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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन पंचामृत 5 - मोक्ष : संसार के पार

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    हे कुन्दकुन्द मुनि! भव्य सरोज बन्धु, मैं बार-बार तव पाद-सरोज वन्दूँ।

    सम्यक्त्व के सदन हो समता सुधाम, है धर्मचक्र शुभ धार लिया ललाम॥

    आज एक संसारी प्राणी ने किस प्रकार बंधन से मुक्ति पाई और किस प्रकार पतन के गर्त से ऊपर उठकर सिद्धालय की ऊँचाइयों तक अपने को पहुंचाया- ये देखने/समझने का सौभाग्य इस पंचकल्याणक के अवसर पर हमें मिला। यह मुक्त दशा इसे आज तक प्राप्त नहीं हुई थी, आज ही प्राप्त हुई और बिना प्रयास के प्राप्त नहीं हुई बल्कि परम पुरुषार्थ के द्वारा प्राप्त हुई है। इससे यह भी ज्ञात हुआ कि संसारी जीव बंधन-बद्ध है और उसे बंधन से मुक्ति मिल सकती है, यदि वह पुरुषार्थ करें तो। वृषभनाथ का जीव अनादि-काल से संसार में भटक रहा था, उसे स्व-पद की प्राप्ति नहीं हुई थी। इसका कारण यही था कि इस भव्य जीव ने मोक्ष की प्राप्ति के लिये पुरुषार्थ नहीं किया था। लेकिन आज जो शक्ति अभी तक अव्यक्त रूप से उसमें विद्यमान थी, वह पुरुषार्थ के बल पर व्यक्त हुई है।


    कोई भी कार्य अपने आप नहीं होता। सोची, जब बंधन अपने आप नहीं होता तो मुक्ति कैसे अपने-आप हो जायेगी। चोर जब चोरी करता है तभी जेल जाता है, बंधन में पड़ता है। इसी प्रकार यह आत्मा जब राग-द्वेष, मोह करता है 'पर-पदार्थों' को अपनाता है, उनसे सम्बन्ध जोड़ता है और उनमें सुख-दुख का अनुभव करने लगता है तभी उनसे बंध जाता है। सभी सांसारिक सुख-दुख संयोगज हैं। पदार्थों के संयोग से उत्पन्न होते हैं। पदार्थों के संयोग से राग-द्वेष होता है जो आत्मा को विकृत करता है और संसारी जीव अपने संसार का निर्माण स्वयं करता जाता है। आज इस संसार रूपी जेल को तोड़कर छूट जाने का दिन है। ध्यान रखना, ये संसार रूपी जेल अपने आप नहीं टूटता, तोड़ा जाता है और जेल तोड़ने वाला, बंधन से छूटने वाला जेलर नहीं है, कैदी ही होता है। जेल को बनाने वाला भी कैदी ही है। जेलर तो मात्र देखता रहता है। इसी प्रकार संसारी प्राणी अपना संसार स्वयं निर्मित करता है, मुक्तात्मायें तो उनके बंधन को देखने-जानने वाला हो जाता है। हम भी यदि पुरुषार्थ करें तो नियम से इस संसार से मुक्त हो सकते हैं। यही आज हमें अपना ध्येय बनाना चाहिए।


    प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है, स्वतंत्र होना चाहता है किन्तु स्वतंत्रता के मार्ग को अपनाना नहीं चाहता। तब सोचो क्या यों ही बैठे-बैठे उसे आजादी/स्वतंत्रता मिल जायेगी? ऐसा कभी संभव नहीं है। एक राष्ट्र जब दूसरे राष्ट्र की सत्ता से मुक्त होना चाहता है तो उसे बहुत पुरुषार्थ करना होता है। आजादी की लड़ाई लड़नी होती है। उदाहरण के लिये भारतवर्ष को ही ले लें। आज से ३०-३२ साल पहले भारत के लोग परतंत्रता का अनुभव कर रहे थे। परतंत्रता के दुख को भोग रहे थे। तब धीरे-धीरे अहिंसा के बल पर अनेक नेताओं ने मिलकर देश को स्वतंत्रता दिलाई। लोकमान्य तिलक ने नारा लगाया कि 'स्वराज्य हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है'। लोगों के मन में यह बात बैठ गयी और परिणामस्वरूप भारत को स्वतंत्रता मिली। ठीक इसी प्रकार पराधीनता हमारा जीवन नहीं है, स्वतंत्रता ही हमारा जीवन है- ऐसा विश्वास जाग्रत करके जब हम बंधन को तोड़ेंगे तभी मुक्ति मिलेगी।


    जिस प्रकार दूध में घी अव्यक्त है। शक्ति-रूप में विद्यमान है उसी प्रकार आत्मा में शुद्ध होने की शक्ति विद्यमान है। उस शक्ति को अपने पुरुषार्थ के बल पर व्यक्त करना होगा। तभी हम सच्चे मुमुक्षु कहलायेंगे, भव्य कहलायेंगे। जो अभी वर्तमान में पुरुषार्थ नहीं करते वे भव्य होते हुए भी दूरान्दूर भव्य कहे जायेंगे। या दूर-भव्य कहे जायेंगे, आसन्न भव्य तो नहीं कहलायेंगे। एकाध पाषाण होता है जिसमें स्वर्ण शक्ति-रूप में तो रहता है लेकिन कभी भी उस पाषाण से स्वर्ण अलग नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार दूरान्दूर भव्य हैं जो भव्य होने पर भी वे अभव्य की कोटि में ही आते हैं क्यों कि शक्ति होते हुए भी कभी उसे व्यक्त नहीं कर पाते।


    उमास्वामी आचार्य ने तत्वार्थसूत्र में दसवें अध्याय में मोक्ष के स्वरूप का वर्णन किया है। उस मुक्त-अवस्था का क्या स्वरूप है - यह बतलाया है। उससे पूर्व नवें अध्याय में वह मुक्तअवस्था कैसे प्राप्त होगी-यह बात कही है। जिस प्रकार तुंबी मिट्टी का संसर्ग पाकर अपना तैरने वाला स्वभाव छोड़कर डूब जाती है और मिट्टी का संसर्ग पानी में घुल जाने के बाद फिर से हल्की होकर ऊपर तैरने लग जाती है, ऐसे ही यह आत्मा राग-द्वेष और पर-पदार्थों के संसर्ग से संसारसागर में डूबी हुई है। जो जीव पर-पदार्थों का त्याग कर देते हैं और राग-द्वेष हटाते हैं वे संसार सागर से ऊपर, सबसे ऊपर उठकर अपने स्वभाव में स्थित हो जाते हैं। दूध में जो घी शक्ति-रूप में विद्यमान है उसे निकालना हो तो ऐसे ही मात्र हाथ डालकर उसे निकाला नहीं जा सकता। यथाविधि उस दूध का मंथन करना होता है। मंथन करने के उपरांत भी नवनीत का गोला ही प्राप्त होता है जो कि छाछ के नीचे-नीचे तैरता रहता है। अभी उस नवनीत में भी शुद्धता नहीं आयी इसलिए वह पूरी तरह ऊपर नहीं आता। भीतर ही भीतर रह जाता है और जैसे ही नवनीत को तपा करके घी बनाया जाता है तब कितना भी उसे दूध या पानी में डालो वह ऊपर ही तैरता रहता है। ऐसी ही स्थिति कल तक आदिनाथ स्वामी की थी। वे पूरी तरह मुक्त नहीं हुए थे। जिस प्रकार अंग्रेजों से पन्द्रह अगस्त १९४७ को भारत वर्ष को आजादी/स्वतंत्रता तो मिल गई थी किन्तु वह स्वतन्त्रता अधूरी ही थी। देश को सही/पूर्ण स्वतन्त्रता तो २६ जनवरी १९५० को मिली थी जब देश अपने ही नियम-कानूनों के अन्तर्गत शासित हुआ। वैसे ही आदिनाथ प्रभु की स्वतन्त्रता अपूर्ण थी क्योंकि वे शरीर रूपी जेल में थे। आज पूरी तरह संसार और शरीर दोनों से मुक्त हुए हैं। शरीर भी जेल ही तो है। शरीर को फारसी भाषा में बदमाश कहा जाता है। शरीर शरीफ नहीं है बदमाश है। यदि इस शरीर का मोह छूट जाये तो जीव को संसार में कोई बाँध नहीं सकता।


    अत: बंधुओ! जितनी मात्रा में आप परिग्रह को कम करेंगे, शरीर के प्रति मोह को कम करेंगे, आपका जीवन उतना ही हल्का होता जायेगा, अपने स्वभाव को पाता जायेगा। जिस प्रकार नवनीत का गोला जब तक भारी था तभी तक अन्दर था, जैसे ही उसे तपा दिया तो वह हल्का हो गया। सुगंधित घी बन गया। अब नीचे नहीं जायेगा। अभी आप लोगों में से कुछ ऐसे भी हैं जो न घी रूप में है और न ही नवनीत के रूप में बल्कि दूध के रूप में ही हैं। संसारी जीव कुछ ऐसे होते हैं जो फटे हुए दूध के समान हैं जिसमें घी और नवनीत का निकलना ही मुश्किल होता है तो कुछ ऐसे जीव भी हैं जो कि भव्य जीव हैं, वे सुरक्षित नवनीत की तरह हैं जो समागम रूपी ताप के मिलने पर घी रूप में परिणत हो जायेंगे और संसार से पार हो जायेंगे। आप सभी को यदि अनन्त सुख को पाने की अभिलाषा हो तो परिग्रह रूपी भार को कम करते जाओ। जो पदार्थ जितना भारी होता है वह उतना ही नीचे जाता है। तराजू में भारी पलड़ा नीचे बैठ जाता है और हल्का ऊपर उठ जाता है। इसी प्रकार परिग्रह का भार संसारी प्राणी को नीचे ले जाने में कारण बना हुआ है। लौकिक दृष्टि से भारी चीज की कीमत भले ही ज्यादा मानी जाती हो लेकिन परमार्थ के क्षेत्र में तो हल्के होने का, पर-पदार्थों के भार से मुक्त होने का महत्व है। क्योंकि आत्मा का स्वभाव पर-पदार्थों से मुक्त होकर उध्र्वगमन करने का है।


    उमास्वामी आचार्य ने यह भी कहा है कि बहु-आरंभ और बहु-परिग्रह रखने वाला नरकगति का पात्र होता है। बहुत पुरुषार्थ से यह जीव मनुष्य जीवन पाता है लेकिन मनुष्य जीवन में पुन: पदार्थों में मूर्च्छा, रागद्वेषादि करके नरकगति की ओर चला जाता है। नारकी जीव से तत्काल नारकी नहीं बन सकता। तिर्यञ्च भी पांचवें नरक तक ही जा सकता है लेकिन कर्मभूमि का मनुष्य और उसमें भी पुरुष सातवें नरक तक चला जाता है। यह सब बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह के कारण ही होता है। बड़ी विचित्र स्थिति है। पुरुष का पुरुषार्थ उसे नीचे की ओर भी ले जा सकता है और यदि वह चाहे तो मोक्ष-पुरुषार्थ के माध्यम से लोक के अग्रभाग तक जाने की क्षमता रखता है। वह मुक्ति का मार्ग भी अपना सकता है और संसार में भटक भी सकता है। यह सब जीव के पुरुषार्थ पर निर्भर है, केवल पढ़ लेने से या उनके जानने मात्र से नहीं।


    पतन की ओर तो हम अनादि-काल से जा रहे हैं परन्तु उत्थान की ओर आज तक हमारी दृष्टि नहीं गयी। हम अपने स्वभाव से विपरीत परिणमन करते रहे हैं और अभी भी कर रहे हैं। इस विभाव या विपरीत परिणमन को दूर करने के लिये ही मोक्षमार्ग है। पाँच दिन तक आपने विभिन्न धार्मिक कार्यक्रम देखे, विद्वानों के प्रवचन सुने। ये सभी बातें विचार करके विवेकपूर्वक क्रिया में लाने की हैं। अपने जीवन को साधना में लगाना अनिवार्य है। जितना आप साधना को अपनायेंगे उतना ही कर्म से मुक्त होते जायेंगे। पापों से मुक्त होते जायेंगे। जैसे तुंबी मिट्टी का संसर्ग छोड़ते ही पानी के ऊपर आकर तैरने लगती है और उस पंक-रहित तुंबी का आलम्बन लेने वाला व्यक्ति भी पार हो जाता है वैसे ही हमारा जीवन यदि पापों से मुक्त हो जाता है तो स्वयं के साथ-साथ औरों को भी पार करा देता है। राग के साथ तो डूबना ही डूबना है। पार होने के लिये एकमात्र वीतरागता का सहारा लेना ही आवश्यक है। वर्तमान में सच्चे देव-गुरु–शास्त्र, जो छिद्र रहित और पंक रहित तुंबी के समान हैं उनका सहारा यदि हम ले लें तो एक दिन अवश्य पार हो जायेंगे।


    स्वाधीनता, सरलता, समता स्वभाव, तो दीनता, कुटिलता, ममता विभाव।
    जो भी विभाव धरता, तजता स्वभाव, तो डूबती उपल-नाव, नहीं बचाव ॥१॥

    स्वाधीनता, सरलता और समता ही आत्मा का स्वभाव है और राग-द्वेष, क्रोध आदि विभाव है। जो इस विभाव का सहारा लेता है वह समझो पत्थर की नाव में बैठ रहा है जो स्वयं तो डूबती ही है साथ ही बैठने वाले को भी डुबा देती है। आपको वीतरागता की, स्वभाव की उपासना करनी चाहिए। यदि आप वीतरागता की उपासना कर रहे हैं तो ये निश्चित समझिये कि आपका भविष्य उज्वल है। ये वीतरागता की उपासना कभी छूटनी नहीं चाहिए। भले ही आपके कदम आगे नहीं बढ़ पा रहे, पर पीछे भी नहीं हटना चाहिए। रागद्वेष के आँधी तूफान आयेंगे, बढ़ते कदम रुक जायेंगे लेकिन जैसे ही रागद्वेष की आँधी जरा धीमी हो, एक-एक कदम आगे रखते जाइये, रास्ता धीरेधीरे पार हो जायेगा।


    आज तो बड़े सौभाग्य का दिन है, भगवान् को निर्वाण की प्राप्ति हुई। एक दृष्टि से देखा जाये तो उसका जन्म भी हुआ। शरीर की अपेक्षा मरण कहो तो कोई बात नहीं, लेकिन जिसका अनंतकाल तक नाश नहीं होगा ऐसी मोक्ष अवस्था का जन्म भी आज ही हुआ है। अजर-अमर पद की प्राप्ति उन्हें हुई है। संसार छूट गया, वे मुक्त हो गये हैं। मैं भी ऐसी प्रार्थना/भावना करता हूँ कि मुझे भी अपनी ध्रुव-सत्ता की प्राप्ति हो। मैं भी पुरुषार्थ के बल पर अपने अजर-अमर आत्म-पद को प्राप्त करूं ।
     


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