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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. जब गुरु ज्ञान सागर जी महाराज हमारे यहाँ दादिया ग्राम में प्रवास कर रहे थे, तब ज्ञान सागर जी महाराज आहार की पश्चात धूप में थोड़ी देर बैठते थे। उस वक्त समाज के लोग ब्रह्मचारी विद्याधर जी के भजन बोलने के लिए कहते थे। किंतु विद्याधर जी मौन बैठे रहते थे। फिर गुरुवर ज्ञान सागर जी महाराज की स्वीकृति पाकर भजन बोलते थे। बड़ी ही मीठी आवाज में भजन गाते थे। रोज नया भजन सुनाते थे, इस कारण बालक-युवा-महिलाऐं सब लोग गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज की आहार के पश्चात मन्दिर जी में एकत्रित हो जाते थे और भजन सुनते थे। एक दिन उन्होंने बड़ा ही सुंदर भजन सुनाया मैंने सुना तो उसे याद कर लिया आज तक अपनी डायरी में सुरक्षित रखा हुआ हूं, वह भजन निम्न प्रकार है--- गुरु दर्शन महिमा (तर्ज- सावन का महीना पवन करे शोर......) पावन हुए नयना दरश कर तोर हियरा रे हरसे ऐसे जैसे लख के चंद्र-चकोर।। कुगुरु कुदेव ध्याके बहुत दुःख उठाया। छवि वीतराग ने तो शांत रस पिलाया।। शांत सुधारस प्याला लगा के एक ठौर। मनुआ रे झूम उठा रे होकर आनंद विभोर।।1।। पावन हुए..... सकल परिग्रह तज के बने हो विरागी। ममता को त्याग हुए आतम अनुरागी।। धार दिगम्बर बाना चले हो शिव की और। धन्य हुआ रे तुमको प्रभु शीश नवा कर जोर।।2।। पावन हुए......... कर केशलोंच तन से ममत्व हटाते। वैराग्यता के भाव उर में जगाते।। अस्थिर है जग जाना देखा है कर गौर। दुःख का रे यो सागर जिसका है न कोई छोर।।3।। पावन हुए..... महिमा को सुनकर तेरी शरण अब आया। पुण्य उदय जब आया तब है दर्श पाया।। पाकर तेरा शरणा जँचे ना कोई और। बांधी रे मैंने तुमसे अब अपनी जीवन डोर।।4।। पावन हुए......... कर्म लुटेरे नाना नाच हैं नचाते। भव वन में निशदिन है ये भटकाते।। कर्मों के आगे हाँ चलता है जब जोर। हटती रे तव कृपा से मिथ्यात्व घटा घनघोर।।5।। पावन हुए......... लागी लगन मोरी तुमसे मुनीश्वर। लगाओगे निश्चय तुम्ही मुक्ति के पथ पर।। गायन कर में महिमा हे गुरु-वर तोर। बाज उठी रे वीणा प्रभु नाच उठा मन मोर।।6।। पावन हुए........ इस तरह सुस्वर नामकर्मोदयी ब्रह्मचारी विद्याधर जी की वाणी आबाल वृद्ध सभी जन को कर्ण प्रिय लगती थी। पूर्व का देव शास्त्र गुरु उपासक, भजन गायककार, गीतकार आज ऐसा साहित्यकार, महामनीषी, महाकवि बन बैठा है कि अनेकों गीतकार, भजन गायककार, साहित्य मनीषियों की रचना का आधार बन पड़ा है। ऐसे महानायक को कोटि-कोटि प्रणाम करता हुआ ..... अन्तर्यात्री महापुरुष पुस्तक से साभार
  2. आचार्य श्री जी के जीवन में बचपन से ही जीवों के प्रति करुणा भाव कूट - कूट भरा हुआ है।उनके जीवन की प्रत्येक क्रिया करुणा से ओत-प्रोत है, हर क्रिया में करुणा झलकती है। वे करूणा के भंडार है, करुणा की मूर्ति है। आचार्य भगवन के अंदर करुणा और दया को देखकर मन उनके प्रति श्रद्धा से भरकर प्रफुल्लित हो जाता है। 17 नवंबर 1972 (नैनागिर) की बात है- बारह वर्ष से धर्मशाला के निकट एक कुत्ता रहता था।उसने खाद्य पदार्थ समझकर के एक दिन अग्निगोलक अस्त्र (बम) खा लिया। उसका विस्फोट हो जाने से उसका मुख क्षत-विक्षत हो गया। वह जल मंदिर में के द्वार पर बैठा रहता था। वंदना के लिए आई हुई ब्रह्मचारिणी बहनों ने उस की दुर्दशा को देख कर उसके कष्ट का निवारण करने के लिए णमोकार मंत्र का पाठ सुनाया। उसके प्रभाव से उसकी वेदना कुछ कम हो गई, जिससे वह पर्वत पर आचार्य महाराज के प्रवचन सुनने के लिए गया। उसकी दशा को देख करके गुरुदेव ने उसे संबोधन दिया- "तुम्हारा मरण का समय आ गया है, क्या व्रत की इच्छा करते हो ?" उस कुत्ते ने सिर हिलाकर के स्वीकृति दी। णमोकार मंत्र सुनकर के उसने आगे रखे भोजन पानी के परित्याग को स्वीकार कर लिया। धर्मशाला में उसके सामने अन्न-पान रख देने पर भी वह उसे देखता नहीं था। 19 नवंबर के दिन पंच परमेष्ठी के उच्चारण को सुनते हुए उसका देवलोक हो गया। इस प्रकार उस कुत्ते ने आचार्य महाराज के द्वारा दिये हुए व्रत का पूर्ण रूप से पालन करते हुए, उनके सानिध्य में अपनी देह का समाधि मरण पूर्वक त्याग किया। इतना ही नहीं आचार्य महाराज ने अनेकों भव्य जीवों की सल्लेखना करा कर हमेशा-हमेशा के लिए भव-भ्रमण से मुक्ति का सोपान भी प्रदान किया है। और इस युग के समाधि सम्राट बनकर भव्य जीवों का कल्याण किया।। अनासक्त महायोगी पुस्तक से साभार
  3. ब्यावर के पश्च्यात १९७४ में आचार्य श्री ने अजमेर में चातुर्मास किया। आचार्य श्री दिव्य पुरुष है, प्रत्येक चातुर्मास में ऐसी घटनाएँ घटित होती है , जो इतिहास का अंग बन जाती हैं आचार्यश्री प्रातः कालीन प्रतिक्रमण कर बैठे थे। भक्तो से चर्चा कर रहे थे। महाराष्ट्र अकलुज से एक युवा डॉक्टर चुन्नीलाल एम. बी. बी. एस. भी आचार्य श्री के दर्शन को आए थे। आचार्य श्री की आध्यत्मिक साधना और ज्ञान से प्रभावित होकर आध्यत्मिक-चर्चा करते रहते थे। एक दिन चर्चा के पश्चात आचार्य श्री की चरण रज लेने के लिए झुके तो उनकी जेब से पैसे बिखर ग़ये और वह पैसे उठाने लगे। यह देखकर आचार्य श्री हँस दिये और बोले देखो चेतन कैसे अचेतन के पीछे दौड़ रहा है। आध्यत्मिक चर्चा करना सरल है किन्तु जीवन मे उतारना अत्यन्त कठिन है। डॉ. चुन्नीलाल के विवाह को अभी छह माह ही हुए थे। आचार्य श्री का सात्विक व्यंग्य उनके ह्रदय को छू गया। डॉ.चुन्नीलाल ने कहा - आचार्यश्री ! "मैं अचेतन के प्रति आकर्षण तोड़ने का साहस रखता हूँ। मै घर लौट कर अपनी पत्नी से चर्चा करूंगा, विश्वास छह माह की अवधि में आकर दीक्षा ग्रहण करुँगा। डॉ. चुन्नीलाल ने अकलुज महाराष्ट्र से आचार्यश्री तीन पत्र लिखे। आचार्य वितरागी संत है, कभी पत्र नहीं लिखते। डॉ. चुन्नीलाल ने अपना वचन निभाया और १५ मई , १९७५ को आचार्यश्री आदिसागर जी से अकलुज में दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण की ओर वह मुनि वीरसागर के नाम से प्रसिद्ध हुए। निमित्य अकर्ता है ,अकिंचन है किन्तु प्रेरक- निमित्तो की उपादेयता को जो अस्वीकार करते है, उन्हें स्याद्वाद सिद्धान्त का बोध तक नही है। (१९७४ अजमेर) ज्योतिर्मय निर्ग्रन्थ पुस्तक से साभार
  4. सत् शिव सुन्दर 4 - कर्तव्य बोध विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार गुणवान, गुणियों को आदर देते ही हैं क्योंकि उन्हें गुणों की महत्ता मालूम है। सभी लोग दूसरों से आदर पाना चाहते हैं पर देना नहीं। दूसरों को आदर दिये बगैर आदर मिल कैसे सकता है ? सहज जीवन जीना सीखो, मान के अभाव में मानव स्वयमेव सहज हो जाता है। अहंकारी का ही अधोगमन होता है, विनयी हमेशा ऊर्ध्वगामी होता है। हे मानी प्राणी! देख तो इस पानी को और हो जा पानी-पानी। कठोरता बर्फ की तरह विभाव है जबकि तरलता पानी की तरह आत्म स्वभाव। मृदुता और काठिन्य की सही पहचान तन को नहीं हृदय को छूकर होती है। लघुत्व को स्वीकार किये बिना अन्दर से गुरुत्व प्रकट हो ही नहीं सकता। बड़प्पन वही है जो सही को स्वीकार करे। वास्तव में बड़ा वही है जिसे छोटे का भी ध्यान हो। आज का व्यक्ति मान के पीछे सब कुछ न्यौछावर करने तैयार है पर मान को नहीं। मान को समझने और उसे जीतने में ही मानव की सफलता है। विनय, दीनता की प्रतीक नहीं है वह तो समीचीन तप है, जो आत्म-विकास तथा कर्म निर्जरा का श्रेष्ठ साधन है। विनय के माध्यम से सामने वाला पाषाण हृदय भी पिघल जाता है एक प्राचीन आचार्य को आज का दीक्षित शिष्य भी अपनी विनय वृत्ति से आकर्षित कर लेता है। विनय में हृदय साफ होना चाहिए, छल कपट मायाचारी से की गई विनय कोई विनय नहीं वह तो पाखण्ड मात्र है। सामने-सामने विनय भक्ति फिर भी स्वार्थ से हो सकती है किन्तु परोक्ष में भी विनय भक्ति करना निस्वार्थ गुणानुराग के बिना संभव नहीं। आज स्थितिकरण की बहुत जरूरत है पर ध्यान रहे वह उपगूहन की पृष्ठभूमि पर विनय और शालीनता के साथ होना चाहिए। जो अहंकार वश यहाँ अकड़कर ऊपर देखता हुआ चलता है उसको परभव में नीचा ही रहना पड़ता है किन्तु जो यहाँ विनम्र विनत दृष्टि रहता है उसे परभव में उच्चपद प्राप्त होता है। विवेक के साथ प्रत्येक घड़ी बिताने का नाम ही वास्तव में जीवन है। विवेकी कभी मुग्ध नहीं होता और जल्दबाजी में कभी क्षुब्ध भी नहीं होता है। अनुकूलता प्रतिकूलता में वह अपने आपको सम्हाले रखता है। आज दूरदर्शन की उतनी आवश्यकता नहीं है जितनी दूरदृष्टि रखने की। जिसका विवेक एक बार जागृत हो जाता है वह अधर्म से स्वयमेव बच जाता है उसे फिर किसी प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं। वास्तविक स्वयं सेवक वही है जो आत्मा की सेवा करता है। दूसरों की सेवा में निमित्त बनकर अपने अन्तरंग में उतरना ही सबसे बड़ी सेवा है। अनुभव में वृद्धि, सादगी और गंभीरता का आना वृद्ध सेवा का परिणाम है। सेवा वैय्यावृत्ति करना निश्चित ही उपकार है किन्तु किसी को अपनी तरफ से परेशानी में नहीं डालना भी उपकार है। प्रत्युपकार की इच्छा से किया गया उपकार वास्तविक उपकार नहीं है। पर के कल्याण में "स्व" का कल्याण निहित है। यह बात दूसरी है कि फिर दूसरे का कल्याण हो अथवा न भी हो। परोपकार की वेदी पर चढ़ाया गया फल कभी निष्फल नहीं जाता। कर्तव्य में आनंद मनाने वाला व्यक्ति एक कर्तव्य को पूर्ण कर दूसरे कर्तव्य की खोज में तत्पर रहता है। कर्तव्य में अधिकार का भाव नहीं आना चाहिए क्योंकि अधिकार का भाव आते ही कर्तव्य, कतृत्व बन जाता है। बड़ों की विनय छोटों का कर्तव्य, छोटों के प्रति वात्सल्य बड़ों का कर्तव्य, परस्पर में एकता ये सभी संघ संचालन के जरूरी साधन हैं। अहंकार की नींव पर ही कर्तृत्व का ढाँचा टिका हुआ है। जैनदर्शन कहता है कि उतना ही उत्पादन करो जितना तुम्हें आवश्यक है बल्कि उससे कम ही करो जिससे कुछ समय बचेगा जिसमें परोपकार की बुद्धि जाग्रत होगी। स्वार्थ सिद्धि और क्षणभंगुर जीवन की रक्षा के लिये अनाप-शनाप सामग्री का संग्रह, पता नहीं इन्सान को कहाँ ले जायेगा। कम से कम वस्तुओं में अपना निर्वाह करना यह गरीबी नहीं किन्तु सदाचरण सन्तोषवृत्ति है। स्वार्थ और संकुचित दायरों से ऊपर उठे बगैर किसी की सेवा संभव नहीं। सफलता उसके चरण चूमती है जो निरन्तर परिश्रम करता है। बड़ों की आज्ञा पालन करने से तन और मन दोनों की दूरी समाप्त होती है। “परस्परोपग्रहो जीवानाम्” इस सूत्र को यदि हम सही-सही समझ लें, जीवन में उसे लागू करें तो आज जैनधर्म की व्यापक रूप से प्रभावना हो सकती है। अपने जीवन की सुख सुविधाओं में यदि थोड़ी भी कमी आ जाए तो व्यक्ति को शीघ्र ही रोष आ जाता है और उस रोष में हमारा होश भी खो जाता है। दूसरों के द्वारा किये गये उपकार को भी हम भूल जाते हैं। दया का कथन निरा है और दया का वतन निरा है। एक में जीवन है और एक में जीवन का अभिनय। दया और अभय का धर्म से गहरा सम्बन्ध है। वीतरागी जीवन में हमें यह सहज ही दिखाई देते हैं। वे आँखें किस काम की जिनमें ज्ञान होते हुए भी संवेदना की दो-तीन बूंदे भी नहीं आतीं। वे आँखें लोहे की हैं, पत्थर की हैं, हमारे किसी काम की नहीं। दया के अभाव में शेष गुण विशेष महत्वशाली नहीं हैं। वह दया, शेष गुण रूपी मणियों को पिरोये जाने के लिये धागे के समान है। हे आर्य! दान देना दाता का कार्य है और अनिवार्य है। दाता अभिमानी न बने और पात्र दीन न हो तभी दान देय की महत्ता है। दाता, दान का पात्र नहीं है अत: वह दान देने की पात्रता तो रखता है पर लेने की नहीं। पात्र सत्पात्र हो और पावन होने वाला भी नीर-क्षीर विवेकी हंस के समान हो तो समागम करने वाला पतित से पावन नियम से बनता है। जो अतिथि सत्कार को बेचैन रहता है उससे कई गुना बेचैन होकर पुण्य उसकी खोज करता है। सर्वस्व समर्पण करने में न मांग होती है, न चाह, न प्रतिदान की भावना। दान के बिना अहिंसा धर्म की रक्षा न आज तक हुई है और न आगे होगी। धन का नहीं धर्म का स्वागत करो। न्यायोपात्त धन से जो दान दिया जाता है वह युगों-युगों तक कीर्ति का कारण बनता है। दान देने का अर्थ यह नहीं है कि यद्वा-तद्वा दान दें। यदि एक व्यक्ति चोरी करके दान दे तो क्या उसका दिया हुआ दान, दान कहलाएगा। नहीं...नहीं। वह तो पाप का ही कारण बन जाएगा। जो व्यक्ति अत्याचार, अनाचार के साथ वित्त का संग्रह करता है और मान के वशीभूत होकर दान करता है वह कभी भी धर्म प्रभावना नहीं कर सकता, और न ही अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है। वात्सल्य विहीन व्यक्ति पत्थर के समान होते हैं। अभिमान वश हम हाथी के साथ तो चल सकते हैं पर साथी के साथ नहीं। मैत्री भाव का प्रदर्शन तो स्वार्थ की वजह से कहीं भी हो जाता है किन्तु उसका दर्शन तो मैत्री के धारक महामुनिराजों के सान्निध्य में ही होता है। प्रेम में समय और स्थान की सभी दूरियाँ समाप्त हो जाती हैं क्योंकि प्रेम आत्मगत होता है। प्रेम की स्याही और आचरण की कलम से ही जीवन का काव्य निर्मित होता है। आनंद का अनुभव स्वयं को होता है किन्तु प्रेम का अनुभव तो निकट आने वाले को भी। जो प्रेम व्यक्ति या वस्तु-विशेष के प्रति होता है वह प्रेम नहीं राग का संबंध है क्योंकि प्रेम व्यापक और नि:स्वार्थ होता है। दीनता, विनय नहीं है वह तो मात्र जीवन का निर्वाह है। विवाह में पहला बंधन है राग, लेकिन वह राग, रागी बनने के लिये नहीं वीतरागी बनने के लिये है। इसमें एक ही के साथ सम्बन्ध है अनंत के साथ नहीं। अनंत के साथ तो बाद में होगा, सर्वज्ञ होने पर। पहले एक फिर अनंत। जो प्रारंभ में ही अनंत के साथ उलझता है, उसका किसी विषय पर अधिकार नहीं रहता। एक दूसरे के पूरक होकर, प्रेम के साथ खाई गई रूखी-सूखी रोटी भी व्यक्ति को पहलवान बना देती है किन्तु ईर्ष्या के साथ मावा-मिष्ठान्न खाने पर भी अस्पताल जाने की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार बिना किसी खिड़की या दरवाजे के कोई मकान संभव नहीं ठीक इसी प्रकार बिना गुणों के कोई भी व्यक्ति संभव नहीं। हाँ, उन्हें देखने के लिये चाहिए है मात्र दृष्टि। हमें हमेशा गुणवानों को ऊपर उठाने का प्रयास करना चाहिए। वह गुणी कोई भी हो सकता है बस गुण होना चाहिए। फिर जाति से, शरीर से, मजहब अथवा कौम से कोई भी मतलब नहीं है। राजा या रंक उसके सामने कोई वस्तु नहीं है। निंदा किसी की भी नहीं करनी चाहिए, यहाँ तक कि विपरीत वृत्ति वाले की भी नहीं। हमें दूसरों के गुणों की प्रशंसा ही करना चाहिए, निंदा-बुराई करके हम व्यर्थ ही अपने मुख को खराब करते हैं। सजनों के मुख से कभी भी निष्ठुर, निन्दक और निर्दयतापरक वचन नहीं निकलते। दूसरों की आलोचना/दोषों का कथन करते समय जिनकी जिह्वा मौन हो जाती है, वास्तव में वे ही महापुरुष होते हैं। किसी के साथ नहीं बोलना यह तो अच्छा है लेकिन एक से बोलना और एक से नहीं बोलना यह हमारे रागद्वेष को सूचित करने वाली खतरनाक परिणति है।
  5. 30 जुलाई 1968, श्री भागचंद सोनी जी की नशियाँ बात उस समय की है जब युवा ब्रह्मचारी विद्याधर की मुनि दीक्षा होनी थी। सबसे पहले ब्रह्मचारी विद्याधर ने मुनि ज्ञान सागर जी की चरण वंदना की, उसके बाद मुनि श्री से दिगंबर दीक्षा प्रदान करने हेतु प्रार्थना की। मुनि श्री ने दीक्षा पूर्व जनसमूह के समक्ष अपनी भावनाएं प्रस्तुत करने हेतु विद्याधर को निर्देश दिया।मुनि श्री की अनुमति पाकर विद्याधर ने सिद्धम नम:, सिद्धम नम: के पवित्र उच्चारण के पश्चात आदि तीर्थंकर ऋषभदेव की प्रशस्ति में मंगलाचरण का उच्चारण किया,पश्चात मुनि ज्ञान सागर जी के चरणो में नमन अर्पित कर जनसमूह को संबोधन किया। आज मैं वंदनीय गुरुदेव का मंगल आशीर्वाद प्राप्त कर भौतिक सुखों को अंतिम प्रणाम कर रहा हूं। युगादि में आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने सर्वप्रथम मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया था। वही सर्वप्रथम निर्ग्रन्थ श्रमण थे। उनके द्वारा प्रशस्त मार्ग का अनुसरण कर अनगिनत भव्य जीव जन्म-मृत्यु के बंधनों से मुक्त होकर अतींद्रिय-सुखों को प्राप्त कर सिद्धालय में विराजमान है। जन्म के साथ मृत्यु और संयोग के साथ वियोग जुड़ा हुआ है। इस विशाल विश्व में प्रत्येक प्राणी अपने कर्मों को भोगने के लिए आता है, आयु कर्म समाप्त होने पर नवीन किंतु अज्ञात-गति में गमन कर जाता है। सर्व परिग्रहों का त्याग किए बिना मुक्ति एक कल्पना है, बिना दिगम्बरत्व, सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान,सम्यकचारित्र की उपलब्धि असंभव है। आज मैं मुक्ति के महान एवं दिव्य पथ का पथिक बनने जा रहा हूं। मेरी साधना सार्थक हो, मैं आदि तीर्थंकर ऋषभदेव और पूज्य गुरुदेव की शरण स्वीकार करता हूं।मैं मुनि श्री ज्ञानसागर जी से करबद्ध प्रार्थना करता हूं, कि मुझे निर्ग्रन्थ-श्रमण की दीक्षा प्रदान करें।। इस प्रकार पूज्य गुरुदेव ने पूज्य ज्ञानसागर जी महाराज जी और जनता के समक्ष अपने ग्रहस्थ अवस्था के अंतिम शब्द प्रस्तुत किये थे, और यही से संतत्व से सिद्धत्व की अविराम यात्रा प्रारंभ की थी, जो आज तक अनवरत रूप से जारी है, जो सिद्धशिला पहुँचने तक निरन्तर गतिमान रहेगी।। 30 जुलाई 1968(आषाढ़ शुक्ल 5) (सोनी जी की नशियाँ, अजमेर) ज्योतिर्मय निर्ग्रन्थ पुस्तक से साभार
  6. आचार्य संघ का विहार चूलगिरी से श्रवणबेलगोल के लिए निर्विघ्न चल रहा था। विद्याधर कहार बने डोली उठा रहे थे श्रवणबेलगोल के निकट यात्री दल पहुँचा। सर्पीली पहाड़ियां, दुर्गम चढ़ाई, देवदारुओं का सघन वन, दूर दूर तक कोई बस्ती नहीं। कहार हाँफने लगे हय्या हय्या करने लगे। युवा विद्याधर के कंठ से एक मधुर गीत झरने लगा अर्हत् राम, रमैया हैया हो रे, हैया मेरे अर्हत् पावन हैं करुणा के वे सावन है जन्म मृत्यु के दोनों तट से पार लगाते नैया अर्हत् राम, रमैया हैया हो रे, हैया मिट्टी के घर मे बैठे है अजर-अमर अविनाशी बंद पिंजरा , पंख शिथिल हैं और चेतन प्यासी जल पोखर में डूब रहा है सागर का तैरैया अर्हत् राम, रमैया हैया हो रे, हैया मिट्टी सान रही मिट्टी को शाख- शाख पर डोल रहा है मिला न कोई सहारा सुख के सारे दाने चुग गई देखों रे काल चिरैया अर्हत् राम, रमैया हैया हो रे, हैया आती, जाती सांसों के संग एक मुसाफिर ठहरा बाहर देखा घात लगाये मरण दे रहा पहरा सूरज डूबा, तत्क्षण जाना चलने लगी पुरवैया अर्हत् राम, रमैया हैया हो रे, हैया आचार्य श्री देशभूषण जी ने यह आध्यत्म गीत ,सुना तो वह मुग्ध हो गए। उन्होंने स्नेह भरे स्वर में कहा , "तेरा कंठ तो बड़ा मधुर है, कहाँ से सीखा , यह आध्यत्मिक गीत" विद्या ने कहा, "गुरुदेव ! सब आपका आशीर्वाद।" ज्योतिर्मय निर्ग्रन्थ पुस्तक से साभार
  7. सत् शिव सुन्दर 3 - वैराग्य-प्रेरणा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार वैराग्य की प्रेरणा जहाँ मिले वस्तुत: वही हमारे लिये कल्याण का साधन है। जिस वंश के हम अंश हैं उसके अनुरूप ही मोह का ध्वंस करना जरूरी है। शरीर को संवारो (सजाओ) नहीं किन्तु सम्हालो, यह मोक्षमार्ग में सहकारी है। दीपक जबसे जलना शुरू करता है तभी से बुझने लगता है। अनंत संसार परिभ्रमण के बाद भी यह जीव थका नहीं, बड़ी विचित्र दशा है इस जीव की। अरे भाई! जा तो रहे हो, पर जाते-जाते यह भी विचार करो कि जाना कहाँ है? एक बार उस गन्तव्य को प्राप्त करो जहाँ से पुनः लौटकर न आना पड़े। यदि अंधा कुएँ में गिरता है तो कोई बात नहीं किन्तु जानते-देखते हुए भी कोई व्यक्ति गिरे तब जरूर विचारणीय बात है। स्व पर अहितकारी मिथ्यात्व-असंयम के ऐसे विष बीज मत बोना, जिसके द्वारा उत्पन्न विषफल आपको खाना पड़े और नरक-निगोद आदि दुर्गतियों में जाना पड़े। हमारा जीवन पानी के बुलबुले की तरह क्षणभंगुर है जिसे फूटने में देर नहीं। प्राप्त संपदा और जीवन इन्द्रधनुष तथा आकाश नगर की भाँति क्षणभंगुर है जो तृण-बिन्दुओं के समान बहुत ही जल्दी बिखर जाने वाला हैं। यह संसार इन्द्रजाल के समान है जो देखने में दिखता तो बहुत सुन्दर है पर स्थिर रहने वाला नहीं है। देखते ही देखते नष्ट हो जाने वाला है। यह सारा का सारा संसार है केवल एक विशाल नाटक। भले ही इसमें तू भाँति-भाँति के वेश धर किन्तु इसमें भूलकर भी न अटक। अहो! इस निद्रा का माहात्म्य तो देखो, जिसके आने पर यह जीव शव जैसा दिखने लगता है, और उसके जाते ही शिव जैसा प्रतीत होता है। संसारी प्राणी की यह मूर्खता है जो नश्वर को सुरक्षित रखने का प्रयास करता है, सुरक्षा नहीं होने पर संक्लेश करता है जिससे दुर्गति का पात्र बनता है। जड़ तत्व की सुरक्षा के लिये जो व्यक्ति मूल्यवान चेतन धन का उपयोग करता है वह पैर धोने के लिये अमृत कलश ढोल रहा है, राख के लिये चन्दन की लकड़ी जला रहा है। यदि हमारे घर के अन्दर एक छोटा सा भी सर्प घुस आए तो हम घर छोड़कर भाग जाते हैं किन्तु हमारे भीतर रागद्वेष विषय-कषायों के कितने सर्प बैठे हुए हैं, पर हमें उनका ख्याल ही नहीं। जीवन बहुत थोड़ा है, यह प्रतिपल नष्ट हो रहा है, ऐसी स्थिति में आपके भीतर इसके प्रति जो अमरत्व की भावना है वह अयथार्थ है यानी क्षणिक पदार्थ में शाश्वत बुद्धि अयथार्थ है। जीवन में एक घड़ी भी वीतरागता के साथ जीना बहुत अर्थ रखता है किन्तु राग-असंयम के साथ हजारों वर्ष तक जीना कोई मायना नहीं रखता। सिंह बनकर एक दिन जीना भी श्रेष्ठ है किन्तु सौ साल तक चूहे बनकर जीने की कोई कीमत नहीं है। जब तक अपराधी एक अकेला रहता है तब तक वह अनुभव करता है कि हाँ मैं अपराधी हूँ मैंने अपराध किया है, मैं उसका दण्ड भोग रहा हूँ। किन्तु जब अपराधियों कीं संख्या बढ़ जाती है तो फिर उसमें भी एक प्रकार का रस आने लगता है।
  8. उस समय सारा संघ नेमावर में साधनारत था । गर्मी का समय था, रात्रि में 12 बजे तक गरम हवा चलती थी। रात्रि में नींद नही ले पाते थे। कुछ महाराजो ने आचार्य महाराज से निवेदन किया कि- हम लोग नदी में जाकर रेत में रात्रि विश्राम करने के लिए चले जाया करेंगे। तब आचार्य महाराज ने कहा- ठीक है, जाओ नदी में रेत भी है और वहाँ श्मशान भी है दो चार महाराज हो जाओ ठीक रहेगा। कुछ सोचकर बोले - अगर रात्रि विश्राम के लिए वहाँ जा रहे हो तो मेरा आशीर्वाद नही है बल्कि साधना करने जा रहे हो तो मेरा आशीर्वाद है। आचार्य महाराज स्वयं पहले राजस्थान में केकड़ी गाँव आदि में नदी की रेत में ही रात्रि में साधना किया करते थे। वही हम सभी को उपदेश भी देते है कि- आतमाराम को भेजो, विश्राम आराम को तजो, विश्राम करना ही है तो आत्मा में विश्राम करो। ध्यान रखो शरीर को सुविधा मत दो। इतनी गर्मी पड़ रही है फिर कुछ नहीं। एक बार द्वितीय शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि जल जावे जो काम हो जावेगा। जब तक यह अग्नि नही जलती तब तक इस शरीर की गर्मी (यात्रा) समाप्त नही होगी। इस शरीर का क्या इसे तो इक दिन जलना ही है। आचार्यश्री जी ने लिखा भी है कि- लायक बन नायक नहीं,पाना है विश्राम। ज्ञायक बन गायक नहीं,पाना है शिवधाम।। अनुभूत रास्ता पुस्तक से साभार
  9. महापुरुषों की जन्म तपस्या एवं निर्वाण स्थली रहे धर्म प्रधान भारत देश की पहचान आध्यात्मिकता है और अहिंसा, त्याग आदि इसकी विशिष्टता है। प्रत्येक युग में युगदृष्टाओ ने यहां जन्म लेकर तप साधना के आदर्श प्रस्तुत किए हैं। ऐसे महापुरुषों के व्यक्तित्व एवं सत्कार्य प्रकाश स्तंभ के समान युगों युगों तक जन जन के जीवन को प्रेरणा के स्रोत के रूप में प्रकाशित करते रहते हैं। उनकी अमर जीवन गाथाएं स्वर्णाक्षरों में लिखी जाने योग्य हैं। वर्तमान युग में ऐसे ही आदर्श महापुरुष हैं विश्वविख्यात महान तपस्वी महाकवि दिगंबर जैन आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज, जो की साक्षात चलते-फिरते तीर्थंकर भगवंत हैं अनेक बार दर्शनों के पश्चात भी जिनके दर्शन की प्यास लगी ही रहती है। पूज्य आचार्य श्री देशकाल,जाति,धर्म की सीमाओं से परे ऐसे विराट व्यक्तित्व हैं जिनको यह कालखंड भगवान तुल्य महामानव के रूप में याद रखेगा।। एक बार की बात है, अकम्पमती माताजी के संघ की एक आर्यिका माताजी ने आचार्य श्री जी के सामने शंका रखते हुए कहा कि- गुजरात प्रान्त में पालीताना नाम का स्थान है। वहाँ एक पहाड़ है, जिसे शत्रुंजय नाम से जाना जाता है। वहाँ पर 4000-4500 जैन मंदिर है। और 4000 सीढियां चढ़ने के बाद एक दिगम्बर जैन मंदिर आता है। तो वहाँ पर श्वेताम्बर का प्रभाव ज्यादा है, अपना नहीं। तो अपना धर्म नष्ट न हो जाए। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- आसमान में तारे तो अनेक होते है, परंतु चाँद तो एक ही होता है। तारे मिलकर भी संसार को रोशन नहीं कर पाते और चाँद अकेले ही सम्पूर्ण जगत को रोशन कर देता है। ऐसे ही हमारे आचार्य श्री जी, अनेक मुनियों में एक महान मुनि जो संपूर्ण जगत को रोशन कर रहे है। आज आचार्य श्री की जीवनचर्या सामान्य जनमानस के अंधेरे जीवन में उज्जवल प्रकाश की किरण है उनके गुरु ने उनका दीपक जलाया उन्होंने त्याग तपस्या को अपने जीवन का श्रृंगार बनाया, स्वयं को संयम के साँचे में ढाला, अनुशासन को अपनी ढाल बनाया और ऐसा दिया जला कर रख दिया जिससे जो चाहे रोशनी ले ले।। धन्य है ऐसे गुरुदेव,जो शीघ्र ही मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त कर लेंगे, हमें भी पूर्ण विश्वास है कि- आपके चरणों की छत्रछ्या में रहकर हम भी शीघ्र ही मोक्ष लक्ष्मी को अवश्य ही प्राप्त कर लेंगे।
  10. गर्मी का समय था,उन दिनों में मेरी शारीरिक अस्वस्थता बनी रहती थी। मैं आचार्य महाराज के पास गया और मैंने अपनी समस्या निवेदित करते हुए कहा- आचार्य श्री जी! पेट में दर्द(जलन) हो रहा है। आचार्य महाराज ने कहा-गर्मी बहुत पड़ रही है, गर्मी के कारण ऐसा होता है और तुम्हारा कल अंतराय हो गया था,इसलिए पानी की कमी हो गई होगी सो पेट में जलन हो रही है। कुछ रुककर गंभीर स्वर में बोले कि-क्या करें यह शरीर हमेशा सुविधा ही चाहता है लेकिन इस मोक्षमार्ग में शरीर की और मन की मनमानी नहीं चल सकती। बाहरी दु:ख के प्रति अचेतन हो जाओ,उसका संवेदन नहीं करो,सब ठीक हो जाएगा। आचार्य श्री जी के एक वाक्य में पूरा सार भरा हुआ हैं, हमें यह श्रद्धान कर लेना चाहिए कि- मोक्षमार्ग में मन और शरीर को सुविधा नहीं देनी है बल्कि, मन और इन्द्रियाँ को नियंत्रण में रखकर समता भाव बनाये रखना है। वे हमेशा चाहे अनुकूल-प्रतिकूल कैसी भी परिस्थिति रही आवे,मन में समता का भाव बनाये रखते हैं और चेहरे पर कभी प्रतिकार जैसा भाव दिखाई नहीं देता। वश में हो सब इन्द्रियाँ, मन पर लगे लगाम। वेग बढ़े निर्वेग का,दूर नहीं फिर धाम।। आचार्य पूज्यपाद स्वामी जी ने श्री इष्टोंपदेश जी ग्रन्थ में लिखा है कि- जो शरीर का उपकारक है(पंचेन्द्रिय विषय भोग,आदि)वे आत्मा के अपकारक है, और जो अपनी आत्मा का उपकारक है(व्रत,नियम,साधना,उपवासआदि)वे शरीर के अपकारक है। वास्तव में आचार्य महाराज ने पूज्यपाद स्वामी जी की इन पंक्तियों को अपने जीवन मे उतारा है, चाहे कितनी भी परेशानियां आ जाये, हमेशा उन्हें समता भाव से सहन करके मोक्षमार्ग में आगे बढ़ते जाते है। धन्य है ऐसे चलते फिरते भगवन जिनका दर्शन हमें आज अपनी आंखों से मिल रहा हैं, सफल हो गया है हमारा जीवन, जो हमने आपके शासनकाल में जन्म लिया। अनुभूत रास्ता पुस्तक से साभार
  11. गुरु जी का उपदेश चल रहा था, हम सभी साधक उस उपदेशामृत का पान कर रहे थे। आचार्य श्री ने बताया कि- समय अनुसार हमें कभी कठोर तो कभी मृदु चर्या के माध्यम से साधना विकास उन्मुखी बनाना चाहिए। लेकिन तेज सर्दी और तेज गर्मी में साधना करना बहुत मुश्किल है आज खुले में साधना करने वालों के दर्शन दुर्लभ है। तब मैंने कहा- आचार्य श्री जी मैंने सुना है पहले आप, जब राजस्थान में थे तब खुले में पहाड़, श्मशान आदि पर जाकर साधना करते थे यह सुनकर आचार्य श्री जी कुछ क्षण मौन रहे, फिर बोले - केकड़ी राजस्थान के पास बघेरा गांव है जहां शांतिनाथ भगवान का मंदिर है,वहां से 1 किलोमीटर दूरी पर पहाड़ है, गांव में आहार चर्या करके सीधे ही पहाड़ पर चले जाते थे,वहां पर उस समय गर्मी का मौसम था को गर्म गर्म हवा चलती थी। बड़े-बड़े पत्थर थे, उन पत्थरों की ओट में आकर बैठ जाते थे।उस समय साथ में क्षुल्लक मणिभद्र जीभी थे, उनकी आंखों में गर्म हवा की वजह से जलन होती थी तो उन्हे बताया कि आप पहले दुपट्टे को कमण्डलु के पानी में मिलाकर के आंखों पर रख लिया करो। रात्रि विश्राम भी वही एक गुफा में करते थे। हंस कर बोले - एक बार पहाड़ पर ज्यादा ऊपर चढ़ गए फिर रास्ता भटक गए, नीचे उतरते वक्त हाथ पकड़कर कमंडलु पत्थरों से टिकाते-टिकाते नीचे उतर आए। कभी-कभी श्मशान में चले जाते थे।वहां एक छतरी जैसी बनी थी वही रात्रि व्यतीत करते थे।कभी कभी नदी की रेत में रात्रि विश्राम हो जाता था। शिष्य ने पूछा- आचार्य श्री जी! रेत तो गरम रहती होगी। आचार्य श्री जी ने कहा- हाँ देर रात होने पर थोड़ी ठंडी हो जाती थी। शिष्य ने पूछा-आचार्य श्री जी! आप वहां दिन रात क्या करते थे। तब आचार्य श्री जी बोले-सामायिक स्वाध्याय(समयसार,पंचास्तिकाय,प्रवचनसार आदि) करते थे। शिष्य ने पूण: शंका व्यक्त करते हुए कहा-क्या आप ये ग्रंथ साथ में ले जाते थे ? आचार्य श्री जी ने कहा- नहीं, मौखिक(याद)था सब कुछ, पुस्तक की क्या आवश्यकता। यह हैं गुरुदेव की अद्भुत चर्या का जीवंत उदाहरण। ग्रीष्मकाल में आग बरसती गिरि शिखरों पर रहते हैं। वर्षा ऋतु में कठिन परीषय तरु तल रहकर सहते हैं।। तथा शिशिर हेमंत काल में बाहर भू पर सोते हैं। वंद्य साधु ये वंदन करता, दुर्लभ दर्शन होते हैं।। यह पंक्तियां आचार्य श्री जी ने योगी भक्ति का हिंदी अनुवाद करते हुई लिखी हैं। सच है वह जो लिखते हैं पहले स्वयं जीवन में लख लेते हैं। वे मात्र उपदेश ही नहीं देते बल्कि उस उपदेश को अक्षरश: अपने जीवन में उतार लेते हैं। यह है उनकी साधना के कुछ क्षण। हे गुरुदेव!ये क्षण हम सभी को भी प्राप्त हो ताकि हम लोग भी ऐसी साधना को उपलब्ध कर सके।। अनुभूत रास्ता पुस्तक से साभार
  12. सत् शिव सुन्दर 2 - धर्मनीति विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अहिंसा धर्म के सद्भाव में सब धर्म अपने आप पल जाते हैं। अहिंसा ही हमारा धर्म है, हमारा उपास्य है, उसकी रक्षा के लिये हमें हमेशा कटिबद्ध रहना चाहिए। मूलधर्म अहिंसा है, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन उसी अहिंसा धर्म की रक्षा के लिये किया जाता है। यदि हम अहिंसा से भावित हैं तो दूसरा हमसे अपने आप ही प्रभावित होगा। धर्म वृक्ष से गुजरी हुई सद्भावना की हवा सभी को स्वस्थ एवं सुन्दर बनाती है। धार्मिक क्रियाकलापों को सामूहिक रूप से करने पर विचार तथा अनुभवों में वृद्धि होती है। धार्मिक क्रियाएँ करते हुए भी दोष लगते रहते हैं, जैसे दीपक के साथ-साथ कालिख भी निकलती रहती है। मिलन अलग बात है और मिल जाना अलग बात। रेत का जल के साथ मिलन होता है किन्तु दूध में शक्कर घुल-मिल जाती है, बस धर्म की इतनी ही परिभाषा है। आचार-विचारों में पतित व्यक्ति के भी कल्याण की भावना से गले लगा लेना सच्ची धर्म प्रभावना है। धर्मात्मा के बिना धर्म कभी रह नहीं सकता अत: धर्म की चाह से हमें धर्मात्मा की भी रक्षा करनी चाहिए। जैनधर्म, क्षेत्र, जाति, सम्प्रदाय या व्यक्ति विशेष का नहीं है वह तो सार्वभौमिक लोक कल्याणकारी है। जैनधर्म परस्पर मैत्री, सहयोग और उपकार पर विश्वास रखता है। संघर्ष, अविश्वास, द्वेष और दुराव का यहाँ पर कोई स्थान नहीं है। अपनी अपनी शक्ति/क्षमता के अनुसार सामाजिक जन धर्माराधना में एक जुट हो सके ऐसा उपदेश तथा प्रेरणा विवेकी जनों के द्वारा दी जानी चाहिए। रुढ़िवाद की पूजा और अपने को हीन मानकर दूसरे किसी बड़े के सम्मुख समग्र समर्पण यही लोक मूढ़ता है। कर्तृत्व के साथ दयाबुद्धि कभी नहीं होती, करुणा का सम्बन्ध तो धर्म के साथ है। सत्य उसे मिलता है जिसकी आत्मा गहरी और शान्त होती है। जहाँ पर धर्म है, सत्य है, न्याय है वहाँ पर रक्षा अपने आप होती है। जो सत्य है वही हमारा है, जो हमारा है वही सत्य है, ऐसा नहीं। सत्य का साक्षात्कार बाद में होता है, पहले उस सत्य पर विश्वास करना जरूरी है। चिरकाल तक संघर्ष करने के उपरान्त भी अन्त में सत्य की ही विजय होती है, क्योंकि सत्य अमर है और असत्य की पग-पग पर मृत्यु। जो आँखें सत्य की ओर निहार रही हैं, वे पूज्य हैं, आखिर ज्ञान की आँखें ही तो पूज्य होती हैं। असत्य से सहमत कभी मत होना, भले ही उसका बहुमत क्यों न हो। शब्द सत्य या असत्य रूप नहीं होते बल्कि बोलने वाले का अभिप्राय ही सत्य असत्य रूप होता है। सद्-अभिप्राय से प्राणीरक्षा के लिए बोला गया झूठ भी सत्य होता है और विपत्ति में डालने वाला कष्टकारक बोला गया सत्य भी झूठ ही होता है। हितकारक, कटुक और कठोर वचन भी ठीक है किन्तु अहित करने वाले मधुर वचन भी ठीक नहीं। वचनों में अद्भुत शक्ति है इसलिए तो कभी वह कर्णफूल बन जाते हैं तो कभी कर्णशूल। सत्य को कहा नहीं जा सकता उसे महसूस किया जा सकता है क्योंकि जो कहा जाता है वह सत्य नहीं, सत्यांश ही होता है। उतावली के कारण कभी-कभी व्यक्ति को सत्य से वंचित होना पड़ता है और असत्य की शरण में जाना पड़ता है। ऐसी भाषा का प्रयोग करो जो कि सत्य को असत्य और असत्य को सत्य सिद्ध न कर सके। सत्य हमेशा एक होता है और असत्य अनंत। लेकिन एक सत्य भी अनेकों असत्यों को समाप्त कर देता है जैसे एक चन्द्रमा सघन अंधकार को समाप्त कर देता है। जो व्यक्ति स्वयं अनुशासित न होकर दूसरों पर अनुशासन चलाना चाहता है वह व्यक्ति कभी भी सफल नहीं हो सकता। आत्मानुशासन के लिये अन्य किसी की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है एक मात्र अपनी कषायों पर ‘कुठाराघात' करने की। संसारी प्राणी शासन चलाना चाहता है स्वयं अनुशासित होना नहीं चाहता, लेकिन जब भगवान ने स्वयं अपने आपको अनुशासित किया तभी उनको सारे भक्त लोग शासक मानकर पूजने लगे। शासन का नहीं आत्मानुशासन का महत्व है। मोक्षमार्ग में। प्रकाश के अभाव की पीड़ा अँधे को नहीं, आँख वाले को ही होती है। आँख के अभाव वाला अंधा नहीं बल्कि सही अंधा तो विवेक आचरण के अभाव वाला है। प्रकाश तो वह है, ज्ञान तो वह है जिसमें कोई भी वस्तु अंधकारमय न रहे। संसारी जीवों से विशेष सम्पर्क रखना ही संसार बन्धन का मूल कारण है। विषय कषायों में अनुरंजन एवं संग्रहवृत्ति का नाम ही संसार है। वह गृहस्थ जिसके पास कौड़ी भी नहीं, कौड़ी का नहीं और वह साधु जिसके पास कौड़ी भी है कौड़ी का नहीं। उत्साह का जल आलस्य के मल को बहाने में सक्षम है। हतोत्साही बनकर नहीं बल्कि उत्साही बनकर सत्कार्य करो, लेकिन उतावली मत करो। उत्साह जीवन की वह सम्पदा है जो संसार की किसी भी वस्तु को खरीद सकती है। सही तो दृष्टि की दृढ़ता होती है और दृष्टि की दृढ़ता से आचरण में दृढ़ता आती है। जिस ओर हमें बढ़ना चाहिए उस ओर यदि हम नहीं बढ़ रहे हैं तो उसका एक ही कारण है आस्था का अभाव । निष्ठा और पुरुषार्थ में ऐसा बल है जो बलवान को भी हरा देता है, तथा पद और पथ से डिगने वालों को भी दिशा बोध दिला सकता है। गल्ती करने वाले को गल्ती बता देना मगर उसे अपनी दृष्टि से नहीं गिराना बल्कि गल्ती से परिचित कराकर उसे ऊपर उठाना महानता है। जिन लोगों ने बुराई की उनको शीघ्रातिशीघ्र भूल जाओ क्योंकि उनका एक क्षण का स्मरण भी अनंत जन्मों के अर्जित आनंद को पलभर में नष्ट कर देता है। मोह को जीतना मानवता का एक दिव्य अनुष्ठान है। मोह का प्रभाव जड़ के ऊपर नहीं चेतन के ऊपर पड़ता है। मोह एक ऐसा जहर है जिसे देखने मात्र से ही जीवन विषाक्त हो जाता हे, काटने की बात तो बहुत दूर रही। भौतिक सम्पदा से सुरक्षा नहीं, सच्ची सुरक्षा तो आत्मिक सम्पदा से है। कामाग्नि को उद्दीप्त करने के लिये भौतिक सामग्री घासलेट तेल का काम करती है। जीवन बहुत संघर्षमय है, इसे हर्ष के साथ जीना चाहिए। संघर्षमय जीवन का उपसंहार हमेशा हर्षमय होता है। विकार से ही विकार टकराता है। विकार, विकार का संघर्ष है, विकार और निर्विकार का संघर्ष तीन काल में संभव नहीं है। हमारा जीवन संघर्षमय है इस पर भी अनादिकालीन संस्कार ऐसे हैं जो आत्मा को झकझोर रहे हैं | और वे कभी-कभी आत्मपद से च्युत कराने में सफल भी हो जाते हैं। अत: धर्म के क्षेत्र में अहर्निश सावधानी रखनी चाहिए। तुम दुनिया के साथ भले ही छल करो लेकिन छाले तुम्हारी आत्मा में ही पड़ेंगे। यह संसार ठगों का बाजार है इसके ठगने में नहीं आना किन्तु अपनी कषायों को ही ठगकर संसार से पार हो जाना। चोर से नहीं ‘चौर्य' भाव से नफरत करो, घृणा पापी से नहीं पाप से करना चाहिए। पकड़ना चोरी है जानना चोरी नहीं है, हमारी दृष्टि लेने के भावों से भरी है और भगवान की दृष्टि ज्ञान-भाव से भरी हुई है। मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है। वह तो मात्र ड्रेस और एड्रेस का बदलना है। वह जन्म अच्छा माना गया है जो मरण को जन्म नहीं देता और वही मरण अच्छा माना गया है जो बार-बार जन्म को जन्म नहीं देता। सबसे ज्यादा क्षमता उसी की होती है जो क्षमाशील होता है। क्षमा मांगना नहीं, क्षमा धारण करना ही श्रेष्ठ है। क्षमा करने वाला क्षमा मांगने वालों से बहुत आगे पहुँचा हुआ माना जाता है। यदि क्रोध हमारे अन्दर विद्यमान नहीं तो फिर हमें क्रोध दिलाने में कोई समर्थ नहीं हो सकता। हम सोचते हैं कि अपने क्रोध के द्वारा हम दूसरों को जला डालेंगे लेकिन ध्यान रखना विश्व में कोई भी शक्ति दूसरों को नहीं जला सकती। उबलती हुई सामग्री जैसे छूने लायक नहीं रहती अर्थात् अस्पृश्य हो जाती है ठीक इसी तरह क्रोधाग्नि से तप्तायमान व्यक्ति भी अस्पृश्य हो जाता है। शारीरिक गुणों का घात करना द्रव्य हिंसा है और आध्यात्मिक जीवन में व्यवधान करना भाव हिंसा है। दीपक, बाती और तेल से नहीं जलता बल्कि इन दोनों के त्याग से जलता है। मार्ग का अन्त ही मंजिल है। यात्रा वही है जिससे मार्ग का अन्त आ जाये। यात्रा तो हमेशा एक ही दिशा की ओर हुआ करती है। घुमाव और भटकन का नाम यात्रा नहीं है।
  13. बड़े महाराज की बातों में बड़ा यानि महान राज रहता है, बहुत बड़ा रहस्य छुपा होता है। उनकी वाणी से सूत्र वाक्य निकलते हैं। यदि उनका अर्थ लगाया जाए तो बहुत बड़ा उपदेश उस सूत्र वाक्य के माध्यम से प्राप्त हो जाता है जो बिखरे जीवन को एक नया आयाम दे सकता है। इस जीवन को सत्य की सुगंध से सुभाषित कर सकता है। संसार के वास्तविक स्वरूप का बोध प्रदान कर सकता है। सर्दी का मौसम था, ठण्ड बहुत पड़ रही थी इस कारण से सभी लोग तेज धूप में ही बैठे हुए थे। लेकिन आचार्य महाराज वहीं छाँव में विराजमान थे। सभी लोगों ने गुरुदेव से भी आग्रह किया कि - हे गुरुदेव! आप भी धूप में ही ये पाटा रखा है इस पर विराजमान हो जाइये। यह सुनकर आचार्य महाराज हँसकर बोले कि - पहले आप लोग हमसे छाया माँगते हैं, कहते हो- आप हमें अपनी छत्र छाँव में रख लो। फिर, धूप में जाने की बात करने लगते हो......। इस विनोदपूर्ण किन्तु शिक्षाप्रद बात का अभिप्राय समझ कर सभी लोग हँसने लगे.....। एक दिन चर्चा के दौरान आचार्य महाराज जी ने बताया कि इतनी गर्मी पड़ रही है, फिर भी कुछ नहीं एक बार द्वितीय शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि जल जावे तो शांति आ जावेगी, जब तक यह शुक्लध्यान रुपी अग्नि नहीं जलती तब तक इस शरीर की गर्मी(यात्रा) समाप्त नहीं होगी। इस शरीर का क्या इसे तो एक दिन जलना ही है। आचार्य भगवन ने लिखा है कि - फूल फलों से ज्यों लदे,घनी छाँव के वृक्ष। शरणागत को शरण दे,श्रमणों के अध्यक्ष।। अनुभूत रास्ता पुस्तक से साभार
  14. आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के श्री मुख से बेटियों के बारे में कहा गया यह पौराणिक कथन हर पिता के भाग्य मे बेटी नहीं होती राजा दशरथ जब अपने चारों बेटों की बारात लेकर राजा जनक के द्वार पर पहुँचे तो राजा जनक ने सम्मानपूर्वक बारात का स्वागत किया। तभी दशरथ जी ने आगे बढकर जनक जी के चरण छू लिये। चाॅककर जनक जी ने दशरथ जी को थाम लिया और बोले महाराज आप मुझसे बड़े है और तो और वरपक्ष वाले है ये उल्टी गंगा कैसे बहा रहे हैं .....? इस पर दशरथ जी ने बड़ी सुंदर बात कही, महाराज आप दाता हो कन्यादान कर रहै हो, मैं तो याचक हूँ आपके द्वार कन्या लेने आया हूँ, अब आप ही बताऔ दाता और याचक में बड़ा कौन है ,? यह सुनकर जनक जी की आखो मे अश्रुधारा बह निकली..... || भाग्यशाली है वो लोग जिनके घर में होतीं है बेटियाँ, हर बेटी के भाग्य मे पिता होता है लेकिन हर पिता के भाग्य मे बेटी नहीं होती ||
  15. आज का विज्ञान खोज की दिशा में बहुत आगे बढ़ गया हैं।लेकिन वह आज जड़ की ही खोज कर पाया है।उसने शरीर मे प्रत्येक नस-नस की खोज कर ली, कोई भी शरीर काअवयव उससे अछूता नहीं रह गया। लेकिन शरीर के अंदर आत्मा नाम की कोई वस्तु है या नहीं,इसके बारे में वह मौन है।उसे वह नहीं खोज पाया।मात्र जड़ पदार्थों को ही विषय बना पाया है,क्योंकि प्रत्येक जड़ पदार्थ में रूप,रस,गन्ध,वर्ण और स्पर्श पाया जाता है।लेकिन इन रूप, रस आदि से रहित उस आत्म तत्व को नहीं खोज पाया,क्योंकि वह इंद्रियों का विषय नहीं बनता।वह आत्म तत्व तो योगिगम्य है, योगी मुनिजन ही उसका अनुभव कर पाते है। एक व्यक्ति ने गुरुदेव के श्री मुख से आत्मा की चर्चा सुनी और बाद में आचार्य भगवन से पूछा- हे गुरुदेव! आत्मा को कैसे जाना/पाया जा सकता है?यह प्रश्न सुनकर गुरुदेव ने 2 प्रकार की पद्धतियां बतलाई। आत्मा को जानने की पहली पद्धति है:नेगेटिव-वह यह है कि पांच इंद्रियों के द्वारा जो देखने में आ रहा है वह आत्मा नहीं है। शरीर सो आत्मा नहीं। दूसरी पद्धति है:पॉजिटिव- वह यह है कि दिखने वाला आत्मा नहीं है, बल्कि जो देख रहा है वह आत्मा है। यानि दिख रहा है शरीर ,लेकिन देख रहा है शरीर के अंदर बैठा आत्मतत्व दर्पण देखना मत छोड़ो लेकिन दर्पण में जो दिख रहा है वह में हूं ऐसा श्रद्धान रखना छोड़ दो क्योंकि तुम चेतन हो जड़ नहीं।। अनुभूत रास्ता पुस्तक से साभार
  16. सत् शिव सुन्दर 1 - न्याय/नीति विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अधिक विलम्ब के कारण कभी-कभी न्याय भी अन्याय-सा लगने लगता है। जो व्यक्ति न्याय का पक्ष लेता है वह अन्याय को ही नहीं वरन् समस्त विश्व को झुका सकता है अपने चरणों में। स्वयं यदि अन्याय करना नहीं चाहते हो तो अन्याय करने वाले का विरोध भी करना चाहिए। आज का न्याय केवल अर्थ के ऊपर आधारित है। अर्थ मिलता है तो परमार्थ को गौण किया जा सकता है, और यदि अर्थ नहीं मिलता है तो उसका विरोध भी किया जा सकता है। जो न्याय नीति के विपरीत चलता है, वह भगवान महावीर के शासन को भी कलंकित करता है। यह भगवान महावीर का दरबार है, इसमें अनीति-अन्याय के लिये स्थान नहीं मिलता। यहाँ तो नीति-न्याय के अनुसार सादगी जीवन से काम लेना होगा। सभी क्षेत्रों में सभी प्रकार की नीतियाँ होती हैं, जो समय-समय पर नष्ट होती रहती हैं, बदलती रहती हैं लेकिन आत्मनीति एक ऐसी नीति है, जो कभी नष्ट न हुई है न होगी। पेट भरने की चिन्ता करो, पेटी भरने की नहीं। पेट फिर भी न्याय-नीति से भरा जा सकता है किन्तु पेटी नियम से अन्याय/अनीति के द्वारा ही भरी जायेगी। किसी कार्य में समय देना तन, मन, धन से भी अधिक मूल्यवान है। अच्छाइयों के प्रति उदारता एवं बुराइयों के प्रति कृपणता का भाव रखना चाहिए। समझदार भी कभी-कभी मझधार में रह जाते हैं। धन का आकर्षण ही धर्म का अवरोधक है। जिस कार्य में व्यक्ति की रुचि होती है, उसी ओर उसकी मति और गति होती है। निर्णय के बिना जो मार्ग में आगे बढ़ते चले जाते हैं वे गुमराह हो जाते हैं। पारम्परिक मार्ग का अनुकरण करना ही श्रेष्ठ है। नया रास्ता बनाना स्वयं तथा अन्य सभी के लिये भी हानिप्रद हो सकता है। विपरीत दिशा की ओर नहीं, सही दिशा की ओर हमारे कदम बढ़ना चाहिए। यदि उतावली में हम कोई काम करेंगे तो वह नियम से ठीक नहीं होगा। जिन्दगी कितनी ही बड़ी क्यों न हो समय की बर्बादी से वह भी बहुत छोटी हो जाती है। अपात्र जनों को बहुमान देने से गुणीजनों के गौरव में क्षति पहुँचती है। विपत्ति से बढ़कर अनुभव सिखाने वाला कोई विद्यालय नहीं है। बिना जाँचे परखे किसी को भी अपना मित्र बना लेना जीवन की सबसे अप्रिय घटना है। जब नीति रीति प्रीति कुछ भी काम न करे, तब फिर कुछ अलग ही सोचना चाहिए। पथ्य का सही पालन हो तो औषधि की आवश्यकता नहीं और यदि पथ्य का पालन नहीं हो तो भी औषधि सेवन से क्या प्रयोजन ? बुखार के समय यदि ताकत की दवाई दे दी जाए तो बुखार ही ताकत से आयेगा। ठीक ऐसे ही विपरीत बुद्धि वालों को यदि प्रोत्साहन मिले तो उनका अहंकार ही बढ़ता है। मन की खुराक मान है, वह न मिलने पर मन खुरापाती हो जाता है। मनमाना मन तब हो जाता है, जब उसके मन की नहीं होती। जब सुई से काम चल सकता है तो तलवार का प्रहार क्यों? और जब फूल से काम चल सकता है तो शूल का व्यवहार क्यों ? खण्डन की नहीं मण्डन की दृष्टि रखने से खण्डन में भी मण्डन ही नजर आता है। जैसे गाय रूखी-सूखी घास खाकर भी मधुर स्वादिष्ट दूध प्रदान करती है, वैसे ही प्रतिकूल नीरस वचनों को सुनकर हमें भी हितकर वचन बोलना चाहिए। महत्वपूर्ण कीमती वस्तु के लिये हर किसी को किसी भी जगह नहीं दिखाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से उसकी महत्ता में कमी आती है। वोट से भी ज्यादा महत्वपूर्ण सपोर्ट होता है, क्योंकि वोट अपना एक ही होता है, पर सपोर्ट न जाने कितनों का किया जाता है। पक्षाघात रोग से तो शरीर का एक भाग ही जड़ (शून्य) हो पाता है, किन्तु पक्षपात के रोग से तो सारा का सारा शरीर और दिमाग दोनों ही जड़ जैसे हो जाते हैं। पक्षपात एक ऐसा जलप्रपात है, जहाँ पर सत्य की सजीव माटी टिक नहीं पाती बह जाती है, बहकर जाने वह कहाँ जाती है ? पक्षपात एक ऐसी बुराई है जो बुरे को भी अच्छा मानकर स्वीकार करती है। तथा मात्सर्य एक ऐसा भाव है जो निर्दोष और सहजता को भी स्वीकार नहीं कर पाता। मिट्टी के ऊपर ही पानी का सिंचन किया जाता है, पाषाण पर नहीं। ठीक इसी प्रकार पात्र के ऊपर ही उपकार होता है अपात्र पर नहीं। अपराधी के लिये दण्ड देना अनिवार्य है अन्यथा वह अपराधिक प्रवृति में बढ़ सकता है और गुणीजनों को देखकर मुख प्रसन्न होना चाहिए अन्यथा उसके गुणों में विकास नहीं हो सकता। क्रूर अपराध के लिये दण्ड भी क्रूर ही दिया जाय यह कुछ जमता सा नहीं है।
  17. जो जैसा स्वयं जीवन में जीते है,वही औरों को भी उपदेश देते हैं। उनकी कथनी हमेशा करनी से भरी होती है,जो कि हम सभी को अंदर से प्रभावित करती है उनके प्रति श्रद्धान को मजबूत बनाती है। गर्मी का समय था कुंडलपुर में ग्रीष्मकालीन वाचना प्रारंभ हो चुकी थीं। वहाँ पर विशेष रूप से चारों ओर कुंडालकर पहाड़ी होने से गर्मी ज्यादा पड़ती है,वहीं ऊपर पहाड़ पर शौच क्रिया के उपरांत आचार्य महाराज और हम कुछ महाराज पेड़ के नीचे बैठे हुए थे। चर्चा चल रही थी,चर्चा के दौरान आचार्य महाराज ने शिक्षा देते हुए कहा-ऐसे ही जंगलों में,पहाड़ों पर,गिरी-गुफाओं में रहा करते थे।आज हीन सहनन की वजह से नगरों में रहने लगे।आज हम इतनी साधना नहीं कर सकते कोई बात नहीं,लेकिन मौन की साधना एवं नासा दृष्टि रखे रहने की साधना अवश्य कर सकते हैं। नेत्र इन्द्रिय के व्यापार से,इधर-उधर देखने से, पर पदार्थ की ओर दृष्टि ले जाने से राग-द्वेष अधिक होता है एवं बोलने के माध्यम से ही पर का परिचय होता है। जिससे राग-द्वेष बढ़ता है मन में चंचलता आती है। इसलिए नेत्रेन्द्रिय एवं रस इन्द्रिय पर संयम रखना अनिवार्य है यदि हमने नेत्रेन्द्रिय एवं जिव्हा इन्द्रिय को संयत बना लिया तो समझना आज भी बहुत बड़ी साधना कर ली। आचार्य महाराज प्रायः घण्टो-घण्टो नासा दृष्टि किये हुए,पद्मासन लगाकर ध्यान मुद्रा में मौन बैठे रहते है।और यही हम साधकों से भी उपदेश में रहते हैं। सच है इस कलि काल में भी ऐसी साधना करने वाले साधकों के चरणों में अपना मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है। इनके दर्शन करने से उन जंगलों में रहने वाले मुनियों की याद आती है कि जैसे गुरुदेव हमेशा शहरों से,नगरों से दूर एकांत जंगली इलाके के क्षेत्रों पर जाकर साधना करते है,वे मुनिराज भी ऐसा ही करते होंगे।जैसे हमने शास्त्रों में सुना है,पढ़ा है वैसी ही साधु की अद्भुत चर्या के दर्शन उनके चरणों में आकर करने का सौभाग्य प्राप्त होता है।उन्हें देखकर आंखे तृप्त नहीं होती।ऐसा लगता है हमेशा उनकी वीतराग छवि के दर्शन करता रहूं। (कुंडलपुर) अनुभूत रास्ता पुस्तक से साभार
  18. कार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रन्थ में आचार्य कार्तिकेय स्वामी महाराज कह रहे है कि- "जीवाणं रक्खणम धम्मो" अर्थात जीवों की रक्षा करना धर्म है और धर्म की मूल जड़ गया है। यह सारी बातें ग्रंथों से पढ़ते समय तो बहुत अच्छी लगती है लेकिन वो जीवन में उतारना बड़ा कठिन होता है। आचार्य भगवन श्री विद्यासागर जी महाराज के अंदर हमने यह करुणा और दया देखी है जिसको देख कर मन उनके प्रति श्रद्धा से भरकर प्रफुल्लित हो जाता है। सन 2000 मई जून के महीने का यह प्रसंग जब राजस्थान प्रांत में पानी की बहुत कमी होने से वहां के जानवर भूख और प्यास से मरने लगे,यहां तक कि वहां के किसान उन जानवरों को बिना पैसे में ही देने को तैयार थे, लेकिन कोई लेने के लिए तैयार नहीं था। आचार्य भगवन को जब यह बात मालूम पड़ी तो उन्होंने एक-दो ब्रहमचारी भाइयों को बुलाकर कहा - आप लोग राजस्थान जाकर वहां के जानवरों को यहां MP में लाकर गौशाला आदि में सब जानवरों को भिजवा दो। आचार्य भगवन का आशीर्वाद लेकर ब्रह्मचारी भैया राजस्थान पहुंचे और सैकड़ों जानवरों को अजमेर (राजस्थान) में इकट्ठा करना शुरु कर दिया, जब राजस्थान और आसपास के प्रमुख गणमान्यों को ( जो आचार्य श्री जी से जुड़े हुए व्यक्ति थे ) यह मालूम चला कि - यह सारे जानवर आचार्य श्री जी की आशीर्वाद से mp में गौशालाओं में जाना है, तो उन लोगों ने एक पूरी की पूरी ट्रेन मालगाड़ी भारत सरकार से लिखा पढ़ी करवाकर बुक कर ली और उन सैकड़ों जानवरों को सारे डिब्बों में धीरे-धीरे भरकर उन डिब्बों में पानी घुसा आदि की व्यवस्था भी कर दी ( क्योंकि यह ट्रेन अजमेर से पेंड्रास्टेशन आने में 3 दिन लगते हैं ) उस समय आचार्य भगवन अमरकंटक में विराजमान थे, उन्हे जब मालूम चला कि अजमेर से गायों को भरकर पूरी ट्रेन आ रही है और 3 दिन में पेंड्रा स्टेशन पर आ जाएगी क्योंकि अमरकंटक से पेंड्रा स्टेशन मात्र 50 किलोमीटर दूरी पर ही था,आचार्य भगवन ने सोचा चातुर्मास स्थापना का समय करीब में है इसलिए पेंड्रा स्टेशन पर चलकर गायों को देख लेंगे। इसके बाद आगे चले जाएंगे इस सोचकर उसी दिन उन्होंने अमरकंटक से विहार कर दिया। 3 दिन में आचार्य भगवन पेंड्रा संघ सहित पहुँच गये, चूंकि मंदिर के पास ही स्टेशन था और स्टेशन के बाहर ही प्रवचन के लिए मंच बनाई गई आचार्य भगवन के अंदर उन सैकड़ों गायों को देखने की भावना थी इसलिए पैर दर्द ज्यादा ध्यान ना देकर दोपहर में मंच पर पहुंच गए और प्रवचन पूरे ही नहीं हो पाए कि उसी दिन अजमेर से 3 दिन में चलकर गायों से भरी ट्रेन ( उसी दिन आचार्य श्री जी का दीक्षा दिवस भी था ) आ गई सारे श्रावकों ने ताली बजा दी आचार्य भगवन ने प्रवचन पूरे करके स्वयं स्टेशन पर जा कर डिब्बों में सुरक्षित जानवरों को देखकर बहुत बहुत प्रसन्न हुए सारे जानवरों को आशीर्वाद दिया।आचार्य भगवन के सामने उन डिब्बों से धीरे-धीरे गायों का निकाल कर सुरक्षित पहुँचाया गया। "धनि धन्य है आचार्य भगवन के अंदर की सोच, करुणा,दया और परोपकार की भावना जबकि आज का मनुष्य मनुष्य के प्रति अच्छे भाव नहीं ला पाते।ऐसे समय में दूसरे प्रदेश से सैकड़ों जानवरों को बुलाकर उनको गौशालाओं में सुरक्षित रखना कितना बड़ा कार्य है इसके बाद आचार्य भगवन के उपदेश से तथा आशीर्वाद से बहुत सारे स्थानों पर लगभग 100 से ज्यादा गौशालाओं का निर्माण करा कर उनमें मूक जानवरों को शरण देकर उनकी रक्षा हो रही है यह सब गुरुदेव की अनुकंपा का फल है।और उनके जीवन में ही है जिनवाणी…
  19. श्री धवलाजी ग्रंथ की वाचना चल रही थी। आचार्य महाराज श्री ने कहा- पंडित जगन्मोहन लाल जी कटनी वालों ने एक दिन मुझे बताया कि- एक कोई व्रद्ध महान ग्रंथ को पढ़ रहे थे तो मैंने पूँछ- समज में आ रहा है, जो भी आप पढ़ रहे है। वृद्ध ने कहा ,हाँ इतना समज में आ रहा है कि-हम पढ़ रहे है, हमे तो स्वाध्याय करना है बस। गुरुदेव ने आगे बताया कि- बात सच है, जो केवलज्ञान के द्वारा जाना गया है वह हम पूर्ण नही जान सकते इसलिए यह प्रभु की वाणी है। ऐसा श्रद्धान रखकर पढ़ते जाना चाहिए क्योंकि ये तो मंत्र जैसे है। आचार्यो के प्रत्येक शब्द मंत्र हुआ करते है। मैंने मंगलाचरण किया, एक विद्वान वही बैठे थे। मैंने मंगलाचरण में णमो अरिहंताणं बोला- तो वे विद्वान बोले आपके मुख से ये मंत्र सुनने में भी आनंद आता है। आचार्य श्री ने बताया कि - मानसिक मंत्र तो और भी अधिक आनंद देता है क्योंकि, मन की एकाग्रता से वचन, काय में भी एकाग्रता आ जाती है। जब वीतरागी गुरु का दर्शन ही आनंददायी होता है और फिर जब उनके मुख से शब्द, मंत्र सुनने मिल जावे तो फिर कहना ही क्या। गुरुओं ने हमारे ऊपर महान उपकार किये है जो करुणा भाव से ग्रथों की रचना की। इसलिए हमारा भी कर्तव्य बनता है कि हम भी समय निकालकर शास्त्रों का स्वाध्याय अवश्य करे, क्योंकि स्वाध्याय ओर साधु संगति हमारे मन को धोने के लिए साबुन और पानी का काम करते है। वर्तमान समय मे विपरीतताओं में जीवन को सम्बल मात्र स्वाध्याय से ही प्राप्त हो सकता है साधु संत कर्त शास्त्र का, सदा करो स्वाध्याय। ध्येय,मोह का प्रलय हो, ख्याति लाभ व्यवसाय।। 21 नवम्बर 2002 अनुभूत रास्ता पुस्तक से साभार
  20. शीतकाल में भोजपुर क्षेत्र पर सारा संघ विराजमान था। प्रकृति के बीचों- बीच श्री शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरनाथ भगवान का मंदिर है। मंदिर प्रांगण से ही लगा हुआ जंगल है, बहुत विशाल-विशाल चट्टानें है। चारो ओर हरियाली ही हरियाली नजर आती है। वहाँ बैठते ही ध्यान लग जाता है, ध्यान लगाने की जरूरत नही पड़ती । वहीं जिनालय से कुछ दूरी पर एक दो मंजिल का।महल है, जो खण्डहर हो चुका है। उसमे आज भी सुंदर कलाकृति बानी हुई है। एक दिन आचार्य महाराज उस कलाकृति को देख रहे थे, उन्होंने कहा- इतना विशाल महल, इतनी अच्छी कलाकृतियां किसने बनवाई होगी, उसका कही नाम तक नही लिखा। "आज लोग मंदिर की दो सीढ़िया लगवा देते है तो नाम लिखवा देते है, पर इस महल को किसने बनवाया नाम ही नही ओर वे भी नही रहे"। और बारह भावना की पंक्ति पढने लगे "कहाँ गये चक्री जिन जीता, भरत खण्ड सारा"। सच बात है महान चक्रवर्ती छः खण्ड के अधिपति का भी नाम नही रहा, वे भी चले गये, फिर भी प्राणी अपने नाम के लिए दान करता है। ध्यान रखो - नाम के लिए दिया गया दान दान नही मान है। दान में समर्पण का भाव होना चाहिए, प्रतिफल की आकांक्षा नहीं रखना चाहिए। दान करने से दान का लोभ कम होगा, लेकिन नाम का लोभ बढ़ गया और नाम की कामना से मान कषाय भी बढ़ गयी इसलिए जिससे कषाय का त्याग हो वही सही त्याग माना जाता है जिससे कषाय में वृद्धि हो वह दान नही माना जा सकता । मान बधाई कारणे, जो धन ख़र्चे मूढ़। मर के हाथी होयगा, धरती लटके सूढ़।। भोजपुर (2002) अनुभूत रास्ता पुस्तक से साभार
  21. संसारी प्राणी सुख चाहता है, दु:ख से भयभीत होता है। दु:ख छूट जावे ऐसा भाव रखता है। लेकिन दुःख किस कारण से होता है इसका ज्ञान नही रखा जावेगा तो कभीभी दुःख से दूर नही हुआ जा सकता। आचार्य कहते हैं - कारण के बिना कोई कार्य नही होता इसलिए दुःख के कारण को छोड़ दो दुःख अपने आप समाप्त हो जायेगा। सुख के कारणों को अपना लिया जावे तो सुख स्वतः ही उपलब्ध हो जावेगा। दुःख की यदि कोई जड़(कारण) है तो वह है परिग्रह। परिग्रह संज्ञा के वशीभूत होकर यह संसारी प्राणी संसार मे रूल रहा है, दुःखी हो रहा है। पर वस्तु को अपनी मानकर उसे ममत्व भाव रखता है यही तो दुःख का कारण है। आचार्य महाराज ने परिग्रह त्याग के बारे में बताया कि एक बार कुम्हार गधे के ऊपर मिट्टी लाद कर आ रहा था। वह गधा नाला पार करते समय नाले में ही बैठ गया। मिट्टी धीरे-धीरे पानी मे गलकर बहने लगी। उसका परिग्रह कम हो गया ओर उसका काम बन गया, उसे हल्कापन महसूस होने लगा। फिर हँसकर बोलेc- जब परिग्रह छोड़ने से गधे को भी आनंद आता है तो आप लोगों को भी परिग्रह छोड़ने में आंनद आना चाहिए। वहाँ बैठे श्रावक आचार्य भगवन् के कथन का अभिप्राय समाज गये और सभी लोग आनंद विभोर हो उठे। हँसी-हँसी में गुरुदेव से इतना बड़ा उपदेश मिल गया कि - यदि इसे जीवन में उतारा जावे तो संसार से भी तरा जा सकता है और शाश्वत सुख को प्राप्त किया जा सकता है। छपारा पंचकल्याणक (20.1.2001) अनुभूत रास्ता पुस्तक से साभार
  22. अमूल्य का अर्थ स्पष्ट है, जिसका कोई मूल्य नही आंका जा सकता उसे अमूल्य कहते है। अमूल्य वस्तु को पाना बहुत दुर्लभ होता है उसका समीचीन उपयोग कर पाना और ही दुर्लभ हुआ करता है। संसार मे प्रत्येक वस्तु का मूल्य हो सकता है लेकिन जिनके माध्यम से संसार सागर से पार उतरने की कला सीखी जाती हो वह तो अमूल्य ही होता है। देव-शास्त्र गुरु हमारे आराध्य हैं और पूज्यनीय हैं। इसलिए वे हमारे लिए हमेशा अमूल्य हैं। जहाँ पर श्रद्धा जुड़ जाती है ,अपनत्व होता है, वहाँ कीमत वस्तु नही रह जाती है, वह अमूल्य हो जाता है। उनके सामने तो संसार की सारी संपत्ति तृण के समान प्रतीत होती है। आज शास्त्र (ग्रंथ) पर मूल्य/ कीमत डाली जाती है जो कि शास्त्र का मूल्य कम कर देती है, अमूल्य जिनवाणी पर अभी भी मूल्य नही डालना चाहिए। परमपूज्य आचार्य गुरूदेव ने एक दिन जिनवाणी की विनय कैसे करना चाहिए समजाते हुए कहा - की जिसको हम पूज्य मानते है उसका व्यवसाय नही करना चाहिए। "जिनवाणी पर मूल्य नही लिखा जाना चाहिए" जैसे माँ के प्रति बहुमान होता है, उससे भी ज्यादा बड़कर जिनवाणी माँ के प्रति आदर/बहुमान होना चाहिए। पूज्य गुरुदेव के इस बात से हमे यह शिक्षा लेनी चाहिए कि कभी-भी कोई भी पुस्तक हो धार्मिक ग्रंथ हो उसपर मूल्य नही डालना चाहिए। कभी भी इन शास्त्र आदि उपकरणों का व्यवसाय नही करना चाहिए। श्रद्धा के साथ इनकी विनय करना चाहिए। तभी हम इनसे समीचीन फल प्राप्त कर सकते है एवं अपनी श्रद्धा को सुरक्षित रख सकते है। क्योंकि अमूल्य पर मूल्य डालना अमुल्य का मूल्य नही समजना है। छपारा (10.1.2001) अनुभूत रास्ता पुस्तक से साभार
  23. हम सब संसार मे रहकर रोज, प्रतिदिन संसार की वस्तुओं को देखते है लेकिन हमारी दृष्टि उस ओर नाही जा पाती। ये वस्तुयें हमे संसार की नश्वरता का बोध कराती है। यदि हम चाहे तो प्रत्येक वस्तु से या घटना से कुछ सिख सकते है, वैराग्य प्राप्त कर सकते है, लेकिन हमारी दृष्टि उस वस्तु के स्वरूप की ओर जाना चाहिए तभी संभव है। सर्वोदय तीर्थक्षेत्र अमरकण्टक 12.10.2003 रविवार की बात है में शाम को छत पर खड़ा था। सूर्य अस्त होता होता जा रहा था उसी ओर ध्यान लगाये था की इतने में आचार्य महाराज भी छत पर पधार गये कहने लगे कुंथु क्या देख रहे हो ? मैंने नमोस्तु करते हुए कहा - देखो आचार्य श्री जी ! सूर्य आधे से ज्यादा डूब गया, थोड़ी देर बाद अस्त होने वाला है। तब आचार्य महाराज जी ने कहा- "ऐसा ही हमारा जीवन है कब अस्त हो जावे पता ही नहीं।" इससे सिद्ध होता है कि आचार्य महारज की दृष्टि हमेशा वस्तुओं में तत्व एवं वैराग्य की बात ही देखा करती है। किसी ने कहा भी है कि "साधु की दृष्टि में, आँखों मे हमेशा वैराग्य रहता है।" यदि कोई व्यक्ति जीवन मे घटित होने वाली किसी भी घटना को बारीकी से लेता है तो वह घटना उसके जीवन में आध्यत्म घटित कर जाती है। उसके अंदर एक वास्तविकता का जन्म हो जाता है, शाश्वत की प्यास जागती है। राजमार्ग से महाराजमार्ग के ओर बढ़ जाता है। संसार मे वैसे तो घटनाओं का घटनाक्रम चल ही रह है लेकिन इस घटनाक्रम के चलते यदि जीवन मे कुछ अभूतपूर्व घटित हो जाता है तो फिर कहना ही क्या? फिर तो उसका संसार चक्र हीघट सकता है । ऐसी घटना सभी के जीवन मे घटित हो एवं उसे देखने की दृष्टि भी उपलब्ध हो। सर्वोदय तीर्थक्षेत्र अमरकण्टक 12.10.2003 अनुभूत रास्ता पुस्तक से साभार
  24. गर्मी का समय था, उन दिनों में मेरी शारीरिक अस्वस्थता बानी रहती थी। मैं आचार्य महाराज के पास गया और अपनी समस्या निवेदित करते हुए कहा - आचार्य श्री जी! पेट मे दर्द(जलन)हो रहा है। आचार्य महाराज ने कहा - गर्मी बहुत पड़ रही है, गर्मी के कारण ऐसा होता है और तुम्हारा कल अंतराय हो गया था इसीलिए पानी की कमी हो गई होगी सो पेट मे जलन हो रही है कुछ रुककर गंभीर स्वर में बोले की - क्या करे यह शरीर हमेशा सुविधा ही चाहता है लेकिन इस मोक्षमार्ग में शरीर और मन की मनमानी नही चल सकती। "वहिर्दुः खेषु अचेतनः" अर्थात् बाहरी दुख के प्रति अचेतन हो जाओ उसका संवेदन नही करो सब ठीक हो जाएगा। आचार्य श्री के एक वाक्य में पूरा सार भरा हुआ है; हमे यह श्रद्धान कर लेना चाहिए की मोक्षमार्ग में मन और शरीर को सुविधा नही देना है बल्कि मन और इंद्रियों में रखकर नियंत्रण में रखकर समाता भाव बनाये रखना है। वे हमेशा चाहे अनुकूल-प्रतिकूल कैसी भी पतिस्थिति रही आवे, मन मे समता का भाव बनाए रखते है और चेहरे पर कभी प्रतिकत जैसे भाव दिखाई नही देते। वश में हो सब इन्द्रियाँ, मन पर लगे लगाम। वेग पढ़े निर्वीग का, दूर नही फिर धाम।। अनुभूत रास्ता पुस्तक से साभार
  25. किसी सज्जन ने आचार्य भगवन् से कहा - आज पुनः देश भोग से योग के ओर लौट रहा है। आज जगह जगह योग शिबीर आयोजित किये जा रहे है। योगासन के माध्यम से लोगो को रोग मुक्त किया जा रहा है। बड़ी से बड़े बीमारियों से लोगो को योगासन से लाभ मिल रहा । आज योग शिक्षा के क्षेत्र में देश बहुत ध्यान दे रहा है। आज योग का क्षेत्र अंतराष्ट्रीय हो गया है। यह सब आचार्य महाराज चुपचाप सुनते रहे फिर मुस्कुरा कर बोले क "योग का क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय नही अन्तर्जगत है" योग लगाने का अर्थ है मन-वचन-काय की प्रवृति को बाह्य जगत से हटाकर अन्तर्जगत के ओर ले आना । यह कितनी गंभीर बात गुरुदेव के श्री मुख से हमे उपलब्ध हुई है, आज की सबसे बड़ी योग साधना यही है अंतदृष्टि का प्राप्त होना। इस बहिर्मुखी आत्मा को अंतर्मुखी बनाने का एकमात्र उपाय है योग के माध्यम से मन-वचन-काय एकाग्र करना और आत्मा को ध्यान का विषय बनाना। (अतिशय क्षेत्र बीना बाहरा जी 30-08-2005) अनुभूत रास्ता पुस्तक से साभार
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