आज इस शुभ-घड़ी से मुनि ऋषभदेव आत्म-साधना प्रारम्भ करके परमात्मा के रूप में ढल रहे हैं। वे भेदविज्ञान प्राप्त कर चुके हैं। यही भेदविज्ञान उन्हें केवलज्ञान प्राप्त करायेगा। आत्मसाधना ही केवलज्ञान तक पहुँचाने में समर्थ है। अद्भुत है यह आत्म-साधना। भेदविज्ञान जब जागृत हो जाता है तो हेय का विमोचन और उपादेय का ग्रहण होता है। यद्यपि अभी उन्हें उपादेय तत्व की परम प्राप्ति नहीं हुई है। तथापि हेय के विमोचन के लिए इनके कदम बढ़ ही चुके हैं। उपादेय की प्राप्ति हो जाये उसके उपरांत हम हेय का विमोचन करें-ऐसा नहीं है। हेय का विमोचन करने पर ही उपादेय की प्राप्ति सम्भव है।
बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा जिनके चरणों में आकर नौकर-चाकर की तरह हाथ जोड़े खड़े रहते हैं और उनकी सेवा में ही अपना सौभाग्य मानते हैं। स्वर्ग सम्पदा जिनके चरणों में रहती है ऐसे भोग वैभव आज उन्होंने त्याग दिये हैं। धन्य है उनकी भावना। अद्भुत है उनका भेदविज्ञान। त्याग तो इनका ही सच्चा त्याग है कि वे अब त्याग करने के बाद उस ओर मुड़कर भी नहीं देखते। यहाँ तक कि किसी से बोलते भी नहीं। सारे सम्बन्ध, सारे नाते तोड़कर मात्र अपनी आत्मा से इन्होंने नाता जोड़ा है। जो भी आज तक अज्ञानतावश जोड़ा था वह सारा का सारा उन्हें नश्वर प्रतीत हुआ है। अब वे इस सबको कभी ग्रहण नहीं करेंगे। उनका आवागमन भेदविज्ञान के बल से समाप्त होने वाला है। मैं भी यही चाहता हूँकि भगवन्! यह अवसर मुझे भी प्राप्त हो। आप कह सकते हैं कि महाराज! आपको तो प्राप्त हो ही गया है। सो आपका कहना कथंचित् ठीक है लेकिन बंधुओ! मैं तो उस भेदविज्ञान की प्राप्ति की बात कर रहा हूँ जो साक्षात् केवलज्ञान दिलाने में सक्षम है।
आचार्यों का कहना है कि आज इस पंचमकाल में साक्षात् केवलज्ञान की प्राप्ति संभव नहीं है। अभी मुक्ति तक पहुँचाने वाली Direct Train उपलब्ध नहीं है। अभी तो बीच में कम से कम दो स्टेशनों पर तो रुकना ही पडेगा। हाँ इतना आनन्द हमें अवश्य मिल रहा है कि हम तो ट्रेन में बैठ गये हैं, भले ही एक स्टेशन बीच में रुकना पड़े पर पहुँचेंगे अवश्य। आपकी आप जाने।
आज मुझे केवलज्ञान की बात विशेष नहीं करनी है। आज तो केवलज्ञान से पूर्व की भूमिका जो तपश्चरण है, उसी की बात करनी है। केवलज्ञान दीक्षा लेने मात्र से नहीं मिलेगा। अभी तो शरीर तपेगा, मन भी तपेगा और वचन भी तपेगा, तब आत्मा शुद्ध होगी। कंचन की भांति निर्मल/उज्वल होगी। अभी तो मन, वचन और काय तीनों से निरावरित/निग्रन्थ-दशा का अनुभव करने वाले परिव्राजक 'आदिनाथ ऋषि' हैं। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने चौबीस तीर्थकरों की स्तुति की है जो स्वयंभू-स्तोत्र के नाम से प्रचलित है। उसके प्रारम्भ में उन्होंने आदि तीर्थकर आदिनाथ की स्तुति करते हुए लिखा है
विहाय यः सागर-वारिवाससं, वधूमिवेमां वसुधा-वधूं सतीम्।
मुमुक्षुरिक्ष्वाकु कुलादिरात्मवान् प्रभुः प्रवव्राज सहिष्णुरच्युतः॥
आचार्य समन्तभद्र स्वामी दार्शनिक होकर भी अध्यात्म की गहराइयों को छूने वाले आचार्य हैं। प्रत्येक स्तोत्र में उनकी लेखनी से जो दर्शन और अध्यात्म निकला है वह उनकी आत्मानुभूति का प्रतीक है। ‘मुमुक्षु' शब्द का प्रयोग उन्होंने कहाँ किया है। जहाँ त्याग प्रारम्भ में है। त्याग के उपरांत ही ‘मुमुक्षु' कहा है। जब तक वृषभकुमार राजा या राजकुमार रहे तब तक मुमुक्षु नहीं कहा। सर्व परिग्रह का त्याग करते ही वे 'मुमुक्षु' कहलाये। 'मोक्तुं इच्छु: मुमुक्षु:'। मुच् लू धातु से मुमुक्षु शब्द बना है जो कि छोड़ने के अर्थ में आती है। जिसकी रक्षा के लिये चक्रवर्ती भरत ने अपने भाई बाहुबली पर चक्ररत्न चला दिया उसी सागर पर्यन्त फैली हुई वसुधरा को, सारे धन-वैभव– ऐश्वर्य को, घर-गृहस्थी, स्त्री-पुत्र सभी को उन्होंने छोड़ दिया। जो अपना नहीं था उस सबको उन्होंने छोडा तभी वे मोक्षमार्ग पर आगे बढ़े हैं।
आज वे प्रवज्या ग्रहण करके परिव्राजक हुए हैं। दीक्षित हुए हैं। व्रज कहते हैं त्यागने को, तैरने को, आगे बढ़ने को। वे आज सर्वपरिग्रह का त्याग करके संसार से पार होने के लिये मोक्षमार्ग पर आगे बढ़े हैं। वे अब मुनि हैं, ऋषि हैं, योगी हैं और तभी उनके लिये मुमुक्षु यह शब्द उपयोग में लाया गया है। भगवान् बनने के लिए जो रूप उन्होंने धारण किया है वह आवश्यक है। क्योंकि भगवान बनने में जो बाधक कारण हैं, उन्हें हटाना पहले आवश्यक होता है। बाधक तत्वों का विमोचन करके वे आज निरावरित दिगम्बरी दीक्षा धारण कर चुके हैं। तभी उनका मुमुक्षुपन सार्थक हुआ है।
मुमुक्षु वे कहलाते हैं जिन्होंने अपना लक्ष्य मात्र मुक्ति बनाया है। संसार से ऊपर उठने का संकल्प कर लिया है। सिर्फ मुक्ति को प्राप्त करने की इच्छा रही है और कोई कामना नहीं रही। जो वैभव मिला उसे खूब देख लिया, उसमें रस नहीं मिला। रस उसमें था भी नहीं तो मिलेगा कहाँ से? नवनीत कभी नीर के मंथन से नहीं मिलेगा। सुख-शांति और आनन्द तो अपनी आत्मा में ही है। उन्होंने उस आत्मा को ही अपने पास रखा। एक अकेला आत्मा, और कुछ नहीं। उस आत्म-पद के अलावा सारे के सारे पद फीके पड़ गये। ‘पर-पद' का विमोचन करना और ‘स्व पद' का ग्रहण करना ही मुमुक्षुपन है। यही सम्यग्ज्ञान है। भेदविज्ञान है। 'भेदस्य विज्ञानम् भेदविज्ञानम्। भेदं कृत्वा यद्लभ्यते तत् भेदविज्ञानम्' भेद करके जो प्राप्त होता है वह भेदविज्ञान है। ‘रागान्वतं यद् ज्ञानं तद् भेदविज्ञानं न, वीतराग स्वसंवेदनं एवं भेदविज्ञानं अस्ति तदेव मुक्ते साक्षात् कारणम् ।।' वीतराग-विज्ञान ही मुक्ति का साक्षात् कारण है। ८ .
ये बात ध्यान रखना भइया! कि जब तक भोक्ता है तभी तक भोगों की कीमत है। भोक्ता जब उनसे मुख मोड़ लेता है तो भोग्य पदार्थ व्यर्थ ही जाते हैं। यही बात ऋषिराज आदिनाथ मुनिराज की है। उन्होंने आज से वैराग्य का रास्ता अपना लिया है और उस पर अकेले ही चल रहे हैं। बाह्य पदार्थों की शरण, बाह्य पदार्थों का सहारा छोड़कर केवल अपनी आत्मा में ही शरण का संकल्प कर लिया है। इसे कहते हैं दिगम्बरी दीक्षा। दिशाएँ ही अम्बर अर्थात् वस्त्र हो जिसका-ऐसा ये रूप है। इस रूप को धारण किये बिना किसी को न मुक्ति आज तक मिली है और न ही आगे मिलेगी।
यह बाह्य में निग्रन्थता, अंदर की शेष ग्रन्थियों को निकालने के लिये धारण की है। इसके लिये आचार्यों ने उदाहरण दिया है कि जिस प्रकार चावल प्राप्त करने के लिये सर्वप्रथम धान के ऊपर का छिलका हटाना पड़ता है उसके उपरांत उसकी ललाई हटायी जाती है तभी उसे पकाने पर सुगंध आती है। ऐसा कोई यंत्र नहीं बनाया गया आज तक कि जिसके माध्यम से पहले ललाई हटायी जाये फिर छिलका हटे। उसी प्रकार दिगम्बर हुए बिना जो शेष ग्रंथियाँ हैं जो कि केवलज्ञान में बाधक हैं, यथाख्यात चारित्र में बाधक हैं, निकल नहीं सकती। बाहर से राग उत्पन्न करने वाली चीजों को जब तक नहीं हटायेंगे, नहीं छोड़ेंगे तब तक अन्दर का राग जा नहीं सकता। लड्डू हाथ में है, खाते भी जा रहे हैं और कह रहे हैं कि लड्डू के प्रति हमारा राग नहीं है तो ध्यान रखना कि गृहस्थावस्था में रहकर ऐसा हजार साल तक भी करो तो मुक्ति संभव नहीं है। पर का ग्रहण राग का प्रतीक है। न्यूनाधिकता होना बात अलग है लेकिन राग को पैदा करने वाली चीजों का त्याग किया जाये। आज वृषभनाथ मुनिराज ने ऊपर का छिलका अर्थात् वस्त्राभूषण आदि छोड़ दिया। शरीर के प्रति निर्मम होकर अब अंदर की लालिमा को भी निकालेंगे और इसी कार्य के लिये उन्हें हजार साल की साधना करनी पडी।
एक साल नहीं, दो साल नहीं, हजार वर्ष तक ये तप चलेगा, साधना चलेगी। आपका ध्यान तो एक सेकेंड भी आत्मा में नहीं ठहरता और आप कहने लगते हैं कि महाराज! हमें मिलता ही नहीं आत्मा ? कैसे मिले भइया ? वर्षों की तपस्या के उपरान्त आत्म-साक्षात्कार होता है। वृषभनाथ मुनिराज को मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान तो जन्म से ही प्राप्त थे और दीक्षा लेते ही मन:पर्ययज्ञान भी प्राप्त हो गया। चौसठ ऋद्धियाँ होती हैं उनमें से एकमात्र केवलज्ञान को छोडकर सभी उनको प्राप्त हो गयी हैं। फिर भी अभी हजार साल तक उन्हें छठे-सातवें गुणस्थान में झूलना होगा। प्रमत-अप्रमत्त दशा में रहना होगा। बार-बार छठे-सातवें गुणस्थान में झूलना होगा। प्रमत्तअप्रमत्त दशा में रहना होगा। बार-बार छठे-सातवें में आने जाने का अर्थ यही है कि जरा देर ठहरकर बार-बार कषायों पर चोट करनी होती है। मैं शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, मेरा किसी से नाता-रिश्ता नहीं है- ऐसी पवित्र भावना बार-बार भानी होती है और ध्यान रखना, गृहस्थ अवस्था में रहकर ऐसी भावना हजार साल भी भावों तो भी मुक्ति सम्भव नहीं है। यह कार्य तो मुनि बनने के उपरांत ही करना सार्थक है। जब तक परिव्राजक अवस्था प्राप्त नहीं करोगे, दिगम्बरत्व को धारण नहीं करोगे तब तक केवलज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं है। यही कारण है कि आज ऋषभनाथ ने दीक्षा ग्रहण की है। आज भगवान् बनने की भूमिका, मुक्त होने की भूमिका बनाई है। वीतरागता को जीवन में प्रकट किया है जो हमारे लिये शरण योग्य है, चतारि सरण पव्वज्जामि। अहन्त, सिद्ध, साधु और केवली भगवान् द्वारा कहा गया धर्म- ये चारों ही हमारे लिये शरण लेने योग्य हैं। समयसार कलश में श्री अमृतचन्द्रसूरि ने एक कारिका लिखी है उसी का पद्यानुवाद किया-
पद-पद पर बहु पद मिलते हैं पर वे सब-पद पर-पद हैं।
सब-पद में बस पद है वह पद, सुखद निरापद निजपद है॥
जिसके सन्मुख सब पद दिखते अपद दलित-पद आपद हैं।
अत: स्वाद्य है पेय निजी-पद, सकल गुणों का आस्पद है॥
दुनियाँ के जितने भी पद हैं जिन्हें प्राप्त करने की लालसा संसारी जीव को लगी हुई है वे सभी पद निज-पद से दूर ले जाने वाले पद हैं। निज-पद पर धूल डालने वाले, उसे छिपाने वाले, यदि कोई कारण हैं तो वे पर-पद ही हैं। जिनकी चमक-दमक देखकर आप मुग्ध हो जाते हैं और अनेक गुणों के भंडार-रूप आत्म-पद को, निज-पद को नहीं समझ पाते/नहीं पा पाते हैं।
जो मार्ग आज वृषभनाथ ने चुना है वह मोक्ष-मार्ग ही ऐसा मार्ग है जहाँ किसी प्रकार का कंटक नहीं है, बाधाएँ नहीं हैं, व्याधियाँ नहीं हैं। बड़ा सरल मार्ग है। जहाँ अनेक मार्ग मिलते हों वहाँ भटकने की भी संभावना हो सकती है लेकिन ये मोक्षमार्ग ऐसा है कि जहाँ पर अनेक मार्गों का काम ही नहीं है। अपने को पर-पदार्थों से हटा लेने और एकाकी बना लेने का ही मार्ग है। जो निषेध को समझ लेता है, वह विधि को सहज स्वयं ही समझ लेता है। पर-पदार्थों को 'पर' जानकर स्वयं की ओर आना सहज हो जाता है। यद्यपि आत्मा साक्षात् हमें देखने में नहीं आती किन्तु आगम के माध्यम से आत्मानुभूति संभव हो जाती है। केवलज्ञान के माध्यम से आत्माओं ने आत्मा का स्वरूप जाना/समझा। जिसका कोई आकार-प्रकार नहीं है, जिसकी किसी अन्य पदार्थ से तुलना नहीं की जा सकती, इन्द्रियों के द्वारा जिसे ग्रहण नहीं किया जा सकता, ऐसी उस आत्मा को हम कैसे ग्रहण करें? तो आचार्य कहते हैं कि सीधा सा रास्ता है, कि जो आत्म-स्वरूप से भिन्न है उसे छोड़ो। पूर्व दिशा ज्ञात हो जाये तो पश्चिम दिशा किधर है-यह पूछने की आवश्यकता नहीं रह जाती। ऐसे ही मुक्ति क्या चीज है, यह पूछने की कोई आवश्यकता नहीं है। मुक्ति चाहते हो तो बंधन है उससे बचो, उसे छोड़ो। आजादी पहले नहीं मिलती किन्तु बंधन के अभाव होने के उपरांत मिलती है। बंधन के साथ यदि अनुभूति होगी तो वह मुक्ति की अनुभूति नहीं होगी, बंधन की ही अनुभूति होगी।
जो बंधन को बंधन समझ लेता है, दुख का कारण जान लेता है और उससे बचने का प्रयास करता है वही आजादी को पाता है। उसे ही मुक्ति मिलती है। ज्ञान होने के उपरांत उस रूप आचरण भी होना चाहिए तभी उस ज्ञान की सार्थकता है।
एक व्यक्ति ने पूछा कि महाराज! हम लोगों के ऊपर आपदायें क्यों आती हैं ? ग्रहों का प्रभाव हम पर क्यों पड़ता है ? तो मैंने कहा भइया! बात यह है कि आपके पास दसवां ग्रह, परिग्रह हैं इसी कारण अन्य नौ ग्रहों का प्रभाव भी आपके ऊपर खूब पड़ता है। जो परिग्रह का विमोचन करके अपनी आत्मा में रम गया, उसके ऊपर बाह्य पदार्थों का प्रभाव नहीं पड सकता। वे समझ गये और हँसने लगे। बोले महाराज! बात तो सही है। परिग्रह की परिभाषा ही सही है कि ‘परि आसमन्तात् आत्मानं ग्रहणाति स परिग्रह:'। जो चारों ओर से आत्मा तो खींचता है, ग्रसित कर लेता है उसका नाम परिग्रह है। परिग्रह को आप नहीं खींचते बल्कि परिग्रह के माध्यम से आप ही खिंच जाते हैं। परिग्रह आपको निगल रहा है। परिग्रह को आप नहीं भोगते बल्कि परिग्रह के द्वारा आप ही भोगे जा रहे हैं। परिग्रह सेठ-साहूकार बन चुका है और आप उसके नौकर।
जिसके पास परिग्रह नहीं है, जिसने परिग्रह को छोड़ दिया है उसे कोई चिन्ता नहीं सताती। वह आनन्द की नींद लेता है। पर जिसके पास जितना ज्यादा परिग्रह है वह उतना ही बेचैन है। उसको न दिन में नींद है, न रात में। बड़े-बड़े धनी लोग अच्छे-अच्छे गद्दों पर भी रात भर सो नहीं पाते। उन्हें चिंता रहती है कि कहीं तिजोरी में बन्द धन-पैसा-सोना लुट न जाये। तिजोरी में बन्द सोना यद्यपि जड़ है, यही कारण है कि जड़/पुद्गल की सेवा में लगा हुआ वह चेतन स्वयं ही जड़ अर्थात् मूर्ख/अज्ञानी हो गया है। ज्ञानी तो वह है जिसको कषायों की आवश्यकता नहीं। जो परिग्रह का आश्रय नहीं लेता, वह तो मात्र अपनी आत्मा का ही आश्रय लेता है। यही कारण है कि वृषभनाथ मुनिराज ने सारे परिग्रह को छोड़ दिया और ज्ञानी होकर मात्र अपनी आत्मा के आश्रित हो गये हैं।
अध्यात्म-प्रेमी बंधुओ को समझना चाहिए कि सही रास्ता तो यही है। परिग्रह को जब तक पकड़ रखा है तब तक मुक्त होना संभव नहीं है। परिग्रह को छोड़े बिना ध्यान होना भी संभव नहीं है। आचार्य शुभचन्द्र स्वामी ने ज्ञानार्णव में कहा है कि-
अनिषियाक्षसंदोहं यः साक्षात् मोक्तुमिच्छति।
विदारयति दुर्बुद्धिः शिरसासमहीधरम् ॥
ध्यान के माध्यम से ही आत्मानुभूति होती है। यदि कोई ध्यान को रत्नत्रय का आलम्बन लिये बिना, दिगम्बर हुए बिना ही साधना चाहे तो ध्यान रखना वह मस्तक के बल पर पर्वत को तोड़ने का व्यर्थ प्रयास कर रहा है। ऐसा करने पर पर्वत तो फूटेगा नहीं, उसका सिर जरूर फूट जायेगा। इसलिए भइया! साधना का जो क्रम है, जो विधि बताई गयी है उसी के अनुसार करोगे तभी मुक्ति मिलेगी। जब दोषों को निकालोगे तब गुण प्रकट होंगे। गुण कहीं बाहर से नहीं आयेंगे, वे तो दोषों के हटते ही अपने आप प्रकट हो जायेंगे। गुणों में ही तो दोष आये हैं, उन दोषों का अभाव होने पर गुणों का सद्भाव सहज ही हो जायेगा। स्वामी समन्तभद्राचार्य भगवान् की स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे भगवन्! आप अठारह दोषों से रहित हैं इसलिए मैं आपको नमस्कार कर रहा हूँ।
बंधुओ! सोचो, जिस परिग्रह का आज वृषभदेव मुनिराज त्याग कर रहे हैं उसे ही आप अपनाते जा रहे हैं तो मुक्ति कैसे मिलेगी ? आप ज्ञानी कैसे कहे जायेंगे ? रागपूर्वक संसार को ही अपनाते जाने वाला ज्ञानी नहीं कहला सकता। ज्ञानी तो वही है जो भूतकाल में भोगे गये पदार्थों का स्मरण तक नहीं करता और वर्तमान में भोगों के प्रति हेयबुद्धि रखता है। समयसार जैसे महान् ग्रन्थ में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है उसी का भावानुवाद
ना भूत की स्मृति अनागत की अपेक्षा, भोगोपभोग मिलने पर भी उपेक्षा।
ज्ञानी, जिन्हें विषय तो विष दीखते हैं, वैराग्य-पाठ उनसे हम सीखते हैं।
ऐसे ज्ञानी मुनिराज धन्य हैं जिनके दर्शन मात्र से संसारी प्राणी को वैराग्य का पाठ सीखने को मिलता है। यही ज्ञानी का लक्षण है। यही वीतराग सम्यकद्रष्टि का लक्षण है। स्व-समय का अनुभव करने वाला भी यही है।
परमट्ठो खलु समओ, सुद्धो जो केवली मुणी णाणी
तम्हिट्ठिदा सहावे, मुणिणा पावंति णिव्वाणां॥
परमार्थ कहो, निश्चय कहो, समय कहो, केवली कहो या मुनि कहो, ज्ञानी कहो- यह सब एकार्थवाची हैं। अर्थात् ज्ञानी वही है जो समय अर्थात् आत्मा में निहित है, शुद्ध में निहित है, मुनिपने में निहित है। ऐसा ज्ञानी ही निर्वाण को प्राप्त कर सकता है और इसके अलावा अन्य कोई ज्ञानी नहीं है। आज तो विज्ञान का युग है, प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको विज्ञानी मान रहा है लेकिन वास्तव में देखा जाये तो वह ज्ञानी नहीं है। भइया! भावों में ज्ञानीपना होना अलग बात है और मात्र नाम निक्षेप की अपेक्षा ज्ञानी होना अलग बात है। समयसार के अनुसार तो ज्ञानी पुरुष वही है जिसने बुद्धिपूर्वक विषयों का विमोचन कर दिया है, जो निष्परिग्रही है, जो अप्रमत है और अपनी आत्मा में लीन रहता है। विषयों के प्रति हेयबुद्धि का अर्थ ऐसा नहीं है कि जैसे आप लोग किसी के घर मेहमान बनकर जाते हैं तो भोजन करते समय यदि मिठाई परोसी जा रही हो तो आप, ‘बस-बस! अब नहीं चाहिए', कहते जाते हैं और खाते भी जाते हैं। हेयबुद्धि तो वह है जो वर्तमान में मिली भोग-सामग्री को भी छोड़ देता है। अतीत के भोगों की तो बात ही क्या ?
भोग-पदार्थों को ग्रहण कर लेने के बाद जो यह कहता है कि ये तो पुद्गल हैं, उसे समयसार में ज्ञानी नहीं कहा गया। सोचो! जब पुद्गल को पुद्गल ने ही खाया तो थाली पर खाने के लिए बैठने की जरूरत क्या थी ? और अगर निमन्त्रण देकर किसी ने आपको बुलाया और पेट भर नहीं खिलाया, आपके मन पसन्द नहीं खिलाया तो यह कहने की क्या आवश्यकता थी कि उनके यहाँ गये और उन्होंने ठीक से खिलाया भी नहीं। यह ज्ञानीपना नहीं है। जहाँ राग के साथ पदार्थों का ग्रहण किया जा रहा हो वहाँ विषयों का ही पोषण होता है। हाँ जहाँ पर राग नहीं है वहाँ पर विषयसामग्री होने पर भी उसे निर्विषयी कहा जायेगा। मुनि महाराज वीतरागी होकर पदार्थों का उपभोग करते हैं इसलिए वे भोक्ता नहीं कहलाते बल्कि ज्ञानी कहलाते हैं, निर्विषयी कहलाते हैं। सभी भोग्य पदार्थों का त्याग करने के उपरांत, पदार्थों के प्रति अनासक्त होकर मूलगुणों का पालन करते हुए आगम की आज्ञा के अनुसार वे पदार्थों को ग्रहण करते हैं इसलिए उन्हें ज्ञानी कहा गया है।
'पर' के प्रति राग का अभाव हो जाना ही ‘स्व' की ओर आना है। ‘पर” को 'पर' मानकर जब तक आप उसे नहीं छोड़ेगे तब तक स्व-समय की प्राप्ति सम्भव नहीं है। स्व-समय का स्वाद तभी आयेगा जब 'पर' का विमोचन होगा। ऐसे स्व-समय को प्राप्त करने वाले वृषभराज मुनिराज के चरणों में रागी भी नतमस्तक हो रहे हैं। आज तो वैराग्य का दिन है। तप का दिन है। त्याग का दिन है। मेरे पास कुण्डलपुर में यहाँ के कुछ लोग आये और कहा कि महाराज! पंचकल्याणक महोत्सव किशनगढ़ में होना है। आपकी उपस्थिति अनिवार्य है। उसके बिना काम नहीं चलेगा। आपको अवश्य आना है। मैंने कहा भइया! आप ले जाना चाहो तो ऐसे मैं किसी के कहने में आनेजाने वाला नहीं हूँ! हाँ इतना जरूर तय कर लो कि अगर मैं आ भी जाऊँ तो आप क्या करेंगे? सिर्फ कार्यक्रम होंगे, सभी लोग लाभ लेंगे, यह तो ठीक है लेकिन आप क्या करेंगे? सिर्फ कार्यक्रम आयोजित करेंगे या अपनी भी कुछ फिकर करेंगे? हम वहाँ आयें या न भी आयें पर आपको जो करना हो वह अभी कर ली, उसमें देर मत करो। सारा महोत्सव त्याग का ही है। इसलिए त्याग के लिये देर करना ठीक नहीं। वृषभनाथ मुनिराज तो मौन बैठे हैं। अपना कल्याण करने के लिये दीक्षा ले ली है। दूसरे की उन्हें फिकर भी नहीं करनी है। पर एक अनिवार्य के लिये तो स्वयं भगवान् की आज्ञा है कि वह उपदेश के माध्यम से लोगों को त्याग की प्रेरणा दें। दीक्षा के अवसर पर आप लोगों को कुछ न कुछ त्याग तो अवश्य ही करना चाहिए। 'स्व' का आलम्बन लेना ही जीवन है। ‘पर' का आलम्बन लेना, विषयों का आलम्बन लेना मृत्यु की ओर बढ़ना है। इसलिए आप लोगों को विषयों से ऊपर उठकर निर्विषयी बनकर अपना जीवन बिताने का प्रयास करना चाहिए। अधिक नहीं तो कम से कम त्याग के भाव तो करना ही चाहिए कि हे भगवन्। मैं कब सर्वपरिग्रह से मुक्त होकर अपनी आत्मा का अनुभव करूं । इस जीवन में आप लोगों को वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से जो थोड़ी शक्ति मिली है और ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जो थोड़ा ज्ञान प्राप्त हुआ है उसका सदुपयोग तो कर ही लेना चाहिए। सभी को शक्तितस्त्याग अर्थात् यथाशक्ति त्याग तो करना ही चाहिए।
दो प्रकार से व्रतों के ग्रहण की बात आचार्यों ने कही है -अणुव्रत और महाव्रत। अणुव्रतों का विस्तार भी बहुत लम्बा-चौड़ा है, जैसे एक रुपया को महाव्रत कहें तो एक पैसे से लेकर निन्यानवे पैसे तक सभी अणुव्रत रूप में कहे जायेंगे। व्रत कोई भी हो, छोटा नहीं होता। एक पैसे के बराबर भी यदि व्रत लिया जाये तो भी सार्थक है। व्रत-नियमों के संस्कार जीवन में डालतेडालते ही वह समय भी आ सकता है जबकि हम महाव्रतों को धारण करके स्व-समय को प्राप्त कर लें।
इस महान् तप-कल्याण के दिन हम अधिक क्या कहें ? हम तो यही भावना करते हैं कि हे भगवन्! हमें जो रास्ता मिला है वह निर्वाण होने तक छूटे नहीं। जो रेल हमने पकड़ी है वह एकदो स्टेशन बीच में भले ही रुक जाये, धीरे-धीरे भले ही पहुँचाये, पर जीवन में मुक्ति मिलनी चाहिए। भगवान् के जीवन को आदर्श बनाकर, उनके जीवन का आदर्श सामने रखकर हम भी अपने जीवन को सफल बनायें। कुन्दकुन्द स्वामी जैसे महान् आचार्यों के ग्रन्थों के माध्यम से हमारी आँखें खुल गयीं। हमें ज्ञात हो गया कि क्या कर्म है? क्या संसार है और क्या मुक्ति है? साथ ही आचार्य ज्ञानसागरजी जो मेरे गुरु महाराज थे, आप लोगों को उनका स्मरण तो होगा ही क्योंकि उनका अन्तिम समय अजमेर में ही बीता, उनके आशीर्वाद से मुझे यह ज्ञान और वैराग्य प्राप्त हुआ। उन सभी महान् आत्माओं का स्मरण हमेशा बना रहे इसी भावना से इन पंक्तियों द्वारा उनका स्मरण करता हू-
कुन्दकुन्द को नित नर्मू, हृदय कुन्दखिल जाय।
परम-सुगंधित महक में, जीवन मम घुल जाय॥