ज्ञान विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- वह सबसे कमजोर ज्ञान माना जाता है जो प्रत्येक ज्ञेय से चिपक जाता है।
- ज्ञानी ज्ञेय को जानते हुए भी ज्ञेयरूप नहीं होता और ज्ञेय को अपनाता भी नहीं है।
- सीमा रेखा का उल्लंघन ज्ञेय नहीं ज्ञान करता है और सीमा रेखा का उल्लंघन करने वाला ज्ञान, ज्ञान नहीं अज्ञान माना जाता है।
- ज्ञेय हमेशा-हमेशा ज्ञेय बना रहता है और ज्ञायक, ज्ञायक बना रहता है, वस्तु वही रहती है, बस हमारा उपयोग बदलता रहता है। दर्शक, दर्शक ही रहता है दृश्यमय नहीं होता।
- ज्ञेय तो ज्ञेय है, न हेय है, न उपादेय है बल्कि हमारा ज्ञान ही है जो ज्ञेय को हेय/उपादेय रूप स्वीकारता रहता है।
- ज्ञानी का स्वरूप यही है कि वह संसार कीचड़ में रहकर भी कीचड़पने को आत्मसात् नहीं करता ।
- ज्ञान के माध्यम से तीन लोक की यात्रा एक क्षण में की जा सकती है लेकिन वर्तमान में ज्ञान पर मोह की छाया पड़ी हुई है उसे हटाते ही तीन लोक दर्पण की भाँति झलकने लगता है।
- ज्ञेय में ज्ञान अटकने से भटकने लगता है। अटका सो भटका।
- उस दृष्टि का बड़ा महत्व होता है जो ज्ञेय में नहीं अटकती-जैसे गेंद दीवार पर जाकर वापस लौट आती है, बाण उसी में भिंदकर रह जाता है।
- जिस समय समझना चाहिए तभी समझ में आवे तो समझदार माना जाता है। सही ज्ञान का उपयोग यही है।
- ज्ञान का फल साक्षात् उपेक्षा है। उपेक्षा का अर्थ दूसरे का अनादर नहीं है बल्कि उप निकट रूपेण ईक्षणम्। उपेक्षा अर्थात् जिसके माध्यम से निकट से देखने की क्षमता आ जाती है, वह उपेक्षा है। दूसरे की उपेक्षा करने से दूसरे को कष्ट भी पहुँच सकता है।
- ये आठ कर्मों की शक्ति भी हमारी ज्ञान शक्ति को समाप्त नहीं कर सकती है यह स्वतंत्र सत्ता है।
- केवलज्ञान के सामने हमारा ज्ञान बच्चे के समान है।
- ज्ञान भी दान के रूप में प्रयुक्त होता है।
- ज्ञान को आत्मसात् करते जाओ, आचरण में ढालते जाओ तो प्रचार-प्रसार अपने आप होता चला जावेगा। ज्ञान को बढ़ाना नहीं है बल्कि मांजना है।
- ज्ञान जितना स्वाश्रित होगा उतना ही आकुलता का अभाव होता जावेगा। जितना योगों का स्पन्दन कम होगा, उतना ही हमारा ज्ञान स्वाश्रित होगा।
- अच्छे कार्य के लिए ज्ञान और क्रिया दोनों की मैत्री स्वीकारी है।
- ज्ञान प्रयोग करना नहीं सिखाता अंदर प्रयोग करने के भाव हों, तभी ज्ञान कार्यकारी होता है, वरन् ज्ञान खतरा पैदा करता है। ज्ञान शक्ति काम नहीं करती बल्कि काम में आती है।
- ज्ञान के माध्यम से यदि मात्र दूसरे को जानने का प्रयास करते हो तो वह ज्ञान कुछ कार्यकारी नहीं है।
- कुछ लोग जप कम करते हैं जल्प (बातें) ज्यादा करते हैं।
- ज्यादा जानने की, ज्ञान करने की आवश्यकता नहीं है मात्र एकत्व को जानना है।
- ज्ञान, शिक्षण या पुरुषार्थ से प्राप्त नहीं होता बल्कि श्रद्धा और समर्पण से प्राप्त होता है।
- पहले दीक्षा काल कहा है फिर शिक्षा काल लेकिन आज पहले ही ज्ञान, प्रवचन से जीवन प्रारम्भ करते हैं जिसके परिणाम ठीक नहीं निकलते।
- इन्द्रभूति का ज्ञान बहुत लम्बा चौड़ा था लेकिन संयम के अभाव में सम्यक्त्वपना प्राप्त नहीं था।
- दीक्षा होते ही मन:पर्ययज्ञान हो गया यह ज्ञान कहाँ से उत्पन्न हो गया, संयम की कृपा से।
- ज्ञान को सम्यक्त्वपना शिक्षण से प्राप्त नहीं होता बल्कि आस्था एवं समर्पण से प्राप्त होता है।
- ज्ञान के माध्यम से मोह को हटाने का प्रयास नहीं करते तो विकल्प छूट नहीं सकते।
- जो प्राप्त ज्ञान से मोह का हनन करता है, वही मुमुक्षु माना जाता है।
- मोह जैसे ही पूर्ण समाप्त होता है, वैसे ही पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है। अंधकार हटते ही,बादल हटते ही पूर्ण प्रकाश प्राप्त हो जाता है।
- मात्र ज्ञान को नमोऽस्तु नहीं किया जाता, बल्कि रत्नत्रय से युक्त ज्ञान को नमोऽस्तु किया जाता है।
- आत्मा के स्वरूप का ज्ञान जिसे हो जाता है, वह आत्मा के स्वरूप को पाने में लग जाता है, आत्मोन्नति की ओर बढ़ जाता है।
- ज्ञान सविकल्प होता है, मोह सहित होता है तो संसार का ही कारण होता है।
- मोह के अंधेरे में न धर्म दिखता है और न ही मुनि दिखते हैं, मात्र स्वार्थ दिखता है। जैसे सिंहनी ने पूर्व में अपने ही पुत्र मुनि सुकौशल का भक्षण किया था।
- सम्यक ज्ञान रूपी नेत्र के द्वारा ही हम अपने दोषों को दूर कर सकते हैं।
- मार्ग का ध्यान सम्यक ज्ञान के द्वारा रखा जाता है। स्वर्ग जाने के बाद भी यह सम्यक ज्ञान रखना विषयों में ज्यादा मत फसाना।
- ज्ञान का क्षयोपशम नहीं है तो दीन-हीन मत होना और ज्ञान का क्षयोपशम है तो अभिमान भी मत करना।
- ज्ञानी जीव इन आरोहण, अवरोहण की दशाओं में अपने परिणामों को संतुलित बनाये रखते हैं।
- ज्ञानी जीव अपने आपको छोड़कर दूसरे की नुताचीनी/आलोचना करने जाता ही नहीं, क्योंकि दूसरे की बुराई का उत्तर देने के लिए उसमें पास समय ही नहीं रहता।
- ज्ञानी का स्वभाव जानने का होना चाहिए, स्व को, पर को, क्रोध को, व बंध को भी लेकिन इन सबका वेदन नहीं करना चाहिए। क्योंकि ज्ञानी कर्म के उदय को मात्र जानता है, उसका वेदन नहीं करता। क्योंकि ऐसा किए बिना नूतन कर्म बंध होना रुक नहीं सकता।
- ज्ञानी को वस्तु ज्ञेय मात्र रह जाती है। वह उसे हेय, उपादेय मानकर ग्रहण नहीं करता।
- अतीत के साथ वर्तमान की तुलना करने से कहाँ-कहाँ गलती हुई है, यह ज्ञात हो जाता है।
- मुनियों का ज्ञान कर्म को जलाता रहता है और स्वयं ज्यों का त्यों बना रहता है।
- आज तक जो कुछ मेरे द्वारा आचरण किया गया है, वह ज्ञान आते ही अज्ञानतापूर्ण आचरण किया ऐसा प्रतीत होता है। जैसे बचपन की कृति बालबोध जैसी लगती है, परिपक्वता एकदम नहीं आती। जैसे गेंहू में शुरुआत में पानी निकलता है। फिर दूध आता है, परिपक्व होने पर आटा निकलता है, चने का होरा है तो उसमें आटा नहीं है, उसमें आटा हो रहा है इसलिए वह होरा है, (हो रहा) है।
- ज्ञान रूपी तलवार से कर्म शत्रु पर प्रहार करो और वैराग्य की ढाल से उसका बचाव करते रहो ।
- ज्ञान और तप साधना में प्रौढ़ता है, लेकिन जब तक साधना पूर्ण नहीं हो जाती तब तक भरोसा नहीं करना चाहिए। कभी-कभी किनारे पर जाकर किस्ती डूब जाती है।
- अधूरा जानना, देखना ही संसार परिभ्रमण का कारण बन रहा है।
- संसार में ज्ञान सबसे बड़ा है, क्योंकि पृथ्वी पर अनेक पदार्थ हैं और धरती वलयों पर आश्रित है। वलय आकाश में हैं और आकाश ज्ञान के एक कोने में है।
- जो विश्व को जानने की क्षमता रखते हैं, उन्हें विश्वविद्यालय में जाने की क्या आवश्यकता है। क्योंकि ज्ञान का क्षयोपशम विद्यालय में जाने से नहीं होता किन्तु जीवन को संयमित बनाने से होता है।
- मुझे कुछ नहीं आता, ज्ञान नहीं है, ऐसा कैसे बोला, ऐसा बोलना ही ज्ञान है। इस सामान्यज्ञान की धारा को निरंतर देखने से पर्याय गौण हो जाती है।
- हे आत्मन्! यदि तुम बुद्धिमान हो तो इस बात पर ध्यान दो कि आज तक जिसमें हित था उसे गौण किया और अहित को ही हित समझा, यदि इसमें सुख होता तो तीर्थंकर क्यों त्याग करते ?
- ज्ञान की प्रौढ़ता के अभाव में यह मन विषयों की ओर जाने को मचलता है।
- यदि सही-सही ज्ञान हो जाने पर भी आप विषय-भोग नहीं छोड़ते हो तो आपकी श्रद्धा पर प्रश्नचिह्न लग जाता है।
- जिसका मन विषयों में नहीं उलझता, कषाय नहीं करता उसका तप और ज्ञान पहुँचा हुआ माना जाता है।
- एक कुर्सी पर बैठा-बैठा कागज पर मात्र हस्ताक्षर कर देता है तो इतनी कमाई कर लेता है कि दिनभर मेहनत करने वाला भी नहीं कर पाता यह युक्ति की बात है, सम्यक ज्ञानी की बात है।
- लोकेषणा के बिना श्रुत का अध्ययन करो, श्रुत का अध्ययन मन को वश में करने के लिए तथा कर्मनिर्जरा के लिए किया जाता है, ख्याति, लाभ, पूजा के उद्देश्य से नहीं।
- श्रुतज्ञान का व्यवसाय करोगे तो वह सही फल नहीं देगा और भवान्तर में साथ नहीं जावेगा। भ्रांति के कारण हम एक पदार्थ को ग्रहण करते हैं, एक को छोड़ देते हैं, यह एक के प्रति राग हुआ और दूसरे के प्रति द्वेष।
- भ्रांति के कारण हम एक पदार्थ को ग्रहण करते है, और एक को छोड़ देते है, तो यह एक के प्रति राग हुआ और दुसरे के प्रति द्वेष | भ्रांति मिटते ही जीवन में ज्ञान का प्रकाश होते ही कुछ छोड़ने और ग्रहण करने का विकल्प रह ही नहीं जाता।
- तत्वज्ञान के माध्यम से जो प्रवृत्ति होती है, वह मोक्ष का कारण होती है।
- पदार्थ को पदार्थ के रूप में जानना ही सही ज्ञान माना जाता है, किसी से घृणा और किसी के प्रति आकर्षण नहीं होना चाहिए।
- भोगों का निमित्त लेकर स्वाध्याय करने का, ज्ञान प्राप्त करने का फल मलिनता ही है।
- ज्ञान रूपी अग्नि में भव्य रूपी मणि विशुद्ध होकर निकलती है, किन्तु अभव्य उस अग्नि में मलिन होकर या भस्म होकर ही निकलता है।
- ज्ञान के माध्यम से ऋद्धि, ख्याति, लाभ व पूजा की कामना नहीं करनी चाहिए।
- शोध छात्र अपने विषय को कभी भी प्रतिकूल अथवा नीरस नहीं समझता, वह उसी की वृद्धि में लगा रहता है। ज्ञान की आराधना थीसिस का काम करती है। अर्थ यह हुआ कि दर्पण नहीं देखना है बल्कि दर्पण में खुद को देखना है।
- प्रयोजन के अभाव में ज्ञान की क्या सार्थकता। ज्ञान की आराधना का अर्थ है कि कर्म बंध से छूटने का उपाय करना। समीचीन देखना/जानना ही ज्ञान की आराधना है।
- ज्ञान दशा में अंतर्मुहुर्त में ही सब कुछ छोड़ दिया जाता है और उस ज्ञानी को अंतर्मुहुर्त में ही केवलज्ञान हो जाता है।
- अज्ञान दशा में कभी भी वस्तु का स्वरूप समझ में नहीं आ सकता।
- ज्ञेय चिपमें, ज्ञान चिपकाता है, सो स्मृति हो आती।
- जिन पदार्थों से स्वामित्व है, उन्हें छोड़कर फिर सभी पदार्थों से ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध रखना ही मुमुक्षुपना है।
- वयोवृद्ध होने से पहले आत्महितैषी को ज्ञानवृद्ध एवं तपोवृद्ध हो जाना चाहिए।
- ज्ञान प्राप्त होने पर भी यदि यह जीव प्रमाद करता है तो संसार में ही भटकता रहता है।
- ज्ञान का सदुपयोग करो, दीपक लेकर कुएँ में मत गिरो।
- आज अध्यात्म पढ़कर व्यवसायीकरण हो रहा है यह विद्या अध्ययन का आदर्श नहीं है।
- सम्यक ज्ञान ऐसा टिकिट है, आप जिस स्टेशन (गति) पर उतरोगे वहाँ सम्मान होगा।
- सम्यक ज्ञान प्राप्त करने का उद्देश्य यही है कि राग-द्वेष, मोह को कम करते चले जाना।
- यदि सम्यक ज्ञान के द्वारा दोषों का उन्मूलन नहीं होता तो ऐसे ज्ञान पर प्रश्नचिह्न लग जाता है।
- ज्ञान का फल, अज्ञान का नाश, पाप की हानि और व्रतों का ग्रहण फिर निर्विकल्प समाधि में लीन होना ही समीचीन माना गया है।
- अनुभव वृद्ध, ज्ञानवृद्ध आत्मा को किसी के सहारे की जरुरत नहीं होती, क्योंकि जीवन में प्रयोग करने के बाद ही अनुभव आते हैं।
- जो यह सोचते हैं कि पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के बाद संयम लूँगा, ऐसा सोचने वाले को ज्ञात कर लेना चाहिए कि पूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञान है जो कि संयम के बिना प्राप्त नहीं हो सकता।
- संयम धारण करने के लिए पूर्ण ज्ञान की आवश्यकता नहीं है, बल्कि जितना संयम के लिए ज्ञान पर्याप्त है, उतना कर लो फिर संयम ग्रहण कर लो। पूर्ण ज्ञान केवलज्ञान प्राप्त हो जायेगा।
- मति, श्रुतज्ञान ही मोक्षमार्ग में कार्यकारी है, वैसे तो मतिज्ञान ही पर्याप्त है, क्योंकि श्रुतज्ञान तो उसके पीछे-पीछे चलता है। जैसे गाय जहाँ जाती है, बछड़ा भी उसके पीछे-पीछे चला ही जाता है।
- जिसका जितना गहरा (प्रौढ़) तत्व ज्ञान होगा उसकी उतनी ही अधिक मन की स्थिरता होगी।
- ज्ञान परीषह के द्वारा जितनी निर्जरा होती है, उतनी ही निर्जरा अज्ञान परीषह सहन करने से होती है।
- ज्ञान की धारा कभी भी टूटती नहीं है, उसका परिणमन वैकालिक चलता ही रहता है।
- ज्ञान की सार्थकता तभी है, जब वह देखने/जानने के अलावा और कुछ राग-द्वेष रूप परिणमन न करे।
- जिस वस्तु के प्रति कोई भी रुचि नहीं रहती उसी से ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध बनता है।
- ज्ञानाभ्यास में दिन काल की एक कणिका भी व्यर्थ मत गवाओ।
- जिस ज्ञान के द्वारा हाथ की रेखाओं की भाँति विश्व देखने में आ जाता है, उस ज्ञान को ही केवलज्ञान कहते हैं।
- ज्ञानाचार की आराधना से तीनों लोक में कीर्ति फैल जाती है।