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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. ज्ञानी विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार संसार में सुख जब चाहें जैसा चाहे, जितना चाहे नहीं मिल सकता, इस सत्य को जानकर ज्ञानी पुरुष इसकी ओर पीठ दिखाकर चले गये। ज्ञानी के लिए मृत्यु को आँखों से देखने का सौभाग्य सल्लेखना के समय प्राप्त होता है। जिससे हमारे दोष धुलें, कटें वे शत्रु कैसे ? ऐसा ज्ञानी सोचता है। वह कहता है तुमसे मेरे कर्म कटे तुमको मुझसे क्या मिला ? ज्ञानी जीव इस शरीर से आकर्षित नहीं होता वह इस बात को जानता है कि शरीर हमारे सारे सत्कर्म (पुण्य) को जला देता है। वस्तु स्वरूप ज्ञात होते ही ज्ञानी जीव प्रत्येक क्षण का उपयोग आत्महित में ही करता है। ज्ञानी की दृष्टि में संसार की धन सम्पदा का कोई मूल्य नहीं रह जाता, क्योंकि उसे आत्म वैभव का परिचय हो जाता है। यौवन अवस्था में संयम को धारण करने वाले प्रशंसनीय हैं और वही इस लोक में ज्ञानी है। बैंक का मैनेजर अरबों की सम्पति के बीच में रहता है, लेकिन उसे अपनी सम्पति नहीं मानता। ठीक वैसे ही संसार विषयों के बीच में रहकर भी ज्ञानी उनसे प्रभावित नहीं होता, पर पदार्थ को अपना नहीं मानता। ज्ञानी लोग मोह रूपी मगरमच्छ के जबाड़ (मुख)में जाना नहीं चाहते, यह उनकी प्रौढ़ साधना मानी जाती है। ज्ञानी व्यक्ति तत्वचिंतन के माध्यम से संसार के दु:ख को दुःख न समझकर सुख से जीवनयापन करता है। जब ज्ञानी कर्मों के उदय में तत्वचिंतन करने लगता है, उस समय कर्मोदय गौण हो जाता है, उसके संवेदन से बचा रहता है और नूतन कर्म बंध भी नहीं होता। ज्ञानी सोचता है एक न एक दिन वृद्धावस्था तो आनी ही है इसलिए ज्ञान और तत्व के साथ वृद्ध होना अच्छा है। ज्ञानी हंस के समान है, जो विषय रूपी कमल पत्र पर आसक्त नहीं होते। जबकि अज्ञानी भौंरे के समान उसमें आसक्त होकर जीवन खो देते हैं। चार संज्ञाओं के वशीभूत नहीं होना, तीन अशुभ लेश्याओं में नहीं जाना, इन्द्रियों के विषयों से एवं आर्त, रौद्र ध्यान से बचना तथा ज्ञान का दुरुपयोग नहीं करना सम्यग्ज्ञानी का लक्षण है। गाड़ी चलाते समय ड्रायवर किसी से बात नहीं करता क्योंकि उसे दुर्घटना से बचना होता है। इसी प्रकार ज्ञानी जीव हमेशा सावधान रहता है, आस्रव रूपी दुर्घटना (द्वार) से बचता है। आग के सम्पर्क में आते हुये भी हम आग को नहीं खाते, वैसे ही ज्ञानी जीव मोही के सम्पर्क में रहकर भी उनसे प्रभावित नहीं होते। कर्मों के अनुरूप ही नौ कर्मों का समागम होता है। इसलिए ज्ञानी धैर्यशाली कर्म की ओर दृष्टि रखता है, अच्छे-अच्छे कर्मों में मन लगाता है, फिर उसे उसके अनुरूप अच्छी-अच्छी वस्तुएँ प्राप्त होती जाती हैं। जो पराई वस्तु को अपनी नहीं मानता वह ज्ञानी माना जाता है। ज्ञानी वही है, जो मोह के क्षय का प्रयास करता है। मजबूत श्रद्धान वाला मोह की पर्त को जल्दी हटा देता है, जो हमेशा दोषों के उन्मूलन में लगा हो, वही सच्चा ज्ञानी है। बुद्धिमान वही है, जो सद्गति के कारणों में लगा रहता है। वे विरले ही होते हैं, जो अपने जन्म को सफल बना लेते हैं। संसार का मार्ग चौरासी लाख स्टेशनों वाला है, इसमे जीव आते जाते है, इसमे ज्ञानी विस्मय नहीं करता। वह तो आत्महित की ओर बढ़ता चला जाता है, ये सब पूर्व कर्मों का फल है, ऐसा श्रद्धान बनाते हुए इस चक्कर से छूटने का प्रयास करता रहता है। तत्व ज्ञानी का मन समस्त परिस्थितियों में स्थिर ही बना रहता है। वस्तु का परिणमन उसके स्वरूप के अनुसार होता है, अपने मन के अनुरूप नहीं। ऐसा विचार कर ज्ञानी जीव कर्ता बुद्धि को छोड़कर ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव की ओर चला जाता है। ज्ञानी सोचता है वस्तु के परिणमन के बारे में, यह चर्म चक्षुएँ काम नहीं कर सकतीं यह मात्र श्रद्धान का विषय है। क्योंकि वस्तु के सूक्ष्म परिणमन को केवलज्ञानी ही देख एवं जान सकते हैं। ज्ञानी की दृष्टि में जीवन-मरण, आकांक्षा-भय ये सब समाप्त हो जाते हैं, उनकी दृष्टि तो ध्रुव की ओर ही होती है। जैसे पुराने वस्त्र छोड़ते समय दु:ख नहीं होता, वैसे ही ज्ञानी को सल्लेखना के समय शरीर छूटने का दु:ख नहीं होता, इसलिए सल्लेखना के बाद मृत्यु महोत्सव मनाया जाता है। ज्ञानी हमेशा जन्म-मरण में, सुख-दु:ख में साम्यभाव रखते हैं। औदारिक शरीर से ज्ञानी, आत्मा की साधना करता रहता है, जीने मरने की इच्छा नहीं रखता। जिसने कषायों का शमन और इन्द्रियों का दमन कर दिया, वह सबसे बड़ा ज्ञाता है, ज्ञानी है। जिसने पाप को शत्रु समझकर छोड़ दिया और कषायों के शमन में लग गया, वही ज्ञानी माना जाता है। पर के मंथन से श्रुत नहीं मिलता जैसे नीर के मंथन से नवनीत नहीं मिलता ज्ञानी ऐसा श्रद्धान रखता है। ज्ञानी के कर्म के संवर को कोई नहीं रोक सकता और अज्ञानी के कर्म आस्रव को भी कोई नहीं रोक सकता क्योंकि ये सब अपने-अपने भावों पर आधारित है। मेरा मुझसे मेरे द्वारा ही होता रहता है, ज्ञानी ऐसा श्रद्धान रखता है। ज्ञानी विवेकी वही है, जो कषाय का हमेशा शमन करता रहता है। श्वान पत्थर पर टूटता है, मारने वाले पर नहीं। यह अज्ञानी की वृत्ति है। जबकि सिंह पत्थर पर नहीं, पत्थर मारने वाले पर टूटता है यह ज्ञानी की वृत्ति है, यह कार्य-कारण का सही ज्ञान है। जब तक सल्लेखना न हो जाये तब तक अतिविश्वास में नहीं आना चाहिए, हमेशा सावधानी रखना चाहिए। भले ही कोई ज्ञानी क्यों न हो, लेकिन वह आशा रूपी देवी को अपने पास रखता है तो उसे जीवन में कभी भी शांति का अनुभव नहीं हो सकता।
  2. अनंत जलराशि का वाष्पीकरण होता है सूर्य के प्रताप से और वह बादलों में ढल जाता है पुन: वर्षा के जल के रूप में नीचे आ जाता है, पर्वत के शिखर पर भी क्यों न गिरे, वहाँ से वह नीचे की ओर ही बहता है। जल जब तक द्रव रूप में रहेगा तब तक वह नीचे की ओर ही बढ़ेगा, किन्तु जब हम उसे रोक देते हैं तो वह रुका हुआ मालूम पड़ता है किन्तु वह रुकता नहीं है। अभी उड़ीसा की तरफ से हम आ रहे थे! वहाँ पर संबलपुर के पास एक गाँव है हीराकुण्ड, वहाँ महानदी को बाँधने का प्रयास इस युग के मानव ने किया है। उस जल को बाँधने के उपरांत भी वह गतिमान है, पहले वह नीचे की ओर जाता था अब ऊपर की ओर बढ़ रहा है। जितनाजितना पानी ऊपर की ओर बढ़ेगा उतना-उतना खतरा उत्पन्न होता जायेगा। बाँध एक प्रकार का बंधन है, जैसे बंधन में बंधा व्यक्ति उग्र हो जाये तो काम बिगड़ जाता है, ऐसा ही बाँध के पानी का है, इसलिए बाँध पर 'खतरा' लिखा हुआ रहता है। पहले जब पानी सहज गति से बहता था तो कोई खतरा नहीं था बल्कि देखने योग्य मनोरम दृश्य था, लेकिन अब खतरा हो गया। एक भी ईट या पत्थर खिसक जाए तो क्या दशा होगी? जो जल ऊपर की ओर बढ़ रहा है उसे रोका नहीं गया है, मात्र रास्ता बंद किया है और जब किसी का रास्ता रोका जाता है तो वह अपने विकास के लिए प्रयत्न करता है, अपनी शक्ति का प्रयोग करता है और ऐसा होने से संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है, नदियों के साथ संघर्ष नहीं है पर बाँध के साथ संघर्ष है। हम जब छोटे थे तब खेत में जाकर देखते थे, वहाँ पर किसान लोग चरस चलाते थे, पानी आता था और बने हुए रास्ते से गुजरता हुआ चला जाता था, गन्ने के खेत को पानी पिलाया जा रहा था, जहाँ वह जल मुड़ गया था उस मोड़ पर वह किसान बार-बार मिट्टी के ढेले डाल देता था, कभी-कभी गन्ने के छिलके भी लगाता था ताकि मजबूत बना रहे, क्योंकि वहाँ जल टकराता था इसलिए वहाँ संघर्ष था, मिट्टी रुक नहीं पाती थी, जब इतने से जल के साथ सावधानी रखनी पड़ती है तब जहाँ बाँध बनाया जाता है वहाँ कितना बड़ा काम है। यह तो उदाहरण की बात है। ऐसी ही चारों गतियों के प्रवाह में जीव की स्थिति है, वहाँ उसकी शक्ति देखने में नहीं आती, लेकिन जब वह ऊध्र्वगमन करने लगता है तब शक्ति देखने में आती है, आणविक शक्तियों से भी बढ़कर काम करने वाली यह शक्ति है, अपने उपयोग को ऐसा बाँध दिया जाए कि कर्म की चपेट से बच सकें तो जीवन का प्रवाह ऊध्र्वगामी हो जाता है और धीरे-धीरे सिद्धालय की ऊँचाईयाँ छू लेता है। यह बड़ी मेहनत का काम है बड़े-बड़े इंजीनियर भी इसमें फेल हो जाते हैं। बहुत साधना के उपरांत भी सफलता मिले यह जरूरी नहीं है। बाँध बनाते समय सारी साधना, आत्मविश्वास और साहस के साथ इंजीनियर कार्य करता है लेकिन असाता कर्म का प्रवाह आते ही सारे के सारे खंभे गिर जाते हैं। इस युग के अंतिम तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी को भी इस प्रवाह को रोकने और आत्मा को ऊध्र्वगामी करने के लिए पूरे बारह वर्ष लग गए थे। आदि ब्रह्मा आदिनाथ को एक हजार वर्ष लग गये थे। वे कितने बड़े इंजीनियर थे, उनकी उस यूनिवर्सिटी को देखने की आवश्यकता है। मैं बार-बार चिंतन करता हूँकि उस यूनिवर्सिटी में हमारा नम्बर आ जाए तो बड़ा अच्छा रहे, वहाँ नंबर आये बिना काम बनने वाला नहीं है, उन्होंने अपने उपयोग रूपी बाँध का निर्माण कैसे किया, वह समझने की बात है। यह जो आत्म-तत्व पानी के समान चारों गतियों में बह रहा है उसे नियंत्रित करना और ऊध्र्वगामी बनाना बड़ा कठिन कार्य है। नदी पर बनने वाले बाँध में तो सीमेंट और पत्थर लगाये जाते हैं लेकिन उपयोग के प्रवाह में क्या लगायें, वह तो एक सेकेंड में बदल जाता है, बाँधते-बाँधते ही रास्ता बदल लेता है, इतने सूक्ष्म परिणमन वाले परिवर्तनशील उपयोग को बाँधना साधना के बिना संभव नहीं है। जब हम स्कूल में पढ़ते थे, तब एक पाठ पढ़ा था। एक ऐसी नदी चीन में है जो रातों रात पाट बदलती है। बहने की दिशा कई बार बदल लेती है, तो लोगों को बड़ी घबराहट हो जाती है, बड़ा खतरा उत्पन्न हो जाता है। मैं बार-बार सोचता हूँकि इतने-इतने छोटे-छोटे प्रवाहों के लिए इतनी साधना की आवश्यकता होती है तब अपने आत्म प्रवाह को बाँधने के लिए कितना पुरुषार्थ करना होगा। भारतीय संस्कृति का इतिहास उज्वल रहा है, भारतीय संस्कृति के अनुरूप वैसे कोई भी कार्य कठिन नहीं है क्योंकि पराश्रित कार्य कठिन हो भी सकता है किन्तु स्वाश्रित कार्य बहुत आसानी के साथ होते देखे जाते हैं। इतना अवश्य है कि ऐसे कार्यों के लिये अपनी ओर देखें, अपनी आत्म-शक्ति को जाग्रत करें और श्रद्धा रखें तो सफलता आसानी से प्राप्त हो जाती है, हमारा जीवन जो भोग-विलास की ओर ढला हुआ है उसे योग की ओर कैसे लाया जाये? क्या पद्धति अपनायी जाये जिससे हमारा प्रवाह भोगों की ओर से हटकर योग की ओर आ जाए? रात-दिन खाने पीने की इच्छा, शरीर को आराम देने की इच्छा, सुनने की इच्छा, सूघने की इच्छा, स्पर्श करने की इच्छा और मन में सभी भोगों का स्मरण चलता रहता है। ऐसी स्थिति में योग कैसे धारण करें? तो इतना ही करना है कि जिस प्रकार आप उस ओर जा रहे हैं, उसी प्रकार इस और आ जायें। उपयोग की दिशा में बदलाव लाना होगा, बड़ा दृढ़ श्रद्धानी और धैर्य वाला उपयोग चाहिए, जो बदलाव के बोझ को सहन कर सके। जैसे आप सीढ़ियों के ऊपर चढ़ते जाते हैं और जरा सा घुमाव आ जाए तो आजू-बाजू सँभालकर चलना होता है उसी प्रकार उपयोग को भोग के धरातल से योग के शिखर तक लाना महान् कठिन कार्य है। सावधानी की बड़ी आवश्यकता है। श्रद्धान दृढ़ बनाना होगा, दिशा का सही चयन करना होगा और विदिशाओं को बंद करना होगा तभी ऊँचाईयों तक पहुँचना संभव है। आज का भारतीय नागरिक भोग की ओर जा रहा है और भोग्य सामग्री को जोड़ता हुआ वह योग को पाना चाह रहा है। योग को पाने के लिए भोग का वियोग करना होगा, उसे एकदम विस्मृत करना होगा तभी योग को पाया जा सकता है। भोग मेरे लिए अहितकारी है, ऐसा सोचना होगा और अनुभव से ऐसी धारणा बनानी होगी कि भोग मेरा साथी नहीं है, उससे मेरा उद्धार अभी तक नहीं हुआ और कभी भी नहीं हो सकता। भोग मेरी दिशा और दशा बदलने वाला है, वह मेरे लक्ष्य में साधक नहीं बल्कि बाधक है। चारों ओर भोगों की ओर जाने वाला उपयोग यदि वहाँ जाना बंद कर दें तो उपयोग की धारा को योग की ओर ले जाना आसान हो जायेगा। जैसे डॉक्टर क्रमशः इलाज करता है और रोगी को रोग-मुक्त कर देता है। ऐसा ही यदि आप चाहें तो क्रमश: भोगों को कम करते-करते उससे पूरी तरह मुक्त हो सकते हैं और अपनी चेतना की धारा योग की तरफ मोड़ सकते हैं, साधना की बात है, अभ्यास की बात है। घुड़सवार होते हैं, घोड़े के ऊपर बैठ जाते हैं, आपने कभी गौर से देखा हो तो मालूम पड़ जायेगा कि वे घोड़े के ऊपर बैठते नहीं हैं, जब घोड़ा दौड़ता है तो वे घोड़े की पीठ पर लटके पायदान पर पैर रखकर उसके ऊपर सारा वजन डाल देते हैं, लगभग खड़े हो जाते हैं, घोड़ों को काबू में रखने के लिए ऐसा करना अनिवार्य है। इसी प्रकार उपयोग को रोकने के लिए योगीजन प्रयास करते हैं, सतर्क होकर धीरे-धीरे नियंत्रण करते हैं। भारत का प्रत्येक नागरिक भोगों को क्रमश: नियंत्रित करने के लिए ही गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है, विवाह करता है। विवाह की पद्धति के बारे में भारत की प्रथा एक अलग प्रथा है, यहाँ विवाह का अर्थ मात्र भोग का समर्थन करना नहीं है बल्कि भोग को नियंत्रित रखने की प्रक्रिया है। काम को क्रमशः जीतने का एक सीधा—सरल तरीका है विवाह । जो व्यक्ति विवाह के बिना रहना चाहता है उसके लिए योग की साधना अलग है, जिसके माध्यम से वह जीवन की ऊर्जा को ऊध्र्वगामी बनाता है, अपने जीवन में फिर पीछे मुड़कर नहीं देखता। लेकिन इस प्रकार के व्यक्तियों की संख्या अत्यल्प है। बहुसंख्यक लोगों के लिए, जो विवाह की पद्धति अपनाते हैं, उन्हें भी पूर्व भूमिका का प्रशिक्षण लेना चाहिए, जीवन को किस प्रकार ढालना है, इस विषय में आज कोई नहीं सोचता। सोचना चाहिए। यदि माँ-पिता लड़की या लड़के को देखते हैं तो पहले धन नहीं बल्कि उनके चारित्र के बारे पूछताछ करनी चाहिए, भारतीय सभ्यता के अनुसार तो विवाह की यही प्रक्रिया है। इसके बाद ही सम्बन्ध होते हैं। सम्बन्ध का क्या अर्थ है? 'समीचीन रूपेण बंध इति'- समीचीन रूप से बंधने का नाम ही सम्बन्ध है। आज अधिकतर सुनने में आता है कि सम्बन्ध बिगड़ गया, बिगड़ने का कारण क्या है? तो यही कि पूर्वापर विचार नहीं किया और सम्बन्ध तय कर दिया, यही तो मुश्किल है, जो सम्बन्ध होता है वह माता-पिता के द्वारा किया जाता है और वह वर-वधू को मंजूर होता है, वे जानते हैं कि माता-पिता ने हमारे हित के लिए किया है। एक बार की बात है, मुसलमानों के यहाँ शादी थी, पंडाल में वर को बैठाया गया और वधू को बहुत दूर अंदर परदे की ओट में, दोनों पक्षों में मौलवी रखे गये थे, उनके द्वारा पूछा गया कि क्या यह सम्बन्ध दोनों को मंजूर है? तो वे कह देते हैं कि जी हाँ! मंजूर है। यह एक बार नहीं, तीन बार बोलना पड़ता है जैसे आप मन-शुद्धि, वचन-शुद्धि और काय-शुद्धि बोलते हैं। हमने सोचा कि यह तो शपथ हो गयी, सभी के सामने शपथ ले ली ताकि सम्बन्ध पूरी जानकारी के साथ हो। आज तो भारत की क्या दुर्दशा हो गयी है? कभी आपने सोचा कि किस तरह भारतीय सभ्यता टूटती जा रही है विवाह के मामले में, यदि भारतीय सभ्यता से संस्कारित होकर शादी की जाए तो पति-पत्नी दोनों कुछ ही दिनों में भोगों से विरक्त होकर घर से निकलने का प्रयास करते हैं। भोगों को त्यागने की भावना उनके अंदर स्वत: ही आने लगती है और उसके उपरांत आत्मोद्धार करके वे अपने जीवन का निर्माण कर लेते हैं। कुल-परम्परा और संस्कृति का ध्यान रखकर जो विवाह होते हैं उनमें भोग की मुख्यता नहीं रहती। विवाह के समय होने वाले विधि-विधान वर-वधू को सदाचार, विनय, परस्पर स्नेह और व्यसन मुक्त होकर जीने का संदेश देते हैं। सप्तपदी विवाह में सात प्रतिज्ञाएँ दी जाती हैं। जिनका पालन वर-वधू को जीवन-पर्यत करना होता है। विवाह की सामग्री में अष्ट मंगल द्रव्य और विशेष रूप से स्वास्तिक को रखा जाता है। हमने सोचा कि सांथिया के बिना यहाँ भी काम नहीं चलता। स्वास्तिक का अर्थ है 'स्वस्थ अस्तित्व द्योतयति इति स्वास्तिक', अपने अस्तित्व को उद्योत करना, अपने आप को पा लेना। उसका सीधा सा अर्थ यही हुआ कि विवाह के समय कह दिया जाता है कि देखो। तुम दोनों मिलने जा रहे हो लेकिन ध्यान रखना, सब कार्यों को मिल जुलकर करना, अपनी दिशा को नहीं भूलना और ‘स्व” के अस्तित्व को भी कभी नहीं भूलना, यह आत्मा को उन्नत बनाने की प्रक्रिया है। यह एक मात्र अवलम्बन है। जिस प्रकार नदी को पार करते समय नाव की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार जंगल को पार करते समय मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है, किसी सूचना या संकेत फलक की आवश्यकता होती है उसी प्रकार जीवन-साथी के माध्यम से दोनों पार हो जायें भवसागर से, यह परस्पर आलम्बन बनाया जाता है। इतनी ही नहीं, सबसे बड़ा संकल्प तो इस बात का किया जाता है कि 'मातृवत् परदारेषु' अर्थात् एकमात्र पत्नी को छोड़कर अब पति के लिए संसार में जितनी भी महिलाएँ हैं, उनमें अपने से बड़ी को माँ के समान, बराबर उम्र वाली को बहिन के समान और छोटी को पुत्री के समान समझना, ऐसा कह दिया जाता है। और वधू से कहा जाता है कि वर को छोड़कर सबको पिता के समान, भाई के समान या पुत्र के समान जानना, इसके अलावा और कोई राग भाव नहीं आना चाहिए। देखो, कितना अनुशासन है, महानदी असीम क्षेत्र में फैली हुई थी, उसकी शक्ति को एकत्रित करके उस जल का उपयोग करने के लिए बाँध का निर्माण किया गया। जो काम इतनी बड़ी नदी नहीं कर पा रही थी, अब बाँध के द्वारा होने लगा, जहाँ तक वह पानी फैलाना चाहो, फैलाओ। सारा पानी काम आयेगा, क्योंकि बंधा हुआ बाँध है अनुशासित है, अभी नदी के बहते हुए जल से बिजली नहीं बनती थी, अब बाँध के माध्यम से बिजली का भी निर्माण होगा। विवाह का सम्बन्ध भी ऐसा ही अनुशासित बंधन है, जिससे उत्पन्न शक्ति के द्वारा समाज का विकास होगा, वह समाज के उपयोग में आयेगी। प्रत्येक बंधन का उद्देश्य ऐसी शक्ति का निर्माण करना है जो विश्व को प्रकाश दे सके, आदर्श प्रस्तुत कर सके। सब कुछ भूल जाना लेकिन अपने आप को नहीं भूलना, इसी को बोलते हैं दाम्पत्य बंधन, अब दंपत्ति हो गये, अपनी अनंत इच्छाओं का दमन कर लिया, उनको सीमित कर लिया। कभी आपने सोचा कि बाँध कब टूटता है? बाँध उस समय टूटता है जब बाँध बनाने वाले को लोभ आ जाता है, इसी प्रकार आज दाम्पत्य-बंधन के बीच में यदि धन सम्पत्ति का लोभ आ जाता है, लालसा बढ़ जाती है तो दुर्घटना घट जाती है। जिस जल राशि के द्वारा कल्याण होता था, उसी के द्वारा तबाही होने लगती है, परिवार और समाज की बदनामी हो जाती है, बाँध टूट जाने पर पुनः निर्माण उसी जगह संभव नहीं होता, बड़े-बड़े इंजीनियर लोग अपना दिमाग लगा देते हैं, तब भी जोड़ना मुश्किल पड़ता है, वस्त्र फट जाने पर आप जोड़ लगा देते हैं लेकिन पूरी की पूरी मजबूती रहे ऐसा जोड़ लगाना संभव नहीं होता, एक बार सम्बन्ध टूट जाने पर फिर बेमेल हो जाता है वह सम्बन्ध। बंधुओ! भोग से बचकर योग की ओर जाने के लिए एक ऐसा सम्बन्ध विवाह के द्वारा बनाया जाता है कि जिसके उपरांत जीवन का प्रवाह अपने आप ही आगे बढ़ जाये। शरीर भिन्न-भिन्न रहते हुए भी आत्मिक सम्बन्ध ऐसा हो जाए कि जीवन बेजोड़, एक जैसा और अद्भुत महसूस होने लगे। एक गाड़ी में दो बैल जोते जाते हैं, एक बैल यदि पूर्व की ओर जाये और दूसरा पश्चिम की ओर जाने लगे तो बैलगाड़ी का आगे बढ़ना मुश्किल हो जाता है। बैलगाड़ी चलाने वाला कितना भी होशियार क्यों न हो, वह भी परेशान हो जाता है। जब दोनों समान दिशा में चलेंगे तभी जीवन की गाडी चल पाती है, आचार-विचार में ऐक्य होना आवश्यक है, जहाँ ऐक्य है वहाँ जीवन में बहुत अच्छे-अच्छे कार्य हो सकते हैं, जीवन के खंड-खंड नहीं होने चाहिए, जीवन अखण्ड बने, ऐसा भाव बनाना चाहिए। आज की विवाह प्रक्रिया को देखकर लगता है कि व्यक्ति प्राचीनकाल से चली जा रही सही पद्धति को छोड़ते चले जा रहे हैं, धन पैसे का लालच बढ़ता जा रहा है। आज बडी उम्र की कन्याएँ दहेज के कारण तकलीफ पाती हैं, उनका जीवन उनके घर में सुरक्षित नहीं रहता, उन पिताओं पर क्या गुजरती है जिनकी बेटियों के ऊपर आए दिन दुर्घटनाएँ घटती हैं? यह तो वही जानते हैं। अब तो विवाह न होकर यह तो व्यवसाय हो गया है, यह कैसी परम्परा, यह कौन सा आदर्श प्रस्तुत किया जा रहा है पढ़े लिखे आज के समाज द्वारा। अगर कोई कन्या आगे जाकर ऐसा कह दे कि दहेज में हजारों रुपये देकर हमने लड़के को खरीद लिया तो क्या होगा? जीवन पर्यन्त के लिए जो एक ही रहे हैं, क्या इस तरह उनके जीवन में ऐक्य हो जाएगा? क्या जीवन पर्यत वे सुखपूर्वक जी सकेंगे? जो प्रतिज्ञाएँ उन्हें दिलायी जाती हैं उनका कोई अर्थ जीवन में रह जाएगा? कोई अर्थ नहीं रहेगा। ऐसे सम्बन्ध आत्म-कल्याण के लिए बाधक ही बनते हैं। पाणिग्रहण होता है, एक दूसरे का हाथ पकड़कर जीवन भर साथ चलने का संकल्प लिया जाता है, जीवन में कौन-कौन सी घाटियाँ आ सकती हैं, कैसी-कैसी बाधाएँ आ सकती हैं, उन सभी में दोनों मिल जुलकर संतोषपूर्वक आनंद के साथ रहें, दोनों परस्पर सहयोगी बनें, एकता के साथ जिएं, यही भावना होती है, लेकिन अर्थ के प्रलोभन के वशीभूत होकर आज अनर्थ हो रहा है, समाज के द्वारा इस पर अंकुश लगाया जाना चाहिए, मात्र धर्म की चर्चा करने से कुछ नहीं होगा, आचार-विचार में धर्म आना चाहिए। आचार्य उमास्वामी ने लिखा है 'अदत्ता दानं स्तेयं' - देने की भावना नहीं होने पर जो जबर्दस्ती दिलवाया जाये, वह सब चोरी है, पाप है, लड़की का पिता दहेज दे नहीं रहा है, उसे देना पड़ रहा है उसकी देने की इच्छा नहीं है लेकिन भरे पंडाल में उसे देने के लिए मजबूर किया जा रहा है तो यह क्या है? आप भले ही न मानें पर आगम ग्रन्थों में इसे चोरी कहा गया है, पाँच पापों में एक पाप है। आज जिसे आचार्यों ने कन्यादान माना है वह व्यवसाय हो गया है, सौदा हो गया है, चेतना का मोल जड़ के द्वारा किया जा रहा है जो कि मानवता के महापतन का सूचक है। शादी के बाद जब कन्या पति के घर आती है तब गृहलक्ष्मी मानी जाती है, देवी के समान मानी जाती है, कन्यादान देने वाला पिता श्रेष्ठ पात्र को देखकर यह दान देता है ताकि जीवन पर्यन्त उसकी उन्नति हो सुरक्षा हो, दोनों मिलकर आत्म-कल्याण करें, सांसारिक विषय भोगों में ही न फैंसे रहें बल्कि आत्मोद्धार के लिए अग्रसर हों, आत्म-चिंतन के लिए समय निकाल सकें, धर्मध्यान पूर्वक सदाचारमय जीवन व्यतीत करें। यह सारे संस्कार, आचार-विचार आज लुप्तप्राय: हो गये हैं, कोई भी आदर्शमय विवाह देखने में नहीं आता, इतना पैसा कमा करके आप कहाँ रखेंगे? कहाँ ले जायेंगे? यह लोभ धर्म को नष्ट-भ्रष्ट करता चला जा रहा है। सभ्य समाज पर इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा है। समाज में यदि एक भी बुरा कार्य हो जाता है तो उसकी बुरी छाप पूरे समाज में पड़ती है, भाई! यह अर्थ प्रलोभन ठीक नहीं है, भोग सामग्री की लिप्सा आपको कभी योग का स्वाद नहीं लेने देगी। अपने जीवन को ऐसा बनाओ जिससे लोग अच्छी शिक्षा ले सकें। पुराणों में देखो, सद्गृहस्थ का जीवन कितना उज्ज्वल था, कैसी निर्मल साधना थी। एक साधु गेरुआ रंग के वस्त्र पहने हुए थे, हाथ में रुद्राक्ष की माला लेकर प्रभु के ध्यान में तल्लीन थे, मौन साधना चल रही थी, कोई बिना मांगे कुछ दे देता, तो ठीक, नहीं तो मांगने का कोई सवाल नहीं, तभी एक घटना घटी कि आकाश में बादल छा गए और वर्षा होने लगी, तापसी ने ऊपर देखा तो देखते ही बादल फट गये, बरसात बंद हो गयी और आकाश स्वच्छ हो गया, उसे विश्वास हो गया कि साधना पूरी हो गयी है, साधना का फल दिखाई देने लगा। दूसरे दिन की बात है कि वही महात्मा जी एक पेड़ के नीचे बैठे थे, पेड़ की शाखा पर बैठे कबूतर ने उनके ऊपर बीट कर दी, उन्होंने जैसे ही आँख उठाकर कबूतर की ओर देखा और वह कबूतर भस्मसात हो गया, अब उन्हें अपनी शक्ति पर अहंकार आ गया और सोचा कि धीरे-धीरे इसका प्रचार-प्रसार करना चाहिए, चमत्कार सभी को मालूम पड़ना चाहिए, आगे एक गाँव की ओर चल पड़े, वहाँ जब अपने चमत्कार की चर्चा की तो एक व्यक्ति ने कह दिया कि इसमें विशेष बात नहीं है, गाँव में ऐसे मौन साधक बहुत हैं जो घर गृहस्थी में रहकर भी ऐसे चमत्कार दिखा सकते हैं। साधु को आश्चर्य हुआ और सोचा कि चलकर देखा जाए। एक घर के सामने पहुँचकर कहा कि ‘भिक्षां देहि।’- भिक्षा देओ। अंदर से आवाज आ गयी कि ठहरिये, ठहरिये, अभी थोड़ा काम कर रही हूँ, थोड़ी देर ठहरकर साधु से रहा नहीं गया और कहा कि जानती हो मैं कौन हूँ? अब की बार अंदर से धान कूटने का कार्य कर रही महिला ने कहा कि जानती हूँ, मुझे मालूम है आप कौन हैं, पर ध्यान रहे मैं कबूतर नहीं हूँ। अब तो साधु आपे से बाहर हो गया पर ज्यों ही उसने घर के अंदर झाँककर देखा तो दंग रह गया। वह महिला धान कूटते-कूटते पति के लिए कुछ सामान देने उठी तो मूसल यूँ ही छोड़ दिया और चली गयी, मूसल जहाँ छोड़ा था वहीं हवा में स्थिर हो गया, जब वह पति की सेवा से निवृत्त हुई तो मूसल ठीक से संभालकर रखा और साधु के पास पहुँच गयी और कहा कि क्षमा करिएगा महाराज। मैं अपने पति की सेवा में व्यस्त थी इसलिए आपको भिक्षा देने में विलंब हुआ। वह तपस्वी बहुत लज्जित हुआ, उसका क्रोध जाता रहा और उसने कहा कि ‘माई! आपकी साधना अद्भुत है, आपका पतिधर्म श्रेष्ठ है,” सतीत्व के प्रभाव से ही वह मूसल हवा में स्थिर रह गया, ऐसी पतिव्रता स्त्रियाँ होती थी, ऐसा परस्पर प्रेमभाव हुआ करता था, भोग-सामग्री के बीच रहकर भी योगी जैसा जीवन जीते थे और गृहस्थ धर्म के संकल्पों को, कर्तव्यों को भलीभाँति पूरा करते थे, आज भी कुछ भारतीय लोग इन संस्कारों से संस्कारित हैं किन्तु धीरे-धीरे पश्चिमी प्रभाव से सभी प्रभावित हो रहे हैं। गृहस्थाश्रम को भी आदर्शमय बनाने का प्रयास गृहस्थ को करना चाहिए। गृहस्थाश्रम के बाद वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम की ओर गतिशील होना चाहिए, जीवन पर्यन्त जब तक सम्बन्ध रहे तब तक एक होकर रहना चाहिए, जीवन के अंतिम समय में महिलाएँ आर्यिका व्रत ले सकती हैं और पुरुष साधु बन सकते हैं, यदि इस प्रकार की साधना कोई करें तो संसार का अंत होने में देर नहीं है, यही भोग से योग की ओर जाने का एकमात्र यात्रा पथ है, जो इस पथ पर आरूढ़ होता है उसका नियम से इस जीवन में कल्याण होता है और दूसरे के लिए भी आदर्श प्रस्तुत होता है।
  3. रात हो गयी। वर्षाकालीन मेघ-घटाएँ आसमान में हैं, बीच-बीच में बिजली भी चमक जाती है, मेघ गर्जना के साथ मूसलाधार वर्षा होने लगी, किसने अनुमान किया था, किसने जाना था कि यह आने वाला कल, इस प्रकार खतरनाक सिद्ध हो सकता है। दुर्भाग्य का उदय था, वर्षा की रफ्तार तेज होती जा रही थी, जो नदी बहाव बढ़ने से तटों का उल्लंघन कर गयी वह नदी कहाँ तक बढ़ेगी, पानी कहाँ तक फैलेगा, कहा नहीं जा सकता। चारों ओर सुरक्षा की वार्ता पहुँचा दी गयी, लोग अपनी-अपनी सुरक्षा में लग गये, किन्तु एक परिवार इस पानी की चपेट में आ गया। समाचार मिलने के उपरांत भी वह सचेत नहीं हुआ। जो बाँध बांधा था, वह नदी के प्रवाह में टूट गया, बाँध टूटते ही नदी का जल बेकाबू हो गया, बंधा हुआ जल फैलने लगा, मकान डूबने लगे। कुछ लोग जो सूचना मिलते ही घर छोड़कर चले गये थे, वे पार हो गये, जिसने समाचार सुनकर भी अनसुना कर दिया था वह चिंतित हो गया। वह पत्नी से कहता है कि अब हम इस स्थान को छोड़कर कहीं अन्यत्र चलें तो ठीक रहेगा क्योंकि पानी ज्यादा बढ़ रहा है। पत्नी कहती है कि ठीक है, मैं बच्चों को लेकर जाती हूँ, आप भी शीघ्रता करिये । पत्नी बड़े साहस के साथ दोनों बच्चों को साथ लेकर पार हो जाती है और वह व्यक्ति सोचता है कि क्या करूं? क्या-क्या सामान बाँध लें। कहाँ-कहाँ क्या-क्या रखा है वह उसे खोजने में लग जाता है और पानी की मात्रा बढ़ती जाती है। वह सोचता है कि सब सामान छोड़कर भाग जाऊँ तो इसके बिना रहूँगा कैसे ? इसलिए इसे लेकर ही जाऊँगा। वह जान रहा है, देख रहा है कि पानी बढ़ रहा है, औधेरा बढ़ रहा है, वह जानता हुआ भी अंधा बना हुआ है। 'जान बूझ कर अंध बने हैं आँखन बाँधी पाटी। जिया जग धोखे की है टाटी।' संसारी प्राणी की यही दशा है, काल के गाल में जाकर भी सुरक्षा का प्रबंध करना चाहता है। सच सामने खड़ा है और वह सोचता है कि सामान की सुरक्षा कर लं, धरती खिसक रही है और वह विषय सामग्री के संचय में लगा है, वह व्यक्ति धन सामग्री लेकर जैसे ही आगे बढ़ता है, नदी के प्रवाह में बहने लगता है, जो कुछ सामान साथ में लिये था वह भी बहने लगता था, देखते-देखते नदी के प्रवाह में उसका मरण हो जाता है, लेकिन मरणोपरांत भी उनके हाथ से पोटली नहीं छूटती जिसमें उसने सामान एकत्रित किया था, दूसरे दिन शव के साथ पोटली भी मिलती है, तो लोग दंग रह जाते हैं, यह तीव्र मोह का परिणाम है। मोह को जीतना मानवता का एक दिव्य-अनुष्ठान है, इसके सामने महान् योद्धा भी अपना सिर टेक देते हैं। विश्व का कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है जो मोह की चपेट में न आया हो, लेकिन इसके रहस्य को जानकर इस मोह की शक्ति को पहचानकर, इस मोह की माया को जानकर, जो व्यक्ति इसके ऊपर प्रहार करता है वही इस संसार रूपी बाढ़ से पार हो जाता है। यह सन् १९५७ की घटना थी, महाराष्ट्र में पूना के पास एक बाँध था, वह ध्वस्त हो गया था, यह आश्चर्यजनक घटना उस समय अखबारों में पढ़ने में आयी थी, पत्नी और बच्चे सुरक्षित निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच गये लेकिन मोह के कारण वह व्यक्ति बह गया, मोह का प्रभाव जड़ के ऊपर नहीं, चेतन के ऊपर पड़ता है, जीवन के केन्द्र पर चोट करता है मोह। आदमी मोह की चपेट में आकर छोटी-छोटी बातों से प्रभावित हो जाता है और अपने आपको भूल जाता है। प्रत्येक प्राणी जानता है कि मोह हमारा बहुत बड़ा शत्रु है लेकिन मोह से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता। वह दूसरे को उपदेश दे देता है लेकिन खुद सचेत नहीं होता, यही तो खूबी है मोह की। उस घटना को पढ़कर लगा कि बढ़िया तो वही है कि बाढ़ आने से पूर्व ही वहाँ से दूर चले जायें, क्योंकि जब बाढ़ आयेगी तो प्रवाह इतना तीव्र रहेगा कि इसमें हम बच नहीं सकेंगे। जानते हुए भी वहीं रहे आना, इसे आप क्या कहेंगे? यह मोह से प्रभावित होना है, यह स्वयं की असावधानी भी है, 'जानबूझ कर अंध बने हैं', वाली बात है। जो व्यक्ति मोह के बारे में जानते हुए भी, उससे बचने का प्रयास नहीं करता वह संसार सागर में डूबता है। वह व्यक्ति पार हो जाता है जो पार होने का संकल्प और विश्वास अपने अंदर रखता है और निरंतर मोह से बचने के लिए प्रयास करता है। वास्तव में, जिसने जो जोड़ा है उसे वह छोड़ना बहुत कठिन होता है, 'पर' पदार्थों की ओर से आँख मींच लेना आसान नहीं है, जबर्दस्ती कोई आँख मींच लें, ये अलग बात है, आप खेल-खेल में भी आँख मींच सकते हैं, यह भी आसान है लेकिन तब भी काम नहीं बनेगा। पदार्थों से दृष्टि हटाकर आत्मा की ओर ले जाना ही सच्चा पुरुषार्थ है। मोह के ऊपर प्रहार करना, उसे जीतना, इसी का नाम है धर्म कहीं भी किसी भी जगह आप चले जायें, धर्म एक है और एक ही रहेगा। जो तैरना जानता है उसे तैरना आवश्यक होता है, जो तैरना नहीं जानता उसे सीखना आवश्यक होता है, तैरना जानते हुए भी, पार करना जानते हुए भी वह व्यक्ति पार नहीं हो पाया। एक पत्नी थी, दो बच्चे थे, मकान था और वह संग्रहित द्रव्य था, यही उसका जीवन था, संसार था, उसने पत्नी को छोड़ दिया, बच्चों को भी छोड़ दिया, पर धन को नहीं छोड़ सका। अकेला होता तो धन की भी कोई जरूरत नहीं थी किन्तु मन में तो परिवार का ख्याल था, इसलिए धन की आवश्यकता हो गई और मोह का जाल बिछता गया, वह स्वयं ही बिछाता गया और ऐसा बिछाता गया कि पैर रखते ही उसमें फंसता चला गया। यह है व्यामोह की पराकाष्ठा, जहाँ अपने जीवन से भी हाथ धोना पड़ा। इससे बचने के लिए जाग्रति परम आवश्यक है। जाग्रति के अभाव में मोह की चपेट में आ जाने से हमारा आचार-विचार, हमारा दैनिक कार्यक्रम सारा का सारा पराधीन हो जाता है। स्वतंत्रता का एक अंश भी हमारे जीवन में नहीं आ पाता। जैसे मरण से पहले जाग्रति के साथ यदि मरण को पहचानने की कोशिश की जाए तो जन्म मरण से मुक्त हुआ जा सकता है, ऐसे ही मोह को समझने, मोह के परिणामों को पहचानने का प्रयास यदि कोई जागृत होकर करता है तो मोह से बच सकता है। एक बार एक सेठ बीमार पड़ा, बीमार पड़ते ही फोन करके डॉक्टर को बुलाया गया। उसने आकर सेठ को देखा और मन में विचार आया कि बड़े सेठ हैं, सम्पत्ति की कोई कमी नहीं, जो पैसा मुझे अन्य लोगों से मिलना है उससे अधिक यहाँ मिल सकता है। विचार आते ही डॉक्टर साहब बोले कि ‘सेठ जी जो रोग आपको हुआ है वह असाध्य रोग है और इलाज भी क्या करें, मेरी समझ में नहीं आता, रोग पर काबू पाना असंभव सा लगता है।” सुन रहे हैं आप, वह डॉक्टर सब कुछ जानता है कि कौन सा रोग है और कितनी मात्रा में बढ़ा है लेकिन भीतर बैठा हुआ मोह यह सब कहलवा रहा है। डॉक्टर की बात सुनकर सेठजी के लड़के ने कहा कि डॉक्टर साहब, आप निश्चित रहिए और जो इलाज सम्भव हो वह करिए, आप जितना चाहेंगे आपको मिलेगा। और रुपये का बंडल डॉक्टर को दिखा दिया, पर डॉक्टर का मोह और बढ़ गया, उसने कहा कि भारत में इस प्रकार की दवाई मिलना संभव नहीं है, विदेश से मंगानी पडेगी, उसके लिए अधिक खर्च होगा। सेठ के लड़के ने अबकी बार सौ-सौ का एक बंडल और दिखा दिया। यह सब देखकर डॉक्टर सोचने लगा कि देखें कहाँ तक रुपया बढ़ाता है, संभव है। थोड़ा और कहे तो पचास साठ हजार तक बात पहुँच जाए और डॉक्टर ने ऑपरेशन की सलाह दे दी। ऑपरेशन की बात से सभी चिंतित हो गये, सेठ के लड़के ने फौरन एक लाख रुपया डॉक्टर के सामने रख दिया और कहा कि आप ऑपरेशन करिये, पिताजी को किसी तरह बचा लीजिए। अब देखिए, यहाँ क्या होता है, एक लाख का नाम सुनते ही उस डॉक्टर को हार्ट अटैक हो गया। अब सोचिये यह कैसा ज्ञान है जो जीवन के लिए घातक सिद्ध हो गया, जड़ पदार्थ के द्वारा चेतन का विनाश हो गया, यह सब मोह का प्रभाव है- 'मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादी' मोहरूपी मदिरा का नशा संसार के प्रत्येक प्राणी को चढ़ा है फिर चाहे वह इंजीनियर हो, चाहे डॉक्टर हो, चाहे और कोई हो। जिसने इस मोह के रहस्य को पहचाना है उसने अपने जीवन को उज्वल बनाया है, उससे बढ़ कर महान् व्यक्ति इस संसार में दूसरा नहीं है। दुखों की जड़ है मोह-मैं और मेरेपन का भाव। देखना और जानना आत्मा का स्वभाव है किन्तु मोह के वशीभूत होकर संसारी प्राणी शरीर और पर पदार्थों को भी अपना ही समझता है, आप कुछ भी करते हैं, तो क्या कहते हैं, यही कि, मैं बोल रहा हूँ, मैं बैठ रहा हूँ, मैं सो रहा हूँ। बताइये कौन-सी क्रिया के साथ-साथ अपने आपको पृथक् जानते हुए क्रिया करते हैं। सारी क्रियाएँ मैं ही कर रहा हूँ, सभी को यही अनुभव में आता है। कोई ऐसा व्यक्ति है जो यह कहे कि मैं खिला रहा हूँ, मैं सुला रहा हूँ विरले ही लोग हैं जो शरीर से स्वयं को पृथक् अनुभव करते हैं। जितना-जितना शरीर से पृथक् आत्मा के अस्तित्व का अनुभव बढ़ता जाएगा, उतना-उतना मोह के ऊपर प्रहार होता चला जायेगा। मोह को यदि क्षीण करना चाहते हो तो आत्म-तत्त्व को पृथक् जान लो। मरण के उपरान्त सब कुछ यहीं पर रखा रह जायेगा, मात्र आत्मा ही साथ जायेगा। ध्यानपूर्वक इस बात को देखो तो सही कि ऐसा कौन सा गठबंधन है जिससे दो पदार्थों में, शरीर और आत्मा में एकता का अनुभव होता है। शरीर को पड़ोसी समझना बड़ा कठिन काम है। जो सजग होकर वर्तमान का अनुभव करने का प्रयास करते हैं, वे शीघ्र ही समझ जाते हैं कि यह जो कुछ भी जुड़ाव है वह मोह का परिणाम है। शरीर को पृथक् जानकर उसके प्रति मोह ममता घटनी चाहिए और चेतन के प्रति मोह-ममता निरन्तर बढ़ती जानी चाहिए। यही वास्तविक ज्ञान है, वीतराग-विज्ञान है। आज के भौतिकविज्ञान की किसी भी पोथी में यह नहीं लिखा कि देह का अस्तित्व पृथक् है और आत्मा का अस्तित्व पृथक् है। इस प्रकार का भेद-विज्ञान धर्म ग्रन्थों की देन है, जो बताता है कि किस प्रकार शरीर से पृथक् आत्म-तत्व की अनुभूति करना संभव है, लेकिन आज तो जितना-जितना भौतिकता का ज्ञान बढ़ता जा रहा है, उतना-उतना शरीर के साथ सम्बन्ध और जुड़ता जा रहा है। पहले के लोग मोह को उत्पन्न करने वाले पदार्थों के साथ सम्बन्ध कम रखते थे, लेकिन आज का युग विकास के नाम पर मोह का विकास कर रहा है और आत्म-ज्ञान से वंचित होता जा रहा है। दो दोस्त बहुत दिनों के बाद कहीं से आकर मिलते हैं तो चर्चा वार्ता होती है। परस्पर कह देते हैं कि अच्छा-अच्छा मैंने आपको पहचान लिया लेकिन यथार्थ में दोनों ने अपने आपको नहीं पहचाना, मात्र ‘पर' का परिचय बढ़ रहा है। लेन-देन की बातें, आवागमन की बातें और अर्थ के विकास की बातें ये सब मोह की पुष्टि के लिए हैं। अर्थ का विकास मोह का विकास ही है, आज मोह को क्षीण करने के लिए कोई रसायन तैयार नहीं किया जा रहा है, ऐसी स्थिति में शान्ति प्राप्त करना कैसे संभव है? जिस त्याग-तपस्या के रसायन से शरीर और आत्मा को पृथक् किया जाता है उससे यदि आप दूर रहोगे तो शांति नहीं मिलेगी। एक व्यक्ति यात्रा के लिए निकला, उसे पहाड़ के ऊपर चढ़ना था, उसने अपने पैरों में अच्छे जूते पहनकर चलना प्रारम्भ कर दिया, एकाध मील चला होगा कि उसे एक थैला पड़ा मिल गया, थोड़ा भारी था पर देखने में अच्छा था, उसने उठा लिया और इस तरह कंधे पर रख लिया कि जैसे थैले में स्वर्ण आदि श्रेष्ठ वस्तुएँ रखी हों, जैसे-जैसे चढ़ता गया, वैसे-वैसे उसे दिक्कत होने लगी, बोझ अधिक है ऐसा सोचकर उसने अपनी जो दूसरी थैली थी उसे रास्ते में ही छोड़ दिया, थोड़ी देर में जूते भी उतार कर अलग कर लिये और आगे बढ़ते-बढ़ते जब बहुत थक गया तो सोचा, थोड़ा विश्राम कर लू और देखें तो थैले में क्या है? ज्यों ही उसने उस थैले को खोला तो उसमें और कुछ नहीं था एक मात्र पाषाण का टुकड़ा था, चटनी वगैरह पीसने का पत्थर था। यही दशा प्रत्येक संसारी प्राणी की है, जो वास्तव में अपना है, आत्म-तत्व है उसे छोड़कर बाह्य 'पर" पदार्थों को आप उठाकर आगे बढ़ रहे हैं और व्यर्थ बोझ सह रहे हैं। हम दुनियाँदारी की वस्तुओं को अपने ऊपर लादते चले जायें और चाहें कि मोक्ष मिल जाए, मोक्ष का पथ मिल जाय तो संभव नहीं है। ऐसा कोई पथ नहीं है और कोई उपदेश नहीं है जो आपका भार उतार दे। आप संसार का संग्रह करते जायें और मोक्षमार्ग मिल जाये यह कैसे संभव होगा? मोह को समाप्त करना ही मोक्षमार्ग है। मोक्षमार्ग पर चलने के लिए हल्का होना अनिवार्य है, आप यदि तुंबी पर मिट्टी का लेप कर दें तो वह तैरना भूल जायेगी और पानी के अंदर तल में चली जायेगी लेकिन ज्यों ही मिट्टी का लेप हट जाएगा त्यों ही वह पानी के ऊपरी भाग पर आकर तैरने लगेगी। यही स्थिति आत्मा की है। आत्मा संसार के महासमुद्र में डूब रही है और इसका एकमात्र कारण है मोह का बोझ, यदि वह छूट जाये तो हम नियम से ऊपर आ जायेंगे, हमारी यात्रा निबध होगी, यदि आप ऊपर उठना चाहते हो, पीड़ा से छुटकारा पाना चाहते हो तो अपने आप पर स्वयं दया करके मोह को छोड़ने का प्रयास करो। जहर दो तरह का होता है- एक मीठा जहर और एक कड़वा जहर। कड़वा जहर हो तो कोई भी पीते ही थूक देगा लेकिन मीठा जहर ऐसा है कि पीते ही चले जाना आनंददायक लगता है। जब जीवन समाप्त होने लगता है तब मालूम पड़ता है कि यह तो जहर था। मोह ऐसा ही मीठा जहर है, जिसे संसारी प्राणी थूकना नहीं चाहता, इसकी मिठास इतनी है कि मृत्यु होने तक यह नहीं छूटता और दूसरे जीवन में भी प्रारम्भ हो जाता है, भव-भव में रुलाने वाले इस मोह के प्रति सचेत हो जाना चाहिए, तभी मुक्ति की ओर जाने का रास्ता प्रारम्भ होगा, तभी अपने आत्मतत्व की प्राप्ति होगी, अपने-पराये को जानकर पराये के प्रति मोह छोड़ना ही हितकर है। शरीर अपना नहीं है, अपना तो आत्मतत्व है, यदि यह ज्ञान हो जाये तो भी कार्य आसान हो जायेगा। 'स्व” को जानने की कला के माध्यम से 'पर' के प्रति उदासीनता आना संभव है। एक महिला थी और उसके छह बच्चे थे, उनका आग्रह था कि माँ, हमें मेला दिखाओ, उस महिला ने सोचा कि चलो बच्चों का आग्रह है तो दिखा लाते हैं किन्तु अभी बहुत छोटे हैं इसलिए उन्हें प्रशिक्षण देना आवश्यक है और वह उन्हें प्रशिक्षित कर देती है कि देखो, एक दूसरे का हाथ पकड़े रहना, मेले में भीड़ रहती है कहीं गुम न हो जाना अन्यथा हम नहीं ले जायेंगे। सभी ने कह दिया कि आप जैसा कहोगी हम वैसा ही करेंगे, पर हमें मेला दिखा दी, वह महिला सब बच्चों के साथ मेला में जा पहुँची, सबको झूला झुलवाया, खिलौने खरीदे, मिठाई खरीदी, सारा मेला घुमा दिया, बच्चों को बहुत आनंद आया, शाम हो गई तो उसने सोचा अब घर लौटना चाहिए, उसने बच्चों को देखा कि कहीं कोई गुम तो नहीं गया, गिनकर देखा तो छह के स्थान पर पाँच ही थे, दुबारा गिना तो भी पाँच थे। अब वह महिला घबरा गयी। इतना बड़ा मेला और हमारा छोटा सा लड़का, कहाँ खोजें, समझ में नहीं आता, वह रोने लगी, तभी एक सहेली मिल गयी और उसने पूछा कि क्यों बहिन क्या हो गया? तब वह महिला कहती है कि क्या बताऊँ, छह बच्चे लायी थी, पाँच ही बचे है, एक बच्चा भीड़ में खो गया, तब वह सहेली गिनकर देखती है तो सारी बात समझ जाती है और पाँच बच्चों को गिनने के बाद, उस महिला की गोद में सोये हुए बच्चे को थपथपाकर कहती है कि यह रहा छठवाँ लड़का। यही स्थिति सभी की है, जो अत्यन्त निकट है, अपना आत्म-तत्व, उसे ही सब भूले हुए हैं। बाह्य भोग सामग्री की ओर दृष्टिपात कर रहे हैं, उसे ही गिन रहे हैं कि हमारे पास इतनी कारें हैं, इतनी सम्पदा है। सुबह से शाम तक जो भी क्रियाएँ हो रही है, यदि हम जान लें कि सारी की सारी शरीर के द्वारा हो रही हैं और मैं केवल करने का भाव कर रहा हूँ, मैं पृथक् हूँ तो पर के प्रति उदासीनता आने में देर नहीं लगेगी। कठपुतली के खेल के समान सारा खेल समझ में आ जायेगा। शरीर के साथ जब तक आत्मा की डोर बँधी है तब तक संसार का खेल चलता रहेगा और जैसे ही यह डोर टूट गयी तो कठपुतली के समान नाचने वाला शरीर एक दिन भी नहीं टिकेगा। जो ज्ञानी हैं, मुमुक्षु हैं, आत्मार्थी हैं, वे इस रहस्य को जान लेते हैं। जो आस्तिक्य गुण से सम्पन्न हैं वे इस रहस्य को जान सकते हैं। आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास करके ही उस आत्मतत्व को पाया जा सकता है। शरीर को 'पर' मानना, इतना ही पर्याप्त नहीं है, उसके साथसाथ शरीर से मोह भाव को कम करना भी अनिवार्य है, 'पर' वस्तु के प्रति मोह भाव होने के कारण ही हम उसे अपना लेते हैं लेकिन जिस दिन मालूम पड़ जाता है कि यह तो ‘पर' है, तब हँसी आती है कि आज तक हम किसके पीछे पड़े थे। बंधुओ! शरीर की गिनती तो कई बार हो चुकी, जो पर पदार्थ हैं उनकी गिनती भी कई बार हो चुकी लेकिन अपनी गिनती अभी करना बाकी है, मैं कौन हूँ? आज के वैज्ञानिक युग में इसकी खोज भी आवश्यक है, सांसारिक क्षेत्र में पदार्थों को जानने के लिए ज्ञान ही मुख्य माना जाता है लेकिन आध्यात्मिक क्षेत्र में साधना और अनुभूति ही मुख्य है, जिसने अपने आप का अनुभव कर लिया वह 'पर' के प्रति निर्मोही बनता चला जाएगा और एक दिन भगवान् राम के समान, भगवान् महावीर के समान मुक्ति को प्राप्त कर लेगा, संपूर्ण मोह के अभाव का नाम है मोक्ष और मोह के अभाव के लिए क्रम-क्रम से उसे कम करते हुए आगे बढ़ने का नाम है मोक्षमार्ग।
  4. ज्ञान विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार वह सबसे कमजोर ज्ञान माना जाता है जो प्रत्येक ज्ञेय से चिपक जाता है। ज्ञानी ज्ञेय को जानते हुए भी ज्ञेयरूप नहीं होता और ज्ञेय को अपनाता भी नहीं है। सीमा रेखा का उल्लंघन ज्ञेय नहीं ज्ञान करता है और सीमा रेखा का उल्लंघन करने वाला ज्ञान, ज्ञान नहीं अज्ञान माना जाता है। ज्ञेय हमेशा-हमेशा ज्ञेय बना रहता है और ज्ञायक, ज्ञायक बना रहता है, वस्तु वही रहती है, बस हमारा उपयोग बदलता रहता है। दर्शक, दर्शक ही रहता है दृश्यमय नहीं होता। ज्ञेय तो ज्ञेय है, न हेय है, न उपादेय है बल्कि हमारा ज्ञान ही है जो ज्ञेय को हेय/उपादेय रूप स्वीकारता रहता है। ज्ञानी का स्वरूप यही है कि वह संसार कीचड़ में रहकर भी कीचड़पने को आत्मसात् नहीं करता । ज्ञान के माध्यम से तीन लोक की यात्रा एक क्षण में की जा सकती है लेकिन वर्तमान में ज्ञान पर मोह की छाया पड़ी हुई है उसे हटाते ही तीन लोक दर्पण की भाँति झलकने लगता है। ज्ञेय में ज्ञान अटकने से भटकने लगता है। अटका सो भटका। उस दृष्टि का बड़ा महत्व होता है जो ज्ञेय में नहीं अटकती-जैसे गेंद दीवार पर जाकर वापस लौट आती है, बाण उसी में भिंदकर रह जाता है। जिस समय समझना चाहिए तभी समझ में आवे तो समझदार माना जाता है। सही ज्ञान का उपयोग यही है। ज्ञान का फल साक्षात् उपेक्षा है। उपेक्षा का अर्थ दूसरे का अनादर नहीं है बल्कि उप निकट रूपेण ईक्षणम्। उपेक्षा अर्थात् जिसके माध्यम से निकट से देखने की क्षमता आ जाती है, वह उपेक्षा है। दूसरे की उपेक्षा करने से दूसरे को कष्ट भी पहुँच सकता है। ये आठ कर्मों की शक्ति भी हमारी ज्ञान शक्ति को समाप्त नहीं कर सकती है यह स्वतंत्र सत्ता है। केवलज्ञान के सामने हमारा ज्ञान बच्चे के समान है। ज्ञान भी दान के रूप में प्रयुक्त होता है। ज्ञान को आत्मसात् करते जाओ, आचरण में ढालते जाओ तो प्रचार-प्रसार अपने आप होता चला जावेगा। ज्ञान को बढ़ाना नहीं है बल्कि मांजना है। ज्ञान जितना स्वाश्रित होगा उतना ही आकुलता का अभाव होता जावेगा। जितना योगों का स्पन्दन कम होगा, उतना ही हमारा ज्ञान स्वाश्रित होगा। अच्छे कार्य के लिए ज्ञान और क्रिया दोनों की मैत्री स्वीकारी है। ज्ञान प्रयोग करना नहीं सिखाता अंदर प्रयोग करने के भाव हों, तभी ज्ञान कार्यकारी होता है, वरन् ज्ञान खतरा पैदा करता है। ज्ञान शक्ति काम नहीं करती बल्कि काम में आती है। ज्ञान के माध्यम से यदि मात्र दूसरे को जानने का प्रयास करते हो तो वह ज्ञान कुछ कार्यकारी नहीं है। कुछ लोग जप कम करते हैं जल्प (बातें) ज्यादा करते हैं। ज्यादा जानने की, ज्ञान करने की आवश्यकता नहीं है मात्र एकत्व को जानना है। ज्ञान, शिक्षण या पुरुषार्थ से प्राप्त नहीं होता बल्कि श्रद्धा और समर्पण से प्राप्त होता है। पहले दीक्षा काल कहा है फिर शिक्षा काल लेकिन आज पहले ही ज्ञान, प्रवचन से जीवन प्रारम्भ करते हैं जिसके परिणाम ठीक नहीं निकलते। इन्द्रभूति का ज्ञान बहुत लम्बा चौड़ा था लेकिन संयम के अभाव में सम्यक्त्वपना प्राप्त नहीं था। दीक्षा होते ही मन:पर्ययज्ञान हो गया यह ज्ञान कहाँ से उत्पन्न हो गया, संयम की कृपा से। ज्ञान को सम्यक्त्वपना शिक्षण से प्राप्त नहीं होता बल्कि आस्था एवं समर्पण से प्राप्त होता है। ज्ञान के माध्यम से मोह को हटाने का प्रयास नहीं करते तो विकल्प छूट नहीं सकते। जो प्राप्त ज्ञान से मोह का हनन करता है, वही मुमुक्षु माना जाता है। मोह जैसे ही पूर्ण समाप्त होता है, वैसे ही पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है। अंधकार हटते ही,बादल हटते ही पूर्ण प्रकाश प्राप्त हो जाता है। मात्र ज्ञान को नमोऽस्तु नहीं किया जाता, बल्कि रत्नत्रय से युक्त ज्ञान को नमोऽस्तु किया जाता है। आत्मा के स्वरूप का ज्ञान जिसे हो जाता है, वह आत्मा के स्वरूप को पाने में लग जाता है, आत्मोन्नति की ओर बढ़ जाता है। ज्ञान सविकल्प होता है, मोह सहित होता है तो संसार का ही कारण होता है। मोह के अंधेरे में न धर्म दिखता है और न ही मुनि दिखते हैं, मात्र स्वार्थ दिखता है। जैसे सिंहनी ने पूर्व में अपने ही पुत्र मुनि सुकौशल का भक्षण किया था। सम्यक ज्ञान रूपी नेत्र के द्वारा ही हम अपने दोषों को दूर कर सकते हैं। मार्ग का ध्यान सम्यक ज्ञान के द्वारा रखा जाता है। स्वर्ग जाने के बाद भी यह सम्यक ज्ञान रखना विषयों में ज्यादा मत फसाना। ज्ञान का क्षयोपशम नहीं है तो दीन-हीन मत होना और ज्ञान का क्षयोपशम है तो अभिमान भी मत करना। ज्ञानी जीव इन आरोहण, अवरोहण की दशाओं में अपने परिणामों को संतुलित बनाये रखते हैं। ज्ञानी जीव अपने आपको छोड़कर दूसरे की नुताचीनी/आलोचना करने जाता ही नहीं, क्योंकि दूसरे की बुराई का उत्तर देने के लिए उसमें पास समय ही नहीं रहता। ज्ञानी का स्वभाव जानने का होना चाहिए, स्व को, पर को, क्रोध को, व बंध को भी लेकिन इन सबका वेदन नहीं करना चाहिए। क्योंकि ज्ञानी कर्म के उदय को मात्र जानता है, उसका वेदन नहीं करता। क्योंकि ऐसा किए बिना नूतन कर्म बंध होना रुक नहीं सकता। ज्ञानी को वस्तु ज्ञेय मात्र रह जाती है। वह उसे हेय, उपादेय मानकर ग्रहण नहीं करता। अतीत के साथ वर्तमान की तुलना करने से कहाँ-कहाँ गलती हुई है, यह ज्ञात हो जाता है। मुनियों का ज्ञान कर्म को जलाता रहता है और स्वयं ज्यों का त्यों बना रहता है। आज तक जो कुछ मेरे द्वारा आचरण किया गया है, वह ज्ञान आते ही अज्ञानतापूर्ण आचरण किया ऐसा प्रतीत होता है। जैसे बचपन की कृति बालबोध जैसी लगती है, परिपक्वता एकदम नहीं आती। जैसे गेंहू में शुरुआत में पानी निकलता है। फिर दूध आता है, परिपक्व होने पर आटा निकलता है, चने का होरा है तो उसमें आटा नहीं है, उसमें आटा हो रहा है इसलिए वह होरा है, (हो रहा) है। ज्ञान रूपी तलवार से कर्म शत्रु पर प्रहार करो और वैराग्य की ढाल से उसका बचाव करते रहो । ज्ञान और तप साधना में प्रौढ़ता है, लेकिन जब तक साधना पूर्ण नहीं हो जाती तब तक भरोसा नहीं करना चाहिए। कभी-कभी किनारे पर जाकर किस्ती डूब जाती है। अधूरा जानना, देखना ही संसार परिभ्रमण का कारण बन रहा है। संसार में ज्ञान सबसे बड़ा है, क्योंकि पृथ्वी पर अनेक पदार्थ हैं और धरती वलयों पर आश्रित है। वलय आकाश में हैं और आकाश ज्ञान के एक कोने में है। जो विश्व को जानने की क्षमता रखते हैं, उन्हें विश्वविद्यालय में जाने की क्या आवश्यकता है। क्योंकि ज्ञान का क्षयोपशम विद्यालय में जाने से नहीं होता किन्तु जीवन को संयमित बनाने से होता है। मुझे कुछ नहीं आता, ज्ञान नहीं है, ऐसा कैसे बोला, ऐसा बोलना ही ज्ञान है। इस सामान्यज्ञान की धारा को निरंतर देखने से पर्याय गौण हो जाती है। हे आत्मन्! यदि तुम बुद्धिमान हो तो इस बात पर ध्यान दो कि आज तक जिसमें हित था उसे गौण किया और अहित को ही हित समझा, यदि इसमें सुख होता तो तीर्थंकर क्यों त्याग करते ? ज्ञान की प्रौढ़ता के अभाव में यह मन विषयों की ओर जाने को मचलता है। यदि सही-सही ज्ञान हो जाने पर भी आप विषय-भोग नहीं छोड़ते हो तो आपकी श्रद्धा पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। जिसका मन विषयों में नहीं उलझता, कषाय नहीं करता उसका तप और ज्ञान पहुँचा हुआ माना जाता है। एक कुर्सी पर बैठा-बैठा कागज पर मात्र हस्ताक्षर कर देता है तो इतनी कमाई कर लेता है कि दिनभर मेहनत करने वाला भी नहीं कर पाता यह युक्ति की बात है, सम्यक ज्ञानी की बात है। लोकेषणा के बिना श्रुत का अध्ययन करो, श्रुत का अध्ययन मन को वश में करने के लिए तथा कर्मनिर्जरा के लिए किया जाता है, ख्याति, लाभ, पूजा के उद्देश्य से नहीं। श्रुतज्ञान का व्यवसाय करोगे तो वह सही फल नहीं देगा और भवान्तर में साथ नहीं जावेगा। भ्रांति के कारण हम एक पदार्थ को ग्रहण करते हैं, एक को छोड़ देते हैं, यह एक के प्रति राग हुआ और दूसरे के प्रति द्वेष। भ्रांति के कारण हम एक पदार्थ को ग्रहण करते है, और एक को छोड़ देते है, तो यह एक के प्रति राग हुआ और दुसरे के प्रति द्वेष | भ्रांति मिटते ही जीवन में ज्ञान का प्रकाश होते ही कुछ छोड़ने और ग्रहण करने का विकल्प रह ही नहीं जाता। तत्वज्ञान के माध्यम से जो प्रवृत्ति होती है, वह मोक्ष का कारण होती है। पदार्थ को पदार्थ के रूप में जानना ही सही ज्ञान माना जाता है, किसी से घृणा और किसी के प्रति आकर्षण नहीं होना चाहिए। भोगों का निमित्त लेकर स्वाध्याय करने का, ज्ञान प्राप्त करने का फल मलिनता ही है। ज्ञान रूपी अग्नि में भव्य रूपी मणि विशुद्ध होकर निकलती है, किन्तु अभव्य उस अग्नि में मलिन होकर या भस्म होकर ही निकलता है। ज्ञान के माध्यम से ऋद्धि, ख्याति, लाभ व पूजा की कामना नहीं करनी चाहिए। शोध छात्र अपने विषय को कभी भी प्रतिकूल अथवा नीरस नहीं समझता, वह उसी की वृद्धि में लगा रहता है। ज्ञान की आराधना थीसिस का काम करती है। अर्थ यह हुआ कि दर्पण नहीं देखना है बल्कि दर्पण में खुद को देखना है। प्रयोजन के अभाव में ज्ञान की क्या सार्थकता। ज्ञान की आराधना का अर्थ है कि कर्म बंध से छूटने का उपाय करना। समीचीन देखना/जानना ही ज्ञान की आराधना है। ज्ञान दशा में अंतर्मुहुर्त में ही सब कुछ छोड़ दिया जाता है और उस ज्ञानी को अंतर्मुहुर्त में ही केवलज्ञान हो जाता है। अज्ञान दशा में कभी भी वस्तु का स्वरूप समझ में नहीं आ सकता। ज्ञेय चिपमें, ज्ञान चिपकाता है, सो स्मृति हो आती। जिन पदार्थों से स्वामित्व है, उन्हें छोड़कर फिर सभी पदार्थों से ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध रखना ही मुमुक्षुपना है। वयोवृद्ध होने से पहले आत्महितैषी को ज्ञानवृद्ध एवं तपोवृद्ध हो जाना चाहिए। ज्ञान प्राप्त होने पर भी यदि यह जीव प्रमाद करता है तो संसार में ही भटकता रहता है। ज्ञान का सदुपयोग करो, दीपक लेकर कुएँ में मत गिरो। आज अध्यात्म पढ़कर व्यवसायीकरण हो रहा है यह विद्या अध्ययन का आदर्श नहीं है। सम्यक ज्ञान ऐसा टिकिट है, आप जिस स्टेशन (गति) पर उतरोगे वहाँ सम्मान होगा। सम्यक ज्ञान प्राप्त करने का उद्देश्य यही है कि राग-द्वेष, मोह को कम करते चले जाना। यदि सम्यक ज्ञान के द्वारा दोषों का उन्मूलन नहीं होता तो ऐसे ज्ञान पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। ज्ञान का फल, अज्ञान का नाश, पाप की हानि और व्रतों का ग्रहण फिर निर्विकल्प समाधि में लीन होना ही समीचीन माना गया है। अनुभव वृद्ध, ज्ञानवृद्ध आत्मा को किसी के सहारे की जरुरत नहीं होती, क्योंकि जीवन में प्रयोग करने के बाद ही अनुभव आते हैं। जो यह सोचते हैं कि पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के बाद संयम लूँगा, ऐसा सोचने वाले को ज्ञात कर लेना चाहिए कि पूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञान है जो कि संयम के बिना प्राप्त नहीं हो सकता। संयम धारण करने के लिए पूर्ण ज्ञान की आवश्यकता नहीं है, बल्कि जितना संयम के लिए ज्ञान पर्याप्त है, उतना कर लो फिर संयम ग्रहण कर लो। पूर्ण ज्ञान केवलज्ञान प्राप्त हो जायेगा। मति, श्रुतज्ञान ही मोक्षमार्ग में कार्यकारी है, वैसे तो मतिज्ञान ही पर्याप्त है, क्योंकि श्रुतज्ञान तो उसके पीछे-पीछे चलता है। जैसे गाय जहाँ जाती है, बछड़ा भी उसके पीछे-पीछे चला ही जाता है। जिसका जितना गहरा (प्रौढ़) तत्व ज्ञान होगा उसकी उतनी ही अधिक मन की स्थिरता होगी। ज्ञान परीषह के द्वारा जितनी निर्जरा होती है, उतनी ही निर्जरा अज्ञान परीषह सहन करने से होती है। ज्ञान की धारा कभी भी टूटती नहीं है, उसका परिणमन वैकालिक चलता ही रहता है। ज्ञान की सार्थकता तभी है, जब वह देखने/जानने के अलावा और कुछ राग-द्वेष रूप परिणमन न करे। जिस वस्तु के प्रति कोई भी रुचि नहीं रहती उसी से ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध बनता है। ज्ञानाभ्यास में दिन काल की एक कणिका भी व्यर्थ मत गवाओ। जिस ज्ञान के द्वारा हाथ की रेखाओं की भाँति विश्व देखने में आ जाता है, उस ज्ञान को ही केवलज्ञान कहते हैं। ज्ञानाचार की आराधना से तीनों लोक में कीर्ति फैल जाती है।
  5. यदि हमें महावीर भगवान् बनना है तो पल-पल उनका चिन्तन करना आपेक्षित है। यह महावीर जयन्ती का आयोजन भले ही चौबीस घंटे के लिए हो, यदि यह महावीर बनने के लिए है तो सार्थक है। ऐसे ही यदि आप वर्ष का प्रत्येक दिन महावीर भगवान् के लिए समर्पित कर दें तो फिर महावीर बनने में देर नहीं लगेगी। अर्थ यह हुआ कि जितना-जितना समय आप भगवान के लिए, उनके गुण स्मरण के लिए निकालेंगे उतना ही, उनकी ओर बढ़ सकेंगे। मात्र उनका जयजयकार ही पर्याप्त नहीं है। भगवान् महावीर के दर्शन में प्रदर्शन के लिए कोई स्थान नहीं है कारण यही है कि दर्शन अपने लिए है, अपनी आत्मा की उन्नति के लिए है, आत्मा की अनुभूति के लिए है। दर्शन का अर्थ है देखना लेकिन प्रदर्शन में तो मात्र दिखाना ही है देखना 'स्व' का होता है और दिखाने में कोई दूसरा होता है। आज तक संसारी प्राणी की सभी क्रियाएँ देखने के लिए न होकर दिखाने के लिए होती आयी हैं प्रत्येक व्यक्ति इसी में धर्म मान रहा है वह सोचता है कि मैं दूसरे को समझा दूँ यह प्रक्रिया अनादि काल से क्रमबद्ध तरीके से चली जा रही है यदि ऐसी क्रमबद्धता दर्शन के विषय में होती तो उद्धार हो जाता। व्यक्ति जब दार्शनिक बन जाता है तो वह हजारों दार्शनिकों की उत्पति में निमित्त कारण बन जाता है और जब एक व्यक्ति प्रदर्शक बन जाता है तो सब ओर प्रदर्शन प्रारम्भ हो जाता है। प्रदर्शन की प्रक्रिया बहुत आसान है, देखा-देखी जल्दी होने लगती है, उसमें कोई विशेष आयाम की आवश्यकता नहीं है, प्रदर्शन के लिए शारीरिक, शाब्दिक या बौद्धिक प्रयास पर्याप्त है लेकिन दर्शन के लिए एकमात्र आत्मा की ओर आत्मा ही पर्याप्त है। दर्शन तो विशुद्ध अध्यात्म की बात है। महावीर भगवान् ने कितनी साधना की, वर्षों तप किया लेकिन दिखावा नहीं किया, ढिंढोरा नहीं पीटा। जो कुछ किया अपने आत्म-दर्शन के लिए किया। सब कुछ पा लेने के बाद भी यह नहीं कहा कि मुझे बहुत कुछ मिला। प्रदर्शन करने से दर्शन का मूल्य कम हो जाता है, उसका सही मूल्यांकन तो यही है कि दर्शन को दर्शन ही रहने दिया जाये, जब प्रदर्शन के साथ दिग्दर्शन भी होने लगता है तो उसका मूल्य और भी कम हो जाता है, प्रदर्शन का मूल्य भी हो सकता है लेकिन उसके साथ दर्शन भी हो, जिसने स्वयं नहीं किया वह दूसरे को क्या करवा सकेगा। आज खान-पान, रहन-सहन आदि सभी में प्रदर्शन बढ़ता जा रहा है, आपका श्रृंगार भी दूसरे पर आधारित है, दूसरा देखने वाला न हो तो श्रृंगार व्यर्थ मालूम पड़ता है। दर्पण देखते हैं तो दृष्टिकोण यही रहता है कि दूसरे की दृष्टि में अच्छा दिखाई पड़ सकें, इस तरह आपका जीवन अपने लिए नहीं दूसरे को दिखाने के लिए होता जा रहा है, सोचिये, अपने लिए आपका क्या है ? आपकी कौन-सी क्रिया अपने लिए होती है ? सारी दुनियाँ प्रदर्शन में बहती चली जा रही है। जीवन में आकुलता का यह भी एक कारण है। महावीर भगवान् का दर्शन तो निराकुलता का दर्शन है, वह अनुभूतिमूलक है, प्रदर्शन में जो अनुभूत हो चुका है, पराया ज्ञान कार्यकारी नहीं है, अपना अनुभूत ज्ञान ही कार्यकारी है। हमारे लिए जो ज्ञान, कर्म के क्षयोपशम से मिला है, वही ज्ञान सब कुछ है। भगवान् का केवलज्ञान निमित बन सकता है लेकिन उस ज्ञान के साथ हमारे अनुभव का पुट नहीं है, उनका अनन्त ज्ञान क्षायिक ज्ञान है और हमारा क्षयोपशम ज्ञान है जो सीमित है। अनन्त ज्ञान हमारे लिए पूज्य है, हम उसे नमस्कार कर कह देते हैं कि 'वन्दे तद्गुण लब्धये' आपके गुणों की प्राप्ति के लिए आपको प्रणाम करते हैं। गुणों की प्राप्ति स्वयं की अनुभूति से ही होगी। स्वरूप का भान नहीं होने के कारण ऐसा हो रहा है कि अपने पास जो निधि है उसका दर्शन, उसका अनुभवन भी हमें नहीं हो पाता, सारा जीवन दूसरे के देखने-दिखाने में व्यतीत हो जाता है और हमारा ज्ञान अधूरा रह जाता है, जो व्यक्ति अपने जीवन को पूर्ण बनाना चाहता है वह दूसरे पर आधारित नहीं रहेगा, दूसरे का आलम्बन तो लेगा लेकिन लक्ष्य स्वावलम्बन का रखेगा। आज तक हमारा जीवन, हमारा ज्ञान अधूरा इसलिए रहा क्योंकि दूसरे के दर्शन करने और दूसरे के माध्यम से ही सुख पाने का हमारा लक्ष्य रहा। अभी तो कोई बात नहीं है, जो होना था वह तो हो गया, लेकिन आगे के लिए कम से कम उस ओर न जायें। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा और अनुभव भी किया कि आत्मा वीतरागी है। हम रटने लगे कि आत्मा वीतरागी है, राग का अनुभव करते हुए मात्र आत्मा को वीतरागी कहने से काम नहीं चलेगा, हमारा यह ज्ञान ठोस नहीं माना जायेगा, वह उधार खाते का ज्ञान है, इसे अपनी अनुभूति बनाना होगा, वीतरागता को जीवन में अंगीकार करना होगा, वीतरागता प्रदर्शन की चीज नहीं है। कुन्दकुन्दाचार्य महाराज कहते हैं कि मैं जो कह रहा हूँ उसे शत प्रतिशत ठीक तभी मानना जब अपने अनुभव से तुलना कर लो क्योंकि मैं जो कह रहा हूँ वह अपने अनुभव की बात कह रहा हूँ। रत्नाकर कवि दक्षिण भारत के कवियों में मुकुट-कवि माने जाते हैं। भरतेश वैभव उनका श्रेष्ठ महाकाव्य माना गया है, उनका कहना है कि जो व्यक्ति दूसरे के माध्यम से जीवन व्यतीत कर रहा है वह तभी तक प्रशंसा कर सकता है जब तक उसे स्वयं अनुभव नहीं हुआ, अनुभव होने के उपरान्त वह जो वास्तविकता है उसे ही कहेगा। लेकिन आज तो जो व्यक्ति अपनी ओर जाता ही नहीं, देखता ही नहीं, अनुभव भी नहीं करता वह व्यक्ति भी अपने आत्मा का प्रदर्शन करने में लगा है। एक उदाहरण दिया है उन्होंने, एक कौआ था, वह पके हुए अंगूर खा रहा था। इतने में एक सियार वहाँ आया, उसने पूछा कि तुम क्या खा रहे हो? कौए ने कहा कि क्या कहूँ- बड़ा स्वाद आ रहा है, तुम भी यहाँ ऊपर आ जाओ तो मजा आ जायेगा, अंगूर ऐसे पके कि बस कहने की फुरसत ही नहीं है, नीचे गिराऊँगा तो ठीक नहीं है, नीचे धूल है, ऊपर ही आ जाओ। सियार ने अंगूर की प्रशंसा सुन ली, उसे खाने की इच्छा भी हो गयी, लेकिन वह ऊपर कैसे जाता, उसने तीन-चार बार छलाँग भी लगा ली, जब चौथी बार भी असफलता हाथ आयी तब उसने कह दिया कि अंगूर खट्टे हैं। यही हाल हमारा है, अनुभूति नहीं है, मात्र कहा जा रहा है, प्रदर्शन हो रहा है, सैकड़ों उदाहरण प्रदर्शन के हैं। सभा में फोटो खींची गयी हो और उसमें अपना फोटो नहीं हो तो उस सारी फोटोग्राफी का कोई मूल्य नहीं है। एक व्यक्ति कमीज का कालर इधरउधर कर रहे थे, हमने सोचा, कोई कीड़ा वगैरह चला गया होगा, पर वहाँ कीड़ा नहीं था, वे गले में पहनी हुए चैन दिखाना चाह रहे थे, ‘चैन' दिखाये बिना चैन नहीं आ रहा था। चैन के माध्यम से जो सुख-चैन ढूँढ़ रहा है वह पराश्रित है, उसे कभी सुख नहीं मिल सकता। सुख की अनुभूति अपने ऊपर निर्धारित है, दूसरा कोई हमें सुख नहीं दे सकता। अनन्त चतुष्टय को धारण करने वाले भगवान् भी हमें अपना सुख नहीं दे सकते, स्व-पर का भेद-विज्ञान यही है। सम्यग्दृष्टि कम हैं, मिथ्यादृष्टि की संख्या अनन्त है। कोई कुछ भी कहे, हम अपने संसार के अभाव का प्रयत्न करें, सारे संसार की चिन्ता न करें। दिग्दर्शन वही कर सकता है जो स्वयं का दर्शन करता है। कुन्दकुन्द स्वामी ने लिखा है कि 'चुकेज्ज छलंण घेतत्वं' समयसार का दिग्दर्शन मैं आप लोगों को करवा रहा हूँ यदि चूक जाऊँ तो छल ग्रहण मत करना, अपनी अनुभूति से उसका मिलान कर लेना। पंचास्तिकाय भी उनका ही प्राकृत ग्रन्थ है। जयसेनाचार्य ने उसकी टीका में उल्लेख किया है कि 'श्रुत का पार नहीं है, काल बहुत अल्प है और हम दुर्मति वाले हैं, अल्पज्ञ हैं, इसलिए वही उतना ही सीख लेना चाहिए जिसके माध्यम से हमारा जन्म-मरण का जो रोग है वह दूर किया जा सके।” यही भाव कुन्दकुन्द स्वामी ने नियमसार के अन्त में भी दिया है। ‘नाना कम्मा, नाना जीवा'- कि नाना जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म हैं बहुत प्रकार की उपलब्धियाँ हैं, अनेक प्रकार के चिन्तन हैं, अनेकमत हैं इसलिए व्यर्थ वचन-विवाद में नहीं पड़ना चाहिए। अनुभूति और दर्शन को महत्व देना चाहिए, प्रदर्शन ठीक नहीं है। आचार्यों ने आत्म-कल्याण के ऐसे-ऐसे उदाहरण दिये हैं कि मैं कह नहीं सकता, उनकी उदारता का वर्णन वचनों में संभव नहीं है। चुनाव करने वाले आप हैं, प्रदर्शन आपको बहुत अच्छा लग रहा है किन्तु ध्यान रखिये कि सारा प्रदर्शनमय जीवन निरर्थक है। प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है, आप जैसा जीना चाहें जी सकते हैं, चूँकि आत्मोन्नति और आत्मोपलब्धि दर्शन से ही संभव है। इसलिए अपने जीवन को स्वयं संभालने का प्रयास करिये ।
  6. भारत पर्वो, उत्सवों, त्यौहारों का देश है। यों तो जीवन का प्रत्येक दिवस एक पुनीत पर्व की तरह है तथापि किसी घटना विशेष के कारण कुछ दिवस पर्व के रूप में भी मनाए जाते हैं। दशलक्षण पर्व और अष्टाहिक पर्व के समान ही रक्षा-बंधन पर्व का भी महत्व है। रक्षाबंधन अद्भुत पर्व है। बंधन का दिन होने पर भी आज का दिन पर्व माना जा रहा है। सहज ही मन में जिज्ञासा होती है कि पर्व या उत्सव में जो मुक्ति होती है, स्वतन्त्रता होती है, आज का दिन बंधन का दिन होकर भी क्यों इतना पवित्र माना गया है। बात यह है कि आज का दिन सामान्य बंधन का दिन नहीं है, प्रेम के बंधन का दिन है। यह बंधन वात्सल्य का प्रतीक है। रक्षा-बंधन अर्थात् रक्षा के लिए बंधन, जो आजीवन चलता है बड़े उत्साह के साथ यह बंधन होकर भी मुक्ति में सहायक है क्योंकि यह प्राणी मात्र की रक्षा के लिए संकल्पित करने वाला बंधन है। सभी जीवों पर संकट आते हैं और सभी अपनी शक्ति अनुसार उनका निवारण करते हैं, पर फिर भी मनुष्य एक ऐसा विवेकशील प्राणी है जो अपने और दूसरों के संकटों को आसानी से दूर करने में समर्थ है। मनुष्य चाहे तो अपनी बुद्धि और शारीरिक सामथ्र्य से अपनी और दूसरों की रक्षा कर सकता है जीव रक्षा उसका कर्तव्य है, उसका धर्म भी है। आज के दिन की महत्ता इसीलिए भी है कि एक महान् आत्मा ने रक्षा का महान् कार्य सम्पन्न करके संसार के सामने रक्षा का वास्तविक स्वरूप रखा कि जीवों की रक्षा, अहिंसा की रक्षा और धर्म की रक्षा ही श्रेष्ठ है। किन्तु आज वह रक्षा उपेक्षित है। हम चाहते हैं सुरक्षा मात्र अपनी और अपनी भौतिक सम्पदा की। आज यह स्वार्थ-पूर्ण संकीर्णता ही सब अनर्थों की जड़ बन गई है। मैं दूसरों के लिए क्यों चिंता करूं ? मुझे बस मेरे जीवन की चिंता है। ‘मैं और मेरा', आज का सारा व्यवहार यहीं तक सीमित हो गया है। रक्षकपना लुप्त हो गया है और भक्षकपना बढ़ रहा है। रक्षाबंधन आदि पर्वो के वास्तविक रहस्य को बिना समझे-बूझे प्रतिवर्ष औपचारिकता के लिए इन्हें मनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। यह ठीक नहीं है। स्वयं की परवाह न करते हुए अन्य की रक्षा करना, यह है इस पर्व का वास्तविक रहस्य। विष्णुकुमार मुनिराज ने क्या किया ? बंधन को अपनाया, अपने पद को छोड़कर मुनियों की रक्षार्थ गये। क्यों ? वात्सल्य के वशीभूत होकर, धर्म की प्रभावना हेतु, यह है सच्चा रक्षा-बंधन। रक्षा हेतु जहाँ बंधन को अपना लिया गया। लेकिन आज हमारा लक्ष्य ऐसा नहीं रह गया है। बाहर से मधुर और भीतर से कटु, ऐसा रक्षा-बंधन नहीं होना चाहिए। हमारे द्वारा संपादित कार्य बाहर और भीतर से एक समान होने चाहिए। रक्षा-बंधन को सच्चे अर्थों में मनाना है तो अपने भीतर करुणा को जाग्रत करें। अनुकम्पा, दया और वात्सल्य का अवलम्बन लेकर अषाढ़ और सावन के जल भरे बादलों की तरह करुणा भी जीवनदायिनी होती है। जो बादल मात्र गरजते हैं और बरसते नहीं हैं उनका कोई आदर नहीं करता। हमें भी जल भरे बादल बनना है, रीते बादल नहीं। आज इस पर्व के दिन हम में जो करुणा भाव है वह तन-मन-धन सभी प्रकार से अभिव्यक्त हो। इतना ही नहीं सदैव वह हमारा स्वभाव बन जाए, ऐसा प्रयास करना चाहिए। ‘मैत्री भाव जगत् में मेरा सब जीवों से नित्य रहे'- प्रतिदिन यह पाठ उच्चारित करते हैं पर इस मेरी भावना को व्यवहार में नहीं लाते। व्यवहार में लाने वाले महान् बन जाते हैं। गाँधीजी की महानता का यही कारण रहा कि वे करुणावान थे। एक बार की घटना है-गाँधी जी सर्दी में अपने कमरे में रजाई ओढे अंगीठी ताप रहे थे। थोड़ी रात होने पर उन्हें कहीं से बच्चों के रोने की आवाज सुनाई पड़ी। बाहर आने पर उन्होंने कुत्तों के बच्चों को सर्दी के मारे रोते देखा। तब उनका हृदय भी रो पड़ा। वे उन बच्चों को उठाकर अपने कमरे में ले आये और उन्हें रजाई ओढ़ा दी। यह थी गाँधीजी की करुणा। सभी के प्रति मैत्री भाव हो इसका नाम है रक्षा-बंधन। रक्षा-बंधन पर्व सिर्फ एक दिन के लिए ही नहीं है, हमारे वात्सल्य, करुणा और रक्षा के भाव जीवन भर बने रहें, इन शुभ संकल्पों को दोहराने का यह स्मृति दिवस है, अत: इस पुनीत पर्व पर हमारा कर्तव्य है कि हम आत्मस्वरूप का विचार करते हुए जीव मात्र के प्रति करुणा और मैत्री भाव धारण करें, तभी यह पर्व मनाना सार्थक होगा।
  7. हृदय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार आँखें कान दो, दो हैं, हाथ पैर भी दो, दो हैं क्योंकि सम्बन्ध के लिए दो आवश्यक हैं। धर्म (राष्ट्र समाज) के लिए देखने सुनने से कुछ नहीं होता। हे प्रभु! मैं प्रार्थना करता हूँ इन दो-दो अक्षर वाले अंग वालों को तीन अक्षर वाला अंग हृदय दे दो। किसी भी चीज में आनंद मात्र सुनने देखने से नहीं आता। हृदयंगम होने पर आता है। धर्म भी जब हृदयंगम होता है तभी उन्नति का कारण बनता है। हमने आज तक हृदय से कार्य नहीं किया, यदि हृदय से कार्य किया होता तो दर-दर नहीं भटकना पडता। जिसका हृदय टूट जाता है वही मनमाना कार्य करने लगता है। हृदय के अभाव में शरीर के सभी अंग कोई महत्व नहीं रखते। शव की भाँति इस भारत का हृदय नहीं है बाकी सब ठीक है। स्मृति मनोयोग के माध्यम से बनी रहती है। धर्म का हृदय अच्छाईयाँ हैं, हृदय के साथ श्वांस लीजिए। आज देश में स्वतंत्रता का हृदय से कोई उपयोग नहीं हो रहा है, इसलिए शांति नहीं मिल रही है। आचरण, नकल से नहीं हृदय के साथ विश्वास के साथ किया जाता है। हृदय शून्य क्या नहीं कर सकता ? हृदय शून्य वही है, जिसको अहिंसा पर आस्था नहीं है। हृदय में सत्य, अहिंसा के प्रति आस्था है तो राम, महावीर भगवान से हमारा सम्बन्ध आज भी निश्चित रूप से है, इसमें संदेह नहीं करना चाहिए। हम भगवान के सामने हाथ जोड़ते हैं अब हृदय जोड़ना चाहिए। हृदय कैसे जुड़ा है वह दिखाने से नहीं देखने से ज्ञात होता है। हृदय को मध्य कहा है वह दोनों छोर तक अपना सम्बन्ध रखता है। हृदय से सम्बन्ध होता है तो आँखों से आँसू आने लगते हैं। सौन्दर्य आँखों से दिखता है, पवित्रता मन से दिखती है। श्रुतकेवली के चरणों से साक्षात् सम्बन्ध हो जाता है तो दर्शनमोहनीय का दूरीकरण, क्षय हो जाता है। क्षायिक सम्यक दर्शन प्राप्त हो जाता है। आँखों में पानी तभी आता है जब हृदय में कुछ पिंच (चुभे) हो। दूसरे का पत्थर-सा हृदय पिघला देते हो और खुद का मोम का है तो भी नहीं पिघलता। वस्तुतत्व को हम दिमाग से सोचते तो हैं पर दिल से, हृदय से उसे स्वीकार नहीं कर पाते।
  8. आचार्य श्री ज्ञानसागरजी कभी-कभी भावों की अभिव्यक्ति शब्दों के द्वारा अल्प समय में करना हो तो कठिनाई मालूम पड़ती है। मुनिपरिषन्। मध्ये संनिषण्ण मूर्तमिव मोक्षमार्ग-मवाग्विसर्ग वपुषा निरूपयन्तं निग्रन्थ आचार्य-वर्यम्- मुनियों की सभा में बैठे हुए, वचन बोले बिना ही मात्र अपने शरीर की आकृति से मानो मूर्तिमान मोक्षमार्ग का निरूपण कर रहे हों, ऐसे आचार्य महाराज को किसी भव्य ने प्राप्त किया और पूछा कि भगवन्! कनु खलु आत्मने हितं स्यादिति ? अर्थात् हे भगवन्! आत्मा का हित क्या है। तब आचार्य महाराज ने कहा कि आत्मा का हित मोक्ष है। तब पुन: शिष्य ने पूछ लिया कि मोक्ष का स्वरूप क्या है? उसकी प्राप्ति का उपाय क्या है ? इस बात का जवाब देने के लिए आचार्य पूज्यपाद स्वामी कहते हैं कि तत्वार्थ सूत्र का प्रारंभ हो जाता है और क्रमश: दस अध्यायों में जवाब मिलता है। ऐसा ही ये ग्रन्थ हमारे जीवन से जुड़ा है, जो निग्रथता का मूल स्रोत है। क्या कहें और किस प्रकार कहें गुरुओं के बारे में क्योंकि जो भी कहा जायेगा वह सब सूरज को दीपक दिखाने के समान होगा। वह समुद्र इतना विशाल है कि अपनी दोनों भुजाओं को फैलाकर बताने का प्रयास भावाभिव्यक्ति, उसका पार नहीं पा सकती। एक कवि ने गुरु की महिमा कहने का प्रयास किया और कहा कि जितने भी विश्व में समुद्र हैं उनकी दवात बना लिया जाये, पूरा का पूरा पानी स्याही का रूप धारण कर ले और कल्पवृक्ष की लेखनी बनाकर सारी पृथ्वी को कागज बनाकर सरस्वती स्वयं लिखने बैठ जाये तो भी पृष्ठ कम पड़ जायेंगे, लेखनी और स्याही चुक जायेगी, पर गुरु की गुरुता-गरिमा का पार नहीं पाया जा सकता । ‘गुरु कुम्हार, शिष्य कुंभ है गढ़-गढ़ काढ़त खोट। भीतर हाथ पसार के, ऊपर मारत चोट।” कुम्हार की भाँति मिट्टी को, जो दल दल बन सकती है, बिखर सकती है, तूफान में धूल बनकर उड़ सकती है, घड़े को सुन्दर आकार देने वाले गुरु होते हैं। जो अपने शिष्य को घड़े के समान भीतर तो करुणा भरा हाथ पसार कर संभाले रहते हैं और ऊपर से निर्मम होकर चोट भी करते हैं। बाहर से देखने वालों को लगता है कि घडे के ऊपर प्रहार किया जा रहा है लेकिन भीतर झांक कर देखा जाये तो मालूम पड़ेगा कि कुछ और ही बात है। संभाला भी जा रहा है और चोट भी की जा रही है। दृष्टि में ऐसा विवेक, ऐसी जागरूकता और सावधानी है कि चोट, खोट के अलावा, अन्यत्र न पड़ जाये। भीतर हाथ वहीं है जहाँ खोट है और जहाँ चोट पड़ रही है। यह सब गुरु की महिमा है। किसी कवि ने यह भी कहा है कि 'गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागू पांय। बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दियो बताय।' हमें तो लगता है बताना क्या यहाँ तो बनाना शब्द होना चाहिए। गोविन्द दियो बनाय। वैसे बताना भी एक तरह से बनाना ही है। जब गणित की प्रक्रिया सामने आ जाती है तो उत्तर बताना आवश्यक नहीं रह जाता उत्तर स्वयं बन जाता है। हम उन दिनों न तो उत्तर जानते थे, न प्रक्रिया जानते थे, हम तो नादान थे और उन्होंने (आचार्य ज्ञानसागरजी) हमें क्या-क्या दिया, हम कह नहीं सकते। बस! इतना ही कहना काफी है कि हमारे हाथ उनके प्रति भक्तिभाव से हमेशा जुड़े रहते हैं। गुरु की महिमा आज तक कोई कह ही नहीं सका। कबीर का दोहा सुना था- ‘यह तन विष की बेलड़ी, गुरु अमृत की खान। शीश दिये यदि गुरु मिलें, तो भी सस्ता जान॥' कैसा अद्भुत भाव भर दिया। कितनी कीमत-आंकी है गुरु की। हम इतनी कीमत चुका पाये तो भी कम है। देने के लिये हमारे पास क्या है? यह तन तो विष की बेल है जिसके बदले अमृत की खान, आत्मा मिल जाती है। यदि यह जीवन गुरु की अमृत-खान में समर्पित हो जाए तो निश्चित है कि जीवन अमृतमय हो जाएगा। सोचो, समझो, विचार करो, इधर-उधर की बातें छोड़ो, शीश भी यदि चला जाए तो भी समझना कि सस्ता सौदा है। शीश देने से तात्पर्य गुरु के चरणों में अपने शीश को हमेशा के लिए रख देना, शीश झुका देना, समर्पित हो जाना। गुरु का शिष्य के ऊपर उपकार होता है और शिष्य का भी गुरु के ऊपर उपकार होता है, ऐसे परस्पर उपकार की बात आचार्यों ने लिखी है। सो ठीक ही है। गुरु शिष्य से और कुछ नहीं चाहता, इतनी अपेक्षा अवश्य रहती है कि जो दिशाबोध दिया है उस दिशाबोध के अनुसार शिष्य भी भगवान् बन जाए। यही उपकार है शिष्य के द्वारा गुरु के ऊपर। कितनी करुणा है। कितना पवित्र भाव है। ‘मैं’ अर्थात् अहंकार को मिटाने का यदि कोई सीधा उपाय है तो गुरु के चरण-शरण। उनकी विशालता, मधुरता, गहराई और अमूल्य छवि का हम वर्णन भी नहीं कर सकते। गुरु ने हमें ऐसा मंत्र दिया कि यदि नीचे की गहराई और ऊपर की ऊँचाई नापना चाहो तो कभी ऊपर-नीचे मत देखना बल्कि अपने की देखना। तीन लोक की विशालता स्वयं प्रतिबिंबित हो जायेगी। जो एग्गं जाणदि सो सव्वं जाणदिय अर्थात् जो एक को यानि आत्मा को जान लेता है वह सबको, सारे जगत् को जान लेता है। धन्य हैं ऐसे गुरु, जिन्होंने हम जैसे रागी-द्वेषी, मोही, अज्ञानी और नादान के लिए भगवान बनने का रास्ता प्रशस्त किया। आज कोई भी पिता अपने लड़के के लिए कुछ दे देता है तो बदले में कुछ चाहता भी है लेकिन गुरु की गरिमा देखो कि तीन लोक की निधि दे दी और बदले में किसी चीज की आकांक्षा नहीं है। जैसे माँ सुबह से लेकर दोपहर तक चूल्हे के सामने बैठी धुआँ सहती रसोई बनाती है और परिवार के सारे लोगों को अच्छे ढंग से खिला देती है और स्वयं के खाने की परवाह नहीं करती। आप जब भी माँ की ओर देखेंगे तब वह कार्य में व्यस्त ही दिखेगी और देखती रहेगी कि कहाँ क्या कमी है? क्या-क्या आवश्यक है? क्या कैसा परोसना है ? जिससे संतुष्टि मिल सके। पर गुरुदेव तो उससे भी चार कदम आगे होते हैं। हमारे भीतर कैसे भाव उठ रहे हैं? कौन-सी अवस्था में, समय में, कौन से देश या क्षेत्र में आपके पैर लड़खड़ा सकते हैं यह पूरी की पूरी जानकारी गुरुदेव को रहती है। और उस सबसे बचाकर वे अपने शिष्य को मोक्षमार्ग पर आगे ले जाते हैं। युगों-युगों से पतित प्राणी के लिए यदि दिशाबोध और सहारा मिलता है तो वह गुरु के माध्यम से ही मिलता है। गुरु का हाथ और साथ जब तक नहीं मिलता तब तक कोई ऊपर नहीं उठ सकता। जैसे वर्षा होने से कठोर भूमि भी द्रवीभूत हो जाती है उसी प्रकार गुरु की कृपा होते ही भीतरी सारी की सारी कठोरता समाप्त हो जाती है और नम्रता आ जाती है। इतना ही नहीं बल्कि अपने शिष्य के भीतर जो भी कमियाँ हैं उनको भी निकालने में तत्पर रहने वाले गुरुदेव ही हैं। जैसे कांटा निकालते समय दर्द होता है लेकिन कांटा निकल जाने पर दर्द गायब हो जाता है। उसी प्रकार कमियाँ निकालते समय शिष्य को दर्द होता है लेकिन कमियाँ निकल जाने पर शांति मिल जाती है। विषाक्तता बढ़ नहीं पाती। गुरुदेव की कृपा से अनंतकालीन विषाक्तता निकलती चली जाती है। हम स्वस्थ हो जाते हैं। आत्मस्थ हो जाते हैं, यही गुरु की महिमा है। 'मरुभूमि को हरा-भरा बनाने के समान जीवन को भी हरा-भरा बनाने का श्रेय गुरुदेव को है। आज आप लोगों के द्वारा गुरु की महिमा सुनते-सुनते मन भर आया है। कैसे कहूँ ? अथाह सागर की थाह कौन कर सकता है। उनके ऋण को चुकाया नहीं जा सकता। इतना ही है कि हम उनके कदमों पर चलते जाए,उनके सच्चे प्रतिनिधि बनें और उनकी निधि को देख-देख कर उनकी सन्निधि का अहसास करते रहें। यह अपूर्ण जीवन उनकी स्मृति से पूर्ण हो जाये। धन्य हैं गुरु आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज, धन्य हैं आचार्य शांतिसागरजी महाराज और धन्य हैं पूर्वाचार्य कुन्दकुन्द स्वामी आदि महान् आत्माएँ जिन्होंने स्वयं दिगम्बरत्व को अंगीकार करके अपने जीवन को धन्य बनाया और साथ ही करुणा-पूर्वक धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया। जीवों को जीवन निर्माण में सहारा दिया। गुरुदेव ने अपनी काया की जर्जर अवस्था में भी हम जैसे नादान को, ना-समझ को, हम ज्यादा पढ़े-लिखे तो थे नहीं, फिर भी मार्ग प्रशस्त किया। गुरु उसी को बोलते हैं जो कठोर को भी नम्र बना दे। लोहा काला होता है लेकिन पारसमणि के संयोग से स्वर्ण बनकर उज्ज्वल हो जाता है। गुरुदेव हमारे हृदय में रहकर हमें हमेशा उज्वल बनाते जायेंगे, यही उनका आशीर्वाद हमारे साथ है। हम यही प्रार्थना भगवान् से करते हैं, भावना भाते हैं कि- हे भगवान्! उस पवित्र पारसमणि के समान गुरुदेव का सान्निध्य हमारे जीवन को उज्वल बनाये। कल्याणमय बनाये, उसमें निखार लाये। अभी हम मझधार में हैं, हमें पार लगाये। अपने सुख को गौण करके अपने दुख की परवाह न करते हुए दूसरों के दुख को दूर करने में, दूसरों में सुख-शान्ति की प्रस्थापना करने में जिन्होंने अपने जीवन को समर्पित कर दिया ऐसे महान् कर्तव्यनिष्ठ और ज्ञान-निष्ठ व्यक्तित्व के धारी गुरुदेव का योग हमें हमेशा मिलता रहे। हम मन, वचन, तन से उनके चरणों में हमेशा नमन करते रहें। वे परोक्ष भले ही हैं लेकिन जो कुछ भी है यह सब उनका ही आशीर्वाद है। गुरुदेव! अभी हमारी यात्रा पूरी नहीं हुई। आप स्वयं समय-समय पर आकर हमारा यात्रापथ प्रशस्त करते रहें, अभी स्वयं मोक्ष जाने के लिए जल्दी न करें, हमें भी साथ लेकर जायें- ऐसे भाव मन में आते हैं। विश्वास है कि गुरुदेव हमेशा हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे। उनका जो भाव रहा वह पूरा अपने जीवन में उतारने और उनकी भावना के अनुरूप आगे बढ़ने का प्रयास हम निरन्तर करते रहेंगे। स्वयं मुक्ति के मार्ग पर चलकर हमें भी मुक्तिमार्गी बनाने वाले महान् गुरुदेव के चरणों में बार-बार नमस्कार करते हैं। इस जीवन में और आगे भी जीवन में उन्हीं जैसी शांत-समाधि, उन्हीं जैसी विशालता, उन्हीं जैसी कृतज्ञता, उन्हीं जैसी सहकारिता हमारे भीतर आये और हम उनके बताये मार्ग का अनुसरण करते हुए धन्यता का अनुभव करते रहें। इसी भावना के साथ अज्ञानतिमिराधानां, ज्ञानांजनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥
  9. सल्लेखना विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार सल्लेखना दो प्रकार ही होती है-काय और कषाय सल्लेखना। सर्प की काँचली छोड़ना काय सल्लेखना व अंदर का जहर छोड़ना कषाय सल्लेखना है। अर्थात् शरीर काँचली की भाँति और कषाय जहर की भाँति है। अविनश्वर जीवन की प्राप्ति मृत्यु महोत्सव मनाने से होती है। तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र आदि इस दिगम्बर मुद्रा को स्वीकारते हैं। इस शरीर को जेल ही मानो यह बंधन और दु:ख का ही कारण है। जैसे बच्चे पुराने कपड़े को छोड़ने के लिए तैयार रहते है, वैसे ही साधक को शरीर का त्याग करने के लिए सल्लेखना के लिए तैयार रहना चाहिए वह क्षण तो एक न एक दिन जीवन में आयेगा ही। यदि घर में आग लग गई हो तो, आग बुझाने का प्रयास करो, यदि बुझाने में सफल न हो तो स्वयं को बचा लेना चाहिए। ठीक वैसे ही शरीर में रोग हो गया हो तो उपचार करो और यदि रोग का प्रतिकार न हो सके तो धर्म को बचा लो, सल्लेखना के माध्यम से शरीर का त्याग कर दो। मृत शरीर में हर क्षण असंख्यात-असंख्यात जीवों की उत्पति बढ़ती जाती है, इसलिए उसे ज्यादा देर तक रखना ठीक नहीं है। इस मनुष्य गति में मिला शरीर और आयु का उपयोग कीजिये ताकि वह अंत में समाधि के साथ समाप्त हो। प्रशमभाव, वैराग्य भाव के साथ क्षण निकाली, तभी समाधि के समय समता आ सकती है। सल्लेखना के समय तक क्षपक (जो सल्लेखना ले रहे हैं) को मृदु शब्दों से संभाला जाता है। एक बार भी यदि इस जीव ने विधिपूर्वक समाधिमरण कर लिया तो उत्कृष्ट से दो-तीन भव में और जघन्य से सात-आठ भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। सल्लेखना से डरने वालों को याद रखना चाहिए कि यह शरीर एक न एक दिन अवश्य छूटेगा। धर्मनिष्ठ गृहस्थ श्रावक भी अंत समय में कह देते हैं अपने घर के सदस्यों से कि यदि मुझे होश न रहे तो मुख में कुछ भी मत डालना, अस्पताल भी मत ले जाना, उसकी सही सल्लेखना हो जाती है। जैसे विद्यार्थी परीक्षा की प्रतीक्षा व तैयारी करता है, वैसे ही साधक को पहले से ही सल्लेखना की तैयारी करना चाहिए। जैसे ही असंतुलित गाड़ी हो, वैसे ही ब्रेक लगाना प्रारम्भ कर देना चाहिए। साता की उदीरणा में भी निर्विकल्प समाधि में नहीं जाया जा सकता। जीवन के अंतिम समय में सभी को क्षमा करके, सभी से क्षमा माँगकर परिग्रह आदि त्याग कर कषाय को मंद करते हुए शरीर का त्याग करना चाहिए, यही श्रावक की सल्लेखना है। जब तन में हो व्याधि (रोग), मन में हो आधि और दिमाग में ही उपाधि तो कैसे हो सकती है समाधि ? क्योंकि आधि, व्याधि और उपाधि से रहित होती है समाधि। अंत समय मानसिक संतुलन ही सब कुछ है, समाधि में सफलता इसी से प्राप्त होती है। समाधि के समय क्रमबद्ध पर्याय नहीं चलती उस समय णमोकार मंत्र ही काम आता है। काय सल्लेखना कारण है और कषाय सल्लेखना कार्य है, उसका फल है।
  10. सेवा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार सेवा के माध्यम से हम आपस में सुख-दु:ख समझ सकते हैं। अचेतन द्रव्य (धन) को जनसेवा में लगाना चाहिए। सेवा के समय यदि ख्याति, लाभ, नाम, बड़ाई की बात आ जाती है तो सब किरकिरा हो जाता है। कषाय अभिमान के साथ नहीं बल्कि निष्ठा के साथ दान दें। दूसरे के दु:ख को दूर करने के भाव करते हैं तो यह अपायविचय धर्म ध्यान है। परमार्थ के अभाव में अर्थ का कोई मूल्य नहीं। पार्थिव जीवन के साथ-साथ पारमार्थिक जीवन भी जीना चाहिए।
  11. सुख विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जब तपस्वी स्वाधीन हो जाते हैं, तब वे सुखी हो जाते हैं। सुख-दु:ख दोनों अनुकूल नहीं हैं, जैसे शोर-सूतक दोनों धर्म में बाधक हैं, अनुकूल नहीं हैं। जो सुख चाहता है वह धर्म का आचरण करता है। डॉक्टर घृणास्पद शरीर में पैठा है, पूरा ऑपरेशन करके देख लेता है, फिर भी उसे वैराग्य नहीं होता, क्योंकि उन्हें पैसा ही दिखता है। आर्त-रौद्र ध्यान का कारणभूत जो शरीर है, उससे ममत्व हटाने से कष्ट, कष्ट-सा नहीं लगता। सभी पदार्थ सत् होते हैं, जीव सत् के साथ चित् रूप होता है, लेकिन सभी जीव आनंद रूप नहीं होते हैं। सिद्ध भगवान् ही सत्चिदानंद रूप होते हैं, अभी हम मात्र सत्चित् रूप है। स्वभाव वाले सभी जीव हैं पर आनंद स्वरूप मात्र सिद्ध जीव हैं। सत्चित् वैभाविक है और सत्चिदानन्द स्वाभाविक है।
  12. हे कुन्दकुन्द मुनि! भव्य सरोज बन्धु, मैं बार-बार तव पाद-सरोज वन्दूँ। सम्यक्त्व के सदन हो समता सुधाम, है धर्मचक्र शुभ धार लिया ललाम॥ आज एक संसारी प्राणी ने किस प्रकार बंधन से मुक्ति पाई और किस प्रकार पतन के गर्त से ऊपर उठकर सिद्धालय की ऊँचाइयों तक अपने को पहुंचाया- ये देखने/समझने का सौभाग्य इस पंचकल्याणक के अवसर पर हमें मिला। यह मुक्त दशा इसे आज तक प्राप्त नहीं हुई थी, आज ही प्राप्त हुई और बिना प्रयास के प्राप्त नहीं हुई बल्कि परम पुरुषार्थ के द्वारा प्राप्त हुई है। इससे यह भी ज्ञात हुआ कि संसारी जीव बंधन-बद्ध है और उसे बंधन से मुक्ति मिल सकती है, यदि वह पुरुषार्थ करें तो। वृषभनाथ का जीव अनादि-काल से संसार में भटक रहा था, उसे स्व-पद की प्राप्ति नहीं हुई थी। इसका कारण यही था कि इस भव्य जीव ने मोक्ष की प्राप्ति के लिये पुरुषार्थ नहीं किया था। लेकिन आज जो शक्ति अभी तक अव्यक्त रूप से उसमें विद्यमान थी, वह पुरुषार्थ के बल पर व्यक्त हुई है। कोई भी कार्य अपने आप नहीं होता। सोची, जब बंधन अपने आप नहीं होता तो मुक्ति कैसे अपने-आप हो जायेगी। चोर जब चोरी करता है तभी जेल जाता है, बंधन में पड़ता है। इसी प्रकार यह आत्मा जब राग-द्वेष, मोह करता है 'पर-पदार्थों' को अपनाता है, उनसे सम्बन्ध जोड़ता है और उनमें सुख-दुख का अनुभव करने लगता है तभी उनसे बंध जाता है। सभी सांसारिक सुख-दुख संयोगज हैं। पदार्थों के संयोग से उत्पन्न होते हैं। पदार्थों के संयोग से राग-द्वेष होता है जो आत्मा को विकृत करता है और संसारी जीव अपने संसार का निर्माण स्वयं करता जाता है। आज इस संसार रूपी जेल को तोड़कर छूट जाने का दिन है। ध्यान रखना, ये संसार रूपी जेल अपने आप नहीं टूटता, तोड़ा जाता है और जेल तोड़ने वाला, बंधन से छूटने वाला जेलर नहीं है, कैदी ही होता है। जेल को बनाने वाला भी कैदी ही है। जेलर तो मात्र देखता रहता है। इसी प्रकार संसारी प्राणी अपना संसार स्वयं निर्मित करता है, मुक्तात्मायें तो उनके बंधन को देखने-जानने वाला हो जाता है। हम भी यदि पुरुषार्थ करें तो नियम से इस संसार से मुक्त हो सकते हैं। यही आज हमें अपना ध्येय बनाना चाहिए। प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है, स्वतंत्र होना चाहता है किन्तु स्वतंत्रता के मार्ग को अपनाना नहीं चाहता। तब सोचो क्या यों ही बैठे-बैठे उसे आजादी/स्वतंत्रता मिल जायेगी? ऐसा कभी संभव नहीं है। एक राष्ट्र जब दूसरे राष्ट्र की सत्ता से मुक्त होना चाहता है तो उसे बहुत पुरुषार्थ करना होता है। आजादी की लड़ाई लड़नी होती है। उदाहरण के लिये भारतवर्ष को ही ले लें। आज से ३०-३२ साल पहले भारत के लोग परतंत्रता का अनुभव कर रहे थे। परतंत्रता के दुख को भोग रहे थे। तब धीरे-धीरे अहिंसा के बल पर अनेक नेताओं ने मिलकर देश को स्वतंत्रता दिलाई। लोकमान्य तिलक ने नारा लगाया कि 'स्वराज्य हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है'। लोगों के मन में यह बात बैठ गयी और परिणामस्वरूप भारत को स्वतंत्रता मिली। ठीक इसी प्रकार पराधीनता हमारा जीवन नहीं है, स्वतंत्रता ही हमारा जीवन है- ऐसा विश्वास जाग्रत करके जब हम बंधन को तोड़ेंगे तभी मुक्ति मिलेगी। जिस प्रकार दूध में घी अव्यक्त है। शक्ति-रूप में विद्यमान है उसी प्रकार आत्मा में शुद्ध होने की शक्ति विद्यमान है। उस शक्ति को अपने पुरुषार्थ के बल पर व्यक्त करना होगा। तभी हम सच्चे मुमुक्षु कहलायेंगे, भव्य कहलायेंगे। जो अभी वर्तमान में पुरुषार्थ नहीं करते वे भव्य होते हुए भी दूरान्दूर भव्य कहे जायेंगे। या दूर-भव्य कहे जायेंगे, आसन्न भव्य तो नहीं कहलायेंगे। एकाध पाषाण होता है जिसमें स्वर्ण शक्ति-रूप में तो रहता है लेकिन कभी भी उस पाषाण से स्वर्ण अलग नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार दूरान्दूर भव्य हैं जो भव्य होने पर भी वे अभव्य की कोटि में ही आते हैं क्यों कि शक्ति होते हुए भी कभी उसे व्यक्त नहीं कर पाते। उमास्वामी आचार्य ने तत्वार्थसूत्र में दसवें अध्याय में मोक्ष के स्वरूप का वर्णन किया है। उस मुक्त-अवस्था का क्या स्वरूप है - यह बतलाया है। उससे पूर्व नवें अध्याय में वह मुक्तअवस्था कैसे प्राप्त होगी-यह बात कही है। जिस प्रकार तुंबी मिट्टी का संसर्ग पाकर अपना तैरने वाला स्वभाव छोड़कर डूब जाती है और मिट्टी का संसर्ग पानी में घुल जाने के बाद फिर से हल्की होकर ऊपर तैरने लग जाती है, ऐसे ही यह आत्मा राग-द्वेष और पर-पदार्थों के संसर्ग से संसारसागर में डूबी हुई है। जो जीव पर-पदार्थों का त्याग कर देते हैं और राग-द्वेष हटाते हैं वे संसार सागर से ऊपर, सबसे ऊपर उठकर अपने स्वभाव में स्थित हो जाते हैं। दूध में जो घी शक्ति-रूप में विद्यमान है उसे निकालना हो तो ऐसे ही मात्र हाथ डालकर उसे निकाला नहीं जा सकता। यथाविधि उस दूध का मंथन करना होता है। मंथन करने के उपरांत भी नवनीत का गोला ही प्राप्त होता है जो कि छाछ के नीचे-नीचे तैरता रहता है। अभी उस नवनीत में भी शुद्धता नहीं आयी इसलिए वह पूरी तरह ऊपर नहीं आता। भीतर ही भीतर रह जाता है और जैसे ही नवनीत को तपा करके घी बनाया जाता है तब कितना भी उसे दूध या पानी में डालो वह ऊपर ही तैरता रहता है। ऐसी ही स्थिति कल तक आदिनाथ स्वामी की थी। वे पूरी तरह मुक्त नहीं हुए थे। जिस प्रकार अंग्रेजों से पन्द्रह अगस्त १९४७ को भारत वर्ष को आजादी/स्वतंत्रता तो मिल गई थी किन्तु वह स्वतन्त्रता अधूरी ही थी। देश को सही/पूर्ण स्वतन्त्रता तो २६ जनवरी १९५० को मिली थी जब देश अपने ही नियम-कानूनों के अन्तर्गत शासित हुआ। वैसे ही आदिनाथ प्रभु की स्वतन्त्रता अपूर्ण थी क्योंकि वे शरीर रूपी जेल में थे। आज पूरी तरह संसार और शरीर दोनों से मुक्त हुए हैं। शरीर भी जेल ही तो है। शरीर को फारसी भाषा में बदमाश कहा जाता है। शरीर शरीफ नहीं है बदमाश है। यदि इस शरीर का मोह छूट जाये तो जीव को संसार में कोई बाँध नहीं सकता। अत: बंधुओ! जितनी मात्रा में आप परिग्रह को कम करेंगे, शरीर के प्रति मोह को कम करेंगे, आपका जीवन उतना ही हल्का होता जायेगा, अपने स्वभाव को पाता जायेगा। जिस प्रकार नवनीत का गोला जब तक भारी था तभी तक अन्दर था, जैसे ही उसे तपा दिया तो वह हल्का हो गया। सुगंधित घी बन गया। अब नीचे नहीं जायेगा। अभी आप लोगों में से कुछ ऐसे भी हैं जो न घी रूप में है और न ही नवनीत के रूप में बल्कि दूध के रूप में ही हैं। संसारी जीव कुछ ऐसे होते हैं जो फटे हुए दूध के समान हैं जिसमें घी और नवनीत का निकलना ही मुश्किल होता है तो कुछ ऐसे जीव भी हैं जो कि भव्य जीव हैं, वे सुरक्षित नवनीत की तरह हैं जो समागम रूपी ताप के मिलने पर घी रूप में परिणत हो जायेंगे और संसार से पार हो जायेंगे। आप सभी को यदि अनन्त सुख को पाने की अभिलाषा हो तो परिग्रह रूपी भार को कम करते जाओ। जो पदार्थ जितना भारी होता है वह उतना ही नीचे जाता है। तराजू में भारी पलड़ा नीचे बैठ जाता है और हल्का ऊपर उठ जाता है। इसी प्रकार परिग्रह का भार संसारी प्राणी को नीचे ले जाने में कारण बना हुआ है। लौकिक दृष्टि से भारी चीज की कीमत भले ही ज्यादा मानी जाती हो लेकिन परमार्थ के क्षेत्र में तो हल्के होने का, पर-पदार्थों के भार से मुक्त होने का महत्व है। क्योंकि आत्मा का स्वभाव पर-पदार्थों से मुक्त होकर उध्र्वगमन करने का है। उमास्वामी आचार्य ने यह भी कहा है कि बहु-आरंभ और बहु-परिग्रह रखने वाला नरकगति का पात्र होता है। बहुत पुरुषार्थ से यह जीव मनुष्य जीवन पाता है लेकिन मनुष्य जीवन में पुन: पदार्थों में मूर्च्छा, रागद्वेषादि करके नरकगति की ओर चला जाता है। नारकी जीव से तत्काल नारकी नहीं बन सकता। तिर्यञ्च भी पांचवें नरक तक ही जा सकता है लेकिन कर्मभूमि का मनुष्य और उसमें भी पुरुष सातवें नरक तक चला जाता है। यह सब बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह के कारण ही होता है। बड़ी विचित्र स्थिति है। पुरुष का पुरुषार्थ उसे नीचे की ओर भी ले जा सकता है और यदि वह चाहे तो मोक्ष-पुरुषार्थ के माध्यम से लोक के अग्रभाग तक जाने की क्षमता रखता है। वह मुक्ति का मार्ग भी अपना सकता है और संसार में भटक भी सकता है। यह सब जीव के पुरुषार्थ पर निर्भर है, केवल पढ़ लेने से या उनके जानने मात्र से नहीं। पतन की ओर तो हम अनादि-काल से जा रहे हैं परन्तु उत्थान की ओर आज तक हमारी दृष्टि नहीं गयी। हम अपने स्वभाव से विपरीत परिणमन करते रहे हैं और अभी भी कर रहे हैं। इस विभाव या विपरीत परिणमन को दूर करने के लिये ही मोक्षमार्ग है। पाँच दिन तक आपने विभिन्न धार्मिक कार्यक्रम देखे, विद्वानों के प्रवचन सुने। ये सभी बातें विचार करके विवेकपूर्वक क्रिया में लाने की हैं। अपने जीवन को साधना में लगाना अनिवार्य है। जितना आप साधना को अपनायेंगे उतना ही कर्म से मुक्त होते जायेंगे। पापों से मुक्त होते जायेंगे। जैसे तुंबी मिट्टी का संसर्ग छोड़ते ही पानी के ऊपर आकर तैरने लगती है और उस पंक-रहित तुंबी का आलम्बन लेने वाला व्यक्ति भी पार हो जाता है वैसे ही हमारा जीवन यदि पापों से मुक्त हो जाता है तो स्वयं के साथ-साथ औरों को भी पार करा देता है। राग के साथ तो डूबना ही डूबना है। पार होने के लिये एकमात्र वीतरागता का सहारा लेना ही आवश्यक है। वर्तमान में सच्चे देव-गुरु–शास्त्र, जो छिद्र रहित और पंक रहित तुंबी के समान हैं उनका सहारा यदि हम ले लें तो एक दिन अवश्य पार हो जायेंगे। स्वाधीनता, सरलता, समता स्वभाव, तो दीनता, कुटिलता, ममता विभाव। जो भी विभाव धरता, तजता स्वभाव, तो डूबती उपल-नाव, नहीं बचाव ॥१॥ स्वाधीनता, सरलता और समता ही आत्मा का स्वभाव है और राग-द्वेष, क्रोध आदि विभाव है। जो इस विभाव का सहारा लेता है वह समझो पत्थर की नाव में बैठ रहा है जो स्वयं तो डूबती ही है साथ ही बैठने वाले को भी डुबा देती है। आपको वीतरागता की, स्वभाव की उपासना करनी चाहिए। यदि आप वीतरागता की उपासना कर रहे हैं तो ये निश्चित समझिये कि आपका भविष्य उज्वल है। ये वीतरागता की उपासना कभी छूटनी नहीं चाहिए। भले ही आपके कदम आगे नहीं बढ़ पा रहे, पर पीछे भी नहीं हटना चाहिए। रागद्वेष के आँधी तूफान आयेंगे, बढ़ते कदम रुक जायेंगे लेकिन जैसे ही रागद्वेष की आँधी जरा धीमी हो, एक-एक कदम आगे रखते जाइये, रास्ता धीरेधीरे पार हो जायेगा। आज तो बड़े सौभाग्य का दिन है, भगवान् को निर्वाण की प्राप्ति हुई। एक दृष्टि से देखा जाये तो उसका जन्म भी हुआ। शरीर की अपेक्षा मरण कहो तो कोई बात नहीं, लेकिन जिसका अनंतकाल तक नाश नहीं होगा ऐसी मोक्ष अवस्था का जन्म भी आज ही हुआ है। अजर-अमर पद की प्राप्ति उन्हें हुई है। संसार छूट गया, वे मुक्त हो गये हैं। मैं भी ऐसी प्रार्थना/भावना करता हूँ कि मुझे भी अपनी ध्रुव-सत्ता की प्राप्ति हो। मैं भी पुरुषार्थ के बल पर अपने अजर-अमर आत्म-पद को प्राप्त करूं ।
  13. सिद्धान्त विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार सिद्धान्त अपना नहीं होता अपने लिए होता है या यूँ कहो सिद्धान्त अपना नहीं होता अपने द्वारा अपनाया जाता है। सिद्धान्त का हनन नहीं होना चाहिए भले ही उसके तौर-तरीके बदल जावें। राग-द्वेष, प्रतिकूलता/अनुकूलता को एक समझे बिना कर्म सिद्धान्त समझ में नहीं आ सकता । स्वभाव के लिए तर्क नहीं होता, यह सिद्धान्त अटल है। सिद्धान्त के साथ समझौता नहीं होता। सिद्धान्त को कभी भूलना नहीं चाहिए यदि प्रयोग में गड़बड़ी आ जावे तो सुधार लेना चाहिए। ईश्वर और ईश्वर के बारे में उनके सिद्धान्तों के बारे में जानना ही आस्तिकता है।
  14. सामायिक विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार सामायिक में शरीर का चिंतन करें कि यह अशरण है, अशुचि है, अनित्य है, दु:खमय है, संसार रूप है और आत्मा इससे विपरीत है। सामायिक में मन, वचन व काय से किसी भी प्रकार से प्रतिकार नहीं किया जाता। रागद्वेष से रहित होना सामायिक चारित्र है। आर्त-रौद्रध्यान काई के समान है, उसे हटाओ और धर्मध्यान रूप स्वच्छ जल का पान करो, इसी का नाम सामायिक चारित्र है। अशुभ विकल्पों के त्याग रूप जो समाधि (ध्यान) है, ऐसा है लक्षण जिसका वह सामायिक है। सुख-दु:ख रूप कर्मों का उदय अपने पूर्वकृत् इतिहास के आधार पर आते हैं, उन्हें समता से सहन करना उनसे माध्यस्थ्य होना ही सामायिक चारित्र है।
  15. साधना विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार आज तक हमने साधना, शरीर-सुख के लिए की है इसलिए सही सुख नहीं मिल पाया। यदि आत्म सुख के लिए साधना की होती, तो अभी तक शाश्वत् सुख की प्राप्ति हो गई होती। चारित्र का पक्ष मजबूत रहेगा तो धर्म का झंडा लहराता रहेगा। चारित्र का पक्ष उठ गया तो झंडा उड़ जावेगा मात्र डंडा हाथ में रह जावेगा। चारित्रमय जीवन है तो हमारा जीवन है नहीं तो नहीं। साधु चरित्र की ध्वजा हैं, उनको हम नमस्कार करते हैं, वे हमारी रक्षा करें। साधु की चर्या पालना बहुत बड़ी साधना मानी जाती है इसी के बल पर सिद्ध बनते हैं। साधु वही है जो मात्र अपनी आत्मा की साधना से मतलब रखता है। साधना प्रखर होने से विश्वास कम होते हुए भी बड़े-बड़े कार्य हो जाते हैं। विश्वास के साथ-साथ साधना भी आवश्यक होती है तभी लक्ष्य तक पहुँचते हैं। निरालम्ब रहने का आनंद अलग ही होता है। यदि हमारी कषाय में परिणति जाती है तो हमारी साधना शुरु ही नहीं हुई क्योंकि कषाय के अभाव के माध्यम से ही ज्ञात होता है हमारा समर्पण कितना है ? आचरण से चरण तो क्या चरण धूल भी पूज्य बन जाती है और मरण भी पूज्य हो जाता है। साधना को आदर्श बनाया जाता है, व्यक्ति को नहीं। सही दिशा में की गयी तप साधना से मोक्ष प्राप्त होता है और जब तक मुक्ति नहीं मिलती तब तक अच्छे-अच्छे पद प्राप्त होते रहते हैं। मन को साध लेना ही साधना है। नाम साधना का अर्थ होता है एक पद को लेकर ध्यान करना, यह पदस्थ ध्यान है। आत्मा की बात करने का अर्थ आत्मा के ऊपर लगी हुई कालिमा को साधना के माध्यम से अलग करना है। अभी साधना करने से आगे और स्वस्थ शरीर एवं दीर्घ संहनन प्राप्त होते हैं, जिससे अच्छी साधना एवं प्रभावना की जा सकती है। मोक्षमार्ग की साधना चार प्रत्ययों में पूर्ण होती है, अज्ञान निवृत्ति, पाप-विषय त्याग, आदान (व्रत ग्रहण) एवं उपेक्षा (विकल्पों की शून्यता)। आज यदि बड़ी साधना नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं, पर कषायों को तो कम किया जा सकता है। इसमें काया की शक्ति नहीं बल्कि आत्मा की रुचि काम करती है। शत्रु-मित्र से रहित भाव प्रणाली बनाये रखना बहुत बड़ी साधना है। समता की आरती उतारो, एक क्षण में असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा होती है। ज्ञेय से उपयोग प्रभावित न हो यह मूल साधना मानी जाती है। ज्ञेय से जब हम भिन्न है तो हर्ष-विषाद क्यों करना ? ज्ञेय से प्रभावित न होना प्रौढ़ साधना मानी जाती है। समीचीन दृष्टि में जीना सबसे बड़ी साधना है क्योंकि दृष्टि को संतुलित रखने पर जीवन संयत बन जाता है। जो मन, वचन एवं काय तीनों योगों को साधता है उसके उपयोग में स्थिरता आ जाती है, उपयोग शुद्ध हो जाता है। हमें इस काया के अधीन नहीं होना चाहिए। बाहुबली भगवान् की साधना की ओर दृष्टि रखो। आत्मा के स्वरूप का अवलोकन करने से ही साधना सार्थक होगी। मोक्षमार्ग मे परीषह औषधि है कर्म रूपी रोग को निकालने के लिए। अपने परिणाम को मजबूत, संयत बनाने से ही हम मोक्षमार्ग पर अडिग रह सकते हैं। अब मोह की कथा समाप्त करो, मोक्ष की कथा प्रारम्भ हो रही है, इसी का नाम साधना है। तैरना तो सभी को आता है पर डूबों तो जाने, डुबकी लगाओ रत्न पाओ तो जाने कुछ साधना हुई। ज्ञान की अपेक्षा आत्मसाधना को प्रौढ़ता देनी चाहिए। तन, मन एवं धन का सदुपयोग करना ही पंचमकाल की मनुष्य पर्याय में बड़ी साधना है। जो दृष्टि पदार्थ को गौण करके (उससे टकराये बिना) पार कर जाती है, वही दृष्टि सही दृष्टि मानी जाती है। यदि कर्म के उदय, उदीरणा में अपने उपयोग को उसी रंग में रंगा दिया तो आपकी साधना कमजोर मानी जाती है। तात्विक दृष्टि गुप्ति की ओर ले जाती है। सूक्ष्म साधना से यह ज्ञात हो जाता है कि हमें दूसरों की कमजोरी न देखकर स्वयं की कमजोरी देखना चाहिए। क्योंकि छद्मस्थावस्था में उपयोग की कमजोरी बनी ही रहती है। आलम्बन से ही आज तक जीवन चलता आया है, अब निरालम्ब होकर जीना सीखो। तुम्बी की सहायता से तैराक हमेशा नहीं तैरता, तैरना सीख जाता है तो फिर तुम्बी का सहारा लिए बिना ही तैर जाता है। पहले किये गये स्वाध्याय का प्रयोग करना चाहिए फिर पुन: स्वाध्याय करना चाहिए। लेकिन जब प्रयोग होने लगेगा तो स्वाध्याय की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। अभ्यास की दशा में स्वयं प्रमाण हो जाता है फिर प्रमाण ढूंढने की आवश्यकता नहीं पड़ती शास्त्र खोलने की आवश्यकता नहीं पड़ती। जैसे सज्जन दुर्जनों से दूर रहते हैं, वैसे ही साधु को शरीर से ज्यादा लगाव नहीं रखना चाहिए। इससे धर्म साधना करना ही सही मोह करना है। यह शरीर जब तक धर्म साधन में उपकार करता है, तब तक उपकरण है। जब उपकार करना बंद कर दे तब इसे वेतन (भोजन) देना बंद कर देना चाहिए, वरन् वह परिग्रह हो जायेगा। साधना के अलावा यदि साधक शरीर का उपयोग अन्य कार्यों में लेते हैं तो वह शरीर परिग्रह में आवेगा। पर का आलम्बन लेने से आत्म साधना कमजोर मानी जाती है। यदि भीतरी साधना जीवित है तो अभिशाप भी वरदान बन जाता है। मनुष्य पर्याय एक वरदान है, यदि इस शरीर से साधना नहीं की तो यह वरदान भी अभिशाप सिद्ध होगा। शरीर के प्रति निरीहता साधु की बहुत बड़ी साधना मानी जाती है। जिसका बाहरी वस्तुओं एवं शरीर के प्रति ममत्व नहीं है, वही कायोत्सर्ग कर सकता है।
  16. तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायैः । दर्पणातला इव सकलाप्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र॥१॥ कल वृषभनाथ मुनिराज ने जो छोड़ने योग्य पदार्थ थे उन्हें छोड़ दिया और जो साधना के माध्यम से छूटने वाले हैं उनको हटाने के लिए साधना में रत हुए हैं। जो ग्रंथियाँ शेष रह गयी हैं, जो अंदर की निधि को बाहर प्रकट नहीं होने दे रही हैं, उन ग्रन्थियों को तप के द्वारा हटाने में लगे हैं। आप लोग अपनी महत्वपूर्ण मणियों को तिजोरी में बन्द करके रखते हैं जिस कारण बाहर से देखने पर ज्ञान नहीं हो पाता कि इसमें बहुमूल्य रत्न रखे हैं। ऐसे ही आत्मा के ऊपर आवरण पड़ा हुआ है जिससे वह अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट नहीं हो पाती। इतना ही नहीं, आपकी उस मणि को तिजोरी में रखने के कई स्थान होते हैं। दरवाजा यदि खुल भी जाये तो भी मणियां चोर के हाथ में न आ पायें इसलिए उसे एक छोटी-सी डिबिया में बंद करके मखमल लगाकर कागज में लपेटकर रखा जाता है। तिजोरी में भी एक के बाद एक कई खंड होते हैं। छोटी-छोटी अलमारियाँ होती हैं जिनके अलग दरवाजे खुलते हैं। जब तक तिजोरी के दरवाजे, अलमारी, डिबिया और कागज की पुड़िया नहीं खुलेगी तब तक मणियों को हाथ में लेकर उसकी प्रतीति नहीं हो सकती अर्थात् आवरण कोई भी हो, जब तक आवरण रहेगा तब तक वस्तु का ठीक-ठीक अनुभवन नहीं कर सकते हैं। वृषभनाथ मुनिराज ने जो बाह्य ग्रन्थियाँ थी वे तो खोल दी हैं परन्तु इसके उपरांत भी ऐसी अांतरिक ग्रन्थियाँ शेष हैं जिनको हटाने के लिये साधना की जरूरत है। आज वे उसी साधना में लीन हुए हैं। आप लोग थोड़े समय स्वाध्याय करके ही अपने आपको आत्मानुभवी मानने लगते हैं, पर सोचो अस्सी वर्ष की आयु में आप क्या ऐसा और इतना अनुभव कर सके होंगे जो तपस्या में लीन मुनिराज वृषभनाथ प्रतिक्षण कर रहे हैं। उनका यह तप हजार वर्ष तक चलेगा और हजार वर्ष वे यों ही व्यर्थ में व्यतीत नहीं करते बल्कि बारह प्रकार के तपों को अंगीकार करके महाव्रतों के साथ व्यतीत करते हैं। गहरे आत्मज्ञान में डूबकर वे धीरे-धीरे ज्ञान-ज्योति के ऊपर से आवरण हटाने में लगे हुए हैं। यह कार्य इतना आसान नहीं है जितना आप लोग समझ रहे हैं। जब कुल्हाड़े से पेड़ की डाल पर प्रहार किया जाता है तो पहली बार में तो मात्र छिलका ही हटता है। उसके मध्य में रहने वाले घनीभूत पदार्थ पर बार-बार और तेजी से प्रहार करने पर ही पेड़ से लकड़ी टूट पाती है। प्रहार करने वाले के हाथ झनझना जाते हैं। बड़ी मेहनत पड़ती है। इसी प्रकार आत्मा के भीतर जो अनादिकालीन कषाय। घनीभूत होकर बैठ गयी है उसे निकालने के लिये वीतरागता रूपी पैनी छेनी चाहिए। सूक्ष्म ग्रन्थियाँ खोलना उतना ही कठिन कार्य है जितना कि बाल/केश में पड़ी गांठ को खोलना। रस्सी के अंदर यदि गांठ पड़ जाये तो आप जल्दी खोल सकते हैं, धागे में पड़ी गांठ खोलना उससे भी कठिन है लेकिन बाल में पड़ी गांठ को खोलना तो और भी कठिन है। ऐसी ही सूक्ष्म ग्रन्थियों को खोलने में इन्हें हजार वर्ष लग गये किन्तु वे ग्रन्थियाँ अभी पूरी नहीं खुलीं। यह भी ध्यान रहे कि इनकी ग्रन्थियाँ खुलने पर पुन: वापिस पड़ती नहीं हैं क्योंकि बाल की ग्रन्थि सुलझाना जितना कठिन है वैसे ही बालों में ग्रंथि पड़ना भी। बहती रहती कषाय नाली शांति सुधा भी झरती है, भव की पीड़ा वहीं प्यार कर मुक्ति रमा मन हरती है। सकल लोक भी आलोकित है शुचिमय चिन्मय लीला है, अद्भुत से अद्भुततम महिमा आतम की जयशीला है।॥१॥ आत्मा की यह लीला, आत्मा का स्वभाव अद्भुत से अद्भुत है। वह लीला, वह स्वभाव आत्मा के अंदर ही घट रहा है। उसी में कषाय की नाली भी बह रही है और वहीं शांति-सुधा का झरना भी झर रहा है। भव-भव की पीड़ा भी वहीं पर है तो मुक्ति रूपी रमणी का सुख भी वहीं है। संसार भी वहीं है तो मोक्ष भी वहीं है। सारा लोक उसी में आलोकित हो रहा है। इसके उपरांत भी यदि हम कहें कि हमें कुछ नहीं पता, कि यह किसका परिणाम है तो यह हमारी अज्ञानता ही होगी। और इसका कारण भी यह है कि हम अन्दर न झांककर बाहर ही बाहर देखते हैं। हम उनकी शरण में भी आज तक नहीं गये जो अपनी आत्मा की खोज में लगे हैं। इसी का परिणाम है कि अन्दर क्या-क्या सुख है, हमें ज्ञात ही नहीं है। अब वृषभनाथ मुनिराज अपने ही भीतर झांक कर हजार वर्ष तक साधना करेंगे। हेय को निकालकर उपादेय को उपलब्ध करेंगे। वे वर्धमान-चारित्र वाले हैं। क्षायिक-सम्यक् दर्शन और मन:पर्यय ज्ञान के साथ जीवन व्यतीत कर रहे हैं। पर ध्यान रहे कि कोई तीर्थकर भले ही हो पर जब तक छद्मस्थ रहेगा, तब तक उसे भी अप्रमत्त से प्रमत्त दशा में आना ही पड़ेगा। आधा मिनट के लिए यदि आत्मा के अन्दर टिकेंगे तो कम से कम एक मिनट के लिए बाहर आना ही पड़ेगा अर्थात् अप्रमत्त दशा का अनुभव यदि एक समय के लिए होता है तो प्रमत्त दशा का उससे दुगुने समय तक होगा। हजार वर्ष तक यही चलेगा। यह तो एक तरह से झूलाझूलना है। झूला ऊपर जाता है तो नीचे भी आता है। ऐसा नहीं है कि ऊपर गया तो ऊपर ही रहे, नीचे न आये। बल्कि होता यह है कि ऊपर तो रहता है कम और नीचे की ओर ज्यादा। इसे ऐसा समझे कि लक्ष्य को छूना कुछ समय के लिए ही हो पाता है फिर, पुनः छूने के लिए शक्ति को बटोरना पड़ता है। संसार का त्याग करने के उपरांत कोई कितना भी चाहे, भले ही अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्राप्त कर ले परन्तु इसी प्रकार हजारों बार उसे ऊपर-नीचे आना होगा। प्रमत-अप्रमत्त दशा में रहना होगा। कई लोग कह देते हैं कि भरतजी को कपड़े उतारते-उतारते ही केवलज्ञान हो गया, परन्तु ऐसी बातें कहना सिद्धांत का ज्ञान नहीं होने का प्रतीक है। भरतजी की प्रशंसा मैं भी करता हूँ लेकिन प्रशंसा ऐसी होनी चाहिए जिसमें सिद्धांत से विरोध आये। करणानुयोग के अनुसार तो कोई कितना ही प्रयत्नशील क्यों न हो, उसे दिगम्बरत्व धारण करने के उपरांत केवलज्ञान प्राप्त करने में कम से कम अंतर्मुहूर्त का काल अपेक्षित है और उस अन्तर्मुहूर्त में भी उसे हजारों बार प्रमत-अप्रमत्त दशा में झूलना पड़ेगा। कषायों को निकालने के लिये इतना परिश्रम तो करना ही पड़ेगा। आज वृषभनाथ मुनिराज को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है। केवलज्ञान का अर्थ मुक्ति नहीं है। अभी मोक्ष-कल्याणक तो कल होगा। अभी तो Previous हुआ है, Final शेष है। इस केवलज्ञान की प्राप्ति के लिये उन्हें किस प्रकार की प्रक्रिया करनी पड़ी यह भी जान लेना चाहिए। संसार-वर्धक भावों को दूर हटाने की विधि आचार्यों ने बताई है ताकि कोई भी संसारी प्राणी सुगमता से, सरलता से अपने लक्ष्य तक पहुँच सके। दो बातें पहले समझ लें। एक तो योग और दूसरा मोह। योग अर्थात् आत्मा के प्रदेशों का परिस्पंदन और मोह अर्थात् विकृत उपयोग। ज्ञेयभूत पदार्थों से जब उपयोग प्रभावित होता है और ज्ञेयभूत पदार्थ उपयोग पर प्रभाव डालते हैं तब उपयोग में विकृति आती है जिसमें पाप का आस्रव, अशुभ का आस्रव होता है। इसलिए सर्वप्रथम उपयोग को एकाग्र करना परमावश्यक है। वह उपयोग ज्ञेय पदार्थों से प्रभावित न हो ऐसी व्यवस्था करने की आवश्यकता पड़ती है। उपाय करना होता है। उपाय अलग है और उपादेय अलग। उपाय वह है जो उपादेय को प्राप्त करा सके। मुक्ति उपादेय है जो अनंत-काल तक रहने वाली है और विभावपरिणति दुख देने वाली और संसार की कारण होने से हेय है। हेय का अभाव करने के लिये और उपादेय को प्राप्त करने के लिये उपाय की बड़ी आवश्यकता होती है। उपाय यही है कि उपयोग को एकाग्र किया जाये और उपयोग को एकाग्र करने के लिए संयम की आवश्यकता है। बारह प्रकार के तपों की आवश्यकता है। जब संयम और तप के माध्यम से उपयोग एकाग्र हो जाता है, ज्ञेयपदार्थों से प्रभावित नहीं होता तब पाप-प्रकृतियाँ पूर्ण रूप से निकल पाती हैं। एक बात ध्यान रखना कि पहले पाप को ही निकालना होगा। पुण्य को शुभ-भाव को आप पहले नहीं निकाल पायेंगे। क्योंकि शुभ-भाव योग को कहा है, वह योग बाद में जायेगा। सर्वप्रथम मोह जो उपयोग को आघात पहुँचा रहा है उसे निकालना होगा। तभी उस मोह के माध्यम से आई हुई पाप-प्रकृतियों का आस्रव रुक सकेगा। उदाहरण के लिये ऐसा समझे कि एक व्यक्ति गंदे वस्त्र को साफ करना चाहता है और वह वस्त्र इतना गंदा हो गया है कि उसकी सफेदी देखने में नहीं आ रही है। उस समय मैल को हटाने के लिए उसे सोड़ा/साबुन जो भी हो उससे साफ करना होगा। अब मैं पूछना चाहता हूँ कि वस्त्र के साफ हो जाने के बाद भी साबुन का अंश उस कपड़े में आ गया, रह गया तो उसे भी निकालना होगा या नहीं? निकालना तो होगा लेकिन पहले साबुन का अंश निकले फिर मैल निकालें- ऐसा हो नहीं सकता। पहले तो साबुन के माध्यम से कपड़े का मैल निकलेगा, जिसे पाप कहें, उसके उपरांत साबुन का अंश निकलेगा। अंत में सफेदी लाने के लिये आप लोग कपडों को टिनोपाल में भी डालते हैं। कोई व्यक्ति सोचे कि टिनोपाल में डालने से ही वस्त्र चमकदार हो जाते हैं इसलिए साबुन की जरूरत ही नहीं है तो उसका ऐसा सोचना व्यर्थ ही है। गंदे कपड़े टिनोपाल में कितना भी क्यों न डाले जायें, भले ही पूरी डिबिया समाप्त कर दें पर गंदापन नहीं जायेगा। गंदापन निकालने के लिये पहले साबुन का उपयोग करना होगा। साबुन का भी गंदापन है और कीचड़ का भी गंदापन है पर दोनों में बहुत अंतर है। कीचड़ का गंदापन पाप के समान है जो पहले हटेगा। और जैसे-जैसे पाप को हटायेंगे वैसे-वैसे पुण्य की वृद्धि नियम से होती जायेगी। जैसे-जैसे साबुन मलते जायेंगे वैसे-वैसे मैल का अंश निकलता जायेगा और साबुन का अंश बढ़ता जायेगा। जब तक मैल का अंश नहीं हट जाता तब तक साबुन आप रगड़ते ही जायेंगे, तभी काम बनेगा। जहाँ मात्र योग रहता है वहाँ मात्र पुण्य का आस्रव होता है इसलिए योग का अर्थ है मात्र पुण्य का आस्रव होना, परन्तु मोह के साथ पाप का भी आस्रव होगा। मोह को मैल की तरह पहले निकालना होगा। परन्तु अकेला योग साबुन के अंश की तरह आखिरी समय तक रहेगा और बढ़ता ही जायेगा। सोचो जब आप स्नान करते हैं तो पहले साबुन लगाकर मैल हटाते हैं फिर पानी से धोते हैं तब कहीं जाकर तौलिये के माध्यम से उस पानी के अंश को भी सुखा देते हैं। तौलिया मैल निकालने के लिये नहीं है वह तो मैल निकालने के बाद पानी को हटाने के लिये है। मोह अर्थात् कीचड़ या मैल है जिसे निकालने के लिये योग अर्थात् पानी का योग जरूरी है। योग अपना काम करता जाता है, पुण्य आता जाता है और मोह के माध्यम से आने वाला कीचड/पाप समाप्त होता जाता है। जब अकेला योग रह जायेगा अर्थात् जब बदन पर मात्र पानी की बूंदें रह जायेंगी तब आप योग-निग्रह कर लेते हैं अर्थात् तौलिये के माध्यम से शरीर को सुखा लेते हैं। तो वही प्रक्रिया है कि पहले पाप का अभाव होता है और बाद में पुण्य का भी अभाव हो जाता है। जो लोग पहले पुण्य को छोड़ने के लिये कहते हैं उनसे मैं पूछना चाहूँगा कि भाईयों! जब आपके पास पुण्य है ही नहीं तो छोडेंगे क्या? पास में जो पाप है उसे ही पहले छोड़ने की बात आचार्यों ने कही है। पापों का त्याग करके संयम के माध्यम से पुण्य का अर्जन होता चला जाता है और जितनाजितना संयम बढ़ता है उतना-उतना पुण्य भी बढ़ता जाता है। जितना आप लोग जीवन में दान, पूजादि करके पुण्यार्जन करते हैं उतना और उससे भी ज्यादा पुण्य का अर्जन एक मुनिराज आहार लेते हुए भी कर लेते हैं क्योंकि उनके द्वारा कर्मों की निर्जरा के हेतु अपनाया गया संयम असंख्यात गुणी निर्जरा में सहायक होता है। वे न चाहते हुए भी अधिक पुण्य का अर्जन कर लेते हैं और श्रावक चाहते हुए भी उतने पुण्य का अर्जन नहीं कर पाता। सबसे ज्यादा पुण्य का अर्जन करने वाला यदि कोई व्यक्ति है तो वह है संयमी। संयमी में भी यों कहिये यथाख्यात चारित्र को अपनाने वाला और उसमें भी केवली भगवान् के तो अकेला पुण्य का, साता का अर्जन होता है, जो पुण्य को नहीं चाहते हुए भी विशिष्ट पुण्य का अर्जन करते हैं। परंतु विशेषता संयमी की यही है कि उसने पुण्य के फल को ठुकराया है। ध्यान रखना, पुण्य के बंध को कोई ठुकरा नहीं सकता। पुण्य के फल को अवश्य ठुकराया जा सकता है। आप लोग पुण्य के फल को तो अपने पास रखना चाहते हैं, रख लेते हैं लेकिन पुण्य को हेय कहकर उसे छोड़ने की बात करते रहते हैं। दौलतरामजी छहढाला में कहते हैं कि पुण्य पाप फल माही हरख बिलखो मत भाई! वे पुण्य-पाप के बंध की बात नहीं कहते बल्कि पुण्य और पाप के फल की बात कर रहे हैं कि पुण्य और पाप के शुभ-अशुभ फल में हर्ष-विषाद मत करो। पुण्य के फल को भोगने में ही संसारी प्राणी स्वाद का अनुभव करता है और लुब्ध हो जाता है। पुण्य का अर्जन करने वाला संयमी व्यक्ति अपनी आत्मा को नहीं भूलता जबकि पुण्य के फल को भोगने वाला असंयमी व्यक्ति स्वयं को भूल जाता है और पुण्य के फल में रच-पच जाता है। पुण्य का बंध करने वाला जीव आत्मा को भूल जाता है, यदि कोई ऐसा कहता है तो यह उसकी नासमझी ही होगी क्योंकि अरहंत/सर्वज्ञ भगवान् को सबसे अधिक पुण्य का आस्रव होता है लेकिन वे आत्मस्थ रहते हैं। पंचेन्द्रिय विषय रूप पुण्य के फल को भगवान् ने स्वयं ठुकराया और पाप के फल में उन्होंने विषाद नहीं किया। पुण्य के बंध को रोकने में वे भी अभी असमर्थ हैं। आज तक जो भी पाप आ रहा था उसे निकालने के लिए बारह तपों को वृषभनाथ ने अपनाया। पुण्य को हटाने के लिये कल प्रयास होगा तभी मोक्ष की प्राप्ति होगी। इसलिए बंधुओ! सर्वप्रथम पापरूप क्रिया को रोका जाता है और जैसे-जैसे उपयोग अशुभ से हटकर आत्मा में एकाग्र होने लगता है वैसे-वैसे पाप आना बंद हो जाता है, पाप की सत्ता भी नष्ट होती जाती है और अन्तर्मुहूर्त में कैवल्य की उपलब्धि हो जाती है। कैवल्य की उपलब्धि सहज नहीं है, वह ज्ञान की उपयोग की समीचीनता प्राप्त होने पर ही सम्भव है। विचार करो, ज्ञान आपके पास है तो ज्ञान भगवान् के पास भी है। परन्तु जहाँ आपका ज्ञान पूजनीय नहीं है, वहीं भगवान् का ज्ञान पूजनीय क्यों है? अथवा दोनों के ही ज्ञानों में पूज्यता क्यों नहीं है? इस पर विचार करने से ज्ञात होता है कि प्रभु का ज्ञान ही पूज्य है। हमारा ज्ञान कषाय से अनुरंजित है और वे कषाय से रहित हैं। वैसे आत्मा में अनन्त गुण विद्यमान हैं किन्तु उन गुणों में से एक गुण ही ऐसा है जिसके कारण उसे परेशानी हो रही है। वह गुण ज्ञानगुण है। इस चेतन गुण में ही ऐसी शक्ति है जो स्व और पर को जान लेता है, वस्तु को देखकर राग-द्वेष-कषाय से प्रभावित हो जाता है। हमारा-छद्मस्थों का ज्ञान अपूर्ण है, वहीं सर्वज्ञ भगवान् का ज्ञान पूर्ण है, वे कषाय तथा राग-द्वेष से भी रहित हैं। यही हमारे एवं उनके ज्ञान की अपूज्यता-पूज्यता के लिये कारणभूत है। कई सज्जन कहते हैं कि पाप के समान पुण्य भी हेय है। मैं उनसे पूछना चाहता हूँकि पुण्य का अभाव कहाँ पर होता है? पाप कहाँ पर बाधक है? पुण्य का बंध मोक्षमार्ग में बाधक नहीं बनता किन्तु मोक्ष में बाधक है। पुण्य का बंध होता रहता है और मोक्षमार्ग अबाध रूप से चलता रहता है। मोक्षमार्ग तो चौदहवें गुणस्थान तक चलता है और तेरहवें गुणस्थान तक पुण्य का बंध होता रहता है, वह बाधक नहीं बनता। अगर पुण्य बाधक होता तो वहाँ पर पहुँचता ही कैसे? इसलिए अभी पुण्य बंध अपने लिए छोड़ने योग्य नहीं है लेकिन पुण्य का फल अवश्य छोड़ने योग्य है। मैंने अभी शुभ और अशुभ भावों की बात कही थी कि अशुभ-भाव से पाप का बंध होता है और शुभ भाव से पुण्य का बंध होता है। केवलज्ञान होने के उपरांत भी साता वेदनीय रूप गुण का आस्रव होता रहता है, उससे केवलज्ञान में कोई बाधा नहीं आती। इसे 'सर्वार्थसिद्धि' में ‘पूज्यपाद स्वामी' ने स्पष्ट करते हुए लिखा है कि पुनाति आत्मानं पवित्री करोति इति पुण्यं- जो आत्मा को पावन बनाये वह पुण्य है। केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए 'केवल-पुण्य' की ही आवश्यकता है, पाप मिश्रित पुण्य की नहीं। जिसमें पाप का एक अंश भी नहीं है ऐसे केवल-पुण्य के द्वारा कैवल्य की प्राप्ति होती है और ऐसे पुण्य का आस्रव मात्र योग के माध्यम से होता है। योग भी भाव है और यह भाव किसी कर्म-कृत नहीं है किन्तु आत्मा का परिणामिक भाव है। इस बात का उल्लेख वीरसेन स्वामी ने धवला-ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से किया है। योग आत्मा की क्रियावती शक्ति है जिसके माध्यम से आत्मा में परिस्पंदन होता है जिसके फलस्वरूप कर्मवर्गणायें आती हैं और चली जाती हैं। यदि वहीं पर मोह हो तो वे चिपक जाती है लेकिन मोह के अभाव में मात्र योग होने से वे टकराकर वापिस चली जाती हैं। योग जब तक हैं तब तक कर्मों का आना रुकता नहीं है। इसलिए सर्वप्रथम पाप रूपी रेणु न आये इसका प्रयास किया जाना चाहिए। यदि अपनी आत्मा को शुद्ध बनाना चाहते हो तो यही क्रम अपनाना होगा। आत्म लक्ष्य हो जाने पर हेय क्या है? उपादेय क्या है? यह सहज ही समझ में आ जायेगा। अन्तर्दूष्टि हो जाने पर हेय का विमोचन होता जायेगा तथा उपादेय ग्रहण/उपलब्ध होता जायेगा। क्या हो गया, समझ मैं मुझको न आता। क्यों बार-बार मन बाहर दौड़ जाता॥ स्वाध्याय, ध्यान करके मन रोध पाता। हैशवान सामनसदा मला शोध लाता॥१॥ मन की चाल श्वान जैसी है, वह अन्दर अच्छी जगह टिकना नहीं चाहता। जैसे पालतू कुत्ता आपके घर में रहता है, जब तक आप उसे रस्सी से बाँधकर रखते हैं तब तक यह घर में रहता है। थोड़ा रस्सी छोड़ दो तो बाहर निकल जाता है और बाहर उसकी दृष्टि पहले मल की ओर ही जाती है। इसी प्रकार मन बाहर चला जाता है तो वह कषायों को, पाप को ही साथ लेकर आता है। इसलिए यदि पाप से बचना चाहते हो, उसे दूर हटाना चाहते हो तो मन को बाहर ही मत भेजो। मन को अपने भीतर ही एकाग्र करने की कोशिश करो। यह कार्य कठिन है लेकिन जैसे गर्म खीर को खाने के लिये पहले किनारे से फ्रैंक-फूंककर खाना शुरू कर देते हैं, बीच में हाथ नहीं डालते इसी प्रकार मन को एकाग्र करने के लिये अपना प्रत्येक समय सावधानीपूर्वक धीरे-धीरे अपनी आत्मा को ही देखने में लगाना चाहिए। एक बात और सुनने में आती है कि संसारी जीव के केवलज्ञान आत्मा में विद्यमान है और पूर्ण रूप से तो नहीं-मात्र किरण के रूप में सामने आता है अर्थात् हमारा जो ज्ञान है वह भी केवलज्ञान का ही अंश है। लेकिन ऐसा नहीं है क्योंकि ध्यान रखना, केवलज्ञान तो क्षायिक ज्ञान है और उस केवलज्ञान का अंश भी क्षायिक ही होगा, वह क्षायोपशमिक हो नहीं सकता जबकि हमारा ज्ञान अभी क्षायोपशमिक है। साथ ही केवलज्ञानावरण ये कर्म प्रकृति सर्वघाती प्रकृति है। सर्वघाती उसे कहते हैं जो आत्मा के विवक्षित गुण का एक अंश भी प्रकट नहीं होने देती। केवलज्ञान जब भी होगा वह पूर्ण ही होगा। एक समय के उपरांत होने वाला केवलज्ञान एक समय पूर्व भी नहीं हो सकता, एक अंश में भी उदय में नहीं आ सकता। क्योंकि केवलज्ञान की पूर्ण शक्ति को मिटाने वाला केवलज्ञानावरण कर्म विद्यमान है। कार्तिकेय स्वामी ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है का वि अपुव्वा दीसदि, पुग्गलदव्वस्स एरिसी सती। केवलणाणसहाओो, विणासिदो जाइ जीवस्स॥ २११॥ पुद्गल की कोई अमूर्तिक शक्ति ऐसी अवश्य है जिसने केवलज्ञान रूप आत्मा के गुण को समाप्त कर रखा है, जरा भी प्रकट नहीं होने दिया है। इसलिए हमारा जो वर्तमान ज्ञान है वह क्षायोपशमिक ज्ञान है, वह सामान्य कोटि का है। केवलज्ञान की कोटि का नहीं है। बंधुओ! केवलज्ञान तो असाधारण ज्ञान है जिस ज्ञान की महिमा अपरंपार है, वह ज्ञान पूज्य है। ऐसे केवलज्ञान की तुलना अपने क्षयोपशम ज्ञान के साथ करना उचित नहीं है। साथ ही यह करणानुयोग को नहीं समझना ही है। पुरुषार्थसिद्धियुपाय में अमृतचन्द्रसूरी ने लिखा है कि- तज्जयति परं ज्योति: समं समस्तैरनंत-पर्याये: । दर्पण तल इव सकला प्रतिफलति पदार्थ मालिका यत्र॥ केवलज्ञान में दुनिया के सारे पदार्थ झलक रहे हैं, सभी पर्यायें झलक रही है। प्रतिबिंबित हो रही है। केवलज्ञान का प्रकाश दर्पण के समान स्वच्छ निर्मल और आदर्श है। इसलिए पूजनीय है। हमारा ज्ञान पूज्य नहीं है क्योंकि वह कषाय से अनुरंजित है। बंधुओ! दिव्य आत्मा बनने की शक्ति हमारे पास ही है। हम उसे दिव्य/आदर्श बना सकते हैं। अभी वह मोह के माध्यम से कलुषित हो रही है। इसी मोह को हटाने का पुरुषार्थ करना चाहिए। आदिनाथ स्वामी ने जिस प्रकार क्रमश: संयम और तप के माध्यम से शुद्धात्मानुभूति को प्राप्त किया है उसी प्रकार हमें भी प्रयास करना चाहिए। वे धन्य हैं जिन्होंने केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया है, वे भी धन्य हैं जो केवलज्ञान को प्राप्त करने में रत हैं और वे भी धन्य हैं जो केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना को अपनाने की रुचि रखते हैं।
  17. संस्कार विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार विषय मात्र तात्कालिक ही होते हैं, लेकिन धार्मिक संस्कार तात्कालिक और त्रैकालिक सुख देने वाले होते हैं। आज के युग में अण्डे को शाकाहार और दूध को माँसाहार घोषित किया जा रहा है, इसलिए कहना पड़ रहा है कि देश में धार्मिक संस्कारों की अत्यन्त आवश्यकता है। संस्कार बचाये रखना चाहते हो तो बच्चों का निर्यात बंद कर दो उन्हें विदेश भेजना बंद कर दो, अंतर्राष्ट्रीय की जगह आत्मजगत् की ओर बढो। नगर के पास एक धार्मिक स्थल अवश्य होना चाहिए, नसिया आदि, ताकि वहाँ जाकर ध्यान, चितंन किया जा सके, आज ऐसा स्थान न होने से युवा वर्ग कश्मीर आदि जाने लगे हैं, इसलिए धार्मिक संस्कार समाप्त होते जा रहे हैं। जीवन में ऐसे संस्कार डालो ताकि रत्नत्रय मावा के रूप में रहा आवे और शरीर व कषाय रूपी पानी समाधि की अग्नि में आहूत हो जावे। जीवन में वर्गीकरण के अभाव में आज संस्कार एवं संस्कृति का अभाव होता चला जा रहा है। बच्चों को दान धर्म की बातें सिखाओ। करुणा, दया, परोपकार के संस्कार डालो, तभी संस्कृति सुरक्षित रह सकेगी। इस बुन्देलखण्ड में अद्वितीय सम्पदा देखने को मिली है वह यह है कि यहाँ की जनता में देव-शास्त्र व गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा है। जीवन का मूल्यांकन धन, वैभव से न करके वस्तुत: उच्च विचारों, संस्कारों के माध्यम से किया जाता है। यह सब संस्कार का ही प्रभाव है कि विषयों के बीच में रहकर भी उन्हें बिना ग्रहण किए संतुष्ट है। पहले के लोगों में भाव/संस्कार उज्वल थे, उन्हीं से आज धर्म टिका हुआ है। वही व्यक्ति धर्म की बात कर सकता है, जिसके जीवन में सात्विकता आ जाती है। आज के संस्कार उच्छंखल बनाने वाले हैं, आध्यात्मिक विकास को रोकने वाले हैं। आज साहित्य का सृजन अच्छा इसलिए नहीं हो रहा है क्योंकि आज विषयों की चिन्ता में लगे मानव को चिन्तन के लिए समय ही नहीं है। आज जीवन का स्तर जमीन में घुस गया है, अब उसे और नीचे मत ले जाओ। आगे में गुण तभी रह सकते हैं जबकि पीछे में गुण पहले से ही विद्यमान हों। पेड़ की जड़े कभी अंकुर की तरह उपर नहीं आती, जैसे ही अंकुर होता है वैसे ही जड़े पाताल कि ओर चली जाती हैं। इसी प्रकार आदर्श के अंकुर के साथ जड़ें भी पाताल (इतिहास) से संबंधित होना चाहिए। पूर्व संस्कार के साथ चलोगे तो उपदेश का कोई प्रभाव पड़ेगा नहीं। संसारी प्राणी के ऊपर मोह के अलावा कोई संस्कार नहीं पड़े। संस्कार के अभाव में करोड़पतिपना निरर्थक है। विदेश की अच्छाई को अपनाइये विदेश नीति को मत अपनाइये। देश विषयों का गुलाम होता जा रहा है, स्वाभिमान गायब होता चला जा रहा है। अर्थनीति फेल हो जाती है लेकिन परमार्थ नीति फेल नहीं होती इसका ध्यान रखें। सात्विक जीवन रखने से सात्विकता आती है एवं प्रतिभा का विकास होता है। प्रतिभा तो अंदर रहती है, संस्कारों के माध्यम से बाहर आती है। व्यसनों से शारीरिक स्वास्थ्य की हानि, धर्म की हानि, अर्थ की हानि होती है, इसलिए व्यसनों से बचना चाहिए। जीवन में उन्नति चाहते हो तो अपने खान-पान को, वाणी को व अपने व्यवहार को पवित्र बनाइये। इस बहुमूल्य समय का उपयोग सदाचरण के पालन करने में कीजिए। जब हम संस्कार पवित्र रखेंगे तभी महावीर जैसी आत्मायें हमारे घर में जन्म लेंगी। गर्भवती होने पर सीता तीर्थयात्रा पर जाती थी तभी उनके बच्चे संस्कारवान बने अपने पिता को भी हरा दिया। आप विदेशी संस्कार डालकर बच्चे का उद्धार करना चाहते हैं, यह सम्भव नहीं है। आप अपने बच्चों की केवल अर्थव्यवस्था को लेकर पढ़ाई कराते हैं परमार्थ के बारे में नहीं सोचते। आत्मा की बात सुनने के लिए पूर्व में कुछ संस्कार डालना भी अनिवार्य होते हैं। इंजेक्शन लगाते समय उस स्थान को स्प्रिट से साफ करना पड़ता है, ये पूर्व संस्कार अनिवार्य है ; विज्ञान भी इसे स्वीकारता है | देशना लब्धि (जिनवाणी सुनने) की पात्रता उसी में है, जो भक्ष्याभक्ष्य का विवेक रखता है। सम्यग्दर्शन की भूमिका उसी में आती है, योग्यता आती है, जो व्यसन मुक्त हो। तीर्थंकरों के जीवन के संस्कारों को जब तक हम अपने जीवन में नहीं उतारेंगे तब तक हमारा उनसे सम्बन्ध नहीं जुड़ सकता। शिक्षण और संस्कार में बहुत अंतर होता है, संस्कारवान् ही जानता है कौन-सा पौधा अनाज का है कौन-सा घास का ? अपनी संतान धर्म में समर्पित होकर जीवनयापन करें, ऐसे संस्कार डालते जाओ। संस्कार इत्र के समान होने चाहिए, उन्हें बताना न पड़े अपने आप लोगों को उसकी महक आ जावे। यदि संतान लोक-कल्याण का मार्ग अपनाती है तो उनके माता-पिता को भी बहुत कुछ प्राप्त हो जाता है। जो संस्कार हमें पूर्वजों से मिले हैं, वे आगे की पीढ़ी को सिखाते जाओ वरन् पीढ़ी भटक जावेगी। आज की समस्याओं का समाधान संस्कार से ही सम्भव है। संस्कार के अभाव में जीवन की कीमत कोडी की ही रहेगी। बचपन के संस्कार वृक्ष की जड़ के समान हैं, यदि जड़ में कीड़ा लगा हो तो पौधे की वृद्धि नहीं हो सकती उसी प्रकार कुसंस्कार के कारण बालक के जीवन का विकास नहीं हो सकता।
  18. आज मुनिराज वृषभनाथ भगवान् बनने का पुरुषार्थ कर रहे हैं। एक भक्त की तरह भगवान् की भक्ति में लीन होकर आत्मा का अनुभव कर रहे हैं। संसार क्या है ? इसके चिंतन की अब उन्हें आवश्यकता नहीं है किन्तु एक मात्र स्व-समय की प्राप्ति की लगन लगी हुई है। 'समय' का अर्थ यहाँ आत्मा से है। इस आत्मा की प्राप्ति के लिये ही साधना चल रही है। 'समय' की व्याख्या आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने की है जो हमें उपलब्ध है लेकिन सभी को उसका बोध नहीं हो पा रहा है। इसलिए 'समय' की व्याख्या संक्षेप में यहाँ आज करूंगा। समीचीन रूप से जो अपनी निधि को प्राप्त कर रहा है, जो अपने आपको संभालने में लगा हुआ है तथा बहिर्मुखी दृष्टि को जिसने त्याग दिया है, ऐसी समय की व्याख्या प्रत्येक द्रव्य पर घटित हो जाती है किन्तु यहाँ पर विशेष रूप से मोक्षमार्ग में उपादेयभूत जो समय है वह स्व-समय है। जो अपने गुण, अपनी पर्याय और अपनी सत्ता के साथ एकता धारण करते हुए बहिर्मुखी दृष्टि को हटाकर उत्पाद, व्यय और धौव्य रूप अपनी आत्मा में लीन है उसका नाम 'स्व-समय' है। अपने को सहीसही जानना, अपने में रहना और अपनी सुरक्षा करते रहना यही स्व-समय है। यहाँ पंडाल में कभी-कभी देखता हूँकि स्वयंसेवकों की संख्या जनता से भी अधिक हो जाती है और स्वयंसेवकों से ही अव्यवस्था फैल जाती है। स्वयंसेवक का अर्थ अगर आप गहराई से समझें तो स्वयंसेवक कहो या कि स्व-समय कहो-एक ही बात है। अपने आपकी जो सेवा करता है वही वास्तविक स्वयंसेवक है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ का प्रारम्भ करते हुए भव्य जीव के लिए एक विशेषण दिया है- स्व-हितं उपलिप्सु:- जो अपने हित को चाहता है। अपना हित किसमें है- यह भलीभांति जानता है- वही भव्य है। स्व-पर कल्याण करने की दृष्टि तो अच्छी है परन्तु पर के कल्याण में ही लग जाना और स्व को भूल जाना- वह उचित नहीं है। स्व-हित की इच्छा होना ही वास्तविक धर्मानुराग है, वास्तविक अनुकम्पा है, दया है और वास्तविक जैनत्व भी वही है। अपने ऊपर कषाय रूपी वैभाविक भावों की जो सत्ता चल रही है, जो विकारी भावों का प्रभाव पड़ रहा है उसको मिटाने की जिज्ञासा जिसे हो, वह भव्य है। इसके अलावा जो भी है उन्हें सज्जन भले ही कह दें, परन्तु निकट भव्य नहीं कह सकते। भव्य का अर्थ होता है होनहार! 'भवितं योग्य: भव्य:' - जो होने योग्य हो। होनहार के लक्षण अलग ही होते हैं जिन्हें देखकर ही होनहार कहा जाता है। आप लोगों के घर में जब कोई बच्चा पैदा होता है तो आप उसके कुछ विशेष लक्षणों को देखकर उसे होनहार कहते हैं। मान लीजिये दो बच्चे हैं, एक शैतानी करता है तो उसे शैतान कहते हैं और यदि शीत रहता है तो होनहार निकलेगा- ऐसा कहते हैं। जो होने की योग्यता रखता है सैद्धान्तिक भाषा में उसे ही भव्य कहते हैं। होने की योग्यता का अर्थ यही नहीं है कि वह बड़ा होगा। बड़े तो सभी होते हैं। वय के अनुसार बढ़ने का अर्थ होनहार नहीं है। होनहार तो आप उसे मानते हैं जिसमें आपकी इज्जत और घर की संस्कृति, परम्परा की सुरक्षा के लक्षण दिखाई देते हैं। हांलाकि आप पालन-पोषण दोनों बच्चों का समान रूप से करेंगे/करते हैं- यह बात अलग है लेकिन भीतर ही भीतर उस होनहार बालक के प्रति आपके मन में प्रेम अधिक रहता है। गुरु का शिष्य के प्रति प्रेम भी इसी प्रकार हुआ करता है। एक कक्षा में बहुत से विद्यार्थी होते हैं, गुरु सभी को एक सी शिक्षा देते हैं लेकिन जो गुणवान हैं, होनहार हैं उनके प्रति गुरुओं के मन में सहज ही प्रमोद भाव आता है। एक और विशेषण आता है कि वह ‘प्रज्ञावान' भी हो। सो ठीक ही है। बुद्धिमान भी होना चाहिए। लेकिन ऐसी बुद्धिमानी किस काम की कि अपना हित भी न कर सके। इसीलिए बुद्धिमान होना कोई बड़ी बात नहीं है। वह तो ज्ञान की परिणति है। कम या ज्यादा सभी के पास होती है लेकिन स्व-कल्याण की मुख्यता होनी चाहिए। भक्तामर स्तोत्र की- 'आलंबनं भवजले पततां जनानाम्-' ये पंक्ति प्रत्येक व्यक्तिके मुख से सुनने को मिल जाती है। इसका अर्थ यही है कि जिन्होंने अपना कल्याण कर लिया उनके नाम का स्मरण/आलम्बन लेने वालों की संख्या बहुत है। जो अपना कल्याण कर लेता है वही पर का कल्याण कर सकता है। मैं पर-कल्याण का निषेध नही कर रहा, लेकिन कहना इतना ही है कि भाई! पर-कल्याण में लग जाना ठीक नहीं है। जब मैं विद्यार्थी था तो परीक्षा भवन में सभी विद्यार्थियों के साथ परीक्षा पेपर हल कर रहा था और समीप बैठा हुआ एक साथी बार-बार कुछ प्रश्नों के उत्तर मुझ से पूछ रहा था। अब परीक्षा भवन में तो ऐसा है कि जो सही उत्तर लिखेगा उसे ही नम्बर मिलेंगे। जो अपने उत्तर न लिखकर मात्र औरों को उत्तर लिखाने में लगा रहेगा वह परीक्षा में पास नहीं हो सकेगा। इसलिए परहित कितना, कब और कैसा होना चाहिए यह भी समझना हमें जरूरी है। मेरे मन में उसे उत्तर लिखकर देने का भाव तो आया लेकिन घड़ी की तरफ देखा तो सिर्फ पन्द्रह मिनट शेष थे, एक प्रश्न का उत्तर लिखना अभी मेरे लिये शेष था, ऐसी स्थिति में अगर ‘पर' की ओर देखता तो 'स्व' के उत्तर भी नहीं लिख पाता। आचार्यों ने कहा है कि स्वहित करो, साथ ही परहित भी करो लेकिन स्वहित पहले अच्छी तरह करो। इसलिए भाव होते हुए भी पहले अपने हित की चिंता मैंने की। यह बात आपको कठोर जान पड़ेगी लेकिन गहराई से विचार करेंगे तो कठोर नहीं लगेगी। जैसे माता-पिता कई बार अपने बच्चों के प्रति कठोर हो जाते हैं। जब वह शैतानी करता है, पैसे चुराकर घर से भागकर घूमता रहता है, कुसंगति में पड़कर पैसा बरबाद करता है तो उसे वे डांटते, मारते-पीटते भी हैं और घर से बाहर निकालने की धमकी भी देते हैं, पर उनका मन भीतर से कठोर नहीं होता। यदि बेटा घर छोड़कर जाने की बात करता है तो वही माता-पिता रोने लग जाते हैं, उसे मनाते भी हैं। यही बात हमारे पूर्वाचार्यों ने मोक्षमार्ग में भी ध्यान में रखी है। हित की दृष्टि से कहीं-कहीं कड़ी बात भी की है। मृदुता और कठोरता दोनों एक ही वस्तु के दो पहलू हैं। आप नवनीत की मृदुता से परिचित हैं और जानते हैं कि मृदु से मृदु पदार्थ यदि कोई है तो वह नवनीत है। वह कठोर से कठोर भी है क्योंकि यदि नवनीत को तलवार चाकू से काटो तो भी नहीं काट सकते। जो नहीं कटे वही तो व्यवहार में कठोर माना जाता है। दूसरी बात यह भी है कि यदि नवनीत को जरा सा अग्नि का संयोग मिले तो वह पिघल जाता है। इसी प्रकार आचार्यों की वाणी भी नवनीत के समान है जिसमें कभी कठोरता भले ही आ जाती हो लेकिन हृदय में तो उनके मृदुता ही रहती है। जो डॉक्टर शल्य-चिकित्सा करते हैं और जो लोग शल्य-चिकित्सा करवाते हैं, वे जानते हैं कि पहले घाव को साफ करना होता है फिर आवश्यक होने पर काटा भी जाता है तभी मरहमपट्टी होती है। घाव पर सीधे दवाई नहीं लगाते, उसे साफ-सुथरा करते हैं जिसमें पीड़ा भी होती है लेकिन भाव तो घाव ठीक करने का होता है। अर्थात् सभी जगह निग्रह और अनुग्रह दोनों ही हैं। अपराध करने पर अपराधी को दंड भी दिया जाता है लेकिन वह दंड उसे अपराध-भावना से मुक्त करने के लिए है, शुद्धि के लिये है। खेल खेलता कौतुक से भी रुचि ले अपने चिंतन में, मर जा पर कर निजानुभव कर घड़ी-घड़ी मत रच तन में। फलत: पल में परमपूत को द्युतिमय निज को पायेगा, देह-नेह तज, सजा निज को, निज के निज घर जायेगा। १॥ जिस प्रकार आर्थिक लाभ के लिये आप लोग जैसे-तैसे भी मेहनत-मजदूरी करके लेकिन न्याय-नीति पूर्वक धन का अर्जन करते हैं उसी प्रकार आचार्य कहते हैं कि मनुष्य जीवन पाकर आत्मा के बारे में थोड़ा चिंतन तो जरूर करें। भले मेहनत क्यों न करनी पड़े, कष्ट भी क्यों न सहने पड़े, पर आत्मा की प्राप्ति के लिए कदम तो अवश्य बढ़ाओ। कई लोग कह देते हैं महाराज! सामायिक के लिये आसन लगाकर जब बैठते हैं तो घुटनों में दर्द होने लगता है, अब सामायिक कैसे करें ? तो हम यही कहते हैं कि भइया! सांसारिक कार्य करने के लिए दर्द होने पर भी कितना परिश्रम करते हो, उतना/वैसा ही मोक्ष-मार्ग में भी करो। कम से कम अड़तालीस मिनट सामायिक करने के लिए एक आसन पर तो बैठो। जिस प्रकार हलुआ बनाने में भले ही दो-चार घंटे लग जाते हैं, मेहनत भी होती है लेकिन खाने में तो थोड़ा सा समय लगता है और तृप्ति भी मिलती है, इसी प्रकार एक अंतर्मुहूर्त तक एकाग्र चित्त होकर ध्यान करने से अनादिकाल से अप्राप्त आत्मानुभूति सम्भव है। भूमिका होनी चाहिए। और दूसरी बात, उस ध्यान के काल में यदि मरण भी हो जाता है तो डरने की बात नहीं है, मरण तो शरीर का होता है, आत्मा नहीं मरती। आत्मा तो ध्यान करने से तरती है। आचार्यों ने कहा कि अपने कल्याण के लिए आत्मानुभूति होना आवश्यक है। शुद्धोपयोग होना आवश्यक है। इतना जरूर है कि जब शुद्धोपयोग से च्युत होकर शुभोपयोग की दशा में आ गये हो तो पर-कल्याण हो सकता है लेकिन साथ ही साथ कर्मबंध भी होगा। भैया! ऐसी कौन सी दुकान है, ऐसा कौन सा व्यापार है जिसमें कोई व्यक्ति स्वयं तो घाटे में रहे और दूसरों को मुनाफा देता रहे। ऐसा कोई भी नहीं करता। सभी अपने हित की चिंता करते हैं। और जिसने अपना हित किया है वही दूसरे का भी हित कर सकता है। जिसने आज तक अपने हित की बात ही नहीं सोची वह दूसरे के कल्याण की कल्पना भी नहीं कर सकता। भिखारी दूसरे को भीख नहीं दे सकता। इसलिए अच्छा तो यही है कि पहले स्वयं का हित करो और दूसरे का अहित मत सोची। सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की शरण में जाकर आत्मतत्व को पाने के लिए अपनी ओर कदम बढ़ाओ। एक समय की बात है, जंगल में एक व्यक्ति भटक गया। घना जंगल था, जहाँ पर सूर्य की किरणें भी प्रवेश नहीं कर पाती थीं। दिन में और रात में भी अंधकार रहता था। एक-दो दिन यूँ ही बीत गये पर कोई दूसरा व्यक्ति रास्ता बताने वाला नहीं मिला। तीसरे दिन अचानक एक व्यक्ति दूर से आता हुआ दिखाई दिया। भटका हुआ व्यक्ति विचार करने लगा कि चलो अच्छा हुआ, तीसरे दिन कोई तो मिला। भागता हुआ वह दूसरे व्यक्ति के चरणों में आकर गिर गया और कहने लगा कि बहुत अच्छा हुआ जो आप मिल गये। यहाँ से निकलने का कोई रास्ता हो तो मुझे बताओ। मैं तीन दिन से भटक रहा हूँ। दूसरा व्यक्ति कहने लगा -भाई! क्षमा करो, मैं क्या बताऊँ। मुझे भी भटकते हुए पाँच दिन हो गये हैं। मैं भी इसी खोज में था कि कोई साथी मिले तो निर्वाह हो जाये। बस! ऐसी ही स्थिति सभी संसारी प्राणियों की हो रही है। सब भटके हुए लोग एक दूसरे की शरण खोज रहे हैं। भगवान् की शरण में कोई नहीं जा रहा। वे दोनों भटके हुए व्यक्ति एक दूसरे के साथ मजे से रहने लगते हैं। घूमने-फिरने लगते हैं। धीरे-धीरे उनकी संख्या बढ़ने लगती है। शहर बन जाता है। अब उन्हें कोई भटका हुआ नहीं मानता। वे भटक गये थे- यह बात उन्हें स्वयं भी स्मृति में नहीं रहती। जैसे दो पागल मिल जाते हैं तो अपने आप को होशियार मानने लगते हैं और शेष सभी उनकी दृष्टि में पागल नजर आते हैं। चार पागल लोग मिलकर, जो ठीक है उसे भी पागल बना देते हैं। वे उसे समझाते हैं कि व्यर्थ भटकते क्यों हो। हमारे साथ आ जाओ, तुम अकेले हो, क्या तुम्हारा रास्ता ठीक हो सकता है ? हम चार हैं, हम ही ठीक हैं। इस तरह भटकने वालों की संख्या बढ़ती ही जाती है। लेकिन जो समझदार हैं जिन्हें स्व-कल्याण की इच्छा है वे ऐसी किसी शरण में नहीं जाते। वे तो सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की शरण को नहीं छोड़ते क्योंकि इन्हीं के माध्यम से हमारी अनादिकालीन भटकन समाप्त हो सकती है। बहुमत कहाँ नहीं होता ? नरक में नारकियों का बहुमत है और स्वर्ग में देवों का बहुमत है, पागलों का भी बहुमत होता है। पागलखाने में पागलों की आपस में तुलना की जाती है। कोई कम पागल है और कोई ज्यादा पागल, लेकिन पागल तो सभी हैं। ऐसे बहुमत की सत्य के लिये कोई आवश्यकता नहीं है। सच्चे पथ के लिए दूसरे से तुलना करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। सत्य एक ही बहुत होता है। एक मात्र सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की शरण ही पर्याप्त है भले ही बहुमत हो, या न हो। जो स्वहित चाहते हैं वे ऐसे बहुमत/जमघट से प्रभावित नहीं होते। अपने कल्याण में लगे रहते हैं। संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर जीवन जीते हैं। देह का नेह अर्थात् शरीर के प्रति मोह ही सबसे खतरनाक है। हमें इस शरीर का ज्ञान पहले होता है फिर शरीर के माध्यम से ही अन्य पर-पदार्थों का ज्ञान होता है। शरीर के पोषण के लिये ही संसार में सारे आविष्कार हुए हैं। इसलिए आचार्यों ने कहा है कि एक बार जीवन में शरीर पड़ोसी बन जाये, शरीर के प्रति मोह की दीवार टूट जाये तो एक अन्तर्मुहूर्त में आत्मानुभूति संभव है। हमारे लिए इस भौतिक जगत् से हटाकर आत्मानुभूति का उपाय बतलाने वाले आविष्कारक कुन्दकुन्द ही तो हैं। मोह रूपी मदिरा पीकर ही व्यक्ति अनादिकाल से अपने स्वरूप को जान नहीं पा रहा है। इन्द्रिय-ज्ञान के माध्यम से इसे जाना भी नहीं जा सकता। इन्द्रियों का ज्ञान नियत और सीमित है, काल भी सीमित है। घड़ी को देखकर आपको घड़ी का व्यवहार ज्ञान हुआ, यदि यह घड़ी दूर रखी हो तो आप देख नहीं सकते। ऐसे ही यदि उस घड़ी को आँखों से चिपका लेंगे तो भी दिखाई नहीं देगा। इससे सिद्ध होता है कि इन्द्रिय-ज्ञान सीमित है। इस इन्द्रिय-ज्ञान पर अभिमान नहीं करना चाहिए। ज्ञेय पदार्थों को जानने की क्षमता इन्द्रिय-ज्ञान के पास सीमित है, मर्यादित है। ये चर्म-चक्षु ऐसे हैं कि अपने आपको ही नहीं देख सकते। आपकी आँख में कुछ चीज गिर जाये तो किसी दूसरे से निकलवाना पड़ता है। अपनी ही एक आँख के माध्यम से दूसरी आँख में गिरी हुई मिट्टी आदि नहीं दिखती। आप दुनियाँ को तो इन आँखों से देख सकते हैं लेकिन स्वयं को नहीं देख पाते। स्वयं को देखने के लिये दो आँखें बेकार हैं। ठीक भी है, जो आँखें स्वयं को नहीं देख पाती, वे किस काम की। इसलिए आचार्यों ने कहा है कि दया में निष्ठा लाओ, अहिंसा का पालन करो और इन्द्रियों का दमन करो। इन्द्रिय-ज्ञान को समाप्त कर दो अर्थात् बहिर्दूष्टि को समाप्त करके अंदर की ओर देखो। दया–दम-त्यागसमाधिनिष्ठ, नय–प्रमाणप्रकृताञ्जसार्थम्। अघृष्यमन्यैरखिलैः प्रवादैः, जिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥१॥ इसी बात को समझाते हुए संवर के प्रकरण में आचार्य उमास्वामी भी कहते हैं- 'स गुप्तिसमिति-धर्मानुप्रेक्षा-परीषहजयचारित्रै:।' संवर को प्राप्त करने के लिये सर्वप्रथम महाव्रतों को अंगीकार करना चाहिए। चारित्र धारण करना चाहिए। चरित्र धारण करने के उपरांत परीषहजय को नहीं भूलना चाहिए। परीषह-जय बारह भावनाओं के चिंतन/मनन द्वारा कर लिया जायेगा। बारह भावना किसलिए हैं, तो कहा कि दशलक्षण-धर्म प्राप्त करने के लिये। दशलक्षण-धर्म किसलिए हैं, हमारी समीचीन प्रवृत्ति हो इसलिए अर्थात् समिति के लिए और समीचीन प्रवृत्ति गुप्ति की ओर ले जाने के लिए है और गुप्ति साक्षात् संवर, निर्जरा और मोक्ष के लिए साधन है। सब एक दूसरे के लिए पूरक बनते चले जाते हैं। इसी प्रकार समाधि के लिये दया और दया के लिये इन्द्रिय-दमन और इन्द्रिय-दमन के लिये त्याग जरूरी है। जो व्यक्ति इंद्रियों का दास हो जायेगा, वह हेय-उपादेय को नहीं जान पायेगा। ऐसी स्थिति में बिना हेय-उपादेय के ज्ञान के वह हेय को, दोष को कैसे छोड़ पायेगा ? इसलिए शरीर को पड़ोसी बनाओ, यह कहा गया। शरीर में स्थित इन्द्रियों के माध्यम से ही विषयों का संग्रह होता है और विषयों का संग्रह जहाँ होता है वहीं मूच्छी आती है और कर्म बंध जाते हैं। कर्मबंध होने से ही गति-आगति होती है। संसार में भटकना होता है। पुन: शरीर और इन्द्रियाँ मिलती है। इन इन्द्रिय रूपी खिड़कियों के माध्यम से विषयरूपी हवा आने लगती है। इन्द्रियविषयों के ग्रहण होते रहने से कषाय जागृत हो जाती है। कषायों के माध्यम से पुन: बन्ध हो जाता है और संसारी जीव इस तरह जंजाल में फंसता ही जाता है। बिना इन्द्रिय-दमन के मात्र चर्चा कर लेने से समाधि का द्वार खुल नहीं सकता। एक मक्खी आकर शरीर पर बैठ जाती है तो आप उसे उड़ाने/हटाने की चेष्टा करते हैं या फिर मच्छरदानी का इन्तजाम करते हैं। ऐसे वातानुकूल भवन में बैठकर समाधि की चर्चा भले ही हो जाये लेकिन समाधि नहीं हो सकती। समाधि प्राप्त करने के लिए तो वृषभनाथ भगवान् के द्वारा बताये गये मार्ग का अनुसरण करना होगा। समाधि के लिए दया, दम और त्याग को अपनाना होगा। इसके बिना कोई सीधा और छोटा रास्ता नहीं है। यदि इसके बिना समाधि प्राप्त करने के लिए कोई शार्टकट ढूँढ़ने जाओगे तो समाधि के बदले आधि-व्याधियों में ही उलझ जाओगे। समाधि कोई हाथ में लाकर रख देने की चीज नहीं है। वह तो साधना के द्वारा ही मिल सकती है। जितना दया का पालन करेंगे, जितना इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करेंगे, कषायों का त्याग करेंगे उतना ही समाधि के निकट पहुँचते जायेंगे। समाधि के द्वार पर लगे तालों को खोलने के लिये इन्हीं चाबियों की जरूरत है। बंधुओ! पुरुषार्थ करो। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने कहा है कि यदि दुख से मुक्ति चाहते हो तो श्रमणता अंगीकार करो। श्रमण हुए बिना आत्मानुभूति नहीं हो सकेगी। प्रवचनसार की चूलिका में आचार्य स्वयं कहते हैं कि आत्मानुभूति के लिये पंचाचारों का होना अनिवार्य है और पंचाचार का सीधा सा अर्थ है कि पाँच पापों को मन, वचन, काय से छोड़ना होगा। महाव्रती ही पंचाचार का पालन करता है। आचार्य पंचाचारों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि ‘हे दर्शनाचार, हे ज्ञानाचार, हे चारित्राचार, हे तपाचार और हे वीर्याचार-तुम्हारे बिना स्वात्मानुभूति संभव नहीं है और स्वात्मानुभूति के बिना केवलज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए मैं तुम्हें तब तक अपनाता हूँ जब तक मुझे केवलज्ञान नहीं हो जाता, मुक्ति नहीं मिल जाती।” ऐसी स्थिति में पंचाचार को अपनाना अनिवार्य ही है क्योंकि कारण के बिना कार्य को साधा नहीं जा सकता। ये पंचाचार की शरण तभी तक है जब तक कि शुद्धात्मा की प्राप्ति नहीं हो जाती है। उद्देश्य शुद्धात्मा की प्राप्ति का होना चाहिए। जो कोई अभव्य मिथ्यादृष्टि इन्हें धारण करता भी है तो मात्र बाह्य में धारण करता है, इसलिए उसे शुद्धात्मा की प्राप्ति नहीं हो पाती। लेकिन जो सम्यग्दृष्टि होता है वह इन पंचाचारों को बाह्य और अन्तरंग दोनों तरह से धारण करके शुद्धात्मा को प्राप्त कर लेता है। इसी बात को समझाते हुए उपसंहार के रूप में रत्नकरण्डक श्रावकाचार की एक कारिका कहता हूँ पापमरातिर्धमो बंधुर्जीवस्य चेति निश्चिन्वन्। समयं यदि जानीते श्रेयो ज्ञाता ध्रुवं भवति॥२४॥ इस जीव का वैरी पाप है और धर्म, बंधु है। ऐसा दृढ़ निश्चय करता हुआ जो अपने आपको आत्मा की जानता है वही अपने कल्याण की जानने वाला है। वही ज्ञानी है। ग्रन्थ तो रत्नकरण्डकश्रावकाचार है लेकिन बात ज्ञानी की है। ध्यान रहे बंधुओ! लक्ष्य तो सभी का आत्मानुभूति ही है। परन्तु पात्रों को ध्यान में रखकर भिन्न-भिन्न शैली में भिन्न-भिन्न अनुयोगों के माध्यम से आचार्यों ने बात कही है ताकि सभी धीरे-धीरे सही रास्ते पर चलकर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लें। संसार शत्रु नहीं है, पाप ही शत्रु है। और पाप जिस आत्मा में उत्पन्न होता है वही आत्मा चाहे तो उस पाप को निकाल भी सकती है। जो पाप का तो आलिंगन करें और धर्म को हेय समझे उसकी प्रज्ञा की कोई कीमत नहीं है। स्वहित करने वालों के लिये पाप से ही लड़ना होगा और धर्म को, रत्नत्रय को, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को अपनाना होगा। जिसने इस बात को जान लिया, मान लिया और इसके अनुरूप आचरण को अपना लिया, वही ज्ञाता है। आज हमारा सौभाग्य है कि समयसार की गूढ़ बातों को समझने के लिये जयसेन स्वामी की तात्पर्यवृत्ति टीका उपलब्ध है। मुझे तो संस्कृत एवं प्राकृत भाषा भी नहीं आती थी लेकिन आचार्य महाराज गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी ने मुझे सभी बातों का धीरे-धीरे ज्ञान कराया। वैसे आप लोग तो उनसे बहुत पहले से परिचित रहे। इस अपेक्षा आप हमसे भी सीनियर हैं। हो सकता है आप मेरे से भी ज्यादा ज्ञान रखते हो परन्तु मुझे तो आचार्य महाराज का आशीर्वाद प्राप्त हुआ, उनकी साक्षात् प्रेरणा मिली। शिक्षा, दीक्षा सभी उन्हीं के माध्यम से हुई। इतनी सरल भाषा में अध्यात्म की व्याख्या मैंने कहीं नहीं सुनी, हिंदी में जो आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने समयसार की व्याख्या की है, उनका उपकार मेरे ऊपर आचार्य कुन्दकुन्द के ही समान है। आचार्य महाराज के आशीर्वाद से, उन्हीं की साक्षात् प्रेरणा से, आज मैं कुन्दकुन्दाचार्य देव से साक्षात् बात कर पा रहा हूँ। अमृतचन्द्रसूरी की आत्मख्याति जैसे जटिलतम साहित्य को देखने-समझने की क्षमता पा सका हूँ तो जयसेन आचार्य के छिले हुए केले के समान सरलतम व्याख्यान के माध्यम से अध्यात्मरूपी भूख मिटा रहा हूँ और आत्मानुभूति को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहता हूँ किन्तु बड़े दुख की बात है कि आप लोग अभी तक उसे नहीं चख पाये, भूखे ही बैठे हुए हैं। आत्मानुभूति शब्दों में कहने की वस्तु नहीं है। वह तो मात्र संवेदनीय है। वे मुमुक्षु थे और हमारे लिये मोक्षमार्ग के प्रदर्शन हेतु नेता थे। आज से करीब छह वर्ष पहले उन्होंने समाधि/सल्लेखना पूर्वक अपने पार्थिव शरीर को छोड़ा था। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी को, अमृतचन्द्राचार्य को और जयसेनाचार्य को स्मृति में लाते हुए आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज को इस काव्य के माध्यम से श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ तरणि ज्ञानसागर गुरो, तारो मुझे ऋषीश। करुणा-कर करुणा करो, कर से दो आशीष।
  19. संकल्प-विकल्प विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार आप अपने आप को संकल्प-विकल्पों से जितना बचाये रखोगे उतनी ही शांति मिलेगी। विकल्प रूपी पेट्रोल समाप्त हो जाता है तो रागद्वेष की गाड़ी चलना बंद हो जाती है। जो निश्चित है उस पर विश्वास न होने से संकल्प-विकल्प रूप मानसिक दु:ख होता है। निश्चित को मानने से जीवन में संतोष आ जाता है, जैसे मृत्यु निश्चित है तो सोचता है ज्यादा क्या करना इतने में ही जीवन चल जाएगा, संतोष प्राप्त कर लेता है। संकल्प-विकल्प पर द्रव्य को लेकर ही हुआ करते हैं। संकल्प-विकल्प संसार के ही कारण हैं, इनसे कर्म बंध होता है और कर्म बंध से संसार बढ़ता है। सभी विकल्पों का कारण शरीर ही है। संकल्प-विकल्प रूपी जाल संसारी प्राणी बुनता रहता है, परिणाम स्वरूप कभी खट्टा और कभी मीठा फल भोगते हुये संसार में भटकता रहता है। निज शुद्धात्मा ही मुक्ति का कारण है, इसके लिए संसार के सारे संकल्प-विकल्प छोड़नें पड़ते हैं, आज छोडो या कल या कभी भी सारे विकल्पों को छोड़े बिना मुक्ति संभव नहीं है।
  20. सदुपयोग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार साधन सामग्री मिलने पर भी उसका सदुपयोग करना बहुत कठिन है। धार्मिक क्षेत्र में इस शरीर का जितना चाहो उतना उपयोग करो यही इसका सदुपयोग है।
  21. संगति विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जिनके साथ रहने से पाप कम हो उनकी संगति करो। जीवन के रहस्यों को खोलने के लिए संत समागम अनिवार्य है। संतों का समागम बूंद का सीप से संयोग है, वह बूंद समागम से मोती बन जाती है। तीन लोक के आभूषण संत समागम की देन हैं। पंचमकाल में तीर्थक्षेत्रों और संतों के चरणों में जाकर धर्मध्यान कर लेना चाहिए वरन् पंचेन्द्रियों के विषय छूट ही नहीं सकते। साधु संगति करने से साधु बनने के भाव जागृत होते हैं। हम वीतरागी के पास जाकर यह सीख सकते हैं कि राग कैसे छोड़ा जाता है ?
  22. संयोग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार संयोग एक बड़ी बीमारी है, इससे बचो वरन् निरोगी नहीं हो सकते। संयोग दु:ख का कारण है।
  23. संसार विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार संसारी प्राणी संयोग के कारण दु:ख उठाते हैं, संसार के सभी संयोग दु:ख के ही कारण हैं। गरीब-अमीर सभी को वही कफन, वही अर्थी, वही श्मशान घाट मिलेगा, यह सृष्टि का अटल नियम है। संसार में सुख नमक युक्त खारे जल के समान हैं, जिससे कभी प्यास शांत नहीं होती, बल्कि गला और सूखता है। संसार में मीठा पानी है ही नहीं, इसलिए तृप्ति संभव ही नहीं है | संसार स्वभाव से परिचित होकर उससे दूर रहने वाले मनुष्य दुर्लभ हैं। संसार-सागर में जन्म, जरा व मृत्यु रूपी लहरें उठती रहती हैं, इसमें मोह का मगरमच्छ मुख फाड़े खड़ा रहता है, इसलिए साधु जन सागर में न रहकर सागर के तट पर रहते हैं। यह संसारी प्राणी वास (दुर्गंध) आने वाले शरीर में बसा है। यह संसारी जीव इस शरीर के कारण दु:ख उठाता है, वेदना का रस पीता है, फिर भी इसी को पुनः चाहता है। संसारी प्राणियों को सुख मिलना अंधे के हाथ बटेर के समान है, अर्थात् कठिन है, असंभव हैं |
  24. आज इस शुभ-घड़ी से मुनि ऋषभदेव आत्म-साधना प्रारम्भ करके परमात्मा के रूप में ढल रहे हैं। वे भेदविज्ञान प्राप्त कर चुके हैं। यही भेदविज्ञान उन्हें केवलज्ञान प्राप्त करायेगा। आत्मसाधना ही केवलज्ञान तक पहुँचाने में समर्थ है। अद्भुत है यह आत्म-साधना। भेदविज्ञान जब जागृत हो जाता है तो हेय का विमोचन और उपादेय का ग्रहण होता है। यद्यपि अभी उन्हें उपादेय तत्व की परम प्राप्ति नहीं हुई है। तथापि हेय के विमोचन के लिए इनके कदम बढ़ ही चुके हैं। उपादेय की प्राप्ति हो जाये उसके उपरांत हम हेय का विमोचन करें-ऐसा नहीं है। हेय का विमोचन करने पर ही उपादेय की प्राप्ति सम्भव है। बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा जिनके चरणों में आकर नौकर-चाकर की तरह हाथ जोड़े खड़े रहते हैं और उनकी सेवा में ही अपना सौभाग्य मानते हैं। स्वर्ग सम्पदा जिनके चरणों में रहती है ऐसे भोग वैभव आज उन्होंने त्याग दिये हैं। धन्य है उनकी भावना। अद्भुत है उनका भेदविज्ञान। त्याग तो इनका ही सच्चा त्याग है कि वे अब त्याग करने के बाद उस ओर मुड़कर भी नहीं देखते। यहाँ तक कि किसी से बोलते भी नहीं। सारे सम्बन्ध, सारे नाते तोड़कर मात्र अपनी आत्मा से इन्होंने नाता जोड़ा है। जो भी आज तक अज्ञानतावश जोड़ा था वह सारा का सारा उन्हें नश्वर प्रतीत हुआ है। अब वे इस सबको कभी ग्रहण नहीं करेंगे। उनका आवागमन भेदविज्ञान के बल से समाप्त होने वाला है। मैं भी यही चाहता हूँकि भगवन्! यह अवसर मुझे भी प्राप्त हो। आप कह सकते हैं कि महाराज! आपको तो प्राप्त हो ही गया है। सो आपका कहना कथंचित् ठीक है लेकिन बंधुओ! मैं तो उस भेदविज्ञान की प्राप्ति की बात कर रहा हूँ जो साक्षात् केवलज्ञान दिलाने में सक्षम है। आचार्यों का कहना है कि आज इस पंचमकाल में साक्षात् केवलज्ञान की प्राप्ति संभव नहीं है। अभी मुक्ति तक पहुँचाने वाली Direct Train उपलब्ध नहीं है। अभी तो बीच में कम से कम दो स्टेशनों पर तो रुकना ही पडेगा। हाँ इतना आनन्द हमें अवश्य मिल रहा है कि हम तो ट्रेन में बैठ गये हैं, भले ही एक स्टेशन बीच में रुकना पड़े पर पहुँचेंगे अवश्य। आपकी आप जाने। आज मुझे केवलज्ञान की बात विशेष नहीं करनी है। आज तो केवलज्ञान से पूर्व की भूमिका जो तपश्चरण है, उसी की बात करनी है। केवलज्ञान दीक्षा लेने मात्र से नहीं मिलेगा। अभी तो शरीर तपेगा, मन भी तपेगा और वचन भी तपेगा, तब आत्मा शुद्ध होगी। कंचन की भांति निर्मल/उज्वल होगी। अभी तो मन, वचन और काय तीनों से निरावरित/निग्रन्थ-दशा का अनुभव करने वाले परिव्राजक 'आदिनाथ ऋषि' हैं। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने चौबीस तीर्थकरों की स्तुति की है जो स्वयंभू-स्तोत्र के नाम से प्रचलित है। उसके प्रारम्भ में उन्होंने आदि तीर्थकर आदिनाथ की स्तुति करते हुए लिखा है विहाय यः सागर-वारिवाससं, वधूमिवेमां वसुधा-वधूं सतीम्। मुमुक्षुरिक्ष्वाकु कुलादिरात्मवान् प्रभुः प्रवव्राज सहिष्णुरच्युतः॥ आचार्य समन्तभद्र स्वामी दार्शनिक होकर भी अध्यात्म की गहराइयों को छूने वाले आचार्य हैं। प्रत्येक स्तोत्र में उनकी लेखनी से जो दर्शन और अध्यात्म निकला है वह उनकी आत्मानुभूति का प्रतीक है। ‘मुमुक्षु' शब्द का प्रयोग उन्होंने कहाँ किया है। जहाँ त्याग प्रारम्भ में है। त्याग के उपरांत ही ‘मुमुक्षु' कहा है। जब तक वृषभकुमार राजा या राजकुमार रहे तब तक मुमुक्षु नहीं कहा। सर्व परिग्रह का त्याग करते ही वे 'मुमुक्षु' कहलाये। 'मोक्तुं इच्छु: मुमुक्षु:'। मुच् लू धातु से मुमुक्षु शब्द बना है जो कि छोड़ने के अर्थ में आती है। जिसकी रक्षा के लिये चक्रवर्ती भरत ने अपने भाई बाहुबली पर चक्ररत्न चला दिया उसी सागर पर्यन्त फैली हुई वसुधरा को, सारे धन-वैभव– ऐश्वर्य को, घर-गृहस्थी, स्त्री-पुत्र सभी को उन्होंने छोड़ दिया। जो अपना नहीं था उस सबको उन्होंने छोडा तभी वे मोक्षमार्ग पर आगे बढ़े हैं। आज वे प्रवज्या ग्रहण करके परिव्राजक हुए हैं। दीक्षित हुए हैं। व्रज कहते हैं त्यागने को, तैरने को, आगे बढ़ने को। वे आज सर्वपरिग्रह का त्याग करके संसार से पार होने के लिये मोक्षमार्ग पर आगे बढ़े हैं। वे अब मुनि हैं, ऋषि हैं, योगी हैं और तभी उनके लिये मुमुक्षु यह शब्द उपयोग में लाया गया है। भगवान् बनने के लिए जो रूप उन्होंने धारण किया है वह आवश्यक है। क्योंकि भगवान बनने में जो बाधक कारण हैं, उन्हें हटाना पहले आवश्यक होता है। बाधक तत्वों का विमोचन करके वे आज निरावरित दिगम्बरी दीक्षा धारण कर चुके हैं। तभी उनका मुमुक्षुपन सार्थक हुआ है। मुमुक्षु वे कहलाते हैं जिन्होंने अपना लक्ष्य मात्र मुक्ति बनाया है। संसार से ऊपर उठने का संकल्प कर लिया है। सिर्फ मुक्ति को प्राप्त करने की इच्छा रही है और कोई कामना नहीं रही। जो वैभव मिला उसे खूब देख लिया, उसमें रस नहीं मिला। रस उसमें था भी नहीं तो मिलेगा कहाँ से? नवनीत कभी नीर के मंथन से नहीं मिलेगा। सुख-शांति और आनन्द तो अपनी आत्मा में ही है। उन्होंने उस आत्मा को ही अपने पास रखा। एक अकेला आत्मा, और कुछ नहीं। उस आत्म-पद के अलावा सारे के सारे पद फीके पड़ गये। ‘पर-पद' का विमोचन करना और ‘स्व पद' का ग्रहण करना ही मुमुक्षुपन है। यही सम्यग्ज्ञान है। भेदविज्ञान है। 'भेदस्य विज्ञानम् भेदविज्ञानम्। भेदं कृत्वा यद्लभ्यते तत् भेदविज्ञानम्' भेद करके जो प्राप्त होता है वह भेदविज्ञान है। ‘रागान्वतं यद् ज्ञानं तद् भेदविज्ञानं न, वीतराग स्वसंवेदनं एवं भेदविज्ञानं अस्ति तदेव मुक्ते साक्षात् कारणम् ।।' वीतराग-विज्ञान ही मुक्ति का साक्षात् कारण है। ८ . ये बात ध्यान रखना भइया! कि जब तक भोक्ता है तभी तक भोगों की कीमत है। भोक्ता जब उनसे मुख मोड़ लेता है तो भोग्य पदार्थ व्यर्थ ही जाते हैं। यही बात ऋषिराज आदिनाथ मुनिराज की है। उन्होंने आज से वैराग्य का रास्ता अपना लिया है और उस पर अकेले ही चल रहे हैं। बाह्य पदार्थों की शरण, बाह्य पदार्थों का सहारा छोड़कर केवल अपनी आत्मा में ही शरण का संकल्प कर लिया है। इसे कहते हैं दिगम्बरी दीक्षा। दिशाएँ ही अम्बर अर्थात् वस्त्र हो जिसका-ऐसा ये रूप है। इस रूप को धारण किये बिना किसी को न मुक्ति आज तक मिली है और न ही आगे मिलेगी। यह बाह्य में निग्रन्थता, अंदर की शेष ग्रन्थियों को निकालने के लिये धारण की है। इसके लिये आचार्यों ने उदाहरण दिया है कि जिस प्रकार चावल प्राप्त करने के लिये सर्वप्रथम धान के ऊपर का छिलका हटाना पड़ता है उसके उपरांत उसकी ललाई हटायी जाती है तभी उसे पकाने पर सुगंध आती है। ऐसा कोई यंत्र नहीं बनाया गया आज तक कि जिसके माध्यम से पहले ललाई हटायी जाये फिर छिलका हटे। उसी प्रकार दिगम्बर हुए बिना जो शेष ग्रंथियाँ हैं जो कि केवलज्ञान में बाधक हैं, यथाख्यात चारित्र में बाधक हैं, निकल नहीं सकती। बाहर से राग उत्पन्न करने वाली चीजों को जब तक नहीं हटायेंगे, नहीं छोड़ेंगे तब तक अन्दर का राग जा नहीं सकता। लड्डू हाथ में है, खाते भी जा रहे हैं और कह रहे हैं कि लड्डू के प्रति हमारा राग नहीं है तो ध्यान रखना कि गृहस्थावस्था में रहकर ऐसा हजार साल तक भी करो तो मुक्ति संभव नहीं है। पर का ग्रहण राग का प्रतीक है। न्यूनाधिकता होना बात अलग है लेकिन राग को पैदा करने वाली चीजों का त्याग किया जाये। आज वृषभनाथ मुनिराज ने ऊपर का छिलका अर्थात् वस्त्राभूषण आदि छोड़ दिया। शरीर के प्रति निर्मम होकर अब अंदर की लालिमा को भी निकालेंगे और इसी कार्य के लिये उन्हें हजार साल की साधना करनी पडी। एक साल नहीं, दो साल नहीं, हजार वर्ष तक ये तप चलेगा, साधना चलेगी। आपका ध्यान तो एक सेकेंड भी आत्मा में नहीं ठहरता और आप कहने लगते हैं कि महाराज! हमें मिलता ही नहीं आत्मा ? कैसे मिले भइया ? वर्षों की तपस्या के उपरान्त आत्म-साक्षात्कार होता है। वृषभनाथ मुनिराज को मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान तो जन्म से ही प्राप्त थे और दीक्षा लेते ही मन:पर्ययज्ञान भी प्राप्त हो गया। चौसठ ऋद्धियाँ होती हैं उनमें से एकमात्र केवलज्ञान को छोडकर सभी उनको प्राप्त हो गयी हैं। फिर भी अभी हजार साल तक उन्हें छठे-सातवें गुणस्थान में झूलना होगा। प्रमत-अप्रमत्त दशा में रहना होगा। बार-बार छठे-सातवें गुणस्थान में झूलना होगा। प्रमत्तअप्रमत्त दशा में रहना होगा। बार-बार छठे-सातवें में आने जाने का अर्थ यही है कि जरा देर ठहरकर बार-बार कषायों पर चोट करनी होती है। मैं शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, मेरा किसी से नाता-रिश्ता नहीं है- ऐसी पवित्र भावना बार-बार भानी होती है और ध्यान रखना, गृहस्थ अवस्था में रहकर ऐसी भावना हजार साल भी भावों तो भी मुक्ति सम्भव नहीं है। यह कार्य तो मुनि बनने के उपरांत ही करना सार्थक है। जब तक परिव्राजक अवस्था प्राप्त नहीं करोगे, दिगम्बरत्व को धारण नहीं करोगे तब तक केवलज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं है। यही कारण है कि आज ऋषभनाथ ने दीक्षा ग्रहण की है। आज भगवान् बनने की भूमिका, मुक्त होने की भूमिका बनाई है। वीतरागता को जीवन में प्रकट किया है जो हमारे लिये शरण योग्य है, चतारि सरण पव्वज्जामि। अहन्त, सिद्ध, साधु और केवली भगवान् द्वारा कहा गया धर्म- ये चारों ही हमारे लिये शरण लेने योग्य हैं। समयसार कलश में श्री अमृतचन्द्रसूरि ने एक कारिका लिखी है उसी का पद्यानुवाद किया- पद-पद पर बहु पद मिलते हैं पर वे सब-पद पर-पद हैं। सब-पद में बस पद है वह पद, सुखद निरापद निजपद है॥ जिसके सन्मुख सब पद दिखते अपद दलित-पद आपद हैं। अत: स्वाद्य है पेय निजी-पद, सकल गुणों का आस्पद है॥ दुनियाँ के जितने भी पद हैं जिन्हें प्राप्त करने की लालसा संसारी जीव को लगी हुई है वे सभी पद निज-पद से दूर ले जाने वाले पद हैं। निज-पद पर धूल डालने वाले, उसे छिपाने वाले, यदि कोई कारण हैं तो वे पर-पद ही हैं। जिनकी चमक-दमक देखकर आप मुग्ध हो जाते हैं और अनेक गुणों के भंडार-रूप आत्म-पद को, निज-पद को नहीं समझ पाते/नहीं पा पाते हैं। जो मार्ग आज वृषभनाथ ने चुना है वह मोक्ष-मार्ग ही ऐसा मार्ग है जहाँ किसी प्रकार का कंटक नहीं है, बाधाएँ नहीं हैं, व्याधियाँ नहीं हैं। बड़ा सरल मार्ग है। जहाँ अनेक मार्ग मिलते हों वहाँ भटकने की भी संभावना हो सकती है लेकिन ये मोक्षमार्ग ऐसा है कि जहाँ पर अनेक मार्गों का काम ही नहीं है। अपने को पर-पदार्थों से हटा लेने और एकाकी बना लेने का ही मार्ग है। जो निषेध को समझ लेता है, वह विधि को सहज स्वयं ही समझ लेता है। पर-पदार्थों को 'पर' जानकर स्वयं की ओर आना सहज हो जाता है। यद्यपि आत्मा साक्षात् हमें देखने में नहीं आती किन्तु आगम के माध्यम से आत्मानुभूति संभव हो जाती है। केवलज्ञान के माध्यम से आत्माओं ने आत्मा का स्वरूप जाना/समझा। जिसका कोई आकार-प्रकार नहीं है, जिसकी किसी अन्य पदार्थ से तुलना नहीं की जा सकती, इन्द्रियों के द्वारा जिसे ग्रहण नहीं किया जा सकता, ऐसी उस आत्मा को हम कैसे ग्रहण करें? तो आचार्य कहते हैं कि सीधा सा रास्ता है, कि जो आत्म-स्वरूप से भिन्न है उसे छोड़ो। पूर्व दिशा ज्ञात हो जाये तो पश्चिम दिशा किधर है-यह पूछने की आवश्यकता नहीं रह जाती। ऐसे ही मुक्ति क्या चीज है, यह पूछने की कोई आवश्यकता नहीं है। मुक्ति चाहते हो तो बंधन है उससे बचो, उसे छोड़ो। आजादी पहले नहीं मिलती किन्तु बंधन के अभाव होने के उपरांत मिलती है। बंधन के साथ यदि अनुभूति होगी तो वह मुक्ति की अनुभूति नहीं होगी, बंधन की ही अनुभूति होगी। जो बंधन को बंधन समझ लेता है, दुख का कारण जान लेता है और उससे बचने का प्रयास करता है वही आजादी को पाता है। उसे ही मुक्ति मिलती है। ज्ञान होने के उपरांत उस रूप आचरण भी होना चाहिए तभी उस ज्ञान की सार्थकता है। एक व्यक्ति ने पूछा कि महाराज! हम लोगों के ऊपर आपदायें क्यों आती हैं ? ग्रहों का प्रभाव हम पर क्यों पड़ता है ? तो मैंने कहा भइया! बात यह है कि आपके पास दसवां ग्रह, परिग्रह हैं इसी कारण अन्य नौ ग्रहों का प्रभाव भी आपके ऊपर खूब पड़ता है। जो परिग्रह का विमोचन करके अपनी आत्मा में रम गया, उसके ऊपर बाह्य पदार्थों का प्रभाव नहीं पड सकता। वे समझ गये और हँसने लगे। बोले महाराज! बात तो सही है। परिग्रह की परिभाषा ही सही है कि ‘परि आसमन्तात् आत्मानं ग्रहणाति स परिग्रह:'। जो चारों ओर से आत्मा तो खींचता है, ग्रसित कर लेता है उसका नाम परिग्रह है। परिग्रह को आप नहीं खींचते बल्कि परिग्रह के माध्यम से आप ही खिंच जाते हैं। परिग्रह आपको निगल रहा है। परिग्रह को आप नहीं भोगते बल्कि परिग्रह के द्वारा आप ही भोगे जा रहे हैं। परिग्रह सेठ-साहूकार बन चुका है और आप उसके नौकर। जिसके पास परिग्रह नहीं है, जिसने परिग्रह को छोड़ दिया है उसे कोई चिन्ता नहीं सताती। वह आनन्द की नींद लेता है। पर जिसके पास जितना ज्यादा परिग्रह है वह उतना ही बेचैन है। उसको न दिन में नींद है, न रात में। बड़े-बड़े धनी लोग अच्छे-अच्छे गद्दों पर भी रात भर सो नहीं पाते। उन्हें चिंता रहती है कि कहीं तिजोरी में बन्द धन-पैसा-सोना लुट न जाये। तिजोरी में बन्द सोना यद्यपि जड़ है, यही कारण है कि जड़/पुद्गल की सेवा में लगा हुआ वह चेतन स्वयं ही जड़ अर्थात् मूर्ख/अज्ञानी हो गया है। ज्ञानी तो वह है जिसको कषायों की आवश्यकता नहीं। जो परिग्रह का आश्रय नहीं लेता, वह तो मात्र अपनी आत्मा का ही आश्रय लेता है। यही कारण है कि वृषभनाथ मुनिराज ने सारे परिग्रह को छोड़ दिया और ज्ञानी होकर मात्र अपनी आत्मा के आश्रित हो गये हैं। अध्यात्म-प्रेमी बंधुओ को समझना चाहिए कि सही रास्ता तो यही है। परिग्रह को जब तक पकड़ रखा है तब तक मुक्त होना संभव नहीं है। परिग्रह को छोड़े बिना ध्यान होना भी संभव नहीं है। आचार्य शुभचन्द्र स्वामी ने ज्ञानार्णव में कहा है कि- अनिषियाक्षसंदोहं यः साक्षात् मोक्तुमिच्छति। विदारयति दुर्बुद्धिः शिरसासमहीधरम् ॥ ध्यान के माध्यम से ही आत्मानुभूति होती है। यदि कोई ध्यान को रत्नत्रय का आलम्बन लिये बिना, दिगम्बर हुए बिना ही साधना चाहे तो ध्यान रखना वह मस्तक के बल पर पर्वत को तोड़ने का व्यर्थ प्रयास कर रहा है। ऐसा करने पर पर्वत तो फूटेगा नहीं, उसका सिर जरूर फूट जायेगा। इसलिए भइया! साधना का जो क्रम है, जो विधि बताई गयी है उसी के अनुसार करोगे तभी मुक्ति मिलेगी। जब दोषों को निकालोगे तब गुण प्रकट होंगे। गुण कहीं बाहर से नहीं आयेंगे, वे तो दोषों के हटते ही अपने आप प्रकट हो जायेंगे। गुणों में ही तो दोष आये हैं, उन दोषों का अभाव होने पर गुणों का सद्भाव सहज ही हो जायेगा। स्वामी समन्तभद्राचार्य भगवान् की स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे भगवन्! आप अठारह दोषों से रहित हैं इसलिए मैं आपको नमस्कार कर रहा हूँ। बंधुओ! सोचो, जिस परिग्रह का आज वृषभदेव मुनिराज त्याग कर रहे हैं उसे ही आप अपनाते जा रहे हैं तो मुक्ति कैसे मिलेगी ? आप ज्ञानी कैसे कहे जायेंगे ? रागपूर्वक संसार को ही अपनाते जाने वाला ज्ञानी नहीं कहला सकता। ज्ञानी तो वही है जो भूतकाल में भोगे गये पदार्थों का स्मरण तक नहीं करता और वर्तमान में भोगों के प्रति हेयबुद्धि रखता है। समयसार जैसे महान् ग्रन्थ में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है उसी का भावानुवाद ना भूत की स्मृति अनागत की अपेक्षा, भोगोपभोग मिलने पर भी उपेक्षा। ज्ञानी, जिन्हें विषय तो विष दीखते हैं, वैराग्य-पाठ उनसे हम सीखते हैं। ऐसे ज्ञानी मुनिराज धन्य हैं जिनके दर्शन मात्र से संसारी प्राणी को वैराग्य का पाठ सीखने को मिलता है। यही ज्ञानी का लक्षण है। यही वीतराग सम्यकद्रष्टि का लक्षण है। स्व-समय का अनुभव करने वाला भी यही है। परमट्ठो खलु समओ, सुद्धो जो केवली मुणी णाणी तम्हिट्ठिदा सहावे, मुणिणा पावंति णिव्वाणां॥ परमार्थ कहो, निश्चय कहो, समय कहो, केवली कहो या मुनि कहो, ज्ञानी कहो- यह सब एकार्थवाची हैं। अर्थात् ज्ञानी वही है जो समय अर्थात् आत्मा में निहित है, शुद्ध में निहित है, मुनिपने में निहित है। ऐसा ज्ञानी ही निर्वाण को प्राप्त कर सकता है और इसके अलावा अन्य कोई ज्ञानी नहीं है। आज तो विज्ञान का युग है, प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको विज्ञानी मान रहा है लेकिन वास्तव में देखा जाये तो वह ज्ञानी नहीं है। भइया! भावों में ज्ञानीपना होना अलग बात है और मात्र नाम निक्षेप की अपेक्षा ज्ञानी होना अलग बात है। समयसार के अनुसार तो ज्ञानी पुरुष वही है जिसने बुद्धिपूर्वक विषयों का विमोचन कर दिया है, जो निष्परिग्रही है, जो अप्रमत है और अपनी आत्मा में लीन रहता है। विषयों के प्रति हेयबुद्धि का अर्थ ऐसा नहीं है कि जैसे आप लोग किसी के घर मेहमान बनकर जाते हैं तो भोजन करते समय यदि मिठाई परोसी जा रही हो तो आप, ‘बस-बस! अब नहीं चाहिए', कहते जाते हैं और खाते भी जाते हैं। हेयबुद्धि तो वह है जो वर्तमान में मिली भोग-सामग्री को भी छोड़ देता है। अतीत के भोगों की तो बात ही क्या ? भोग-पदार्थों को ग्रहण कर लेने के बाद जो यह कहता है कि ये तो पुद्गल हैं, उसे समयसार में ज्ञानी नहीं कहा गया। सोचो! जब पुद्गल को पुद्गल ने ही खाया तो थाली पर खाने के लिए बैठने की जरूरत क्या थी ? और अगर निमन्त्रण देकर किसी ने आपको बुलाया और पेट भर नहीं खिलाया, आपके मन पसन्द नहीं खिलाया तो यह कहने की क्या आवश्यकता थी कि उनके यहाँ गये और उन्होंने ठीक से खिलाया भी नहीं। यह ज्ञानीपना नहीं है। जहाँ राग के साथ पदार्थों का ग्रहण किया जा रहा हो वहाँ विषयों का ही पोषण होता है। हाँ जहाँ पर राग नहीं है वहाँ पर विषयसामग्री होने पर भी उसे निर्विषयी कहा जायेगा। मुनि महाराज वीतरागी होकर पदार्थों का उपभोग करते हैं इसलिए वे भोक्ता नहीं कहलाते बल्कि ज्ञानी कहलाते हैं, निर्विषयी कहलाते हैं। सभी भोग्य पदार्थों का त्याग करने के उपरांत, पदार्थों के प्रति अनासक्त होकर मूलगुणों का पालन करते हुए आगम की आज्ञा के अनुसार वे पदार्थों को ग्रहण करते हैं इसलिए उन्हें ज्ञानी कहा गया है। 'पर' के प्रति राग का अभाव हो जाना ही ‘स्व' की ओर आना है। ‘पर” को 'पर' मानकर जब तक आप उसे नहीं छोड़ेगे तब तक स्व-समय की प्राप्ति सम्भव नहीं है। स्व-समय का स्वाद तभी आयेगा जब 'पर' का विमोचन होगा। ऐसे स्व-समय को प्राप्त करने वाले वृषभराज मुनिराज के चरणों में रागी भी नतमस्तक हो रहे हैं। आज तो वैराग्य का दिन है। तप का दिन है। त्याग का दिन है। मेरे पास कुण्डलपुर में यहाँ के कुछ लोग आये और कहा कि महाराज! पंचकल्याणक महोत्सव किशनगढ़ में होना है। आपकी उपस्थिति अनिवार्य है। उसके बिना काम नहीं चलेगा। आपको अवश्य आना है। मैंने कहा भइया! आप ले जाना चाहो तो ऐसे मैं किसी के कहने में आनेजाने वाला नहीं हूँ! हाँ इतना जरूर तय कर लो कि अगर मैं आ भी जाऊँ तो आप क्या करेंगे? सिर्फ कार्यक्रम होंगे, सभी लोग लाभ लेंगे, यह तो ठीक है लेकिन आप क्या करेंगे? सिर्फ कार्यक्रम आयोजित करेंगे या अपनी भी कुछ फिकर करेंगे? हम वहाँ आयें या न भी आयें पर आपको जो करना हो वह अभी कर ली, उसमें देर मत करो। सारा महोत्सव त्याग का ही है। इसलिए त्याग के लिये देर करना ठीक नहीं। वृषभनाथ मुनिराज तो मौन बैठे हैं। अपना कल्याण करने के लिये दीक्षा ले ली है। दूसरे की उन्हें फिकर भी नहीं करनी है। पर एक अनिवार्य के लिये तो स्वयं भगवान् की आज्ञा है कि वह उपदेश के माध्यम से लोगों को त्याग की प्रेरणा दें। दीक्षा के अवसर पर आप लोगों को कुछ न कुछ त्याग तो अवश्य ही करना चाहिए। 'स्व' का आलम्बन लेना ही जीवन है। ‘पर' का आलम्बन लेना, विषयों का आलम्बन लेना मृत्यु की ओर बढ़ना है। इसलिए आप लोगों को विषयों से ऊपर उठकर निर्विषयी बनकर अपना जीवन बिताने का प्रयास करना चाहिए। अधिक नहीं तो कम से कम त्याग के भाव तो करना ही चाहिए कि हे भगवन्। मैं कब सर्वपरिग्रह से मुक्त होकर अपनी आत्मा का अनुभव करूं । इस जीवन में आप लोगों को वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से जो थोड़ी शक्ति मिली है और ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जो थोड़ा ज्ञान प्राप्त हुआ है उसका सदुपयोग तो कर ही लेना चाहिए। सभी को शक्तितस्त्याग अर्थात् यथाशक्ति त्याग तो करना ही चाहिए। दो प्रकार से व्रतों के ग्रहण की बात आचार्यों ने कही है -अणुव्रत और महाव्रत। अणुव्रतों का विस्तार भी बहुत लम्बा-चौड़ा है, जैसे एक रुपया को महाव्रत कहें तो एक पैसे से लेकर निन्यानवे पैसे तक सभी अणुव्रत रूप में कहे जायेंगे। व्रत कोई भी हो, छोटा नहीं होता। एक पैसे के बराबर भी यदि व्रत लिया जाये तो भी सार्थक है। व्रत-नियमों के संस्कार जीवन में डालतेडालते ही वह समय भी आ सकता है जबकि हम महाव्रतों को धारण करके स्व-समय को प्राप्त कर लें। इस महान् तप-कल्याण के दिन हम अधिक क्या कहें ? हम तो यही भावना करते हैं कि हे भगवन्! हमें जो रास्ता मिला है वह निर्वाण होने तक छूटे नहीं। जो रेल हमने पकड़ी है वह एकदो स्टेशन बीच में भले ही रुक जाये, धीरे-धीरे भले ही पहुँचाये, पर जीवन में मुक्ति मिलनी चाहिए। भगवान् के जीवन को आदर्श बनाकर, उनके जीवन का आदर्श सामने रखकर हम भी अपने जीवन को सफल बनायें। कुन्दकुन्द स्वामी जैसे महान् आचार्यों के ग्रन्थों के माध्यम से हमारी आँखें खुल गयीं। हमें ज्ञात हो गया कि क्या कर्म है? क्या संसार है और क्या मुक्ति है? साथ ही आचार्य ज्ञानसागरजी जो मेरे गुरु महाराज थे, आप लोगों को उनका स्मरण तो होगा ही क्योंकि उनका अन्तिम समय अजमेर में ही बीता, उनके आशीर्वाद से मुझे यह ज्ञान और वैराग्य प्राप्त हुआ। उन सभी महान् आत्माओं का स्मरण हमेशा बना रहे इसी भावना से इन पंक्तियों द्वारा उनका स्मरण करता हू- कुन्दकुन्द को नित नर्मू, हृदय कुन्दखिल जाय। परम-सुगंधित महक में, जीवन मम घुल जाय॥
  25. सम्यक दर्शन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार पार्श्वनाथ भगवान को केवलज्ञान की उत्पत्ति होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि कमठ के जीव को सम्यक दर्शन की प्राप्ति होना महत्वपूर्ण है। हमेशा अनुभव तर्क से पृथक् रहता है, अनुभव होते ही तर्क समाप्त हो जाता है। गृहस्थों का सम्यक दर्शन उस गन्ने की तरह है, जिससे चारित्र रूपी गुड़ नहीं बनता। केवली का सम्यक दर्शन प्रत्यक्ष पदार्थ को जानकर परमावगाढ़ सम्यक दर्शन होता है, यह मन के द्वारा नहीं होता है, इसे केवल सम्यक्त्व भी कहते हैं, यहाँ पर सम्यक दर्शन को अनुभूति प्राप्त हो जाती है। सम्यक दर्शन के बिना ज्ञान, तपादि गधे पर चंदन के भार के समान है। सम्यक दर्शन अनिवार्य प्रश्न है, इसे हल किए बिना व्रत, तप आदि प्रश्न हल कर भी दो तो मोक्षमार्ग में फेल ही माने जाओगे। आज ऐसे नशीले पदार्थों का सेवन किया जा रहा है, जिनके सेवन से सम्यक दर्शन रूपी सम्पदा लुट जाती है, वात्सल्य, दया जैसे सदगुण नष्ट हो जाते हैं, इन कुसंस्कारों से समाज को बचाना होगा। सम्यक दृष्टि दूसरे के दु:ख का वैरी रहता है, वह दूसरे के दु:ख को दूर करने का भरसक प्रयास करता है। सम्यक दर्शन के बिना मोक्षमार्ग में किया गया कार्य कुछ भी सुख नहीं दे सकता। अविरत सम्यक दृष्टि जीव स्वयं के प्राणों की रक्षा तो कर लेता है, लेकिन दूसरे प्राणियों की रक्षा का संकल्प नहीं ले पाता, उसके प्राणी संयम नहीं पलता। हमारा जितना श्रद्धान आत्म स्वरूप की ओर दृढ़ होता है उतनी ही अधिक कर्म की निर्जरा होती है। ज्ञान का मद हो सकता है, पर सम्यक दर्शन मद रहित ही होता है। सम्यक दर्शन रूपी बीज का उपयोग करो यही स्वदेशी है, बाकी सब विदेशी बीज हैं। पुण्यवान् व्यक्ति ही सम्यक दर्शन की सेवा करता है। जो संसार विच्छेद का प्रथम कारण है, ऐसे सम्यक दर्शन का हमेशा गुणगान करना चाहिए। विश्वास को जब तक अनुभूति प्राप्त नहीं होती तो नीरस जैसा लगता है। ये अभिषेक पूजनादि क्रियायें सम्यक दर्शन के कारण हैं ये पूजनादि सम्यक्त्ववर्धिनी क्रियाएँ हैं। सम्यक दर्शन में प्रथम हैं। निष्क्रिय सम्यक दर्शन नहीं, सक्रिय सम्यक दर्शन बने जो दूसरों के प्रति अनुकम्पा रखे। करुणा, दया, वात्सल्य के साथ ही सक्रिय सम्यक दर्शन होता है। जीवित जीवन वही है, जिसमें अनुकम्पा सहित सम्यक दर्शन होता है। अपने ऊपर दया करते हुए संसार के ऊपर भी दया करनी चाहिए। सम्यक दर्शन की मणिका को शुद्ध करना चाहते हो तो अजीव तत्व को (नोट को) खर्च करके, दान करके जीवतत्व की रक्षा करो, पशुओं का संरक्षण करो। गाढ़ श्रद्धान होने पर दया का स्रोत खुल जाता है। सम्यक दर्शन जीवन का एक सहारा बन जाता है। सम्यक दर्शन जीव को स्वस्थ्य बना देता है। दूसरे को सम्यक दृष्टि बनाने का भाव तो रखो पर ऐनकेनप्रकारेण सम्यक दृष्टि बनाने का भाव छोड़ दो क्योंकि चिकित्सा समझदारी से की जाती है। सम्यक दर्शन एक ऐसी औषधि है, इसे प्राप्त करने के उपरान्त लड़ाई-झगड़े समाप्त हो जाते हैं। ज्ञान, वैराग्य रूप शक्ति सम्यक दृष्टि के पास रहती है, इन शक्तियों से ही वह बंधे हुए कर्मों की निर्जरा करता है। एक व्यक्ति अपने आप को एक अकेला समझ लेगा तो एकत्व की भावना अपने आप आ जावेगी। फिर अज्ञान का टकराव समाप्त हो जावेगा। सम्यक दृष्टि इसी को बोलते हैं। दुनियाँ को भूल जाओ कोई बात नहीं पर अपने स्वरूप को मत भूलना। सम्यक दर्शन के गुणों में एक आस्तिक्य गुण है ‘मैं भी हूँ" ऐसा स्वीकारना। विवेक के साथ करुणा होती है, सही चिकित्सा करने वाले ही करुणावान् हैं, यही सही सम्यक दर्शन है। क्षायिक सम्यक दर्शन देवों को नहीं होगा भले ही वे केवली के पादमूल में चले जावें। गुरु (केवली) के सान्निध्य में ही होता है, क्षायिक सम्यक दर्शन। जीव सम्यक दर्शन के साथ कहीं भी चला जावे हमेशा सुखी रहता है। जब ऐसा स्वरूप है भगवान का तो हम भक्त को भी श्रद्धान कर लेना चाहिए कि हमारा स्वरूप भी यही है। फिर भविष्य के बारे में सीमा रेखा खिंच जाती है। सम्यक दर्शन की काया तब टिकती है जब संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य एवं प्रशम भाव रूप गुण रहते हैं। इन गुणों को साकार रूप देने से अमूर्त सम्यक दर्शन भी मूर्तत्व धारण कर लेता है। दृष्टि को मजबूत (पूज्य) बनाने वाले पैर (आचरण) होते हैं। सम्यक दृष्टि स्वार्थी नहीं परमार्थी होते हैं, वे परमार्थ की उपासना करने वाले होते हैं। मूर्त सम्यक दर्शन आँखों से देखना चाहें तो उसे प्रयोग का रूप देना चाहिए, उपकार के भाव आना चाहिए। सम्यक दृष्टि किसी की प्रतीक्षा नहीं करता वह स्वयं प्रयोग करने लगता है। अपना भी कर्तव्य कुछ वस्तु है, अविरत सम्यक दृष्टि का भी कुछ कर्तव्य होता है। सम्यक दृष्टि संयम की ओर दृष्टि रखता है। वह संसार में नहीं बल्कि संसार के किनारे पर रहता है। संसार से विरति सम्यक दृष्टि को ही आती है, सम्यक दृष्टि मोह को जहर की भाँति समझता है। दृष्टि में सम्यक् होने पर मोहमार्गी मोक्षमार्गी बन जाता है। सम्यक दर्शन अनगढ़ पत्थर है अविरत के साथ यदि उसे चारित्र रूपी शान पर चढ़ाते हैं तो गले का हार बन जाता है, वह केवल सम्यक्त्व में बदल जाता है। सम्यक दर्शन इतना सरल नहीं है, उसके लिए लोभ का त्याग करना अनिवार्य है। आप सम्यक दर्शन के साथ पैदा होते तो विदेह में जन्म होता। यदि वहाँ सम्यक दर्शन के साथ जन्म होता है तो वह संयमासंयम व संयम लेगा ही यह नियम है। आत्मतत्व पर श्रद्धान होते ही आत्म संतुष्टि प्राप्त हो जाती है। जिसका श्रद्धान मजबूत होता है वही दया को मजबूत रखता है और सिद्धान्त को भी मजबूत रखता है। वरन् यह समयसार को पढ़कर कह देगा यह तो परघात नाम कर्म के उदय से दूसरे का घात हो रहा है, मैं क्या कर सकता हूँ? सम्यक दृष्टि विषयों से राग नहीं रखता क्योंकि विषयों में आत्मा के कोई गुण नहीं होते और उनसे आत्मा के गुणों की पुष्टि भी नहीं होती। जो पदार्थ जिस रूप में है, उसे उसी रूप में स्वीकारना सम्यक दर्शन है। सम्यक दृष्टि अपने भावों के माध्यम से ही श्रद्धान करता है, सात तत्व और देव, शास्त्र एवं गुरु(परद्रव्य) निमित्त मात्र हैं। सम्यक दर्शन तभी जीवित रह सकता है, जब अनुकंपा जीवन में उतर गयी हो। सम्यक दृष्टि को दूसरों के कष्ट को देखकर कष्ट दूर करने के भाव उमड़ आते हैं। पेड़ में ऊपरी अस्थिरता भले हो लेकिन जड़ में कोई अस्थिरता नहीं होती तभी वह अडिग खड़ा रहता है। जब गुणीजनों को देख कर प्रमोद भाव हो जावे, दुखियों को देखकर करुणा भाव आ जावे और सभी के अस्तित्व पर विश्वास हो जावे तो समझना हमें सम्यक दर्शन की प्राप्ति हो गयी है।
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