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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन प्रदीप 3 - दर्शन - प्रदर्शन

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    यदि हमें महावीर भगवान् बनना है तो पल-पल उनका चिन्तन करना आपेक्षित है। यह महावीर जयन्ती का आयोजन भले ही चौबीस घंटे के लिए हो, यदि यह महावीर बनने के लिए है तो सार्थक है। ऐसे ही यदि आप वर्ष का प्रत्येक दिन महावीर भगवान् के लिए समर्पित कर दें तो फिर महावीर बनने में देर नहीं लगेगी। अर्थ यह हुआ कि जितना-जितना समय आप भगवान के लिए, उनके गुण स्मरण के लिए निकालेंगे उतना ही, उनकी ओर बढ़ सकेंगे। मात्र उनका जयजयकार ही पर्याप्त नहीं है।


    भगवान् महावीर के दर्शन में प्रदर्शन के लिए कोई स्थान नहीं है कारण यही है कि दर्शन अपने लिए है, अपनी आत्मा की उन्नति के लिए है, आत्मा की अनुभूति के लिए है। दर्शन का अर्थ है देखना लेकिन प्रदर्शन में तो मात्र दिखाना ही है देखना 'स्व' का होता है और दिखाने में कोई दूसरा होता है। आज तक संसारी प्राणी की सभी क्रियाएँ देखने के लिए न होकर दिखाने के लिए होती आयी हैं प्रत्येक व्यक्ति इसी में धर्म मान रहा है वह सोचता है कि मैं दूसरे को समझा दूँ यह प्रक्रिया अनादि काल से क्रमबद्ध तरीके से चली जा रही है यदि ऐसी क्रमबद्धता दर्शन के विषय में होती तो उद्धार हो जाता।


    व्यक्ति जब दार्शनिक बन जाता है तो वह हजारों दार्शनिकों की उत्पति में निमित्त कारण बन जाता है और जब एक व्यक्ति प्रदर्शक बन जाता है तो सब ओर प्रदर्शन प्रारम्भ हो जाता है। प्रदर्शन की प्रक्रिया बहुत आसान है, देखा-देखी जल्दी होने लगती है, उसमें कोई विशेष आयाम की आवश्यकता नहीं है, प्रदर्शन के लिए शारीरिक, शाब्दिक या बौद्धिक प्रयास पर्याप्त है लेकिन दर्शन के लिए एकमात्र आत्मा की ओर आत्मा ही पर्याप्त है। दर्शन तो विशुद्ध अध्यात्म की बात है।


    महावीर भगवान् ने कितनी साधना की, वर्षों तप किया लेकिन दिखावा नहीं किया, ढिंढोरा नहीं पीटा। जो कुछ किया अपने आत्म-दर्शन के लिए किया। सब कुछ पा लेने के बाद भी यह नहीं कहा कि मुझे बहुत कुछ मिला। प्रदर्शन करने से दर्शन का मूल्य कम हो जाता है, उसका सही मूल्यांकन तो यही है कि दर्शन को दर्शन ही रहने दिया जाये, जब प्रदर्शन के साथ दिग्दर्शन भी होने लगता है तो उसका मूल्य और भी कम हो जाता है, प्रदर्शन का मूल्य भी हो सकता है लेकिन उसके साथ दर्शन भी हो, जिसने स्वयं नहीं किया वह दूसरे को क्या करवा सकेगा।


    आज खान-पान, रहन-सहन आदि सभी में प्रदर्शन बढ़ता जा रहा है, आपका श्रृंगार भी दूसरे पर आधारित है, दूसरा देखने वाला न हो तो श्रृंगार व्यर्थ मालूम पड़ता है। दर्पण देखते हैं तो दृष्टिकोण यही रहता है कि दूसरे की दृष्टि में अच्छा दिखाई पड़ सकें, इस तरह आपका जीवन अपने लिए नहीं दूसरे को दिखाने के लिए होता जा रहा है, सोचिये, अपने लिए आपका क्या है ? आपकी कौन-सी क्रिया अपने लिए होती है ? सारी दुनियाँ प्रदर्शन में बहती चली जा रही है। जीवन में आकुलता का यह भी एक कारण है।


    महावीर भगवान् का दर्शन तो निराकुलता का दर्शन है, वह अनुभूतिमूलक है, प्रदर्शन में जो अनुभूत हो चुका है, पराया ज्ञान कार्यकारी नहीं है, अपना अनुभूत ज्ञान ही कार्यकारी है। हमारे लिए जो ज्ञान, कर्म के क्षयोपशम से मिला है, वही ज्ञान सब कुछ है। भगवान् का केवलज्ञान निमित बन सकता है लेकिन उस ज्ञान के साथ हमारे अनुभव का पुट नहीं है, उनका अनन्त ज्ञान क्षायिक ज्ञान है और हमारा क्षयोपशम ज्ञान है जो सीमित है। अनन्त ज्ञान हमारे लिए पूज्य है, हम उसे नमस्कार कर कह देते हैं कि 'वन्दे तद्गुण लब्धये' आपके गुणों की प्राप्ति के लिए आपको प्रणाम करते हैं। गुणों की प्राप्ति स्वयं की अनुभूति से ही होगी।


    स्वरूप का भान नहीं होने के कारण ऐसा हो रहा है कि अपने पास जो निधि है उसका दर्शन, उसका अनुभवन भी हमें नहीं हो पाता, सारा जीवन दूसरे के देखने-दिखाने में व्यतीत हो जाता है और हमारा ज्ञान अधूरा रह जाता है, जो व्यक्ति अपने जीवन को पूर्ण बनाना चाहता है वह दूसरे पर आधारित नहीं रहेगा, दूसरे का आलम्बन तो लेगा लेकिन लक्ष्य स्वावलम्बन का रखेगा। आज तक हमारा जीवन, हमारा ज्ञान अधूरा इसलिए रहा क्योंकि दूसरे के दर्शन करने और दूसरे के माध्यम से ही सुख पाने का हमारा लक्ष्य रहा। अभी तो कोई बात नहीं है, जो होना था वह तो हो गया, लेकिन आगे के लिए कम से कम उस ओर न जायें।


    आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा और अनुभव भी किया कि आत्मा वीतरागी है। हम रटने लगे कि आत्मा वीतरागी है, राग का अनुभव करते हुए मात्र आत्मा को वीतरागी कहने से काम नहीं चलेगा, हमारा यह ज्ञान ठोस नहीं माना जायेगा, वह उधार खाते का ज्ञान है, इसे अपनी अनुभूति बनाना होगा, वीतरागता को जीवन में अंगीकार करना होगा, वीतरागता प्रदर्शन की चीज नहीं है। कुन्दकुन्दाचार्य महाराज कहते हैं कि मैं जो कह रहा हूँ उसे शत प्रतिशत ठीक तभी मानना जब अपने अनुभव से तुलना कर लो क्योंकि मैं जो कह रहा हूँ वह अपने अनुभव की बात कह रहा हूँ।

     

    रत्नाकर कवि दक्षिण भारत के कवियों में मुकुट-कवि माने जाते हैं। भरतेश वैभव उनका श्रेष्ठ महाकाव्य माना गया है, उनका कहना है कि जो व्यक्ति दूसरे के माध्यम से जीवन व्यतीत कर रहा है वह तभी तक प्रशंसा कर सकता है जब तक उसे स्वयं अनुभव नहीं हुआ, अनुभव होने के उपरान्त वह जो वास्तविकता है उसे ही कहेगा। लेकिन आज तो जो व्यक्ति अपनी ओर जाता ही नहीं, देखता ही नहीं, अनुभव भी नहीं करता वह व्यक्ति भी अपने आत्मा का प्रदर्शन करने में लगा है। एक उदाहरण दिया है उन्होंने, एक कौआ था, वह पके हुए अंगूर खा रहा था। इतने में एक सियार वहाँ आया, उसने पूछा कि तुम क्या खा रहे हो? कौए ने कहा कि क्या कहूँ- बड़ा स्वाद आ रहा है, तुम भी यहाँ ऊपर आ जाओ तो मजा आ जायेगा, अंगूर ऐसे पके कि बस कहने की फुरसत ही नहीं है, नीचे गिराऊँगा तो ठीक नहीं है, नीचे धूल है, ऊपर ही आ जाओ।


    सियार ने अंगूर की प्रशंसा सुन ली, उसे खाने की इच्छा भी हो गयी, लेकिन वह ऊपर कैसे जाता, उसने तीन-चार बार छलाँग भी लगा ली, जब चौथी बार भी असफलता हाथ आयी तब उसने कह दिया कि अंगूर खट्टे हैं। यही हाल हमारा है, अनुभूति नहीं है, मात्र कहा जा रहा है, प्रदर्शन हो रहा है, सैकड़ों उदाहरण प्रदर्शन के हैं। सभा में फोटो खींची गयी हो और उसमें अपना फोटो नहीं हो तो उस सारी फोटोग्राफी का कोई मूल्य नहीं है। एक व्यक्ति कमीज का कालर इधरउधर कर रहे थे, हमने सोचा, कोई कीड़ा वगैरह चला गया होगा, पर वहाँ कीड़ा नहीं था, वे गले में पहनी हुए चैन दिखाना चाह रहे थे, ‘चैन' दिखाये बिना चैन नहीं आ रहा था। चैन के माध्यम से जो सुख-चैन ढूँढ़ रहा है वह पराश्रित है, उसे कभी सुख नहीं मिल सकता।


    सुख की अनुभूति अपने ऊपर निर्धारित है, दूसरा कोई हमें सुख नहीं दे सकता। अनन्त चतुष्टय को धारण करने वाले भगवान् भी हमें अपना सुख नहीं दे सकते, स्व-पर का भेद-विज्ञान यही है। सम्यग्दृष्टि कम हैं, मिथ्यादृष्टि की संख्या अनन्त है। कोई कुछ भी कहे, हम अपने संसार के अभाव का प्रयत्न करें, सारे संसार की चिन्ता न करें। दिग्दर्शन वही कर सकता है जो स्वयं का दर्शन करता है। कुन्दकुन्द स्वामी ने लिखा है कि 'चुकेज्ज छलंण घेतत्वं' समयसार का दिग्दर्शन मैं आप लोगों को करवा रहा हूँ यदि चूक जाऊँ तो छल ग्रहण मत करना, अपनी अनुभूति से उसका मिलान कर लेना। पंचास्तिकाय भी उनका ही प्राकृत ग्रन्थ है। जयसेनाचार्य ने उसकी टीका में उल्लेख किया है कि 'श्रुत का पार नहीं है, काल बहुत अल्प है और हम दुर्मति वाले हैं, अल्पज्ञ हैं, इसलिए वही उतना ही सीख लेना चाहिए जिसके माध्यम से हमारा जन्म-मरण का जो रोग है वह दूर किया जा सके।” यही भाव कुन्दकुन्द स्वामी ने नियमसार के अन्त में भी दिया है। ‘नाना कम्मा, नाना जीवा'- कि नाना जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म हैं बहुत प्रकार की उपलब्धियाँ हैं, अनेक प्रकार के चिन्तन हैं, अनेकमत हैं इसलिए व्यर्थ वचन-विवाद में नहीं पड़ना चाहिए। अनुभूति और दर्शन को महत्व देना चाहिए, प्रदर्शन ठीक नहीं है। आचार्यों ने आत्म-कल्याण के ऐसे-ऐसे उदाहरण दिये हैं कि मैं कह नहीं सकता, उनकी उदारता का वर्णन वचनों में संभव नहीं है।


    चुनाव करने वाले आप हैं, प्रदर्शन आपको बहुत अच्छा लग रहा है किन्तु ध्यान रखिये कि सारा प्रदर्शनमय जीवन निरर्थक है। प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है, आप जैसा जीना चाहें जी सकते हैं, चूँकि आत्मोन्नति और आत्मोपलब्धि दर्शन से ही संभव है। इसलिए अपने जीवन को स्वयं संभालने का प्रयास करिये ।


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    सुख की अनुभूति अपने ऊपर निर्धारित है, दूसरा कोई हमें सुख नहीं दे सकता। अनन्त चतुष्टय को धारण करने वाले भगवान् भी हमें अपना सुख नहीं दे सकते, स्व-पर का भेद-विज्ञान यही है। सम्यग्दृष्टि कम हैं, मिथ्यादृष्टि की संख्या अनन्त है।

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