैं, न अनुमोदन करते हैं। महावीर ने परिग्रह को जहर बताया, जिसे आप अमृत मान रहे हो। अमृत और जहर में जमीन-आसमान, संसार-मुक्ति, स्वभाव-विभाव, प्रकाश-अन्धकार की तरह फरक है। जिसके त्याग हैं, वही वास्तविक सुखी है। जितना परिग्रह से दूर उतना ऊपर उठेगा। तुम्बी भी कीचड़ के सम्बन्ध से भारी होकर पानी के तले बैठ जाती है। इसी प्रकार बाहरी बातों को अपनाकर यह आत्मा संसार में भटक रही है। अगर इनको नहीं छोड़ता है तो लोक के अग्रभाग तक नहीं पहुँच सकता है। अगर इसके लिए कोशिश नहीं करता है, तो इसका मतलब सिद्धान्त का मंथन नहीं किया। जेल में रहने वाले सभी दुखी नहीं होते हैं। जेल में कैदी दुख का अनुभव करते हैं पर अधिकारी [जेलर] सुख का अनुभव करते हैं। जेल एक ही है। पर जेलर चाहता है कि जेल न छूटे वहाँ Govt. उसके वेतन बढ़ाती है, तरक्की होती है। जेल दुख के लिए तथा सुख के लिए कारण है। जेलर अपराधी नहीं पर कैदी अपराधी है। परिग्रह रूपी अपराध के अपराधी दुखी हैं तथा परिग्रह छोड़ने वाला सुखी है। जब तक अपेक्षा है, तभी तक देने की क्रिया है, जब कोई इच्छा नहीं होगी तब मुनि बन जायेंगे। सुख को अभीष्ट बना रखा है, तो विचार करो सुख क्यों नहीं मिलता? त्याग में महान् शक्ति है, झूठे त्याग करने में भी जब सुख का अनुभव होता है, तब सच्चे त्याग के सुख का तो कहना ही क्या! इससे वास्तविक आनन्द स्रोत बहने लगता है, वह सुख का ही अनुभव करता है न कि दुख का। त्याग की महिमा ही आत्मा की महिमा है। त्याग ही की महिमा सर्वोपरि है। ग्रहण में आक्रमण है और प्रतिक्रमण में वह, जो ग्रहण किया उसका विमोचन। यहीं से धर्म की रूपरेखा बनती है। ग्रहण ही ग्रहण करना धर्म से दूर होना है। मोक्ष मार्ग का प्रथम सोपान है कि ग्रहण किए पदार्थ को छोड़कर सब से माफी मांगते हुए ऊध्र्वगमन करेंगे। पलड़ा ऊपर उठेगा, कोई दबाने वाला नहीं होगा। किन्तु दुनियाँ के लोग कीमत नीचे जाने वाले पलड़े की करते हैं, पर आध्यात्मिक दृष्टि में तो वह पत्थर की नाव के समान है। अत: हमारा पलड़ा हल्का होना चाहिए। जो मूच्छा है प्रमाद व अज्ञान के द्वारा कि बड़ा बनू, उसे दूर करो। क्रमण उपसर्ग में 'आ' नहीं ‘प्रति' लगाओ। दोषों का आह्वान सो आक्रमण और दोषों को छोड़ना सो प्रतिक्रमण है। अत: किसे अपनाना है, उसे आपको देखना है। आप लोगों ने इस पंचम काल में भी महावीर भगवान् की प्रभावना के लिए जो कदम बढ़ाया है, वह श्लाघनीय है। उसके लिए और भी प्रयास करो। हवा जिस समय चलती हो उस समय धान को साफ कर लेना चाहिए। अत: महावीर के नाम की हवा चली है। Government भी उनके उपदेशों से प्रभावित होकर इस काम में मदद कर रही है। अत: अपनी शक्ति को इस ओर लगाकर महावीर के नाम को विश्व के सामने रख सकते हैं। शान्ति प्रस्तावित हो सकती है विश्व में। महावीर के संदेश के अनुसार पंच पापों से दूर रहकर दोषों का निराकरण कर महावीर की प्रभावना बहुत अच्छी तरह कर सकते हैं। ऐसा करने से जैनेतर समाज में भी महावीर की प्रभावना होगी। बूंद-बूंद से घड़ा भरेगा। प्रतीक्षा और प्रयास की आवश्यकता है। रुकना नहीं है। जहाँ रुके वहीं END है। समय-समय पर एकत्रित किया परमाणु भी कालान्तर में मेरु बन सकता है। बूंद-बूंद से सागर भी भर सकता है। अनेक बूंदों की समष्टि सो सागर। अत: समय-समय पर प्रयास करने पर महावीर की प्रभावना का कार्य बृहद् रूप धारण कर सकता है।
  9. चिन्तन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार चिंतन नहीं करें, पर मन कहीं और चला गया तो क्या होगा, यह चिंता होती है। नदी के तटों के ऊपर यदि चिन्तन करें तो चिन्ता अपने आप ही भंग हो जाती है और उस चिन्तन में चेतना लीन होती चली जाती है। चिंतन नहीं होता तो चिंता क्यों करते हो ? तुम तो चित् स्वरूपी हो। नरक के दु:खों से तो सभी भयभीत है, लेकिन स्वर्ग सुख अथवा विषयों की चाह है तो उससे कर्मों का ही बंध होगा। जिसको जिसमें सुख होता है, वह उसी को पाने का प्रयास करता है। परमात्म भावना से उत्पन्न सुधारस को पीने वाला संसार के सुख को नहीं चाहता। रस का और रसना का मूल्य क्या बिना चर्वण में। अव्यक्त सुख दुखानुभव स्वरूप कर्म चेतना है। इच्छापूर्वक राग–द्वेष रूप से जो परिणाम हो, वह कर्म चेतना है, जिससे कर्म का स्पष्ट रूप से बंध होता है। मुनिराज अपने उपयोग को बाहर न ले जाकर आत्मा की ओर ले जाते हैं, यह कर्म चेतना से हटने का प्रयास है। आत्मा का अनुभवन होना सो ज्ञान चेतना है, यह केवली भगवान् को हुआ करती है। आप आनंद का अनुभव करना चाहते हो तो वह आनंद का स्रोत चेतना में ही है, अन्य का सहारा मत लो। कर्मफल चेतना महत्वपूर्ण है। यह जीव यदि कर्मफल में हर्ष-विषाद नहीं करता तो बहुत बड़ा फल प्राप्त कर लेता है, निगोद से मनुष्य भव प्राप्त कर लेता है। चिन्ता और चिन्तन दोनों निश्चयनय से विकल्प के ही कारण हैं। संसार व शरीर के स्वभाव का चिन्तन करने से वैराग्य की उत्पत्ति होती है। आप भी संसार का चिंतन कर निर्मोही बनो। निद्रा पर विजय प्राप्त करने के लिए अपने किए गए अनर्थों पर चिन्तन करना चाहिए।
  10. चारित्र विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार आचारांग की शरण लेने से ही मुक्ति मिलती है, चारित्र का वृक्ष २८ मूलगुण पर आधारित है। चारित्र की शुद्धि के लिए मूलाचार ग्रन्थ बार-बार पढ़ना चाहिए। कषाय चारित्र मोहनीय कर्म के बंध का कारण है। स्वाध्याय करना महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि उसे चारित्र में धारण करना महत्वपूर्ण है। मुक्ति को चाहने वाले यत्नपूर्वक समितियों का पालन करते हैं। यदि समितियों का सही पालन नहीं होगा तो हिंसा से नहीं बच सकते। लोग पथ से तो चलते हैं पर ईर्यपथ से नहीं चलते लेकिन चारित्रवान् हमेशा ईर्यपथ से ही चलते हैं। चारित्र के बिना सद्गति सम्भव नहीं है। देवायु को छोड़कर यदि अन्य किसी आयु का बंध हो गया है तो फिर चारित्र ग्रहण करने के भाव नहीं होते।
  11. समंतभद्राचार्य यद्यपि मुनि थे, उन्होंने उस वक्त जो गृहस्थाश्रम में शिथिलता तथा आचार विचारों में कमियां देखी, वे कमियां दूर हों और गृहस्थों को यथोचित मार्ग मिल जाये, इसी दृष्टि को लेकर मुनि होते हुए भी स्नकरण्डक श्रावकाचार की रचना की। ८४ लाख योनियों में मनुष्य योनि दुर्लभतम है। इस जीव को त्रस पर्याय मिलती है जिसकी अवधि ज्यादा से ज्यादा २ हजार सागर वर्ष की है। यदि इनमें यह जीव अपना विकास कर निकल गया, मुक्ति पा ली तो, उसे पुन: एकेन्द्रिय आदि आयु नहीं मिलती, वरना उसे निगोद यात्रा को निकलना ही पड़ता है। दो हजार सागर वर्ष में भी विकास योग्य पर्यायें मात्र ४८ मिलती हैं। उसमें भी वास्तविक आत्मानुभूति प्राप्त करने की पर्यायें ८, १६ व २४ हैं। ८ पुरुष, १६ स्त्री पर्याय और २४ नपुंसक, पुरुष बहुत कम होंगे। इसमें विकलांगी, अल्पायु व लब्ध पर्याय वाले होंगे, म्लेच्छखण्ड में भी हो जायें। पुरुष होने पर भी ज्ञान न मिले तो यों ही सब चला जाये, उसके बाद निगोद की कोई सीमा नहीं है। ठण्डे दिमाग से सोची-विचारो की कितनी दुर्लभतम पर्याय को प्राप्त किया, उसे भी विषय-वासना के लिए खर्च कर दो, तो यह कोई हमारी बुद्धिमत्ता नहीं। इस पर्याय में कार्यक्रम बनाना चाहिए आधा जीवन तो सोने में (नींद में) चला जाता है। बाकी बचे १२ घण्टे, उसमें आहार, विहार, निहार, गपशप में चला जाये, जमा में कुछ भी नहीं है। वह प्राणी जीवन में विकास कर सकता है, जो उसमें डिवीजन (भाग) बना ले, और कार्य निर्धारित कर ले, तब तो बहुत जल्दी विकास हो सकता है। काल की अवधि आयु का पता नहीं Death keeps no calendar. अतः विकास के लिए समय निकालना चाहिए, ताकि जीवन सुधर जाये। जीवन चला तो सब रहे हैं, पर सुधार की ओर दृष्टि नहीं। जिसे निगोद से डर है, वह ही मौलिक जीवन में सुधार के कार्य करेगा। जिस प्रकार ५५ साल के बाद Government रिटायर कर देती है, उसी प्रकार २ हजार सागर में जीवन विकास न करने पर निगोद जाना ही पड़ेगा, जहाँ अनंत काल तक रहना पड़ेगा यह सिद्धान्त है। जिसका इस पर विश्वास है, वह मौलिक कार्य करेगा जीवन में विकास के लिए मनन चिंतन करेगा। सुख और दुख के लिए आपका भाग्य ही उपादान कारण है। यह जरूरी नहीं कि अभी आप जैसे हैं, वैसे ही बने रहेंगे। अनागत जीवन का विश्वास नहीं वर्तमान में जो मिला है, उसे काम में लेओ। मात्र खा पीकर मस्त नहीं होवें, समय न खोवें और भगवान् भजन, अरहंत सिद्ध में समय लगावें, जिससे असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा हो जाये। इसके लिए मैं यही कहता हूँ कि उदासीनाश्रम बन जाएगा, तो काम हो जायेगा। वरना धन या तो बच्चे ले लेंगे या Govt. ले लेगी। अत: उदासीनाश्रम में धन लग गया तो उसमें रहने वाले अरहंतसिद्ध का जापकर अंत में समाधीपूर्वक मरण कर सकेंगे। अगले व इस जन्म में सुख मिलेगा। धन तो सरकार ढूँढ ही लेगी। अत: उसके द्वारा धार्मिक कार्य करो। धन न तो सरकार का है, न आपका। अर्थ का उपार्जन परमार्थ के साधन के लिए है, अनर्थ के लिए नहीं। वही धन परिग्रह है जो धार्मिक क्षेत्र में खर्च न होकर अन्य सांसारिक कार्यों में हो। मूच्छ का नाम परिग्रह है। धन के द्वारा धर्म की प्रभावना हो सकती है, इसके द्वारा दूसरों का उपकार व अपना विकास कर सकते हैं। कुछ लोग चाहते हैं कि हम उदासीन बनकर रहें, भगवान को सुमरण करें और अंत में मरते समय सारा पैसा उदासीनाश्रम में दे जायें इसके लिए उदासीनाश्रम की आवश्यकता है। ऐसा न होने पर तो जीवन यों ही चला जायेगा, धन भी चला जायेगा। यहाँ पैसे, स्थान की कमी नहीं, उदासीन व्यक्तियों की कमी नहीं। यह अजमेर तीर्थ बन जाएगा। जहाँ समाधिपूर्वक मरण होता है, वह स्थान तीर्थ बन जाता है। मेरी दृष्टि में इससे बढ़कर कोई सत् कार्य नहीं है। जहाँ व्रती बन कर रहेंगे, आराम विलासिता को नहीं अपनाएँगे, वे भी लघु मुनि हैं। वे मुनि नहीं बनेंगे तो १२ व्रतों का पालन करेंगे, सल्लेखना जहाँ हो तो, वह स्थान तीर्थ है। जो इसमें सहयोग देगा, उसकी भी समाधि अवश्य होगी, वह भी कमियों को निकालकर इस भव व अगले भव को सुधरेगा और धीरे-धीरे अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करेगा। आपको कुछ दिन पूर्व शास्त्रीजी ने बताया था कि साधु मुनि बनने का उपदेश देते हैं। मैं शंका दूर कर लूकि या तो आप मुनि बनना चाह रहे हैं, यदि नहीं तो उदासीन तो बनो। धर्म ध्यान के लिए, समाधिमरण के लिए वर्तमान में उपयुक्त स्थान नहीं है। उदासीनाश्रम में उदासीनता के, परीषह, उपसर्ग के चित्र लगेंगे जहाँ भावों को निर्मल बनाकर आगे बढ़ सकते हैं। घर में, नसियां आदि में ऐसा सम्भव नहीं है। जिसके जीवन के अन्त में समाधिमरण नहीं, वहाँ जीवन भर के पूजा प्रक्षाल, धार्मिक कार्य विफल हो जाते हैं। यह समाधिमरण जीवन की अंतिम परीक्षा है, जो इसमें पास हो जाता है, वह दुख नहीं उठाता है। जिसकी समाधि हो जाती है, वह उत्कृष्टता से २-३ तथा जघन्य से ७-८ भव में मुक्ति पा लेता है। फिर उसको शारीरिक मानसिक चिंता नहीं होगी, जिनेन्द्र के तीर्थ से बिछुड़ना न होगा, जिनवाणी न छूटेगी, धार्मिक भावों का अभाव न होगा, सम्यग्दर्शन का अभाव न होगा। अन्त में, यहाँ पर उदासीनाश्रम हो जाये तो अच्छा रहेगा। णमोकार मंत्र बोलते हुए जीवन निकलना चाहिए। उदासीनाश्रम से आध्यात्मिक लाभ उठाएँगे। जहाँ विषय कषाय सम्बन्धी बातें न होगी, पूजन-प्रक्षाल, स्वाध्याय, वैयावृत्य होगा, यह आदर्श की बात है। इसे उचित समझकर करोगे तो हो सकता है कि अन्त में आपके परिणाम मुनि बनने के हो जायें इससे चारित्र धारण करने वालों पर उपकार हो जायेगा। धार्मिक वृत्ति सुधर जाएगी, धन Govt. के Tax से बच जायेगा। नाम भी हो जायेगा काम भी हो जायेगा, विश्राम भी हो जायेगा। चातुर्मास होकर भी उसकी परम्परा चले, ऐसा विशेष कार्य होना ही चाहिए। मैं आदेश नहीं दे सकता हूँ, पर उपदेश के द्वारा कह सकता हूँ इस काम में समाज मदद करें उपकार ही है। कहा भी है कि मरहम पट्टी बाँध के वृण का कर उपचार, ऐसा यदि न हो सके, डंडा तो मत मार। अगर मरहम पट्टी बाँध कर घाव का उपचार न कर सको तो डंडा तो मत मारो। विरोध अगर नहीं है तो भी एक तरह से मदद ही है। अत: ऐसा कार्य करो, जिससे सब आनन्द का अनुभव कर लें।
  12. गुप्ति विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार गुप्ति में अंदर बैठ जाने से आत्मा की पूर्ण सुरक्षा हो जाती है, वहाँ कोई दूसरा तत्व प्रवेश कर ही नहीं सकता। गुप्ति में शरीर और मन दोनों की रक्षा हो जाती है। व्रत लिए बिना समिति का व्यवहार नहीं होता और समिति के पालन बिना गुप्ति में नहीं जाया जा सकता । असत्य वचन नहीं बोलना वचन गुप्ति में आता है। आगम के अनुसार वचन बोलना वचन गुप्ति में आता है। राग-द्वेष की होली से बचना चाहते हो तो गुप्ति का आधार लेना चाहिए। गुप्ति में गुप्त होने का अर्थ है, एयरकंडीशनर में पहुँच जाना। पाप-पुण्य रूप बाहरी हवा से बच जाना। आत्मानुभूति के लिए गुप्ति आवश्यक है, जैसे मंजिल के लिए सीढ़ी आवश्यक है।
  13. सम्यक दर्शन जो मोक्षमार्ग में अनन्य स्थान रखता है, उसके द्वारा वाणी आचार विचार समीचीन हो जाते हैं। जीव इसको स्थाई बनाने की चेष्टा करता है, इसमें जो आठ अंग है वे गृहस्थ के लिए महान् उपयोगी हैं। इन अंगों से सम्यक दर्शन उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता है। इसमें चार नि:शंका, नि:कांक्षा, निर्विचिकित्सा तथा अमूढ़दृष्टि अपने को लेकर हैं। बाकी चार स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना आदि पर को लेकर हैं। यहाँ पर समंतभद्राचार्य ने सम्यक दर्शन की प्ररूपण गृहस्थ को लेकर की है। पात्र को देखकर दान देने से पात्र को तथा दान देने वाले को दोनों को लाभ होता है। गृहस्थ गन्दा शरीर देखकर नाक सिकोड़ता है पर रत्नत्रय से आभूषित मुनि ऐसा कर लेगा तो मोक्ष मार्ग की उपासना नहीं कर सकेगा। गृहस्थ भी अगर मुनि की देह को देखकर घृणा करेगा तो उसे भी तीन काल में सुख शांति नहीं। आप अपने शरीर को लेकर घृणा करते हैं, पर जो स्नान न करने वाले हैं, जिनका शरीर बाह्य तप से तप गया है, धूल के कण लिपट गये हैं, उनसे घृणा करने पर न तो निर्विचिकित्सा अंग टिकेगा और न सम्यक दर्शन ही टिकेगा। मुनि का तत्व चिंतन अलग, गृहस्थ का अलग है। गृहस्थ को चिंतन हेतु देव, शास्त्र, गुरु बताये पर मुनि हरेक द्रव्य जो भी सामने आएगा उसके स्वरूप के बारे में चिंतन करेगा। आप लोगों की दृष्टि अन्दर के गुणों की ओर नहीं गई बल्कि बाहर जड़ शरीर की ओर ही दृष्टि जाती है। गृहस्थ शरीर से तथा उसके फलों से घृणा करता हुआ भी रत्नत्रय से विभूषित मुनियों के शरीर को मैला देखकर घृणा न करेगा। उसे मल नहीं मंगल मानेगा, दोषों को निकालने के लिए पवित्र द्रव्य मानेगा और कालांतर में समता को धारण करेगा। अभी आप जो इष्ट अनिष्ट मान रहे हैं, वह दृष्टि सम्यक् नहीं कहलायेगी। इष्ट अनिष्ट कोई चीज नहीं है। इष्ट अनिष्ट दृष्टि में है पदार्थ में नहीं। अनादि से संसार में जो भ्रमण हो रहा है उसका कारण इष्ट अनिष्ट मानने से है। समय सार आप लोगों ने पुस्तक के रूप में देखा है, उसका अनुभव तभी होगा जब ज्ञान धारा (ज्ञेय) में हेय उपादेय नहीं होगा। पढ़ पढ़ भये पण्डित, ज्ञान हुआ अपार। निज वस्तु की खबर नहीं, सब नकटी का श्रृंगार। जो मल (टट्टी) में नाक सिकोड़ने का कारण बना उसकी पूर्व पर्याय पर ध्यान जायेगा तो उसकी ओर (हल्वा पुड़ी आदि) इष्ट बुद्धि लगी है और अब थोड़ी देर में घृणा हो रही है। उत्पाद व्यय धौव्य तो हर वस्तु के साथ लगा है। अत: आप में वास्तविक स्वरूप का दिग्दर्शन नहीं हुआ। कहा है कि - आता यदा उदय में वह कर्म साता, प्रायः। त्वदीय मुख पे सुख दर्प छाता, सिद्धान्त का इसलिए तुझको न ज्ञान, तू स्वप्न को समझता असली प्रमाण। ऐसा समझ रहा है यह प्राणी कि यह वास्तविक है, यह असली है, यह नकली है। यह एक तत्व के दो पहलू हैं, यह न असली है न नकली है। चीज को देखकर दृष्टि भ्रमित हो जाती है। आकांक्षा और ग्लानि, इन दोनों का अभाव तो तत्व का वास्तविक स्वरूप है, यह प्रथम सीढ़ी है। सुगन्ध-दुर्गन्ध के बारे में बहुत कुछ सुना पढ़ा होगा, प्ररूपणा की होगी पर गन्ध इष्ट अनिष्ट नहीं होती। पुद्गल का स्वभाव इष्ट अनिष्ट नहीं है। ज्ञान के साथ इष्ट अनिष्ट की कल्पना कलंक का टीका है, जिसे धोने के लिए वीतरागता सक्षम है। तभी राग-द्वेष नहीं होगा, यही वास्तविक धर्म की चरम सीमा है। और तभी आप धनी, कृतकृत्य बन जाएँगे आनन्द का अनुभव करेंगे। शास्त्र आपके लिए आयतन है। अनेकांत को समझने के लिए बहुत विशालता की, दृढ़ श्रद्धान की आवश्यकता है। जब ऐसा हो जायेगा तब कर्म के बारे में व उसके फलों के बारे में इष्ट अनिष्ट की कल्पना न होगी। वास्तविक धर्म एक अनोखा ही है जब वह प्रादुभूत हो जाता है, तब कहने की चीज ही नहीं है, अनुभव की है। सद्बोध शिष्य दल को जब मैं दिलाऊँ, स्वामी! निजानुभव मैं तब हो! न पाऊं। ना शब्दगम्य, निजगम्य, अमूर्त हूँ मैं। कैसे ? किसे ! कब उसे ! दिखला सकूं मैं ॥ हे भगवान्! मैं तत्व से स्खलित हो जाता हूँ, उपयोग से च्युत हो जाता हूँ, जब मैं दूसरे को समझाना प्रारम्भ कर देता हूँ। शुद्धोपयोग स्वयं की द्रव्य, क्षेत्र, काल की अपेक्षा से है, पर की अपेक्षा से नहीं। अन्दर से फिर बाहर की ओर नहीं बढ़े, इस प्रकार का चिंतन जब होगा, तब ऐसी शांति होगी कि उसका वर्णन मुश्किल है। दूसरे का आधार लेना नीचे गिरना है। पुद्गल में रस नहीं, आत्मा में रस है। वीतराग की उपासना करनी है तो ग्लानि छोड़नी होगी। इष्ट अनिष्ट की कल्पना छोड़नी होगी। जो स्वभाव से च्युत कराने वाला है, उसे अपनाते ही क्यों हो? महावीर उस ओर गये जहाँ कोई नहीं था और जहां भीड़-भड़ाका था वहाँ पीठ दिखा दी। विकार से, घृणा से, अनिष्ट, इष्ट से दूर न होगे तब तक वास्तविक सुख न मिलेगा। वीतरागता को प्राप्त करने का ध्येय जिसका है, वही सम्यक दर्शन का अधिकारी है, वरना तो मात्र अभिनय है। वीतराग धर्म को अपनाने की चेष्टा जो करेगा उसका ज्ञान समीचीनता की ओर जाएगा, वह सांसारिक कार्यों को नहीं अपनायेगा। आचार्यों का लक्ष्य वीतरागता है न कि सम्यक दर्शन मात्र। मोक्ष मार्ग कहते ही आपकी दृष्टि सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र की ओर हो, आपके मोह का नाश हो। ज्ञान प्राप्त हो तो उसी रूप त्याग भी होना चाहिए। आपको सुख की अनुभूति हो, यही मेरी इच्छा है। सम्यक दर्शन व ज्ञान से सुख नहीं, पर उसके साथ चारित्र हो, तब सुख है। अत: गृहस्थाश्रम में रहते हुए उदासीन रहे और धीरे-धीरे वही सुख आप लोगों को मिले। रास्ता मालूम हो जाने के उपरांत भी दौड़ लगाने की चेष्टा करना, इधर-उधर ही भटकना, इसका मतलब या तो आपको मंजिल पता नहीं या रास्ते पर विश्वास नहीं। महाव्रत न ले सको तो अणुव्रत तो लो। इस विषम स्थिति में क्षेत्र भी आपेक्षित है उदासीन होने के लिए। उदासीन होने के बाद ३ बार सामायिक, पूजा, प्रक्षाल, शास्त्र स्वाध्याय करेंगे। आज जमाने के साथ-साथ आप उलट गये, दृष्टियाँ पलट गई, जिसने जीवन को पलट दिया। जीवन को बनाने के लिए उदासीनाश्रम की आवश्यकता है। तप के प्रति आपकी रुचि होनी चाहिए। मनुष्य जीवन को प्राप्त किया है, विवेक भी है, तो चारित्र को भी अपनावें, जिससे असंख्यात गुणी निर्जरा होगी, सुख का अनुभव होगा। भावों में यदि स्खलित भी हो जाये तो चारित्र होने पर भाव ठीक हो जाएँगे। चारित्र परमावश्यक है, उसे कुछ न कुछ अंशों में धारेंगे। १२ व्रतों को अनुपालन बहुत सरल है। सभी को छोड़कर वृद्धावस्था के जो व्यक्ति हैं, वे जब आपस में उदासीन होकर एक जगह रहेंगे तो शास्त्र पठन पूजा भक्ति करेंगे, तो सोलहवें स्वर्ग तक भी जा सकते हैं। जहाँ से मनुष्य भव प्राप्त कर पुरुषार्थ से मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं अगर चाहें। नहीं तो अनन्त संसार है। जीवन बहुत थोड़ा रहा है अत: उसे आदर्शमय बनाने के लिए व्रतों का पालन करें।
  14. आत्मा के परिणामों की बड़ी विचित्रता है। अनादिकाल से यह संसारी जीव भोगों का दास बना हुआ है। इन्द्रियों की इच्छा पूर्ण करने में लगा है। आज एक प्राणी ने भोगों को पाप का मूल समझा और उसके मन में त्याग के भाव जागे हैं। अब वह सबसे पहले आरम्भ परिग्रह का त्याग करेगी। आरम्भ को इस जीव ने अनादि से अच्छा मान रखा है पर इस महिला ने इसे पाप का मूल समझा। ८ वीं प्रतिमा आरम्भ त्याग प्रतिमा होती है। अब यह सांसारिक कार्यों, खाने-पीने के बारे में आरम्भ नहीं करेगी, धार्मिक कार्य कर सकती है। इसके बाद परिग्रह त्याग प्रतिमा है। महावीर का संदेश है कि सबसे बड़ा साहूकार, धनवान, अमीर, सुखी वह है, जिसके पास तिल मात्र भी परिग्रह नहीं है। आज रथयात्रा में उसी का दिग्दर्शन झाँकी के द्वारा किया गया। परिग्रह के प्रति इस महिला को घृणा हो गई है। अब इसके सांसारिक परिग्रह का त्याग है। जीवन के अन्तिम समय में मोह का विकास नहीं, मोह का अभाव होना चाहिए। दसवीं प्रतिमा वह है कि सांसारिक बातों के लिए अनुमति नहीं देगी। धार्मिक चर्चा के अलावा मुख से अन्य बातें न निकलेगी। यह अच्छा विचार किया है इस महिला ने। दसवीं प्रतिमा के भाव इसलिए किए कि अन्तिम समय में समाधि हो। इस महिला ने अपने जीवन के द्वारा धार्मिक विकास के लिए यहाँ सहयोग दिया है। अत: अन्त में कृतज्ञता प्रकट करने के लिए इनकी सेवा करना चाहिए। यह एक अच्छी शुरूआत है उदासीनाश्रम के लिए। वैयावृत्य करने से कराने वाले का तथा करने वाले का दोनों का जीवन सुधर जाता है।
  15. हे शारदे! अब कृपा कर दे जरा तो, तेरा उपासक खड़ा, भव से डरा जो। माता! विलम्ब करना मत, मैं पुजारी, आशीष दो, बन सकूं बस निर्विकारी ॥ आज यह मंगल बेला हमारे लिए बहुत पुण्योदय से प्राप्त हुई है। यहाँ पर यह बात करना उचित समझुंगा कि जहाँ न जाता रवि वहाँ जाता कवि। जहाँ न जाता कवि वहाँ, जाता स्वानुभवी। रवि सब जगह प्रवेश कर सबको जागृत करता है, कवि भी रहस्यों के पास जाकर विचारों को साकार बनाता है, किन्तु शारदा, सरस्वती की कृपा हो जाए तो उस स्थान तक पहुँच जाये जहाँ ये दोनों पहुँचने में असमर्थ हैं। इसके द्वारा अमूर्त से साक्षात्कार संवेदन कर सकता है। ज्ञान के द्वारा देख सकता है, कि वास्तविक आत्मा क्या है? देव का प्रत्यक्ष दर्शन न हुआ और गुरु हैं, वो जिनवाणी में लिखी बातें बताएँगे, मार्गदर्शन करेंगे। शब्द का ज्ञान तो अन्धा, लंगड़ा, कुरूप भी कर सकता है। भारत में अध्यात्म प्रणाली अक्षुण्ण चल रही है। आज मंगल कार्य प्रारम्भ हुआ है। महावीर की वाणी को मात्र कानों से सुनना ही नहीं बल्कि उस ओर चलना है, जिस ओर महावीर चले, जिस दृष्टि को लेकर चले। आत्म तत्व को शास्त्र के द्वारा देखा जा सकता है। आदित्य के बिना भी कोई काम चल सकता है, पर साहित्य के बिना नहीं। सरस्वती की आराधना से अन्दर तक पहुँच सकते हैं और उसका मनन, अध्ययन, चिंतन कर भाव श्रुत का अनुभव कर सकते हैं। मैं न कवि हूँ न रवि हूँ पर स्वानुभवि हूँ। उस चैतन्य जागृति की आवश्यकता है जो सरस्वती के माध्यम से सम्भव है। आप भी सरस्वती की आराधना, पूजा, उपासना कर आत्मा के मल को धो डाले। वाणी में इतनी शक्ति है कि सभी जीवन में साक्षात् सुन सकते हैं, देख सकते हैं, व उतार सकते हैं। सरस्वती के माध्यम से परोक्ष मूर्ति का प्रभाव आत्मा पर पड़ सकता है। साहित्य सुरक्षा के लिए बड़े परिश्रम की आवश्यकता है। हमारी दृष्टि हमारे शास्त्रों की ओर नहीं है, वे बिखरे पड़े हैं, दीमक लग रही है, उनकी सुरक्षा करनी है। जैन साहित्य क्या है ? अहिंसा धर्म क्या है ? उसे लिखकर Research कर जीवन में उतार सकते हैं। साहित्य के द्वारा ही जैन धर्म का प्रचार कर सकते हैं न कि बड़ी-बड़ी बिलिंडगों के द्वारा। साहित्य के द्वारा ही दूर-दूर बात हो सकती है, विचार दूर-दूर तक व्यक्त किए जा सकते हैं। साहित्य के प्रचार के लिए तन-मन-धन लगाना चाहिए। जिनवाणी को सामने लाना चाहिए। कई जैन साहित्य नष्ट भ्रष्ट भी हो गये हैं, फिर भी हमारा सौभाग्य रहा है कि अभी भी विपुल साहित्य है। राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी कहा है कि जैन साहित्य कम नहीं है, सर्वोपरि है, बहुत विपुल है। पर पढ़ने वाले बहुत कम हैं। हमने उस साहित्य की कीमत ही नहीं आंकी। २५०० वाँ निर्वाणोत्सव जो एक साल तक मना रहे हैं उसके बाद भी साहित्य के क्षेत्र में ज्यादा प्रयास होना चाहिए। तभी जैन-जैनेतर समाज पर प्रभाव पड़ सकता है और मोक्ष का स्वरूप आत्मा का स्वरूप जिनवाणी के द्वारा बता सकते हैं। यह जिनवाणी नौका के समान है जो इस छोर से उस छोर तक पहुँचाने वाली है। आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज कहा करते थे कि मन्दिर की सुरक्षा मुनि नहीं कर सकते, श्रावक कर सकते हैं। पर जिनवाणी की सुरक्षा सेवा तो हम कर ही सकते हैं। और मुझे कहा की पूरी शक्ति लगाकर अन्तिम समय तक सेवा करना। बार-बार चिंतन, मनन, विश्लेषण करना, प्रचार व प्रसार करने से तीर्थकर प्रकृति का बन्ध हो सकता है, जिससे अरबों जीवों का कल्याण होता है। मैं भी यही चाहता हूँ कि साहित्य की सेवा आप उस प्रकार करो कि जिससे अपना व दूसरों का उद्धार हो। अन्त में महावीर व सरस्वती को प्रणाम कर कहता हूँ कि - कर लो वीर, स्वीकार, मम नमस्कर होवे साकार जो बार-बार विचार उठते मम मानव तल पर
  16. गुरु विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार गुरु महाराज के सान्निध्य में ही जीवन का रहस्य उद्धाटित होता है। अपनी चिकित्सा करने वाले चिकित्सक गुरु ही होते हैं। अज्ञान को दूर करने वाले गुरुदेव ही हुआ करते हैं। गुरु की वाणी जीवन जीने की सामग्री है। गुरु के द्वारा दिये गये सूत्र जीवन जीने में तरीके हैं। गुरु जमाने के अनुसार नहीं बल्कि सिद्धान्तानुसार चलने को कहते हैं। एकलव्य ने मूर्ति में भी गुरु की स्थापना करके उनकी विद्या को प्राप्त कर लिया था। यह शिक्षा सभी को अनुकरणीय है। गुरु विश्व को महान् ज्योति प्रदान करते हैं। गुरुदेव डॉक्टर जैसे करुणावान होते हैं। विवेक के साथ करुणा होती है। गुरु के वचन हमारी जीवन रूपी गाड़ी की यात्रा में पेट्रोल के समान हैं। गुरु के वचन अनुभव भरे होते हैं, बोध नहीं ये शोध वाक्य हैं। सब कुछ भूल जाना लेकिन गुरु के वचन नहीं भूलना वरन् जीवन में सफलता प्राप्त नहीं हो सकती। गुरुओं का भीतरी पक्ष, निष्पक्ष हुआ करता है। गुरु का जीवन वह सांचा है जिसमें हम अपने को ढालकर उन्नत बन सकते हैं, उन जैसे बन सकते हैं। गुरु कभी किसी को वचन नहीं देते मात्र प्रवचन देते हैं। ज्ञान रूपी अंजन सलाखा से हमारी आँखें खोलने का प्रयास गुरु करते हैं। लेकिन जब हमारी आँखों में ज्योति विद्यमान हो तब यह गुरु की ज्ञान रूपी अंजन सलाखा काम करती है। गुरु के संकेत ऐसे होते हैं कि हम यदि एक ही संकेत पर अमल करें तो हमारा बेड़ा पार हो जावेगा। गुरु को खेवटिया, तारणहारा कहा है लेकिन उनके अनुसार चलने से तन्मय होने से पार हो सकते हैं। गुरु की वाणी को जीवन में नहीं उतारते तो वह वाणी कागज के फूल के समान है, जैसे कागज के फूल से नासिका तृप्त नहीं होती वैसे ही सुनने मात्र से जीवन तृप्त नहीं होता। यदि जीवन में अमल करते हैं तो जीवन फूल की तरह महक उठता है। गुरुओं के दर्शन से, उनकी कृपा से जो अनादिकाल से सम्यकदर्शन प्राप्त नहीं हुआ था, वह प्राप्त हो जाता है मोक्षमार्ग का रास्ता मिल जाता है और यात्रा प्रारम्भ हो जाती है। गुरु ऐसे मंत्र देते हैं कि जिनको अपनाने से जीवन में विकास प्रारम्भ हो जाता है। गुरुओं का लक्ष्य मात्र सम्बोधित करने का नहीं होता फिर भी सम्बोधित करते हैं यह उनकी अनुकम्पा है। ज्ञान गुरु नहीं होता, अनुभव ही गुरु होता है। भले ही ज्ञान आत्मा का स्वभाव है लेकिन गुरु के बिन ज्ञान नहीं हो सकता। गुरु की वाणी रूपी चाबी से अनंतकालीन मोह रूपी जंग लगा ताला भी खुल जाता है। गुरु की पाठशाला के बाद ही प्रयोगशाला में प्रवेश किया जाता है। शरीर और आत्मा का मेल हल्दी और चूना के मेल जैसा है। उसे गुरु की वाणी रूपी रसायन से ही पृथक् किया जा सकता है। गुरुत्वाकर्षण के अभाव में प्राणी गिर जाता है मोह माया के आकर्षण से आत्मा पतन को प्राप्त होता है। विषयों की बाढ़ में बहती जनता को ‘गुरु' ही हितोपदेश के माध्यम से बाहर निकालते रहते हैं। गुरु कहते हैं, "तेरी दो आँखें, तेरी ओर हजार सतर्क हो जा"। यदि आप गुरु के रूप में हैं तो दूसरों के दोषों को भी दूर करें। जो छोटे-छोटे दोषों को भी बढ़ा-चढ़ा कर बता देता है, वह गुरु है। सरसों को सुमेरु पर्वत के रूप में बताने वाला खल अच्छा है, दोष को ढकने वाले गुरु की अपेक्षा। गुरु की कठोर उक्तियाँ ही आपके जीवन को फूल की तरह खिला सकती हैं। सूर्य का उदय होना अनिवार्य है, वरन् अंधकार ही अंधकार होगा, इस धरा पर। वैसे ही गुरु के वचन अनिवार्य हैं, वरन् सभी जीव अंधकार में ही जीवन निकाल देंगे। शिष्य का मन फूल की बोड़ी (कलिका) के समान होता है, उन्हें गुरु रूपी सूर्य खिला देते हैं। गुरु यदि जिस समय अमृत को जहर कहते हैं तो वह जहर है और जिस समय जहर को अमृत कहते हैं तो वह अमृत है, यही श्रद्धान संसार से पार लगायेगा। एक शिष्य बहुत से गुरु न बनावे, लेकिन एक गुरु बहुत शिष्य बना सकते हैं। गुरु यदि शिष्य के अनुसार पीछे-पीछे चलने लगे तो उन्हें नहीं अपनाना, यह मेरा आदेश है। गुरुओं की आराधना करने से जगत् में सम्मान, भोग, कीर्ति प्राप्त होती है। तपस्वियों (गुरुओं) की स्तुति करने से भक्त की कीर्ति स्वर्गों तक पहुँच जाती है, देवता भी उसका गुणगान करते हैं। गुरु कहते हैं कि शरीर की दासता को छोड़कर आत्मा की सेवा करनी चाहिए। "नौका पार दे, सेतु हेतु मार्ग में गुरु साथ दे।" अर्थात् नाव एवं पुल नदी पार कराने में हेतु होते हैं, लेकिन गुरु तो मंजिल तक साथ देते हैं। हमारा हमेशा अधोपतन हुआ है, क्योंकि हम गुरु के आकर्षण को, संकेत को नहीं समझ सके। हमारे भीतर विद्यमान भगवत् सत्ता का उद्घघाटन गुरुदेव के माध्यम से ही होता है। जिनका वर्तमान उज्वल हो चुका है, उनके माध्यम से हम अपने वर्तमान को सुधार लें तो अपना भविष्य भी उज्ज्वल हो जायेगा। गुरु जो कह रहे हैं, उसे करो अपने मन से कुछ मत करो, ऐसा करने से इच्छा का निरोध अपने आप हो जावेगा।
  17. गर्भ विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार गर्भ में जीव के मित्र कृमि होती है, वहाँ पर अंधकार ही अंधकार है। गर्भ के दुःख यदि याद आ जायें तो व्यक्ति को तप कष्टदायी महसूस नहीं होगा।
  18. आज का मध्यांह हम लोगों के लिए बहुत ही सहायक मालूम पड़ता है। हरेक कार्य की उत्पत्ति में अनेक कारणों की अपेक्षिता है। यदि यह मध्याह्न न होता धूप न होती, तो आप लोगों के लिए थोड़ी कठिनाई हो जाती। ठण्डी हवा, सर्दी में प्रवचन सुनने में आप लोगों को कष्ट होता। भगवान महावीर कौन थे, उनका जीवन कैसा था, समाज में उनका किस रूप में योगदान रहा ? इन सब के बारे में विचार करना है। समय का मूल्यांकन करना है, येन-केन प्रकारेण इसे नष्ट नहीं करना है। स्त्रीणां शतानि शतशो जन्यन्ति पुत्रान्, नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ॥ सर्वा दिशो दधति भानु सहस्र-रश्मिं, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु-जालम् ॥ २२ ॥ आचार्य मानतुंगाचार्य ने भत्तामर स्तोत्र में मुक्त कंठ से नारी की प्ररूपणा की है कि जहाँ से वे महान् विभूतियां प्राप्त होती हैं, उसके लिए नारी की प्रशंसा किए बिना समाधान नहीं। दो कुलों को सुशोभित करने वाली नारी धन्यतमा कहलाती है। वह अगर न होती तो भगवान् महावीर, राम पाण्डव आदि जैसे महान् पुरुष कैसे पैदा होते। जो नारी इसी भाव को लेकर जन्म देती है। वह धन्य कहलाती है। यो तो सभी दिशाएँ ताराओं को जन्म देती है, पर प्राची दिशा ही भानु को जन्म देती है। उसी प्रकार जो महान् विभूति को जन्म देती है, उज्ज्वल भाव से जीती है और भाव करती है कि मेरी कोख से महान् विभूति का जन्म हो, वह नारी धन्य है। त्रिशला नारी ने भी महावीर को जन्म देकर हमारे लिए रास्ता बना दिया है। पुरुष एक क्षेत्र में काम करता है, तो नारी अनेक क्षेत्रों में काम करती है, जैसे सेवा में सेविका बने, प्रीति भोज में माँ। देशोन्नति में मंत्री बने, हाव भाव में रमा ॥ एक रूप को धारण करने पर भी विचारों व्यवहारों को पलटती रहती है। सेवा में दासी का रूप न होता तो नन्हे- मुन्हे बच्चे कच्चे रह जाते। वह स्वयं विश्राम न लेकर ऐसा काम करती है, ताकि दूसरे को विश्राम मिल जाये। बच्चों के लिए सेवा कर सब कुछ बलिदान कर देती है। वही नारी जब भोजन कराती है, तब माँ के रूप में परिवर्तित हो जाती है। उस समय लक्ष्य यही कि सामने वाला भूखा न रहे, वह प्यासा न रहे, स्वयं के लिए चीज कम रह जाये, तो भी सामने वाले को और दे देगी, कितनी उदारता है। यह बातें छोटी-छोटी मालूम देती हैं, पर आप तो इतनी उदारता में कष्ट का अनुभव करेंगे, पर माँ नहीं करेगी। माँ बच्चे को दूध पिलाती है, तब सबको हटा देती है, बच्चे पर कपड़ा ढक देती है, रहस्य यह कि कोई देख न ले। वह चाहती है कि बच्चा जल्दी जल्दी बड़ा बने। वही नारी देशोन्नति के समय मन्त्री का काम करती है। नारियों ने राष्ट्र की उन्नति में सहयोग दिया है। जब महाराणा प्रताप हताश हो जाते हैं, बुद्धि कुंठित होने लगती है, सोचते हैं कि शत्रु को आत्म समर्पण कर दूँ। तब रानी कहती है कि आप क्षत्रिय के कुल में कलंक लगा रहे हो, मैं आपकी अद्धांगिनी हूँ आप पर मेरा भी अधिकार है। ऐसा कभी न होगा, हम भूखे मरेंगे प्यासे मरेंगे पर क्षत्रियता पर कलंक नहीं लगाएँगे और अबला होकर भी सबला बनकर आजादी में सहयोग दिया। नारी की विचार धारा कहाँ-कहाँ घूम आती है। वह चतुरता से काम करती है। वह नवनीत के समान नरम भी है तो वज़ के समान कठोर भी है। दूसरों के दुख को देखकर नारी के हृदय में तरलता आ जाती है और शील पर आँच आने पर चाहे सुमेरु भी चलायमान हो जाये पर वह डिगती नहीं। अगर वह पतिव्रता है तब तो स्त्री है, नहीं तो इस्त्री है जो जला देती है। पुरुष तो बना बनाया पदार्थ, पर बनाने वाली, उसका उद्गम स्थान नारी है। चौथा हाव भाव में रमा है, पति को खुश रखती है, जिससे पति प्रसन्न चित्त होकर दैनिक कार्यों में लग जाये। आज ऐसी नारियाँ नहीं के बराबर हैं। आज तो किसी ने कहा है - पत्नी मांगती स्नो पाउडर, नई-नई नाइलोन साड़ी, जिस बात को सुनकर के, पति की बढ़ती है दाढ़ी। जल्दी-जल्दी साड़ी लाओ, पाउडर लाओ, ये लाओ, वो लाओ। यह नहीं सोचती कि वेतन कितना मिलता है एक नाइलोन की साड़ी के कितने रुपये लगते हैं। महावीर ने कहा था कि यदि महाव्रत का पालन न कर सको तो कम से कम अणुव्रतों का पालन तो करो। ज्यादा मांग से पति का आर्थिक विकास रुक जाएगा, पति चिन्ता में घुल जायेगा। नारी पति का अनुसरण करे, पति से आगे न बढ़ें। ज्यादा माँगने पर पति वेतन में काम न चलने पर चोरी, रिश्वतखोरी करेगा। पति के पास जब वेतन में से बच जायेगा तो वह बिना मांगे चीज ला देगा। पति पत्नी का जोड़ा होता है। दोनों एक दिशा में चलेंगे तो वीर चरणों में चले जायेंगे। परिग्रह प्रमाण रख कर सुख शांति का अनुभव हो सकता है। पत्नी का तथा पति का कर्तव्य है कि परिवार को सम्भाले, बोझ कम करे। पत्नी अगर अपनी इच्छा को पूर्ण करने में आगे दौड़ेगी तो परिवार आगे नहीं बढ़ सकता। नारियों ने बच्चों के संस्कारों पर प्रभाव डालकर सच्चे बच्चे बना दिये।विवेकानन्दजी गुरु पत्नी (श्री राम कृष्ण परमहंस) के पास गये और बोले माँ मैं विदेश जा रहा हूँ, मुझे आशीष दो। माँ खाना बना रही थी, उसने कहा ठहरो, पहले सामने पड़ा चाकू लाओ। विवेकानन्द जी ने चाकू का मुख अपने हाथ में लेकर मूठ माँ की ओर बढ़ा दी। माँ खुश हो गई और आशीर्वाद दिया कहा कि तेरे अन्दर दुनियाँ के प्रति करुणा, अनुकम्पा है, दूसरों के दुख मिटाने की लालसा है। यह भाव होने पर ही दुनियाँ पर तेरे बोध का प्रभाव पड़ सकता है। एक सुशिक्षिता महिला सौ मास्टरों का काम करती है। चाकू माँ को हाथ में देते समय विवेकानन्दजी ने सोचा चाकू माँ के हाथ में न लग जाये भले ही मुझे कुछ भी लग जाये। यही अहिंसा, करुणा का प्रतीक है। लेकिन आज कल की नारियों का हाल विचित्र है। उन्हें सिवाय अपनी चिन्ता के, न धर्म की, देश की, समाज की उन्नति की चिंता है, इसमें भले ही दूसरों का नाश हो जाये। नारी भी गुरु बन सकती है अपने विचारों से। प्राची दिशा ही सभी को प्रकाश देने वाले सूर्य को जन्म देती है। इसी प्रकार भगवान महावीर की माता धन्य हैं जिसके द्वारा ऐसा बालक मिला, जिसने दुनियाँ को संदेश दिया, मार्ग प्रशस्त किया। जिसके संदेशों पर चलने से जीवन को विशाल बना सकते हैं। हृदय को ऐसा बनाओ जिससे अपना कल्याण हो तथा दूसरों के लिए उदाहरण बन जाये। आवश्यक को रखे पर अनावश्यक को नहीं यही महावीर का संदेश था। वस्तु के अभाव में मंहगाई नहीं होती पर वस्तु संग्रह से मंहगाई होती है। एक बुढ़िया ने कहा कि विवाह के बाद बढ़ियाबढ़िया दर्जनों कपड़े न लाना पहनने के लिए, क्योंकि वह दिन भर कपड़े बदलने में ही पूरा समय खर्च कर देगी और सेवा नहीं कर पायेगी। आज का जीवन कैसा है? पहले दो रुपये में लूगड़ा आता था जिसके फटने पर गुदड़ी भी बना ली जाती थी। पर आज उतने रुपये में रिबिन भी नहीं आता, जिसका बाद में भी उपयोग नहीं होता। ऐसे में अर्थ (धन) भी और समय भी चला जाता है। और मौलिक कार्य नहीं हो पाता। अत: आवश्यकताओं को सीमित करो, अपरिग्रह अणुव्रत को धारण करो तभी देश का विकास होगा और आत्मा में सुख शांति मिलेगी। अन्त में एक संदेश और सुनिये - आप सभी जन यत्न से, छेद नारी पायय ॥ पुरुष हो पुरुषार्थ करो, वेद भेद मिट जाये ॥
  19. गुण विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार गुण, गुणी के साथ रहते हैं गुण और गुणी का सम्बन्ध वैसा ही है जैसा कि फूल और महक का सम्बन्ध है। आप महक को चाहते हैं लेकिन फूल के बिना नहीं मिल सकती। सुगंधी की कीमत होती है फूल की नहीं। सुगंधी निकल जाने के बाद फूल को फेंक देते हैं। फूल को खरीदा जा सकता है उसके स्वामी बन सकते हो लेकिन खुशबू को नहीं खरीद सकते क्योंकि महक सभी के पास पहुँच जाती है। आप यदि अपने को विकासवान् मानते हो तो गुण भी आना चाहिए, गुणों का विकास होना चाहिए। जीवन जीने का ढंग खरीदा नहीं जाता बल्कि अंदर से उद्धाटित किया जाता है। किसी भी पदार्थ का मूल्यांकन उसके गुणों के आधार पर किया जाता है। भगवान् को इसलिए पूजते हैं क्योंकि उनमें अनंत गुण प्रकट हुए हैं, उन गुणों की प्राप्ति के लिए ही उन्हें नमस्कार करते हैं। कोई भी देश विकासशील तभी माना जाता हैं, जब उसके गुणों का विकास हो। धन वैभव का विकास, विकास नहीं माना जाता वह तो विनाश की ओर ले जाता है। भगवान् नाम से नहीं बल्कि गुणों से पूज्य होते हैं। व्यक्ति की पूजा नहीं बल्कि गुणवत्ता की पूजा होती है। जो गुणों को प्राणों से भी प्यारा मानता है, उसी के पास विजय लक्ष्मी पहुँच जाती है। मोक्षमार्ग में मात्र गुण ही पूज्य हैं, इस मार्ग में दोष सहनीय नहीं हैं। केवल भेष पूज्यता का प्रतीक नहीं है, बल्कि उस रूप गुण भी होना चाहिए। गुणों की क्षति होने पर सर्वत्र अनादर ही अनादर मिलता है कोई कीमत नहीं करता, जैसे शव पर ढके कफन की कोई कीमत नहीं करता। बहुत सारे गुण एक अवगुण के कारण निर्मूल्य हो जाते हैं। औचित्य गुण के अभाव में सभी गुण विष जैसे हो जाते हैं (प्रासंगिक गुण)जैसे दूसरे में दुख व्यक्त करना यह औचित्य गुण है। प्रसंगानुसार कार्य करना बहुत बड़ा गुण माना जाता है। बच्चों को कुछ देने से पहले पिता का कर्तव्य होता है, वे यह ध्यान रखें कि वह उसका किस रूप में उपयोग करता है। गुणों में पुरस्कार के साथ दोषों का समालोचन ही होना चाहिए। दोष गुणों का समीचीन आलोढ़न (अध्ययन) करना ही सही समीक्षा मानी जाती है। वह हमारा मित्र है जो हमारे मत को पुष्ट करने के लिए प्रशंसक शब्द नहीं बोलता। रोगी बनता मिठाई खाने से (प्रशंसा करने से) निरोगी बनता कड़वी दवाई से, इसलिए कड़वी दवाई पीना सीखो, तभी दोष से मुक्त हो सकते हो। गुणों का आदान और दोषों का परिहार करो। जिन साधनों के माध्यम से गुणों का विकास हो, ऐसे साधन अपनाना ही विद्वता मानी जाती है। दोषों का निष्कासन हो गया कि गुण उत्पन्न हो जाते हैं, गुणों को उत्पन्न करने का ज्यादा प्रयास नहीं करना पड़ता। जैसे कपड़े का गंदापन साफ किया जाता है, उसमें उज्वलता अपने आप आ जाती है। इससे सिद्ध होता है कि दोषों को हटाने के लिए पैसा और पुरुषार्थ लगता है, गुणों को पाने के लिए नहीं। गुणों को अपनाने से यश और सम्मान मिलता है, जब तक मुक्ति नहीं मिलती। मोह को हटाने का प्रयास किया जाता है, मोक्ष पाने के लिए नहीं वह तो अंदर ही है। जैसे मिट्टी को हटाने के लिए परिश्रम करना पड़ता है, पानी के लिए नहीं। वह तो मिट्टी के हटते ही फूट पड़ता है। दोष दुर्गति का कारण है, गुण सद्गति का कारण है, यह जानकर अविरल रूप से उत्साह के साथ दोषों का उन्मूलन करिए। गुण ग्रहण में निमित्त कोई भी बन सकता है, जैसे अंजनचोर को प्रभु, गुरु निमित न बनकर जिनदत्त सेठ निमित्त बना।
  20. ख्याति विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार धर्म की प्रभावना हो यह भावना ठीक है, लेकिन अपनी प्रभावना की कामना करना ख्याति लाभ में आ जाता है और ख्याति, लाभ व पूजा के कारण व्रत नष्ट हो जाते हैं। मोक्षमार्ग में ख्याति को अपनाना यानि व्रतों को खा-पीकर साफ करना है। ख्याति का प्राकृत शब्द 'खाई' बनता है। खाई का अर्थ होता है, गड्डा अर्थात् ख्याति की ओर जाने का अर्थ है, गड्डे में गिर जाना। अज्ञान के कारण ही व्यक्ति मोक्षमार्ग पर चलते हुए भी ख्याति की कामना कर जाता है। अज्ञान ऐसा अंधकार है, जो कई लोगों को गड्डे में गिरा देता है। भोग, आकांक्षा, ख्याति व लाभ की कामना रखकर व्रत, पूजा आदि करने वाला रत्न बेचकर काँच खरीद रहा है, घी बेचकर छाछ खरीद रहा है। जैसे बच्चा सौ रुपये देकर दो चॉकलेट चाहता है, वैसे ही मोक्षमार्ग पर आकर अज्ञानी यश, ख्याति की चाह रखता है, जो कि निरर्थक है। भक्ति से जो भुति मिलती है, उसमें निरीहता रखो, पुण्य बंध के फल में निरीहता रखो। ख्याति, लाभ व प्रशंसा आदि मन के परिग्रह हैं, इनसे हमेशा मोक्षमार्गी को बचना चाहिए। ख्याति, लाभ, पूजा के लिए ज्ञान का उपयोग करना ज्ञान का दुरुपयोग करना है।
  21. सम्यक दर्शन के तीसरे अंग निर्विचिकित्सा के बारे में वर्णन करना है, यह अंग शरीर को लेकर चलता है। संसारी जीव की ममता, मोहभाव शरीर के साथ ही लगा है। शरीर के माध्यम से ही संसार का दिग्दर्शन, मोह चलता है। यह शरीर न होता तो मोक्ष कोई चीज न रहती। शरीर जो कारागार है, उससे मुक्त होना ही मोक्ष है। शरीर के प्रति यदि मोह नहीं रहता और साथ-साथ आत्मज्ञान हो जाता तो किसी प्रकार का आरम्भ परिग्रह करने की जरूरत नहीं। शरीर के लिए ही प्रात: से लेकर शाम तक प्रयास होते रहते हैं। यह तो सुन ही रक्खा है आप लोगों ने कि शरीर से आत्मा भिन्न है, लेकिन अन्दर से ऐसी आवाज नहीं आती। आत्मा शरीर में इतना मिला है कि उसे हाथों से अथवा रसायन से नहीं निकाल सकते, उसके लिए रसायन है निर्मोहता, निरीहता और निर्विचिकित्सा। शरीर से मोह न रखना ही निर्विचिकित्सा है, तभी पहचान है कि मैं शरीर रूप हूँ या आत्मरूप हूँ। आचार्यों ने मोक्ष मार्ग के लिए आराम, विषय वासना को नहीं, परीषह, उपसर्ग को बताया। संवर तत्व जिसके द्वारा मोक्ष का सम्पादन होता है, उसके लिए गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परीषह विजय भी चाहिए। परीषह २२ हैं, उनमें १९ परीषह एक साथ हो सकते हैं। वर्तमान में शीत परीषह आपको भी है और इधर भी है, पर आप विजयी नहीं, आप पर शीत विजयी हो रहा है। संघ में ऐलकजी महाराज सर्दी के बारे में कहा करते थे, कि वह कहती है - बच्चे को मैं छेडू नहीं, जवान मेरा भाई, बुड़े को मैं छोड़ें नहीं, चाहे ओढ़े चार रजाई। शरीर के साथ आपने इतना सम्बन्ध लगा रखा है कि क्या बताएँ ? शरीर की सुरक्षा के लिए, अनन्तकाल से परिश्रम कर रहे हो, फिर भी शरीर शरीफ नहीं, शरारती ही है। कहा है कि - हेमंत में हिममयी, हिम से मही है, दाहात्मिका किरण भास्कर की नहीं है। तो भी परीषहजयी ऋषिराज सारे, निग्रन्थ ही करत ध्यान नदी किनारे ॥ हेमंत का समय आ चुका है, जिसमें हिमपात हुआ करता है, भूमि हिममय हो जाती है, वायु में शीत लहर चलती है। सूर्य की धूप भी गर्म नहीं लगती। लेकिन वस्तु तत्व को जानने वाले मुनिराज निग्रन्थ होकर, शरीर से निरीह होकर ध्यान करते हुए शीत को जीत लेते हैं। वे शीत को बुरा अच्छा न कहते हुए पूर्वोपार्जित कर्मों की निर्जरा करते हैं। पर आप ऐसे समय में नये कर्मों को बाँध लेते हैं। आप मुक्ति को चाहते हुए बंधन में फैंस जाते हैं। शरीर के आठ अंगों में जिसे उत्तमांग माना है उस मस्तक को, मुख को सर्दी में खुला रखते हैं। बीच में, गर्दन से लेकर पैर तक कपड़े आदि से जो आडंबर किया, उससे ही संसार का विकास हो गया। इस शरीर को आप सुरक्षित नहीं रख पायेंगे। वस्तु तत्व की पकड़ तभी करेंगे, जब प्रतिकूल वातावरण होगा। अनुकूल वातावरण होने पर शरीर प्रमत्त हो जाता है। परीषह न होने पर अपने को भी नहीं पहचान सकता है। शरीर में पीड़ा हो रही है, यह जान रहा है तथा शरीर मेरा नहीं, मैं इससे भिन्न, ऐसा विचार हो रहा है, तभी कुछ संतोष तसल्ली हो जाती है। आप यह भी तो सोची कि ऐसे व्यक्ति भी हैं, जिनके पास एक कपड़ा भी नहीं है, पर आप सोचते हैं कि ऐसे भी व्यक्ति हैं जिनके पास ५-६ कपड़े शरीर पर हैं। अत: ऐसा विचार न करना चाहिए। पुराने लोग अष्टमीचतुर्दशी, पर्व के दिनों में एकांत में जाकर श्मशान आदि में ध्यान लगाते, आत्म चिंतन करते थे। आज यह पता ही नहीं अष्टमी चतुर्दशी कब निकल गयी, तिथि याद नहीं रहती, परन्तु रविवार तो याद रहता है। उस दिन की छुट्टी रहती है, उसी दिन तत्व का चिन्तन करो, लेकिन उस दिन तो ९ बजे तक सोते रहते हैं। ढूँढ़-ढूँढ़ कर काम निकाल लेते हैं, ६ दिन के बकाया कार्य उस दिन पूरे करते हैं। छुट्टी इसीलिए नहीं हुई है। छुट्टी के दिन सब कामों की छुट्टी करके धर्म ध्यान व आत्म चिन्तन करना चाहिए। गृहस्थाश्रम उसी का नाम है, जो आगे मुनि बनने के लिए प्रयास करता है, पर आपका लक्ष्य तो जीवन जो मिला है, उसमें मात्र खाओ-पीओ-मौज करो। जीवन की सुरक्षा करते हुए विकास की ओर जीवन को ले जाना है। स्वाध्याय करते-करते विचारें कि आगे हमें भी मुनि बनना है, लेकिन आप कहेंगे कि फुरसत ही नहीं मिलती स्वाध्याय आदि के लिए। पर भैया! मनुष्य जीवन में तो फुरसत ही फुरसत है। अन्य गतियों में तो विकास ही नहीं है। यहाँ विकास के लिए तो फुरसत लेकर आया है, लेकिन आप कहेंगे कि यहाँ तो मरने की फुरसत नहीं है। लेकिन याद रखो होगा वहीं जो वर्तमान में चाह रहे हैं। वर्तमान में शरीर की सुरक्षा में रहेंगे तो भविष्य उसी रूप में होगा। अंतिम लक्ष्य उसी रूप में रहेगा जो वर्तमान में कर रहे हैं। धीरे-धीरे वीतरागता की ओर बढ़ते हुए शरीर के प्रति निरीहता आनी चाहिए, उसके लिए अभी से अभ्यास करना है। कष्ट में आत्मानुभूति हो सकती है, मात्र ‘भेद विज्ञान' शब्द रटना नहीं। भेद का मतलब भिन्न और उसका ज्ञान विज्ञान। यानि शरीर आत्मा से भिन्न, ऐसा ज्ञान भेद विज्ञान है। शरीर के प्रति मोह का अंत ही निर्विचिकित्सा है। जब अनन्त मोह का अभाव जीव कर लेता है, तब गृहस्थाश्रम में पूर्व में जो अनन्त सुरक्षा के लिए काम करता था, उसका अभाव हो जाता है। संज्ञा का मतलब शरीर से मोह, लगाव उसकी सुरक्षा है। चारों संज्ञाएँ आहार, भय, मैथुन और परिग्रह शरीर के लिए हैं। ये सब सम्यक दर्शन की प्राप्ति होने पर अनन्तता का अभाव हो जायेगा। शरीर के प्रति निरीहता ही निर्विचिकित्सा अंग है। इस बात को गाँधीजी ने अनुभव किया। जैसे-जैसे शरीर पर कपड़े ओढ़ें तैसे-तैसे सर्दी लगती जाती है, उसका अनुभव होता है तब क्यों ज्यादा कपड़े होने चाहिए। इसीलिए उन्होंने लंगोट, दुपट्टा रखा। उन पर यह प्रभाव साहित्य व दिगम्बरत्व को देखकर पड़ा। आप भेद विज्ञान को जानकर भी कपड़े पर कपड़े अपना रहे हैं। शरीर के प्रति निरीहता किसी न किसी रूप में होनी चाहिए। कल एक विशेष बात होने जा रही है, कल जीवन की मौलिक घड़ी है। पंचकल्याणक व दीक्षा हो रही है। पर जिसके द्वारा जीवन सुधर सकता है, क्रांति आ सकती है, कल सरस्वती भवन का उद्घघाटन हो रहा है। मुख्य आयोजन वह है जहाँ श्रुत की आराधना हो। कल द्रव्यश्रुत की स्थापना हो रही है जिससे भावश्रुत की तैयारी हो सकती है। इसके द्वारा लोग आत्मतत्व के बारे में जान सकते हैं, पहचान सकते हैं। दूध में मक्खन है, उसे हाथ से नहीं निकाल सकते, उसे मंथन करना पड़ेगा। उसके लिए रस्सी, पात्र, मथनी (घोटनी) आदि चाहिए, ये द्रव्यश्रुत के समान है। द्रव्यश्रुत के द्वारा आत्म तत्व रूपी नवनीत को आप निकाल सकते हैं। द्रव्यश्रुत उन स्थानों में है, जहाँ मंथन करते-करते अन्त में नवनीत पा सकते हैं। जहाँ पर Research कर सकते हैं और जैनाचार्यों के प्रयास को रख सकते हैं। श्रुत भवन का कल उद्घाटन हो रहा है। देव, शास्त्र और गुरु मोक्षमार्ग को प्राप्त करने में महानतम् कारण हैं। महावीर ने अहिंसा धर्म की पुष्टि की। भगवान कुन्दकुन्द, समंतभद्राचार्य, अकलंकदेव आदि ने क्या लिखा उसे शास्त्रों के द्वारा जान सकते हैं। यह हमारा सौभाग्य है कि शास्त्र उपलब्ध हैं। जब हमें देव पर श्रद्धान है तब उनकी वाणी पर भी श्रद्धान है। शरीर को इतना आराम तलबी न बनाओ, कि आत्मा का अध:पतन हो जाये। इतनी ही शरीर की सुरक्षा करनी है कि आत्मा का काम होवे। शरीर सुदृढ़ हो, यह भी मोक्षमार्ग के लिए उपयुक्त है। इसका बल इधर-उधर न फेंको वरना ध्यान में कमर में दर्द, या नींद आने लगेगी शरीर को आत्म चिंतन में सहायक बनाओ उसकी शक्ति को आत्म चिंतन में लगाओ। शरीर बिगड़े भी नहीं, गाड़ी के पहिये में ज्यादा हवा भरकर पंक्चर न करना तथा कम भी हवा न भरना, नहीं तो गाड़ी रुक जाएगी। हवा नियम से भरो, ज्यादा भी नहीं तो कम भी नहीं। जिस प्रकार जच्चा (बच्चे की माँ) शरीर को चलाती है, कम खाती है, धीरे चलती है, उसी प्रकार सम्यक दृष्टि को शरीर से लगाव रखना चाहिए। वह जितनी पहले शरीर की सुरक्षा में रहता था, सम्यक दर्शन होने के बाद नहीं। आज अनाप शनाप खाकर शरीर बिगाड़ लेते हैं। कहा भी है - बहुत हवा भरने से फुटबाल फट जाये। बड़ी कृपा भगवान की, पेट नहीं फट जाये ॥ शरीर को जो बिगाड़ता है, वह भी हिंसक है। शरीर का शोषण भी नहीं तो पोषण भी नहीं। उसे अपने अधिकार में रखी ताकि आत्मिक विकास के काम आ सके। शरीर के प्रति ज्यादा निरीहता व पोषण भी नहीं, यह निर्विचिकित्सा है।
  22. क्रोध विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार व्यर्थ कार्यों में शक्ति खर्च करने से क्रोध आता है। ज्यादा बोलने से भी गुस्सा आता है, आज्ञा का उल्लंघन हो जाने पर भी गुस्सा आता है, प्रतिकूलता में भी गुस्सा आता है, इन निमित्तों से हमें बचना चाहिए। धीर-वीर की परीक्षा यही है कि वे क्रोध न लायें/करें। क्रोध के कारण अपने कार्य की हानि सभी कर जाते हैं, क्रोध करना कषाय का, असंयम का द्योतक है। क्रोध करने का अर्थ है, दूसरे की गलती की सजा अपने को देना। कन्नड़ में कहा है कि- "शिटेन कई दगे बुद्धीयन कुडवारदू" अर्थात् क्रोध के हाथ में अपनी बुद्धि नहीं देनी चाहिए। क्रोध करते समय अपने आप को क्रोधी न मानना बहुत बड़ी भूल है। क्रोध कायरता का प्रतीक है, क्रोध न करना ही वीरत्व है।
  23. कल आपने सम्यग्दर्शन के प्रथम अंग नि:शंकित के बारे में सुना। भगवान के द्वारा प्रणीत जो ग्रन्थ है, मोक्ष का जो मार्ग है तथा वीतरागता के बारे में शंका न करना निशंकित है। दूसरा अंग निकांक्षा व तीसरा निर्विचिकित्सा है। विचिकित्सा का अभाव तो निर्विचिकित्सा है। इच्छा का नहीं होना ही नि:कांक्षित है। संसारी जीव की परिणति अनादिकाल से उल्टी हो रही है। इन्द्रियों के द्वारा जो नजर आता है, उसे ही सुख मान रहा है, सुख का स्थान मान रहा है, यह विश्वास उसका हटता ही नहीं। उसकी मति से यह विकृति छूटती नहीं। उसकी दशा उस कुत्ते की भाँति है, जो पत्थर मारने वाले की बजाये पत्थर को काटने की चेष्टा करता है। वह यह नहीं सोचता कि पत्थर का कोई दोष नहीं, पत्थर फेंकने वाले का दोष है। सिंह गोली या पत्थर की तरफ नहीं दौड़ेगा, वह तो गोली चलाने वाले पर आक्रमण करेगा। संसारी प्राणी भी उस कुत्ते के समान दशा को प्रगट करता है और बाहर ही बाहर सुख का अनुभव करना चाहता है। वह नहीं सोचता कि सुख अपना गुण है। जब ऐसा विश्वास करेगा, तब दौड़ धूप में ब्रेक लग जायेगी। नियम के पीछे आस्था होनी चाहिए। कर्म जन्य सुख-शांति वास्तविक सुख-शांति नहीं है। वह तो तलवार की धार पर लिपटे मिठास को चाटने के समान है, जहाँ क्षणिक सुख के साथ अनन्त दुख भी हो रहा है। यह कर्म जन्य सुख अनन्त आपदाओं के साथ आता है। वह सहज स्वभाव ही नहीं है। यदि उदय में असाता हो तो पुण्य कर्म को व उसके रस को उपयोग में नहीं ला सकते। कर्म जब उदय में आएगा, तब भी द्रव्य, क्षेत्र, काल मिलने पर रस आएगा, नहीं तो सुख नहीं भोग सकते। साता का उदय भी बिना रस दिये चला जाता है। अत: इन्द्रिय जनित सुख में बहुत कठिनाइयाँ हैं। अन्दर साता हो और भोगान्तराय का उदय न हो, तब ही सुख भोग सकता है। इन्द्रिय सुख क्षणिक है, परतन्त्र है, इन पर हमारा अधिकार नहीं है। यह विश्वास जब हो जाता है, तब रोजाना जो भोगों के सुख की प्राप्ति के लिए आकांक्षा हो रही है, वह स्पर्धा कम हो जाती है और धर्म के क्षेत्र में स्पर्धा चालू हो जाती है। धर्म के क्षेत्र में स्पर्धा वास्तविक है, इस पर पूर्ण अधिकार है कर्म पर पूर्ण अधिकार है। कर्म पर पूर्ण अधिकार नहीं हालांकि कर्म हमने किया पर उनका उदय हमारे अधिकार में नहीं। जीवन भर आर्थिक क्षेत्र में स्पर्धा कर अर्थ समार्जन किया पर अमर बन कर भोग नहीं कर सकते। क्योंकि जिस प्रकार ढलते सूर्य की ललाई छाया क्षणिक है उसी प्रकार जीवन क्षणिक है, यौवन, धन चपल है। बिजली की तरह क्षणिक है। कर्मों का उदय व फल क्षणिक है। इनसे जो सुख मिलता है, वह वास्तविक सुख नहीं। कर्म के उदय को जो मान लेता है, वह वर्तमान की स्पर्धा से दूर हो जाता है। वह कमाएगा, पर कर्म के उदय को भी मानेगा। वह २४ घण्टे में से कुछ समय भगवान् के नाम स्मरण के लिए भी निकालेगा, धार्मिक क्षेत्र में समय खर्च करेगा। वह विश्वास करेगा, कि साता का उदय होगा तो प्राप्ति हो जाएगी। पाप का बीज है इन्द्रिय भोग। जिसे आप मुक्ति का बीज मान रहे है, वह पुण्य का बीज भी नहीं है। इनसे दूर रहना चाहिए। पाप का पलड़ा ऊपर उठना चाहिए यानि हल्का होना चाहिए और पुण्य का पलड़ा भारी होना चाहिए। किन्तु आज इसकी याद नहीं करते है और सम्यग्दर्शन को मानते हैं। जो २४ घण्टे विषयों में फैंसा है, वह तीन काल में भी सम्यग्दर्शन को प्राप्त नहीं कर सकता है। जो सम्यग्दृष्टि है वह निरभिमानी होगा। वह रागी द्वेषी लोभी नहीं होगा। वह कर्म के द्वारा मिले सुख में रचता पचता नहीं वह भरत चक्रवर्ती के समान जीवन व्यतीत करने की चेष्टा करेगा। जो आत्मा के विकास के लिए कदम बढ़ाता है तत्व को जान लेता है, तब वह पीछे कदम नहीं रखता है। वह विश्वास कर कदम बढ़ाता है जहाँ सुख शांति है। कहते हैं कि पण्डित टोडरमलजी को उनकी माता ने छह माह तक भोजन में नमक नहीं दिया। लेकिन उनका इस ओर ध्यान ही नहीं था, उनका लक्ष्य तो कोई ग्रन्थ पूर्ण करने की ओर रहता था। जब ग्रन्थ पूर्ण हो गया और मंगलाचरण ही शेष था उस दिन भोजन करने पर उनको भोजन में नमक न होने का भान हुआ। आप लोग नमक को रसराज मानते हैं, नमक नहीं तो भोजन ही क्या ? किसी दिन नमक कम हो जाए तो आँखों में ललाई आ जाती है, गुस्सा हो जाते है और थाली तक भी उठाकर फेंक देते हैं। आज तक हार्दिक आस्था, अन्दर की आस्था नहीं हो पा रही है। कहते हैं ले लो अपनी शरण, पारस प्यारा, लेकिन यह सिर्फ शब्दों में है। शरण कोई आता ही नहीं, भगवान् तो शरण देने को तैयार बैठे है। पण्डित टोडरमलजी का लक्ष्य साहित्य सेवा का था। शास्त्र सभी को समझ में आ जाये, मोक्षमार्ग को समझे, विषयों से हटकर लोग वीतराग को अपनाएँ। विषयों से दूर रहने की चेष्टा विषयों के सामने बैठकर नहीं करना। मन को विषयों से दूर हटाकर गुरु भक्ति, शास्त्र सेवा में लगाना है। जिस प्रकार डॉक्टर के कहने पर त्याग होता है और वापस खाने के लिए दिन गिनते हैं कि कब वह दिन आए, जब खाऊँ। ऐसा त्याग नहीं करना है। त्याग के साथ ध्यान को दूसरी ओर लगाना। सुख त्याग में है, भोग में नहीं। यहाँ तक कि खाने में भी सुख नहीं। त्याग करने में ही सुख है। खाना चाहते हैं, हलवा जलेबी। जब तक खालैंखालू की लालसा, तब तक शांति नहीं, तृप्ति नहीं, आकुलता है। तृप्ति कब होती है ? जब बिल्कुल भी खाने की इच्छा न रहेगी। आकुलता के अभाव में सुख है, शांति है, तृप्ति है। इन्द्रिय सुख छोड़ने पर ही सुख मिल सकता है। विषयों की ओर से हटने पर भद्र परिणाम होते हैं, तभी आस्था होती है। आस्था होने पर ही नि:कांक्षा अंग संवेग गुण का पालन होता है। संवेग तब होता है, जब सांसारिक कार्यों को पाप का बीज और संसार वृद्धि का कारण माने, तभी आस्तिक्य प्रशम भाव होता है। अपने अंग बाहर से नहीं अन्दर से आता है। जो अंगी है, उसका नाम सम्यग्दर्शन है। पुरुषार्थ भी करें, पर एकांत रूप से उसी के भरोसे नहीं। करूं और भोगूँ, यह भावना नहीं। आप कितने परतन्त्र हैं। इन्द्रियों के ठीक-ठीक काम करने पर ही आप रस का ज्ञान कर सकते हैं। बुखार जिस व्यक्ति को आ रहा है उसे मीठी दवा भी कड़वी और सर्प के काटे व्यक्ति को निबोंली कड़वी नहीं लगती। अत: आप Direct भोग नहीं सकते, लाभ नहीं उठा सकते, जब तक कर्म उदय में न हो। सुख इन्द्रियों में नहीं, अपने में सुख है, बाहर में सुख नहीं। इस प्रकार आस्था बना लो। अपने आपके परिणामों के द्वारा सुखी-दुखी बनेंगे। अत: कुविचारों को छोड़ो और महावीर की वाणी में आस्था लाओ। कर्म के अनुसार जितना मिलेगा, उतना ही मिलेगा। भाग्य का उदय होता है तो जरूर फल मिलेगा। अर्थ की पगचम्पी न करो, वह अर्थ तो सेवा के लिए हाजिर हुआ है उसकी आप सेवा न करो। अपनी सेवा करो। भारत में यह अजीब बात है कि यहाँ अध्यात्म की पूजा भी है तो कहीं लक्ष्मी पूजा भी होती है। आप को लक्ष्मी की पूजा नहीं करनी चाहिए। आज कल द्रव्य के आश्रय से निर्गुणी भी गुणवान कहलाता है। अत: द्रव्य के पीछे इतना पड़ना ठीक नहीं, आप लोगों को दुख इसीलिए हो रहा है। गृहस्थाश्रम को चलाने के लिए धन की आवश्यकता है पर २४ घण्टे मात्र इसी का आराधन ठीक नहीं। लक्ष्य धन नहीं, धर्म है। यही नि:कांक्षित अंग है, धर्म की उपासना में जीवन व्यतीत करना। सुख आत्मा में है, यही आस्था नि:कॉक्षित अंग है।
  24. क्रूरता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार निर्दोष हिरण आदि प्राणियों का जहाँ संहार हो रहा हो, वहाँ अपराध करने वाले पर क्या जुल्म ढाया जाता होगा जरा सोचो ? यह तो क्रूरता की पराकाष्ठा ही हो गई। क्रूरता के साथ अपराधी अपराध करता है तो क्रूरता के साथ दण्ड नहीं दिया जा सकता। जिस कलम से जज जजमेन्ट देता है, उस कलम को तोड़ देता है। रावण माला फेरते हुए भी राम का अहित चाहता था, यह क्रूरता मानी जाती है और राम ने जंगल में भटकते हुए भी रावण को मारने के भाव नहीं रखे, यह करुणा मानी जाती है।
  25. आचार्य महोदय उस बात को स्पष्ट कर रहे हैं, जिस बात की बड़ी आवश्यकता है। जिस चीज को हम अहितकर समझते हैं, उसको उन्होंने महान् बताया है। जब तक किसी पदार्थ को उचित स्थान नहीं, तब तक उसकी महत्ता, उसकी गरिमा नहीं आँक सकते। एक हाथ में पाँच उगलियाँ हैं, जो समान नहीं हैं, अगर समान हो जाती तो मुश्किल हो जाती। छोटी जगह छोटी व बड़ी की जगह बड़ी ही काम आती है। सुई की जगह तलवार और तलवार की जगह सुई ले ले तो काम नहीं होगा। इन पाँचों उगलियों में से एक कोई भी उगली कट जाये तो कार्य करने में व्यवधान हो जायेगा। आचार्य महोदय यहाँ अंग अंगी भाव को लेकर कह रहे हैं। अंगी वह है जो अंग की सुरक्षा करता है। वृक्ष के सभी अंग को पृथक् -पृथक् कर दिया जाये तो वृक्ष वृक्ष नहीं रहेगा। डाली, टहनियाँ, पते, फूल आदि सभी मिलकर वृक्ष कहलाता है। वृक्ष अलग कोई चीज नहीं है। अत: अंगों की समष्टि सो अंगी की शोभा है। अंग की अवहेलना जहाँ करते हैं वहाँ पूर्ण को लेकर जो अंगी है उसकी सुरक्षा नहीं कर सकते। महावीर की एकाकार प्ररूपणा अंग के रूप में है, अंगी के रूप में नहीं। प्रमाण अंगी है और नय अंग है। आचार्य श्री ने यहाँ कहा कि अंग है तो अंगी भी है। शरीर में आठ अंग हैं, उन्हें पृथक् कर दिया जाये तो मनुष्य की पहचान नहीं हो सकती। एक अंग का भी अभाव होने पर विकलांगी कहलाता है, उसकी महत्ता कम हो जाती है। अत: सिद्ध है कि एकता की बड़ी आवश्यकता है। स्थान-स्थान पर सब अंग काम करते रहें तो अंगी की सुरक्षा है। जिस प्रकार शरीर में ८ अंग हैं, उसी प्रकार सम्यक दर्शन के भी ८ अंग हैं। उनमें से एक का भी पालन न हो तो सम्यक दर्शन सुरक्षित नहीं रह सकता। नमस्कार मंत्र में एक अक्षर का अभाव हो तो पूर्ण फल नहीं मिलता। उसी प्रकार सम्यक दर्शन में एक अंग का भी अभाव होने पर वास्तविक मोक्षफल नहीं मिल सकता है। सम्यक दर्शन के ८ अंगों में सर्व प्रथम नि:शंक है, जिसका अर्थ शंका रहित ही नहीं, बल्कि भय का अभाव भी है। पूर्ण अंग को निकाल दे, तो सम्यक दर्शन नहीं रहेगा। एक आधा अंग कम भी हो तो सम्यक दर्शन का काम चल जायेगा। प्रयोजन भूत तत्व, मोक्ष मार्ग में तत्व की प्ररूपणा में है, उसमें संदेह नहीं होना चाहिए। डर दिखाने पर भी न डरे और जिनवाणी में जो वर्णन है उस पर विश्वास रखे, इधर उधर अर्थ न ले। शरीर पर चाहे प्रहार हो जाये पर विश्वास को न छोड़े और इसे समीचीन ही बतावे। यही सच्चा मार्ग है, ऐसा कहे तथा माने! शाब्दिक ज्ञान अलग चीज है और मान्यता अलग चीज है। मानने में अन्दर से स्वच्छता आती है पर सिर्फ जानने में शब्दों में स्वच्छता आती है। मानना भी अभीष्ट है, जानना ही अभीष्ट नहीं है। महावीर के पास बहिरंग की द्रव्य की मुख्यता नहीं बल्कि अन्तरंग की, भावों की मुख्यता है। बहिरंग का विमोचन तो करना ही है, पर वास्तविक आत्मा के पास जो मलिन भाव है, उनका भी विमोचन करना है, यही तत्व है। महावीर ने जो प्रयास किया, ऊपर के भाव को निकाला, अन्दर के तत्व को सुरक्षित रखने के लिए। दया का अनुपालन अलग और इन्द्रिय दमन अलग है। महावीर ने प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम दोनों का पालन किया। महावीर ने दम, दया, त्याग, संयम को बताया। जो इन्द्रियों के दास बने हैं, उन्हें यह बात खटकती है। महावीर का लक्ष्य सर्वप्रथम इन्द्रिय दमन रहा, क्योंकि उसके बिना समाधि नहीं। समाधि का मतलब अध्यात्मवाद (अधिगम) ज्ञान के पास रहना सो अधिगम कहलाता है। महावीर ने समाधि प्राप्त की और जितेन्द्रिय बने। सब कुछ छोड़ देने के बाद भी इन्द्रिय दमन जरूरी है। इन्द्रिय अर्थात् ज्ञान। ज्ञान धारा जो बाहर जा रही है, उसे रोकना। इन्द्रियाँ जब विषयों की ओर जाती हैं, तभी राग द्वेष होता है। इन्द्रिय दमन दिगम्बरत्व में ही है। दिनांक ८ को जो महावीर का तप कल्याणक आ रहा है, उसमें दया का पालन ही नहीं, दया तो घर छोड़ने पर पालन हो गई। जहाँ आरम्भ, परिग्रह को बुरा माना, वहीं दया का पालन हो गया, फिर दम, जितेन्द्रियता का पालन किया। परीषह, उपसर्ग जब तक नहीं, तब तक मोक्षमार्ग की पृष्ठ भूमि प्रारम्भ नहीं होती। उन्होंने विषयों के विस्तार को रोका, कपड़े आदि को फेंक दिगम्बर हो गये। आपको भी ऐसा विश्वास करना चाहिए और दिग्दर्शन भी करना चाहिए। किसी फल की आशा में नहीं, उत्साह के साथ, डर से नहीं, निर्भय होकर आत्म साधना करनी है। उसे मुक्ति मान कर चलना है, तब आनंद का अनुभव होगा। त्याग के बारे में बताया जो अपने लिए अनिष्ट व शरीर के लिए अनुपयुक्त है उसे नहीं लेना। शरीर की सुरक्षा मात्र हलवा खाने से ही नहीं बल्कि समीचीन आहार से होती है। समीचीन आहार वह जो तप के लिए कारण हो। गरिष्ठ आहार तप में बाधक है। अतिरेक करने पर फल में कमी आती है। इन्द्रिय विजेता होना परमावश्यक है। अनेकों की गति दया तक हो सकती है, पर दम जहाँ आता है, वहाँ दम घुटने लगता है। महावीर ने दम को भी अपनाया है। दम का मतलब आँखें फोड़ लेना या कान में कीलें ठोकना नहीं है। इन्द्रियों के द्वारा जो विषय हो रहे हैं, उन्हें रोकना, पैर स्खलित न होने देना। महावीर ने दम को अपनाया था, उसका दिग्दर्शन भी करना है, यह दिगम्बरत्व में निहित है। हमें दम के बारे में डर है, शंका है, यहीं सम्यक दर्शन में कमी आएगी। अगर दम नहीं करेंगे तो अहिंसा का पालन नहीं हो सकेगा। वही अहिंसा है, जो दम के लिए कारण है। ज्ञान पर कंट्रोल, इन्द्रियों पर कंट्रोल जहाँ नहीं है, वहाँ दया नहीं है। जहाँ इन्द्रियों पर दमन है, वहाँ सभी के लिए क्षमा का हाथ दिखाया है। आप जीने लग जाओ अपने आप में रमने लग जाओ तो सब अपने आप जीने लग जाएँगे। दूसरे की तरफ न देखो।दूसरे की तरफ देखने पर दूसरे डरते हैं। महावीर ने प्रथम ‘जिओ और जीने दो' कहा। आज तक आप अपने आपको जिलाने में, सुरक्षा में असमर्थ रहे। प्राणी संयम इन्द्रिय संयम को लेकर है। दम है तो अहिंसा है नहीं तो हिंसा है। अत: दम के लिए कोशिश करना चाहिए। महावीर ने अहिंसा का पालन इन्द्रिय दमन को लेकर किया है। द्रव्य हिंसा के साथ भाव हिंसा से मुक्त होना-महान् कार्य है। आज से ३ दिन बाद सहज विचरण होने का काल रहा है, तप कल्याणक के दिन मात्र झाँकियों के द्वारा दिग्दर्शन न होकर वास्तविक दिग्दर्शन होना चाहिए। दया व दम महावीर के मुख्य लक्ष्य थे, इसे वे पा चुके, इसीलिए मुक्त हो गये।
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